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प्रमेय - खण्ड ६७
चार्वाक शरीर को ही आत्मा मानता था और औपनिषद ऋषिगण आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे । भगवान् बुद्ध को इन दोनों मतों में दोष तो नजर आया, किन्तु वे विधिरूप से समन्वय न कर सके । जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय उपर्युक्त प्रकार से भेद और अभेद दोनों पक्षों का स्वीकार कर के किया । जीव की नित्यानित्यता :
मृत्यु के बाद तथागत होते हैं कि नहीं इस प्रश्न को भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में रखा है, क्योंकि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि ब्रह्मचर्य के लिए नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिजा, संबोध और निर्वाण के लिए भी नहीं" ।
आत्मा के विषय में चिन्तन करना यह भगवान् बुद्ध के मत से अयोग्य है । जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्ध ने अयोनिसो मनसिकार'- विचार का अयोग्य ढंग - कहा है, वे ये हैं- " मैं भूतकाल में था कि नहीं था ? मैं भूतकाल में कैसा था ? मैं भूतकाल में क्या होकर फिर क्या हुआ ? मैं भविष्यत् काल में होऊँगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् काल में क्या होऊँगा ? मैं भविष्यत् काल में कैसे होऊँगा ? मैं भविष्यत् काल में क्या होकर क्या होऊँगा ? मैं हूँ कि नहीं ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसे हूँ ? यह सत्त्व कहाँ से आया ? यह कहाँ जाएगा ?"
भगवान् बुद्ध का कहना है, कि अयोनिसो मनसिकार' से नये आस्रव उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आस्रव वृद्धिंगत होते हैं । अतएव इन प्रश्नों के विचार में लगना साधक के लिए अनुचित है ।
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इन प्रश्नों के विचार का फल बताते हुए भगवान् बुद्ध ने कहा है कि 'अयोनिसो मनसिकार' के कारण इन छह दृष्टिओं में से कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है । उसमें फँसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा-मरणादि से मुक्त नहीं होता
४० संयुत्तनिकाय XVI 12; XXII 86; मज्झिमनिकाय चूलमालुंक्यसुत्त ६३. ४ मज्झिमनिकाय - सब्बासवसुत्त. २.
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