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आगम-युग का जैन-दर्शन
भगवान बुद्ध के विभज्यवाद की तुलना में और भी कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, किन्तु इतने पर्याप्त हैं । इस विभज्यवाद का मूलाधार विभाग करके उत्तर देना है, जो ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है। असली बात यह है कि दो विरोधी बातों का स्वीकार एक सामान्य में करके उसी एक को विभक्त कर के दोनों विभागों में दो विरोधी धर्मों को संगत बताना, इतना अर्थ इस विभज्यवाद का फलित होता है । किन्तु यहाँ एक बात की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है । भगवान् बुद्ध जब किसी का विभाग करके विरोधी धर्मों को घटाते हैं और भगवान् महावीर ने जो उक्त उदाहरणों में विरोधी धर्मों को घटाया है, उस से स्पष्ट है कि वस्तुतः दो विरोधी धर्म एक काल में किसी एक व्यक्ति के नहीं, बल्कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हैं। विभज्यवाद का यही मूल अर्थ हो सकता है, जो दोनों महापुरुषों के वचनों में एक-रूप से आया है।
किन्तु भगवान् महावीर ने इस विभज्यवाद का क्षेत्र व्यापक बनाया है। उन्होंने विरोधी धर्मों को अर्थात् अनेक अन्तों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षा भेद से घटाया है। इसी कारण से विभज्यवाद का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद हुआ और इसी लिए भगवान् महावीर का दर्शन आगे चलकर अनेकान्तवाद के नाम से प्रतिष्ठित हुआ।
तिर्यकसामान्य की अपेक्षा से जो विशेष व्यक्तियाँ हों, उन्हीं में विरोधी धर्म का स्वीकार करना, यह विभज्यवाद का मूलाधार है, जब कि तिर्यग् और ऊर्ध्वता दोनों प्रकार के सामान्यों के पर्यायों में विरोधी धर्मों का स्वीकार करना यह अनेकान्तवाद का मूलाधार है । अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। अतएव जैन दार्शनिकों ने अपने वाद को जो अनेकान्तवाद के नाम से ही विशेष रूप से प्रख्यापित किया है, वह सर्वथा उचित ही हुआ है । अनेकान्तवाद :
भगवान् महावीर ने जो अनेकान्तवाद की प्ररूपणा की है, उसके मूल में तत्कालीन दार्शनिकों में से भगवान् बुद्ध के निषेधात्मक दृष्टिकोण
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