________________
४८
आगम-युग का जैन- दर्शन
'क्या भगवन् गौतम ! दुःख स्वकृत है ? '
'काश्यप ! ऐसा नहीं है ।'
'क्या दुःख परकृत है ? '
'नहीं
।'
'क्या दुःख स्वकृत और परकृत है ?"
नहीं ।'
'क्या अस्वकृत और अपरकृत दुःख है ? '
'नहीं ।'
'तब क्या है ? आप तो सभी प्रश्नों का उत्तर नकार में देते हैं, ऐसा क्यों ?"
1
'दुःख स्वकृत है ऐसा कहने का अर्थ होता है कि जिसने किया वही भोग करता है । किन्तु ऐसा कहने पर शाश्वतवाद का अवलंबन होता है । और यदि ऐसा कहूँ कि दुःख परकृत है तो इसका मतलब यह होगा कि किया किसी दूसरे ने और भोग करता है कोई अन्य । ऐसी स्थिति में उच्छेदवाद आ जाता है । अतएव तथागत उच्छेदवाद और शाश्वत - वाद इन दोनों अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग का - प्रतीत्यसमुत्पाद का उपदेश देते हैं कि अविद्या से संस्कार होता है, संस्कार से विज्ञान स्पर्श से दुःख ``````इत्यादि ” – संयुत्तनिकाय XII 17. XII 24
तात्पर्य यह है कि संसार में सुख-दुःख आदि अवस्थाएँ हैं, कर्म है, जन्म है, मरण है, बन्ध है, मुक्ति है- ये सब होते हुए भी इनका कोई स्थिर आधार आत्मा हो, ऐसी बात नहीं है, परन्तु ये अवस्थाएँ पूर्वपूर्व कारण से उत्तर - उत्तर काल में होती हैं और एक नये कार्य को, एक नई अवस्था को उत्पन्न करके नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार संसार का चक्र चलता रहता है । पूर्व का सर्वथा उच्छेद भी इष्ट नहीं और ध्रौव्य भी इष्ट नहीं । उत्तर पूर्व से सर्वथा असंबद्ध हो, अपूर्व हो, यह बात भी नहीं किन्तु पूर्व के अस्तित्व के कारण ही उत्तर होता है। पूर्व की सारी शक्ति उत्तर में आ जाती है । पूर्व का सब संस्कार उत्तर को मिल जाता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org