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प्रमेव खण्ड
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किसी के मत से असत् से ही सत् की उत्पत्ति हुई है । कोई कहता है -प्रारम्भ में मृत्यु का ही साम्राज्य था, अन्य कुछ भी नहीं था। उसी में से सष्टि हई। इस कथन में भी एक रूपक के जरिये असत् से सत् की उत्पत्ति का ही स्वीकार है। किसी ऋषि के मत से सत् से असत् हुआ और वही अण्ड वन कर सृष्टि का उत्पादक हुआ ।
इन मतों के विपरीत सत्कारणवादियों का कहना है कि असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? सर्व प्रथम एक और अद्वितीय सत् ही था। उसी ने सोचा मैं अनेक होऊँ । तब क्रमशः सृष्टि की उत्पत्ति हुई है।
सत्कारणवादियों में भी ऐकमत्य नहीं। किसी ने जल को, किसी ने वायु को, किसी ने अग्नि को, किसी ने आकाश को और किसी ने प्राण को विश्व का मूल कारण माना है । २
इन सभी वादों का सामान्य तत्त्व यह है कि विश्व के मूल कारणरूप से कोई आत्मा या पुरुष नहीं है । किन्तु इन सभी वादों के विरुद्ध अन्य ऋषियों का मत है कि इन जड़ तत्त्वों में से सृष्टि उत्पन्न हो नहीं सकती, सर्वोत्पत्ति के मूल में कोई चेतन तत्त्व कर्ता होना चाहिए।
___ "असदा इवमन आसीत् । ततो वै सदजायत"।-तैत्तिरी० २.७
५ "नवेह किंचनाग्र आसीन्मृत्युनवेदमावृतमासीत्".-बृहबा० १.२.१
१० आदित्यो ब्रह्मत्यादेशः। तस्योपल्यानम् । असदेवेवमग्र आसीत् । तत् सदासीत् । तत् समभवत् । तदाण्डं निरवर्तत ।" छान्दो० ३.१ ६.१ ____११ "सदेव सोम्येदमग्र आसोदेकमेवाद्वितीयम् । तेक आहुरसदेवेदमन आसीदेकमेवाद्वितीयम् । तस्मादसतः सज्जायत । कुतस्तु खलु सोम्य एवं स्यादिति होवाच कथमसत: सज्जायतेति । सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीत् एकमेवाद्वितीयम् । तवक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति"-छान्दो० ६.२.
१२ बृहदा० ५.५.१. छान्दो० ४.३. कठो० २.५.६. छान्दो० १.६.१. । १.११.५. । ४.३.३. । ७.१२.१.
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