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आगम-साहित्य की रूप-रेखा
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उन्होंने १२ वर्ष के लिए विशेष प्रकार के योगमार्ग की साधना की थी, और वे उस समय नेपाल में थे। अतएव संघ ने स्थूलभद्र को अनेक साधुओं के साथ दृष्टिवाद की वाचना लेने के लिए भद्रबाहु के पास भेजा। उनमें से दृष्टिवाद को ग्रहण करने में केवल स्थूलभद्र ही समर्थ सिद्ध हुए । उन्होंने दशपूर्व सीखने के बाद अपनी श्रुतलब्धि-ऋद्धि का प्रयोग किया। इसका पता जब भद्रबाहु को चला, तब उन्होंने आगे अध्यापन कराना छोड़ दिया । स्थूलभद्र के बहुत कुछ अनुनय-विनय करने पर वे राजी हुए किन्तु स्थूलभद्र को कहा, कि शेष चार पूर्व की अनुज्ञा मैं तुम्हें नहीं देता। तुमको मैं शेष चार पूर्व की सूत्र वाचना देता हूँ, किन्तु तुम इसे दूसरों को नहीं पढ़ाना ।२०
परिणाम यह हुआ, कि स्थूलभद्र तक चतुर्दशपूर्व का ज्ञान श्रमणसंघ में रहा । उनकी मृत्यु के बाद १२ अंगों में से ११ अंग और दशपूर्व का ही ज्ञान शेष रह गया। स्थूलभद्र की मृत्यु वीरनि० के २१५ वर्ष बाद (मतान्तर से २१६) हुई।।
___वस्तुतः देखा जाए, तो स्थूलभद्र भी श्रुतकेवली न थे। क्योंकि उन्होंने दशपूर्व तो सूत्रत: और अर्थतः पढ़े थे, किन्तु शेष चार पूर्व मात्र सूत्रत: पढ़े थे । अर्थ का ज्ञान भद्रबाहु ने उन्हें नहीं दिया था।
अतएव श्वेताम्बरों के मत से यही कहना होगा, कि भद्रबाहु की मृत्यु के साथ ही अर्थात् वीरात् १७० वर्ष के बाद श्रुत-केवली का लोप होगया। उसके बाद सम्पूर्णश्रत का ज्ञाता कोई नहीं हआ। दिगम्बरों ने श्रुतकेवली का लोप १६२ वर्ष बाद माना है। दोनों की मान्यताओं में सिर्फ ८ वर्ष का अन्तर है । आचार्य भद्रबाहु तक को दोनों की परंपरा इस प्रकार है
२० तित्थोगा०८०१-२. वीरनिर्वाणसंवत् और जैन कालगणना पृ० ६४. २१ आ० कल्याण विजयजी के मत से मृत्यु नहीं, किन्तु युग प्रभानस्व का अन्त,
देखो, वीरनि० पृ० ६२ टिप्पणी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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