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आगम- साहित्य की रूप-रेखा २१
विषय को लेकर शेष ग्रन्थों की सरल रचना होती है । इसी मत को मान करके यह कहा जाता है, कि गणधर सर्व प्रथम पूर्वों की रचना करते हैं, और उन्हीं पूर्वों के आधार से शेष अङ्गों की रचना करते हैं" ।
यह मत ठीक भी प्रतीत होता है । किन्तु इसका तात्पर्य इतना ही समझना चाहिए, कि वर्तमान आचारांग आदि से पहले जो शास्त्रज्ञान श्रुतरूप में विद्यमान था, वही पूर्व के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसी के आधार पर भगवान् महावीर के उपदेशों को ध्यान में रख कर द्वादशांग की रचना हुई, और उन पूर्वों को भी बारहवें अंग के एक देश में प्रविष्ट कर दिया गया । पूर्व के ही आधार पर जब सरल रीति से ग्रन्थ बने, तब पूर्वो के अध्ययन अध्यापन की रुचि कम होना स्वाभाविक है । यही कारण है, कि सर्वप्रथम विच्छेद भी उसी का हुआ ।
यह तो एक सामान्य सिद्धान्त हुआ । किन्तु कुछ ग्रन्थों और प्रकरणों के विषय में तो यह स्पष्ट निर्देश है, कि उनकी रचना अमुक पूर्व से की गई है । यहाँ हम उनकी सूची देते हैं- जिससे पता चल जाएगा, कि केवल दिगम्बर मान्य षट्खण्डागम और कषायप्राभृत ही ऐसे ग्रन्थ नहीं, जिनकी रचना पूर्वी के आधार से की गई है, किन्तु श्वेताबरों के आगमरूप से उपलब्ध ऐसे अनेक ग्रन्थ और प्रकरण हैं, जिनका आधार पूर्व ही है ।
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१. महाकल्प श्रुत नामक आचारांग के निशीथाध्ययन की रचना, प्रत्याख्यान पूर्व के तृतीय आचार वस्तु के बीसवें पाहुड से हुई है ।
२. दशकालिक सूत्र के धर्मप्रज्ञप्ति अध्ययन की आत्मप्रवाद पूर्व से, पिण्डेषणाध्ययन की कर्मप्रवाद पूर्व से, वाक्यशुद्धि अध्ययन की
ॐ विशेषा० गा० ५५१-५५२. बृहत्० १४५-१४६.
ॐ नन्दो चूर्णि पृ० ५६. आवश्यक निर्युक्ति २६२ ३. इसके विपरीत दूसरा मत सर्वप्रथम आचारांग की रचना होती है और क्रमशः शेष श्रंगों की - आचा० निर्यु०८, ६. श्राचा० चूर्णि पृ० ३. धवला पु० १, पृ० ६५.
३८ आचा० नि० २६१.
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