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आगम - साहित्य की रूप-रेखा २९
दूसरा नाम कालकाचार्य ( निगोदव्याख्याता ) है इनको वीरनिर्वाण सं ० ० ३३५ में युगप्रधान पद मिला है । और वे उस पद पर ३७६ तक बने रहे । इसी काल की रचना प्रज्ञापना है । अतएव यह रचना विक्रमपूर्व १३५ से ६४ के बीच की होनी चाहिए । शेष उपांगों के कर्ता का कोई पता नहीं । किन्तु इनके कर्ता गणधर तो नहीं माने जाते । अन्य स्थविर माने जाते हैं । ये सब किसी एक ही काल की रचना नहीं हैं ।
चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति इन तीन उपांगों का समावेश दिगम्बरों ने दृष्टिवाद के प्रथम भेद परिकर्म में किया है" । नन्दी सूत्र में भी उनका नामोल्लेख है । अतएव ये ग्रंथ श्वेताम्बरदिगम्बर के भेद से प्राचीन होने चाहिए। इनका समय विक्रम सं० के प्रारम्भ से इधर नहीं आ सकता । शेष उपांगों के विषय में भी सामान्यतः यही कहा जा सकता है । उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्ति में और सूर्य प्रज्ञप्ति में कोई विशेष भेद नहीं । अतः संभव है, कि मूल चन्द्रप्रज्ञप्ति विच्छिन्न हो गया हो ।
प्रकीर्णकों की रचना के विषय में यही कहा जा सकता है, कि उनकी रचना समय-समय पर हुई है । और अन्तिम मर्यादा वालभी वाचना तक खींची जा सकती है ।
छेदसूत्र में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की रचना भद्रबाहु ने की है अतएव उनका समय वीरनिर्वाण संवत् १७० से इधर नहीं हो सकता । विक्रम सं० ३०० के पहले वे बने थे । इनके ऊपर नियुक्ति भाष्य आदि टीकाएँ बनी हैं । अतएव इन ग्रंथों में परिवर्तन की संभावना नहीं है । निशीथसूत्र तो आचारांग की चूलिका है, अतएव वह भी प्राचीन है । किन्तु जीतकल्प तो आचार्य जिनभद्र की रचना है । जब पञ्चकल्प नष्ट हो गया, तब जीतकल्प, को छेद में स्थान मिला होगा । यह कहने की अपेक्षा यही कहना ठीक होगा, कि वह कल्पव्यवहार और निशीथ के सारसंग्रहरूप है । इसी आधार पर उसे छेद में
५० वीरनि० पु० ६४.
५१ धवला प्रस्तावना पु० २, पृ० ४३.
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