________________
आगम-युग का जैन-दर्शन
कर दिया । जो महत्वपूर्ण भेद थे, उन्हें पाठान्तर के रूप में टीकाचूर्णिओं में संगृहीत किया । कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचना में थे, वैसे के वैसे प्रमाण माने गए।"
२०
यही कारण है, कि मूल और टीका में हम 'वायणंतरे पुण' या 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' जैसे उल्लेख पाते हैं 3५ ।
यह कार्य वीरनिर्वाण सं० ६८० में हुआ और वाचनान्तर के अनुसार ६६३ में हुआ ।
वर्तमान में जो आगमग्रन्थ उपलब्ध हैं उनका अधिकांश इसी समय में स्थिर हुआ था ।
नन्दी सूत्र में जो सूची है, उसे ही यदि वलभी में पुस्तकारूढ़ सभी आगमों की सूची मानी जाए, तब कहना होगा, कि कई आगम उक्त लेखन के बाद भी नष्ट हुए हैं । विशेष करके प्रकीर्णक तो अनेक नष्ट हो गए हैं । केवल वीरस्तव नामक एक प्रकीर्णक और पिण्डनिर्युक्त ऐसे हैं जो नन्दीसूत्र में उल्लिखित नहीं हैं, किन्तु श्वेताम्बरों को आगमरूप से मान्य हैं ।
पूर्वो के आधार से बने ग्रन्थ :
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों के मत से पूर्वो का विच्छेद हो गया है, किन्तु पूर्वगत श्रुत का विषय सर्वथा लुप्त हो गया हो, यह बात नहीं । क्योंकि दोनों संप्रदायों में कुछ ऐसे ग्रन्थ और प्रकरण मौजूद हैं, जिनका आधार पूर्वों को बताया जाता है । दिगम्बर आचार्यों ने पूर्व के आधार पर ही षट्खण्डागम और कषायप्राभृत की रचना की है । यह आगे बताया जाएगा। इस विषय में श्वेताम्बर मान्यता का वर्णन किया जाता है ।
श्वेतांबरों के मत से दृष्टिवाद में ही संपूर्ण वाङ्मय का अवतार होता है, किन्तु दुर्बलमति पुरुष और स्त्रियों के लिए हो दृष्टिवाद के
३४ वही पु० ११२. ३५ वहीं पृ० ११६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org