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आगम-युग का जैन दर्शन
दिगम्बर २२
केवली - गौतम
सुधर्मा
१२ वर्ष
१२,,
३८
जम्बू श्रुतकेवली - विष्णु १४ नन्दिमित्र १६
अपराजित २२ गोवर्धन १६
भद्रबाहु
२६
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श्वेताम्बर
सुधर्मा २४
जम्बू
प्रभव
शय्यंभव
यशोभद्र
संभूतिविजय
भद्रबाहु
२० वर्ष ४४ ""
११
२३
५०
१४
17
37
33
17
11
१६२ वर्ष
१७० वर्ष
सारांश यह है, कि गणधर - ग्रथित १२ अंगों में से प्रथम वाचना के समय चार पूर्व न्यून १२ अंग श्रमणसंघ के हाथ लगे । क्योंकि स्थूलभद्र यद्यपि सूत्रतः सम्पूर्णश्रुत के ज्ञाता थे, किन्तु उन्हें चार पूर्व की वाचना दूसरों को देने का अधिकार नहीं था । अतएव तब से संघ में श्रुतकेवली नहीं, किन्तु दशपूर्वी हुए और अंगों में से उतने ही श्रुत की सुरक्षा का
प्रश्न था ।
अनुयोग का पृथक्करण और पूर्वो का विच्छेद :
श्वेताम्बरों के मत से दशपूर्वो की परंपरा का अंत आचार्य वज्र के साथ हुआ । आचार्यं वज्र की मृत्यु विक्रम ११४ में हुई अर्थात् वीरात् ५८४ | इसके विपरीत दिगम्बरों की मान्यता के अनुसार अन्तिम दशपूर्वी धर्मसेन हुए और वीरात् ३४५ के बाद दशपूर्वी का विच्छेद हुआ अर्थात् श्रुतकेवली का विच्छेद दिगम्बरों ने श्वेताम्बरों से आठ वर्ष पूर्व माना और दशपूर्वी का विच्छेद २३९ वर्ष पूर्व माना। तात्पर्य यह है, कि श्रुति- विच्छेद की गति दिगम्बरों के मत से अधिक तेज है ।
श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के मत से दशपूर्वधरों की सूची इस प्रकार है
२२ धवला पु० १ प्रस्ता० पू० २६.
२३ इण्डियन अॅक्टी० भा० ११ सप्टें० पु० २४५ - २५६. वीरनि० पृ० ६२. सुधर्मा केवल्यावस्था में आठ वर्ष रहे, उसके पहले छद्मस्थ के रूप में रहे.
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