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१२ आगम-युग का जैन दर्शन
अतः ब्राह्मणों की तरह जैनाचार्य और उपाध्याय अंग ग्रंथों की अक्षरशः सुरक्षा नहीं कर सके हैं । इतना ही नहीं, किन्तु कई सम्पूर्ण ग्रन्थों को भूल चुके हैं और कई ग्रंथों की अवस्था विकृत कर दी है । फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है, कि अंगों का अधिकांश जो आज उपलब्ध है, वह भगवान् के उपदेश से अधिक निकट है । उसमें परिवर्तन और परिवर्धन हुआ है, किन्तु समूचा नया ही मन गढ़न्त है, यह तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि जैन संघ ने उस संपूर्ण श्रुत को बचाने का बार-बार जो प्रयत्न किया है, उसका साक्षी इतिहास है ।
भूतकाल में जो बाधाएँ जैन श्रुत के नाश में कारण हुईं, क्या वे वेद का नाश नहीं कर सकती थीं ? क्या कारण है, कि जैनश्रुत से भी प्राचीन वेद तो सुरक्षित रह सका और जैनश्रुत संपूर्ण नहीं, तो अधिकांश नष्ट हो गया ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है ।
वेद की सुरक्षा में दोनों प्रकार की वंश परंपराओं ने सहकार एवं सहयोग दिया है । जन्म-वंश की अपेक्षा पिता ने पुत्र को और उसने अपने पुत्र को तथा विद्या- वंश की अपेक्षा गुरु ने शिष्य को और उसने अपने शिष्य को वेद सिखाकर वेदपाठ की परंपरा अव्यवहित गति से चालू रखी, किन्तु जैनागम की रक्षा में जन्म-वंश को कोई स्थान ही नहीं । पिता अपने पुत्र को नहीं, किन्तु गुरु अपने शिष्य को ही पढ़ाता है । अतएव विद्या- वंश की अपेक्षा से ही जैनश्रुत की परंपरा को जीवित रखने का प्रयत्न किया गया है । यही कमी जैनश्रुत की अव्यवस्था में कारण हुई है । ब्राह्मणों को अपना सुशिक्षित पुत्र और वैसा ही सुशिक्षित ब्राह्मण शिष्य प्राप्त होने में कोई कठिनाई नहीं होती थी, किन्तु जैन श्रमण के लिए अपना सुशिक्षित पुत्र जैन का अधिकारी नहीं, गुरु के पास तो शिष्य ही होता है, भले ही वह योग्य हो, या अयोग्य, किन्तु श्रुत का अधिकारी वही होता था और वह भी श्रमण हो तब । सुरक्षा एक वर्ण विशेष से हुई है, जिसका स्वार्थ उसकी सुरक्षा में ही था । जैनश्रुत की सुरक्षा वैसे किसी वर्णविशेष के अधीन नहीं, किन्तु चतुर्वर्ण में से कोई भी मनुष्य यदि जैनश्रमण हो जाता है, तो वही जैन श्रुत का अधिकारी हो जाता है । वेद का अधिकारी ब्राह्मण
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