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मागम-पुग का जैन दर्शन
प्रणेता जिन-वीतराग एवं तीर्थंकर हैं, किन्तु जिस रूप में वह उपदेश ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध हुआ, उस शब्दरूप के प्रणेता गणधर ही हैं जैनागम तीर्थंकर प्रणीत' कहा जाता है, इसका अभिप्राय केवल यह है, कि अर्थात्मक ग्रन्थ प्रणेता वे थे, किन्तु शब्दात्मक ग्रंथ के प्रणेता वे नहीं थे।
पूर्वोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि सूत्र या ग्रंथ रूप में उपस्थित गणधर प्रणीत जैनागम का प्रामाण्य गणधरकृत होने मात्र से नहीं, किन्तु उसके अर्थ के प्रणेता तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वार्थसाक्षाकारित्व के कारण ही है।
जैन-श्रुति के अनुसार तीर्थंकर के समान अन्य प्रत्येकबुद्ध कथित आगम भी प्रमाण हैं।"
जैन परम्परा के अनुसार केवल द्वादशांगी ही आगमान्तर्गत नहीं है, क्योंकि गणधर कृत द्वादशांगी के अतिरिक्त अंगबाह्य रूप अन्य शास्त्र भी आगमरूप से मान्य हैं, और वे गणधरकृत नहीं हैं । क्योंकि गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं, यह अनुश्रुति है । अंगबाह्यरूप से प्रसिद्ध शास्त्र की रचना अन्य स्थविर करते हैं।
. स्थविर दो प्रकार के होते हैं-संपूर्णश्रुतज्ञानी और दशपूर्वी । संपूर्णश्रुतज्ञानी चतुर्दशपूर्वी या श्रुतकेवली गणधर प्रणीत संपूर्ण द्वाद
९ प्रत्यं भासइ अरहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं ।
सासरणस्स हियहाए तनो सुत्त पवत्तइ ॥१६२ ॥ पाव० नि० १० नन्दीसूत्र-४०. ११ "सुत्त गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च।
सुदकवलिणा कथिदं अभिण्णवसपूवकथिदं च ॥" मूलाचार-५-८०
जयपवला पृ० १५३. प्रोधनियुक्तिटीका पृ० ३. १२ विशेषावश्यकभाष्य गा० ५५०. बहत्कल्पभाष्य गा० १४४. तत्वार्थभा०
१-२०. सवार्थसिद्धि १-२०. 13 जैनागम के पाठयक्रम में बारहवें अंग के अंशभूत चतुर्दशपूर्व को उसकी
गहनता के कारण अन्तिम स्थान प्राप्त है। प्रतएव चतुर्वशपूर्वी का मतलब है। संपूर्ण तवर । जनानुश्रुति के अनुसार यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर थे। उनके पास स्थूलभद्र ने चौदहों पूर्वो का पठन किया, किन्तु
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