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आगम-युग का जैन दर्शन
... शब्द तो निर्जीव हैं, और सभी सांकेतिक अर्थ के प्रतिपादन की योग्यता रखने के कारण सर्वार्थक भी। इस स्थिति में निश्चय-दृष्टि से देखा जाए, तो शब्द का प्रामाण्य या अप्रामाण्य स्वत: नहीं, किन्तु उस शब्द के प्रयोक्ता के गुण या दोष के कारण ही शब्द में भी प्रामाण्य या अप्रामाण्य होता है । इतना ही नहीं, किन्तु श्रोता या पाठक के गुण-दोष के कारण भी प्रामाण्य या अप्रामाण्य का निर्णय करना होगा। अतएव यह आवश्यक हो जाता है, कि वक्ता और श्रोता दोनों की दृष्टि से आगम का विचार किया जाए। जैनों ने इन दोनों दृष्टियों से जो विचार किया है, उसे यहाँ प्रस्तुत किया जाता है--
शास्त्र की रचना निष्प्रयोजन नहीं, किन्तु श्रोता को अभ्युदय और श्रेयस्कर मार्ग का प्रदर्शन कराने की दृष्टि से ही है। शास्त्र की उपकारिता या अनुपकारिता उसके शब्दों पर निर्भर नहीं किन्तु, उन शास्त्रवचन को ग्रहण करने वाले की योग्यता पर भी है , यही कारण है, कि एक ही शास्त्र-वचन के नाना और परस्परविरोधी अर्थ निकालकर दार्शनिक लोग नाना मतवाद खड़े कर देते हैं । उदाहरण के लिए एक भगवद्गीता या एक ही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादों का मूल बना हुआ है ? अतः श्रोता की दृष्टिसे किसी एक ग्रंथ को नियमत: सम्यक् या मिथ्या कहना, किसी एक ग्रंथ को ही जिनागम कहना भ्रमजनक होगा। यही सोचकर जिनागम के मूल ध्येय-जीवों की. मुक्ति की पूर्ति-जिस किसी भी शास्त्र से होती है, वे सम्यक् हैं, वे सब आगम हैं-यह भी व्यापक दृष्टि बिन्दु जैनों ने स्वीकार किया है । इसके अनुसार वेद आदि सब शास्त्र जैनों को मान्य हैं। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक है, उसके सामने कोई भी ग्रंथ आ जाए, वह उसका उपयोग मोक्षमार्ग को प्रशस्त बनाने में ही करेगा। अतएव उसके लिए सब शास्त्र प्रामाणिक हैं, सम्यक हैं । किन्तु जिस जीव की श्रद्धा ही विपरीत है, जिसे मुक्ति की कामना ही नहीं, जिसे संसार में ही सुख नज़र आता है, उसके लिए वेदआदि तो क्या, तथाकथित जैन-आगम भी मिथ्या हैं, अप्रमाण हैं । आगम की इस व्याख्या में सत्य का आग्रह है, साम्प्रदायिक कदाग्रह नहीं।
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