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आगम-साहित्य की रूप-रेखा
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आगम पौरुषेय सिद्ध होते हैं। अतएव कहा गया कि 'तप-नियम-ज्ञानरूप वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनन्त ज्ञानी केवली भगवान् भव्य जनों के विबोध के लिए ज्ञान-कुसुम की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-पट में उन सकल कुसुमों को झेल कर प्रवचन माला गूंथते हैं।"
इस प्रकार जैन-आगम के विषय में अपौरुषेयता और पौरुषेयता का सुन्दर समन्वय सहज ही सिद्ध होता है और आचार्य हेमचन्द्र का यह विचार चरितार्थ होता है
"प्रादीपमाव्योम समस्वभावं स्यावावमुद्राऽनतिमेवि वस्तु"५ श्रोता और वक्ता की दृष्टि :
जैन-धर्म में बाह्य रूपरंग की अपेक्षा आन्तरिक रूपरंग को अधिक महत्त्व है । यही कारण है, कि जैन धर्म को अध्यात्मवादी धर्मों में उच्च स्थान प्राप्त है। किसी भी वस्तु की अच्छाई की जाँच उसकी आध्यात्मिक योग्यता के नाप पर ही निर्भर है । यही कारण है, कि निश्चयदृष्टि से तथाकथित जैनागम भी मिथ्याश्रुत में गिना जाता है, यदि उसका उपयोग किसी दुष्ट ने अपने दुर्गुणों की वृद्धि में किया हो, और वेद आदि अन्य शास्त्र भी सम्यग्श्रुत में गिना जाता है, यदि किसी मुमुक्षु ने उसका उपयोग मोक्ष-मार्ग को प्रशस्त करने में किया हो। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए, तो भगवान् महावीर के उपदेश का जो सार-संग्रह हुआ है, वही जैन आगम है ।
___कहने का तात्पर्य यह कि निश्चय-दृष्टि से आगम की व्याख्या में श्रोता की प्रधानता है, और व्यवहार-दृष्टिसे आगम की व्याख्या में वक्ता की प्रधानता है। ४ "तवनियमनाणरुक्खं प्रारूढो केवली अभियनाणी ।
तो मुयइ नाणवुद्धि भवियजणविबोहणढाए ॥८६॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहि निरवसेस । तित्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा ॥१०॥"--प्रावश्यकनियुक्ति " अन्ययोगव्यवच्छेविका-५. ६ देखो नंदी सूत्र ४०, ४१ । बृहत्कल्प भाष्य गा० ८८.
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