Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रज्ञापनासूत्र
अवक्तव्य, १६. एक अचरम-अनेक अवक्तव्य, १७. अनेक अचरम-एक अवक्तव्य, और १८. अनेक अचरमअनेक अवक्तव्य। त्रिकसंयोगी-८ भंग-१९. एक चरम, एक अचरम, एक अवक्तव्य, २० एक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २१. एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, २२. एक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २३. अनेक चरम, एक अचरम, एक अवक्तव्य, २४. अनेक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, २५. अनेक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, २६. अनेक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य।
परमाणुपुद्गल अवक्तव्य ही क्यों ? - भगवान् ने उपर्युक्त २६ भंगों में से परमाणुपुद्गल को केवल तृतीय भंग नियमतः अवक्तव्य बताया है, शेष पच्चीस भंग उसमें घटित नहीं होते। इसका कारण यह है कि चरमत्व दूसरे की अपेक्षा रखता है, यहाँ किसी दूसरे की विवक्षा न होने से अपेक्षणीय कोई दूसरा पदार्थ है नहीं। इसके अतिरिक्त एक परमाणुपुद्गल सांश (अनेक अंशो-अवयवों वाला) भी नहीं है, जिससे की अंशों की अपेक्षा से उसके चरमत्व की कल्पना की जा सके, परमाणु तो निरंश-निरवयव है। परमाणु अचरम (मध्यम) भी नहीं है, क्योंकि निरवयव होने से उसका मध्यभाग होता नहीं है। इसी कारण परमाणु को नियम से अवक्तव्य कहा गया है। अर्थात्-न तो उसे चरम कहा जा सकता है, न ही अचरम। जो चरम या अचरम शब्द से वक्तव्य-कहने योग्य-न हो, वह अवक्तव्य होता है।
द्विप्रदेशीस्कन्ध में दोभंग - द्विप्रदेशीस्कन्ध में केवल प्रथम (एक चरम) और तृतीय (एक अवक्तव्य), ये दो भंग ही घटित होते हैं, शेष चौवीस भंग नहीं। इसको चरम कहने का कारण यह है कि द्विप्रदेशीस्कन्ध जब दो आकाशप्रदेशों में समश्रेणि में स्थित होकर अवगाढ़ होता है तब उसके दो परमाणुओं में से एक परमाणु की अपेक्षा चरम होता है, दूसरा परमाणु भी प्रथम परमाणु की अपेक्षा चरम होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध चरम कहलाता है, किन्तु द्विप्रदेशीस्कन्ध अचरम नहीं कहलाता, क्योंकि समस्त द्रव्यों का भी केवल अचरमत्व सम्भव नहीं है। द्विप्रदेशीस्कन्ध कथंचितृ अवक्तव्य तब होता है, जब वह एक ही आकाशप्रदेश में अवगाढ़ होता है, उस समय वह विशेष प्रकार के एकत्वपरिणाम से परमाणुवत् परिणत होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध को उस समय चरम या अचरम कहने का कोई कारण नहीं होता। इसलिए उसे न चरम कहा जा सकता है और न अचरम, उसे उस समय अवक्तव्य ही कहा जा सकता है।
त्रिप्रदेशीस्कन्ध में चार भंग - त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम भंग-चरम और तृतीय भंग-अवक्तव्य पूर्वोक्त द्विप्रदेशी की युक्ति के अनुसार समझना चाहिए। फिर नौवाँ भंग-दो चरम और एक अचरम पाया जाता है। जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, तब उसके आदि और अन्त के दो परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम (द्वय) होते हैं और मध्यम परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है। अतः त्रिप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् दो चरम और एक अचरमरुपं कहा जाता है। इसमें दसवाँ भंग-बहुत
१.
(क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. २४० (ख) पण्णवणासुत्तं भा. १ (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. १९९ से २०१