Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन सूत्र २१-२४
परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--एवमेयं देवाप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाप्पिया इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुष्पिवा! सच्चे णं एसम जंभे वह त्ति कट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सेणिएण रन्ना अन्भणुग्णाया समाणी नाणामणिकणगरपणभत्तिवित्ताओ भासणाओ अब्भुद्वेद, अन्भुट्ठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता सर्वसि सयणिज्जसि निसीयइ, निसीइत्ता एवं वयासी--मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अण्णेहिं पावसुमिणेहिं परिहम्मिहित्ति कट्टु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं पहिजागरणमाणी- पहिजागरणमाणी विहरद्द ।
सुमिणपाढग निमंत्रण-पदं
२२. तए गं से सेणिए राया पच्चूसकालसमर्पसि फोटुंबियपुरिले सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उट्ठाणसालं अज्ज 'सविसेसं परमरम्मं' गंधोदगसित्तसुइय सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण- सरससुरभि-मुक्कपुष्कपुंजोक्यारकलियं कालागर - पवरकुंश्वक तुरुवक-ध्रुवउज्झत- सुरभि-मघमघेंत - गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर (गंध ? ) धियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह व एयमाणत्तियंपच्चाप्पिनह ।।
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२३. लए णं ते कोदुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ट - चित्तमाणोंदिया पोमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ।।
२४. तए गं से सेणिए राया कल्लं पाउष्यभावाए रयणीए फुल्लुप्पलकमल-कोमलुम्मिलिपम्मि अहपंडुरे पभाए रत्तासोगप्पगास-किंतुपसुयमुह - गुंजद्ध-बंधुजीवग-पारावयचलणनयण-परहुयसुरत्तलोयणजासुमणकुसुम-जलिपजलण तवणिज्जकलस- हिंगुलयनिगररूवाइरेगरेहत- सस्सिरीए दिवावरे अहकमेण उदिए तस्स दिणकरकरपरंपरोयारपारर्द्धमि अंधयारे बालातव- कुंकुमेण खचितेव्व जीवलोए लोयण- विसयानुवास विगसंत-विसददसियम्मि लोए कमलागर संडवोहए उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयणिज्जाओ उद्वेद, उद्वेत्ता जेणेव अट्टणसाला, तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसद ।
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नायाधम्मकहाओ
दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! यह ऐसा ही है। देवानुप्रिय! यह तथा (संवादितापूर्ण) है देवानुप्रिय ! यह अवित्तथ है। देवानुप्रिय! यह असंदिग्ध है देवानुप्रिया यह दृष्ट है। देवानुप्रिय ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। देवानुप्रिय ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है । देवानुप्रिय ! जैसा तुम कह रहे हो वह अर्थ सत्य है - ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर राजा श्रेणिक की अभ्यनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणि, कनक, रत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी । उठकर जहां अपना शयनीय था, वहां आई। वहां आकर शयनीय पर बैठ गई। बैठकर इस प्रकार बोली- "मेरा वह उत्तम प्रधान और मंगल स्वप्न किन्हीं अन्य पाप-स्वप्नों के द्वारा प्रतिहत न हो जाए" -- ऐसा कहकर वह देव तथा गुरुजनों से सम्बद्ध प्रशस्त धार्मिक कथाओं के द्वारा स्वप्न जागरिका" के प्रति सतत प्रतिजागृत रहती हुई विहार करने लगी।
स्वप्न- पाठक- निमन्त्रण पद
२२. उस श्रेणिक राजा ने प्रत्यूषकाल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो! आज शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला (सभा मण्डप) को विशेष रूप से सुगन्धित जल से सींच, झाड़ बुहारकर, गोबर का लेप कर, प्रवर सुगन्धित पांच वर्ण के पुष्पों के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु और हुए लोबान धूप से उद्धत गंध से अभिराम, प्रवर सुरभिवाले गन्धचूर्णो से सुरभित, गंधवर्तिका के समान करो, कराओ। मुझे इस आज्ञा प्रत्यर्पित करो।
२३. कौटुम्बिक पुरुष राजा श्रेणिक के ऐसा कहने पर दृष्ट-तुष्ट चित्त वाले आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले होकर राजा की उम्र आशा को प्रत्यर्पित किया।
२४. श्रेणिक राजा उषाकाल में पौ फटने पर और रात्रि के निर्मल होने पर प्रफुल्ति उत्पल और अर्ध विकसित कोमल कमल वाले, पीत आभा वाले अरुणिम प्रभात में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के मुख, गुञ्जार्ध, दुपहरिया फूल कबूतर के चरण और नयन, कोकिल के रक्तिम लोचन, जवा कुसुम, प्रज्ज्वलित अग्नि, स्वर्ण-कलश और हिंगुल राशि के रूप से भी अधिक शोभायमान, श्री सम्पन्न दिवाकर क्रमशः उदित हुआ। उस दिनकर के रश्मिजाल के अवतरण से अंधकार निरस्त हुआ। समूचा जीव लोक बाल आतप रूपी कुंकुम की रेखा से खचित - सा हो गया। नेत्रों द्वारा दश्य-पदार्थ उत्तरोत्तर स्पष्ट दिखाई देने लगे। जलाशयगत नतिनीवन के उद्बोधक सहस्ररश्मि,
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