Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम अध्ययन सूत्र १८-१९
ओहीरमाणी- ओहीरमाणी एवं महं सत्तुस्खेहं रययकूट- सन्निहं महयलसि सोमं सोमागारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमतिगयं गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा ।।
सेणियस्स सुमिणनिवेदण-पदं
१९. तए णं सा धारिणी देवी अयमेयारूवं उरालं कल्याणं सिवं धण्णं मंगलं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ठ-चित्तमानदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहिया धाराहय- कलंबपुष्कगं पिव समूसलिय - रोमकूबा तं सुमिण ओगिण्es ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता पायपीटाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता रोणियं एवं ताहिं इवाहिं कंताहिं पिपाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उराताहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर - सस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी-संलवमाणी पडिवोहेइ, पडिबोहेत्ता सेणिएणं रण्णा अम्भणुण्णाया समाणी नाणा मणिकणग रयणभत्तिचित्तति भद्दाराणांस निसीय, निसीइत्ता आसत्या वीसत्या सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु सेणियं रायं एवं वयासी -- एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तारिसगंसिसियणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं परिबुद्धातं एवल्स गं देवानुप्पिया! उरालस्स कल्लाणस्स सिवस्स घण्णस्स मंगल्लस्स सस्सिरीयस्स सुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भक्ति ?
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नायाधम्मकहाओ
और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गन्धचूर्णो से सुगन्धित (होने से ) गंध वर्तिका के समान प्रतीत हो रहा था। मणियों की प्रभा से वहां का अंधकार नष्ट हो रहा था। अधिक क्या? अपनी द्युति और गुणों से वह प्रासाद प्रवर देव - विमान को भी विडम्बित कर रहा था।
उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था। उस पर शरीर प्रमाणउपधान (मसनद) रखे हुए थे।" सिर और पावों की ओर भी उपधान रखे हुए थे। अत: वह दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में और गम्भीर था। गंगा तट की बालुका की भांति उस पर पांव रखते ही, वह नीचे धंस जाता था। वह परिकर्मित क्षौम- दुकूल पट्ट से ढका हुआ था। उस पर पतले झूलदार, ऊनी, रोएंदार कम्बल बिछे हुए थे। उसका रजस्त्राण ( चादर ) सुनिर्मित था। वह लाल रंग की मसहरी से संवृत ९ था। उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के समान (मृदु) था उस पर सोयी हुई धारिणी देवी मध्यरात्री के समय अर्धजागृत अवस्था में बार-बार ऊंघती हुई, सात हाथ ऊंचे, रजत-शिखर जैसे सौम्य, शान्त आकृतिवाले क्रीड़ारत, जम्हाई लेते हुए और आकाश - से उतरकर, मुंह में प्रविष्ट होते हुए एक विशाल हाथी के स्वप्न को देखकर जाग उठी।
श्रेणिक को स्वप्न निवेदन- पद
१९. वह धारिणी देवी इस प्रकार के उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्री सम्पन्न महास्वप्न" को देखकर प्रतिबुद्ध, हृष्ट-तुष्ट चित्तवाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदयवाली तथा मेय धारा से आहत कदम्ब कुसुम की भांति उच्चासित रोमकूपवाली हो गई । धारिणी देवी ने उस स्वप्न का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर शयनीय से उठी। उठकर पादपीठ से नीचे उतरी । उत्तरकर अत्चरित, अचपल असंभ्रान्त अविलम्बित राजासिनी जैसी गति से जहां श्रेणिक राजा था, वहां आयी। वहां आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ मनोहर, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, हृदयगम्य हृदय को आल्हादित करने वाली, मित, मधुर स्वर-सम्पन्न, गम्भीर और समृद्धवाणी से पुन: पुन: संलाप करती हुई राजा श्रेणिक को जगाया। जगाकर राजा श्रेणिक की अनुज्ञा से वह नाना मणि, कनक और रत्नों की भांतों से चित्रित भद्रासन पर बैठ गई। बैठकर आश्वस्त - विश्वस्त हो प्रवर सुखासन में बैठी हुई धारिणी देवी दोनों हवेलियों से भिन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर राजा श्रेणिक से इस प्रकार बोली-
देवानुप्रिय ! आज मैं शरीर प्रमाण उपधान वाले उस विशिष्ट शयनीय पर पूर्ववत् यावत् अपने मुंह में प्रविष्ट होते हुए विशाल हाथी के स्वप्न को देखकर जाग उठी।
,
देवानुप्रिय ! क्या मैं मानू इस उदार, कल्याणक शिव, धन्य, मंगलकारक और श्रीस्वप्न का कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा?
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