Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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नायाधम्मकहाओ
सेणियस्स सुमिणमहिम-निदंसण-पदं २०. तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस- विसप्पमाण हियए धाराहयनीवसुरभिकुसुम-चंचुमालइयतणू ऊसवियरोमकूवे तं सुमिणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर-सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अणुवूहमाणे-अणुवूहमाणे एवं वयासी--उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिउ । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे। आरोग्ग-तट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे । अत्थलाभो ते देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए! रज्जलाभो ते देवाणुप्पिए! भोग-सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए!
एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वीइक्कंताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवंकुलपव्वयं कुलवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलनंदिकर कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जावसुरूवं दारयं पयाहिसि । से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते वित्थिण्ण-विपुल-बलवाहणे रज्जवईराया भविस्सइ ।
तं उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे। आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाणमंगल्लकारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुवूहेइ॥
प्रथम अध्ययन : सूत्र २०-२१ श्रेणिक द्वारा स्वप्न-माहात्म्य निदर्शन-पद २०. धारिणी देवी से स्वप्न की बात सुनकर अवधारण कर राजा श्रेणिक
हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला परम सौमनस्य युक्त, हर्ष से विकस्वर हृदयवाला तथा धारा से आहत कदम्ब के सुरभि-कुसुम की भांति पुलकित शरीर एवं उच्छ्वसित रोमकूप वाला हो गया। उसने स्वप्न का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर ईहा में प्रवेश किया, प्रवेश कर अपने स्वाभाविक मति पूर्वक बुद्धि-विज्ञान के द्वारा उस स्वप्न के अर्थ का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर हृदय को आल्हादित करने वाली यावत् मित, मधुर, स्वर-सम्पन्न, गम्भीर और समृद्ध वाणी से धारिणी देवी के उल्लास को पुन: पुन: बढ़ाता हुआ वह इस प्रकार बोला--
देवानुप्रिये! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्रीस्वप्न देखा है।
देवि! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है।
तुम्हें अर्थलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें पुत्रलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें राज्यलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें भोग और सुख का लाभ होगा देवानुप्रिये!
देवानुप्रिये! तुम बहुप्रतिपूर्ण नौ मास साढ़े सात दिन व्यतिक्रान्त होने पर एक बालक को जन्म दोगी। वह बालक हमारे कुल की पताका, कुल-दीप, कुल-पर्वत, कुल-अवतंस, कुल-तिलक, कुल-कीर्तिकर, कुल-वृत्तिकर, कुल को आनन्दित करने वाला, कुल के यश का बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल का पादप, कुल को बढ़ाने वाला, सुकुमार हाथ पैर वाला यावत् सुरूप होगा। और, वह बालक बाल अवस्था को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बनकर यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रमशाली २, विपुल और विस्तीर्ण सेना व वाहन युक्त राज्य का अधिपति राजा होगा।
इसलिए देवानुप्रिये! तुमने उदारं स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है।
देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्री-स्वप्न देखा है।
देवि! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल कारक स्वप्न देखा है--ऐसा कहकर राजा ने बार-बार उसके उल्लास को बढ़ाया।
धारिणीए सुमिणजागरिया-पदं २१. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी
हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया करयल-
धारिणी की स्वप्न-जागरिका-पद २१. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर धारिणी देवी हृष्ट-तुष्ट चित्त
वाली आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। उसने
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