________________ इन पाँचों स्वप्नों की फलश्र ति इस प्रकार थी। (1) अनुपम सम्यक संबोधि को प्राप्त करना / (2) प्रार्य आष्टांगिक मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर वह ज्ञान देवों और मानवों तक प्रकाशित करना। (3) अनेक श्वेत वस्त्रधारी प्राणांत होने तक तथागत के शरणागत होना / (4) चारों वर्ण वाले मानवों द्वारा तथागत द्वारा दिये गये धर्म-विनय के अनुसार प्रबजित होकर मुक्ति का साक्षात्कार करना / (5) तथागत, चीवर, भिक्षा, आसन, औषध प्रादि प्राप्त करते हैं। तथापि वे उनमें अमूच्छित रहते हैं। और मुक्तप्रज्ञ होकर उसका उपभोग करते हैं। गहराई से चिन्तन करने पर भगवान महावीर और तथागत बुद्ध दोनों के स्वप्न देखने में शब्द-साम्य तो नहीं है, किन्तु दोनों के स्वप्न की पृष्ठभूमि एक है। भविष्य में उन्हें विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि होगी और वे धर्म का प्रवर्तन करेंगे। प्रस्तुत स्थान से प्रागम-ग्रन्थों की विशिष्ट जानकारी भी प्राप्त होती है। भगवान महावीर और अन्य तीर्थंकरों के समय ऐसी विशिष्ट घटनाएँ घटी, जो ग्राश्चर्य के नाम से विश्रत हैं। विश्व में अनेक आश्चर्य हैं। - किन्तु प्रस्तुत ग्रागम में पाये हए ग्राश्चर्य उन पाश्चर्यों से पृथक हैं। इस प्रकार दशवें स्थान में ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन है जो ज्ञान-विज्ञान इतिहास आदि से सम्बन्धित हैं। जिज्ञासुओं को मुल पागम का स्वाध्याय करना चाहिये, जिससे उन्हें आगम के अनमोल रत्न प्राप्त हो सकेंगे। दार्शनिक-विश्लेषण हम पूर्व ही यह बता चुके हैं कि विविध-विषयों का वर्णन स्थानांग में है। क्या धर्म और क्या दर्शन, ऐसा कौनमा विषय है जिसका सूचन इस पागम में न हो। ग्रागम में वे विचार भले ही बीज रूप में हों। उन्होंने बाद में चलकर व्याख्यासाहित्य में विराट रूप धारण किया / हम यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में स्थानांग में पाये हये दार्शनिक विषयों पर चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। ___ मानव अपने विचारों को व्यक्त करने के लिये भाषा का प्रयोग करता है। बता द्वारा प्रयुक्त शब्द का नियत अर्थ क्या है ? इसे ठीक रूप से समझना "निक्षेप' है। दूसरे शब्दों में शब्दों का अर्थों में और अर्थों का शब्दों में आरोप करना "निक्षेप" कहलाता है / 107 निक्षेप का पर्यायवाची शब्द "न्यास' भी है।०८ स्थानांग में निक्षेपों को 'सर्व' पर घटित किया है।१०६ सर्व के चार प्रकार है-नामसर्व, स्थापनासर्व, आदेशसर्व और निरवशेषसर्व / यहाँ पर द्रव्य आदेश सर्व कहा है। सर्व शब्द का तात्पर्य अर्थ 'निरवशेष' हैं। बिना शब्द के हमारा व्यवहार नहीं चलता। किन्तु वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से कभी बड़ा अनर्थ भी हो जाता है। इसी अनर्थ के निवारण हेतु निक्षेप-विद्याका प्रयोग हया है। निक्षेप का अर्थ निरूपणपद्धति है को समझने में परम उपयोगी है। आगम साहित्य में ज्ञानवाद को चर्चा विस्तार के साथ पाई है। स्थानांग में भी ज्ञान के पांच भेद प्रतिपादित हैं। 110 उन पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष' 11 इन दो भागों में विभक्त किया है / जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना और केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान "परोक्ष है। उसके दो प्रकार हैं-मति और श्र त ! स्वरूप की दृष्टि से सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट लक्षण किये गये हैं। बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिये दूसरे ज्ञान की जिसे अपेक्षा नहीं होती है उसे स्पष्ट ज्ञान कहते हैं। जिसे अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट है। परोक्ष प्रमाण में दूसरे 107. णिच्छा णिण्णए खिवदि त्ति णिवखेग्रो -धवला पटवण्डागम पु. 1 पृ. 10 108. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास: -तत्त्वार्थसूत्र 115 109. चत्तारि सव्वा पन्नत्ता--नामसव्वए, ठवणसव्वए, ग्राएससब्बए निरवसेससव्वाए --स्थानांग-२९९ 110. स्थानांगसूत्र स्थान--५ सूत्र१११. स्थानांगसूत्र-.-.-स्थान-२ सूत्र–८६ [ 37 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org