________________ कारणों से भोजन का त्याग कर सकता है / भूगोल, इतिहास, लोकस्थिति कालचक्र, शरीर-रचना आदि विविधविषयों का इसमें संकलन हुया है / मातवें स्थान में सात की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। इस में उद्देशक नहीं है। जीवविज्ञान, लोक स्थिति, संस्थान, नय, आसन, चक्रवर्ती रत्न, काल की पहचान, समुद्घात, प्रवचननिह्नव, नक्षत्र, विनय के प्रकार प्रादि अनेक विषय हैं। साधना के क्षेत्र में अभय आवश्यक है। जिस के अन्तर्मानस में भय का साम्राज्य हो, अहिंसक नहीं बन सकता। भय के मूल कारण सात बताये हैं। मानव को मानव से जो भय होता है, वह इहलोक भय है / आधुनिक युग में यह भय अत्यधिक बढ़ गया है, आज सभी मानवों के हृदय धड़क रहे हैं इन में सात कुलकरों का भी वर्णन है, जो आदि युग में अनुशासन करते थे। अन्यान्य ग्रन्थों में कुलकरों के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। उनके मूलवीज यहाँ रहे हुये हैं। स्वर, स्वरस्थान, और स्वर-मण्डल का विशद वर्णन है / अन्य ग्रन्थों में आये हुए इन विषयों की सहज में तुलना की जा सकती है। ___ पाठवें स्थान में पाठ की संख्या से संबन्धित विषयों को संकलित किया गया है। इस स्थान में जीवविज्ञान, कर्मशास्त्र, लोकस्थिति, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास, भूगोल आदि के सम्बन्ध में विपुल सामग्री का संकलन हुआ है। साधना के क्षेत्र में संघ का अत्यधिक महत्त्व रहा है। संघ में रहकर साधना संगम रीति से सं. एकाकी साधना भी की जा सकती है / यह मार्ग कठिनता को लिये हुये है। एकाकी साधना करने वाले में विशिष्ट योग्यता अपेक्षित है। प्रस्तुत स्थान में सर्वप्रथम उसी का निरूपण है / एकाकी रहने के लिए वे योग्यताएँ अपेक्षित हैं। काश! आज एकाकी विचरण करने वाले श्रमण इस पर चिन्तन करें तो कितना अच्छा हो ! साधना के क्षेत्र में सावधानी रखने पर भी कभी-कभी दोष लग जाते हैं। किन्तु माया के कारण उन दोपों की वह विशुद्धि नहीं हो पाती। मायावी व्यक्ति के मन में पाप के प्रति ग्लानि नहीं होती और न धर्म के प्रति दढ़ आस्था ही होती है। माया को शास्त्रकार ने 'शल्य" कहा है / बह शल्य के समान सदा चुभती रहती है / माया से स्नेह-सम्बन्ध टूट जाते हैं / अालोचना करने के लिये शल्य-रहित होना आवश्यक है। प्रस्तुत स्थान में विस्तार से उस पर चिन्तन किया गया है। गणि-सम्पदा, प्रायश्चित्त के भेद, आयुर्वेद के प्रकार, कृष्णराजिपद, काकिणि रत्नपद, जम्बूद्वीप में पर्वत आदि विषयों पर चन्तन है। जिनका ऐतिहासिक व भौगोलिक दष्टि से महत्त्व है। नवमें स्थान में नौ संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। ऐतिहासिक, ज्योतिष, तथा अन्यान्य विषयों का सुन्दर निरूपण हा है। भगवान महावीर युग के अनेक ऐतिहासिक प्रसंग इस में आये हैं। भगवान महावीर के तीर्थ में नौ व्यक्तियों में तीर्थकर नामकर्म का अनुबन्ध किया। उनके नाम इस प्रकार हैं--श्रेणिक, सुपार्श्व, उदायी, पोट्टिल अनगार, दृढायु, शंख श्रावक, शतक श्रावक, सुलसा श्राविका, रेवती श्राविका / राजा विम्बिसार थेणिक के सम्बन्ध में भी इस में प्रचुर-सामग्री है। तीर्थकर नामकर्म का बंध करने वालो में पोट्रिल का उल्लेख है। अनुत्तरौपातिक सूत्र में भी पोट्टिल अनगार का वर्णन प्राप्त है। वहाँ पर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होने की बात लिखी है तो यहाँ पर भरतक्षेत्र से सिद्ध होने का उल्लेख है / इस से यह सिद्ध है कि पोटिल नाम के दो अनगार होने चाहिये / किन्तु ऐसा मानने पर नौ की संख्या का विरोध होगा / अत: यह चिन्तनीय है। रोगोत्पत्ति के नौ कारणों का उल्लेख हा है। इन में पाठ कारणों से शरीर के रोग उत्पन्न होते हैं और नवमें कारण से मानसिक-रोग समूत्पन्न होता है। प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि अधिक वैठने या कठोर आसन पर बैठने से बवासिर आदि उत्पन्न होते हैं। अधिक खाने या थोडा-थोड़ा बार-बार खाते रहने से अजीर्ण ग्रादि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोग का मूल कारण इन्द्रियार्थ-विगोपन अर्थात् काम-विकार है। काम-विकार से उन्माद आदि रोग उत्पन्न होते हैं / यहाँ तक कि व्यक्ति को वह रोग मृत्यु के द्वार तक पहुंचा देता [ 35 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org