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१८९. स्नातक निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - ( १ ) अच्छवि स्नातक - छवि अर्थात् काय योग का 5 निरोध करने वाला । (२) अशबल स्नातक - निर्दोष चारित्र का पालन करने वाला। (३) अकर्मांश स्नातक - घाति कर्मों का सर्वथा विनाश करने वाला । ( ४ ) संशुद्धज्ञान - दर्शनधर स्नातक - विमल केवलज्ञान- केवलदर्शन के धारक अर्हन्त केवली जिन । (५) अपरिश्रावी स्नातक-सम्पूर्ण काययोग का निरोध करने वाले अयोगी जिन ।
189. Snatak nirgranth are of five kinds-(1) Achchhavi snatak-those who deny association with body. (2) Ashbal snatak-those who follow flawless ascetic conduct. (3) Akarmansh snatak-those who have completely destroyed the vitiating karmas. (4) Samshiddha jnana 5 darshn-dhar snatak-the omniscient Jinas who have acquired pure Keval jnana and Keval darshan. (5) Aparishravi snatak-the ayogi Jinas who have completely terminated association with the body.
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में पुलाक आदि निर्ग्रन्थों के सामान्य रूप से पाँच-पाँच भेद बताये हैं, किन्तु भगवतीसूत्र में, तथा प्रस्तुत स्थानांगसूत्र की संस्कृत टीका में निर्ग्रन्थों के दो-दो भेद और बताये हैं। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
(१) पुलाक के दो भेद - (I) लब्धिपुलाक और (II) प्रतिसेवनापुलाक। तपस्या - विशेष से प्राप्त लब्धि का संघ की सुरक्षा के लिए प्रयोग करने वाले साधु को लब्धिपुलाक और ज्ञानदर्शनादि की विराधना करने वाले को प्रतिसेवनापुलाक कहते हैं।
(२) बकुश के दो भेद है - (I) शरीर - बकुश और (II) उपकरण - बकुश । विभूषा की भावना वश अपने शरीर के हाथ, पैर, मुख आदि को पानी से धो-धोकर स्वच्छ रखने वाले, केशों का संस्कार करने वाले साधु शरीर - बकुश और पात्र, वस्त्र, रजोहरण आदि को बार-बार धोने वाले, उन्हें सुन्दर बनाने वाले की भावना से पात्रों पर तेल, लेप आदि करने वाले उपकरण - बकुश होते हैं।
(३) कुशील निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) प्रतिसेवनाकुशील और (II) कषायकुशील । उत्तर गुणों में अर्थात्-पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, भावना, तप, प्रतिमा और अभिग्रह आदि में दोष लगाने वाले साधु प्रतिसेवनाकुशील, तथा संज्वलन - कषाय के उदय -वश क्रोधादि कषायों से अभिभूत होने वाले साधु को कषायकुशील कहते हैं।
( ४ ) निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) उपशान्तमोहनिर्ग्रन्थ और ( II ) क्षीणमोहनिर्ग्रन्थ । जो उपशमश्रेणी पर आरूढ़ होकर सम्पूर्णमोहकर्म का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, उन्हें उपशान्तमोह निर्ग्रन्थ, तथा जो क्षपकश्रेणी करके मोहकर्म का सर्वथा क्षय करके बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं और अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही शेष तीन घातिकर्मों का क्षय करने वाले हैं, उन्हें क्षीणमोह निर्ग्रन्थ कहते हैं ।
(५) स्नातक - निर्ग्रन्थ के दो भेद - (I) सयोगीस्नातक जिन और (II) अयोगीस्नातक जिन । (१) सयोगी जिन का काल आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि वर्ष है। इतने काल तक वे भव्य फ
पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
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Fifth Sthaan: Third Lesson
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