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(5) Uchchaar nirodh-restraining urge to pass stool. (6) Prasravan nirodh-restraining urge to pass urine. (7) Adhvagaman-excessive walking. (8) Bhojan pratikoolata-unsuitable nature of food. H (9) Indriyarth vikopan-carnal perversions. Y
विवेचन - 'रोग' केवल शरीर की विकृतियों से ही नहीं, किन्तु मन की विकृतियों या मनोविकारों से भी उत्पन्न होते हैं । प्रस्तुत सूत्र में भी आठ कारण शरीर के विकार और नौवाँ कारण मनोविकार या काम विकार बताया है। इनमें तीन बिन्दुओं पर टीकाकार ने विशेष स्पष्टीकरण किया है
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( १ ) अच्चासणयाए - इसके दो अर्थ हैं - (I) अत्यासन - निरन्तर बैठे रहने से अथवा (II) अत्यशनअधिक भोजन करने से ।
(२) अहियासणयाए - इसके तीन अर्थ हैं - (I) अहितासन - गर्म पत्थर आदि पर बैठना, अथवा प्रतिकूल व गलत आसन से बैठना, (II) अहित - अशन - शरीर की प्रकृति के प्रतिकूल व आरोग्य के प्रतिकूल भोजन करना। (III) अध्यसन - बार - बार भोजन करना, पहले किया हुआ भोजन पचने से ५ पहले ही दूसरा भोजन करना ।
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(३) इन्दियत्थ विकोवणया - इन्द्रियार्थ विकोपन का अर्थ है - काम विकार, या कामासक्ति । वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने काम विकार के दस दोषों का उल्लेख किया है। जो क्रमशः एक के बाद एक आते हैं। जैसे - ( 9 ) कामभोगों की प्राप्ति की अभिलाषा, (२) प्राप्त करने की चिन्ता, (३) सतत स्मरण, (४) सतत ५ कीर्तन, (५) उद्वेग, (६) प्रलाप, (७) उन्माद (पागलपन), (८) व्याधि, (९) जड़ता / अंगोपांगों की ५ शून्यता और १०. मृत्यु । (हिन्दी टीका भाग २ पृष्ठ ६१२ तथा वृत्ति पत्र ४२३-४२४)
Elaboration-Diseases are caused not only by physical disorders but mental disorders as well. Of these aforesaid causes eight are sources of physical ailments and the ninth is that of mental ailments. The commentator (Tika) has given additional information on three points
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(1) Acchasanayaye— This term is interpreted two ways — (i) atyasan or sitting continuously for a long time and (ii) atyashan or excessive eating. Ahiyasanayaye-This term is interpreted three (i) ahitasan—sitting on hot stone or in harmful or wrong posture; (ii) ahit-ashan-eating food that is unsuitable for the nature and health of an individual; and (iii) adhyasan-eating frequently or before the food eaten earlier is digested.
(3) Indiyattha vikovana-Indriyarth vikopan means carnal perversions or lust. Abhayadev Suri, the commentator (Vritti), has mentioned ten faults related to carnal perversion that are progressive in nature (1) desire for carnal pleasures, (2) anxiety to avail, (3) continued thinking, ( 4 ) continued talks, ( 5 ) agitated state, (6) blathering, स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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