Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 604
________________ 卐)))))))))))))))555555555555555 895955555515555555555555555555555555I भाविभद्रत्व-पद BHAVIBHADRATVA-PAD (SEGMENT OF FUTURE NOBILITY) १३३. दसहिं ठाणेहिं जीवा आगमेसिभद्दत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहा-अणिदाणताए, ॐ दिट्ठिसंपण्णताए, जोगवाहिताए, खंतिखमणताए, जितिंदियताए, अमाइल्लताए, अपासत्थताए, सुसामण्णताए, पवयणवच्छल्लताए, पवयणउब्भावणताए। १३३. दस कारणों से जीव आगामी भद्रता (आगामीभव में सुख देने वाले कर्म। जो जीव को देवत्व की प्राप्ति और तदनन्तर मनुष्य भव पाकर मुक्ति-प्राप्ति) के योग्य शुभ कर्म का उपार्जन करते हैं। (१) निदान नहीं करने से-तप के फल से सांसारिक सुखों की कामना न करने से। (२) दृष्टिसम्पन्नता से-सम्यग्दर्शन की सांगोपांग आराधना से। (३) योगवाहिता से-मन, वचन, काय की समाधि रखने से तथा स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा आदि में योगवाहिता से। (४) क्षान्ति-क्षमणता से-समर्थ व शान्तिसम्पन्न होकर के भी अपराधी को क्षमा करने एवं क्षमा धारण करने की भावना से। (५) जितेन्द्रियता से-पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जीतने से। (६) ऋजुता से-मन, वचन, काय की सरलता से। (७) अपार्श्वस्थता से-चारित्र पालन में शिथिलता न रखने से। (८) सुश्रामण्य से-श्रमण धर्म का यथाविधि पालन करने से। (९) प्रवचनवत्सलता से-जिन-आगम जिन प्रवचन और जिन शासन के प्रति गाढ अनुराग रखने से। (१०) प्रवचन-उद्भावनता से-आगम और शासन की प्रभावना व गुणोत्कीर्तन करने से। 133. For ten reasons jiva (soul) acquires pious karmas leading to future nobility (the karmas that bring bliss in future reincarnation. This relates to the souls that reincarnate as gods and then as humans to get liberated) (1) By anidaan-by not having aspirations of mundane pleasures as fruits of austerities. (2) By drishtisampannata—by perfect endeavour for gaining and practicing right perception/faith. (3) By yogavahita—by achieving perfect equanimity of mind, speech and action and sincere indulgence in studies, meditation and other such spiritual practices. (4) By kshantikshamanata-by having a forgiving attitude and forgiving a miscreant in spite of having authority and power to punish. स्थानांगसूत्र (२) (540) Sthaananga Sutra (2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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