Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 563
________________ ) ) consequences of breach in and improper performance of prescribed atonement. (9) Priyadharmi-who loves religion. (10) Dridhadharmaho is resolute in observing codes even under adverse conditions. ) ) ) hhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhhh5555 hhhhhhhhh555 55 hh प्रायश्चित्त-पद PRAYASHCHIT-PAD (SEGMENT OF ATONEMENT) ७३. दसविधे पायच्छित्ते, तं जहा-आलोयणारिहे, (पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे, म विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेयारिहे, मूलारिहे), अणवटुप्पारिहे, पारंचियारिहे। ___७३. प्रायश्चित्त दस प्रकार का है, जैसे-(१) आलोचना के योग्य-गुरु के सामने निवेदन करने से ही जिसकी शुद्धि हो। (२) प्रतिक्रमण के योग्य–'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो' इस प्रकार के उच्चारण से जिस : दोष की शुद्धि हो। (३) तदुभय के योग्य-जिसकी शुद्धि आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों से हो। 5 (४) विवेक के योग्य-जिसकी शुद्धि ग्रहण किये गये अशुद्ध भक्त-पानादि के त्याग से हो। (५) व्युत्सर्ग के म योग्य-जिस दोष की शुद्धि कायोत्सर्ग से हो। (६) तप के योग्य-जिस दोष की शुद्धि अनशनादि तप के * द्वारा हो। (७) छेद के योग्य-जिस दोष की शुद्धि दीक्षा-पर्याय के छेद से हो। (८) मूल के योग्य-जिस म दोष की शुद्धि पुनः दीक्षा देने से हो। (९) अनवस्थाप्य के योग्य-जिस दोष की शुद्धि तपस्यापूर्वक पुनः . दीक्षा देने से हो। (१०) पारांचिक के योग्य-भर्त्सना एवं अवहेलनापूर्वक एक बार संघ से पृथक् कर पुनः दीक्षा देने से जिस दोष की शुद्धि हो। 73. Prayashchit (atonement) is of ten kinds(1) requiring alochana (criticism), (2) requiring pratikraman (critical review followed by uttering—'may my misdeeds be undone'. ), (3) tadubhaya (requiring both alochana and pratikraman) (4) requiring vivek (sagacity of rejecting the impure), (5) requiring vyutsarg (abstainment and dissociation), (6) requiring tap (austerities including fasting), (7) requiring chhed (termination of ascetic state), (8) requiring mool (reinitiation), (9) requiring anavasthapya (reinitiation after observing prescribed austerities) and (10) requiring paranchik (reinitiation after censuring and summarily expelling once from the Sangh). विवेचन-प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। जिस प्रकार चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं, अपितु रोग निवारण के लिए की जाती है। उसी प्रकार प्रायश्चित्त चिकित्सा के साथ आचार्यों ने सात प्रयोजन बताये हैं-(१) प्रमादजनित दोषों का निराकरण, (२) भावों की प्रसन्नता, (३) शल्य रहित होना, (४) अव्यवस्था का निराकरण, (५) मर्यादा का पालन, (६) संयम की दृढ़ता और (७) आराधना। निशीथभाष्य में बताया है-तीर्थंकर धन्वन्तरि है, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु रोगी, अपराध क रोग और प्रायश्चित्त औषध है। (निशीथभाष्य गाथा ६५०७) Elaboration-Atonement is.a kind of treatment. As treatment is given to a patient for curing his disease and not to cause him pain, in the same 55555555卐555555555))))))))))))))) | दशम स्थान (501) Tenth Sthaan S)))))))))))))))))))))))))) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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