Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 323
________________ फफफ फफफफफफफफ फ्र 卐 १२४. भाव ( जीव की शुद्ध अशुद्ध पर्याय) या अवस्था छह प्रकार की होती है - ( १ ) औदयिक 5 भाव - कर्म के उदय से होने वाले कषाय, वेद आदि २१ भाव । (२) औपशमिक भाव - मोहकर्म के उपशम फ से होने वाले सम्यक्त्व चारित्र २ भाव । (३) क्षायिक भाव-घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञान - दर्शनादि ९ भाव । (४) क्षायोपशमिक भाव - घातिकर्मों के क्षयोपशम से होने वाले मति श्रुतज्ञानादि 卐 १८ भाव। (५) पारिणामिक भाव- किसी कर्म के उदयादि के बिना अनादि से चले आ रहे जीवत्व आदि 卐 ३ भाव। (६) सान्निपातिकभाव-उपर्युक्त भावों के संयोग से होने वाला २६ प्रकार का भाव । ( भावों के 5 विस्तृत वर्णन के लिए सचित्र अनुयोगद्वार भाग - १ पृष्ठ ३४९-३५९) देखें) फ्र 联碗碗碗卐 5 प्रतिक्रमण-पद PRATIKRAMAN - PAD (SEGMENT OF CRITICAL REVIEW) 124. Bhaava (state of a being) are of six kinds – ( 1 ) Audayik bhaavastate of jiva (being or soul) caused by udaya ( fruition) of karmas; this includes the 21 states including passions and gender. (2) Aupashamik bhaava-state caused by upasham (pacification) of Mohaniya karmas; this includes samyaktva (righteousness) and charitra (right conduct ). 5 (3) Kshayik bhaava-state caused by kshaya (destruction) of vitiating 5 karmas; this includes nine states including infinite knowledgeperception. (4) Kshayopashamik bhaava-state of mind caused by kshayopasham (pacification-cum-destruction) of karmas; this includes 5 18 states including mati jnana and shrut jnana. (5) Parinamik bhaava- फ्र three eternal states unrelated to action of karmas; this includes three states including jivatva (the quality of being a soul). (6) Sannipatik bhaava-state incorporating combinations of the said five states; this includes 26 different states. (for detailed discussion on bhaavas refer to F Illustrated Anuyogadvar Sutra, part-1, pp. 349-59) १२५. छव्विहे पडिक्कमणे पण्णत्ते, तं जहा - उच्चारपडिक्कमणे, पासवणपडिक्कमणे, इत्तरिए, आवकहिए, जंकिंचिमिच्छा, सोमणंतिए । षष्ठ स्थान १२५. प्रतिक्रमण (दोषों की शुद्धि के लिए की जाने वाली क्रिया) छह प्रकार का होता है(१) उच्चार - प्रतिक्रमण - मल विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । (२) प्रस्रवण - प्रतिक्रमण - मूत्र विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । (३) इत्वरिक- प्रतिक्रमण - दैवसिक-रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना । (४) यावत्कथिक - प्रतिक्रमण - मारणान्तिकी संलेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण | (५) यत्किञ्चित्मिथ्यादुष्कृत - प्रतिक्रमण - साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए 'मिच्छामि 5 दुक्कडं ' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना । (६) स्वप्नान्तिक - प्रतिक्रमण - दुःस्वप्नादि देखने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण | (269) Jain Education International 1955 59595959595959595 59595959955 5 5 5 5 59595955 59595 95 F 卐 Sixth Sthaan For Private & Personal Use Only 卐 2 5 5 5 5 5 5 5 55 55 5 5 5 5 5 55555555 5 555 5555 5552 www.jainelibrary.org

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