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: छहिं पुरिससतेहिं सुद्धिं मुंडे (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पब्बइए। ८०. चंदप्पभे णं अरहा छउम्मासे छउमत्थे हुत्था।
७६. अभिचन्द्र (१०३) कुलकर छह सौ धनुष ऊँचे शरीर वाले थे। ७७. चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा छह लाख पूर्वी तक महाराज (सम्राट्) पद पर रहे। ७८. पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के देवों, मनुष्यों और असुरों की सभा में अपराजित रहने वाले छह सौ वादी मुनियों की सम्पदा थी। ७९. वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुण्डित होकर गृहस्थ से अनगार धर्म में प्रव्रजित हुए थे। ८०. चन्द्रप्रभ अर्हत् छह मास तक छद्मस्थ रहे।
76. Abhichandra Kulakar (10th) was six hundred Dhanush tall. 77. Chaturant Chakravarti Bharat Raja reigned as emperor for six i hundred thousand Purva. 78. In Purushadaniya Arhat Parshva's divine, i human, and Asur assembly their were six hundred debating ascetics who
remained undefeated. 79. Vasupujya Arhat tonsured his head, renounced the household and got initiated in Anagar dharma (ascetic religion)
along with six hundred men. 80. Chandraprabh Arhat remained i chhadmasth (one who is short of omniscience due to residual karmic i bondage) for six months. संयम-असंयम-पद SAMYAM-ASAMYAM-PAD
(SEGMENT OF DISCIPLINE AND INDISCIPLINE) ८१. तेइंदिया णं जीवा असमारभमाणस्स छबिहे संजमे कज्जति, तं जहा-घाणामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। घाणामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। जिब्भामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति, [जिब्भामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति। फासामातो सोक्खातो अववरोवेत्ता भवति। फासामएणं दुक्खेणं असंजोएत्ता भवति ।
८१. त्रीन्द्रिय जीवों का घात न करने वाले पुरुष को छह प्रकार का संयम होता है(१) घ्राणमय-घ्राणेन्द्रिय-जनित सुख का वियोग नहीं करने से। (२) घ्राणमय दुःख का संयोग नहीं करने से। (३) रसमय सुख का वियोग नहीं करने से। (४) रसमय दुःख का संयोग नहीं करने से। (५) स्पर्शमय सुख का वियोग नहीं करने से। (६) स्पर्शमय दुःख का संयोग नहीं करने से।।
81. A person not harming trindriya (three sensed beings) accomplishes four kinds of discipline___(1) Ghranamaya-He does not terminate the pleasure derived through ghranendriya (nose or sense organ of smell) by these beings. (2) Ghranamaya-He does not enforce the misery experienced through
nose on these beings. (3) Rasamaya—He does not terminate the pleasure i derived through rasanendriya (tongue or sense organ of taste) by these
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| षष्ठ स्थान
(253)
Sixth Sthaan
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