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षड्विंशतितमं शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्
तामाक्रान्तहरिन्मुखां' कृतरनोभूतिं जगत्पावनी
जैनी
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मासेव्यां द्विजकुञ्जरैरविरतं संताप विच्छेदिनीम् । कीर्तिमिवाततामपमलां शश्वजनानन्दिनीं
निध्यायन् विबुधापगां निधिपतिः प्रीतिं परामासदत् ॥ १५०॥
इत्यार्षे भगवज्जिनसेना वार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रहे भरतराजदिग्विजयोद्योगवर्णनं नाम षड्विंशतितमं पर्व ॥२६॥
है ऐसा वहाँका वायु रानियोंके मार्गके परिश्रमको हरण कर रहा था ।। १४९ ।। वह गंगा ठीक जिनेन्द्रदेवकी कीर्ति के समान थी क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र देवकी कीर्तिने समस्तं दिशाओंको व्याप्त किया है उसी प्रकार गंगा नदीने भी पूर्व दिशाको व्याप्त किया था, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्तिने जिस प्रकार रज अर्थात् पापोंका नाश किया है उसी प्रकार गंगा नदीने भी रज अर्थात् धूलिका नाश किया था, जिनेन्द्र भगवान्की कोर्ति जिस प्रकार जगत्को पवित्र करती है उसी प्रकार गंगा नदी भी जगत्को पवित्र करती है, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार द्विज कुंजर अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्योंके द्वारा सेवित है उसी प्रकार गंगा नदी भी द्विज कुंजर अर्थात् पक्षियों और हाथियोंके द्वारा सेवित है, जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार निरन्तर संसार - भ्रमण - जन्य सन्तापको दूर करती है उसी प्रकार गंगा नदी भी सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न सन्तापको नष्ट करती थी और जिनेन्द्र भगवान्की कीर्ति जिस प्रकार विस्तृत, निर्मल और सदा लोगों को आनन्द देनेवाली है उसी प्रकार वह गंगा नदी भी विस्तृत, निर्मल तथा सदा लोगोंको आनन्द देती थी । इस प्रकार उस गंगा नदीको देखते हुए निधियोंके स्वामी भरत महाराज परम प्रीतिको प्राप्त हुए थे ।। १५०॥
इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध भगवज्जिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रहकें हिन्दी भाषानुवाद में भरतराजकी दिग्विजयके उद्योगको वर्णन करनेवाला छब्बीसवाँ पर्व पूर्ण हुआ ।
१ दिङ्मुखाम् । २ रजोनाशनम् । ३ पक्षिगजैः विप्रादिमुख्यैश्च ।
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४ अवलोकयन् ।