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विषय-प्रवेश
आपसी वैमनस्य से आई और तब आई जब जैन धर्म के प्रभाव से भारतीय मानस दूर रहा।" इतिहास इसकी साक्षी भी देता है कि महावीर, बुद्ध और गांधी सच्चे अहिंसक थे, लेकिन उनकी भीतरी शक्ति, उच्चतम विचारधारा एवं महान कार्य को देखकर उनकी अहिंसा को कायरता कहने की कल्पना तक न की जाय। जैन दर्शन की जीवंत और व्यवहारिक अहिंसा के संदर्भ में 'हिन्दी विश्वकोष' में बताया गया है कि - 'जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। सब जीव जीना चाहते है, मरना कोई नहीं चाहता । अतएव इस धर्म में प्राणी वध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बतलाया है। महावीर ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा है कि - 'उन्हें बोलते-चलते, उठते-बैठते, सोते और खाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार कामभोगों में आसक्ति ही हिंसा है। इसलिए विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैन धर्म में सच्ची अहिंसा बताया है। 2
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अहिंसा के समान ही सत्य और अपरिग्रह के व्रत को जैन दर्शन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। सत्य तो सर्व स्वीकृत सिद्धान्त है सभी धर्मों की दर्शन प्रणालियों में । इसी एक तत्व को अपनाने से हम अनेक अनर्थों से बच सकते हैं, यह जानते हुए भी मनुष्य इसे पूर्ण रूप से अपना नहीं पाता है, तब कर्मों की 'निर्जरा' (पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय ) के लिए प्रायश्चित करना पड़ता है। अपरिग्रह के व्रत से इंसान को बाह्य एवं आत्मिक शान्ति तो प्राप्त होती ही है। लेकिन अनावश्यक परिग्रह से बचने से संतोष रूप महान धन प्राप्त होता है। आज की परिस्थितियों के संदर्भ में तो परिग्रह से नितान्त बचना आवश्यक प्रतीत होता है। आत्मिक शांति प्राप्त होने से ही मनुष्य आध्यात्मिक विकास कर सकता है। महात्मा गांधी जी जैन धर्म के अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह के सिद्धान्त से काफी प्रभावित थे और उनको अपने जीवन में अपनाकर इन तत्वों की महिमा चरितार्थ की।
अनेकान्तवाद :
अहिंसा की तरह अनेकान्तवाद जैन दर्शन की विशेषता व्यंजित करता है। जैन धर्म सबके साथ समान दृष्टिकोण रखते हुए भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिये हुए है। व्यष्टि और समष्टि को देखने-परखने का उसका निजी दृष्टिकोण
1. मुनिनथमल जी - जैन दर्शन : मनन मीमांसा, पृ० 107.
2. हिन्दी विश्वकोष - भाग 5, पृ० 46