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सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला KEEKER॥ अन्यांक ६ ॥xxxxx
श्रीराजशेखरसूरिकृत प्रबन्ध कोश
ISRIDALCANOJI SINGHI
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श्री डालचन्दजी सिंचा
सिंघी जैन ज्ञानपीठ
xEx==x= विश्वभारती. शान्तिनिकेतन =xEExEx संस्थापक
सञ्चालक श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी
जिन विजय मुनि
[मूल्य-साधारण प्रति ३-८-०, विशिष्ट प्रति ४-०-०.]
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खर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी
जन्म वि. सं. १९२१, मार्ग वदि ६
स्वर्गवास वि. सं. १९८४, पोष सुदि ६
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सिंघी जैन ग्रन्थमाला
OS: पा(६)माणिEo
श्री केशरविजयजी लायब्ररी पं.कल्याण विजय शास्त्र संग्रह
जालार (राज.)
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ISRIDALCANDJI SINGHI
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श्री डालवडी सिंघास
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श्रीराजशेखरसूरिकृत
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सिंघी जैन ग्रन्थमाला
जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, कथात्मक-इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, राजस्थानी आदि भाषानिबद्ध बहु उपयुक्त पुरातनवाच्य तथा नवीन संशोधनात्मक
साहित्यप्रकाशिनी जैन ग्रन्थावलि ।
कलकत्तानिवासी खर्गस्थ श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी की पुण्यस्मृतिनिमित्त तत्सुपुत्र श्रीमान् बहादुरसिंहजी सिंघी कर्तृक
संस्थापित तथा प्रकाशित
सम्पादक तथा सञ्चालक
जिन विजय अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन सम्मान्य सभासद-भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर पूना, तथा गुजरात साहित्यसभा अहमदाबाद भूत पूर्वाचार्य-गूजरात पुरातत्त्वमन्दिर अहमदाबाद; जैन वाङ्मयाध्यापक विश्वभारती, शान्तिनिकेतन;
संस्कृत, प्राकृत, पाली, प्राचीन गुर्जर आदि अनेकानेक ग्रंथ संशोधक-सम्पादक ।
ग्रन्थांक ६
प्राप्तिस्थान
संचालक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला
भारतीनिवास, नं. १८. । अहमदाबाद (गूजरात)
पो. शांतिनिकेतन । जि. बीरभूम (बंगाल)
स्थापनाब्द]
सर्वाधिकार संरक्षित.
[वि० सं० १९८५
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श्रीराजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश
भिन्न भिन्न पाठभेद और विशेषनामानुक्रम-समन्वित मूल ग्रन्थ; सरल हिन्दी भाषान्तर ऐतिहासिक-वस्तु-विवेचक अनेकानेक टिप्पनीद्वारा सुविवेचित;
तथा सुविस्तृत प्रस्तावना समलङ्कृत
सम्पादक
जिन विजय जैम वाङ्मयाध्यापक, विश्वभारती, शान्तिनिकेतन
प्रथम भाग विविधपाठान्तर-विशेषनामानुक्रमादियुक्त मूलग्रन्थ
प्रकाशन-कर्ता
अधिष्ठाता-सिंघी जैन ज्ञानपीठ
शान्तिनिकेतन
विक्रमाब्द १९९१ ]
प्रथमावृत्ति, एक सहस्र प्रतिः
[ १९३५ क्रिष्टाब्द
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SINGHI JAINA SERIES
A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF MOST IMPORTANT CANONICAL, PHILOSOPHICAL,
HISTORICAL. LITERARY, NARRATIVE ETC. WORKS OF JAINA LITERATURE IN PRĀKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSA AND OLD VERNACULAR LANGUAGES, AND STUDIES BY COMPETENT
RESEARCH SCHOLARS.
FOUNDED AND PUBLISHED
BY
ŚRIMAN BAHADUR SINGHJI SINGHI OF CALCUTTA
IN MEMORY OF HIS LATE FATHER ŚRI DALCANDJI SINGHI.
GENERAL EDITOR JINA VIJAYA
ADHISTHĀTĀ: SINGHĪ JAINA JÑANAPĪTIA, SĀNTINIKETAN. HONORARY MEMBER OF THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE OF POONA AND GUJRAT SAHITYA SABHA OF AHMEDABAD; FORMERLY PRINCIPAL OF GUJRAT PURATATTVAMANDIR OF AHMEDABAD; EDITOR OF MANY SANSKRIT, PRAKRIT, PALI, APABHRAMSHA,
AND OLD GUJRATI WORKS.
NUMBER 6
TO BE HAD FROM SAÑCĀLAKA, SINGHI JAINA GRANTHAMĀLĀ
BHARATINIVAS, AHMEDABAD.
(GUJRAT)
31
Alirat} as SANTIVIR ESTATE
VISVABHARATI, SANTINIKETAN, PO.
(BENGAL)
Founded ]
All rights reserved
(1931. A. D.
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PRABANDHA KOSA
RĀJASEKHARA SÛRI
CRITICALLY EDITED IN THE ORIGINAL SANSKRIT FROM GOOD OLD MSS. WITH VARIANTS; HINDI TRANSLATION, NOTES AND ELABORATE INTRODUCTION ETC.
OF
BY
V. E. 1991 1
JINA VIJAYA
SINGHI PROFESSOR OF JAINA CULTURE AT VIS VABHĀRATĪ
FIRST PART
TEXT IN SANSKRIT WITH VARIANTS, APPENDICES AND ALPHABETICAL INDICES OF STANZAS AND ALL PROPER NAMES.
SANTINIKETAN.
PUBLISHED BY
THE ADHISTHĀTĀ-SINGHĨ JAINA JNANAPĪTHA
SANTINIKETAN.
First edition, One Thousand Copies.
[ 1935 A. D.
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॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः॥
hamshindumstanderstinatandonadamsterolansdenskomalamudensatemalooskomalkansh
।
अस्ति बङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ निवसन्त्यनेके तत्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाढ्या नृपसदृशा धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः॥ बाल्य एवागतो यो हि कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः ॥ कुशाग्रया खबुद्ध्यैव सद्वृत्त्या च सुनिष्ठया । उपाय॑ विपुलां लक्ष्मी जातो कोट्यधिपो हि सः॥ तस्य मन्नकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । पतिव्रता प्रिया जाता शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहाख्यः सद्गुणी सुपुत्रस्तयोः । अस्त्येष सुकृती दानी धर्मप्रियो धियांनिधिः ॥ प्राप्ता पुण्यवताऽनेन प्रिया तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यदीपेन प्रदीप्तं यद्गहाङ्गणम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्ति ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् बाहुर्यस्य हि दक्षिणः ॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुर्वीरेन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवश्वास्य सन्ति खस्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धोऽयं ततो राजेव राजते ॥
अन्यच्चसरस्वत्यां सदासक्तो भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्येष सदाचारी तचित्रं विदुषां खलु ॥ न गर्यो नाप्यहंकारो न विलासो न दुष्कृतिः। दृश्यतेऽस्य गृहे क्वापि सतां तद् विस्मयास्पदम् ।। भक्तो गुरुजनानां यो विनीतः सजनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽस्ति प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽयं विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादिसाहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः ॥ समुन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचारार्थ सुशिक्षाया व्ययत्येष धनं धनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादौ भूत्वाऽध्यक्षपदाङ्कितः । दत्त्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहयति कर्मठान् ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया । करोत्ययं यथाशक्ति सत्कर्माणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं यः कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः परम् । तस्मात्तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मया वरम् ॥ विचार्यैवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धास्पदस्खमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थं स्थाने शान्तिनिकेतने । सिंघीपदाङ्कितं जैनज्ञानपीठमतीष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयो विज्ञो तस्याधिष्ठातृसत्पदम् । स्वीकर्तुं प्रार्थितोऽनेन शास्त्रोद्धाराभिलाषिणा ॥ अस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैर्यौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूयाति मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥
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प्रबन्धकोश - अनुक्रमणिका
पृष्ठाक
१-८
१-२ २-४
९-११ ११-१४ १५-२१ २१-२३. २४-२६ २६-४६ ४६-५४ ५४-५८ ५८-६१ ६१-६३
.
.
- प्रास्ताविक वक्तव्य - ग्रन्थारम्भ .... १ भद्रबाहु-वराह प्रबन्ध २ आर्यनन्दिल प्रबन्ध ३ जीवदेवसूरि प्रबन्ध ४ आर्यखपटाचार्य प्रबन्ध ५ पादलिप्ताचार्य प्रबन्ध .... ६ वृद्धवादि-सिद्धसेनसरि प्रबन्ध ७ मल्लवादिसूरि प्रबन्ध .... ८ हरिभद्रसूरि प्रबन्ध ९ बप्पभट्टिसरि प्रबन्ध १० हेम[चन्द्रसरि प्रबन्ध .... ११ हर्षकवि प्रबन्ध .... १२ हरिहरकवि प्रबन्ध १३ अमरचन्द्रकवि प्रबन्ध १४ मदनकीर्तिकवि प्रबन्ध .... १५ सातवाहन प्रबन्ध १६ वकचूल प्रबन्ध १७ विक्रमादित्य प्रबन्ध १८ नागार्जुन प्रबन्ध १९ वत्सराज उदयन प्रबन्ध .... २० लक्षणसेन-कुमारदेव प्रबन्ध २१ मदनवर्म प्रबन्ध २२ रजश्रावक प्रबन्ध .... २३ आभड [श्रावक] प्रबन्ध .... .... २४ वस्तुपाल-तेजःपाल प्रबन्ध.... .... - ग्रन्थकारकृत प्रशस्ति .... १ परिशिष्ट-मत्रिवस्तुपालकृत सुकृतसूचि २ परिशिष्ट-सपादलक्षीय चाहमानवंशनामावलि .... ३ परिशिष्ट-प्रबन्धकोशान्तर्गत सुभाषितादि वाक्यावतरण ....
प्रबन्धकोशग्रन्थगत पद्यसूचि ..... प्रबन्धकोशग्रन्थागत विशेषनाम सत्रह ....
.
६६-७४ ७५-७८ ७८-८४
८६-८८ ८८-९० ९०-९३ ९३-९७ ९७-१०० १०१-१३०
१३१
१३२ १३३-१३४ १३५-१३६
७-१४
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॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥
Romalamalamalamalamalamalamalonilonikaalamaleral
खस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका तत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमच्चतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तत्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूत् राजपुत्रः प्रसिद्धिमान् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुख-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन्महाकुले । किं वर्ण्यते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्ममः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद् गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्सौजन्यभूषिता । क्षत्रियाणीप्रभापूर्णा शौर्यदीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ सूनुः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरति प्रियः । रणमल इति ह्यन्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः ॥ अष्टोत्तरशताब्दानामायुर्यस्य महामतेः । स चासीद् वृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः खसन्निधौ । रक्षितः, शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात्तच्छिशोर्खाल्ये गुरु तातौ दिवंगतौ । विमूढेन ततस्तेन त्यक्तं सर्व गृहादिकम् ॥
तथा चपरिभ्रम्याथ देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा कृत्वाऽऽचारान् सुदुष्करान् ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्त्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैका ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः। लिखिता बहवो लेखा ऐतियतथ्यगुम्फिताः॥ यो बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च सत्कृतः । जातः स्वान्यसमाजेषु माननीयो मनीषिणाम् ॥ यस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात्स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयशिक्षणालयः । विद्यापीठ इतिख्यातः प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोच्चैर्नियुक्तो यो महात्मना । विद्वजनकृतश्लाघे पुरातत्त्वाख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत्पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे यस्तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सल्लग्नो राष्ट्रकार्ये च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तः येन खराज्यपर्वणि ॥ क्रमात्तस्माद् विनिर्मुक्तः प्राप्तः शान्तिनिकेतने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघीपदयुतं जैनज्ञानपीठं यदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च यस्तस्य पदेऽधिष्ठातृसझके । अध्यापयन् वरान् शिष्यान् शोधयन् जैनवायम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । खपितृश्रेयसे चैषा ग्रन्थमाला प्रकाश्यते ॥ विद्वजनकृताल्हादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिनविजयभारती ॥
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सिंघी जैन ग्रन्थमाला]
[प्रबन्धकोश
निमावीमायाराब्यानिधाककनकायमाछरागनिदासरणालिरामालियालादामलविसावधान हकलानामाSAEविकारमागियवसवलासनापदेशानमाधाखमपाडासना मिनिाराeetरलताबादकरामावनिमयासारफलपनियानडाम
मामासाबावनक्षतामHSRSEENकाशाशाचारवशारदानगरमा पिविष्यासारसाहनीलकामाय-लसाUिRभियाशिलारतस्याशवाय
यासवेरियमनियाबासमासानाविमनक्षमा अतिमिरुधानिलकतिकला
कामविप्रशियाकडगरवारिसमा पायाककिलादिगण
विमाननामावलापागामब्यक्रियासमा विविनासर्वमानन सालानागपकारासदाय माकनावानविखायीविद्यायधस्वदनियमासाहा नाकमाईमामा लिललग्यारिकामानियाद हाशमायाववधाबा चकवाकायला वरितिशमानय काम्बादिवईमानोगामी निनानोवादीलाराशावापाबाकिस्तानीलानिमा वरिवानागालावरपाकाला विनोमरातबानियातिभिदानावयासपुरवताना विमानारमान्याना यदिशातिवधानीमय बरिणामकारवाददाकविषबामवावाजवलासराजगावकर
गारापांधवाषाडानवायकरणारेचदानीवाहात्यमानित्यवदयारकवेनिसमावधेमाभासंहासनाविनयपंचवाकानीधाम पापानित्यमहविरिनिसानाटककामीटकानोसडासमधियएमवायादवायावासघामान्यकारितालवश धमयानारावारिसहश्रालिएचवातान्शिकाचोसवाद्याधालावासावातावासन्तावावाशताधारहमानाका मविज्ञालिशक्षा निधीकरीपाएकावानिशतानिमितोबरालाएकादशशतादिग्बराएाचवारिवानानिसानिजिनभायमान नाचियाखवायसदिक्षनानसशाच जसवीडिभासहजच वानीजमथाधिकावाधावसामाणमयानिहारिका शालिदिनमयाडोनरधानाचंठामिवि शेखावविधशिवानोसरखनीवविमतरणादात बिछाविबिदाम चिमष्टिमी वयवस्तुयालस्पदति
रावयादिवि गवयाचत्यू विमायापुस्तासयावाचस्पीकदा रपनियायमूर्वरावाराणसीथावत
तामाकामानिासीगणवालाकादिवानामि च ईरालय कामावासदवाणिशशानियोग्य
विहिवारान्तयामिजिनपदेशहीनिवाडावधाताया साष्टानिशीलतालाewanaloomsomu बिछोडनरलाकाटिकानामनिगाणगाहादालाग्राममाखान यादवरायातक्षमाछमश्मनधाराबदावादलवाचनायायमसिनालशीनिसकसिध्यतिरालवाखाराडायलिन एननायगाद्यसाधावाबाधकामनारचितम्यधाकानीजयनातिनानिमयाचनाचाहावीरउस्माधवद्याखा कटातुपाचगानणाशमी सरकारितलिनानिसानाछनालिसाशनायकसानामाष्पाद
nuaramaiaनाजमिसपादलशवितर दन्तनकनामानावासंडिकाढायलमूतःसामनःसलसिलाकालमजयसिंचकवचलनाशीमहमदमाही गारविनासमाजाजयलिसिरिनादानाधरणामहवासिंव्हडिलाशवलचसानायमिर्गकारयामासाला
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श्रीलामृगगनसिव्हसाबाशमाराविरमदावा लामायणागलीशणवसंमएनाचितंन वलि नातनाकरिताना तुतश्यामकर्मकारातिदपिकाामायरियावाया निवेगावाविधिबंधाक्षमालाथा साजराजश्रीशमितत्याननिावदानववीयामामहिकायायकाया आमाछावाखासंबतूर वार्षषधमलाइ दादिरीएकादवाविधवारीसागरनिन कविशावक्षिप्तमाघेशीशपबिल्लारपज्ञानबंधानराजावरह शिविरारिवानिमातिालाबयाहवाशाकदृष्टवायोलिविनमयायाचिदमठाईवाममादाधानदायाता दाताबलियविीिताराममहावाविवरखए काला फर्मबंधनामवजातनमानमानलविनव्याशावाचा लिमिसंहलचलचिनकाशवाधाकधामाकरवाकटा मक्या गाडाकिएकामालारयादि निसरदात्यात्मानमनिटिवियर
दिशावधमिराहादामाकागावडम्याडपिछा कालीगांजखमालादिपिछडरलागावं
तूलछियापिचदानमादनिहिंघनईविछहानाहाका मदर्शनधमामिाहता तितिलायचयानगतवरल यावरचालनिशनमाडचीरशादिजिवावयवदासस्वा न्याय सजविलासादाराविनायरानाधादिरवाशनिवाशाकानवस्वामिकामाता2e
१७
A प्रतिके १३, ९१३, १०५) पत्रकी प्रतिकृतियां ।
ducation Intemational
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सिंघी जैन ग्रन्थमाला]
[प्रबन्धकोश
एकाटियानाविवधयानाकामाटावासदमाणिवयातानिश्वावधाविवागाधामाप्रपदेश्वीतलाष्टादशावाणिशायाचितश्यीवरपान
समयीप्रभवादनकालाकाधिकाशियानिदिक्षतमाशयमशाखायावर्षीथालिगाडाशनकाशिविरदविक्षियीकामायापा। पिरिक्षानीहिनाशिममध्यःस्थिीरहिवावायलयाताशवनाथ गायशनमारमाबाधकामनायविषवेधाकावायनामिपति समयावधाकालरबारमा काटापामारणामारकारितलिमपालमानाष्ठानकासिवधयकसानमनायाणवणसिवायनिमा पास्तवमतिकोनातवासाशकासासमझतासानातिनाकानवकागामुलाकातकरतदलनयाधमदमाद्विमाविताताकाकयन्ति (मिरिशव परनियाधामानहासिलदिपाशवसतियममितकारयामासाशसानिमउमिताशयायजायधवलसंचयो। भित्रमिदंझायायात्रा यधावनम्पानाम्याविद्यासधारनकायद्यानमालामालियानास पगाराहावासुदवसामेशलायमशिदवावधनयवातम्यायामकहाकिागप कारविग्रहगविमरीक्षाविदयखान्यावाधारसमाधादामातशहायसनासिकाशवाणस्य दक्षिवधीनमामामवाणाकालाक्षागानिमारसर
बालदिनविशयक-28वयाग्रातदक्षताबमादायमाधिमा यावयशकायमदमदमुखापासतारयानपादना विकटग्रस्तावासंदरालासुरवागनकाशाइसलादंधनातनयाशिवाक्षिति बानीयासमाक्रविकायंकायक्तिीमायामनश्रीमहामहामविलाशवमझातापाशवनासकामतावा दारवानामामयmasagaमदनबलावलमखानिसमानतादबावगाहानामशक्षिसामाग पांचादवयासामधपादव शकीराक्षासंगपंवारासहरिराडादायकादायरवालयादववश्वावरीयालबिश्वेतप्रवीरनारायाण विससममदानधरतनवादाक्षवामानवाकताउपाहिमिहावापानम्मावास्योपचारशावधासाहताक्षसीविष्यमदमा PREMIERUNDu
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सिकाराधितशी मनमानसालपमहासत्याखालमा बिमानायलावावाधावस्वापसकाममतावृक्षवारासमश्ययुगामाया शामरावयास सहरसानघरवायलिमालामालदिमागवावधामनदवारकमियममायणा पावडायवायरसामधारदारा0सं018 धारामाराकाववाशझदवासखानणादवानवाया सियानवियतस्यवरनारायणमासममानवाहमाबिमडाववामरावसामसवानिहादसंवसरवाया हादसलादमा हनिमश्चसक्षमचारियपर्वतासंधवाना विवाहानायव पातबजाकरमान संयाखाविधिोमा हिममेधाविदित TE R am कल्यासामसु
सा३.प्र.३५ ला
दावश राजाश्यक्यातीसासुरवाशानुजमदीशायादव सदावदीनपुरवाराहिमशननादवलगायाधचीसवादवारकन्धिमा (तपस्या सायाश्यांमra:श्वाभामश्चदिवाशीराजासंबरश्वधरांडधारणामृत हरिराजदंशाराजादवाश्यालणादवाश्या
वरीयास्तबिरदतम्यवीरतारायवरकसमसघानाहतवाददादावामाखवताराधाजयसिंहदवासंधश्रावण्यद मृतमयीनिनीयवसदसवलास्किएवं प्रसासवानावासमा विश्वशतवाकियामतपंकनामधानिवितार
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ला३ मा ३६रया
BDE प्रतिके अंतिम पत्रों की प्रतिकृतियां ।
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सिंघी जैन ग्रन्थमाला]
[प्रबन्धकोश
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मायामास साताराखाव्यानासाविधालाकारकपलबिकमातानिरालीमायामानाननवासनायामनारदिवासानलयायन किमखायानावशिवता कल्याणासायलाशजतानाशवनामशासतियाधीयसपालमतोश्रीवा यातादिरियावासारवायाधाशीशम मालाचतारमाजवीरासनकासारसम्म
कलिकायादलशाबिसका सहप्तासलेखनएजशदनाारणाविष्टाधीसहहि वासरात सातवेलाकवाखायासस्वविधामगाणवीरधवलशायनाममदाराणकारवर तासानासिकायाकमावणधपधिकानेवीगा चशीतदेउझलरानवासाचामल रामलसिरा करतीमकरसनयसिंवादवकतारवालावनामयशालावालसाजीराजे समाधानतरससिद्धावाशिवायुविजयरावसाववारवालास्टविधाकालवदन्यायालया:मालालावाझावरायाधनकवधीमानास्लादिनिव रोश्यदिशुवोकसुणालाजतच्या thaसदासरताजममछडिविसिमक्षणादवासवातिसिलवामामष्टाददत्यासातवान्तावावविधादिक्कडसावणबनवारणकदारधवलायलासवबालचितम रामसान्ताकरामतमेवघया क्रीयतावालाकितिनाविधायितिमात्यारामिविज्ञान नसीरनावाजलवायजनयतिािरसमसकायाराक
सबननामरूदित अरवानारामादधीलवायसरमाणवलमतशतकालोमिनितोषिबाजुचावकताकनिवाचनमायनशाहाणिसानो मनकजसास्ववाहयामधेशदावाहिजाराहाताधाराहाता पिजामाले
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नाटक
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v प्रतिके आद्यन्त पत्र
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प्रास्ताविक वक्तव्य ।
९१. प्रबन्धकोश - परिचय
बन्धकोश नामका यह ग्रन्थ - जिसमें २४ प्रबन्ध होनेके कारण इसका दूसरा, और प्रायः विशेष प्रसिद्ध
ग्रन्थन्य
कथात्मक निबन्ध सङ्ग्रह है । इसमें जिन २४ व्यक्तियोंके या प्रसिद्ध पुरुषोंके प्रबन्ध गून्थे गये हैं, उनमें से, ग्रन्थकार-ही-के कथनानुसार, १० तो जैनधर्म के प्रभावशाली आचार्य हैं, ४ संस्कृत भाषाके सुप्रसिद्ध कवि पण्डित हैं, ७ प्राचीन अथवा मध्य-कालीन प्रसिद्ध राजा हैं, और, ३ जैनधर्मानुरागी राजमान्य गृहस्थ पुरुष हैं ।
आचार्य भद्रबाहुसे लेकर हेमचन्द्रसूरि तकके जिन १० आचार्योंका वर्णन इसमें दिया गया है वे; तथा हर्ष, हरिहर, अमरचन्द्र और मदनकीर्ति - ये ४ कवि पण्डित, निस्सन्देह ऐतिहासिक पुरुष हैं। सातवाहन आदि जिन ७ राजाओंका चरित वर्णन इसमें प्रथित है, उनमें से, अन्तिम दो-अर्थात् लक्ष्मणसेन और मदनवर्मा - का समय मध्य कालका उत्तर भाग होनेसे उनके अस्तित्व और समयादिका सप्रमाण उल्लेख इतिहास के ग्रन्थों में से मिल सकता है । वत्सराज उदयन, भारतीय इतिहासके प्राचीन युगमें हो जाने पर भी, महाकवि भास आदिके नाटकादिक ग्रन्थोंमें अमर नाम प्राप्त कर लेनेके कारण ऐतिहासिकोंमें यथेष्ट परिचित है। सातवाहन और विक्रमादित्य, भारतीय साहित्य और जनश्रुतिमें अत्यन्त प्रसिद्ध होने पर भी, वे कौन थे और कब हो गये इस विषय में पुरातत्त्ववेत्ताओं में अत्यन्त मत-वैविध्य है । तथापि, वे कोई ऐतिहासिक पुरुष जरूर थे, इतना स्वीकार कर लेनेमें कोई आपत्ति नहीं की जा सकती । वङ्कचूल राजाके ऐतिहासिकत्वके लिये इन ग्रन्थोंको छोड कर और कोई अधिक वैसा इतिहास - सम्मत प्रमाण अमीतक ज्ञात नहीं हुआ । अत एव उसके अस्तित्व - नास्तित्वके बारेमें विशेष कुछ कहा नहीं जा सकता । नागार्जुनका जो वर्णन इस संग्रह में - अथवा इसके समान विषयक अन्य अन्य ग्रन्थोंमें दिया हुआ मिलता है, उससे तो, उसके कोई राजा या राजपुरुष होनेकी बात ज्ञात नहीं होती । प्रबन्धगत वर्णनसे तो वह कोई योगी या सिद्धपुरुष ज्ञात होता है। तो फिर ग्रन्थकार ने उसकी गणना राजा या राजपुरुषके रूपमें किस आशय से की है सो ठीक समझमें नहीं आता । सम्भव है, राजपुत्र ( आधुनिक राजपूत) रणसिंहकी पत्नीके गर्भ में जन्म लेने-ही-के कारण उसकी गणना राजवर्ग में की | नागार्जुनकी कथा भी ऐतिहासिक दृष्टिसे उतनी ही सन्दिग्ध है जितनी सातवाहन और विक्रमकी है । तथापि, वह भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति अवश्य थी इतना मान लेना इतिहासके विरुद्ध नहीं कहा जा सकता | राजमान्य जैन गृहस्थोंमें आभड और वस्तुपाल सुप्रसिद्ध और सुज्ञात व्यक्ति हैं । परंतु, काश्मीरनिवासी संघपति रत्न श्रावककी कथा, इतिहासके विचारसे, वैसी ही अज्ञात है जैसी वङ्कचूलकी कथा है।
९२. प्रबन्धकोशके समान विषयक अन्य ग्रन्थ
जनप्रभसूरि रचित विविधतीर्थकल्पकी प्रस्तावनामें हमने सूचित किया है कि - 'विस्तृत जैन इतिहासकी रचना के लिये, जिन ग्रन्थों में से विशिष्ट सामग्री प्राप्त हो सकती है, उनमें (१) प्रभावकचरित, (२) प्रबन्धचिन्तामणि, (३) प्रबन्धकोश, और (४) विविधतीर्थकल्प - ४ ग्रन्थ मुख्य 1 ये चारों ग्रन्थ परस्पर बहुत कुछ समानविषयक हैं और एक-दूसरेकी पूर्ति करनेवाले हैं ।' प्रबन्धकोश इन चारोंमें कालक्रमकी दृष्टिसे कनिष्ठ यानी सबसे पीछे का है। इस क्रम में, प्रभावकचरित सबसे पहला [वि० सं० १३३४ ], प्रबन्धचिन्तामणि दूसरा [वि० सं० १३६१], विविधतीर्थकल्प तीसरा [वि० सं० १३८९], और प्रबन्धकोश चौथा [वि० सं० १४०५ ] स्थान रखता
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प्रबन्धकोश
है। राजशेखर सूरिकी यह कृति, कितनेएक अंशोंमें, अपने पहलेके उन तीनों ग्रन्थोंका ऋण धारण करती है। इसमें के कितनेएक प्रकरण तो उक्त ग्रन्थों में से शब्दशः उद्धृत कर लिये गये हैं। कितनेएक थोडा बहुत भाषा या रचनामें परिवर्तन कर लिख लिये गये हैं। कितनेएक पद्यसे गद्यमें अवतारित किये गये हैं। और, कुछ प्रबन्ध, स्वतंत्र ढंगसे, मौलिक रूपमें भी गूंथे गये हैं । यहां पर, थोडीसी तुलना कर देखनेसे इस कथनका स्पष्ट दिग्दर्शन हो सकेगा। ६३. प्रभावकचरित और प्रबन्धकोश
प्रभावकचरितके कर्ताका प्रधान उद्देश, अपने समयसे पहले हो जानेवाले जैनधर्मके उन प्रभावशाली आचायाँका चरित-गुम्फन करनेका है जिन्होंने अपने चारित्र-बल या विद्या-बल से जैन धर्मका विशेष गौरव बढाया है,
और जैन इतिहासको उज्वल बनाया है। आर्य वज्रस्वामी [परम्परागत मान्यताके मुताबिक विक्रमकी प्रथम शताब्दी] से लेकर आचार्य हेमचन्द्र [विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यकाल ] तकके ऐसे २२ आचार्योंका उसमें चरितवर्णन है । प्रबन्धकोशकारने उन २२ आचार्यों में से ९ आचार्योंके प्रबन्ध अपने संग्रहमें सङ्कलित किये हैं । यद्यपि, प्रभावकचरितके सिवा, इन आचार्योंके चरित-विषयक और भी कोई संग्रह राजशेखरके सम्मुख होगा जिसमें से उन्होंने अपने प्रबन्धोंके लिये कितनीक सामग्री संगृहीत की है-क्यों कि इन आचार्योंके चरितोंमें कई बातें ऐसी हैं जो प्रभावकचरितमें नहीं मिलतीं; और कई बातें, जो प्रभावकचरितमें हैं, वे इसमें नहीं मिलती-तथापि इसकी प्रधान सामग्री उसी ग्रन्थ परसे एकत्रित की गई मालूम देती है। इन ९ आचार्योंके सिवा, प्रभावकचरितमें, प्रस्तुत कोशमें की अन्य व्यक्तियोंका कोई विशेष निर्देश नहीं है। सिर्फ, सातवाहन और नागार्जुनका कुछ वर्णन पादलिप्त सूरिके चरितान्तर्गत मिलता है, और कुछ प्रसङ्ग विक्रमादित्यके विषयका वृद्धवादी सूरिके प्रबन्धमें मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि राजशेखर सूरिने प्रभावकचरितमें से उतनी वस्तु नहीं ली जितनी प्रबन्धचिन्तामणिमें से ली है। ६४. प्रबन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोश __ प्रबन्धकोश-वर्णित व्यक्तियोंमें से भद्रबाहु (१) वृद्धवादी (६), मल्लवादी (७), हेमचन्द्र (१०), सातवाहन (१५), विक्रमादित्य (१७), नागार्जुन (१८), लक्ष्मणसेन (२०), आभड (२३), और वस्तुपाल (२४)-इस प्रकार ४ आचार्य, ४ राजा और २ राजमान्य जैनगृहस्थ-कुल १० व्यक्तियोंका वर्णन प्रबन्धचिन्तामणिमें मिलता है । प्रबन्धचिन्तामणिका वह वर्णन कुछ संक्षेपमें और सामासिक शैलीमें है। प्रबन्धकोशका कुछ विस्तृत और विश्लेषात्मक पद्धतिमें है। बहुतसी बातें नई भी हैं। हेमचन्द्र सूरिके प्रबन्धमें, एक जगह, ग्रन्थकार स्वयं कहते हैं कि-'इन आचार्यके जीवन-सम्बन्धमें जो जो बातें प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थमें लिखी गई हैं, उनका वर्णन हम यहां पर नहीं करना चाहते। ऐसा करना चर्वित-चर्वण मात्र होगा। हम यहां पर उसके अतिरिक्त कुछ नवीन प्रबन्ध ही कहना चाहते हैं।' यद्यपि, हेमचन्द्र सूरिके प्रबन्धमें, ऐतिहासिक दृष्टिसे विशेष महत्त्वकी मालूम दे वैसी कोई बातें, इस ग्रन्थमें नहीं पाई जातीं; तथापि, वस्तुपालप्रबन्धमें, प्रबन्धचिन्तामणिकी अपेक्षा अनेक विशिष्ट और विश्वसनीय बातोंका सङ्कलन किया हुआ जरूर मिलता है। ६५. विविधतीर्थकल्प और प्रवन्धकोश __ प्रभावकचरित और प्रबन्धचिन्तामणिमें से जितनी सामग्री प्रबन्धकोश में ली गई है उससे कहीं अधिक वस्तु विविधतीर्थकल्पमें से ली गई है। उक्त दो ग्रन्थों में से तो प्रधानतया वस्तु और वक्तव्य-ही-का संग्रह किया गया है। लेकिन तीर्थकल्पमें से तो कुछ पूरे प्रकरण या प्रबन्ध ही, शब्दशः ज्यों के त्यों, उद्धृत कर लिये गये हैं। सातवाहनप्रबन्ध, वङ्कचूलप्रबन्ध और नागार्जुनप्रबन्ध-ये तीनों प्रकरण तीर्थकल्पकी पूरी नकल हैं । उसमें सातवाहनका प्रकरण प्रतिष्ठान
1 देखो, पृष्ठ ४७, प्रकरण ६५७, पंक्ति १२-१६ ।
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प्रास्ताविक वक्तव्य ।
पुरकल्प* [क्रमांक ३३-३४, पृष्ठांक ५९-६४] में है, वकचूलका वर्णन ढीपुरीतीर्थकल्प [क्रमांक ४३, पृष्ठ ८१-८३] में है, और नागार्जुनका वृत्तान्त स्तम्भनककल्प-शिलोञ्छ [कल्पांक ५९, पृष्ठ १०४] में है। यह पिछला प्रबन्ध, तीर्थकल्पमें प्राकृत भाषामें गूंथा हुआ है, जिसको प्रबन्धकोशकारने, शब्दशः संस्कृतमें अनुवादित कर लिया है। (-और, जिनप्रभसूरिने भी, यह प्रकरण, सम्भवतः प्रबन्धचिन्तामणिमें से, संस्कृतपरसे प्राकृतमें तद्वत् अनुवाद करके, लिख लिया हो ऐसा प्रतीत होता है । क्यों कि दोनोंमें शब्दरचना प्रायः एकसी है।) ६६. पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह और प्रबन्धकोश
प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थके साथ सम्बन्ध रखनेवाले ऐसे कितनेएक प्रकीर्ण प्रबन्धोंका एक सचन्ह, इस ग्रन्थमालाके द्वितीय ग्रन्थाङ्कके रूपमें, इसी ग्रन्थके साथ प्रकाशित हो रहा है । उस सङ्ग्रहको हमने अनेक पुरातन पोथियों परसे संगृहीत किया है। उसमें कई प्रकरण ऐसे हैं, जो निस्सन्देह, प्रबन्धकोशके कर्ताके पूर्व रचे हुए कहे जा सकते हैं। प्रबन्धकोशमें के कितनेएक प्रबन्ध ऐसे हैं जो उक्त सङ्ग्रहके प्रबन्धों या प्रकरणोंके साथ प्रायः पूर्णतया साम्य रखते हैं । प्रबन्धकोशस्थित विक्रमादित्यप्रबन्धके ६९८ और ६९९ ये दोनों प्रकरण पुरातन-प्रबन्ध-संग्रहके ६११ और ६ १२ प्रकरणकी पूरी नकल हैं । इसी तरह हेमचन्द्रसूरिके प्रबन्धमें के ६५८, ६५९, ६६०, ६६१ और ६६३ ये प्रकरण पुरातन प्र० सं० के ६८३,६८४, ६८५ और ६८६ इन प्रकरणोंके साथ संपूर्ण समानता रखते हैं। हमारा अनुमान है कि प्रबन्धकोशकारने ये सब प्रकरण उक्त पुरातन संग्रह परसे ही उद्धृत किये होने चाहिए। इसके सिवा, मदनवर्मप्रबन्धवाले वर्णनका भी कुछ कुछ अंश पु० प्र० सं० के ६४७ और ६५२ वें प्रकरणके साथ मिलता-जुलता है।
६७. प्रबन्धकोशकारके मौलिक प्रबन्ध
हर्ष (११), हरिहर (१२), अमरचन्द्र (१३) और मदनकीर्ति (१४)-इन ४ कवि-प्रबन्धोंको राजशेखर सूरिकी मौलिक रचना कहना चाहिए । इनका वर्णन उक्त किसी ग्रन्थमें नहीं मिलता। अमरचन्द्र कवि विषयक थोडा-सा निर्देश पु० प्र० सं० के १७७ वें प्रकरणमें (पृ० ७८) किया हुआ मिलता है परंतु उसमें कुछ विशेषता नहीं है। वत्सराज उदयनकी कथा बिल्कुल पौराणिक ढंगकी है। उसका मध्यकालीन इतिहासके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है। इस कथानक-गत वस्तुके विषयमें ग्रन्थकार खयं भी सन्दिग्ध हैं और इस लिये अन्तमें वे लिखते भी हैं कि-'यह कथा जैनोंको सम्मत नहीं है । क्यों कि, इसमें जो देवजातीय नागकन्याके साथ मनुष्यका विवाह-सम्बन्ध होना बतलाया है, वह असम्भव है। केवल सभामें कहने लायक विनोदात्मक होनेसे हमने 'नागमत' से इस कथाको उद्धृत किया है। (-देखो पृष्ठ, ८८६१०५). सो ग्रन्थकारके कथनानुसार इस कथाका आधार नागमत पुराण] है। पु० प्र०सं० में जो B सञ्ज्ञक संग्रहकी प्रतिका वर्णन दिया गया है उसमें भी यह प्रबन्ध मिलता है। रत्न श्रावककी कथाका आधार कहांसे लिया गया है सो ठीक ज्ञात नहीं हुआ।प्रभावकचरित और प्रबन्धचिन्तामणिमें इसका सूचक कोई निर्देश नहीं है। विविधतीर्थकल्पान्तर्गत रैवतकगिरिकल्पमें, प्रस्तुत कथासे किञ्चित् सम्बद्ध ऐसा उल्लेख मिलता है। जिनप्रभसूरि लिखते हैं कि-'काश्मीरदेश-निवासी अजित और रत्न नामके दो भाई संघ लेकर गिरिनार तीर्थकी यात्रा करने आये; और उनके किये हुए जलाभिषेकसे नेमिनाथकी जो लेपमय पुरातन मूर्ति थी उसके गलजाने पर, संघपति अजितने २१ दिनके उपवास किये जिसके प्रभावसे अम्बिका देवीने प्रत्यक्ष होकर रत्नमय दूसरी मूर्ति प्रदान की जिसको उसने वहां पुनः प्रतिष्ठित की-इत्यादि । पुरातन-प्रबन्ध-संग्रह गत रैवततीर्थ-प्रबन्धमें भी इस कथाका
. * प्रबन्धकोशगत सातवाहनप्रबन्धों के ६८९,६९० और ६९१ ये तीन प्रकरण तीर्थकल्पमें नहीं है। । विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ ९.
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प्रबन्धकोश
सम्वादक कुछ उल्लेख आया है। और वहां पर, विशेषमें, एक पुरातन प्राकृत गाथा उद्धृत की हुई है जिसमें कहा गया है कि-संवत् ९९० में रत्नने रैवतगिरि पर कांचन भवनसे लाकर मणिमय बिंबकी स्थापना की । इन दोनों उल्लेखोंके
अतिरिक्त राजशेखर सूरिको, शायद और भी कोई आधारभूत ग्रन्थ या प्रबन्ध, इस प्रबन्धकी रचनामें रहा हुआ हो। ६८. प्रबन्धकोशकी रचना-शैली
जैसा कि खुद ग्रन्थकार लिखते हैं, प्रबन्धकोशकी रचना. खास करके मुग्धजन-साधारण पठित वर्ग-के अवबोधके लिये की गई है और इस लिये इसका ग्रन्थन 'मृद्' अर्थात् सरल और सुबोध ऐसे गद्यमें किया गया है। एक मल्लवादिसूरि-प्रबन्ध पद्यमें बना हुआ है-जो शायद किसी अन्य ग्रन्थमेंसे तद्वत् उद्धृत कर लिया गया मालूम देता है-परंतु उसका पद्य भी वैसा ही सरल और सुगम है।
संस्कृत साहित्यमें इस प्रकारकी गद्य रचना बहुत कम मिलती है । इसके पहले, पुराने समयमें, ऐसे ग्रन्थ प्रायः पद्यबन्ध रचे जाते थे । पुराण, कथा, चरित इत्यादि ग्रन्थोंकी रचना विशेषतया पद्य-ही-में होती थी। पुराने कई जैन प्रन्थकार, जिन्होंने सूत्रात्मक और उपदेशात्मक ग्रन्थोंकी जो गद्यमय व्याख्याएं अथवा टीकाएं बनाई हैं, उनमें भी जहां कोई कथाका प्रसंग आगया तो उसे प्रायः पद्य-ही-में लिखना उन्होंने पसंद किया है। गद्यमें जो ऐसी कोई कथा, आख्यायिका आदि रची जाती थी तो वह काव्यात्मक-उपमा आदि अलङ्कारोंसे परिपूर्ण कवितास्वरूप-होती थी। उसमें कथा या चरितकी सामग्री गौण होती थी-वर्णन और विवेचनकी अधिकता ही उसमें मुख्य रहती थी। कथा, चरित आदिकी वस्तु जिनमें अधिकतया गुम्फित की जाती थी ऐसी पद्यरचनाएं भी प्रायः पाण्डित्यपूर्ण पद्धतिसे बनाई जाती थीं । ग्रन्थकारोंका लक्ष्य, हमेशाह, अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करनेकी और अधिक रहता था; और, ग्रन्थरचनामें जहां कहीं उनको मौका मिल जाय वहां वे अपनी विदग्धताका परिचय देने के लिये उत्सुक रहते थे। इसी ग्रन्थका उपर्युक्त कुछ कुछ आदर्शभूत ग्रन्थ, प्रभावकचरित, वैसी ही एक पाण्डित्यपूर्ण रचना है । वह सम्पूर्ण प्रन्थ पद्यमें है । अनुष्टुप् छन्दके सिवा और भी कई छन्दोंका उसमें प्रयोग किया गया है । यद्यपि उसमें कहीं काव्यकी कोई सामग्री नहीं है, तथापि उसकी रचना-पद्धति काव्यके ढंगकी है। उसके कर्ताका उद्देश मुग्ध-जनोंको अवबोध करानेका नहीं है; लेकिन विदग्ध-जनोंको अपनी विद्वत्ताका आस्वाद करानेका है । मेरुतुङ्ग सूरिने इस लक्ष्यको कुछ बदला है और बुद्धिमान् वर्गको भी सुखसे ज्ञानप्राप्ति करानेकी इच्छासे उन्होंने अपना पूर्वोक्त प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ गद्यमें बनाया है । मेरुतुङ्गकी रचना-प्रणालि यद्यपि प्रासादिक और सुललित है तथापि वह प्रस्तुत प्रबन्धकोशके कर्ताकी शैलीकी जितनी सुगम और सरल नहीं है। वह समास-बहुल होकर कुछ संक्षिप्त-स्वरूपात्मक है। उसका विषय काव्यमय न होने पर भी उसकी भाषा कुछ पुरातन गद्य-काव्य ग्रन्थोंका अनुकरणाभास कराती है। उसकी वाक्य कहीं कहीं जटिल-सी मालूम देती है । प्रबन्धकोशकी रचना एकदम सरल, सुगम और बोलचालकी भाषाकी तरह सीधी-सादी है। इसके वाक्य बिल्कुल अलग अलग और छोटे छोटे हैं। इसमें न कोई वैसी समस्त-शब्दोंसे लदी हुई लम्बी पंक्तियां हैं, न कोई दूरान्वयवाली वैसी कोई दुरवबोध उक्तियां हैं। न अल्पाभ्यासीको अपरिचित ऐसे शब्दोंकी कोई समधिकता है, न क्रियापदके कठिन रूपोंकी भरमारसे कोई क्लिष्टता है । प्रायः सारी कृति कर्म-उक्तिप्रधान है। संस्कृत भाषाका थोडा-सा भी अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी इसको सुगमतासे पढ-समझ सकता है। संस्कृतके प्रचलित कोशोंमें नहीं मिलनेवाले और देश्य भाषाकी सन्तति समझे जानेवाले ऐसे शब्दोंका भी कचित् व्यवहार ग्रन्थकारने निस्सङ्कोच होकर किया है-जिसको शायद संस्कृतके पुराणप्रिय पण्डित लोक, अपशब्द भी कह बैठें। परंतु हमारे मतसे इसमें कोई आक्षेपयुक्त बात नहीं दिखाई देती। हम तो इसको एक प्रकारसे भाषाके जीवनको पोषण करनेवाली बडे महत्त्वकी बात समझते हैं। सरल और सुगम संस्कृत-रचना करनेवालोंके
* पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृष्ठ ९७, प्रकरण २१९, पद्याङ्क २९९.
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प्रास्ताविक वक्तव्य ।
लिये यह एक आदर्शभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है । संस्कृत भाषा भी ऐसी सरल बनाई और लिखी जा सकती है, जिसको बहुत सुगमताके साथ अधिक जनता समझ सके, इस बातकी, यदि संस्कृत-प्रेमियोंको कुछ आकांक्षा है, तो उन्हें भाषाके कलेवरको देश्य और विदेश्य ऐसे अनेक नये नये शब्दों द्वारा पुष्ट करना ही चाहिए। उससे हमारी इस मातामहीकी मृतप्राय आत्मा पुनः सचेतन हो सकती है; और, वह पुनर्जन्म धारण कर आर्य संस्कृतिका पुनरुत्थान करनेमें हमें एक नई शक्ति प्रदान कर सकती है । मालूम देता है, कि इस प्रकार सरल रचना होने-ही-से, इस प्रन्थका, प्रबन्धचिन्तामणि वगैरह ग्रन्थोंकी अपेक्षा, अधिक प्रसार और वाचन-पठन होता रहा है
और इसी कारण इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियां जहां वहां भण्डारों में यथेष्ट संख्यामें उपलब्ध होती हैं। ६९. प्रस्तुत आवृत्तिकी संशोधन-सामग्री
इस ग्रन्थका पाठ-संशोधन करने में हमने जिन जिन प्रतियोंका मुख्य आधार लिया है, उनका वर्णन इस प्रकार है।
A प्रति.-पाटणके संघवाले ग्रन्थभण्डारसे प्राप्त प्रति । इसके अन्तभागमें लिपिकर्ताने अपना नाम-ठाम आदि सूचक इस प्रकार पुष्पिका-लेख लिखा है
संवत् १४५८ वर्षे प्रथम भाद्रपद शुदि ११ एकादश्यां तिथौ बुधवारे श्रीसागरतिलकसूरिणा वशिष्यपठनार्थं श्रीअणहिल्लपुरपत्तने प्रबन्धानि राजशेष(ख)र सूरिविरचितानि आलिलिखे । यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्धं वा मम दोषो न दीयते ॥ १॥*
अर्थात्-संवत् १४५८ के वर्षके प्रथम भाद्रपद मासकी शुदि ११ और बुधवारके दिन, सागरतिलक सूरिने अपने शिष्यके पढनेके लिये, अणहिल्लपुर पाटनमें, राजशेखर सूरिके बनाए हुए इन प्रबन्धोंकी प्रतिलिपि की । इससे सूचित होता है कि इस प्रतिको एक विद्वान् आचार्यने अपने हाथसे लिखी है-और सो भी निजके शिष्यके पढनेके लिये; अतः इसे एक उत्तम प्रकारकी, आदर्शभूत, प्रति कहना चाहिए। इसके अक्षर बहुत ही सुन्दर और सुवाच्य हैं तथा पाठ भी प्रायः शुद्ध और निर्धान्त है। इसके पन्नोंकी कुल संख्या १०५ है। पन्नोंका नाप, अन्य सर्व सामान्य प्रतियोंसे कुछ बडा है। वे लम्बाईमें करीब पूरे १ फूट, और चौडाईमें करीब ५ इंच जितने हैं। पन्नेकी प्रत्येक पूंठी (पृष्ठि पार्श्व) पर १५-१५ पंक्तियां हैं। मध्य भागमें, दोनों तरफ, कहीं चतुष्कोण और कहीं कुण्डाकृतिके रूपमें १-१ इंच जितनी जगह कोरी रख दी गई है, जिसमें, पुरातन तालपत्रकी पोथियोंकी तरह सूत पिरोनेके लिये छेद बने हुए हैं। प्रत्येक पंक्तिमें, जहां जहां आवश्यकता मालूम दी, पदच्छेद बतलाने के लिये, अक्षरोंके शीर्ष पर वैदिक स्वरचिह्न के ढंगकी ' ऐसी सूक्ष्म दण्ड-रेखा दे दी गई है । स्वर-सन्धिके नियमानुसार जहां स्वरोंका लोप अथवा सन्धि होकर रूपान्तर हो गया मालूम दिया, और जिससे पढनेवालेको पदच्छेद या सन्धिच्छेद करने में कुछ क्लिष्टता प्रतीत होती मालूम दी वहां, लिपिकर्ताने उन उन अक्षरोंके सिरे पर, तत्तत स्वरसुचक कुछ चिर आदि लिख दिये हैं । यथा 'अ अक्षरके लिये ऽ ऐसा सूक्ष्म अवग्रह चिह्न लिखा है; 'आ' के लिये कहीं ऐसी और कहीं ऐसी, काकपादके * इस पंक्तिके बाद, निम्न लिखित ५-६ पद्य भी लिपिकर्ताने कहींसे लिख लिये मालूम देते हैं ।
दाता बलिर्याचयिता मुरारिर्दानं मही वाचि मुखस्य काले ।
दातुः फलं बन्धनमेव जातं नमो नमस्ते भवितव्यतायै ॥१॥ भ्रातः पाणिनि संवृणु प्रलपितं कातन्त्रकन्था वृथा मा कार्षीः कटु शाकटायनवचः क्षुद्रेण चान्द्रेण किम् । कः कण्ठाभरणादिभिर्बठरयत्यात्मानमन्यैरपि श्रूयन्ते यदि तावदर्थमधुराः श्रीसिद्धहेमोक्तयः॥२॥
गोअंडौ पडिऊ पिच्छ हले गोकुसुमतले णहि पिच्छ हले।
गोचलणथियाऊ पिच्छ हले गोदंतिहिं खजई पिच्छ हले ॥ ३॥ वटवृक्षो महानेष मार्गमावृत्य तिष्ठति । तावत्त्वया न गन्तव्यं यावदन्यत्र गच्छति ॥४॥ नमो दुर्वाररागादिजैत्रे ते यत्र यः सखा । न्यायसम्पन्न विभवः सादरोपि विमुंचति ॥५॥ अहिंसापरमो धर्मो वैरवारनिवारणे । कातंत्रस्य प्रवक्ष्यामि कथा तुभ्यमहं हितांत् ॥६॥
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प्रबन्धकोश
आकारकी रेखा दी है; और 'इ' के लिये ऐसा सङ्केत किया है। 'उ' के लिये उ ऐसा छोटा कदका 'उ'कार, 'ए' के लिये ए और 'ऐ' के लिये ए ऐसा पृष्ठमात्रायुक्त 'ऐ'कार लिखा हुआ है। सम्बोधनात्मक पदको स्पष्टतया सूचित करनेके लिये उसके ऊपर हि ऐसा पृष्ठमात्रावाला 'हे'कार लिख दिया गया है। अनेक स्थलोंमें, शब्दविशेषों परखास करके प्राकृत शब्दों पर-कुछ टिप्पनके रूपमें, प्रतिशब्द या अर्थबोधक देश्य शब्द भी, हाशियोंमें लिख दिये गये हैं और उनका स्थान निर्दिष्ट करनेके लिये उस उस शब्दके ऊपर = ऐसा छोटा डबल डेंस दे दिया गया है। इस प्रकार, इस प्रतिको लिपिकर्ताने बडे अच्छे ढंगसे-बहुत ही स्पष्ट और सुवाच्य बनानेकी इच्छासे-खूब प्रेमसे लिखा मालूम देता है। ___ वास्तवमें, प्रबन्धकोश तो, इस प्रतिमें, ९२ वें पन्नेकी पहली पूंठी पर समाप्त होगया है। उसके पीछे, लिपिकर्ताने प्रबन्धचिन्तामणिके प्रथम प्रकाश गत मुञ्जराजचरितके प्रारंभसे लेकर, भोज-भीमभूप-वर्णन नामका उसका पूरा दूसरा प्रकाश (-हमारी आवृत्तिके पृष्ठ २१ से ५२ तकका, मुंज-भोजके सम्बन्धका, समग्र वृत्तान्त) लिख दिया है। अन्तमें इस प्रकार प्रबन्धचिन्तामणिका यह प्रकरण लिखा हुआ होनेसे, उक्त भण्डारकी सूचि में इस प्रतिका नाम भी केवल प्रबन्धचिन्तामणि ही लिखा हुआ है। प्र० चि० का सम्पादन करते हुए हमने इस प्रतिका भी, उक्त प्रकरणके पाठ-संशोधनमें उपयोग किया था और इसकी संज्ञा वहां Pa रखी थी (-देखो प्र० चिं० प्रस्तावना, पृष्ठ ७.) - इस प्रतिके कुछ पन्ने नष्ट होगये मालूम देते हैं। १० से २० तकके पन्ने किसी दूसरेके हाथके लिखे हुए हैं और पीछेसे इसमें मिलाये हुए हैं। ४२ और ४३ वें पन्ने हैं तो इसी लिपिकर्ताके हाथके लेकिन हैं वे किसी दूसरे ग्रन्थके । ये दो पन्ने किसी नाटकके हैं। आद्यन्त न होनेसे नाटकका नाम नहीं मिल सका । हरिश्चन्द्र विषयक कोई प्रकरण है। ४३ वें पन्नेमें उसका ५ वा अंक समाप्त होता है। मालूम देता है, सागरतिलक सूरि-ही-के हाथकी लिखी हुई नाटकग्रन्थकी कोई प्रति, और प्रबन्धचिन्तामणिकी यह प्रति, कभी किसी वेष्टनमें, एक साथ बन्धी रही होगी और कभी किसी कारणसे पन्नोंमें गडबड उपस्थित होनेसे, इसके पन्ने उसमें और उसके पन्ने इसमें, रख दिये गये होंगे। पन्नोंका रंग-ढंग और नाप आदि एकसा ही होनेसे ऐसी गडबडीका होना सहज है। ___B प्रति.-पाटणवाले उसी भण्डारमेंकी दूसरी प्रति । इसकी पत्र-संख्या कुल ५७ है । लिपिकर्ता वगैरहका कोई उल्लेख नहीं है । अक्षर अच्छे हैं लेकिन पाठ-शुद्धि साधारण है। प्रति है पुरातन; करीब च्यार सौ वर्षसे पहलेकी लिखी हुई होगी।
C प्रति.-उक्त भण्डारमेंकी एक तीसरी प्रति । यह प्रति त्रुटित है। इसमें, बीच बीच में से, बहुतसे पन्ने नष्ट होगये हैं। इसके अक्षर अच्छे बडे और सुवाच्य हैं। परंतु बहुतसा भाग खण्डित होनेसे इसका कुछ अधिक उपयोग न हो सका । अन्तके पन्ने भी बहुतसे नहीं हैं। इससे लिखे जानेके समय आदिका कुछ पता नहीं लग सका । प्रतिका रंग-ढंग देखनेसे मालूम देता है कि, यह, सम्भवतः A प्रतिसे भी कुछ पुरातन हो। ___E. D. प्रति. ये दोनों प्रतियां अहमदाबादके सुप्रसिद्ध डेलाके उपाश्रयमें रक्षित ग्रन्थभण्डारमें से प्राप्त हुई हैं। ये दोनों एक ही लिपिकर्ताके हाथकी लिखी हुई हैं। इनका लिखनेवाला कोई व्यावसायिक लेखक है-जिसे गूजरातीमें लहीया कहते हैं। उसको भाषा या विषयका किंचित् भी ज्ञान नहीं मालूम देता । 'चतुर्विंशतिप्रबन्धाः ' की जगह 'चतुव्यंशतप्रबन्धाः ' और 'शिवमस्तु' के स्थान पर 'शवमस्तु' लिखा है। E प्रतिके अन्तमें उसने अपन
भधरसत पंडत मेघा लिखितं । इस प्रकार किया है। D प्रतिके अन्तमें लेखनसमाप्तिके समयका भी उल्लेख है। यथा
संवत् १५२९ आसोविदि ९ भोमे । पंडित मेघा लिखितं ।
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प्रास्ताविक वक्तव्य।
E प्रतिकी पत्रसंख्या ५७ है, और D की ६९ । इसके सिवा दोनों प्रतियोंमें और कोई विशेष भेद नहीं है। कहीं कहीं कुछ पाठ-भेद, जो शब्द या अक्षर अशुद्धिके कारण, दिखाई देता है वह पंडित मेघाकी अज्ञताका परिणाम है। . P प्रति.-पाटणकी हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावलीमें प्रकाशित, पोथीके आकार-ही-में छपी हुई १३८ पत्राङ्कवाली प्रति । यह प्रति वि० सं० १९७७ में छपी है। वीरचन्द्र और प्रभुदास नामक श्रावक पण्डितोंने इसका संशोधन किया है। संशोधनसे मतलब सिर्फ व्याकरणकी दृष्टिसे पाठको शुद्ध बना देना और उसे छपा देना इतना ही समझना चाहिए। इससे अधिक कुछ परिश्रम करना, एकाधिक प्रतियोंका मिलान कर पाठकी शुद्धा-शुद्धिका निर्णय करना, भिन्न भिन्न प्रतियों में प्राप्त पाठोंका संग्रह करना और उसे यथोचितरूपमें मुद्रित करना-इत्यादि प्रकारकी जो आधुनिक ग्रन्थसम्पादनकी शास्त्रीय पद्धति है उससे हमारा पुराणप्रिय पण्डित-मण्डल और साधु-समाज प्रायः अज्ञान है । अतः यद्यपि जैन समाजमें, पिछले कुछ वर्षोंसे, ग्रन्थोंके प्रकाशित करनेकी प्रवृत्तिका खूब उत्साहके साथ प्रसार हो रहा है, तथापि उक्त कारणसे, विद्वत्समाजमें उसकी प्रतिष्ठा जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती और उसके अभावमें हमारे अनेकानेक असाधारण महत्त्ववाले ग्रन्थ-रत्न भी विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित नहीं कर सकते। अस्तु ।
यह P संज्ञक पुस्तक जिस पुरातन प्रतिके ऊपरसे मुद्रित की गई है, उसके अन्तिमोल्लेखको, संशोधक पण्डितोंने, जैसाका वैसा ही छाप देनेकी उदारता बतलाई है इससे उसके लिपिकर्ताका नाम-स्थानादिका पता लग जाता है। यह उल्लेख इस प्रकार है
श्रीमत्तपागच्छे पं० सागरधर्मगणयः (।) तच्छिष्य पं० कुलसारगणयस्तेनैषा प्रतिः सम्पूर्णीकृता स्वपरोपकारार्थम् । मणूंद्रगामे लिखिता। एषा प्रतिर्वाच्यमानाविचलकालं नन्दतात् । ___ यह प्रति, उक्त अन्य सब प्रतियोंसे, कुछ विशेष पाठ-भेद रखती है । यद्यपि यह पाठ-भेद वैसा कोई विशेष मह स्ववाला नहीं है-प्रायः ग्रन्थकारके अध्याहृत शब्द, पद या वाक्यांशोंको उल्लिखित कर देनेवाला मात्र हैतथापि इसकी बहुलता अवश्य उल्लेखयोग्य है । इसका यह पाठ-भेद एक प्रकारसे प्रक्षिप्त-पाठात्मक हैं; और इसीलिये हमने इसको [ ] ऐसे चतुष्कोण कोष्ठकके भीतर रखा है। वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धमें इसकी विपुलता अधिक उपलब्ध होती है। ___v प्रति.-केवल वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धवाली एक ९ पन्नोंकी प्रति हमारे निजके संग्रहमें है, जिसका उपयोग हमने उक्त प्रबन्धके पाठसंशोधनमें किया है। यह प्रति अच्छी और शुद्धप्राय है । इसका आलेखन सं० १४७७ में हुआ, ऐसा इस पुष्पिकालेखसे विदित होता है
___ संवत् १४७७ वर्षे पौषवदि १० भूमौ । सूर्यपुरे लिखितं ॥ छ । इस प्रबन्धके अन्तिम पृष्ठमें कुछ जगह खाली होनेके कारण, पीछेसे किसी दूसरेने, मंत्री वस्तुपालने जो जो सुकृत कार्य किये उनकी एक तालिका लिख ली है, जिसको हमने, प्रस्तुत पुस्तकमें, परिशिष्ट १ के रूपमें (पृष्ठ १३२ पर ) मुद्रित कर दी है। इस तालिकाके पृष्ठकी पिछली बाजू पर, जैन आगम ग्रन्थोंकी नामावलि लिखी हुई है और उसके अन्तमें इस प्रकारका पुष्पिका-लेख है- । . संवत् १४७९ वर्षे चैत्रवदि तृतीया शुक्रे श्रीसूर्यपुरे भट्टा० श्रीरत्नसिंहसूरिशिष्य पंडितराजकल्लोलगणिना लिखिता ॥ श्रीः॥
इससे ज्ञात होता है कि उक्त वस्तुपाल प्र० लिखे जानेके २ वर्ष बाद, पंडित राजकल्लोल गणिने वस्तुपालकी यह सुकृतसूचि लिखी है । यह सूचि बहुत अंशोंमें तो उस सूचिसे मिलती-जुलती है, जो राजशेखर सूरिने प्रबन्धकोशके आखिरी भागमें दी है। पं० राजकल्लोल गणिकी लिखी हुई सूचि, जैसा कि उसके प्रारंभके उल्लेखसे ज्ञात होता है, बस्तुपालके बनवाये हुए सोपारा ग्रामके आदिनाथके मन्दिरमेंकी प्राकृत प्रशस्ति परसे लिखी गई है । अतः उसकी ऐतिहासिकता निस्सन्देह प्रमाणभूत मानी जा सकती है।
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१०. चाहमानवंशकी नामावलि
प्रबन्धकोशकी कितनीएक प्रतियों में, ग्रन्थान्तमें, सपादलक्ष देश - ( सवालख, राजपूतानेके जयपुर राज्यका कुछ भाग ) जिसका प्रसिद्ध नाम शाकम्भरी ( सांभर ) प्रदेश भी है - पर राज्य करनेवाले पराक्रमी और रणवीर चाहमान वंशके राजाओंकी नामावलि लिखी हुई मिलती है। इस नामावलिका प्रबन्धकोशके साथ कोई सम्बन्ध न होने पर भी, यह इसकी प्रतियों में क्यों लिखी मिलती है इसका कुछ कारण ज्ञात नहीं होता । हमने उपर्युल्लिखित जितनी प्रतियां, प्रस्तुत सम्पादनके काममें लीं उनमें से B, D और E नामकी प्रतियों में यह वंशावलि लिखी मिली है । इसको हमने पुस्तकान्तमें, द्वितीय परिशिष्टके रूपमें दे दिया है ।
प्रबन्धकोश
११. सुभाषितवचनावल
इस प्रन्थका पठन करते समय इसमें हमें कुछ ऐसे भी वाक्य, पद्यांश या पंक्त्यंश मालूम दिये जो सुभाषितके ढंगके हो कर विद्वानोंको वाग्व्यवहारमें लानेके कामके हो सकते हैं । उन सबका, पृथक् तारण कर, तीसरे परिशिष्टके रूपमें, पृष्ठ १३५-३६ पर, उन्हें मुद्रित कर दिया है ।
१२. द्वितीय भाग - हिन्दी भाषान्तर
प्रास्तावित प्रन्थका संपूर्ण हिन्दी भाषान्तर, द्वितीय भागके रूपमें प्रकट होगा । ग्रन्थगत ऐतिहासिक बातोंका विस्तृत विवेचन और प्रन्थकर्ताका विशेष परिचय आदि अन्य ज्ञातव्य बातें, उसीमें विस्तारके साथ लिखी जायंगीं। इस लिये उस विषय में यहां और कुछ कहना अप्रासङ्गिक होगा ।
९१३. प्रतियोंके पत्र - पृष्ठोंकी कुछ प्रतिकृतियां
सम्पादनकार्यमें प्रयुक्त, उपर्युक्त जिन प्रतियोंका हमने वर्णन दिया है उनमें से, A प्रतिके १, ९१ और १०५ वें पत्रके एक एक पृष्ठका B, E, और D प्रतियोंके अन्तिम पृष्ठोंका, और V प्रतिके आद्यन्त दोनों पृष्ठोंका हाफ्टोन ब्लॉक बनवा कर उनके चित्र भी इसके साथ दे दिये जिससे जिज्ञासु पाठकों को उनकी लिपि आदिका प्रत्यक्ष दर्शन हो सकेगा । अन्तमें, पाटण और अहमदाबादके उक्त भण्डारोंमें से, जो ये प्रतियां हमको प्राप्त हुई, उसके लिये, हम उन भण्डार - रक्षकोंके और प्रतियां प्राप्त करा देनेवाले सज्जनोंके पूर्णतया कृतज्ञ हैं । किं बहुना ? 1
पोष शुक्ल १, संवत् १९९१ अनेकान्त विहार
भारती निवास; अहमदाबाद.
जिन विजय
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॥ ॐ अर्हम् ॥ श्रीराजशेखरसूरिविरचितः चतुर्विंशतिप्रबन्धापरनामा
॥ प्रबन्ध को शः ॥
राज्याभिषेके कनकासनस्थः सर्वाङ्गदिव्याभरणाभिरामः । श्रियेऽस्तु वो मेरुशिरोऽवतंसः कल्पद्रुकल्पः प्रथमो जिनेन्द्रः ॥ १ ॥ विवेकमुच्चैस्तरमारुरोह यस्ततोऽद्रिशृङ्कं चरणं ततस्तपः ।
ततः परं ज्ञानमथोत्तमं पदं श्रियं स नेमिर्दिशतूत्तरोत्तराम् ॥ २ ॥ यस्मै स्वयंवर समागतसप्ततत्त्वलक्ष्मीकरग्रहणमाचरतेति भक्त्या । सप्त व्यधात्फणिपतिः फणमण्डपान्किं वामाङ्गभूः स भगवान् भवतान्मुदे वः ॥ ३ ॥ अर्थेन प्रथमं कृतार्थमकरोद् यो वीरसंवत्सरे
दाने च व्रतपर्वजेऽर्थं परमार्थेनापि विष्वग् जनम् । यद्दत्ताऽऽगमशुद्धबीजकबलादद्यापि तत्त्वाभिधा
लभ्यन्ते निधयो बुधैर्भरतसुव्यस्यां स वीरः श्रिये ॥ ४ ॥ देयासुर्वामयं मे जिनपगणभृतो भारती सारतीत्रा
भारत्याः सौम्यदृष्ट्या विलसतु मम सा सन्तु सन्तः प्रसन्नाः । सूरि सद्गुरुः श्रीतिलक इति कलाः स्फोरयत्वस्तविघ्नः
शिष्याः स्फूर्जन्तु गर्जन्त्वविरल सुकृतं श्रेणयः श्रावकौघाः ॥ ५ ॥
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(१) इह' किल शिष्येण विनीतविनयेन श्रुतजलधिपारङ्गमस्य क्रियापरस्य गुरोः समीपे विधिना 15 सर्वमध्येतव्यम् । ततो भव्योपकाराय देशना' क्लेशनाशिनी" विस्तार्या । तद्विधिश्चायम्-अस्खलितम्, अमिलितम्", अहीनाक्षरं सूत्रमुच्चार्यम्" । अग्राम्यललितभङ्गयार्थः कथ्यः । कायगुप्तेन परितः सभ्येषु दत्तदृष्टिना यावदर्थबोधं वक्तव्यम् । वक्तुः प्रायेण चरितैः " प्रबन्धैश्च कार्यम् । तत्र श्री ऋषभादिवर्धमानान्तानां जिनानाम्, चत्र्यादीनां राज्ञाम्, ऋषीणां चार्यरक्षितान्तानां * वृत्तानि चरितानि उच्यन्ते । तत्पश्चात्कालभाविनां तु नराणां वृत्तानि प्रबन्धा इति
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(२) इदानीं वयं गुरुमुखश्रुतानां विस्तीर्णानां रसाढ्यानां चतुर्विंशतेः " प्रबन्धानां सङ्ग्रहं कुर्वाणाः स्म । तत्र सूरिप्रबन्धा दश, कविप्रबन्धाश्चत्वारः, राजप्रबन्धाः सप्त, राजाङ्गश्रावकप्र
1P भरणे । 2 CP 8 B विनये । 9 C देशिना । चरितैश्व | 14 C ० रक्षितानां ।
तरं । 3 AB फण० । 4 C च। 5 AB 10 A नाशनी । 11 B नास्ति पदमिदम् । 15 P नास्त्येतत्पदम् ।
10
5
० गुरु ० । 6 C सुकृतं । 7C इह हि । 12 B विना नास्त्यन्यत्रेदं पदम् । 13 C
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प्रबन्धकोशे बन्धास्त्रयः, एवं चतुर्विशतिः। १ भद्रबाहु-वराहयोः, २ आर्यनन्दिलक्षपकस्य', ३ जीवदेवसूरीणाम् , ४ आर्यखपटाचार्याणाम् , ५ पादलिप्तप्रभूणाम् , ६ वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः, ७ मल्लवादिनः, ८ हरिभद्रसूरीणाम् , ९ बप्पटिसूरीणाम् , १० हेमसूरीणाम् , ११ श्रीहर्षकवेः, १२ हरिहरकवेः, १३ अमरचन्द्रकवेः, १४ दिगम्बरमदनकीर्तिकवेः, १५ सातवाहन-१६वकंचूल-१७ विक्रमादित्य5१८ नागार्जुन-१९ उदयन-२० लक्षणसेन-२१ मदनवर्मणाम् , २२ रन-२३आभड-२४ वस्तुपालानां चेति । एषु प्रथमं भद्रबाहु-वराहप्रवन्धः।
१. भद्रबाहु-वराहप्रबन्धः । ६३) दक्षिणापथे प्रतिष्ठानपुरे भद्रबाहु-वराहाह्रौ द्वौ द्विजौ कुमारौ निर्धनौ निराश्रयों प्राज्ञी वसतः। तत्र यशोभद्रो नाम चतुर्दशपूर्वी समागतः। भद्रबाहु-वराही तद्देशनां शुश्रुवतुः। यथा10 १. भोगा भङ्गुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवस्तत्त्वस्येह कृते परिभ्रमत रे ! लोकाः! सृतं चेष्टितैः।
___ आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां काप्यात्यन्तिकसौख्यधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः॥१॥
एतच्छ्रवणमात्रत एव प्रतिबुद्धौ गृहं गत्वा तौ मन्त्रयेते स्म-जन्म कथं वृथा नीयते। तावद्भोगसामग्री नास्ति, तर्हि योगः साध्यते।
२. अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् । 15 यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटत्वं नो चेञ्चेतः! प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ ॥ २॥
-इति विमृश्य द्वावपि बान्धवौ प्रवव्रजतुः। ४) भद्रबाहुश्चतुर्दशपूर्वी षट्त्रिंशद्गुणसम्पूर्णः सूरिरासीत् । दर्शवकालिक-उत्तराध्ययनदशाश्रुतस्कन्ध-कल्प-व्यवहार-आवश्यक-सूर्यप्रज्ञप्ति-सूत्रकृत-आचाराङ्ग-ऋषिभाषिताख्यग्र
न्थदशकप्रतिबद्धदशनियुक्तिकारतया पप्रथे, "भाद्रबाहवीं नाम संहितां च व्यरचयत् । तदा 20 आर्यसम्भूति विजयोऽपि चतुर्दशपूर्वी वर्तते । श्रीयशोभद्रसूरीणां वर्गगमनं जातम् । भद्रबाहु
सम्भूतिविजयौ लेहपरौ परस्परं भव्याम्भोरुहभास्करौ विहरतो" भरते पृथक् पृथक् । वराहोऽपि विद्वानासीत् । केवलमखर्वगर्वपर्वतारूढः सूरिपदं याचते भद्रबाहादसहोदरपार्धात् । भद्रबाहुना भाषितः सः-वत्स! विद्वानसि, क्रियावानसि, परं सगर्वोऽसि । सगर्वस्य सूरिपदं न दनः। एतत्सत्यमपि तस्मै न सखदे। यतो 'गुरुवचनममलमपि सलिलमिव" महदुपजनयति 25 श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य' । ततो व्रतं तत्याज । मिथ्यात्वं गतः पुनर्द्विजवेषं जग्राह ।
६५) व्रतावस्थाऽधीतशास्त्रार्थज्ञतया वाराहसंहितादिनवीनशास्त्ररचनायां प्रजगल्भे"; लोकेषु च जगाद-अहं बाल्ये लग्नमभ्यस्यामि स्म। तद्विचार एव लीनस्तिष्ठामि स्म । एकदा प्रतिष्ठानाद्वहिः शिलायामेकस्यां लग्नं मण्डयामि स्म । सायममृष्ट एव तस्मिन् खस्थानमागत्य स्खपिमि स्म ।
सुप्तोऽहं तल्लग्नममृष्टं स्मरामि स्म । ततो माटुं तत्र यामि स्म । तत्र लग्नाधिष्ठिते शिलातले 30 पश्चानन उपविष्टोऽभूत् । तथापि तदुदरदेशे करं निक्षिप्य मया तल्लग्नं मृष्टम् । तावता" पश्चाननः
____ 1 Pक्षपणकस्य । 2 Bखपुटा। 3 B बप्पहट्टि; C बप्पभट्टः। 4 A वज्रः। 50 रखश्रावकः। 6P तेषु । 7AB 'वराह' नास्ति । 8C निराश्रियौ। 9C तत्र च। 10 C श्रितं । 11C गृहे। 12 CP भद्रः। 13 AB संभूतः। 14 BC विहरतौ। 15 BC नास्त्येतत्पदम्। 16 P प्रगल्भे। 17 A तावत् ।
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भद्रबाहु - वराहप्रबन्धः ।
३
साक्षाद्भास्कर एवाभूत् । तेनाहं भाषितः - वत्स ! तव दृढनिश्चयतया लग्नग्रहभक्त्या च बा" तुष्टोऽस्मि । रविरहम्, वरं वृणीष्व । अथ मयोक्तम्- खामिन् ! यदि प्रसन्नोऽसि, तदा निजविमाने चिरं मामवस्थाप्य', सकलमपि ज्योतिश्चक्रं मे 'दर्शय । अथाहं मिहिरेण' चिरं स्वविमानस्थः खे 'भ्रामितोऽस्मि । सूर्यसङ्क्रमितामृतसन्तर्पितेन च मया क्षुत्तृषादिदुःखं न किञ्चिदनुभूतम् । कृतकृत्यश्च सूर्यमापृच्छ्य ज्ञानेन च जगदुपकर्तुं महीलोकं भ्रमन्नस्मि । अहं 'वराहमिहिरः' इति वाच्यः । इत्यादि खैरं प्रख्यापयामास । सम्भाव्यत्वात् " लोके पूजां परमामाप" । प्रतिष्ठानपुरे शत्रुजितं भूपालं कलाकलापेन रञ्जयामास । तेन निजपुरोहितः कृतः । यतः
३. गौरवाय गुणा एव न तु ज्ञातेयडम्बरः । वानेयं गृह्यते पुष्पमङ्गजस्त्यज्यते मलः ॥ ३॥
(६) अथ श्वेताम्बरान्निन्दति - किममी वराकाः काका विदन्ति" ? | मक्षिकावद्भिणिहणायमानाः कारास्था इव कुचेलाः कालं क्षपयन्ति । क्षपयन्तु । तच्छृण्वतां श्रावकाणां शिरःशूलमुत्पेदे । धिगि- 10 दामस्माकं जीवितम् । येन गुर्ववज्ञां सहामहे । किं कुर्मः ? । अयं कलावानिति नरपतिना पूज्यते । राजभिः पूज्यते यश्च सर्वैरपि स पूज्यते ।
भवतु । तथापि भद्रबाहुमाह्वयामस्तावत् । इति संमय तथैव चक्रुः । आगताः श्रीभद्रबाहवः । कारितः श्रावकैः सस्पर्द्धि" प्रवेशमहः । स्थापिता गुरवः सुस्थाने । नित्यं व्याख्यारसानास्खादयामासुः सभ्याः । भद्रबाह्रागमे स" वराहो बाढं मम्लौ" । तथापि तेभ्यो नापकर्तुमशकदसौ । 15
(७) अत्रान्तरे वराहमिहिरगृहे पुत्रो जातः । तज्जन्मतुष्टः प्रभूतं धनं व्ययति" स्म । लोकाच पूजामाप्रोति स्म । 'पुत्रस्य वर्षशतमायुः' इति तेन नरेन्द्रादिलो काग्रे सभासमक्षं प्रख्यापितम् । गृहे उत्सवादयस्तस्य । एकदा सदसि वराहः प्राह स्म" - अहो ! सहोदरोऽपि भद्रबाहुर्मे पुत्रजन्मोत्सवे नागात्-इति बाह्या एते । एतदाकर्ण्य श्रावकै भद्रबाहुर्विज्ञप्तः एवं" एवं असौ वदन्नास्ते । गम्यतां भवद्भिरेकदा तद्गृहम् । मा वृधन्मुधा क्रोधः । श्रीभद्रबाहुनाऽऽदिष्टम् - " द्वौ क्लेशौ 20 कथं कारयध्वे ? । अयं बालः सप्तमे दिने निशीथे बिडालिकया घानिष्यते । तस्मिन्मृते शोकविसर्जनायापि " गन्तव्यमेव तावत् । ततः " श्रावकैरूचे - तेन विप्रेणोपराजमर्भस्य "समाशतमायुरुक्तम् । भवद्भिः "पुनरित्थंमादिश्यते । किमेतत् ? । श्रीभद्रबाहुखामिना भणितम् - ज्ञानस्य प्रत्ययः सारम् स चासन्न एवास्ते । स्थितास्तूष्णीं श्रावकाः । आगतं सप्तमं दिनम् । तत्रैव द्विप्रहरमात्र्यां" रात्र्यां बालं स्तन्यं पाययितुं धात्र्युपविष्टा । द्वारशाखार्थैन्यस्ताsर्गला 25 बालमस्तके पतिता जनान्तरसश्चारात् । प्रमीतो बालः । रुद्यते वराहगृहे । मिलितो लोकः । भद्रबाहुनाऽपि श्रावका उक्ताः - 'शोकापनोदो धर्माचार्यः' इति तत्रास्माभिरधुना गन्तव्यम् । श्रावकशतवृता" गतास्तत्राचार्याः । वराहः शोकशङ्कुङ्कुलोऽप्यभ्युत्थानाद्युचितमकरोत् । अभ्यवधाच्च - आचार्याः ! भवतां ज्ञानं मिलितम् । केवलं बिडालीतो मृत्युर्न, किन्त्वर्गलात: " । 0 मपि मे । 5 A प्रदर्शय । 6 A विहाय 'मिहरेण' ।
I
1 AB दृढतया । 2 P 'बाई' नास्ति । 3 P स्थापय । 4 A 7 P विनाsन्यत्र 'भ्रमितो ० ' । 8 AB क्षुत्तर्षादि ० । 9 B'च' नास्ति । 10 B सम्भाव्यत । 11 C परमाप; P परमामाप्य । 12 AC वदन्ति । 13 AB धिगस्माकं । 14 P सस्पर्द्ध ० । 15 P नास्ति 'स' । 16 A मम्ले । 17 AB व्यययति । 18 A प्राहस्य । 19 B एवमसौ । 20 CD विसर्जनायामपि । 21 P 'तत' नास्ति । 22 A समाः । 23 P पुनरिदं । 24 P मात्रायां रात्रौ । 25 AB • खाये। 26 P प्रमृतो । 27 PC ० शतावृता । 28 CP 'शंकु' नास्ति । 29 A वर्गलीतः ।
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प्रबन्धकोशे भद्रयाहुना 'निजगदे-तस्या अर्गलाया लोहमय्या अग्रभागे रेखामयी बिडाल्यस्ति, नासत्यं ब्रूमः । आनीयांवलोकिताऽर्गला, तथैवास्ते । अथोवाच वराहः-तथा पुत्रशोकेन न खियेऽहम् , यथा राजविदिताख्यातपुत्रशतायुष्क'वैफल्येन खिद्ये । धिगमीषां निजपुस्तकानां प्रत्ययेनामाभिर्ज्ञानं प्राकाशि' । एतान्यसत्यानि तस्मात् मृज्मः-इत्युक्त्वा कुण्डानि जलैरपूपुरत् । 5 पुस्तकानि माष्टुं स यावदारभते, तावद्भद्रबाहुना बाहौ धृत्वा वारितः-आत्मप्रमादेन ज्ञानं विनाश्य कथं पुस्तकेभ्यः कुप्यसि? । एते पुस्तकाः सर्वज्ञोक्तमेव भाषन्ते, ज्ञाता तु दुर्लभः। अमुकस्मिन्' अमुकस्मिन् स्थाने त्वं विपर्यस्तमतिर्जातः, आत्मानमेव निन्द।
___४. प्रभुप्रसादस्तारुण्यं विभवो रूपमन्वयः । शौर्य पाण्डित्यमित्येतदमद्यं मदकारणम् ॥ ४ ॥ मत्तस्य च कुतो विचारसूक्ष्मेक्षिका। तस्मान्मा भाजीः पुस्तकान् । इति निषिद्धः, विलक्षी10 भूय स्थितो वराहः । तत्रान्तरे पूर्व तत्कृतार्हन्मतगर्दापीडितमनसा केनापि श्रावकेण पठितम्
५. युष्मादृशाः कृपणकाः कृमयोऽपि यस्यां भान्ति स्म सन्तमसमय्यगमन्निशाऽसौ ।
सूर्यांशुदीप्तदशदिगदिवसोऽधुनाऽयं भात्यत्र नेन्दुरपि कीटमणे ! किमु त्वम् ॥ ५॥ इति वदन्नेव नष्टः सः । बाढ़ पीडितो वराहः। अत्रान्तरे खयमागतो राजा। राज्ञोक्तम्
मा स्म शोचीः, भवस्थितिरियं विद्वन् ! । तदा जिनभक्तेन राजमन्त्रिणैकेन भणितम्-ते आचार्या 15 नवा आयाताः सन्ति, यैर्डिम्भस्य सप्ताहमात्रमायुरभाणि । ते सङ्गतवाचो महात्मानः ।
केनापि दर्शिता भद्रवाहवः-एते" ते । तदा द्विजस्तथा दूनो यथा स एव विवेद । गतो राजापि, भद्रबाहुरपि, लोकोऽपि खस्थानम् । राजा श्रावकधर्म प्रतिपेदे।
८) वराहोऽपमानाद्भागवतीं दीक्षां गृहीत्वाऽज्ञानकष्टानि महान्ति कृत्वा जैनधर्मद्वेषी दुष्टो व्यन्तरोऽभूत् । ऋषिषु द्वेषवानपि न प्रबभूव । 'तपो हि वज्रपञ्जरमायं महामुनीनां परप्रेरित20 प्रत्यूहपृषत्कदुर्भेदतरम्' । अतः श्रावकानुपद्रोतुमारेभे । गृहे गृहे रोगानुत्पादयामास । श्रावकैः पीडातर्भद्रबाहुरादरेण विज्ञप्तः-भगवन् ! भवति सत्यपि यद्वयं रुग्भिः पीड्यामहे, तत्सत्यमिदम्-'कुञ्जरस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणैर्भक्ष्यते” इति । "गुरुभिरभाणि-मा भैष्ट, सोऽयं वराहमिहिरः" पूर्ववैराद्भवद्भ्यो दुर्घक्षति" । रक्षामि पाणेरपि" वज्रपाणेः । ततः पूर्वेभ्यः उद्धृत्य "उवसग्गहरं पासम् इत्यादि स्तवनं गाथापञ्चकमयं सन्ददृभे गुरुभिः. पाठितं" च तलोके । 25 सद्यः शान्तिं गताः क्लेशाः। अद्यापि कष्टापहारार्थिभिस्तत्पठ्यमानमास्ते । अचिन्त्यचिन्तामणिप्रतिमं च तत् । श्रीभद्रबाहूनां विद्योपजीवी चतुर्दशपूर्वी श्रीस्थूलभद्रः परमतान्यचुचूर्णदिति ।
॥ श्रीभद्रबाहु-वराहप्रबन्धः॥१॥
1A भिजगदे। 2 CP आनीता। 3CP तायुस्वः। 4 B प्रकाशितं । 5 A तस्मान्मृज्मः; B मृत्युः । 6AB नास्ति । 7 P विर्नास्ति । 8 P 'च' नास्ति। 9 BCP याताः। 10 B सप्ताहमायु० । 11 B एतेन । 12 A भक्षितः। 13 A गुरुर। 14 A वराहखेचरः, BC वराहवरः। 15 P दुधुक्षति। 16 C प्राणैरपि। 17 CP पठितं । 18 P .लोकैः। 19 A कष्टापहाधिः। 20 A न्यनुचू० ।
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आर्यनन्दिलप्रबन्धः।
२. अथार्यनन्दिप्रबन्धः । ६९) पद्मिनीखण्डपत्तने पद्मप्रभैनामा राजा । तस्य भार्या पद्मावती । तस्मिन् पुरे पद्मदत्तनामा श्रेष्ठी वसति । तस्य कान्ता पद्मयशा नाम । तयोः सुतः पद्मनामाऽभूत् । वरदत्तेन सार्थवाहेन स्वकीया वैरोट्या नाम पुत्री तस्य दत्ता । स तां व्यवाहयत् ।।
अन्यदा वरदत्तो वैरोट्याजनकः सपरिवारो देशान्तरं गच्छन् वनदवेन दग्धः । वैरोच्या 5 'श्वश्रूः शुश्रूष्यमाणाऽपि निष्पितृकां भणित्वाऽपमानयति । यतः
६. रूपं रहो धनं तेजः सौभाग्यं प्रभविष्णुता । प्रभावात्पैतृकादेव नारीणां जायते ध्रुवम् ॥ १॥
सा श्वश्रूवचनैः कुकूलानलकर्कशैः पीडिताऽपि दैवमुपालभते, न श्वधू निन्दति । चिन्तयति च
७. सव्वो पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होइ ॥ २॥ 10 १०) अन्यदा वैरोट्या भोगीन्द्रखनसूचितं गर्भ बभार । पायसभोजनदोहद उत्पन्नः। तदाऽऽचार्यनन्दिलनामा सूरिरुद्याने समवासार्षीत् , सार्द्धनवपूर्वधर आर्यरक्षितस्वामिवत् । श्वभूरिति वक्ति-अस्या वध्वाः सुता भविष्यति, न तु सुतः। इति कर्णक्रकचकर्कशतद्वचःपीडिता सती सा सती वधूः सूरिवन्दनार्थ गता । सूरयो वन्दिताः। खस्य श्वश्वा सह विरोधोऽकथि । सूरिभिरुक्तम्-पूर्वकर्मदोषोऽयम् , क्रोधो न वर्द्धनीयः भवहेतुत्वात्। वत्से! 15
८. इह लोए चिय कोवो सरीरसंतावकलहवेराई । कुणइ पुणो परलोए नरगाइसुदारुणं दुक्खं ॥३॥ पुत्रं च लप्स्यसे । पायसदोहदस्ते जातोऽस्ति । सोऽपि यथातथा पूरयिष्यते । इति सा सूरिवचसाऽऽनन्दितचित्ता निजगृहमागच्छत् अचिन्तयच्च९. अस्माभिश्चतुरम्बुराशिरसनाविच्छेदिनी मेदिनीं भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुषगुणो दृष्टो विशिष्टो जनः । यस्याज्ये चिरसञ्चितानि हृदये दुःखानि सौख्यानि वा व्याख्याय क्षणमेकमर्द्धमथवा निःश्वस्य विश्रम्यते ॥ ४ ॥20
एते तु गुरवस्तादृशाः सन्ति । ६११) पद्मयशा अपि चैत्रपूर्णिमायामुपोषिता पुण्डरीकतपसि क्रियमाणे उद्यापनमारेभे । तहिने पायसपूर्ण प्रतिग्रहो यतिभ्यो दीयते, साधर्मिकवात्सल्यं च क्रियते । तया सर्व कृतम् । वध्वाः पुनर्वैरभरीत्कुलत्यादि कदशनं दत्तम्। वधूः पुनः स्थाल्यामुद्वृत्तं पायसं प्रच्छन्नं गृहीत्वा वस्त्रे बद्धा" घटे क्षित्वा जलाशयं जलाय गता। वृक्षमूले" कुम्भं मुक्त्वा यदा हस्तपादप्रक्षा-25 लनार्थं गता, तावताऽलिझरनामा नागः पातालेऽस्ति, तस्य कान्तायाः क्षीरान्नदोहदः समजनि । पृथिव्यामायाता क्षीरान्नं गवेषयति । तत्र तरोर्मूले घटमध्ये क्षीरानं दृष्टम् , भुक्तं च । येन मार्गेणागता, तेनैव गता नागपत्नी । यदा वैरोट्या पादशौचं कृत्वा समायाति, तावत् क्षीरानं न पश्यति । तथापि न चुकोप, न विरूपं बभाषे। किन्त्वेवं बभाण
येनेदं भक्षितं भक्ष्यं पूर्यतां तन्मनोरथः ।
1 BC नन्दिप्र०। 2 AC प्रभो। 3CDP नामा। 4 A दावेन । 5CD स्वः। 6 AD अ। 7AB करें। 8P ततः स्वस्य । 9 BC पूरयिष्ये। 10 ABD 'तु' नास्ति। 11 P पूर्णः। 12 P .भावात् । 13 P . उद्धृतं । 14 P कृत्वा। 15 D नास्ति। 16 P विनाऽन्यत्र नास्ति। 17 PCD पायसः ।
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प्रबन्धकोशे इत्याशिषं ददौ । इतश्चालिञ्जरपत्न्या तर्वन्तरितस्थितया तस्यास्तदाशीर्वचनं श्रुतम् । स्वस्थानमेत्य खभत्रै निवेदितं च । वैरोट्या स्वगृहमागता । ततो रात्रौ वैरोट्याप्रातिवेदिमक्याः स्त्रियाः खमे नागपन्या कथितम्-भद्रे! अहं अलिञ्जरनागपत्नी । मदीया तनया वैरोव्या। तस्याः पायसदोहदोऽस्ति, स त्वया पूरणीयः । तथा तस्याने कथनीयम्-तव पितुर्ग्रहं नास्ति, परमहं 5 पितृसमानोपकारं करिष्यामि, श्वश्रूपराभवाग्नितापमुपशमयिष्यामि । तया प्रातिवेश्मिक्या प्रातर्वैरोट्या क्षीरान्नं भोजिता । सम्पूर्णदोहदा सुतमजीजनत् । नागकान्तयाऽपि सुतशतमसूयत। वैरोट्यापुत्रनामकरणदिने पन्नगेन उत्सवः कारितः । यत्र पितृगृहं पूर्व स्थितं तत्र धवलगृहं कारयित्वा पातालवासिभिर्नागैरलङ्कृतम् । गजा-ऽश्व-वरवाहन-पदाति-वर्गसहिता नागलोकाः समाययुः। तस्या गृहं लक्षया संकीर्ण चक्रुः । ['अलिञ्जरपत्नी पतिना (पत्या?) 10 पुत्रैश्च युता दिव्यवस्त्र-पट्टकूल-वर्ण-रत्न-खचितसर्वाङ्गाभरणादिकं सर्व मनोज्ञं वस्तुसमूहं वैरो व्यायाः प्रतिपन्नसुतात्वेन पूरयति । वैरोट्या अलिश्नरपत्नीगृहे नित्यं यात्यायाति च । अलिअरपल्याऽतीव मान्यते, पूज्यते वैरोव्या।] श्वश्रूस्तथारूपं पितृगृहमेलापकमिव दृष्ट्वा ['तां वैरोट्यां] वधू सत्कर्तुमारेभे-लोकः पूजितपूजकः' । वैरोव्याया रक्षार्थ नागवध्वा [खिकीयलघवः शतं पुत्राः] सर्पका समर्पिताः। तया सो घटे क्षिप्ताः। तत्र च कयापि कर्मकर्या अग्नितप्तस्थाली15 मुखे सर्पघटो दत्तः । ['तत्क्षणमेव] वैरोट्ययोत्तारितः। पानीयेनाभिषिक्तास्ते ततः स्वस्थाः
सम्पन्नाः । एकस्तु शिशुर्विपुच्छो जातः । यदा स' स्खलति क्षौति, तदा वैरोट्या ब्रूते-बण्डो जीवतु । वैरोट्या जातकस्य लेहेन मोहितास्ते सर्वे बान्धवरूपाः सर्पाः क्षौमरत्नखर्णादि दत्त्वा नामकरणं च कारापयित्वा यथास्थानं ययुः । वैरोट्या नागप्रभावात् गौरवपात्रं जाता।
अन्यदाऽलिञ्चरः स्वपुत्रं पुच्छरहितं दृष्ट्वा चुक्रोध । [मिम पुत्रः केन दुरात्मना विपुच्छः 20 कृतः। ततो वैरोव्यया कृतो विपुच्छो मे पुत्रः-इत्यवधिना ज्ञात्वा वैरोट्याया उपरि पूर्व सुप्रसन्नोऽपि चुकोप । ] कुपितः सन् विरूपं कर्तु अवधिना" ज्ञात्वा वैरोट्यागृहमगमत् । अलिञ्जरो गूढतनुहमध्ये स्थितः। यदा वैरोट्या ध्वान्तभरे सति गृहापवरकमध्ये प्रविष्टा, तदा तयोक्तम्-चण्डो जीवतु चिरम् । तच्छ्रुत्वा नागराजः सन्तुष्टस्तस्यै नुपूरे ददौ। अद्यप्रभृति वत्से! त्वया पाताले आगन्तव्यम् , नागाश्च त्वद्गृहमेष्यन्ति-इति प्रसादः कृतः। सा वैरोव्या पाताले 25 गमनागमनं करोति, नागवरात् । ["नागदत्तः' इति नाम दत्तं पुत्रस्य । तदा पद्मदत्तो वैरोव्याश्वशुरः श्रीआर्यनन्दिलक्षपकैरेवमुक्तः-त्वया खवध्वाऽग्रे कथनीयम् , नागाश्रयं गतया त्वया नागा वक्तव्या, भवद्भिर्लोकस्यानुग्रहः कर्तव्यः । कोऽपि न दंष्टव्यः । तत्सूरिवचनं श्वशुरेण तस्यै, तया च नागेभ्यः कथितम् । तत्र गता च वैरोट्या एवमुच्चैर्जगौ-सालिअरपत्नी जीयात् । सोऽलिञ्चरोजीयात । येनाहमपितगृहाऽपि" सपितगृहा कता। अनाथाऽपि सनाथा सन्चाता। भो 80 भो नागकुमाराः! आर्यनन्दिलेन महात्मना एवमादिष्टम्-लोको न पीडयितव्यः। [लोकस्यानुग्रहः कार्यः] वैरोट्या पुनरपि खगृहं गता । गुरुणा 'वैरोव्यास्तवो' नवो विरचितः। यो वैरोव्या___1 AC 'च' नास्ति । 2 P पितृकुलं । 3 AB नामकरणनामदिने। 4 ABD वासिभिरधिकृतं नागैः। 5 P विना 'लक्ष्म्या' नास्ति । + P विनाऽन्यत्र नास्ति कोष्टकान्तर्गत एष पाठः। 6P तथाविधं। 7 CD सर्पाः। 8 AB सुस्थाः। 9AC यदासौ। 10 P शितौ। 11 P च कारयित्वा । 12-13 P नास्ति। 14 B गृहमध्यं । 15 P विनाऽन्यत्र नास्ति । 16 AB करणीयः। 17 AB 'अहमपि सपितृगृहा' इत्येव । 18 ABD जाता। P विना नास्त्यन्यत्रैष पाठः ।
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जीवदेवसूरिप्रबन्धः। स्तवं पठति, तस्य पन्नगभयं नास्ति । पन्नगाः सर्वे वैरोव्यया गुरोः पार्श्वमानीताः । उपदेशं श्राविताः। उपशान्तचित्ताः संवृत्ताः । नागदत्तनामा वैरोच्यापुत्रः सौभाग्यरङ्गभूरभूत् । पद्मदत्तेन प्रियासहितेन व्रतं गृहीतम् । तपस्तत्वा स्वर्ग गतः। पद्मयशा अपि तस्य देवत्वं प्राप्तस्य इच्छासिद्धियुजो देवी सञ्जाता । वैरोट्या च फणीन्द्राणां ध्यानान्मृत्वा धरणेन्द्रपत्नीत्वेनोत्पन्ना। तत्रापि 'वैरोव्या' इति नामास्याः।
॥ इति आर्यनन्दिलप्रबन्धः ॥२॥
३. अथ श्रीजीवदेवसूरिप्रबन्धः। ६१२) गूर्जरधरायां वायुदेवतास्थापितं वायट नाम महास्थानम् । तत्र धर्मदेवनामा श्रेष्ठी धनवान् । तस्य शीलवती नाम गेहिनी गेहश्रीरिव देहिनी । तयोः सुतौ महीधर-महीपालौ । महीपाला क्रिडाप्रियो न कलाऽभ्यासं करोति । ततः पित्रा हक्कितो रुष्टो देशान्तरमसरत् । धर्मदेवश्रेष्ठी 10 परलोकं प्राप्तः । महीधरोऽपि श्रीजिनदत्तसूरीणां वायटंगच्छीयानां पादमूले प्रवव्राज । स राशिल्लसूरि म सूरीन्द्रो बभूव । महीपालोऽपि पूर्वस्यां दिशि राजगृहे पुरे दिगम्बराचार्यदीक्षां प्राप्याचार्यपदमवाप । 'सुवर्णकीर्तिः' इति नाम पप्रथे। श्रुतकीर्तिना गुरुणा तस्मै द्वे विये प्रदत्ते-चक्रेश्वरीविद्या परकायप्रवेशविद्या च । धर्मदेवे दिवंगते शीलवती दुःखिन्यासीत् । यतः१०. यथा नदी विनाऽम्भोदाद्यामिनी शशिनं विना । अम्भोजिनी विना भानु भा कुलवधूस्तथा ॥१॥ 15
राजगृहागतपरिचितमनुष्यमुखेन वपुत्रं स्वर्णकीति तत्रस्थं ज्ञात्वा तमिलनाय गता। मिलितः सुवर्णकीर्तिस्तस्याः। उन्मीलितो मातापुत्रलेहः । एकदा तया सुवर्णकीर्तिर्भाषितःतव पिता दिवमगमत् । त्वमन्त्र सूरिः । महीधरस्तु राशिल्लसूरि म श्वेताम्बरसूरिपदे वर्तते । वायटप्रदेशे विहरति । यवां द्वावेकमतीभूय एकं धर्ममाचरतम् । वायटमानीतस्तया सः। द्वौ बान्धवावेकत्र मिलितौ । सुवर्णकीर्तिर्भाषितो मात्रा-वत्स! त्वं श्वेताम्बर एधि । सुवर्णकीर्ति-20 वदति-राशिल्लसूरिदिगम्बराचार्यों भवतु मदनुसरणात् । एवं वर्तमाने मात्रा द्वे रसवत्यौ कारिते । एका विशिष्टा । द्वितीया मध्यमा कुटुम्बार्था । दिग्वासाः पूर्वमाकारितः। स विशिष्टां रसवती भुके खैरम् , कुरसवतीं पश्यत्यपि न । राशिल्लसूरिशिष्यो द्वावागतौ । ताभ्यां निर्जरार्थिभ्यां कुरसवती विजहे । मात्रा भोजनानु दिगम्बरः प्रोक्तः-वत्स! एते श्वेताम्बरा: 25 शुद्धाः, त्वमाधाकर्मचिन्तां न करोषि । एते तु वदन्ति
११. भुलइ आहाकम्मं सम्मं न य जो पडिक्कमई लुद्धो । सव्वजिणाणाविमुहस्स तस्स आराहणा नत्थि ॥ २॥ . तथैव च पालयन्ति । तस्मादेतेषां मिल, मोक्षमिच्छसि चेत् । सुवर्णकीर्तिर्मातृवचसा प्रबुद्धः श्वेताम्बरदीक्षामाददे । 'जीवदेवसूरिः' इति नाम तस्य दशसु दिक्षु विस्तृतम् । यतिपञ्चशती सहचरो विहरन् भव्यानां मिथ्यात्वादिरोगान् सुदेशनापीयूषप्रवाहेण निर्दलयति श्रीसूरिः। 30 ६१३) एकदा देशनायां योगी कश्चिदागतः । [सत्रैलोक्यजयिनी विद्यांसाधयितुं द्वात्रिंश
1 ABD नास्ति। 2A वायर्ड। 3A वायड। 4 A शशिना। 5 ABD नास्त्येतत्पदम् । 6A मदन्वशरणात् । 7ACD अपरा। 8 P .कम्मइ। 9 B एषां। 10 AD दत्ते। 11 P श्रीसूरेः। 12 A.B दायातः। एप कोटकामतर्गतः पाठः P विना नास्त्यन्यत्र ।
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प्रबन्धकोशे लक्षणभूषितं नरं विलोकयति । तस्मिन्समये ते त्रय एव । एको विक्रमादित्या, द्वितीयो जीवसूरिः, तृतीयः स एव योगी, नान्यः। राजाऽवध्यः । नरकपाले एकपुटी षण्मासी यावद्रिक्षा याच्यते भुज्यते च, ततः सिध्यति । तेन सूरि छलयितुमायातः । सूरीणां सूरिमनप्रभावाइस्त्राण्येव नीलीभूतानि न पुनर्वपुः । ततो गुरुसमीपस्थवाचकजिह्वा स्तम्भिता]। श्रीजीवदेव5 सूरिदृष्टौ जिह्वया' योगपट्टपर्यस्तिकां बबन्ध । सभ्यलोको विभाय । प्रभुभिः स कीलितः। ततस्तेन खटिकया भूमौ लिखितम्
१२. उवयारह उवयारडउ सव्वु लोउ करेइ । अवगुणि कियइ जु गुणु करइ विरलउ जणणी' जणेइ ॥३॥ ___ अहं तव च्छलनार्थमागतोऽभूवम् । त्वया ज्ञातः, स्तम्भितः, प्रसीद, मुश्च, कृपां कुरुइत्यादि । ततः कृपया प्रभुभिर्मुक्तोऽसौ वायटनगरे बहिर्मठी गत्वा तस्थौ । प्रभुभिः खगच्छः 10 समाकार्योक्तः-योगी दुष्टो बहिर्मठेऽस्ति अमुकदिशि । तस्यां दिशि केनापि साधुना साध्व्या वा
न गन्तव्यमेव । तथेति तन्मेने सर्वैः। साध्व्यौ तु द्वे ऋजुतया कुतूहलेन तामेव दिशं गते । योगिना समेत्य चूर्णशक्त्या वशीकृते तत्पार्च न मुञ्चतः । प्रभुभिः स्ववसतौ दर्भपुत्रकः कृतः। तत्करच्छेदे योगिनोऽपि करच्छेदः । मुक्ते साध्व्यौ । मस्तकक्षालनात्परविद्याविदलने सुस्थीभूते ते।
६१४) अथान्यदोजयिन्यां विक्रमादित्येन वत्सरः प्रवर्तयितुमारेभे। तत्र देशानामनृणीकरणाय 15 मन्त्री निम्बो गूर्जरधरादिशि प्रहितो विक्रमेण । स निम्बो वायटे श्रीमहावीरप्रासादमचीकरत् । ..तत्र देवं श्रीजीवदेवसूरीन्द्रः प्रत्यतिष्ठिपत् । अन्येचुर्वायटे लल्लो नाम श्रेष्ठी महामिथ्यादृग् ।
तेन होमः कारयितुमारब्धः। विप्रा मिलिताः। आसन्नादाचाम्लिकाद् द्रुमालूमाकुलोऽहिः कुण्डा
सन्नोऽपतत् । निघृणैर्विप्रैः स वराक उत्पाट्य वहौ" जुहुवे। लल्लस्तद् दृष्ट्वा विरक्तो विप्रेषु उवाच--अहो! निष्ठुरत्वमेतेषाम् । एवं जीवहिंसारता ये। तस्मादलमेभिर्गुरुभिः । एवं वदन् विप्रान् 20 विसृज्य स्वगृहमगमत्।"दर्शनानामाचारान्विलोकते । एकदा मध्याह्ने श्रीजीवदेवसूरीणां साधुसवाटकस्तद्गृहे भिक्षार्थ गतः । तयोः शुद्धभिक्षाग्रहणात्तुष्टः । लल्लेन तौ मुनी आलापितौयुवयोः के गुरवः । ताभ्यां श्रीजीवदेवसूरयः कथिताः । लल्लस्तत्र गतः । श्रावकद्वादशवती ससम्यक्त्वां ललौ । अन्यदा लल्लेनोक्तम्-सूर्यपर्वणि मया द्रव्यलक्षं दाने कल्पितम् । तस्याई व्ययितम्, शेषमई गृह्णीत । न गृह्णन्ति ते निर्लोभाः। लल्लो बाढं प्रीतः । गुरुभिरुक्तम्-अथ 25 सायं प्रक्षालितैकपादस्य तव यत्प्राभृतमायाति तदस्मत्पार्चे आनेयम् । इति श्रुत्वा गृहं गतो
लल्लः । सायं केनापि "द्वौ वृषभौ प्राभृतीकृतौ । लल्लेन गुरुपार्श्वमानीतौ । गुरुणोक्तम्-यत्रैतौ स्वयं यात्वा तिष्ठतः। तत्रैतद्र्व्यव्ययेन चैत्यं काराप्यम् । तच्छ्रुत्वा तेन वृषौ स्वच्छन्दं मुक्तौ पिप्पलानकग्रामे" गतौ क्वचित् स्थितौ । तत्र भूमौ लल्लेन चैत्यमारब्धम् । निष्पन्नम् । तत्रावधूतः
कोऽप्यायातः । तेनोक्तम्-अत्र प्रासादे दोषोऽस्ति । जनैरुक्तम्-को दोषः । तेनोक्तम्30 स्त्रीशल्यमास्ते । लल्लेन तच्छ्रुत्वा गुरवो विज्ञप्ताः । गुरुभिरुक्तम्-निःशल्यां भूमि कृत्वा पुन: प्रासादः कार्यते । लल्ल! त्वया द्रव्यचिन्ता न कार्या । तदधिष्ठात्र्यो धनं पूरयिष्यन्ति । प्रसाद उत्कीलयितुमारेभे । शब्द उत्पन्न:-चैत्यं नोत्कीलनीयम् । गुरवो विज्ञप्ताः । तैानं दः ।
1 BD दृष्टो । 2 B जिह्वाया; P स्वजिह्वाया। 3 P सब्बउ । 4 C अवगुण। 5 CD गुण। 6 A विरला । 7C जणिणि । 8 P नास्ति। 9A वर्तयि०, P संवत्सरः प्रवर्तः। 10 A.B नास्तीदं पदम्। 11 ABD अग्नौ । 12 AB नास्ति । 13 DP सर्वदर्शना। 14 P कथितं। 15 P द्वे। 16 B तत्रैव द्रव्यः। 17 AB ग्रामं ।
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आर्यखपटाचार्यप्रबन्धः ।
अधिष्ठात्री देव्याययौ । तयोक्तम्-कन्यकुब्जराजसुताऽहं महणीनाम्नी पूर्व गूर्जर देशे वसन्ती म्लेच्छसैन्ये समागते पलायमाना तेषु पृष्ठापतितेषु भियाऽत्र कूपेऽपतम् । मृत्वा व्यन्तरी जाता । अतः स्वाङ्गास्थिशल्याकर्षणं नानुमन्ये । मामधिष्ठात्रीं कुरु । यथा ऋद्धिं वृद्धिं कुर्वे । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततस्तद्दत्तभूमौ तद्योग्या देवकुलिका कारिता । तत्र चामितं धनं लब्धम् । लल्लो निष्प्रतिमल्लसुखभाजनमभवत्; सङ्घश्च तुष्टः । लल्लरोषाद् द्विजैर्मुमूर्षुगौचैत्ये क्षिप्ता । सा तत्र 5 मृता । श्रावकैर्विज्ञतं तद् गुरवे । गुरुणा विद्याबलाद्गीर्ब्रह्मभवने' क्षिता । ' यच्चिन्त्यते परस्य तदायाति सम्मुखमेव' । ब्राह्मणैरनन्योपायत्वाज्जीवदेवसूरयोऽनुनीताः - जीवदेवसूरे ! तारय नः । श्रीसूरिभिस्ते तर्जिताः, उक्ताश्च यदि मच्चैत्ये मत्पट्टसूरेश्च श्रावकवत् सर्वो भक्तिं कुरुध्वे, मत्सूरेः सूरिपदप्रस्तावे हेममययज्ञोपवीतं दत्थ, तत्सुखासनं स्वयं वहथ, तदा गामिमां ब्रह्मा' लयादाकृषामि; अन्यथा तु न । तैरपि कार्यातुरैः सर्वमप्यङ्गीकृतम् । अक्षरादिभिः स्थैर्यमुत्पा-10 दितम् । ततो गौराकृष्याचार्यैर्बहिः । क्षिप्ता । तुष्टं चातुर्वर्ण्यम् । कालान्तरे मरणासन्नैः" सूरिभिस्तस्माद्योगिनो बिभ्यद्भिः स्वकीयाखण्डकपालस्य सर्वसिद्धिहेतोर्भञ्जनं श्रावकाग्रे कथितम् । अन्यथा विद्यासिद्धौ सङ्घोपद्रवं करिष्यति । तथैव तैस्तदा चक्रे । योगी निराशश्विरम रोदीत् ॥ ॥ इति श्रीजीवदेवसूरिप्रबन्धः समाप्तः ॥ ३॥
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४. अथार्यखपटाचार्य प्रबन्धः ।
९१५) कापि गच्छेऽनेकातिशयलब्धिसम्पन्नाः श्रीआर्यखपटा" नाम आचार्यसम्राजः । तेषां शिष्यो भागिनेयो भुवनो नाम । ते सूरयो भृगुकच्छं विजहुः । तत्र बलमित्रो नाम बौद्धभक्तो राजा । बौद्धाश्च महाप्रामाणिकास्तादृग्यजमानगर्विताश्च दुर्दान्ताः । 'एकं वानरी, अपरं वृश्चिकेन जग्धा' इति न्यायात् ते" श्वेताम्बराणां धर्मस्थानेषु तृणपूलकान्निक्षेपयन्ति । 'यूयं पशवः' इति भावः । तर्योऽवज्ञया खपटाचार्या न चुकुधुः, गुरुत्वात् । यतः
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१३. उपद्रवत्सु क्षुद्रेषु न क्रुध्यन्ति " महाशयाः । उत्फालैः शफरैः किं स्याल्लोलः कल्लोलिनीपतिः ॥ १ ॥ भुवनस्तु चुकोप । श्रावकशतसहस्रसङ्कुलो राज्ञः पार्श्व ययौ । श्रीसङ्घ- गुर्वनुज्ञां गृहीत्वा तत्रोचैरुवाच
1 P महणीना० । 2 C पतन्ती । 6 DP • द्वेषात् । 7 A भुवने । 8B सर्वमङ्गी० । 11 DP मरणासन्तौ । 14 BC धर्मस्थाने । 15 P अनया । २ प्र० को ०
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१४. तावड्डण्डिमघोषणां विदधतां तावत्प्रशंसन्तु च स्वात्मानं प्रथयन्तु तावदतुलां रीढां च पूज्ये खलाः । यावत् प्राज्यघृतप्रतर्पितबृहद्भानुप्ररोहत्पृथु - ज्वालाजालकरालजल्पनिवहैर्नोत्तिष्ठतेऽयं जनः ॥ २ ॥ राज्ञा बलमित्रेणोक्तम्- साधो ! किं किमात्थ ? । भुवनो बभ्राण - तव गुरवस्तार्किकंमन्या गेहेन - दिनः श्वेताम्बरान्निन्दन्ति । ततो वयं वादाय त्वत्सदः सम्प्राप्ताः " । आस्फालय तान्मया सहकदा, भवतु श्रोतॄणां कर्णकौतुकम् । ततो राज्ञा ते आहूताः । चतुरङ्गसभायां वादं
3 P प्रतोल्यां मामधिष्ठात्रीं खं कुरु । 4 D यद्वा । 5 P ० पवं तत् तद्दत्त० । 'मय' नास्ति । + एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता B आदर्शे । 9 D तैरेव | 10 P एतदन्तर्गतः पाठो नास्ति ABD आदर्श 12 BD खपुटा । 13 'ते' नास्ति P 16 BD क्षुभ्यन्ति; C कुप्यन्ति । AB प्राप्ताः । 18 A तावत् मया ।
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प्रबन्धकोशे
कारिताः। भुवनमुनिपञ्चाननतर्कचपेटाताडिताः फेरण्डा इव तूष्णीकाः समजनिषत । राजादिभिघोषितो जयः श्वेताम्बरशासनस्य । वर्तन्ते चैत्येषु महोत्सवाः । बौद्धास्तु हिमहतपनवनाभा जाताः । तं बौद्धापमानं श्रुत्वा बौद्धाचार्यों गुडशस्त्रपुराद् वृद्धकराख्यो महातार्किको भृगुपुरमगात् । राजानमवोचत्-श्वेताम्बरैः सह मां वादं कारापय । राज्ञा भुवनप्रज्ञास्फूर्जितेन' 5 वारितोऽपि नास्थात् । वादेऽजित एव सोऽपि भुवनेन जितः। न खलु यमो भूतानां ध्रायते । जित्वा सभ्याः प्रभाषिताः-भो! भो! शृणुत- .
१५. यदृको दृषदो यदुष्णकिरणो ध्वान्तस्य यच्छीतगुः, शेफालीकुसुमोत्करस्य च दशाकर्षः पतङ्गस्य यत् । ____ अद्रेर्यत्कुलिशः प्रचण्डपवनो मेघस्य यद्यत्तरोः, पशुर्यत्करिणो हरिः प्रकुरुते तद्वादिनोऽसावहम् ॥ ३॥ सभ्याश्च चमत्कृता उज्जुघुषुः-जयति धवलाम्बरशासनम् । वृद्धकरः 'पुनरपैमानाशनिततोऽन10 शनं कृत्वा गुडशस्त्रपुरे वृद्धकराख्यो यक्ष उत्पन्नः । प्राग्वैरेण जैनानुपद्रवति, व्याधिवर्द्धन
भापन-धनहरणादिप्रकारैः । गुडशस्त्रपुरसङ्घन आर्यखपटास्तविज्ञप्ताः तत्र गताः । तत्र च यक्षायतनं प्रविश्य यक्षस्य कर्णयोरुपानही बबन्धुः; वक्षसि पादौ ददुः । लोको मिलितः। राजा तत्रत्यः तत्रागतः। राज्ञि तत्रागते आचार्याः श्वेतवस्त्रेण खं सर्वमङ्गमावृत्य तस्थुः । राजा यत्र यत्रोद्घाटयति, तत्र तत्र स्फिचीवेव दृश्येते । ततः क्रुद्धो राजा घातान्दापयति खपटाचार्य15 स्था) । ते घाताः शिरीषकोषादपि कोमलेष्वन्तःपुरीणामङ्गेषु लेगुः । उच्छलितोऽन्तःपुरे स्त्रीणां कोलाहल:-हा नाथ ! रक्ष रक्ष, हा! हन्यामहे केनाप्यदृष्टेन, कथं जीविष्यामः । राजा सूरिशक्तिचमत्कृतमनाः सूरीणां पैदोर्लग्ना-प्रसद्य मम सपरिजनस्य जीवितभिक्षां देहि; कृपालुस्त्वम्-इत्याधुवाच । यक्षस्तु" खस्थानादुत्थायोपसरि समागतो विनीतः पादसंवाहनां
मम कीटिकामात्रस्योपरि वः कः कटकारम्भ:-इति ब्रूते । मिलितो लोकः । आर्यखपटैर्यक्ष 20 ऊचे । रे अधम! अस्मयूथ्यान्पराबुभूषसि ? । पराभव, यद्यस्ति प्राभवम् ! । यक्षः माह स्म-'हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं ग्रसन्ते?' । तव भृत्योऽस्मि । मा मां पीडय । तव सङ्घ बान्धववक्षिताऽस्मि । राजादयः सर्वे चमत्कृताः सूरिभक्ता बभूवुः। सूरयः प्रासादानिर्गत्य यदा बहिर्गतास्तदा यक्षः पाषाणमूर्तिः सहायातः । द्वे दृषदौ, द्वे दार्षदकुण्डिके,
सूक्ष्मयक्षाः सहागुः। नगरप्राकारद्वारायातेन सूरीन्द्रेण यक्षाद्या विसृष्टाः स्वस्थानमगुः । कुण्डिके 25 तु पुरद्वारे सूरिणा स्थापिते, लोके ख्यातिनिमित्तम् । राजा प्रबोध्य सद्यः श्रावकः कृतः। खसौधं गतः। 'प्रभावनानर्तकीरणाचार्य' इति स" सूरीन्द्रस्तत्र चातुर्वण्र्येन वर्णयामासे । तदैव भृगुपुरासाधू द्वावागतौ । ताभ्यां प्रभवः प्रोक्ताः-भगवन् ! भृगुपुरादत्रागच्छद्भिर्भवद्भिर्या कपरिका गूढमधारि, सा क्षुल्लकेनैकेनावाच्यत । वाचयता आकृष्टिलब्धिलब्धा । तद्वशादिभ्यानां गृहेषु निष्पन्नां रसवतीमाकृष्यानीय भुङ्क्ते स्म । तथा कुर्वन् गच्छेन ज्ञातो निषिद्धो न निवर्तते, रसने30न्द्रियपरवशत्वात् । ततः सङ्घन हक्कितः। "क्रुद्धो गत्वा बौद्धानां मिलितः । तदाचार्य इव जातः। बौद्धानां पात्राणि मठात्खेन गृहमेधिनां गृहेषु नयति । ततो भक्तपूर्णानि तानि खेनैव
1A हिमहृत; B हिमवत्; D तुहिनमहत। 2 P नास्ति 'मां'। 3 B स्फूर्तितेन; P स्फूर्तिक्षेन । 4 BD वादिजित । 5 P धीयते। 6P नास्ति । 7 P वृद्धकरोऽपमाना। एतद्गतः पाठो नास्ति A आदर्श। 8 A मृत्वा। 9 B विज्ञाः। एतदन्तर्गता पंक्तिः पतिता D आदर्श। 10 BD स्फिजा०। 11 P पादौ। 12 'तु' नास्ति AB| 13 BD पुरप्रा०। 14 नास्ति 'स'P 15 DP ऋथा।
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मग
पादलिप्ताचार्यप्रबन्धः। मठमायान्ति । तथा दृष्ट्वा लोको बौद्धभक्तो भवन्नास्ते । यदुचितं तत्कुरुध्वम् । तदवधार्यार्यखपटदेवा भृगुपुरमगुः। प्रच्छन्नाः स्थिताः। बौद्धानां पात्राणि अन्नपूर्णान्यागच्छन्ति । शिलाविकुर्वणेन खे बभक्षुः । पतन्ति पात्रेभ्यः शालि-मण्डक-मोदकाचंशाश्च लोकस्य मस्तकेषु । चेल्लकः सूरीणां समागमनं सम्भाव्य भीतो नष्टो वराकः । सूरयः ससङ्घा बौद्धानां प्रासादमगमन् । बुद्ध उपलमूर्तिः सम्मुख उत्थितः । जय जय महर्षिकुलशेखर !-इत्यादि स्तुतीरतनिष्ट । पुनर्जिनपति-5 शासनस्य प्रभावः प्रोद्दिदीपे । आर्यखपटा अन्यत्र विजहुः।
६१६) इतश्च पाटलीपुत्रंपत्तने दाहडो नाम नृपो विप्रभक्तो जैनयतीनाह्वयत्, अवोचञ्चविप्रान्नमस्कुरुत इति । जैनैरुक्तम्-राजन् ! नेदं युक्तम्, गृहिणोऽमी, वयं च यतयो वन्द्याः । दाहडेनोक्तम्-न वन्दध्वे चेच्छिरांसि वः कृन्तामि। जैनयतिभिः सप्तदिनी याचिता। राज्ञा दत्ता । दैवादार्यखपटशिष्य उपाध्यायो महेन्द्रनामा भृगुकच्छात्तत्रायातः। तदने यतिभिः 10 खदुःखं कथितम् । तेन सन्धीरितास्ते । प्रातः करवीरकम्बे द्वे रक्तश्वेते लात्वा महेन्द्र उपदाहड
दिऽष्टमदिनप्रत्यूषं वर्तते । राज्ञोक्तम्-श्वेताम्बरा विप्रप्रणामायाहयन्ताम् । आइतार अग्रे ऊर्खास्तस्थुः। महेन्द्रेण रक्तां कम्बां वाहयित्वा राजा भाषित:-किं प्रथममितो नमामा, 'किं वा इतो नमामः ? इति । एतद्भणनसमकालमेव विप्राणां मस्तकास्युटित्वा ताडफलवद्भूमौ पेतुः । तद् दृष्ट्वा भीतो राजा चाटूनि करोति स्म-पुन वमविनयमाचरिष्यामि-इति उवाच । 15 तदा महेन्द्रेण पठितम्१६. कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसँटाभारं स्पृशत्यहिणा ?, कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति १ ।
___कः संनियति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसश्रिये ?, यः श्वेताम्बरशासनस्य कुरुते वन्यस्य निन्दामिमाम् ॥ ४ ॥ विशेषतो भीतो नृपो दर्शनस्य पादेष्वलगीत् । तदा महेन्द्रेण धवला करवीरकम्या दिग्द्रयेऽपि वाहिता । पुनर्विप्राणां मस्तकाः स्वस्थानेषु ससञ्जः । प्रतिबोधितो राजा विप्रलोकश्च । एवं प्रभा-20 वनाऽभूत् । [*भुवनोऽपि बौद्धान्परिहृत्य स्वगुरूणां मीलितः। तेन खगुरवः क्षामिताः। तैर्गुरुभिस्तस्य भुवनस्य बहुमानं दत्तम् । पश्चाद्भुवनो गुणवान् , विनयवान् , चारित्रवान् , श्रुतवान् , जातः ततः] आर्यखपटाः सूरिपदं भुवनाय दत्त्वाऽनशनेन द्यामारुरुहुः। .. १७. जीवितव्यं च मृत्युश्च द्वयमाराधयन्ति ये । त एव पुरुषाः शेषः पशुरेष जनः पुनः ॥ ५॥ ॥ इति महाप्रभावकश्रीखपटाचार्यप्रबन्धः॥४॥
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५. अथ पादलिप्ताचार्यप्रबन्धः । - ६१७) कोशलानाम नगरी तत्र विजयवर्मा राजा नयविक्रमसागरः । फुल्लनामा श्रेष्ठी जैनः प्राज्ञो दानभटः । तस्य प्रतिमाणा नाम पत्नी रूपशीलसत्यनिधिवसुधा । सा निष्पुत्रत्वेन खिचते। केनाप्युक्तम्-वैरोव्यां देवीमाराधय । तपोनियमसंयमैस्तयाऽऽराधिता सा प्रत्यक्षीवभूव;
1AB 'आर्य' नास्ति। 2 A बभक्षुः। 3 BD प्राहिदीपे; P प्रदिदीपे। 4 AB .पुरे पत्तने; D पुत्रे पत्तने । 5 BP तदाष्टमः। 6 A ह्वयन्ताम् । 7 BD नास्तीदं द्वितीयं वाक्यम् । 8 P महेन्द्रेणोक्तम् । 9 A केसरि०। 10 AB 'दिर' नास्ति । * एषः कोष्ठकगतः पाठः P विनाऽन्यत्र नोपलभ्यते ।
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प्रबन्धकोशे
अभिदधौ च-वत्से ! किमर्थं स्मृताऽहम् ? । श्रेष्ठिन्योक्तम्-पुत्रार्थम् । वैरोव्ययोक्तम्-वत्से ! शृणु, विद्याधरवंशे श्रीकालिकाचार्योऽभूत् । तस्य विद्याधरो नाम गच्छः। तत्र आर्यनागहस्ती नाम सूरिरास्ते । स सम्प्रति इमां नगरीमागतोऽस्ति । क्रियाज्ञानार्णवः, तस्य पादोदकं पिब । तत्र प्रेष्ठिनी भावनाभरभरिता गता। करस्थगुरुपदप्रक्षालनजलपात्रः शिष्यका सम्मुखमा5 गच्छन् दृष्टः। श्रेष्ठिन्या पृष्टम्-तपोधन ! किमेतत् ? । शिष्यकेणोक्तम्-गुरूणां पादोदकम् । तया पीतम् । अथ गुरवोऽवन्दिषत । गुरवः प्राहुः-यन्मत्तो दशकरान्तरस्थया त्वयाऽम्भः पीतं तत्ते पुत्रस्त्वत्तो दशयोजनान्तरितः स्थाता। ततः पश्चादन्ये नव पुत्रा भवितारः सारश्रियः । सा चम्पककुसुममकरन्दपानमत्तमधुपध्वनिकोमलया गिरा बभाषे-आद्यः पुत्रो युष्मभ्यं दातव्यो मया-इत्युक्त्वा निजसदनमगमत् । भर्ने गुरूक्तं खोक्तं चाचकथत् । तुष्टः सः। श्रेष्ठिनी 10 काले नागेन्द्रखनसप्रभावं पुत्रं प्रासूत । 'माङ्गल्योत्सवाः प्रसरन्ति स्म । गुरुसत्कः सन् वर्द्धते । नागेन्द्र इति नाम तस्य । शरीरावयवैर्गुणैश्च सकललोककमनीयैर्ववृधे । गुरुभिरागत्याष्टमे वर्षे दीक्षितः । मण्डनाभिधस्य मुनेः पार्थे पाठितः । बाल्येऽपि सर्वविद्यो जातः । ६१८) एकदा गुरुणा जलार्थ प्रस्थापितो विहृत्यागत आलोचयति
१८. अंबं तंबच्छीए अपुष्फियं पुप्फदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नववहूइ कुडएण मे दिन्नम् ॥ १॥ 15 इति गाथया गुरुभिर्भणितम्-'पलित्तओ'-शृङ्गारगर्भभणितिश्रवणात्-किल त्वं विनेयक !
रागाग्निना प्रदीप्त इति भावः । नागेन्द्रेणाचक्षे-भगवन् ! मात्रया एकया प्रसादः क्रियताम्, यथा 'पालित्तओ' इति रूपं भवति । अत्र को भावः ?-गगनगमनोपायभूतां पादलेपविद्यां मे दत्त येनाहं 'पादलिप्सक' इत्यभिधीये । ततो गुरुभिः पादलेपविद्या दत्ता । तद्वशात्खे भ्रमति । दशवर्षदेशीयः सन् सूरिपदे स्थापितः। बहुशिष्यपरिकरितो भ्रमति । नित्यं शत्रुनयोजयन्तादि20 पश्चतीर्थी वन्दित्वाऽरसविरसमश्नाति । तपस्तप्यते। १९. यडूरं यदुराराध्यं यच्च दूरे प्रतिष्ठितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ २॥
__ ततः सर्वसिद्धयः। ६१९) एकदा पाटलीपुत्रं गताः। तत्र मुरुण्डो" नाम खण्डितचण्डारिमुण्डो राजा । तस्य षण्मासान् यावच्छिरोर्तिरुत्पन्नाऽऽस्ते । मनतन्त्रौषधैर्न निवृत्ता । विशेषविदुरान्सूरीनागतान 25 श्रुत्वा राज्ञा मत्रिणः प्रहिताः प्रोचुः-भगवन् ! राजराजेन्द्रस्य शिरोर्तिनिवर्त्यताम्, कीर्तिधमौं संचीयेताम् । ततः सूरीन्द्रो राजकुलं गत्वा मन्त्रशक्त्या क्षणमात्रेण शिरोर्तिमपहरति स्म । ततोऽद्यापि पठ्यते
२०. जह जह पएसिणि जाणुयमि पालित्तओ भमाडेइ । तह तह से सिरवियणा पणस्सइ मुरुंडरायस्स ॥३॥ प्रीतो राजा। संवृत्ता उत्सवाः। पादलिप्तसूरीणां यशसा पवित्रितानि सप्तभुवनानि। राजा स्तौति30 २१. चेतः सार्द्रतरं वचः (मधुरं दृष्टिः प्रसन्नोज्वला, शक्तिः क्षान्तियुतौं श्रुतं हृतमदं श्रीर्दीनदैन्यापहा ।
रूपं शीलयुतं मतिः श्रितनया स्वामित्वमुत्सेकिता, निर्मुक्तं प्रकटान्यहो नव सुधाकुण्डान्यमून्युत्तमे ॥४॥
1A आचार्य। 2 P नास्ति 'ततः'। 3 'कुसुम' नास्ति । 4 P चाकथयत् । 5 AB मङ्गलोत्सवाः। 6 AB स्पृहणीयैः। 7 C बालो। 8 AP स्थापितो। 9 A परिवारितो विहरति । 10 AB व्यवस्थितं । 11 BC मुरण्डो। 12 'यावत्' नास्ति P। 13 नास्ति 'आस्ते' A| 14 P सूरिणा। 15 AB समधुरं। 16 ABD क्षान्तिकला।
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पादलिप्ताचार्यप्रबन्धः। २०) एकदा सभायां नृपेणोक्तम्-राजकुले महान्विनयः । आचार्यैरभिहितम्-गुरुकुले महीयान्विनयः। तत आचार्याः प्राहः-यो वः परमभक्तो राजपुत्रोऽस्ति, स आहृयताम् । इदं च तस्मै कथ्यताम्-गत्वा विलोकय गङ्गा कि पूर्ववाहिनी, किं वा पश्चिमवाहिनी ? इति । आहूतो राजपुत्रः, प्रहितश्च विलोकनाय । यत्र तत्र भ्रमित्वा समागतः। भाषितो भूपालेन-विलोकिता गङ्गा?; किं पूर्ववाहिनी, पश्चिमवाहिनी वा ? । अथ राजपुत्रः प्रचख्यौ-किमत्र विलोकनीयम् ? 5 बाला अपि विदन्ति-'गङ्गा पूर्ववाहिनी' । गत्वा च विलोकिता मया, पूर्ववाहिन्येवास्ते । राजा श्रुत्वाऽस्थात् । सूरिभिः साधुः स्वस्तस्मै कर्मणे प्रहितस्तत्र गतः । दण्डकं प्रवाह्य व्यलोकत, पूर्ववाहिनी सुरवाहिनी । उपसूरि समागतोऽभाषत-अहं गङ्गां पूर्ववाहिनीं पूर्वमश्रौषम् , गत्वाऽपश्यश्च तथैवाज्ञासिषम् । तत्त्वं तु खयं सद्गुरवो विदन्ति । एतचं राजपुत्र-यत्योश्चरितं राज-सूर्योः प्रच्छन्नचरैरुक्तम् । राज्ञा' मेने स्वयं-महीया, गुरुकुले विनयः। ततः पठ्यते- 10 २२. निवपुच्छिएण गुरुणा भणिओ गंगा कओमुही वहइ । संपाइयवं सीसो जह तह सव्वत्थ कायव्वं ॥५॥
२१) पाटलिपुत्रादथ सूरीन्द्रो लाटान गतः । तत्रैकस्मिन्पुरे बालैः सह क्रीडति । मुनयो गोचरचर्यार्थं गताः । तावता श्रावकाः प्रवन्दनार्थमायाताः । आकारं संवृत्योपविष्टः प्रभुः । श्राद्धेषु गतेषु पुनरपवरकमध्यं गत्वा खेलति । तावता केऽपि वादिनः समायाताः। तैर्विजनं दृष्ट्वा 'कूकुडूकू' इति शब्दः कृतः । सूरीन्द्रेण तु 'म्याउं' इति बिडालशब्दः कृतः। ततो दर्शनं 15 दत्तम् । वादिनः पादयोः पेतुः प्रभोः । अहो! प्रत्युत्पन्नमतित्वम् ते, चिरं जय बालभारति !। तत आरब्धा प्रभुणा तैः सह गोष्ठी । तेष्वेकेन पृष्टम्२३. पालित्तय ! कहसु फुडं सयलं महिमंडलं भमंतेण । दिई सुयं च कत्थ वि" चंदणरससीयलो अग्गी ॥ ६ ॥
प्रभुणाऽभाणि२४. अयसाभिओगसंदूमियस्स पुरिसस्स सुद्धहिययस्स । होइ वहंतस्स दुहं चंदणरससीयलो अग्गी ॥७॥ 20 तुष्टास्ते वादिनः, तुष्टुवुः-साक्षादमरगुरुरेव त्वम् , धन्या ब्राह्मी, या ते वदने वसति । इतश्च ये पूर्व ब्राह्मणाः खपटाचार्यगच्छीयेनोपाध्यायेन महेन्द्रेण भाषिताः, ते बलात्केचित्प्रब्राजिताः। तेषां स्वजनाः पाटलिपुत्रपत्तने वसन्ति । पूर्ववैराज्जैनयतीनुपद्रवन्ति । सा“ वार्ता प्रभुश्रीपादलिप्ताचार्यैः श्रुता। स्वयं ते गगनेन तत्र गताः, अभ्यधुश्च-रे! मयि वीरे सति के नाम जैनजनमुपद्रवन्ति ? । 'जर्जराऽपि यष्टिःस्थालीनां भञ्जनाय प्रभवत्येव' । ततस्ते काकनाशं नष्टाः। 25 प्रभुः पुनर्भृगुपुरमगमत् । तत्रार्यखपटसम्प्रदायात्सकलाः कलाः प्रजग्राह । ढंकपर्वते नागार्जुनः प्रभुणा खगमनविद्यां शिक्षापितः परमाहतोऽजनि । तेन पादलिप्तकपुरं नव्यं कृतम् , दशाहमण्डपोग्रसेनभवनादि च तत् तत् । तत्र प्रभुणा गाथायुगलेन स्तवनं बद्धम् । तत्र हेमसिद्धिविद्याऽवतारिताऽस्तीति वृद्धाः प्राहुः । नागार्जुनेन च रसः प्रारब्धः। सोऽतिकृच्छ्रेऽपि कृते न बन्धमायाति । ततो वासुकिनागस्तेनाराद्धः । तेन श्रीपादलिप्तेन चोपायोर्पितः-यदि कान्तीपुर्याः 30 "श्रीपार्श्वनाथमानीय तदृष्टौ रसं बध्नासि, तदा बन्धमायाति, नन्यथा । नागार्जुनेन पृष्टम्- 1 AB महान् । 2 CD यात्वा । 3 C विलोक्यम् । 4 ABD अस्ति । 5 P 'स्वयं' नास्ति । 6 AB नास्ति 'एतच्च' । 7 PD राजा। 8 ABD वंहीयान् । 9 A लाटानामागतः। 10 AB श्रावकेषु । 11 A प्रोक्तः। 12 'प्रभोः' नास्ति AI 13 AB कत्थह। 14 P सा च। 15 AD तुदति । 16 A तारिता तां ते वृद्धाः। 17A दर्शितः। 18 ABD 'श्री' नास्ति । 19 A आयास्यति । .
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प्रबन्धकोशे
कथमेति श्रीपार्श्वनाथः । वासुकिना पादलिप्तेन च प्रोक्तम्-उत्पाट्यानय गगनाध्वना । गतो नागार्जुनः कान्तीम् । तत्र चैत्यं पृच्छति । तत्र धनपतिश्रेष्ठी चैत्यगोष्ठिकः । तस्याग्रे नैमित्तिकेन प्रोक्तम्-पार्श्व रक्षेः; धूर्त एकस्तद्धरणाय भ्रमन्नस्ति । स सचतुष्पुत्रो देवं रक्षति । नागार्जुनस्तत्र गतः । तेषु रक्षत्सु हरणावसरो नास्ति । तैरेव सह नागार्जुनेन प्रीतिरारेभे । 5 विश्वास उत्पन्नः। आरात्रिकमङ्गलदीपकसमये पितृपुत्रेषु प्रणामाधोमुखेषु पार्श्व खेन गृहित्वा गतो नागार्जुनः। सेडीसंज्ञनदीतटे श्रीपार्श्वदृष्टौ रसः स्तम्भितः, स्तम्भनक नाम तत्तीर्थ पप्रथे, स्तम्भनपुरं नाम पुरं च।
२२) अथ श्रीपादलिप्ताचार्याः प्रतिष्ठानपुरं दक्षिणाशामुखभूषणं गोदावरीनदीतरङ्गरगञ्जलकणहृतपान्थश्रमभरं जग्मुः । तत्र सातवाहनो राजा विदुषां योधानां दानशौण्डानां 10 भोगिनां च प्रथमः।तस्य सभायां वार्ताऽभूत्, यथा-पादलिप्ताचायोंः सर्वविद्यावनितावदनरत्नदपणाः समागच्छन्तः सन्ति प्रातः । ततः सर्वैः पण्डितैः सम्भूय स्त्यानघृतभृतं कचोलकमर्पयित्वा निजः पुरुष एक आचार्याणां सम्मुखः प्रेषितः । आचार्यैर्घतमध्ये सूच्येका क्षिप्ता; तथैव च प्रतिप्रेषितं तत् । राज्ञा स वृत्तान्तो ज्ञातः। पण्डिताः पृष्टाः-घृतपूर्णकच्चोलकप्रेषणेन व को भावः।
तैरुक्तम्-एवमेतन्नगरं विदुषां पूर्णमास्ते, यथा घृतस्य वर्तुलकम् ; तस्माद्विमृश्य प्रवेष्टव्यम्15 इति भावो नः । राज्ञा निगदितम्-तर्हि आचार्यचेष्टाऽपि भवद्भिर्जायताम्-यथा निरन्तरेऽपि
घृते निजतिक्ष्णतया सूची प्रविष्टा, तथाऽहमपि विद्वन्निबिडे नगरे प्रवेक्ष्यामि-इति दध्वनुः । पण्डिताः सर्वे राजेन्द्रोऽपि संमुखं गताः । सुरसरिल्लहरिहारिण्या वाण्या तुष्टुवुः । नगरमानीतो गुरुः। निर्वाणकलिका-प्रश्नप्रकाशादिशास्त्राणि सन्ददर्भ । एकाच तरडग्लोलां नाम चम्पूं राज्ञोऽग्रे नवां निर्माय सदसि व्याचख्ये प्रभुः । तुष्टो" राजा । भवत्ययं कवीन्द्रः। 20 २५. शाणोत्तीर्णमिवोज्वलद्युति पदं बन्धोऽर्द्धनारीश्वरः, श्लाघालङ्घनजाचिको दिवि लतोद्भिन्नेव चार्थाद्गतिः। '
ईषञ्चूर्णितचन्द्रमण्डलगलत्पीयूषहृयो रस- स्तत्किञ्चित्कविकर्ममर्म न पुनर्वाडिण्डिमाडम्बरः ॥ ८॥ इत्येवं कवयोऽपि तुष्टुवुः । एका तु वेश्या विदुषी राजसभ्या गुणज्ञाऽपि सूरीन्द्रान स्तौति । ततो राज्ञा भणितम्-वयं सर्वे तुष्टाः, स्तुमः सर्वे'; केवलमियमेका न स्तौति । तत्क्रियतां येन स्तुते । तदाकये सूरयो वसतिमाययुः । रात्री गच्छसम्मत्या कपटमृत्युना मृताः, पवनजयसाम25 र्थ्यात् । [ विद्याबलात्" ] शवयानमाश्रितः सूरिः । चातुर्वर्ण्य रोदिति । वेश्यागृहद्वारे नीतं शबयानम् । वेश्याऽपि तत्रागता रुदती वदति - २६. सीसं कहवि न फुटुं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स । जस्स मुहनिज्झराओ तरङ्गलोला नई बूढा ॥९॥
पुनरजीवत्प्रभुः । वेश्ययाऽभाणि-मृत्वाऽऽत्माऽस्तावि!। 'मृत्वापि पश्चमो गेयः' इति किं न श्रुतम् । अथ प्रभुः शत्रुञ्जये रदनसंख्योपवासानशनेन ईशानेन्द्रसामानिकत्वेनोदपद्यतेति ।
॥ इति श्रीपादलिप्ताचार्यप्रबन्धः॥५॥
1 'स' नास्ति ABI 2A आरात्रिकप्रदीपमङ्गलसमये। 3 PB पितापु०। 4A 'तत्' नास्ति; BD ततः। 5 AC सम्पूर्णः। 6 CP प्रेषणे। 7 BP विदुषैः। 8P नास्ति सर्वे। 9CD गतः। 10 BCP तुतुषुः। 11 P नास्तीदं वाक्यं। 12 P नास्ति। 13 A आदर्श एवैतत्पदं दृश्यते। 14 A आरोपितः। 15 A वक्ति ।
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वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः ।
६. अथ श्रीवृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः । ६२३) विद्याधरेन्द्रगच्छे श्रीपादलिप्तसूरिसन्ताने स्कन्दिलाचार्याः साधितजैनकार्याः पुस्फुरुः। ते यतनया विहरन्तो गौडदेशं ययुः। तत्र कोशलाख्यग्रामवासी मुकुन्दो नाम विप्रः । स तेषां सूरीणां मिलितः। इत्थं देशनामश्रौषीत्२७. भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं, दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं वंशे कुयोषिद्भयम् ।
___ स्नेहे वैरभयं नयेऽनयभयं काये कृतान्ताद्भयं, सर्व नाम भयं भवे यदि परं वैराग्यमेवाभयम् ॥ १॥ श्रुत्वा भवोद्विग्नश्चारित्रं गृहीत्वा गुरुभिः समं भृगुपुरं गतः । स मुकुन्दमुनिस्तारखरेणाधीते । रात्रौ साधूनां निद्राभङ्गो भवति । ततस्तान दुर्मनायमानान् ज्ञात्वा गुरुभिः पठन्निषिद्धोऽसौ । यथा-वत्स! नमस्कारान् गुणय । रात्रावुच्चैर्भाषणे हिंस्रजीवजागरणादनर्थदण्डो मा भूदिति । ततो दिवापठने श्रावक-श्राविकादीनां कर्णज्वरो भवति । केनाप्युक्तम्-किमय-10 मियद्वयाः पठित्वा मुशलं पुष्पापयिष्यति । तच्छ्रुत्वा मुकुन्दः खिन्नः। सद्यो महाविद्यार्थी एकविंशत्योपवासैर्जिनालये ब्राह्मीमारराध । तुष्टा सा प्रत्यक्षीभूय जगाद-सर्वविद्यासिद्धो भव । ततः कवीन्द्रीभूय स्वगुर्वन्तिकमागत्य सङ्घसमक्षमक्षामखरेण बभाण-यन्ममोपहास: केनापि कृतः-'यदयं किं मुशलं पुष्पापयिष्यति?' विलोकयत लोकाः! मुशलं पुष्पापयामि । इत्युक्त्वा मुशलमानाय्य चतुष्पथे स्थित्वा तत्पुष्पापयामास, मन्त्रशक्तिमाहात्म्यात् । स्कन्ध- 15 स्थितेन तेन भ्रमति पठति च२८. पत्तमवलंबियं तह जो जंपइ फुल्लए न मुसलमिह । तमहं निराकरित्ता फुल्लइ मुसलं ति ठामि ॥२॥
तथा२९. मद्गोः शृङ्गं शक्रयष्टिप्रमाणं शीतो वह्निर्मारुतो निष्पकम्पः ।
__ यस्मै यद्वा रोचते तन्न किञ्चित् वृद्धो वादी भाषते कः किमाह ॥ ३॥ अप्रतिमल्लो वादी सोऽभूत् । स्कन्दिलाचार्यैः स्वपदे निवेशितः। 'वृद्धवादी' इति ख्यातं तन्नाम । स्कन्दिलाचार्याः समाधिमृत्युरथेन द्यामगमन् । ६२४) एकदा वृद्धवादी भृगुपुरं गच्छान्नास्ते। इतश्चावन्त्यां विक्रमादित्यो राजा । यस्य दानानि३०. अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुलाः, पञ्चाशन्मदगन्धलुब्धमधुपक्रोधोद्धराः सिन्धुराः ।
___ लावण्योपचयप्रपञ्चितदृशां पण्याङ्गनानां शतं, दण्डे पाण्ड्यनृपेण ढौकितमिदं वैतालिकस्यार्प्यताम् ॥ ४॥ 25 इत्यादीनि ख्यातानि । तस्य राज्ये मान्यः कात्यायनगोत्रावतंसो देवर्षिर्द्विजः । तत्पत्नी देवसिका। तयोः सिद्धसेनो नाम पुत्रः । सँ प्रज्ञाबलेन जगदपि तृणवद्गणयति;प्रज्ञायाश्च इयत्ता नास्ति । जगति ततः पठ्यते३१. मिता भूः पत्यापां स च पतिरपां योजनशतं, सदा पान्थः पूषा गगनपरिमाणं कलयति । इति प्रायो भावाः स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिताः, सतां प्रज्ञोन्मेषः पुनरयमसीमा विजयते ॥ ५॥
30 येन वादे जीये तस्याहं शिष्यः स्याम्-इति प्रतिज्ञा तस्य । क्रमेण वृद्धवादिनः कीर्ति श्रुत्वा स
1 BC कवीन्द्रो भूत्वा। 2 AB स्कन्धस्थाने। P वाचेमि। 4 AP मनोशः। 5A वाराजानानां। 6A वैतालिकायार्पितं; C स्यार्पितम् ।
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१६
प्रबन्धकोशे
तत्सम्मुखं धावति स्म । सुखासनारूढो भृगुपरं गतः । तावद्धृगुकच्छान्निर्गतो वृद्धवादी मार्गे मिलितः। परस्परमालापः[जातः']। सिद्धसेनो भाषते-वादं देहि । सूरिराह-दद्मः, परमन्त्र के सभ्याः ? । सभ्यान् विना वादे जिताजिते को वदेत् ? । सिद्धसेनेनोक्तम्-एते गोपालकाः सभ्या भवन्तु । वृद्धवादिना भणितम्-तर्हि ब्रूहि । ततः सिद्धसेनस्तत्र नगरगोचरे चिरं संस्कृतेन 5 जल्पमनल्पमकरोत् । क्रमेण च स्थितः। गोपैरुक्तम्-किमप्ययं न वेत्ति । केवलमुच्चैः पूत्कारं पूत्कारं कौँ नः पीडयति । धिर धिम् । वृद्ध ! त्वं ब्रूहि किञ्चित् । ततो वृद्धवादी कालज्ञः कच्छा दृढं बद्धा घीन्दिर्णिच्छन्दसा क्रीडति____३२. नवि मारियइ नवि चोरियइ परदारह गमणु निवारियइ । थोवाथो दाइयई सग्गि टुकुटुकु जाइयइ ॥६॥
३३. [*गुलसिउं चावई तिलतांदली वेडिइं वजावई वांसली ।। 10
पहिरणि ओढणि हुइ कांबली इणपरि ग्वालइ पूजइ रुली ॥ ७॥] पुनः पठति नृत्यति च३४. कालउ कंबलु अनुनी चाटु छासिहिं खालडु भरिउ नि पार्ट ।
अइवडु" पडियउ नीलइ झाडि" अवर किसर गह सिंग" निलाडि ॥ ८॥ गोपा हृष्टाः प्रोचुः-वृद्धवादी सर्वज्ञः । अहो! कीटक श्रुतिसुखमुपयोगि पठति । सिद्ध15 सैनस्तु असारपाठकः-इत्यनिन्दन् । ततः सिद्धसेनः प्राह-भगवन् ! मां प्रव्राजय । तव शिष्यो.
ऽहं भवामि"] वादे सभ्यसम्मतं जितत्वात् । अथ वृद्धवादी आह-भृगुपुरे राजसभायामावयोदोऽस्तु । गोपसभायां को वादः ? । सिद्धसेनेनोक्तम्-अहमकालज्ञः। त्वं [तु] कालज्ञः । यः कालज्ञः स सर्वज्ञः। त्वयैव जितम् । इत्येवं वदन्तं तं तत्रैव दीक्षयामास । तत्र भृगुपुरनरेन्द्रेण तं वृत्तान्तं ज्ञात्वा तालारसो" नाम ग्रामः स्थापितः प्रौढः । नाभेयचैत्यं कारितम् । नाभेयबिम्ब 20 वृद्धवादिना प्रतिष्ठितम् । सङ्को जगर्ज। सिद्धसेनस्य दीक्षाकाले 'कुमुदचन्द्र' इति नामासीत ।
सरिपदे पुनः 'सिद्धसेन दिवाकर' इति नाम पप्रथे। तदा 'दिवाकर' इति सूरेः संज्ञा । खामिशब्दवद्, "वाचकशब्दवच्च । वृद्धवादी अन्यत्र विहरति । सिद्धसेनस्त्ववन्तीं ययौ । सङ्घ सम्मुखमागत्य तं सूरि 'सर्वज्ञपुत्रक' इति बिरुदे पठ्यमानेऽवन्तीचतुष्पथं नयति । तदा राजा विक्रमा
दित्यो हस्तिस्कन्धारूढः सम्मुखमागच्छन्नस्ति । राज्ञा श्रुतम्-'सर्वज्ञपुत्रक' इति । तत्परीक्षार्थ 25 हस्तिस्थ एव मनसा सूरेनमस्कारं चकार, न वाक्-शिरोभ्याम् । सूरिश्चासन्नायातो धर्मलाभं बभाण । राजेन्द्रेण भणितम्-अवन्दमानेभ्योऽस्माकं को धर्मलाभः ? । किमयं समर्यो लभ्यमानोऽस्ति ? । सूरिसुत्रार्णाऽभाणि-चिन्तामणिकोटितोऽप्यधिकोऽयं वन्दमानाय देयः। न च त्वया न वन्दिता वयम् , मनसः सर्वप्रधानत्वात् । अस्मत्सार्वज्ञपरीक्षायै हि मनसाऽस्मानवन्दथाः। ततस्तुष्टो राजेश्वरो हस्तिस्कन्धादवरुह्य सङ्घसमक्षं ववन्दे कनककोटिं चानाययत् ।
1 केवलं P आदर्श दृश्यते। 2 A को जिताजितं वदेत् ; B जिताजितं को वदेत् । 3 A 'अनल्पं' नास्ति । 4 ABD 'च' नास्ति । 5 B घीन्दण; Cघींदिण; P धिन्दिणि। 6 B थोवाथोवउं। 7 P दावियइ । 8 CP टुगु टुगु। * P विहा. यैतत्पद्यमस्मदीयेष्वादशेषु नोपलभ्यते। 9P वाटु; B बट्ट। 10 A छासिहिं भरिउ दीवड पाटु; B ०दइड पट्ट । 11 B अडवड। 12 P डाडि। 13 A संगु। 14 केवलं A आदर्श एष श्यते । 15 केवलं P आदर्श लभ्यते । 16 B तालरसो। 17 'वाचकशब्दवत्' पतितं P आदर्श। 18 P सूरिः श्रुत्वा ।
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वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः । आचार्यः सा न जगृहे, निर्लोभत्वात् । राज्ञाऽपि न जगृहे, कल्पितत्वात् । तत आचार्यानुज्ञया सङ्घपुरुषैर्जीर्णोद्धारे व्ययिता । राजवहिकायां त्वेवं लिखितम्. ३५. धर्मलाभ इति प्रोक्त दूरादुच्छ्रितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं धराधिपः ॥ ९॥
श्रीविक्रमाने अवसरे तेनैव भगवता भणितम्३६. पुन्ने वाससहस्से सयंमि वरिसाण नवनवइकलिए । होही कुमरनरिन्दो तुह विक्कमराय ! सारिच्छो ॥१०॥ 5 ६२५) अन्यदा सिद्धसेनश्चित्रकूटमटति स्म । तत्र चिरन्तनचैत्ये स्तम्भमेकं महान्तं दृष्ट्वा कश्चिदमाक्षीत्-कोऽयं स्तम्भो महान् ?, किंमयः ? । तेनोक्तम्-पूर्वाचार्यैरिह रहस्यविद्यापुस्तकानि न्यस्तानि सन्ति । स्तम्भस्तु तत्तदोषधद्रव्यमयः । जलादिभिरभेद्यो वज्रवत् । तद्वचनं श्रुत्वा सिद्धसेनस्तस्य स्तम्भस्य गन्धं गृहीत्वा प्रत्यौषधरसैस्तमाच्छोटयामास । तैः स प्रातरम्खुजवद्विचकास। मध्यात्पतिताः पुस्तकाः। तत्रैकं पुस्तकं छोटयित्वा वाचयन्नाद्यपत्र एव द्वे विये 10 लभते स्म । एका सर्षपविद्या, अपरा हेमविद्या । तत्र सर्षपविद्या सा-ययोत्पन्ने कार्य मात्रिको यावन्तः सर्षपान् जलाशये क्षिपति तावन्तोऽश्ववारा द्विचत्वारिंशदुपकरणसहिता निःसरन्ति । ततः परबलं भज्यते । सुभटाः कार्यसिद्धेरनन्तरमदृश्यीभवन्ति । हेमविया पुनरक्लेशेन शुद्धहेमकोटी: सद्यो निष्पादयति, येन तेन धातुना । तद्विद्याद्वयं सम्यग् जग्राह । यावदने वाचयति तावत्स्तम्भो मिलितः पुस्तकगर्भः। खे च वागुत्पन्ना-अयोग्योऽसि ईदृशानां रहस्यानाम् , मा 15 चापलं कृथाः, सद्यो मा म्रियस्व-इति । ततो भीतः स्थितः । यद्विद्याद्वयं लब्धं तल्लब्धम् । नाधिकं लभ्यते, अप्राप्तितः । चित्रकूटात्सिद्धसेनोऽथ पूर्वदेशे कूर्मारपूरं गतः। तत्र देवपालं राजानं प्रबोध्य नीलीरागजैनमकार्षीत् । तत्रास्थात्। नित्यमिष्टा गोष्ठी वर्तते। कियानपि कालो
दा राज्ञा रह एत्य साधणा विज्ञप्तम-भगवन! पापा वयम: नेशमधरभवंदगोष्ठीयोग्याः, येन सङ्कटे पतिताः स्म । सूरीन्द्रः पप्रच्छ-किं सङ्कटं वः? । राजा प्राह-सीमाल-20 भूपालाः सम्भूय मद्राज्यं जिघृक्षव आयान्ति । सूरिराह-राजन् ! मा स्म विह्वलो भूः । तवैव राज्यश्रीर्वशे यस्याहं सखा । राजा हृष्टः । परचक्रमायातम् । विद्याद्वयशक्त्या राजेन्द्रः समों विहितः सूरिणा । भग्नं परबलम् । गृहीतं तत्सर्वखम् । वादितान्यातोद्यानि । ततो बाढं राजा सूरिभक्तः सम्पन्नः । सूरयः सगच्छा अपि क्रियाशैथिल्यमादृषत । यतः
३७. चाटुकारगिरां गुम्फैः कटाक्षैर्मगचक्षुषाम् । केलिकल्लोलितैः श्रीणां भिद्यते कस्य नो मनः ॥ ११॥ 25 ३८. सुअई गुरू निचिंतो' सीसावि सुअंति तस्स अणुकमसो । ओसाहिजइ मुक्खो हुड्डाहुई सुअंतेहिं ॥१२॥
श्रावकाः पौषधशालायां प्रवेशमेव न लभन्ते । . ३९. दगपाणं पुप्फफलं अणेसणिजं गिहत्थकिच्चाई । अजया पडिसेवंती" जइवेसविडंबगा नवरं ॥ १३ ॥ इति गाथा समाचार्यते । तदपयशः श्रुत्वा वृद्धवादी कृपया तं निस्तारयितुमेकाकीभूय गच्छं वृषभेषु न्यस्य तत्रागतः । द्वारे स्थितः । सूरीणामग्रे कथापयति द्वास्थैः । यथा-वादी 30
1C भक्ष्यते; D भक्ते। 2 P कोटीं। 3 AP मिष्टगोष्ठी। 4 BC 'भवद्' नास्ति । 5AP स्त्रीणां। 6 AC सूर्यद। 7A निचंतो; C निचंतो; D निजतो। 8 B सुक्खो। 9 AD हुड्डाहुंई। 10 BCD सेहती। 11 P तत्र गतः ।
३ प्र० को
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प्रबन्धकोशे एको ज्यायानायातोऽस्ति । मध्ये सूरिभिराहूतः । पुर उपवेशितः । वस्त्रावगुण्ठितसर्वकायो वृद्धवादी वदति । व्याख्याहि
४०. अणफुल्लिये फुल्ल म तोडहिं मा रोवा मोडहिं । मणकुसुमेहिं अचि निरंजणु हिंडहि काई वर्णण वणु ॥१४॥
सिद्धसेनश्चिन्तयन्नपि न वेत्यर्थम् । ततो ध्यायति-किमेते में गुरवो वृद्धवादिनः येषां 5 भणितिमहमपि व्याख्यातुं न शक्नोमि । पुनः पुनः पश्यता उपलक्षिता गुरवः । पादयोः प्रणम्यक्षामिताः, पद्यार्थ पृष्टाः।तेऽथ व्याचक्षिरे । यथा-'अणफुल्लियफुल्ल' प्राकृतस्यानन्तत्वात् अप्राप्तफलानि पुष्पाणि मा त्रोटय । को भावः ?-योगः कल्पद्रुमः । कथम् ?-यस्मिन्मूलं यमनियमाः, ध्यानं प्रकाण्डप्रायम्, स्कन्धश्रीः समता, कवित्व-वक्तृत्व-यशः प्रताप-मारण-स्तम्भनो
चाटन-वशीकरणादिसामर्थ्यानि पुष्पाणि, केवलज्ञानं फलम् । अद्यापि योगकल्पद्रुमस्य पुष्पा10 ण्युद्गतानि सन्ति; तत्केवलफलेन तु पुरः फलिष्यन्ति । तान्यप्राप्तफलान्येव किमिति त्रोटयसि
मा त्रोटय इति भावः। 'मा रोवा मोडहिं' इह रोपाः पञ्चमहाव्रतानि तानि मा मोटय। मन:कुसुमैर्निरञ्जनं जिनं पूजय । वनादनं किं हिंडसे-राजसेवादीनि कृच्छ्राणि विरसफलानि कथं करोषि; इति पदार्थः । ततो वादी तां गुरुशिक्षा मूर्ध्नि धृत्वा राजानमापृच्छय वृद्धवाविना सह
निबिडचारित्रधरो विजहार । अपरापरगुरुभ्यः पूर्वगतश्रुतानि लेभे । वृद्धवादी यां गतः। 15६२६) एकदा सिद्धसेनः सङ्घ मेलयित्वाह स्म-सकलानप्यागमानहं संस्कृतान्करोमि, यदि
आदिशथ । ततः सङ्घो वदति स्म-किं संस्कृतं कर्तुं न जानन्ति श्रीमन्तस्तीर्थकरा गणधरा वा । यदर्धमागधेनांगमानकृषत? । तदेवं जल्पतस्तव महत्प्रायश्चित्तमापन्नम् । किमेतत्तवाने कथ्यते ?, खयमेव जाननसि । ततो विमृश्याभिदधेऽसौ-सङ्घोऽवधारयतु, अहमाश्रितमौनो द्वादशवार्षिकं पाराश्चिकं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिकारजोहरणादिलिङ्गः प्रकटितावधूतरूपश्च20 रिष्याम्युपयुक्तः । एवमुक्त्वा गच्छं मुत्तवा ग्रामनगरादिषु पर्यटन द्वादशे वर्षे श्रीमदुज्जयिन्यां महाकालप्रासादे शेफालिकाकुसुमरञ्जिताम्बरालङ्कृतशरीरः समागत्यासांचके । ततः-देवं कथं न नमसि ? इति लोकैर्जल्प्यमानोऽपि नाजल्पत् । एवं च जनपरम्परया श्रुत्वा विक्रमादित्यदेवः समागत्य जल्पयांचकार-क्षीरलिलिक्षो! भिक्षों! किमिति त्वया देवो न वन्द्यते। ततस्तु [राजानं प्रति ] इदमवादि वादिना-मया नमस्कृते देवें लिङ्गभेदो भवतामप्रीतये भविष्यति । 25 राज्ञोचे-भवतु, क्रियतां नमस्कारः। तेनोक्तम्-श्रूयतां तर्हि । ततः पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिंशद्द्वात्रिंशिकाभिर्देवं स्तोतुमुपचक्रमे । तथाहि
४१. स्वयम्भुवं भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् ।
__अव्यक्तमव्याहतविश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ १५ ॥ इत्यादि ['श्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता । परं तस्मात्तादृक्षं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् 30 श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकतुं कल्याणमन्दिरस्तवं चक्रे ] प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थितात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गामवर्तिरुदतिष्ठत् । ततो जनैर्वचनमिदमूचे-अष्टवियेशाधीशः __ 1 AB अणहुलियं। 2 B मन मारोवा। 3 AC हिंडयं; P हिंडइ। 4 P नास्ति 'कांई। 5 B संस्कृतमयान् । 6 B मागधिना। 7 B नास्ति । 8 केवलं P पुस्तक एवैतत्पदं दृश्यते। 9AP नास्ति 'देवे। 10 P नास्ति । एषः कोष्ठकान्तर्गतः पाठः P पुस्तके एवोपलभ्यते नान्यत्र, प्रक्षिप्तप्राय एषः ।
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वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः । कालाग्निरुद्रोऽयं भगवांस्तृतीयनेत्रानलेन भिखं भस्मसात्करिष्यति । ततस्तडित्तेज इव सतडस्कारं प्रथमं ज्योतिर्निर्गतम् । ततः श्रीपार्श्वनाथविम्बं प्रकटीबभूव । तद्वादिना विविधस्तुतिभिः स्तुतं क्षमितं च । राजा विक्रमादित्यः पृच्छति-भगवन् ! किमिदमदृष्टपूर्व दृश्यते ?, कोऽयं नवीनो देवः प्रादुरभूत ? । अथ सिद्धसेनः प्रोवाच-राजन् ! पूर्वमस्यामेवावन्त्यां श्रेष्ठिनीभद्रासूनुभत्रिंशत्पनीयौवनपरिमलसर्वस्वग्राही 'अवन्तीसुकुमाल' इति ख्यातः श्रेष्ठ्यासीत् । स शालि- 5 भद्र इव गृहव्यापार कमपि नाकार्षीत् । किन्तु मातैव सर्वामपि गृहतप्तिमकृत । एकदा दशपू. वैधर आर्यसहस्त्याख्यो मौर्यवंशमुकुटसम्प्रतिपगुरुः सगच्छो विहरन्नवन्तीमागत्य भद्रानुमत्या गृहैकदेशेऽस्थात् । रात्रौ ते नलिनीगुल्माख्यस्य खर्विमानस्य विचारं गुणयन्ति । तपोधनजने विश्रान्ते सति तं विचारं शृण्वन् सान्द्रचन्द्रातपायां निशि खैरं पद्भ्यां भ्रमन्नवन्तीसुकुमालस्तप्रायातः सम्यगौषीत् । आगत्य गुरून् जगौ-भगवन् ! किमेतद् गुण्यते । आर्यैरुक्तम्-10 वत्स ! नलिनीगुल्मविमानं विचारः । अवन्तीसुकुमालः प्राह स्म-ईदृशमेवेदं प्रेत्य मयाऽनुभूतम् । इदं केनोपायेन लभ्यते । आर्भणितम्-चारित्रेण । अवन्तीसुकुमालोऽप्याविभातात् गृहीतनलिनीगुल्मविमानग्रहणप्रतिज्ञा खयं कृतलोचः पश्चाद्गुरुभिरपि दत्तसामायिकः कन्थारकुडाख्यं श्मशानमेत्य कायोत्सर्गी भवान्तरभार्यया शृङ्गालीत्वमापन्नया सार्भया क्षुधितया दर्भसूचीवेधक्षरतद्रुधिरधारागन्धलुन्धागतया भक्षितः, सद्भावनाजर्जरितपापकर्मा नलिनीगुल्म-15 माप । प्रातस्तन्माता सस्लुषा गुरुमुखादवगतपुत्रवृत्तान्ता तच्छमशानमागत्य विललाप विविधं विविधम् । पुनर्गृहमागता । एकां सगी वधूं गृहे मुक्त्वा एकत्रिंशता वधूभिः सह संयममादाय दिवं लेभे। सगर्भस्थितवधूकाजातपुत्रेण स्फीतयौवनेनायं प्रासादः कारितः । मम पितुर्महाकालोऽत्राभूदिति 'महाकाल'नाम दत्तम् । श्रीपार्श्वनाथबिम्ब मध्ये स्थापितम् । कत्यप्यहानि लोकेन' पूजितम् । अवसरे द्विजैस्तदन्तरितं कृत्वा मृडलिङ्गमिदं स्थापितम् । अधुना 20 मत्कृतस्तुतितुष्टः श्रीपार्श्वनाथः प्रादुरासीत् । मत्प्रेरितशासनदेवताबलात्तु मृडलिङ्गं विदधे । सत्यासत्ययोरन्तरं पश्य । तच्छ्रवणान्नृपः शासने ग्रामशतान्यदत्त देवाय । उपगुरु ससम्यक्त्वां द्वादशव्रतीमुपादत्त । अश्लाघत वादीन्द्रम्
४२. अहयो बहवः सन्ति भेकभक्षणदक्षिणाः । एक एव स शेषो हि "धरित्रीधरणक्षमः ॥ १६ ॥ तथा त्वम् । अहो कवित्वशक्तिस्ते ! ४३. पदं सपदि कस्य न स्फुरति शर्करापाकिम, रसालरससेकिम भणितिवैभवं कस्य न ।
तदेतदुभयं किमप्यमृतनिझरोगारिमै-स्तरङ्गयति यो रसैः स पुनरेक एव क्वचित् ॥ १७ ॥ ४४. न नाम्ना नो" वृत्त्या परिचयवशाच्छन्दसि न वा, न शब्दव्युत्पत्त्या निभृतमुपदेशान्न च गुरोः ।
अपि त्वेताः स्वैरं जगति सुकवीनां मधुमुचो, विपच्यन्ते वाचः सुकृतपरिणामेन महता ॥ १८॥ इति स्तुत्वा सम्राट खस्थानमयासीत् । वादीन्द्रोऽपि प्रभावनातुष्टेन सङ्ग्रेन मध्येक्रतः। २७) अन्येशुः सिद्धसेनो विहरन् ॐकाराख्यं मालवेषु नगरं ययौ । तत्र भक्तैः श्रावकैर्विज्ञप्तं
25
- 1P.मिदमपूर्व । 2 'विमान' नास्ति । 3 B सन्थार; D कन्याए। 4 CD कुडुङ्गा०। 5 B स्फीतवधुका यौवनेन । 6 BC श्रीपार्थबिम्बं । 7 P लोके। 8 P भक्षणतत्पराः। 9 P श्रीशेषो। 10 P धरणी। 11 P मा ।
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प्रबन्धकोशे सूरये । यथा-भगवन् ! अस्यैव नगरस्यासन्नो ग्राम एक आसीत् । तत्र सुन्दरो नाम राजपुत्रो ग्रामणी'। तस्य द्वे पन्यो । एका प्रथमां पुत्री प्रास्त, अखिद्यत च। तदैव सपन्यप्यासन्नप्रसवा वर्तते । मा स्म इयं पुत्रं प्रसूय भर्तुः सविशेषं वल्लभा भूत्-इति स्त्रीत्वोचितया तुच्छ्या बुद्ध्या सूतिकामेकामवोचत-यदा इयं मे सपत्नी प्रसवकाले दैववशात्त्वामाह्वयति, तदा त्वया परस्था5 नात्प्रथमं सङ्गृहीतं मृतं कश्चिदपत्यं तत्र सञ्चार्यम् । तज्जातकं चेत्पुत्रो भवति तदा स्वयं गृहीत्वा ग्रामारे व्युत्स्रष्टव्यम् । इदं हेम गृहाण-इति सूत्रणां चक्रुषी । विधिवशात्तत्र तत्तया तथैव कृतम् । राजपुत्रो जातमात्रो ग्रामाद्दूरे क्षिप्तो ही। स राजपुत्रः पुण्याधिक इति तत्कुलदेवतया धेनुरूपेण दुग्धं दत्त्वा पालयन्त्याऽष्टवर्षदेशीयः कृतः । अत्रैव ॐकारनगरे शिवभवनाधिकारिणा भरटकेन दृष्टः, आलापितः, वां दीक्षां ग्राहितः । अन्यदा कन्यकुब्जदेशाधिपतिर्नरेन्द्रो 10 जात्यन्धो दिग्विजयकार्येण प्रत्यासन्नः समावासितः। रात्री लघुभरटकस्य शिवादेशः सञ्जातःत्वया कन्यकुब्जेशाय शेषा देया । तयाऽसौ सज्जाक्षो भावी । तद्वाक्यं लघुव॒हद्गुरवे समाख्याय तदाज्ञया शेषामादाय स्कन्धावारमध्यमेत्य राजामात्यानुवाच-भो! भो! खनाथमस्म. त्सम्मुखमानयध्वम् । यथा सद्यः कमलदलललितं खविषयग्रहणक्षमाक्षं कुर्महे । ततोऽमात्य
नुन्नो राजा तत्रायातः । ऋषिदत्तां शेषामादायाक्ष्णोर्निवेश्य सज्जाक्षो जातः । प्रीतः' भक्त्या 15 ग्रामशतानि शासनेऽदात् । अत्रैव च ॐकारे इममुत्तुङ्गं प्रासादमचीकरत् । वयमिह पुरे वसामः । जैनः प्रासादः कारयितुं न लभ्यते । मिथ्यादृशो बलिनः । तस्मात्तत्कुरु येन इतोऽधिकं तङ्ग रम्यं चैत्यं निष्पद्यते । बली त्वमेवेति । तद्वचनं श्रुत्वा वादी अवन्तीमागत्य चतुःश्लोकी हस्ते कृत्वा विक्रमादित्यद्वारमेत्य द्वास्थेनोपराजं श्लोकमचीकथत् । स तेन कथितो यथा
४५. दिक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥ १९॥ 20 तं श्लोकं श्रुत्वा विक्रमादित्येन प्रतिश्लोकः कथापितो यथा
४६. दत्तानि दशलक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥ २० ॥
वादिना तं श्लोकं श्रुत्वा द्वास्थद्वारेण भाणितं राजे-दर्शनमेव भिक्षुरीहते नार्थम् । ततो राज्ञा खदृष्टौ आहूतः। उपलक्षितो भाषितश्च-भगवन् ! किमिति चिराद् दृश्यध्वे ? । आचार्य रुक्तम्-धर्मकार्यवशाचिरादायाताः । श्लोकचतुष्टयं शृणु । राज्ञि शृण्वति पठितं तत् । यथा25 ४७. अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौषः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥ २१ ॥
४८. सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । कीर्तिः किं कुपिता राजन् ! येन देशान्तरं गता ॥ २२॥ ४९. कीर्तिस्ते जातजाड्येव चतुरम्भोधिमजनात् । आतपाय धरानाथ ! गता मार्तण्डमण्डलम् ॥ २३॥
५०. सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे जनैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥ २४ ॥ श्रुत्वा तुष्टो विक्रमश्चतुरो गजान् यथासंख्यं वसन-सुगन्धद्रव्य-हेमनाणक-हारादिपूर्णान्30 आनाय्य सूरिमभाणीत्-इमे गृह्यन्ताम् । सूरिरूचे-नैतदर्थ्यहम् । पुनर्विक्रमो भणतिमन्महीसारभूतांश्चतुरो देशान् खैरमादत्व । वाद्याह-इदमपि नेच्छामि। तर्हि किमिच्छसीति?। श्रूयताम्-ॐकारे चतुर्दारं जैनप्रासादं शिवप्रासादादुच्चं कारय । स्वयं सपरिच्छदा
1P राजपुत्राग्रणीः। 2 P राजपुत्रोऽपि। 3 B नास्ति 'प्रीतः। 4 BCE द्वारि तिष्ठति वारितः। 5 CD राज्ञः।
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मल्लवादिप्रबन्धः। प्रतिष्ठां च तत्र कारयेति । राज्ञा तत्तथैव कृतम् । प्रभावनया सङ्घस्तुष्टः । एवं जैन धर्म द्योतयन् वादी दक्षिणस्यां पृथ्वीस्थानपुरं विहरन गतः । तत्रायुरन्तं ज्ञात्वाऽनशनं लात्वा स्वर्गलोकमध्यवात्सीत् । तत्रत्यसङ्घन चित्रकूटे सिद्धसेनगच्छं तं वृत्तान्तं ज्ञापयितुं वाग्मी भट्ट एकः प्रस्थापितः। स तत्सूरिसभायां श्लोकपूर्वाद्धं पुनः पुनः पठति स्म यथा
५१. स्फुरन्ति वादिखद्योताः साम्प्रतं दक्षिणापथे । पुनः पुनः पाठे सिद्धसारस्वतया सिद्धसेनभगिन्योक्तम्
नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ २५ ॥ पश्चादूभट्टेन प्रपश्योक्तम् । ततः शोको विहितो विसृष्टश्च ।
॥ इति वृद्धवादि-सिद्धसेनयोः प्रबन्धः ॥ ६॥
७. अथ श्रीमल्लवादिप्रबन्धः । ६२८)
श्रीइन्द्रभूतिमानम्य प्रभावकशिरोमणेः ।
श्रीमल्लवादिसूरीन्दोश्चरितं कीर्त्यते मया ॥१॥ खेटाभिधं महास्थानमस्ति गूर्जरमण्डले । देवादित्याह्वयस्तत्र विप्रोऽभूद्वेदपारगः ॥२॥ सुभगाख्या सुता तस्य विधवा बालकालतः। कस्मादपि गुरोर्मत्रं सौरं सा प्राप भक्तिभाक् ॥३॥ आकृष्टस्तेन मन्त्रेण भास्करस्तामुपागमत् । तद्भोगलाभादापन्नसत्त्वा सा न चिरादभूत् ॥ ४ ॥15 बैक्रियेभ्यः सुराङ्गोभ्यो गर्भो यद्यपि नोद्भवेत् । तदानीं त्वौदारिकाङ्गधातुयोगातु सम्भवी ॥५॥ आपाण्डुगण्डफलकांग्लानाङ्गी वीक्ष्य तां पिता। बभाषे किमिदं वत्से ! निन्द्यमाचरितं त्वया?॥६॥ सा प्राह स्म पितर्नेयं प्रमादविकृतिर्मम । मन्नाकृष्टागतोष्णांशुन्यासः पुनरयं बलात् ॥७॥ इत्युक्तोऽपि विषण्णात्मा देवादित्यः कुकर्मणा । तां पुत्रीं प्रेषयामास सभृत्यां वलभी पुरीम् ॥८॥ कालेन तत्र साऽसूत पुत्रं पुत्रीं च सुद्युतम् । तत्रैवोवास सुचिरं जनकार्पितजीविका ॥९॥ 20 क्रमेण ववृधाते तो पुत्रौ बालाकतेजसौ । यावदष्टौ व्यतिक्रान्ता वत्सराः क्षणवत्तयोः॥१०॥ तावदध्यापकस्यान्ते पठितं तौ निवेशितौ । कलहेऽर्भ निष्पितकमचिरे लेखशालिकाः॥११॥ तद्विरा खिद्यमानोऽभः पप्रच्छ जननी निजाम्। किंमातर्नास्ति मे तातो येन लोकोक्तिरीदृशी ॥१२॥ माता जगाद नो वेनि किं पीडयसि पृच्छया। ततःखिन्नःस सत्त्वाट्यो म मैच्छद्विषादिभिः॥१३॥ साक्षादागत्य तं भानुरूचेऽहं वत्स! ते पिता । पराभवकरो यस्ते तस्याहं प्राणहारकः॥१४॥25 इत्युक्त्वा कर्करं सूक्ष्ममेकं तस्य समार्पयत्। ताज्योऽनेन त्वया द्वेषी सद्यो मर्तेति चादिशत्॥१५॥ तेन कर्करशस्त्रेण बालः स बलवत्तरः। विब्रुवन्तं विब्रुवन्तमवधील्लेखशालिकम् ॥ १६ ॥ वलभीपुरभूपेन श्रुतो बालवधः स तु । कुपितस्तं शिशु सद्यो जनैः खान्तिकमानयत् ॥१७॥ उक्तश्च-रे! कथं हंसि नृशंस ! शिशुकानमून् ? । बालः प्रत्याह-न परं बालान्हन्मि नृपानपि॥१८॥ इत्थं वदन् महीपालमहन् कर्करकेण तम् । मृतस्य तस्य साम्रज्ये स राजाऽजनि विक्रमी ॥ १९॥ 30
1AC प्रबन्धौ। 2 PD तेन। 3 BC सदा। 4 B शालकम् ।
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प्रबन्धकोशे शिलादित्य इति ख्यातः सुराष्ट्राराष्ट्रभास्करः।
लेभे सूर्याद्वरं वाहं परचक्रोपमईकम् ॥२०॥ निजां खसारं स ददौ भृगुक्षेत्रमहीभुजे । असूत सा सुतं दिव्यतेजसं दिव्यलक्षणम् ॥ २१ ॥
शत्रुञ्जये गिरौ चैत्योद्धारमारचयच्च सः। श्रेणिकादिश्रावकाणां श्रेणावात्मानमानयत् ॥ २२॥ 5 कदाचिदागतास्तत्र बौद्धास्तर्कमदोद्धराः । ते शिलादित्यमगदन्-सन्ति श्वेताम्बरा इमे ॥ २३ ॥ वादे जयन्ति यद्यमांस्तदैते सन्तु नीवृति । वयं यदि जयामोऽमूंस्तदा गन्तव्यमेतकैः ॥ २४ ॥ दैवयोगाजितं बौद्धैः सर्वे श्वेतम्बराः पुनः । विदेशमाशिश्रियिरे पुनः कालबलार्थिनः ॥ २५ ॥ शिलादित्यनृपो बौद्धान् प्रपूजयति भक्तितः । शत्रुञ्जये च ऋषभस्तैर्बुद्धीकृत्य पूजितः ॥ २६ ॥ ६३०) इतश्च सा शिलादित्यभगिनी भर्तृमृत्युतः।
विरक्ता व्रतमादत्त सुस्थिताचार्यसन्निधौ ॥ २७॥ अष्टवर्ष निजं बालमपि व्रतमजिग्रहत् । सामाचारीमपि प्राज्ञं किञ्चित्किश्चिदजिज्ञपत् ॥ २८ ॥
एकदा मातरं साध्वीं सोऽपृच्छदभिमानवान् ।
अल्पः कथं नः सङ्घोऽयं प्रागप्यल्पोऽभवत्कथम् ॥ २९॥ साऽप्युदश्रुरभाषिष्ट-वत्स! किं वच्मि पापिनी । श्रीश्वेताम्बरसङ्घोऽभूदु भूयानपि पुरे पुरे ॥३०॥ 15 तादृक्प्रभावनावीरसूरीन्द्राभावतः परैः । खसात्कृतः शिलादित्यो भूपालो मातुलस्तव ॥ ३१ ॥ तीर्थ शत्रुञ्जयाह यद्विदितं मोक्षकारणम् । श्वेताम्बराभावतस्तद्वौद्धैर्भूतैरिवाश्रितम् ॥ ३२ ॥ विदेशवासिनः श्वेताम्बराः खण्डितडम्बराः। क्षिपन्ति निहतौजस्काः कालं कचन केचन ॥३३॥ इति श्रुत्वाऽकुपद्वालस्तथागतभटान् प्रति । प्रतिज्ञा च चकारोः प्राडम्भोधरध्वनिः ॥ ३४ ॥ नोन्मूलयामि चेद्वौद्धान् नदीरय इव दुमान् । तदा भवामि सर्वज्ञध्वंसपातकभाजनम् ॥ ३५॥ 20 इत्युक्त्वाऽम्बां समापृच्छय बालःकालानलद्युतिः। मल्लनामा' गिरिं गत्वा तेपे तीव्रतरं तपः॥३६॥ आसन्नग्रामभैक्षेण पारणं च चकार सः। दिनैः कतिपयैस्तच्च जज्ञौ शासनदेवता ॥ ३७॥
भूत्वा व्योमनि साऽवादीत्-केमिष्टाः १, सोऽपि बालकः।
तच्छुत्वाऽऽख्यत्सानुभवं 'वल्ला' इति खदत्तदृक् ॥ ३८॥ षण्मास्यन्ते पुनः सोचे खस्था 'केन सहे' त्यथ । बालर्षिरप्यभाषिष्ट 'समं घृतगुडैः शुभैः ॥३९॥ 25 अवधारणशक्त्या तं योग्यं शासनदेवता । प्रत्यक्षा न्यगदद्वत्स! भूयाः परमतापहः ॥४०॥ नयचक्रस्य तस्य पुस्तकं लाहि मानद !। वाणी सेत्स्यति ते सम्यक कुतर्कोरगजाङ्गुली ॥४१॥ भूमौ मुमोच तं तर्कपुस्तकं बालको मुनिः। प्रमादः सुलभस्तत्र वयोलीलाविशेषतः॥ ४२ ॥ रुष्टा शासनदेव्यूचे विहिताशातना त्वया । सान्निध्यं ते विधाताऽस्मि प्रत्यक्षीभविता न तु ॥४॥ तं लब्ध्वा पुस्तकं मल्लवादी देदीप्यते स्म सः। शस्त्रं पाशुपतमिव मध्यमः पाण्डुनन्दनः ॥ ४४ ॥ 80 आगत्य वलभीद्रङ्गं सुराष्ट्राराष्ट्रभूषणम् । शिलादित्यं युगप्रान्तादित्यातिरुवाच सः॥ ४५ ॥
- 1A राष्ट्र। 2 CD बाढं। 3 A नास्ति पदमेतत् । 4 A भक्ततः। 5 B स्वसात्कृत्य। 6 AP निहिती० । 7A मल्लनाम।
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मल्लवादिप्रबन्धः।
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बौद्धैर्मुधा जगजग्धं प्रतिमल्लोऽहमुत्थितः । अप्रमादी मल्लवादी त्वदीयो भगिनीसुतः॥४६॥ शिलादित्यनुपोपान्ते बौद्धाचार्येण वाग्मिना । वादिवृन्दारकश्चके तर्कबर्करमुल्षणम् ॥४७॥ मल्लवादिनि जल्पाके नयचक्रबलोल्बणे । हृदये हारयामास षण्मासान्ते स शाक्यराट् ॥४८॥ षण्मासान्तनिशायां स खं निशान्तमुपेयिवान् । तर्कपुस्तकमाकृष्य कोशात्किञ्चिदवाचयत् ॥४९॥ चिन्ताचक्रहते चित्ते नार्थीस्तान्धर्जुमीश्वरः । बौद्धः स चिन्तयामास प्रातस्तेजोवधो मम ॥५०॥ 5 श्वेताम्बरस्फुलिङ्गस्य किश्चिदन्यदहो! महः । निर्वासयिष्यन्तेऽमी हा! बौद्धाः साम्राज्यशालिनः॥
५२. धन्यास्ते ये न पश्यन्ति देशभङ्ग कुलक्षयम् । परहस्तगतां भार्यां मित्रं चापदि संस्थितम् ॥ ५२॥ *इति दुःखौघसंघद्याद्विदद्रे तस्य हृत्क्षणात् । नृपाहानं समायातं प्रातस्तस्य द्रुतं द्रुतम् ॥५३॥ मोदूघाटयन्ति तच्छिष्या गृहद्वारं वराककाः । मन्दो गुरुर्नाद्य भूपसभामेतेति भाषिणः॥५४॥ तद्गत्वा तत्र तैरुक्तं श्रुत्वा तन्मल्ल उल्लसन् । अवोचच्च शिलादित्यं मृतोऽसौ शाक्यराट्र शुचा ॥10 स्वयं गत्वा शिलादित्यस्तं तथास्थमलोकत । बौद्धान्प्रावासयद्देशाद्धिक प्रतिष्ठाच्युतं नरम् ॥५६॥ मल्लवादिनमाचार्य कृत्वा वागीश्वरं गुरुम् । विदेशेभ्यो जैनमुनीन् सर्वानाजूहवन्नुपः ॥७॥ शत्रुञ्जये जिनाधीशं भवपञ्जरभञ्जनम् । कृत्वा श्वेताम्बरायत्तं यात्रां प्रावर्तयन्नृपः॥५८॥ ६३१) कालान्तरे तत्र पुरे रङ्को नामाभवद्वणिक् ।
तस्य कापर्टिको हट्टे न्यासीचक्रे महारसम् ॥ ५९॥ रसेन तेन स्पृष्टस्य लोहस्य तपनीयताम् । स दृष्ट्वा हद्दसदनपरावर्त चकार च ॥६०॥ पञ्चयित्वा कार्पटिकं रङ्कः सोऽभून्महाधनः । तत्पुत्र्या राजपुच्याश्च सख्यमासीत्परस्परम् ॥६१॥
मी कातिकामेकां दिव्यरत्नविभाषिताम। रङ्कपुत्रीकरे दृष्टा याचते स्म नृपात्मजा॥१२॥ तां न दत्ते पुना रङ्को राजा तं याचते बलात् । तेनैव मत्सरेणासौ म्लेच्छसैन्यमुपानयत् ॥६३॥ भन्ना पूर्वलभी तेन सञ्जातमसमञ्जसम् । शिलादित्यः क्षयं नीतो वणिजा स्फीतऋद्धिना ॥ ६४ ॥20 ततोऽथाकृष्य वणिजा प्रक्षिप्ताश्च रणे शकाः । तृष्णया ते स्वयं मद्महतो व्याधिर्महानयम्॥६५॥ विक्रमादित्यभूपालात्पश्चर्षित्रिक(५७३)वत्सरे । जातोऽयं वलभीभङ्गो ज्ञानिनः प्रथमं ययुः ॥६६॥ खवर्त्मना गतान्यहदिम्बानि विषयान्तरम् । देवताधिष्ठितानां हि चेष्टा सम्भविनी तथा॥३७॥ एतच्च प्रथमं ज्ञात्वा मल्लवादी महामुनिः । सहितः परिवारेण पञ्चासरपुरीमगात् ॥ १८॥ नागेन्द्रगच्छसत्केषु धर्मस्थानेष्वभूत्पभुः । श्रीस्तम्भनकतीर्थेऽपि सङ्घस्तस्येशतामधात् ॥ ६९ ।। 25
श्रीमल्लवादिचरितं जिनशासनीयतेजःसमुन्नतिपवित्रमिदं निशम्य। भव्याः ! कवित्ववचनादिविचित्रलब्धिवातैः"प्रभावयत शासनमार्हतं भोः ॥७॥
॥ इति श्रीमल्लवादिचरित्रम् ॥७॥
15
1 B अप्रवादी; D अप्रमादो। 2 P बर्बर। 3P नयतर्क०। * एषः श्लोकः B आदर्श नोपलभ्यते। 4 B सः। 5P हैमीकानीका। 6 A ततोऽप्याकृष्य। 7 ACD रिणे; P अरिणे। 8C शिकाः। 9P मृत्वा। 10 ACD सम्भाविनी। 11 B.प्रास्या ।
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अन्वधकोशे
८. अथ श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः । ६३२) श्रीचित्रकूटे हरिभद्रो विप्रश्चतुर्दशविद्यास्थानज्ञः' । 'दृश्यां पादुका; पञ्चमदूरीकृतदर्शनाऽन्यानि पञ्चममाघ इति कृत्वा; उदरे पट्टः, उदरं विद्यया स्फुटतीति कृत्वा; जालं कुदालो निःश्रेणी सह चलन्ति' । यत्पठितमहं न जानामि तस्य शिष्यो भवामीति प्रतिज्ञा । एकदा 5 चतुष्पथासन्नभूमिमबजत् । याकिनी नाम साध्वी तया' ५३. चक्किदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसवचक्की केसवदुचक्किकेसी य चक्की य ॥१॥
इति गाथा पेठे । न च तेन बुद्धा । अग्रे गत्वोक्तम्-मातः! खरं चिकचिकापितम् । साध्व्योक्तम्-नवं लिप्तम् । अहो! अनयाऽहमुत्तरेणापि जितः-इति तां ववन्दे । स्वच्छिष्योऽस्मि । गाथार्थं ब्रूहि मातः !। सा प्राह स्म-मम गुरवः सन्ति । हरिभद्रः प्राहक ते? 10[*अत्र सन्ति । ततः केनापि श्रावकेण स] चैत्यं नीतः। जिनदर्शनं तत्प्रथमम् । हर्षः।
५४. वपुरेव तवाचष्टे भगवन् ! वीतरागताम् । नहि कोटरसंस्थेऽग्नौ तरुर्भवति शाड्वलः ॥ २॥ ५५. जं दिछी करुणातरङ्गियफुडा एयस्स सोमं मुहं, आयारो पसमायरो परियरो संतो पसन्ना तणू ।
तं नृणं जरजम्ममचुहरणो देवाहिदेवो इमो, देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए ॥ ३॥ इत्यादिनवीननमस्काराः। ततो जिनभटाचार्यदर्शनम् । प्रतिपत्तिः। चारित्रम् । सूरिपदवी । 15 आवश्यके चक्की'त्यादि तेनैव विवृतम्। 'कलिकालसर्वज्ञः' इति बिरुदम् । रहस्यपुस्तका देवताभ्यो
लब्धाः । ते चादरेण जितदिक्पटाचार्याच्छिन्न ८४ मठप्रतिबद्धचउरासीनामकमासावस्तम्भे विविधौषधनिष्पन्ने जलज्वलनाद्यसाध्ये क्षिप्ताः।
६३३) एकदा भागिनेयौ हंस-परमहंसौ पाठयति प्रभुः। निष्पन्नौ परं बौद्धतौस्तन्मुखेन पिपठिषतः । गुरुणा ज्ञानिना' वार्यमाणावपि तत्पार्श्व गतौ । जरतीगृहे उत्तारकः। बौद्धाचार्यान्तिके 20 तद्वेषस्थौ पठतः । कपलिकायां रहस्यानि लिखतः। प्रतिलेखनादिसंस्कारवशाहयालू इव ज्ञात्वा गुरुणाऽचिन्ति-ध्रुवं श्वेताम्बरावेतौ । द्वितीयाहे सोपानश्रेणौ खट्याऽर्हद्विम्बमालिलिखे । तवासन्नायातौ तौ पादौ न दत्तः। [*यतः, नरकफलमिदं न कुर्वहे श्रीजिनपतिमूर्द्धनि पाक्योर्निवेशम् । ] रेखात्रयाङ्कस्तत्कण्ठश्चक्रे । बुद्धोऽयं जात इति कृत्वा उपरि पादो दत्तः । उपरि चटितौ । गुरुणा दृष्टौ। गुरोः समक्षं निषण्णौ तौ। गुर्वास्यच्छायापरावर्त दृष्टा तत्कैतवं तत्कतमेव मत्वा 25 जठरपीडामिषेण ततो निरक्रामताम् । कपलिकां लात्वा गतौ। तौ चिरान्नायातौ । विलोकापितौ न स्तः। राजाग्रे कथितम्-सितपटावुत्कटकपटौ तत्त्वं लात्वा यातः। कपलिकामानायय । पृष्ठे सैन्यमल्पं गतम् । दृष्टिदृष्टिः। द्वावपि सहस्रयोधौ तौ । ताभ्यां निहतं राजसैन्यम् । उवृत्तनष्टैरुपराजं गत्वा कथितं तत्तेजः । पुनर्बहुसैन्यप्रैषः । दृष्टिमेलापकः । युद्धमेकः करोति ।
1B ज्ञानज्ञः। 2 BD दृश्यं पादुकामदूरी। + एतदन्तर्गतपाठस्थाने G आदर्श 'स्वविद्यया तिरस्कृतपंचदर्शनानि वदति च जनेषु विद्ययोदरं स्फाटयति, अतो मयोदरे पट्टबन्धः क्रियते । एतादृशः पाठः। 3 ADP चलति । 4 A भूमिमाव्रजन् ; B भूमि अजन् । *P भूमि बजता गाथामेकां पठ्यमाना याकिनी नाम साध्वी श्रुता। 5 BD नास्ति 'तया'। *P पुस्तक एवैष कोष्टकगतः पाठो दृश्यते, प्रक्षिप्तप्रायोऽयम् । 6 P चक्कीत्यादि दुष्करत्वादावश्यकं तेनैव। 7 P नास्ति । 8 BD पाद; P पादौ सत्र । * कोष्ठकगतः पाठः AD आदर्श लभ्यते; D आदर्श पुनः एतदने 'परसटिततरौ वरे विभतो निजचरणौ न तु जैनदेहलग्नौ' एषा अधिका पंक्तिर्विद्यते। 9 B नास्ति 'गुरोः समक्षं। 10 P नास्ति पदमेतत् । 11 P उद्धृत। 12 P सैन्यमप्रैपि ।
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हरिभद्रसूरिप्रबन्धः। अपरः कपलिकापाणिनष्टः । हंसस्य शिरश्छित्त्वा राज्ञे दर्शितं तैः । तेनापि गुरवे दत्तम् । गुरुराह-किमनेन कपलिकामानायय । गता भटाः। रात्रौ चित्रकूटे प्राकारकपाटयोर्दत्तयोस्तदासने सुप्तस्य परमहंसस्य शिरश्छित्त्वा तैस्तत्रार्पितम् । तेषां बौद्धानां तत्सूरेश्च सन्तोषः। प्रातः श्रीहरिभद्रसूरिभिः शिष्यकबन्धो दृष्टः । कोपः । तैलकटाहाः कारिताः । अग्निना तापितं सैलम् । १४४० बौद्धा होतुं खे आकृष्टाः [*शकुनिकारूपेण पतन्ति ] । गुरुभिवृत्तान्तो ज्ञातः । [*प्रतियोधाय] साधू प्रहितौ । ताभ्यां गाथा दत्ताः
५६. गुणसेण-अग्गिसम्मा सीहा-णंदा य तह पिया-पुत्ता । सिहि-जालिणि माइ-सुया, धण-धणसिरिमो य पइ-भजा ॥४॥ ५७. जय-विजया य सहोयर धरणो लच्छी य तह पई भजा । सेण-विसेणा पित्तिय-उत्ता जम्मंमि सत्तमए ॥५॥ ५८. गुणचन्द-वाणवंतर-समराइच-गिरिसेण पाणो उ । एगस्स तओ मुक्खोऽणंतो बीयस्स संसारो ॥ ६॥ ५९. जह जलइ जलउ लोए कुसत्थपवणाहओ कसायग्गी । तं चुजं जं जिणवयणअमियसित्तो वि पजलइ ॥ ७॥ 10 बोधः । शान्तिः। १४४० ग्रन्थाः प्रायश्चित्तपदे कृताः । चित्रकूटतलहट्टिकास्थेन तैलवणिजा प्रतयः कारिताः। तत्प्रथमं याकिनीधर्मसूनुरिति हारिभद्रग्रन्थेष्वन्तेऽभूत् । १४४० पुनर्भवविरहान्तता। 'गुणसेणअग्गिसम्मा' इत्यादिगाथात्रयप्रतिबद्धं समरादित्यचरित्रं नव्यं शास्त्रं क्षमावल्लीबिजं कृतम् । १०० शतक-पश्चाशत्-षोडशक-अष्टक-पञ्चलिङ्गी-अनेकान्तजयपताका-न्यायावतारवृत्ति-पञ्चवस्तुक-पञ्चसूत्रक-श्रावकमज्ञप्ति-नाणायत्तकप्रभृतीनि हारिभद्राणि ।
६३४) अत्रान्तरे श्रीमालपुरे कोऽपि धनी श्रेष्ठी जैनश्चतुर्मासके सपरिकरो देवतायतनं व्रजन् सिद्धाख्यं राजपुत्रं द्यूतकारयुवानं देयकनकपदे निर्दयै तकारैर्गर्तायां निक्षिप्तं कृपया तद्देयं दत्त्वा अमोचयत् । गृहमानीयाभोजयत् । अपाठयत् । सर्वकार्याध्यक्षमकरोत् । पर्यणाययत् । माता मागप्यासीत् । पृथग' गृहमण्डनिका । श्रेष्ठिप्रसादाद्धनम् । सिद्धो रात्रावतिकाले एति, लेख्यकलेखलेखनपरवशत्वात् । श्वश्रू लुषे अतिनिर्विण्णे अतिजागरणात् । वध्वा श्वश्रूरक्ता-मातः !20 पुत्रं तथा बोधय, यथा निशि सकाले एति । मात्रा उक्तः सः-वत्स! निशि शीघ्रमेहि । 'यः कालज्ञः स सर्वज्ञः'। सिद्धः प्राह-मातः! येन खामिनाऽहं सर्वखदानेन जीवितव्यदानेन च समुद्भुतस्तदादेशं कथं न कुर्वे । तोष्णीक्येन स्थिता माता। अन्यदाऽऽलोचितं श्वश्रू-लुषार अस्य चिरादागतस्य निशि द्वारं नोद्घाटयिष्यावः। द्वितीयरात्रावतिचिराद् द्वारमागतः स कटकं खटखटापयति । ते तु न ब्रूतः । तेन क्रुद्धेन गदितम्-किमिति द्वार नोद्घाटयेथे ? 125 ताभ्यां मन्त्रितपूर्विणीभ्यामुक्तम्-पत्रेदानी द्वाराणि उद्घाटितानि भवन्ति, तत्र व्रज। तछुत्वा कुद्धश्चतुष्पथं गतः। तत्रोद्घाटे हट्टे उपविष्टान् सूरिमन्त्रस्मरणपरान् श्रीहरिभद्रान्दृष्टवान् । सान्द्रचन्द्रिके नभसि देशना । बोधः । व्रतम् । सर्वविद्यता। दिव्यं कवित्वम् । हंसपरमहंसवद् विशेषतर्काम् जिघृक्षुबौद्धान्तिकं जिगमिषुर्गुरुमवादीत्-प्रेषयत बौद्धपार्थे । गुरुभिर्गदितम्तत्र मागाः। मनापरावर्ती भावी । स ऊचे-युगान्तेऽपि नैवं स्यात् । पुनर्गुरवः प्रोचुः-तत्र गतः 80 परावर्त्यसे चेत् तदा अस्मद्दत्तं वेषमत्रागत्यास्मभ्यं ददीथाः। ऊरीचक्रे । स गतस्तत्र पठितुं
* P पुस्तक एवैतद् वाक्यं लभ्यते। 10 ज्ञापितः। 2 A क्षितं । 3P पृथग् गृहेऽस्थात् । मात्रा प्रियया च समं स गृहमण्डनिका। 4 P .धनं बभूव । 5A पारवश्यात् । 6C चिरेण । 7 B खटापयति । 8P व्रतं जगृहे। 9 B तर्कानाजिपुचः।
४ प्र.को.
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प्रबन्धकोशे लग्नः । सुघटितैस्तत्कुतः परावर्तितं मनः । तद्दीक्षा ललौ । वेषं दातुमुपश्रीहरिभद्रं ययौ । तैरप्यागच्छन् जटितः। [P तैरप्यागच्छन्नावर्जितः वादं कुर्वन्वादेन जितः । बौद्धाचार्यस्य बौद्धवेषं दातुं गतः । तेनापि बोधितः। पुनरागत उपश्रीहरिभद्रं श्वेताम्बरवेषं दातुम् । पुनर्वादेन जिता*1] एवं वेषद्वयप्रदानेन एहिरेयाहिराः २१ कृताः। द्वाविंशवेलायां गुरुमिश्चिन्तितम्5माऽस्य वराकस्य आयुःक्षयेण मिथ्यादृष्टित्वे मृतस्य दीर्घभवभ्रमणं भू[यात् । पुराऽपि २१ वारं' वादर्जितोऽसौ। अधुना वादेनालम् । 'ललितविस्तराख्या' चैत्यवन्दनावृत्तिः सतर्का कृता । तदा गमे पुस्तिकां पादपीठे मुक्त्वा गुरवो बहिरगुः । तत्पुस्तिकापरामर्शाबोधः सम्यक् । ततस्तुष्टो निश्चलमनाः प्राह
६०. नमोऽस्तु हरिभद्राय तस्मै प्रवरसूरये । मदर्थं निर्मिता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥ ८॥ 10 ततो मिथ्यात्वनिर्विण्णेन सिद्धर्षिणा १६ सहस्रा 'उपमितिभवप्रपञ्चा' कथाऽरचि श्रीमाले सिद्धिमण्डपे । सा च सरखत्या साध्व्याऽशोधि । समये श्रीहरिभद्रसूरयोऽपि सोऽपि अनशनेन सुरलोकमवापन् ।
॥ इति श्रीहरिभद्रसूरिप्रबन्धः ॥ ८॥
९. अथ श्रीबप्पभटिसूरिप्रबन्धः । 15६३५) गूर्जरदेशे पाडलापुरनगरे जितशत्रू राजा राज्यं करोति स्म । तत्र श्रीसिद्धसेननामा
सूरीश्वरोऽस्ति स्म । स मोढेरपुरे महास्थाने श्रीमहावीरनमस्करणाय गतः।श्रीमहावीरं नत्वा तीर्थोपवासं कृत्वा रात्रावात्मारामरतो योगनिद्रया स्थितः सन् खमं ददर्श । यथा-केसरिकिशोरको देवगृहोपरि क्रीडति । खमं लब्ध्वाऽजागरीत् । माङ्गल्यस्तवनान्यपाठीत् । प्रातश्चैत्यं गतः। तत्र षड्वार्षिको बाल एको बालांशुमालिसमद्युतिराजगाम । सूरिणा पृष्टः-भो अर्भक! कस्त्वम् ? 20 कुत आगतः । तेनोक्तम्-पश्चालदेशे हूंबाउधीग्रामे बप्पाख्यः क्षत्रियः। तस्य भटि म सधर्म
चारिणी । तयोः 'सूरपालो नाम पुत्रोऽहम् । मत्तातस्य बहवो भुजबलगर्विताः प्रचुरपरिच्छदार शत्रवः सन्ति । तान्सर्वान्हन्तुमहं सन्नह्य चलन्नासम् । पित्रा निषिद्धः-वत्स! बालस्त्वम्, नास्मै कर्मणे प्रगल्भसे । अलमुद्योगेन । ततोऽहं क्रुद्धः । किमनेन निरभिमानेन पित्रापि, यः स्वयमरीन्न हन्ति मामपि नन्तं निवारयति । अपमानेन मातापितरावनापृच्छयात्र समागतः। 25 सूरिणा चिन्तितम्-अहो दिव्यं रत्नम् ! । न मानवमात्रोऽयम् । 'तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते।' इति विमृश्य बाल आलेपे-वत्सक! अस्माकं पार्श्वे तिष्ठ, निजगृहाधिकसुखेन । बालेनोक्तम्महान्प्रसादः । स्वस्थानमानीतः । सङ्घो हृष्टस्तद्रूपविलोकनेन । दृष्टयस्तृप्तिं न 'मन्वते । पाठयित्वा विलोकितः। एकाहेन श्लोकसहस्रमध्यगीष्ट । गुरवस्तुतुषुः । 'रत्नानि पुण्यप्रचयप्राप्यानि। धन्या वयम् । तेन बालेनाप्यल्पदिनैर्लक्षण-तर्क-साहित्यादीनि भूयांसि शास्त्राणि पर्यशीलिषत ।
* एषा कोष्टकगता पंक्तिः केवलं P पुस्तके दृश्यतेऽतः प्रक्षिप्तप्राया चेयम् । 1 P वारान् । 2 P वादे जितो। 3P समजनि। 4 B सिद्धिऋषिणा। 5 P पाटला। 6 B अत्र। 7 B सुर०। 8 B मन्यन्ते; P तन्वते। 90 तुतुष्ट; D दृष्टाः; P तुष्टयुः।
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बप्पट्टिसूरिप्रबन्धः। ततो गुरवो डूंबाउधीग्राम जग्मुः । बालस्य पितरौ वन्दितुमागतौ । गुरुभिरालापितौ-पुत्रा भवन्ति भूयांसोऽपि। किं तैः संसारावकरकृमिभिः । अयं तु युवयोः पुत्रो व्रतमीहते । दीयता नः । गृयतां धर्मः । 'नष्टं मृतं सहन्ते हि पितरो निजतनयम् ।' श्लाघ्योऽयं भवं निस्तितीषुः । पितृभ्यामुक्तम्-भगवन् ! अयमेक एव नः कुलतन्तुः। कथं दातुं शक्यते ? । तावता सविधस्थेन सूरपालेन गदितम्-अहं चारित्रं गृह्णाम्येव । ६१. यतः-सा बुद्धिर्विलयं प्रयातु कुलिशं तत्र श्रुते पात्यताम् , वल्गन्तः प्रविशन्तु ते हुतभुजि ज्वालाकराले गुणाः ।
यैः सर्वैः शरदेन्दुकुन्दविशदैः प्राप्तैरपि प्राप्यते, भूयोऽप्यत्र पुरन्धिरन्ध्रनरककोडाधिवासव्यथा ॥१॥ ततो ज्ञाततन्निश्चयाभ्यां तन्मातरपितृभ्यां जल्पितम्-भगवन् ! गृहाण पात्रमेतत् । परं 'बप्पभहिः' इति नामास्य कर्तव्यम् । गुरुभिर्भणितम्-एवमस्तु। कोऽत्र दोषः। पुण्यवन्तौ युवाम् । ययोरयं लाभः सम्पन्नः । बप्प-भट्टी आपृच्छय सूरपालं गृहीत्वा सिद्धसेनाचार्या मोढेरकं गताः । 10
६२. शताष्टके वत्सराणां गते विक्रमकालतः । सप्ताधिके राधशुक्लतृतीयादिवसे गुरौ ॥२॥ दीक्षा दत्ता। बप्पभहिः' इति नाम विश्ववल्लभं जुघुषे । सङ्घप्रार्थनया तत्र चतुर्मासकं कृतम् । ६३६) अन्यदा बहिर्भूमि गतस्य बप्पभट्टेर्महतीं वृष्टिमतनिष्ट घनः । कापि देवकुले स्थितः सः। तत्र देवकुले महाबुधः कोऽपि पुमान् समागतः। तत्र देवकुले प्रशस्तिकाव्यानि रसाढ्यानि गम्भीरार्थानि तेन वप्पभटिपार्थाद्व्याख्यापितानि । ततः स बप्पभट्टिना समं वसतिमायातः। गुरु-15 भिगशीभिरभिनन्दितः। आम्नायं स प्रष्टः। ततोऽसौ जगाद-भगवन! कन्यकब्ज
गोपालगिरिदुर्गनगरे यशोवर्मनृपतेः सुयशादेवीकुर्तिजन्मा नन्दनोऽहम् ।यौवने च निरर्गलं धनं लीलया व्ययन पित्रा कुपितेन शिक्षितः-वत्स! धनार्जकस्य कृच्छ्रमस्थानव्ययी पुत्रो न वेत्ति तातस्य । मितव्ययो भव । ततोऽहं कोपादिहागमम् । गुरुवोऽप्यूचुः-किं ते नाम?। तेनापि खटिकया भुवि लिखित्वा दर्शितम्-'आम' इति । महाजनाचारपरंपरेदशी 'स्वनाम नामाददते न साधवः। 20 तस्यौनत्येन गुरवो हृष्टाः । चिन्तितं च तैः-पूर्व श्रीरामसैन्ये दृष्टोऽसौ पाण्मासिकः शिशुः।
६३. पीलवृक्षमहाजाल्या वस्त्रान्दोलकैमास्थितः । अचल[या]छायया च पुण्यपुरुषो निर्णीतः ॥३॥ ततस्तजननी वन्यफलानि विचिन्वानाऽस्माभिर्भणिता-वत्से ! का त्वम् । किं च ते कुलम् ।। [*साऽवादीत् निजं कुलम्] अहं राजपुत्री कन्यकुब्जेशयशोवर्मपत्नी सुयशा नाम । अहमस्मिन्मते गर्भस्थे सति दृढकार्मणवशीकतधवया कृतप्रमाणयाऽकत्ययेव करया सपन्या: मिथ्या परपुरुषदोषमारोप्य गृहान्निष्कासिता। अभिमानेन श्वशुरकुल-पितृकुले हित्वा भ्रमन्तीह समागता वन्यवृत्त्या जीवामि। बालंच पालयामि । इदं श्रुत्वाऽस्माभिः सा उक्ता-वत्से! अस्मचैत्यं समागच्छ। खं वत्सं प्रवर्द्धय" । तया तथा कृतम् । सपन्यपि बहुसपत्नीकृतमारणप्रयोगै"र्ममार। ततो विशिष्टपुरुषैः कन्यकुब्जेशो यशोवर्मा विज्ञप्तः-देव! सुयशा राज्ञी निर्दोषाऽपि तदा देवेन सपत्नीवचसा निष्कासिता सा प्रत्यानीयते। राज्ञा सा स्वसौधमानायिता सपुत्रा 30 गौरविता च।
1A कृतिभिः। 2 P नास्ति । 3 A श्रुतः। 4 B महाबोधः। 5 C यशोधर्मः। 6 P सुयशो। 7 'कुक्षि' नास्ति। 8CP यौवनेन। 9 PC सैन्ये ग्रामे। 10P महाजल्यां। 11 P वस्नदोलक०। 12 BC वा तव। * PC भाद” एवैष पाठः। 13 PC यस्कृतः। 14 C वर्धय। 15 PC प्रयोगेण ।
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प्रबन्धकोशे अन्यदा विहरन्तो वयं तस्या देशं गताः। तया पूर्वप्रतिपन्नं स्मरन्त्या वयं वन्दिताः पूजिताः। अनेन आमनाना तत्सुतेन भाव्यम् । एवं चिरं विभाव्य सूरयस्तमूचुः-वत्स! वस निश्चिन्तो निजेन सुहृदा बप्पमहिनाम्ना सममस्मत्सन्निधौ। त्वं गृहाण कलाः। कास्ताः ?-लिखितम् १.
म२. गीतम ३. नृत्यम ४. पठितम ५. वाद्यम ६. व्याकरणम ७, छन्दो८. ज्योतिषम ९. 5 शिक्षा १०. निरुक्तम् ११. कात्यायनम् १२. निघण्टुः १३. पत्रच्छेद्यम् १४. नखच्छेद्यम् १५. रत्नपरीक्षा १६. आयुधाभ्यासः१७. गजारोहणम् १८. तुरगारोहणम् १९. तयोः शिक्षा २०. मनवाद: २१. यत्रवादः २२. रसवादः २३. खन्यवादः २४. रसायनम् २५. विज्ञानम् २६. तर्कवादः २७. सिद्धान्तः २८. विषवादः २९. गारुडम् ३०. शाकुनम् ३१. वैद्यकम् ३२. आचार्यविद्या ३३. आगमः
३४. प्रासादलक्षणम् ३५. सामुद्रिकम् ३६. स्मृतिः ३७. पुराणम् ३८. इतिहासः ३९. वेदः ४०. 10 विधिः ४१. विद्यानुवादः ४२. दर्शनसंस्कारः ४३. खेचरीकला ४४. अमरीकला ४५. इन्द्रजालम् ४६. पातालसिद्धिः ४७. धूर्त्तशम्बलम् ४८. गन्धवादः ४९. वृक्षचिकित्सा ५०. कृत्रिममणिकर्म ५१. सर्वकरणी ५२. वश्यकर्म ५३. पणकर्म ५४. चित्रकर्म ५५. काष्ठघटनम् ५६. पाषाणकर्म ५७. लेपकर्म ५८. चर्मकर्म ५९. यन्त्रकरसवती ६०. काव्यम् ६१. अलङ्कारः ६२. हसितम् ६३.
संस्कृतम् ६४. प्राकृतम् ६५. पैशाचिकम् ६६. अपभ्रंशम् ६७. कपटम् ६८. देशभाषा ६९. धातुकर्म 15७०. प्रयोगोपायः ७१. केवलीविधिः ७२. एताः सकलाः कलाः शिक्षितवान् । लक्षण-तर्कादिग्रन्थान् परिचितवान् । बप्पभट्टिना साकमस्थिमजन्यायेन प्रीतिं बद्धवान् । ६४. यतः-आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण ह्रखा पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसजनानाम् ॥ ४ ॥ कियत्यपि गते' काले यशोवर्मनृपेणासाध्यव्याधितेन पट्टाभिषेकार्थमामकुमाराकारणाय 20 प्रधानपुरुषाः प्रेषिताः। अनिच्छन्नपि तैस्तत्र नीतः। पितुर्मेलितः । पित्राऽऽलिङ्गितः सबाष्पगद्गदमुपालब्धश्च
६५. धिग् वृत्तवृत्तमुचितां शुचितां धिगेतां धिक् कुन्दसुन्दरगुणग्रहणाग्रहित्वम् ।
चक्रेऽकसीनि तव मौक्तिक ! येन वृद्धिर्वार्द्धर्न तस्य कथमप्युपयुज्यसे यत् ॥५॥ अभिषिक्तः स्वराज्ये। शिक्षितश्च प्रजापालनादौ । एतत्कृत्वा यशोवर्मा अर्हन्तं त्रिधा शुद्ध्या 25 शरणं श्रयन् द्यां गतः। आमराजा पितुरौद्धदेहिकं कृतवान् । द्विजादिदीनलोकाय वित्तं दत्तवान् । लक्षद्वितयमश्वानाम्, हस्तिनारथानांच प्रत्येकं चतुर्दशशती, एका कोटी पदातीनाम् । एवं राज्यश्रीः श्रीआमस्य न्यायरामस्य । तथापि बप्पभादिमित्रं विना पलालपूलप्रायं मन्यते स्म । ततो मित्रानयनाय प्रधानपुरुषानप्रेषीत् । तैस्तत्र गत्वा विज्ञप्तम्-हे श्रीवप्पभट्टे ! आमराजः समुत्कण्ठयाऽऽहयति । आगम्यताम् । बप्पभट्टिना गुरूणां वदनकमलमवलोकितम् । तैः सङ्घानुमत्या 30 गीतार्थयतिभिः समं बप्पभहिमुनिः प्रहितः। आमस्य पुरं गोपालगिरि प्राप । राजा सबलवाहनः संमुखमगात् । प्रवेशमहमकार्षीत् । सौधमानैषीत् । अवोचत च-भगवन् ! अर्द्धराज्यं गृहाण । तेनोक्तम्-अस्माकं निर्ग्रन्थानां सावधेन राज्येन किं कार्यम् । यतः
1C आपातगुर्वी। 2 P नास्ति। 30 मिलितः। 4P त्रिविधः ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः।
२९ ६६. अनेकयोनिसम्पाताऽनन्तबाधाविधायिनी । अभिमानफलैवेयं राज्यश्रीः सा विनश्वरी ॥ ६॥ ६३७) ततो राज्ञाऽसौ तुङ्गे धवलगृहे स्थापितः । प्रातः सभामागताय बप्पभट्टये नृपेण सिंहासनं मण्डापितम् । तेन गदितम्-ऊर्वीपते ! आचार्यपदं विना सिंहासनं न युक्तम् । गुर्वाशातना भवेत् । ततो राज्ञा बप्पभहिः प्रधानसचिवैः सह गुर्वन्तिके प्रहितः । विज्ञप्तिका च' दत्ता-यदि मम प्राणैः कार्य तदा प्रसद्य सद्योऽयं महर्षिः सूरिपदे स्थाप्यः।
योग्यं सुतं च शिष्यं च नयन्ति गुरवः श्रियम् । स्थापितमात्रश्चात्र शिघ्र प्रेषणीयः । अन्यथाऽहं न भवामि । मा विलम्ब्यतामिति । अखण्डप्रयाणकैर्मोढेरकं प्राप्तः । सचिवैः सूरयो विज्ञप्ताः-प्रभो! राजविज्ञप्त्यर्थोऽनुसार्यः । उचितज्ञा हि भवादृशाः।
अथ श्रीसिद्धसेनाचार्यैप्पभहिः सूरिपदे स्थापितः। तदङ्गे श्रीः साक्षादिव सङ्कामन्ती दृष्टा । 10 रहश्च शिक्षा दत्ता-वत्स! तव राजसत्कारो भृशं भावी । ततश्च लक्ष्मीः प्रवस्य॑ति । तत इन्द्रियजयो दुष्करः । त्वं महाब्रह्मचारी भवेः । विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरीः ।
अनेन महाव्रतेन महत्तरः स्फुरिष्यसि । ६७. एकादशाधिके तत्र जाते वर्षशताष्टके । विक्रमात्सोऽभवत्सूरिः कृष्णचैत्राष्टमीदिने ॥ ७॥ 15 गुरुणा आमराजसमीपे प्रेषितः । तत्र प्राप्तः । गोपगिरेः प्रासुकवनोद्देशे स्थितः। राजा अभ्यागत्य महामहेन तं पुरीं प्रावीविशत् । श्रीबप्पभटिसूरिणा तत्र देशना क्लेशनाशिनी दत्ता
६८. श्रीरियं प्रायशः पुंसामुपस्कारैककारणम् । तामुपस्कुर्वते ये तु रत्नसूस्तैरसौ रसा ॥८॥ आमेन गुरूपदेशादेकोत्तरशतहस्तप्रमाणः प्रासादः कारयामासे गोपगिरौ । अष्टादशभारप्रमाणं श्रीवर्द्धमानबिम्बं तत्र निवेशयांबभूवे । प्रतिष्ठा विधापयांचक्रे । तत्र चैत्ये मूलमण्डप: 20 सपादलक्षेण सौवर्णटङ्ककैर्निष्पन्न इति वृद्धाः प्राहुः । आमः कुञ्जरारूढः सर्वा चैत्यवन्दनाय याति । मिथ्यादृशां दृशौ सैन्धवेनेव पूर्येते सम्यग्दृशां त्वमृतेनेव । एवं प्रभावना । प्रातर्नुपो मौलमनय॑ स्वं सिंहासनं सूरये निवेशापयति । तद् दृष्ट्वा विप्रैः क्रुधा ज्वलितैर्भूपो विज्ञप्तःदेव ! श्वेताम्बरा अमी शुद्राः। एभ्यः सिंहासनं किम् । अथास्तां तत् । परं इसीयो भवतु । मुहर्मुहस्तैरित्थं विज्ञप्त्या कदर्थ्यमानः पार्थिवो मौलसिंहासनं कोशगं कारयित्वाऽन्यल्लघ्वारू-25 रुपत । प्रत्यूषे सूरीन्द्रेण तद् दृष्ट्वा रुष्टेनेव राज्ञोऽग्रे पठितम्६९. मर्दय मानमतङ्गजद विनयशरीरविनाशनसर्पम् । क्षीणो दादशवदनोऽपि यस्य न तुल्यो भुवने कोऽपि ॥९॥ इदं श्रुत्वा राज्ञा हीणेन तदा" भूयो मूलसिंहासनमनुज्ञातम् । अपराधः क्षमितः।
एकदा सपादकोटी हेम्नां दत्ता गुरुभ्यः। तैर्निरीहैः सा जीर्णोद्धारे ऋद्धियुक्तश्रावकपादि व्ययिता।
30
. 1P' नास्ति । 2 PC प्राप्तो बप्पमहिः। 30 भव। 4 P वीराः। 5 CD तां। 6 Boहस्तशतः। 7P बुधाः। 8 P सैन्धवेन। 9A हसायो (काष्ठमयः इति टिप्पनी); CP हस्खीयो। 10 P भवतु न महत्। 11 CP सदा ।
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प्रबन्धकोशे अन्यदा शुद्धान्ते प्रम्लानवदनां वल्लभां दृष्ट्वा प्रभोः पुरो गाथाद्धं राजाऽऽह७०. अजवि सा परितप्पइ कमलमुही अत्तणो पमाएण ।
समस्येयम् । प्रभुः स्माह
पढमविबुद्धेण तए जीसे पच्छाइयं अंगं ॥१०॥ 5 राजा आत्मसंवादाच्चमत्कृतः । अन्यदा मियां पदे पदे मन्दं मन्दं सञ्चरन्तीं दृष्ट्वा गाथार्द्ध राजा जगाद ७१. बाला चंकमंती पए पए कीस कुणइ मुहभंग ।
सूरिराह
नूणं रमणपएसे मेहलिया छिदई नहपंतिं ॥ ११ ॥ 10 इदं श्रुत्वा राजा मुखं निश्वासहतदर्पणसमं दधे-अमी मदन्तःपुरे कृतविप्लवा इति धिया । सचाचायः क्षणार्द्धनावगतम् । चिन्तितं च-अहो विद्यागुणोऽपि दोषतां गतः!। ____७२. जलधेरपि कल्लोलाश्चापलानि कपेरपि । शक्यन्ते यत्नतो रोद्धं न पुनः प्रभुचेतसः ॥ १२ ॥
रात्रौ सूरिः संघमप्यनापुच्छ्य राजद्वारकपाटसम्पुटतटे काव्यमेकं लिखित्वा पुरावहिर्ययौ । तद्यथा15 ७३. यामः स्वस्ति तवास्तु रोहणगिरे ! मत्तः स्थितिप्रच्युता, वर्तिष्यन्त इमे कथं कथमिति स्वप्नेऽपि मैवं कृथाः ।
श्रीमंस्ते मणयो वयं यदि भवल्लब्धप्रतिष्ठास्तदा, ते शृङ्गारपरायणाः क्षितिभुजो मौलौ करिष्यन्ति नः ॥१३॥ ७४. [*अस्मान् विचित्रवपुषश्चिरपृष्ठलग्नान् किं वा विमुञ्चसि विभो ! यदि वा विमुञ्च ।
हा हन्त ! केकिवर ! हानिरियं तवैव भूपालमूर्द्धनि पुनर्भविता स्थितिनः ॥१४॥ ७५. *हंस जिहिं गय तिहिं गया महिमण्डणा हवंति । छेहु तांह सरोवरह जं हंसे मुच्चंति ॥ १५॥] 20६३८) दिनैः कतिपयैगौंडदेशान्तर्विहरन् लक्षणावतीनाम्याः पुरों बहिरारामे समवात्सीत् ।
तत्र पुरि धर्मो नाम राजा । स च गुणज्ञः। तस्य सभायां वाक्पतिनामा कविराजोऽस्ति । तेन सूरीणामागमनं लोकादवगतम् । ज्ञापितश्च राजा । राज्ञा प्रवेशमहः कारितः। पूर्मध्येऽसौ' सौधोपान्ते गुरुस्तुङ्गगृहे स्थितः' । राजा नित्यं वन्दते । कवयो जिता रञ्जिताश्च । प्रभावना: प्रैधते स्म । यशश्च कुन्दशुभ्रम् । ['राजा प्रोचे25 ७६. अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा दृष्टे विरहभीरुता । दृष्टेन वाप्यदृष्टेन भवता नाप्यते सुखम् ॥ १६ ॥
निर्बन्धे सूरिराह-आमश्चेत्स्वयमायास्यति तदा वयं यास्यामो नान्यथा-इति प्रतिज्ञाय स्थापिताः पुण्यलाभं कुर्वन्ति ।] __इतश्च यदा बप्पष्टिः कृतविहारः प्रातः श्रीआमपार्श्व नायातस्तदा तेन सर्वत्रावलोकितो न लब्धः। राजा जातो विलक्षः। 'यामः स्वस्ति तवास्तु' इत्यादि काव्यं दृष्टम् । अक्षराण्युपल30क्षितानि । ध्रुवं स मां मुक्त्वा कापि गत एवेति निर्णीतम् । अन्यदा बहिर्गतेन राज्ञा "महाभुजङ्गमो दृष्टः । तं मुखे धृत्वा वाससाऽऽच्छाद्य सौधं गतः। कविवृन्दाय समस्यामर्पितवान्
1 BG छिनइ; PC छिवइ। 2P मनापृ०। * एतत्पद्यद्वयं P पुस्तके एवोपलभ्यते, नान्यत्र । 3 P नगर्याः । 4 BDP समवासार्षीत् । 5 BP नास्ति 'असौ'। 6 P स्थापितः। 7 AC नास्ति 'जिताः'। + P पुस्तक एवैष कोष्ठकगतः पाठः प्राप्यते। 8CP नास्ति। 9P काव्यानि दृष्टानि । 10P 'महा' नास्ति ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः ।
७७. शस्त्रं शास्त्रं कृषिर्विद्या अन्यो यो येन जीवति ।
इति । पूरिता सर्वैरपि । न तु नृपश्चमच्चकार, हृदयाभिप्रायाकथनात् । तदा बप्पभहिं बाढ़ स्मृतवान् । सा हृदयसंवादिनी गीस्तत्रैव । अथ स पटहमवीवदत् । तत्रेदमधुषत् - यो मम हृद्गतां समस्यां पूरयति तस्मै हैमटङ्ककलक्षं ददामि । तदा गोपगिरीयो द्यूतकारः कश्चिद् गौडदेशं गतः । स बप्पभट्टिसूरीणामग्रे तत्समस्यापदद्वयं कथितवान् । सूरिणा पश्चार्द्ध पेठेसुगृहीतं च कर्तव्यं कृष्णसर्पमुखं यथा ॥ १७ ॥
इति । स हि भगवान् षड्विकृतित्यागी सिद्धसारखतो गगनगमनशक्त्या विविधतीर्थवन्दनशक्तियुक्तस्तस्य कियदेतत् । स द्यूतकारस्तत्पादद्वयं गोपगिरौ श्रीआमाय' निवेदितवान् । राजा वध्वान - अहो सुघटितत्वमर्थस्य ! । तं पप्रच्छ - केन केयं पूरिता समस्या ? | द्यूतकृदाहलक्षणावत्यां बप्पभट्टिसूरिणा ज्ञानभूरिणा इति । तस्योचितं दानं चक्रे ।
अन्यदा राजा नगर्या बहिर्ययौ । न्यग्रोधद्रुमाधः पान्थं मृतं ददर्श । शाखायां लम्बमानं करपत्रकमेकं विप्रुषां व्यूहं स्रवन्तं गाथार्द्ध च विशिष्टे ग्राणि लिखितं खटिकया' तदपश्यत् । ७८. तइया मह निग्गमणे पियाइ घोरंसुएहिं जं रुण्णं ।
३१
तदपि समस्यापादद्वयं राज्ञा कविभ्यः कथितम् । न केनापि सुष्ठु पूरितम् । राजा चिन्तयति स्म -
७९. वेश्यानामिव विद्यानां मुखं कैः कैर्न चुम्बितम् । हृदयग्राहिणस्तासां द्वित्राः सन्ति न सन्ति वा ॥ १८ ॥
हृदयग्राही स एव मम मित्रं सूरिवरः । स एव दौरोदरिको नृपेणोपसूरि प्रेषि । सूरिणाऽक्षिनिमेषमात्रेण पूरिता समस्या
1 CP आमा । 2P नास्त्येतत्पदम् । 3 BCP कठिन्याऽपश्यत् । 4 P तेषां । 5P सिर । 6 BCG पचिवि । 7 C एहु; P प; G यहु । 8 AB वाक्यरस० । 9 C निग्रन्थि; P न गन्धि
5
करवत्तयबिंदुअनिवडणेण तं मज्झ संभरियं ॥ १९ ॥
20
तत्पुनद्यूतकाराच्छ्रुत्वा राज्ञा हृष्टेनोत्कण्ठितेन सुरेराह्नानाय वाग्मिनः सचिवाः प्रस्थापिताः । उपालम्भसहिता विज्ञप्तिश्च ददे । प्राप्तास्ते तत्र । दृष्टास्तैस्तत्र सूरयः । उपलक्ष्य वन्दिताः । राजविज्ञप्तिर्दत्ता । तत्र लिखितं वाचितं गुरुभिः
10
८०. न गङ्गां गाङ्गेयं सुयुवतिकपोलस्थलगतं न वा शुक्तिं मुक्तामणिरुरसिजस्पर्शरसिकः ।
न कोटीरारूढः स्मरति च सवित्रीं मणिचयस्ततो मन्ये विश्वं स्वसुखनिरतं स्नेहविरतम् ॥ २० ॥ ८१. छायाकारणि सिरि धरिय पञ्चवि भूमि पडंति । पत्तहं इहु' पत्तत्तणउं तरुअर कांइ करंति ॥ २१ ॥ सचिवा अप्यूचुः - स्वामिन्! आमराजो निर्व्याजप्रीतिर्विज्ञापयति- शीघ्रमागम्यायं देशो वसन्तावतं सितोद्यानलीलां लम्भनीयः । भवद्वागरसंलुब्धानामस्माकमितरकविवाग् न रोचते । ८२. कथासु ये लब्धरसाः कवीनां ते नानुरज्यन्ति कथान्तरेषु । न ग्रन्थिपर्णप्रणयाश्चरन्ति कस्तूरिकागन्धमृगास्तृणेषु ॥२२॥ तदाकर्ण्य लेखं दत्त्वा सूरिभिः सचिवाः प्रोचिरे - श्रीआमो गीष्पतिसमप्रज्ञ एवं भाषणीयः - 30
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प्रबन्धकोशे
अस्माकमिति हि' प्रतिज्ञाऽऽस्ते धर्मेण राज्ञा सह खयमामः समेत्य त्वत्समक्षं यदाऽस्मानाकारयते किल, तदा तत्र यामो नान्यथा इति । प्रतिज्ञालोपश्च नोचितः सत्यवादिनां प्रतिष्ठावताम् । ततो मन्त्रिण उपकन्यकुब्जेशमाजग्मुः | सूरीणां तदुक्तमुक्तं लेखश्चादर्शि । तत्र लिखितं यथा
5 ८३. अस्माभिर्यदि वः कार्यं तदा धर्मस्य भूपतेः । सभायां छन्नमागम्य स्वयमापृच्छ्यतां द्रुतम् ॥ २३ ॥
२६ ॥
८४. विंझेण विणावि गया नरिंदभवणेसु हुंति गारविया । विंझो न होइ वंझो गएहिँ बहुएहिँ वि गएहिँ ॥ २४ ॥ ८५. माणसरहिएहिं सुहाई जह न लब्धंति रायहंसेहिं । तह तस्स वि तेहिं विणा तीरुच्छंगा न सोहंति ॥ २५ ॥ ८६. परिसेसियहंसउलं पि माणसं माणसं न संदेहो । अन्नत्थ वि जत्थ गया हंसा वि बया न भण्णंति ॥ ८७. हंसा जहिँ गय तहिँ जि गया महिमंडणा हवंति । छेहउ तांह महासरहं जे हंसेर्हि मुच्चति ॥ २७ ॥ ८८. मलऔं सचंदणु चिय नइमुहहीरंतचंदणदुमोहो । पन्भट्ठ पि हु मलयाओं चंदणं जायइ महग्घं ॥ २८ ॥ ८९. अग्घायंति महुअरा विमुक्ककमलायरा वि मयरंदं । कमलायरो वि दिट्ठो सुओ वि किं महुअरविहीणो ॥ २९ ॥ ९०. इक्केण कुत्थुणं विणावि रयणायरु च्चिय समुद्दो । कुत्थुहरयणं पि उरे जस्स ठिओं सोवि हु महग्घो ॥ ३० ॥ ९१. पई मुक्काण वि तरुवर फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुह पुणु च्छाया जइ होइ कह वि ता तेहिं पत्तेहिं ॥ ३१ ॥ ९२. जे के वि पहू महिमंडलंमि ते उच्छुदंडसारिच्छा । सरसा जडाण मज्झे विरसा पत्तेसु दीसंति ॥ ३२ ॥
९३. संप पहुणो पहुणो पहुत्तणं किं चिरंतणपहूणं । दोसगुणा गुणदोसा एहिं कया नहु कया तेहिं ॥ ३३ ॥
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एतद्वाचयित्वा सोत्कण्ठं नृपः सारकतिपय पुरुषवृतोऽचालीत् । गोदावरीतीरग्राममेकमगमत् । तत्र खण्डदेवकुले वासमकार्षीत् । देवकुलाधिष्ठात्री व्यन्तरी सौभाग्यमोहिता गङ्गेव भरतं तं भेजे । प्रभाते करभमारुह्य तां देवीमापृच्छ्य प्रभुपादान्तं प्राप । गाथार्द्ध पपाठ
९४. अञ्जवि सा सुमरिज को हो होइ एगराईए । सूरीन्द्रः प्राह
गोलानईय' तीरे सुन्नउले जंसि वीसमिओ ॥ ३४ ॥
इति । अन्योऽन्यं गाढमालिलिङ्गतुरुभौ । तत आम आह सम
९५. अद्य मे सफला प्रीतिरद्य मे सफला रतिः । अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे सफलं कुलम् ॥ ३५ ॥ रात्रौ इष्टगोष्ठी ववृते मधुमधुरा । ततः प्रभाते सूरिर्धर्मनृपास्थानमगमत् । आम 25 प्रधानैः खैः पुरुषैः सह स्थगीधरो भूत्वाऽऽगच्छत् । [['आम आवउ' इति ब्रुवाणैः ] सूरिभिर्धर्मा आमस्य विशिष्टपुरुषा दर्शिताः । एते आमनृपनराः किलास्मानाहातुमायाताः - इति । धर्मेण राज्ञा पृष्टं विशिष्टजनपार्श्वे भो आमप्रधाननराः ! स भवतां स्वामी कीदृशरूपः । तैर्निगदितम् - यादृगयं स्थगीधरस्तादृगस्ति । प्रथमं मातुलिङ्गं करे धारयित्वा आम आनीतोऽस्ति । सूरिभिः पृष्टम् भोः स्थगीधर ! तवकरे किमेतत् ? । स्थगीधरीभूतेन श्रीआमेनोक्तम्30 'बीजउरा' इति । क्षणार्द्धेन वार्त्तामध्ये सूरिभिः सूक्तमवतारितम्
1P नास्ति । 2A कन्यकुब्जेशसमीपे । 3P नास्ति । 4 A गोदानईइ । 5 AC फलम् । 1 P पुस्तक एवैतद्वाक्यं लभ्यते । 6 A वार्तार्द्धमध्ये |
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः। ९६. तत्ती सीयली मेलावा' केहा धण' उत्तावली पिउ' मंदसणेहा ।
विरहिं माणुसु जो मरइ' तसु कवणु निहोरा' कण्णि' पवित्तडी जणु जाणइ दोरा ॥ ३६ ॥ • [गुरुणा कथितम्-आम आवउ, आम आवउ । धर्मेण राज्ञा तूअरिछोडं दृष्ट्वा पृष्टम्अहो स्थगीधर ! किमिदम् ? । तेनोक्तम्-'तूअर' तवारीत्यर्थः।] इत्यादिगोष्ठ्यां वर्तमानायां शनैः शनैः श्रीआमराजश्चिद्रूपो मेलापकान्निःसृत्य पुरावहिः स्थाने स्थाने स्थापितैर्वाहनैः 5 कियतीमपि भूमिमत्यकाम्यत् । तावता सूरीश्वरो विलम्बाय प्रहरद्वयं कामपि कथामचीकथत् । रसावतारः स कोऽपि जातो यो रम्भा-तिलोत्तमाप्रेक्षणीयकेपि दुर्लभः । आमो राजाऽमूल्यं कङ्कणं ग्रहणके मुक्त्वा वेश्यागृहे उषित आसीत् । सा तु लक्षणावतीपतेर्वारस्त्री। एकं कङ्गणमामो राजद्वारे मुश्चन्नगात् । अपराह्ने राज्ञः पार्थाद् बप्पभटिसूरिभिर्मुत्कलापितम्-देव ! गोप. गिरावामपार्श्व यामः, अनुज्ञां दीयताम् । धर्मेण भणितम्-भवतामपि वाणी विघटते ?। भवद्भि-10 र्भणितमभूत्-यदा तव दृष्टौ आमः समेत्यास्मानाहयिष्यति तदा यामो नार्वाक । तत्कि विस्मृ: तम् ? । जिह्वे किं वो वे स्तः ? । आचार्या जगदुः-श्रीधर्मदेव! मम प्रतिज्ञा पूर्णा । राजाऽऽहकथम् ? । सूरिर्वदति-आमो राजाऽत्र खयमागतस्तव दृष्टौ । राजाऽऽह-कथं ज्ञायते । सूरिःयदा भवद्भिः पृष्टं भवतां स्वामी कीदृशः। विशिष्टैस्तदा भणितम्-स्थगिकाधररूपः। तथा 'बीजउरा' शब्दोऽपि विमृश्यताम् । 'दोरा'शब्दोऽपि यो मयोक्तोऽभूत् । तस्मात्प्रतिज्ञा मे 15 पूर्णा । अत्रान्तरे केनापि राजद्वाराद् आमकङ्कणं धर्मनृपहस्ते दत्तं आमनामाङ्कितम् । द्वितीयं वेश्यया दत्तम् । तद् दृष्ट्वा नष्टसर्वखस्तद्धन इव धर्मः शुशोच-धिग्माम् ! यन्मया शत्रुः खगृहमायातो नार्चिता, न च साधितः । धर्मेण मुत्कलिताः सूरयः पुरः कापि स्थितेनामेन सह जग्मुः । मार्गे गच्छता आमेन पुलिन्द" एको जलाशयमध्ये जलं छगलवन्मुखेन पिबन्दृष्टः । आमराजेन सूरीणामग्रे एत्योक्तम्__ ९७. पसु जेम पुलिंदउ पउ पियइ पंथिउ" कवणिण कारणिण ।
सूरिभिरभाणि
कर बे वि करंबिअ कजलिण मुद्धह अंसु निवारणिण ॥ ३७॥ राज्ञा प्रत्ययार्थ स समाकार्य पृष्टः । तेनोक्तम्-सत्यं सूरिवचः । हस्तौ दर्शितौ । राजा तेन वाक्संवादेन प्रीतः । 'अजवि सा परितप्पई' इत्यादि तदुक्तं सर्व सारस्वतविलसितमिति निर-25 वैषीत् । शीघशीघं गोपालगिरिं गतः । पताकातोरणमञ्चप्रतिमञ्चादिमहास्तत्रासुः । दिवसाः कत्यप्यतिक्रान्ताः।
(३९) ततः श्रीसिद्धसेनसूरयो वार्द्धक्येन पीडिता अनशनं गृहीतुकामाः श्रीवप्प भट्टिसूरीणामाकारणाय गीतार्थमुनियुगलं प्रेषिषुः । तद् गुरोर्लेखमदीदृशत् । तत्र लिखितं यथा९८. अध्यापितोऽसि पदवीमधिरोपितोऽसि तत्किञ्चनापि कुरु वत्सक ! बप्पभट्टे !।
30 प्रायोपवेशनरथे विनिवेश्य येन सम्प्रेषयस्यमरधाम नितान्तमस्मान् ॥ ३८॥ .
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1BD मलावा। 2 PC धणि उतावली। 3 C प्रिय। 4 BD सिणेहा। 5 P विरहि जो मणु सुमरइ; D विरहि जह माणुः। 6 BD नहोरा । 70 किन्न । + P पुस्तकस्थः प्रक्षिप्तः पाठोऽयम्। 8 BDP आह्वयति। 9 BP तद्वन तपान। 10 CP आदर्श एतत्पदं प्राप्यते नान्यत्र। 11 D पुलीन्द्रः। 12 A पंथिभ। 13 प्रैषिष्ट ।
५ प्र० को
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प्रबन्धकोशे तद् दृष्ट्वा आमभूपतिमाच्छय मोढेरकपुरं ब्रह्मशान्तिस्थापितवीरजिनमहोत्सवाढ्यं प्रापुस्ते । गुरुन् ववन्दिरे। गुरवोऽपि तान् बाढमालिङ्गयालापिषुः-वत्स! गाढमुत्कण्ठितमस्माकं हृदयम् । मुखकमलकमपि ते विस्मृतम् । राजानुगमनं तेऽस्माकं दुःखायासीत् । कारय साधनाम् । अनृणो भव । ततोऽन्त्याराधना चतुःशरणगमन-दुष्कृतगर्हा-सुकृतानुमोदना-तीर्थमालावन्दनादिका 5 विधिना विधापिता । गुरवो देवलोकललनानयनत्रिभागपात्रत्वमानः । शोक उच्छलितः। ततो बप्पभट्टिः श्रीमद्गोविन्दसूरये श्रीनन्नसूरये च गच्छभारं समर्प्य श्रीआमपार्श्वमगमत् । पूर्ववत्समस्यादिगोष्ठ्यः स्फुरन्ति ।
४०) एकदा सूरिनुपसभायां चिरं पुस्तकाक्षरदत्तदृक् तस्थौ । तत्रैका नर्तकी नृत्यन्ती आसीत् रूपदासीकृताप्सराः । सूरिदृग्नीलि निवारणाय तस्याः शुकपिच्छनीलवर्णायां नील10 कञ्चलिकायां दृशं निवेशयामास । आमस्तद् दृष्ट्वा मनसि पपाठ
९९. सिद्धततत्तपारंगयाण जोगीण जोगजुत्ताणं । जइ ताणं पि मयच्छी मणमि ता तचिय पमाणं ॥ ३९ ॥ आमो रात्रौ पुंवेषां तां नर्तकीं सूरिवसतौ प्रैषीत् । तया सूरीणां विश्रामणाऽऽरब्धा । करस्पर्शेन ज्ञाता युवतिः सूरिणा । अभिहिता सा-का त्वम् ?, कस्मादिहागता ? । अस्मासु ब्रह्मत्र
तनिबिडेषु वराकि ! भवत्याः कोऽवकाशः। वात्याभिने चलति काश्चनाचलः। तयोक्तम्-भवद्भय 15 उपदेष्टुमागता।
१००. राज्ये सारं वसुधा वसुधायामपि पुरं पुरे सौधम् । सौधे तल्पं तल्पे वराङ्गनाऽनङ्गसर्वस्वम् ॥ ४० ॥
इति । किञ्च
१०१. प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥४१॥ ___ श्रीआमेन प्रेषिताऽहं प्राणवल्लभा भवतां शुश्रूषार्थम् । ततः सूरिशको वदति म-अस्माकं 20 ज्ञानदृप्रपातदृष्टद्रष्टव्यानां नैव व्यामोहाय प्रगल्भसे।
१०२. मलमूत्रादिपात्रेषु गात्रेषु मृगचक्षुषाम् । रतिं करोति को नाम सुधीर्वक़गृहेष्विव ॥ ४२ ॥ ___ सापि निर्विकारं सूरिवरं निश्चित्य ध्वनचेताः प्रातपतिसमीपं गता । पृच्छते राज्ञे रात्रीयः सूरिवृत्तान्तः सम्यक् कथितस्तया-पाषाणघटित इव तव गुरुः। नवनीतपिण्डमयः शेषो वराको लोकः । यावन्तः कूटप्रपश्चा हावभाव-कटाक्ष-भुजाक्षेप-चुम्बन नखरदनक्षतादिविलासास्ते सर्वे 25 आजन्मशिक्षितास्तत्र प्रयुक्ताः । पुनस्तिलतुषत्रिभागमात्रमपि मनोऽस्य नाचालीत् । अनुरागबलात्कार-पूत्कार-भीदर्शन-हत्यादानादिविभीषिकाभिरपि नाचभत् । तदेष मन्ये महावज्रमयो न देवकन्याभिर्न विद्याधरीभिर्न नागाङ्गनाभिश्चाल्यते; मानुषीणां तु का कथा?।अस्मिन्सुरेद्धर्मस्थैर्ये श्रुते नृपो विस्मयानन्दाभ्यां कदम्बमुकुलस्थूलरोमाञ्चकञ्चकितगात्रः संवृत्तः । दध्यौ च गुरुं ध्यानप्रत्यक्षं कृत्वा30 १०३. न्युञ्छने यामि वाक्यानां दृशोर्याम्यवतारणे । बलिः क्रियेऽहं सौहार्दहृद्याय हृदयाय ते ॥ ४३ ॥
प्रातप्रवः समागुः । राजा हीणो न वदति किञ्चित् । सूरिभिर्भणितम्-राजन् ! मा लजिष्ठाः । महर्षीणां दूषण-भूषणान्वेषणं राज्ञा कार्य न दोषः। राज्ञोक्तम्-अलमतीतवृत्तान्तचर्चया । एतदहमुत्तम्भितभुजो ब्रुवे युष्मान्ब्रह्मधनानवलोक्य
1A मागतः। 2 A. हग्मीलि.। 3 CP तथा। 4 P नास्ति 'वराको'। 5 D नखदन्ताक्षता० ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः। १०४. धन्यास्त एव 'धवलायतलोचनानां तारुण्यदर्पघनपीनपयोधराणाम् ।
क्षामोदरोपरिलसत्त्रिवलीलतानां दृष्ट्वाऽऽकृतिं विकृतिमेति मनो न येषाम् ॥ ४४ ॥
इत्युक्त्वा दण्डप्रणामेन प्रणनाम श्रीआमः। अन्येयू राजा राजपथेन सञ्चरमाणो हालिकप्रियां एरण्डबृहत्पत्रसंवृतस्तनविस्तरां एरण्डपत्राणि विचिन्वानां गृहपाश्चात्यभागे दृष्ट्वा गाथाई योजितवान्
१०५. वइविवरनिग्गयदलो एरंडो 'साहइ व्व तरुणाणं । तत्तु सूरीणां पुरः समस्यात्वेन समर्पितवान् । सूरय ऊचुःइत्थ घरे हलियवहू 'इद्दहमित्तत्थणी अस्थि ॥४५॥
राजा विस्मित:-अहो सारं सारखतम् !। अन्यदा सायं प्रोषितभर्तृकां वासभवनं यान्तीं वक्रग्रीवां दीपकरां ददर्श । गाथार्द्ध चोचे- 10
१०६. दिजइ वंकग्गीवाइ दीवओ पहियजायाए ।
सूर्यग्रे पपाठ । सूरिर्गाथापूर्वार्द्धमुवाचपियसंभरणपलुटुंतअंसुधारानिवायभीयाए ॥ ४६॥
इति सूरिभूपौ सुखेन कालं गमयतो धर्मपरौ । ४१) अन्यदा धर्मनृपेण आमनृपस्य पार्श्वे दूतः प्रहित एत्यावोचत्-राजन् ! तव विच-15 क्षणतया धर्मनृपः सन्तुष्टः। पुनः स आह-भवद्भिर्वयं छलिताः। यतो भवद्भ्यो गृहमागतेभ्यो नास्माभिर्महानल्पोऽपि कोऽपि सत्कारः कृतः । अधुना शृणु-अस्मद्राज्ये वर्द्धनकुञ्जरो नाम महावादी बौद्धदर्शनी विदेशादागतोऽस्ति । स वादं जिघृक्षुः। यः कोऽपि वो राज्ये वादी भवति स आनीयताम् । अस्माकं भवद्भिः सह चिरन्तनवैरम् । यः कोऽपि वादी विजयी भविष्यति तत्प्रभुरपरस्य राज्यं ग्रहीष्यति । मम वादिना यदा जितं तदा त्वदीयं राज्यं मया ग्राह्यम् । 20 यदा तव वादिना जितं तदा मदीयं राज्यं त्वया ग्राह्यम् । अयं पणः । वाग्युद्धमेवास्तु। किं मानवकदनेन ? । आमेनोक्तम्-दूत! त्वया यदुक्तं तद्धर्मेण कथापितमथवा त्वया स्वतुण्डकण्डूतिमात्रेणोक्तम् ? । यदि तव प्रभुः सप्ताङ्गं राज्यं वादे जिते समर्पयिष्यति मे इति सत्यम् , तदा वयं वादिनमादायागच्छाम इति । दूतेनोक्तम्-कारणवशाद् युधिष्ठिरेणापि द्रोणपर्वण्यसत्यं भाषितम् ; मत्प्रभुस्तु कारणेऽपि न मिथ्या भाषते । आमेन दूतः प्रैषि । उक्तदिनोपरि 25 बप्पभहिं गृहीत्वा पथे उक्तस्थाने आमोऽगमत् । धर्मभूपतिरपि वर्द्धनकुञ्जरं वादीन्द्रमादाय तवाजगाम । परमारवंश्यं नरेन्द्र महाकविं वाक्पतिनामानं स्वसेवकं सहादाय समाययौ । उचितप्रदेशे आवासान् दापयामास । तौ वादि-प्रतिवादिनौ पक्ष प्रतिपक्षपरिग्रहेण वादमारेभेते । सभ्याः कौतुकाक्षिप्ताः पश्यन्ति । द्वावग्यसामान्यप्रतिभौ ज्ञौ । वादे षण्मासा गताः। द्वयोः कोऽपि न हारयति न जयति च । आमेन सूरयः प्रोक्ताः सायम्-राजकार्याणां 30 प्रत्यूहः स्यात्, निर्जीयतामसी शीघ्रम् । सूरिणा भणितम्-'प्रातर्निग्रहीष्यामि । मा स्म वो भ्रान्तिर्भूयात् । रात्रौ सूरीश्वरेण मन्त्रशत्तया मण्डले हारार्द्धहारमणिकुण्डलमण्डिताङ्गी दिव्याऽगरागवसना दिव्यकुसुमपरिमल वासितभुवनोदरा भगवती भारती साक्षादानीता। चतुर्दशभिः
1 A तरलायः। 2 D साहाइ ब्व; B तरुणीणं। 3 A इदीह। 4 CP चिरत्रः। 5 P कदर्थनेन । 6 P विना सर्वत्र 'समानिन्ये'। 7 P'झौ' नास्ति। 8AB प्रभाते। 9Dमललुलितभुवः ।
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३६
प्रबन्धकोशे
काव्यैः सद्यस्कैर्दिव्यैः स्तुता । देव्योक्तम्-वत्स ! केन कारणेन स्मृता । सूरिवीरेण भणितम्षण्मासा वादे लग्नाः । तथा कुरु यथा वादे निरुत्तरीभवति सः । देव्या गदितम् - वत्स ! अहमनेन प्राक् सप्तभवानाऽऽराधिता । मयाऽत्र भवेऽस्मै अक्षयवचना गुटिका दत्ताऽस्ति । तत्प्रभावाच्चक्रिनिधिधनमिव नास्य वचो हीयते । सूरिणोक्तम्-त्वं देवि ! किं जैनशासनविरोधिनी, 5 येन मे जयश्रियं न दत्से ? | भारत्यूचे - वत्स ! जयोपायं ब्रुवे । त्वया वादारम्भे प्रातः सर्वे वदनशौचं काराप्याः पार्षद्याः । गण्डूषं कुर्वतस्तस्य वदनाद् गुटिका ममेच्छया पतिष्यति तदा त्वया जेष्यते । एकं तु याचे-मत्स्तुतेश्चतुर्दशकाव्यं कस्याप्यग्रे न प्रकाश्यम् । तत्पठनेन हि मया ध्रुवं ध्रुवं प्रत्यक्षया भाव्यम् । कियतां प्रत्यक्षा भवामि ? | क्लेशेनालम् । एवमुक्त्वा देवी विशुज्झात्कारलीलयाऽन्तर्दधे । सूरिभिर्निशि परमाप्तशिष्य एको वाक्पतिराजसमीपं प्रहित्याख्या10 पितं यथा - सूरयो वदन्ति - राजन् ! त्वं विद्यानिधिरस्माकं लक्षणावतीपुरीपरिचितचरः । तदाऽवादी :- भगवन् ! निरीहा भवन्तः, कां भवद्भ्यो भक्तिं दर्शयामि । तदा वयमवोचाम - अवसरे कामपि भक्तिं कारयिष्यामः । भवद्भिर्भणितम्-तथास्तु । इदानीं सोऽवसरोऽत्र समायातः । वाक्पतिना शिष्यः पृष्टः - सूरयः किं मे समादिशन्ति ? । आदिष्टं कुर्वे ध्रुवम् । शिष्यो न्यवेदयत् - राजन् ! गुरवः आदिशन्ति - प्रातर्धर्मामयोः सदःस्थयोः सतोस्त्वया वाच्यं यथा वदन15 शौचं विना भारती न प्रसीदति । तस्माद्वादि-प्रतिवादि-सभ्य सभेशाः सर्वे शौचं कुर्वन्तु । एतावति कृते भवता नः सर्वः स्नेहः कृत एव । वाक्पतिना तदङ्गीकृतम् । शिष्येणोपगुरु गत्वा तत्तत्प्रतिज्ञातं कथितम् । तुष्टाः गुरवः । प्रत्यूषे उदयति भगवति गभस्तिमालिनि लाक्षालित इव प्राचीमुखे राजानौ सभायामगाताम् । वाकपतिना वदनशौचं सर्वे कारिताः, बौद्धवादी - न्द्रोऽपि । तस्य वदनकमलाद्विगलिता गुटिका अपतत् पतद्ग्रहे । बप्पभद्विशिष्यैः पतग्रहो 20 जनैर्दूरे कारापितः । गुटिका सूरीन्द्रसाजाता । बौद्धो गुटिकाहीनः सूरिणा पार्थेन कर्ण इव दिव्यशक्तिमुक्तो निःशङ्कं वाक्पृषत्कैर्हतः । निरुत्तरीकृतः । राहुग्रस्तश्चन्द्र इव हिमानीविलुप्तस्तरुखण्ड इव निस्तेजतां भेजे । तदा श्रीबप्प भट्टेर्निर्विवादं वादिकुञ्जरकेसरीति बिरुदं खैः परैश्च दत्तम् । धर्मेण सप्ताङ्गं राज्यं आमाय दत्तम् । लाहीदम् । धर्माद्धि राज्यं लभ्यते । काऽत्र चर्चा १ । आमेन गृहीतम् । तदा सूरिणा आमः प्रोक्तः- राजन् ! पुना राज्यं धर्माय देहि । महादानमिदम् । शोभते 25 च ते। राजस्थापनाचार्याश्च पारंपर्येण' । 'पूर्वं श्रीरामेण वनस्थेनापि सुग्रीव - विभीषणौ राजीकृतौ । त्वमप्यैदंयुगीननृपेषु तत्तुल्यः । एतद्वचनसमकालमेव आमेन गाम्भीयौदार्यधान्ना धर्माय तद्राज्यं प्रत्यस परिधापितः । खे मत्ताः करिणः शतं सहस्रं तुङ्गास्तुरङ्गाः, सहस्रं सवरूथा रथाः, शतं वादित्राणि प्रादायिषत । खं खं स्थानं गताः सर्वे । सूरि-भूपौ यशोधवलितसप्तभुवनौ गोपगरौ श्रीमहावीरमवन्दिषाताम् । तदा सूरिकृतं श्रीवीरस्य स्तवनम् -'शान्तो वेषः शमसु30 खफला' इत्यादि काव्यैकादशकमयमद्यापि सङ्के पठ्यते । सङ्घन प्रभुर्ववन्दे, तुष्टुवे च ।
१०७. रवेरेवोदयः श्लाघ्यः कोऽन्येषामुदयग्रहः । न तमांसि न तेजांसि यस्मिन्नभ्युदिते सति ॥ ४७ ॥ अन्यदा ख- परसमयसूक्तैः प्रबोध्य राजा प्रभुभिर्मद्यमांसादि सप्तव्यसन नियमं ग्राहितः ।
1 नास्ति P 2 P नास्ति । 3 P यूयं । 4 Poप्येवं युगीन० । 5 D प्रत्यार्पि । 6 B स धर्मः। 7 D • भ्युदये ।
8P कारितः ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः।
सम्यक्त्वमूलैकादशव्रतनिरतश्च श्रावकः कृतः। द्वादशं व्रतं त्वतिथिसंविभागाख्यं प्रथमचरमजिननृपाणां निषिद्धं सिद्धान्ते।
६४२) एकदा लक्षणावत्यां बौद्धो वर्द्धनकुञ्जरो धर्मपमाह सगद्गदम्-अहं बप्पमहिना जितस्तन्मे न दूषणम् । बप्पभट्टिर्हि भारती नररूपा,प्रज्ञामयः पिण्डः, गीष्पुत्रः, न च दुनोति। एतत्तु दुनोति यत्तव भृत्येनापि वाक्पतिराजेन सूरिकृतभेदान्मम मुखशौचोपायेन गुटी हारयामाहे । । एतावदभिधाय स तारं तारं रुरोद । स निवारितः क्षमापेन रोदनात् । उक्तश्च-किं क्रियते?, अयं नश्चिरसेवकोऽनेकसमराङ्गणलब्धजयप्रतिष्ठः प्रबन्धकविः पराभवितुं न रोचते । क्षमखेदमस्यागः। ततो बौद्धो जोषं स्थितः।
६४३) अपरेधुर्यशोधर्मनाम्ना समीपदेशस्थेन बलवता भूपेन लक्षणावतीमेत्य रणे धर्मनृपो व्यापादितः। राज्यं जगृहे । वाक्पतिरपि बन्दीकृतः । तेन कारास्थेन 'गौडवध' सञ्ज्ञकं प्राकृतं 10 महाकाव्यं रचयित्वा यशोधर्माय राज्ञे दर्शितम् । तेन गुणविशेषविदा ससत्कारं बन्देर्मुक्ता, क्षमितश्च । 'विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । ततो वाक्पतिर्बप्पभर्टिसमीपं गतः। बयोस्तयोमैत्री पूर्वमप्यासीत् । तदानीं विशेषतोऽवृधत् । तेन वाक्पतिना महामहविजयाख्यं प्राकृतं महाकाव्यं बद्धम् । आमाय दर्शितम् । आमो हैमटङ्ककलक्षममै व्यशिश्रणत् ।।
१०८. कियती पञ्चसहस्री कियती लक्षा च कोटिरपि कीयती । औदार्योन्नतमनसां रत्नवती वसुमती कियती ॥४८॥15 ६४४) अपरेयुः प्रभुःश्रीआमेन पृष्टः-भगवन् ! यूयं तावत्तपसा विद्ययाच लोके लब्धपरमरेखाः। किमन्योऽपि कोऽपि काप्यास्ते यो भवत्तुलालेशमवामोति । बप्पभटिरभाणीत्-अवनिपते ! मम गुरुवान्धवी गोविन्दाचार्य-नन्नसूरी सर्वैर्गुणैर्मदधिको गूर्जरधरायां मोढेरकपुरे स्तः । गुणोत्कण्ठयामितसैन्य आमस्तत्र गतः। तदा नन्नसुरिर्व्याख्यानेऽवसरायातान् वात्स्यायनोक्तान् कामाङ्गभावान् पल्लवयन्नासीत्।राज्ञा श्रुतं तत्सर्वम् । अरुचिरुत्पन्ना-अहो! वयं कामिनोऽपि नैतान् भावान् 20 विद्मः । अयं तु वेत्ति सम्यक् । तस्मादयमवश्यं नित्यं योषित्सङ्गी। किमस्य प्रणामेन?-इत्यकृतनतिरेवोत्थायाशु गोपगिरिमागात् । चिराद् दृष्टःक्ष्माप इति रणरणकाक्रान्तवान्ताःप्रभवो वन्दापयितुमैयरुः । राजा निरादरो न वन्दते तथा । एवं दिनानि कतिपयानि गतानि । एकदा गुरुभिः पप्रच्छे-राजन् ! यथा पुरा भक्तोऽभूस्तथेदानी भक्तो नासि । किमस्माकं दोषः कोऽपि । राजा माह-सुरिवर! भवादृशा अपि कुपात्रश्लाघां कुर्वते । किमुच्यते । सूरिभिरूचे-कथम् ?। आम:25 प्राह-यो भवद्भिः स्वौ गुरुवान्धवौ स्तुतौ । तत्र गत्वा एको नन्नसूरिनामा दृष्टः शृङ्गारकथाव्याख्यानलम्पटस्तपोहीनो लोहतरण्डतुल्यो मजति मजयति च भवाम्बुधौं । तस्मान्न किश्चिदेतत् । सूरयो मसीमलिनवदनाः स्ववसतिमगुः । तत्रोपविश्य द्वौ साधू मोढेरकपुरं प्रहितौ । तत्पार्थातत्र कथापितम्-आमोऽकृतप्रणामो भवत्पाझंदागतः । एवमेवं युवां निन्दति । तत्कर्तव्यं पेनासौ भवत्वन्येष्वपि श्रमणेषु अवज्ञावान्न भवति । सर्वं तत्रत्यं ज्ञात्वा तौ द्वावपि गुटिकया 30 वर्ण-खरपरावतं कृत्वा नटवेषधरौ गोपगिरिमीयतुः। श्रीऋषभध्वजचरित्रं नाटकत्वेन बबन्धतुः। नटान् शिक्षयामासतुः। आमराजमवसरं ययाचतुः । राज्ञाऽवसरो दत्तः। मिलिताः सामा
1AB राजेन्द्राय। 2D Oभः। + एतद्दण्डान्तर्गतं कथनं ABD आदर्श नास्ति, CEP आदर्श च लभ्यते। 3 पतित. मि P पुस्तके। 4 BD .मन्यः कोऽपि। 5 D व्याख्यानावसः। 6 P नास्ति । 7 AB सूरिरूचे। 8 A भघाब्धौ । 9 A भयुः। 10 BD भवेत् ।
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प्रबन्धकोशे जिकाः तत्तद्रसभावज्ञाः। ताभ्यां नाटकं दर्शयितुमारेभे। भरत-बाहुबलिसमरावसरोऽभिनीयते। यदा व्यूहरचना-शस्त्रझलत्कार-वीरवर्णना-भट्टकोलाहलाश्चोत्थापनघर्घरिका-झणझणत्कारादि ताभ्यां वर्णयितुमारब्धम् , धारारूढश्च रसोऽवातारीत् ; तदा श्रीआमस्तद्भटाश्च कालिन्दीप्रवाहश्यामदीर्घानसीनाकृष्योत्थिता 'हत हत' इति भाषन्ते स्म । अत्रान्तरे नन्नसूरि-गोविन्दाचार्यों 5 स्वरूपमुद्रे प्रकाश्याहतुः-राजान् ! भटाः! शृणुत २ कथायुद्धमिदम् , न तु साक्षात्। अलं सम्भ्रमेण। इत्युक्ता लज्जिता विस्मिताश्च ते राजाद्याः संवृत्याकारमस्थुः । तदा गोविन्दाचार्य-नन्नसूरिभ्यां भूपोऽभाणि-किल शृङ्गाराननुभविनो वयमिति सम्यग्व्याख्यातुं विद्मः। किन्तु समरा जिरमपि भवद्वत्प्रविष्टाः स्मः। कुरङ्गा इव शस्त्रे दृष्टेऽपि बिभिमः । आबाल्याद् गृहीतव्रताः पाप
भीरवः, परं भारतीप्रभावप्रभववचनशक्त्या रसान् सर्वान् जीवद्रूपानिव दर्शयामः । राजन् ! 10 मोढेरके यैस्ते वात्स्यायनभावा व्याख्याताः, ते वयं नन्नसूरय इमे च गोविन्दाचार्याः। भवतां
तदा मृषा विकल्पः समजनि । राजा सद्यो ललज्जे । तौ सूरी क्षमयामास, आनर्च बप्पभर्दि च । तौ कतिचिदिनानि उपराजं स्थित्वा बप्पभट्टेरनुज्ञया पुनर्मोढेरपुरमगाताम् । गतः समयः कियानपि।
६४५) अन्यदा गाथकवृन्दमागतम् । तन्मध्ये बालिकैका सनालनीलोत्पललोचना मृगाकमुखी 15 किन्नरखरा विदुषी गायति । तां दृष्ट्वा मदनशरज्वरजर्जरः गलितविवेको गतप्रायशौचधर्माभिनिवेशः कन्यकुब्जेशः पद्यद्वयं प्रभुप्रत्यक्षमपाठीत्१०९. वक्त्रं पूर्णशशी सुधाधरलता दन्ता मणिश्रेणयः, कान्तिः श्रीर्गमनं गजः परिमलस्ते पारिजातद्रुमाः ।
___ वाणी कामदुधा कटाक्षलहरी सा कालकूटच्छटा, तत्किं चन्द्रमुखि ! त्वदर्थममरैरामन्थि दुग्धोदधिः ॥४९॥ ११०. जन्मस्थानं न खलु विमलं वर्णनीयो न वर्णो, दूरे शोभा वपुषि निहिता पङ्कशङ्कां तनोति ।
विश्वप्रार्थ्यः सकलसुरभिद्रव्यदर्पापहारी, नो जानीमः परिमलगुणः कस्तु कस्तूरिकायाः' ॥५०॥ सूरिभिश्चिन्तितम्-अहो ! महतामपि किग मतिविपर्यासः । १११. भला काचन भूरिरन्ध्रविगलत्तत्तन्मलक्लेदिनी, सा संस्कारशतैः क्षणार्द्धमधुरां बाह्यामुपैति द्युतिम् ।
__ अन्तस्तत्त्वरसोर्मिधौतमतयोऽप्येतां तु कान्ताधिया, श्लिष्यन्ति स्तुवते नमन्ति च पुरः कस्यात्र पूत्कुर्महे ॥५१॥ उत्थिता सभा । त्रिभिर्दिनैर्भूपेन पूर्वहिः सौधं कारितम्', मातङ्गीसहितोऽत्र वत्स्यामीति 25 धिया । तदवगतं श्रीबप्पभट्टिसूरिभिः । ध्यानप्रत्यक्षं हि तेषां जगवृत्तम् । ततो माऽसौ कुकर्मणा" नरकं" यासीदिति कृपया तैर्निष्पाद्यमानसौधभारपट्टे निशि खटिकया बोधदानि पद्यानि लिखितानि । यथा.११२. शैत्यं नाम गुणस्तवैव तदनु स्वाभाविकी स्वच्छता, किं ब्रूमः शुचितां भवन्त्यशुचयस्त्वत्सङ्गतोऽन्ये यतः ।
किंवाऽतः परमस्ति ते स्तुतिपदं त्वं जीवितं देहिनां, त्वं चेन्नीचपथेन गच्छसि पयः कस्त्वां निरोर्बु क्षमः ॥५२॥ 80 ११३. *सवृत्त सद्गुण महार्ण्य महार्हकान्त कान्ताघनस्तनतटोचितचारुमूर्ते ! ।
आः पामरीकठिनकण्ठविलग्नभन्न हा हार ! हारितमहो भवता गुणित्वम् ॥ ५३॥ - 1E शस्त्ररणरणत्कार । 2 B हन हन । 3 ABD निंदा। 4 P तमाल। 5 P तद् । 6 CP मदनज्वर० । 7 B कस्तूरिकायाम् । 8 PC नु। 9 B कारापितम् । 10 BP नास्ति। 11 P नरकमयासी। 12 BD किश्चात * BD आदर्श नास्ति पद्यमिदम् ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः। ११४. जीयं जलबिन्दुसमं संपत्तीओं तरंगलोलाओ । सुमिणयसमं व पिम्मं जं जाणसि तं करिजासि ॥ ५४॥ ११५. लजिजइ जेण जणे मइलिजइ निअकुलक्कमो जेण । कंठहिए वि जीए तं न कुलीणेहिं कायव्वं ॥ ५५॥ प्रातरमूनि पद्यानि स्वयमामो ददर्श । वर्णान् कवित्वगतिं च उपलक्षयामास । अहो गुरूणां मयि कृपा! अहोतमां मम पापाभिमुखता!-इति ललज्जे । दध्यौ च-साङ्कल्पिकमिदं जनगमीसगमपापं मयाऽऽचरितम् । भारितोऽहं क यामि ?, किं करोमि ?, कथं गुरोर्मुखं दर्शयामि ?, किं 5 तपः समाचरामि?, किं तीर्थ सेवे?। ऊर्ध्वं मुखं गृहीत्वा गच्छामि?, कूपे पतामि?, शस्त्रेणात्मानं घातयामि ? । अथवा ज्ञातम्-सर्वजनसमक्षं पापमुद्गीर्य काष्ठानि भक्षयामि । एवं टलवलायमानोऽनुचरानादिदेश-अग्निं प्रगुणयत । प्रगुणितस्तैरग्निः । समागताः श्रीवप्पभहिसूरयः । मेलितं चातर्वर्ण्यम। उक्तं तदघम । यावत्सहसा कशानं प्रवेक्ष्यति आमस्तावत्सरिभिर्बाही धत्वोक्तःराजन् ! शुद्धोऽसि । मा स्म खिद्येथाः । त्वया हि सङ्कल्पमात्रेण तत्पापं कृतं न साक्षात् । सङ्क-10 ल्पेनाग्निमपि प्रविष्टोऽसि । चिरं धर्म कुरु । ११६. मनसा मानसं कर्म वचसा वाचिकं तथा । कायेन कायिकं कर्म निस्तरन्ति मनीषिणः ॥ ५६ ॥
इति वचनाद्विसृष्टोऽग्निः । जीवितो राजा । तुष्टो लोकः । प्रीतः सूरिः । ४६) समयान्तरे वाक्पतिराजो मथुरां ययौ। तत्र श्रीपादस्त्रिदण्डी जज्ञे सः। तल्लोकादवगम्य आमः सूरीन् बभाषे-भवद्भिरहमपि श्रावकः कृतः। दिव्या वाणी वः प्रसन्नैव । जानामि वः15 शक्तिपरमरेखां यदि वाक्पतिमप्याहतदीक्षां ग्राहयथ । आचार्यैः प्रतिज्ञा चक्रे-तदा विद्या मे प्रमाणं यदि वाक्पतिं सशिष्यं श्वेताम्बरं कुर्वे । वाक्पतिस्तु कास्ति, इति उच्यताम् । राज्ञोक्तम्मथुरायां विद्यते। सूरयो मथुरायां गता बहुभिः श्रीआमाप्तनरैः सह । वराहमन्दिराख्ये प्रासादे ध्यानस्थं वाक्पतिं गत्वाऽद्राक्षुः । तत्पृष्ठस्थैः सूरिभिस्तारस्वरेण आशिर्वादाः पठितुमारब्धाः११७. सन्ध्यां यत्प्रणिपत्य लोकपुरतो बद्धाञ्जलिर्याचसे, धत्से यच्च परां विलज्ज ! शिरसा तच्चापि सोढं मया । 20
श्रीर्जाताऽमृतमन्थनाद्यदि हरेः कस्माद्विषं भक्षितं, मा स्त्रीलम्पट ! मां स्पृशेत्यभिहितो गौर्या हरः पातु वः॥५७॥ ११८. एकं ध्याननिमीलनान्मुकुलितं चक्षुर्द्वितीयं पुनः, पार्वत्या विपुले नितम्बफलके शृङ्गारभारालसम् ।
अन्यदूरविकृष्टचापमदनक्रोधानलोद्दीपितं, शम्भोभिन्नरसं समाधिसमये नेत्रत्रयं पातु वः ॥ ५८॥ ११९. रामो नाम बभूव हुं तदबला सीतेति हुं तां पितु,-र्वाचा पञ्चवटीवने विचरतस्तस्याहरद्रावणः । निद्रार्थं जननीकथामिति हरेहुंकारिणः शृण्वतः, पूर्वस्मर्तुरवन्तु कोपकुटिला भ्रूभङ्गुरा दृष्टयः ॥ ५९॥ 25 १२०. उत्तिष्ठन्त्या रतान्ते भरमुरगपतौ पाणिनैकेन कृत्वा
__धृत्वा चान्येन वासो विगलितकबरीभारमंसे वहन्याः । सद्यस्तत्कायकान्तिद्विगुणितसुरतप्रीतिना सौरिणा वः
___ शय्यामालिङ्गय नीतं वपुरलसलसद्बाहु लक्ष्म्याः पुनातु ॥ ६० ॥ एवं बहु पेठे । अथ वाक्पतिर्ध्यानं विसृज्य सम्मुखीभूय सूरीनाह-हे बप्पभट्टिमिश्राः ! यूयं 30 किमस्मत्पुरतः शृङ्गाररौद्राङ्गं पद्यपाठं कुरुध्वे ? । बप्पभट्टयः प्राहुः-भवन्तः सांख्याः। १२१. सांख्या निरीश्वराः केचित् केचिदीश्वरदेवताः । सर्वेषामपि तेषां स्यात् तत्त्वानां पञ्चविंशतिः ॥ ६१॥ 1PC अग्निं। 2 AB आचार्येन्द्रः। 3 P नदीं। 4 BD मन्थने यदि। 5 P नास्ति 'स्यात्' ।
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४०
. प्रबन्धकोशे इति ज्ञात्वा भवदभिमतदेवताशिषः पठन्तः स्म । यथारुचि हि श्रोतुः पुरः पठनीयं समयज्ञैः। वाक्पतिराह-यद्यप्येवं तथापि मुमुक्षवो वयमासन्ननिधनं ज्ञात्वा इह परमब्रह्म ध्यातुमायाताः स्म । बप्पभयो जगदुः-किं तर्हि रुद्रादयो मुक्तिदातारो न भवन्तीति मनुध्वे । वाक्पतिः प्राह-एवं सम्भाव्यते । बप्पभयो बभाषिरे-तर्हि यो मुक्तिदानक्षमस्तं शृणु । पठामि । इस जिन एव।
१२२. मदेन मानेन मनोभवेन क्रोधेन लोभेन ससम्मदेन ।
पराजितानां प्रसभं सुराणां वृथैव साम्राज्यरुजा परेषाम् ॥ ६२ ॥ १२३. जं दिट्ठी करुणातरंगियपुडा एयस्स सोमं मुहं, आयारो पसमायरो परियरो संतो पसन्ना' तणू ।
तं मन्ने जरजम्ममञ्चहरणो देवाहिदेवो जिणो', देवाणं अवराण दीसइ जओ नेयं सरूवं जए ॥ ६३ ॥ 10 इत्यादि बहु पेठे । वाक्पतिः प्राह-स जिनः वास्ते । सूरिः-स्वरूपतो मुक्ती मूर्तितस्तु जिना यतने । वाक्पतिते-प्रभो! दर्शय तम् । प्रभुरपि आमनरेन्द्रकारिते प्रासादे तं निनाय । स्वयं प्रतिष्ठितवरं श्रीपार्श्वनाथमदीदृशत् । शान्तं कान्तं निरञ्जनं रूपं दृष्टा प्रबुद्धो बभाषे-अयं निरअनो देव आकारेणैव लक्ष्यते । तदा बप्पभट्टिसूरिभिर्देव-गुरु-धर्मतत्त्वान्युक्तानि । रञ्जितः सः। मिथ्यात्ववेषमुत्सृज्य जैन ऋषिः श्वेताम्बरोऽभूत् । जिनमवन्दिष्ट, अपाठीच15 १२४. मयनाहिंसुरहिएणं इमिणा किं किर" फलं णलाडेणं । इच्छामि अहं जिणवर ! पणामकिणकलुसियं काउं ॥६४॥
१२५. दोवि गिहत्था धडहड वच्चई को किर कस्स वि पत्त भणिजई।
सारंभो सारंभं पुजइ कद्दमु कद्दमेण किमु' सुज्झइ ॥ ६५॥ प्रत्यासन्ने आयुषि 'मथुराचातुर्वर्ण्यस्य आमभूपसचिवलोकस्य च प्रत्यक्षं अष्टादशपापस्थानानि त्याजितः । नमस्कारं पञ्चपरमेष्ठिमयं श्रावितः । जीवेषु क्षामणां कारितो वाक्पतिः सुखेन 20 त्यक्ततनुर्दिवमगमत् । तत्सर्व प्रधानैरन्यैरपि प्रथमं ज्ञापितो नृपः। पश्चाप्पभदिर्गोपगिरिंगतः। राजाभितुष्टुवे" सूरिशक्रम्-.
१२६. आलोकवन्तः सन्त्येव भूयांसो भास्करादयः । कलावानेव तु ग्रावद्रावकर्मणि कर्मठः ॥ ६६ ॥ ६४७) एकदा राज्ञा सूरिः पृष्टः-किं कारणं येनाहं ज्ञातजैनतत्त्वोऽपि अन्तराऽन्तरा तापसधर्मे रतिं बध्नामि ? । सूरिराह-प्रातर्वक्ष्यामः। प्रातरायाताःप्रोचुः-राजन् ! अस्माभिर्भारतीवचसा तव 25 प्राग्भवो ज्ञातः । त्वं कालिञ्जरगिरेस्तीरे शालनामा तपस्वी शालट्ठमाधोभागे छुपवासान्तरित
भोजनस्तपो बहूनि वर्षाण्यतपथाः । स मृत्वा त्वमुत्पन्नः। तस्यातिदीर्घा जटास्तत्रैव लतान्तरिता अद्यापि सन्ति । तदाकर्ण्य आप्तनरास्तत्र राज्ञा प्रहिताः। तेर्जटा आनीताः । सूरियाक्संवादो दृष्टः । भूपतिः सूरीणां पदोर्विलग्य तस्थौ । परमाहतो बभूव ।
४८) अन्यदा सौधोपरितलस्थेन आमेन कापि गृहे भिक्षार्थं प्रविष्टो मुनिदृष्टः । तत्र युवति50रेका कामार्ता गृहागतं मुनि परब्रह्मैकचित्तं रिरमयिषुः कपाटसम्पुटं ददौ । मुनिर्नेच्छति ताम् ।
तया मुनये पादतलप्रहारे दीयमाने नूपुरं मुनिवरचरणे प्रविष्टं काकतालीयन्यायादैन्धवर्तकीन्यायाच । राजा तद् दृष्ट्वा सूरये समस्यां ददौ
1A पसंता। 2P इमो। 3 P बभाण। 4 AB तथा। 5 P मयनाए। 6P कर। 7 PC किम । 8 ABD अस्यासन्ने; P अत्यासले। 9A 'मथुरा' नास्ति। 10 P राजा तुष्टस्तुष्टुवे। 11 AB तत्वा। 12 P०प्यस्ति । 13 P न्यायेन ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः। १२७. कवाडमासज वरंगणाए अब्भत्थिओ' जुव्वणगव्वियाए ।
सूरिः पुरः प्राह
न मन्नियं तेण जिइंदिएण सनेउरो पव्वइअस्स पाओ ॥ ६७ ॥ अन्यदा प्रोषितभर्तृकाया गृहे भिक्षुः कश्चिद् भिक्षार्थी प्रविष्टः। राज्ञा सौधाग्रस्थेन दृष्टः । तया भिक्षोः पारणायान्नमानीतम् । उपरि काकैर्भक्षितम् । मुनिकस्य दृष्टिस्तस्या नाभौ स्थिता 5 तस्यास्तु दृष्टिस्तन्मुखकमले । आमः सूरये समस्यामार्पिपत् । यथा१२८. भिक्खयरो पिच्छइ नाभिमंडलं सावि तस्स मुहकमलं ।
सूरिराहदुण्डं पि कवालं चट्ठयं पि काया विलुपन्ति ॥ ६८॥
इति आमः श्रुत्वा चमत्कृतः। अहो सर्वज्ञपुत्रका एते !। 10 ६४९) अन्यदा कोऽपि चित्रकृद् भूपरूपं लिखित्वा उपभूपं गतः। बप्पभट्टिना श्लाषिता तत्कला । नृपात्तेन टङ्ककलक्षं लेभे । लेप्यमयविम्बचतुष्टयं च कारितम् । एकं मथुरायाम् । एकं मोढेरवसहिकायामणहिल्लपुरे। एकं गोपगिरी । एकं सतारकाख्यपुरे। तत्र तत्र प्रतिष्ठाः प्रभावनाश्च कारिताः । अन्यदपि बहकारि।
६५०) अथ आमगृहे पुत्रो जातः सुलक्षणः।सोत्सवं तस्य दुन्दुकः इति नाम प्रतिष्ठितम्।सोऽपि 15 युवत्वे तैस्तैर्गुणैः पितृवत्पप्रथे । एकदा समुद्रसेनभूपाधिष्ठितं राजगिरिनामदुर्ग आमो रुरोध । अमितं सैन्यं कुद्दालादिसामग्री भैरवादयो यन्त्रभेदाः क्लृप्ताः । प्राकारोऽतिबलेन प्रपातयितुमारेभे। नापतत्। आमः खिन्नः। तेन सूरयः पृष्टा:-अयमभ्रंलिहः प्राकारः कदाऽस्माभिहिष्यते। सूरिभिर्षभाषे-तव पुत्रपुत्रो भोजनामाऽमुं प्राकारं दृक्पातमात्रेण पातयिष्यति, अन्यो नैव । आमस्त्यक्तारम्भः प्राकाराद्वहिादशाब्दीमस्थात्। शत्रुदेशमात्मसाचक्रे । दुन्दुकगृहे पुत्रो जातः। 20 तस्य भोज नाम ददे । स जातमात्रः पर्यकिकान्यस्तो' दुर्गद्वाराग्रमानीतः प्रधानैः। तदृक्प्रपातमात्रेण प्राकारः खण्डशो विशीर्णः । समुद्रसेनभूपो धर्मद्वारेण निःसृतः। आमो राजगिरिमविक्षत् । प्रजामारो न कृतः। अक्रूरा हि जैना राजर्षयः । दयापरास्ते । रात्रौ आमाय राजगियधिष्ठात्रा भणितम्-राजन् ! यदि त्वमत्र स्थास्यसि तदा तव लोकं हनिष्यामि । आमः प्रत्यूचे -लोकेन हतेन किं ते फलम?। यदि हनिष्यसि तदा मामेव घातय। एतन्निर्भयमामवचः श्रत्वा तुष्टो व्यन्तर उवाच-प्रीतोऽस्मि ते सत्त्वेन । याचख किञ्चित् । राजोचे-न किमपि न्यून मे; केवलं कदा मे मृत्युः, ब्रूहीदम् । व्यन्तर उवाच-षण्मासावशेष आयुषि स्वयमेत्य वक्ष्यामि । षण्मासावशेष आयुषि पुनरागतः सः। राज्ञोक्तम्-कियन्मे आयुः । व्यन्तरो वदति-देव!
१२९. गङ्गान्तर्मागधे तीर्थे नावाऽवतरतः सतः । मकाराद्यक्षरग्रामोपकण्ठे मृत्युरस्ति ते ॥ ६९ ॥ षण्मासान्ते इति विद्याः । पानीयान्निर्गच्छन्तं धूमं यदा द्रक्ष्यसि तदा मृत्युर्ज्ञातव्यः। साधना 30 च कार्या पारलौकिकी। इति गदित्वा गतो देवजातीयः। राजा प्रातः सूरिपार्श्व गतः। सरिरुवाच
1 A अब्भडिओ; P अम्भुस्थिओ । 2 P 'पुरः' नास्ति । 3 A अन्यदिने। 4 P पतिता। 5 A अर्पितवान् । 6 Pकल्पिताः। 7 P.कान्यास्ते । 8 P महर्षयः राजर्षयश्च। 9 A अधिष्ठात्र्या ।
प्र० को
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प्रबन्धको
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राजन् ! यद्व्यन्तरेण 'तवाऽग्रे कथितं आयुः प्रमाणं तत्तथैव । धर्मपाथेयं गृह्णीयाः । तदाकर्ण्य भूपस्तुतोष विसिष्मिये' च, अहो ज्ञानम् ! । अथवा विस्मय एव कः ? - सूरस्तेजस्वी, इन्दुराह्लादकः, गङ्गाम्भः पावनम्, जैना ज्ञानिन इति । दिनद्वये गते सूरिः श्रीआमस्य पुरः प्रसङ्गेन श्री नेमिनाथस्याशीर्वादं पपाठ । यथा
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5१३०. लावण्यामृतसारसारणिसमा सा भोजसूः * स्नेहला, सा लक्ष्मीः स नवोद्गमस्तरुणिमा सा द्वारिका तद्वलम् । गोविन्द शिवासमुद्रविजयप्रायाः प्रियाप्रेरकाः, यो जीवेषु कृपानिधिर्व्यधित नोद्वाहं स नेमिः श्रिये ॥ ७० ॥ भूयोऽपि -
१३१. मग्नैः कुटुम्बजम्बाले यैर्मिथ्याकार्यजर्जरैः । नोज्जयन्ते नतो नेमिस्ते चेजीवन्ति के मृताः ॥ ७१ ॥
९५१) तथा रैवतकतीर्थमहिमा सूरिभिर्व्याख्याय पल्लवितः यथा भूमिमाहत्योत्थाय परिकरं 10 बद्ध्वा सरभसं भूषः प्रतिशुश्राव - रैवतके नेमिमवन्दित्वा मया न भोक्तव्यमिति । लोकैर्निषिद्ध: - राजन् ! मामा, दूरे रैवतको गिरिः, मृदवो भवादृशाः । राजाऽह - प्रतिज्ञातं मे न चलति । ततः सह सूरिणा आमः [*लक्षमेकं पृष्ठवाहा वृषभाः करभसहस्र २०, हस्तिशत ७, अश्वलक्षमेकं, पदातिलक्षत्रयं, श्राद्धकुटुम्बसहस्र २०] सारसैन्यो' रैवतकायाचालीत् । स्तम्भतीर्थ यावगतः तावत् क्षुत्तापेन व्याकुलितोऽपि प्राणसन्देहं प्राप्तोऽपि नाहारमग्रहीत् । भीतो लोकः । 15 खिन्नः सूरिः । मन्त्रशक्त्या कूष्माण्डीं देवीं साक्षादानिनाय । तदग्रे कथयामास तत्कुरु येन राजा जेमति जीवति च । तद्वचनात्कूष्माण्डी बिम्बमेकं महच्छिरसा बिभ्रती गगनेन आमसविधं गता, ऊचे च-वत्स ! साऽहमम्बिका । तव सत्त्वेन तुष्टा । गगने आगच्छन्तीं मां त्वं साक्षादद्राक्षीः । मयेदं रैवतैकदेशभूतादवलोकनाशिखरान्नेमिनाथबिम्बमानीतम् । इदं वन्दख । अस्मिवन्दिते मूलनेमिर्वन्दित एवं कुरु पारणकम् । सूरिभिरपि तत्समर्थितम् । लोकेनापि स्थापि20 तम् । तद्विम्बं वन्दित्वा राज्ञा ग्रासग्रहणं चक्रे । अद्यापि तद्विम्बं स्तम्भतीर्थे पूज्यते । उज्जयन्त इति प्रसिद्धं तत्तीर्थम् । हृद्यातोद्यानि ध्वानयन्नामो विमलगिरौ वृषभध्वजं सोत्सवं वन्दित्वा यावद्वैवताद्रिं गतः तावता तत्तीर्थं दिगम्बरै रुद्धं श्वेताम्बरसंघः प्रवेष्टुं न लभते । आमेन तज्ज्ञातम् । ज्ञात्वाचे- युद्धं कृत्वा निषेद्धृन्हत्वा श्रीनेमिं नंस्यामि । तावत्तत्र दिगम्बर भक्ता एकादश राजानो मिलिताः । सर्वे युद्धैकतानास्तदा बप्पभहिना भणितम् - आमराजेन्द्र ! धर्मकार्ये पापा25 रम्भः कथं क्रियते ? । लीलयैव तीर्थमिदमात्मसात्करिष्ये । भवद्भिः स्थिरैः स्थेयम् । एवं भूपं प्रबोध्य बप्पभरुपदिगम्बरं 'उपतद्भक्तं भूपं च नरं प्रहित्यावभाणत्-इदं तीर्थं यस्याम्बिका दत्ते तस्य पक्षस्य सत्कमिति मन्यध्वे । तैरुक्तम् - युक्तमेतत् । ततो बप्पभहिना सुराष्ट्रावास्तव्यानां श्वेताम्बरीयाणां दिगम्बरीयाणां च श्रावकाणां शतशः कन्यकाः पञ्चसप्तवार्षिक्यो मेलिताः । मिलिताः सभ्याः । बप्पभहिना अम्बादेवीपार्श्वात्कथापितम् - यदि सर्वाः श्वेताम्बर श्रावककन्यकाः 30 १३२. उर्जितसेलसिहरे दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचक्कवहिं अरिट्ठनेमिं नम॑सामि ॥ ७२ ॥ इति गाथां पठिष्यन्ति तदा श्वेताम्बरीयं तीर्थं, पक्षान्तरे तु दिगम्बरीयमिति । तत आनीता
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1P वोs | 2P गृहीथाः । 3A विसिस्म० । 4 P भोजभूः । * P पुस्तक एवेयं पंक्तिर्द्दश्यतेऽतः प्रक्षिप्तप्राया मन्तव्या । 5 BD ॰सैन्यैः; P • सैम्यैर्द्वात्रिंशदुपवासैः । 6 P तत्र + एतचिह्नान्तर्गतः पाठः ABD आदर्शे न दृश्यते, परं CEP आदर्श उपलभ्यते ।
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बप्पभट्टिसूरिप्रबन्धः। मुग्धबालिकाः।सर्वाभिः श्वेताम्बरपक्षबालिकाभिः पठिता सा गाथा । अपरासु तु नैकयाऽपि । ततो जातं श्वेताम्बरसादैवततीर्थम् । अम्बिकया खस्थया पुष्पवृष्टिः श्वेताम्बरेषु कृता । ततो नष्टा' दिकपटा महाराष्ट्रादिदक्षिणदेशानगमन्। राज्ञाऽन्यैरपि सर्वसङ्घश्चिरात्तत्र मिलितैर्नेमिर्नेमे। वित्तं ददे । प्रभासे चन्द्रप्रभः प्रणेमे । बन्दिमोक्षः सर्वत्रापि कारितः। आमस्य भुक्तौ गूर्जरादिदेशास्तदा तीर्थानां चिरं पूजोपयोगिनो हटाद्यायाः प्रकृप्ताः । एवं कार्याणि कृत्वा ससूरिन॒पो 5 गोपगिरि प्राविशत् । संघपूजादिमहास्तत्र नवनवाः । प्राप्तप्राये काले दुन्दुको राज्ये प्रतिष्ठितः। आपृष्टः सः। लोकोऽपि क्षमितः । अनृणो देशः कृतः। सह सूरिणा नावाऽऽरूढो गङ्गासरित्तीरें तीर्थ मागधं गतः। तत्र जले धूमं दृष्टवान् । तदा सूरीन्द्रमक्षमयत् । संसारमसारं विदन अनशनमगृह्णात् । समाधिस्थः श्रीविक्रमकालात् अष्टशतवर्षेषु नवत्यधिकेषु व्यतीतेषु भाद्रपदे शुक्लपञ्चम्यां पञ्च परमेष्ठिनः स्मरन् राजा दिवमध्यष्ठात् । सूरयस्तत्त्वज्ञा अपि रुरुदुः। चिरप्रीतिमोहो 10 दुर्जय एव । सेवकास्तु चक्रन्दुः-हा शरणागतरक्षावज्रकुमार! हा राजस्थापनादाशरथे ! हा अश्वदमननल ! हा सत्यवाग युधिष्ठिर ! हा हेमदानकर्ण! हा मज्जाजैनश्रेणिक ! हा सूरिसेवासम्प्रते! हा अनृणीकरणविक्रमादित्य ! हा वीरविद्याशातवाहन ! अस्मान् विहाय क गतोऽसि । दर्शयैकदाऽस्मभ्यमात्मानम् । मैकाकिनो मुश्च । एवं विलपन्तस्ते सूरिभिः प्रतियोधिताः-भो भो! सत्यं देवेन पापेन
१३३. आलब्धा कामधेनुः सरसकिशलयश्चन्दनचर्णितो हा
छिन्नो मन्दारशाखी फलकुसुमभृतः खण्डितः कल्पवृक्षः । दग्धः कर्पूरखण्डो घनहतिदलिता मेघमाणिक्यमाला
भन्नः कुम्भः सुधायाः कमलकुवलयैः केलिहोमः कृतोऽयम् ॥ ७३ ॥ तथापि मा शोचत शोचत । यतः
20 १३४. पूर्वाह्ने प्रतिबोध्य पङ्कजवनान्युत्सार्य नैशं तमः, कृत्वा चन्द्रमसं प्रकाशरहितं निस्तेजसं तेजसा ।
___ मध्याह्ने सरितां जलं प्रविस्तै रापीय दीप्तैः करैः, सायाह्न रविरस्तमेति विवशः किं नाम शोच्यं भवेत् ॥७४॥ इति लोकं निःशोकं कृत्वा लोकेन सह सूरिर्गोपगिरिमागात् । सूरिभिर्दुन्दुको राजा आमेन आमशोकेन जात्यमुक्ताफलस्थूलानि अश्रूण्युगिरन हिमम्लानपद्मदीनवदनश्चिन्ताचान्तखान्तो बभाषे-राजन् ! कोऽयं महतस्तव पितृशोकः । स हि चतुर्वर्ग संसाध्य कृतकृत्यो बभूव । यशो-25 मयेन देहेन चाचन्द्रं जीवन्नेवास्ते । पुण्यलक्ष्मीः कीर्तिलक्ष्मीश्चेति द्वे नरस्योपकारिण्यौ वल्लभे । १३५. पुण्यलक्ष्म्याश्च कीर्तेश्च विचारयत चारुताम् । स्वामिना सह यात्येकाऽपरा तिष्ठति पृष्ठतः ॥ ७५ ॥
अन्योऽप्येवंविधः कोऽपि भवतु । इत्येवंविधाभिर्वाग्भिन्दुकराजं सूरिराजो निःशोकमकापीत् । दुन्दुकः शनैः शनैः परमाहतोऽभूत् । राजकार्याणि अकार्षीत् । त्रिवर्ग स समसेविष्ट ।
६५२) एवं वर्तमाने काले, एकदा दुन्दुकश्चतुष्पथे गच्छन् कण्टिकां नाम गणिकामुदाररूपां चि-30 दूपां युवजनमृगवागुरां मदनमायामयीमालोकिष्ट । तां शुद्धान्तस्त्रीमकार्षीत् । तया दुन्दुकस्तथा वशीकृतो यथा यदेव सा वदति तत्सत्यम्; यदेव सा करोति तदेव हितं मनुते । सा तु कार्म
- 1 A ना। 2 A. तीर्थे । 3 BP जैनत्व। 4A मा मुचः। 5 AB सतां। 6P प्रविशतैः। 7 P नास्ति । 8A जीवनाते।
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प्रबन्धकोशे णकारिणी वाक्पटुः सर्व राज्यं ग्रसते हिमानीव चित्रम् । भोजमातरं पद्मां नाम अन्या अपि राज्ञीरन्वयवतीविनयवतीर्लावण्यवतीस्तृणाय मनुते । एकदा कलाकेलिनामा ज्योतिषिको निशि विसृष्टे सेवकलोके दुन्दुकराजं विजनं दृष्ट्वाऽवादीत्-देव ! वयं भवत्सेवकत्वेन सुखिनः ख्याताः श्रीशाश्च । यथातथं ब्रूमः-अयं ते भोजनामा तनयो भाग्याधिकस्त्वां हत्वा तव राज्ये निवे5क्ष्यते । यथार्ह स्वयं कुर्वीथाः । राजा तवधार्य वज्राहत इव क्षणं मौनी तस्थौ । ज्योतिषिकं विससर्ज । सा वार्ता भोजजननीसहचर्या दास्यैकया विपुलस्तम्भान्तरितया श्रुता । भोजमात्रे चोक्ता । सा पुत्रमरणाद्विभाय । राजापि कण्टिकागृहमगात् । सापि राजानं सचिन्तमालोक्यालापीत्-देव ! अद्य कथं म्लानवदनः । राजाऽऽह स्म-किं क्रियते ?, विधिः कुपितः । पुत्रान्मे मृत्युर्ज्ञानिना दृष्टप्रत्ययशतेन कथितः । कण्टिका वदति स्म-का चिन्ता, मारय पुत्रम् । सुत10 मपि निर्दलयन्ति राज्यलुब्धाः । सुतो न सुतः । सुतरूपेण शत्रुरेव सः। तद्वचनाहुन्दुकः सुतं जिघांसामास । यावता घातयिष्यति तावता भोजमात्रा पाडलीपुरे खभ्रातॄणां सूराणां राज्यश्रीवयंवरमण्डपानां लेहलानां धर्मज्ञानामग्रे प्रच्छन्न रेलेखेन ज्ञापितम् , यथा-एवमेवं भवतां भागिनेयो विनंक्ष्यति । रुष्टो' राजा । आगत्य एनं गृहीत्वा गच्छत । रक्षतां जीववत् । मा माह
भवत्सु सत्सु निष्पुत्राऽभूवम्-इति । तेऽप्यागच्छन् , दुन्दुकमनमन् । उत्सवमिषेण भागिनेयं 15 भोजं गृहीत्वा पाटलीपुत्रमगमन् । तत्र तमपीपठन्, अलीललन् । शस्त्राभ्यासमचीकरत् ।
ववदमंसत । तत्र तस्य पश्चाब्दी दिनैः कतिभिरप्यूनाऽतिक्रामति स्म । कण्टिका दुन्दुकाने कथयति स्म-देव! पुत्ररूपस्ते शत्रुर्मातृशाले वर्द्धते । नखच्छेद्यं पशुच्छेद्यं मा कुरु । अत्रानीय च्छन्नं यमसदनं नय । राजाऽऽह-सत्यमेतत् । ततो दूतमुखेन दुन्दुको भोज तन्मातुलेभ्योऽयाचीत्।ते भोजं नार्पयन्ति। पुनः पुनः खान दूतान् दुन्दुका प्रहिणोति । भोजमातुलाः प्राहुः-राजन्! 20 वयं तव भावं विद्मः, नार्पयाम एवैनम्।धर्मपात्रमसौ। अन्योऽपि शरणागतो रक्ष्यः क्षत्रियैः, किं पुनरीदृग् भगिनीपुत्रः ? । बलात्कारं ब्रूषे चेत् , युद्धाय प्रगुणीभूयागच्छेः। भगिनीपतये चमत्कारं दर्शयिष्यामः । ततैरागत्योक्तम् । दुन्दुकः कुपितोऽपि तान् हन्तुं न क्षमः ।। भोजोऽपि तैः पितुर्दुष्टत्वं ज्ञापितः केवचहर उपपितृ नैति । ततो दुन्दुकेन बप्पभटिसूरयः प्रार्थिताः-यूयं गत्वा भोजं सुतमनुनीयानयत मानयत माम् । अनिच्छन्तोऽपि तत्सैनिकैः सह पाटलीपुत्रं चेलः। 25 अर्द्धमाग सम्प्राप्तः स्थित्वा विमृष्टं ज्ञानदृष्ट्या-भोजस्तावन्मम वचसा नृपसमीपं नैष्यति ।
आनीयते वा यथा तथा; तदानीतोऽपि पित्रा हन्यते । वाग्लङ्घने राजाऽपि क्रुद्धो मां हन्ति । तस्मादितो व्याघ्र इतो दुस्तटी इति न्यायः प्राप्तः । समाप्तं च ममायुः, दिवसद्वयमवशिष्यते, तस्मादनशनं शरणम्-इति विमृश्यासन्नस्थयतयो भाषिताः-नन्नसूरि-गोविन्दाचार्यों प्रति हिता
भवेत । श्रावकेभ्यो मिथ्यादुष्कृतं ब्रूयात् । परस्परममत्सरतामाद्रियेध्वम् । क्रियां पालयेत। 30 आबालवृद्धान् लालयेत । नो वयं युष्मदीयाः, न यूयमस्मदीयाः । सम्बन्धाः कृत्रिमाः सर्वे । इति शिक्षयित्वाऽनशनस्थाः समतां प्रपन्नाः। १३६. अर्हतस्त्रिजगद्वन्द्यान् सिद्धान् विध्वस्तबन्धनान् । साधूंश्च जैनधर्म च प्रपद्ये शरणं त्रिधा ॥ ७६ ॥
1 ABD तथातथं । 2 A •पुत्रे। 3 P 'नरैः' नास्ति। 4 Bराजा रु। 5 P अगच्छत् । 6 P रक्षति । 7P निष्पुत्रो। 8 AB अलीलपन् । 9 A दुन्दकः। 10 AB मातुलपाधै। एतचिह्नान्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके।
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भट्टिसूरिप्रबन्धः ।
१३७. महाव्रतानि पञ्चैव षष्ठकं रात्रिभोजनम् । विराधितानि यत्तत्र मिथ्यादुष्कृतमस्तु मे ॥ ७७ ॥ ..इति ब्रुवाणा आसीना अदीनाः कालमकार्षुः । श्रीवप्पभट्टिसूरीणां श्रीविक्रमादित्यादष्टशतवर्षेषु गतेषु भाद्रपदे शुक्ल तृतीयायां रविदिने हस्तक्षै जन्म, पञ्चनवत्यधिकेषु तेषु गतेषु स्वर्गारोहणम् । तदैव मोढेरे नन्नसूरीणामग्रे भारत्योक्तम् - भवगुरव ईशानदेवलोकं गताः । तत्र बाढं शोकः प्रससार ।
१३८.
शास्त्रज्ञाः सुवचखिनो बहुजनस्याधारतामागताः सद्वृत्ताः स्वपरोपकारनिरता दाक्षिण्यरत्नाकराः । सर्वस्याभिमता गुणैः परिवृता भूमण्डनाः सज्जना
धातः ! किं न कृतास्त्वया गतधिया कल्पान्तदीर्घायुषः ॥ ७८ ॥
४५
वृद्धैस्तु प्रबोधो दत्तः
१३९. हित्वा जीर्णमयं देहं लभते भो पुनर्नवम् । कृतपुण्यस्य मर्त्यस्य मृत्युरेव रसायनम् ॥ ७९ ॥ इति । दुन्दुकेन सूरिभिः सह प्रहिता ये सैनिकास्ते निवृत्य दुन्दुकपार्श्व गताः । सोऽपि पश्चात्तापानलेन दन्दयते स्म । भोजेनापि समातुलेन सूरिशिष्याणामन्येषामपि लोकानां मुखादवगतं यथा - सूरय एवं मनुः । तव पार्श्व नाजग्मुः । मा स्मायमस्मदुपरोधसङ्कटे पतितः पितुः पार्श्व गतः सन् 'मृत इति कृपाँ दधुः । तदेतदाकर्ण्य भोजस्तथा पीडितो यथा वज्रपातेनापि न पीड्यते । 15 पितुरन्तिकं नागादसौ ।
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९५३) एकदा मालिकः कोऽपि पूर्वमामराजभृत्यो विदेशं भ्रमित्वा' भोजान्तिकमागतः पाटलीपुरे । तेनोक्तम्- देव ! त्वं मत्स्वामिकुलप्रदीपः । मया विदेशे सद्गुरोर्मुखाद्विद्यैका लब्धा मातुलिङ्गी नाम, ययाऽभिमन्त्रितेन मातुलिङ्गेन हताः करि-हरिमाया अपि बलिनो म्रियन्ते, मानवानां तु का कथा । देव ! गृहाण ताम् । भोजेन सा तस्मादात्ता । प्रमाणिता; सत्या 1 20 मालिको दानमानाभ्यां भोजेन रञ्जितः । मातुलाः सर्वे भोजेन विद्याशक्तिं प्रकाश्य तोषिताः । त ऊचुः- यदि इयं ते शक्तिस्तदा प्राभृतमिषेण मातुलिङ्गानि गृहीत्वाऽस्माभिः सह पितुः समीपं व्रज । पितरं निपात्य राज्यं गृहाण । तद् रुरुचे भोजाय । चलितो बहुमातुलिङ्गशाली' सन् । गतः पितुर्द्वारम्, कथापितं च-तात! त्वं पूज्योऽहं शिशुः । त्वत्तो मरणं वा राज्यं वा सर्व रम्यं मे । राजा सन्तुष्टः । अहो विनीतः सुतः, आयातु इति विमृश्य आहूतो भोजः । शोधितो 25 मध्यमागतः । एकासनस्थौ कण्टिका- राजानौ पृथक्पृथग् मातुलिङ्गेन जघान । सम्यगविद्या हि नान्यथा । उपविष्टो दुन्दुकराज्ये भोजः । तन्मातुला अतुलं तोषं दधुः । माता पद्मा प्रससाद । दुन्दुकेन धनहरणेन ग्रासोद्दालनादिना दूनचरा राजन्यकाः पुनर्जातमात्मानं मेनिरे । महाजनो जिजीव । वर्णाः सर्वे उमेदुः । संसारसरोऽम्भोजं भोजं कमला भेजे । दोर्बलात्परिच्छदबलाच जगजिगाय ।
30
९५४) अथ कृतज्ञतया मोढेरपुरे नन्नसूरये विज्ञप्तिं दत्त्वा उत्तमनरान् प्रैषीत् । ते गतास्तत्र । विज्ञप्तिर्दर्शिता तैस्तत्र । वाचिता नन्नसूरि- गोविन्दाचार्यैर्यथा - स्वस्ति श्रीमोढेरे परमगुरुश्रीनन्नसूरि-श्रीगोविन्दसूरिपादान् सगच्छान् गोपगिरिदुर्गात् श्रीभोजः परमजैनो विज्ञपयति, यथा-इह 1 P हस्तार्के । 2 P नियत । 3 P भ्रान्वा । 4P • शोभी ।
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प्रबन्धकोशे तावत्प्रज्ञागङ्गाहिमाद्रयः सर्वसमाचारीनारीसौभाग्यवर्द्धनमकरध्वजाः क्षितिपतिसदःकुमुदिनीश्वेतदीधितयो भारतीधर्मपुत्राः श्रीवप्पभटिसूरयस्त्रिदिवलोकलोचनलेह्यललितपुण्यलावण्यतामादधिरे । तत्स्थाने सम्प्रति दीर्घायुषो यूयं स्थ। दृष्टविज्ञप्तिप्रमाणेनात्र पादोऽवधार्यः । तद् दृष्ट्वा भक्तिरहस्यं सूरयः ससंघाः सुतरां जहषुः। संघानुमत्या गोविन्दाचार्य मोढेरके मुक्त्वा श्रीनन्नसू5रयो गोपगिरिं समसरन् । भोजः पादचारेण ससैन्यः सम्मुखमायातः । गुरोः पादोदकं पपौ। उल्लसत्तष्णो गिरं शश्राव । स्थानस्थानमिलितजनहृदयसंघट्टचरितहारमौक्तिकधवलितराजपथं पुरं निनाय । सिंहासने निवेशयामास तान् । मङ्गलं चकार । तदाऽऽज्ञामयो बभूव । तद्भक्तानात्मवद्ददर्श । तदभक्तान् विषवदीक्षांचक्रे । तदुपदेशान्जिनमण्डितां मेदिनीं विदधौ । दुन्दुकस्य तादृग मरणं स्मृत्वा कुपथेषु न रेमे । मथुरा-शत्रुञ्जयादिषु यात्राश्चकार । एकादश व्रतानुचचार । 10 पूर्वराजर्षियशांसि उद्दधार । चिरं राज्यं भेजे । इत्येवं गोपगिरौ भोजो धर्म लालयामास उदियाय च । अन्यैरपि पुण्यपुरुषैरेवं भाव्यम् ।
॥ इति श्रीबप्पभट्टिचरित्रम् ॥९॥
॥ ग्रन्थाग्रं ६०० ॥
१०. अथ श्रीहेमसूरिप्रबन्धः । 15 (५५) पूर्णतल्लगच्छे श्रीदत्तसूरिः प्राज्ञः वागडदेशे वटपद्रं पुरंगतः। तत्र खामी यशोभद्रनामा
राणकः ऋद्धिमान् । तत्सौधान्तिके उपाश्रयः श्राद्धैर्दत्तः । रात्री उन्मुद्रचन्द्रातपायां राणकेन ऋषयो दृष्टा उपाश्रये निषण्णाः । श्रावकामात्यपाधै पृष्टम्-के एते?। अमात्यः प्रोचे-देव! महामुनयोऽमी विषमव्रतधारिणः । राणकस्य श्रद्धा । प्रातर वन्दितुं गतः । देशना । श्रावकत्वं सुष्टुसम्पन्नम् । मासकल्पमेकं स्थिताः । परदेशं गता गुरवः । तावता वर्षाकालः । देवपूजादिधर्म20 व्यापारसाराण्यहानि गमयति राणः । प्राप्ता शरद् । चरिक्षेत्राणि द्रष्टुं गतो राणः । तावता बुण्टानि ज्वालयन्ति भृत्याः। तेषु सर्पिण्येका गर्भभारालसा ज्वालादिभिर्दह्यमाना तडफडायमाना सिमिसिमायमाना राणेन दृष्टा । दयोत्पन्ना, विरक्तश्च । हा! हा! संसारं, धिग् गृहवासं, कस्य कृते पापमिदमाचर्यते?। राज्यमपि दष्पालं मायाजालं नरकफलम । तस्मात्सर्वसङपरिस इति ध्यायन सौधमयासीत् । निशि श्रावकमन्त्रिणमाकार्य रहोऽप्राक्षीत्-मम धर्मगुरवः श्रीदत्त25 सूरयः क विहरन्ति ?। मच्याह-डिण्डुआणके । विसृष्टो मन्त्री शेषपरिच्छदश्च । राणको मिताश्वपरिवारः सारं हारमेकं सह' गृहीत्वा शीघ्र डिण्डुआणकं प्राप्तः । गुरवो दृष्टा वन्दिताः। भववैराग्याद्रुदितः । पदोले गित्वा कथितं स्वपापम् । गुरुभिर्भणितम्-राणक ! चारित्रं विना न छुटन्ति पापेभ्यो जीवः । राणकेन न्यगादि-सद्यो दीयतां तर्हि तत् । सूरय ओमित्याहुः । राणकेन डिण्डुआणकीयश्रावकाः समाकारिताः । हारोऽर्पितः । दिव्यः प्रासादः कार्यतामिति । 30 तथाऽऽचरितं तैः। अद्यापि दृश्यते स तत्र । राणकैर्ऋतमात्तम् । नन्द्यामेव षड्विकृतिनियमः, एकान्तरोपवासा यावज्जीवम् । तस्य राणयशोभद्रस्य गीतार्थत्वात्सूरिपदं जातम् । श्रीयशोभद्रसूरिः
1E 'सर्व' नास्ति । 2 A विज्ञप्तिमात्रेणात्र। 3 गिरिमसरन्। B.गिरिमरन् । 4 A.हरितः। 5A श्रुत्वा । 6P श्रद्धा बभूव। 7P नास्ति ।
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हेमसूरिप्रबन्धः। इति नाम । तदीयपट्टे प्रद्युम्नसूरिन्थकारः। तत्पदे श्रीगुणसेन सूरिः । श्रीयशोभद्रसूरिपादास्त्रयोदशोपवासा रैवते नेमिनाथदृष्टौ कृतानशनाः वर्लोकमैयरुः । गुणसेनसूरिपट्टे श्रीदेवचन्द्रसूरयः 'ठाणावृत्ति-शान्तिनाथचरितादिमहाशास्त्रकरणनियूंढप्रज्ञाप्रागभाराः। ते विहरन्तो धन्धुकपुरं गूर्जरधरा-सुराष्ट्रासन्धिस्थं गताः । तत्र देशनाविस्तरः।
६५६) एकदा नेमिनागनामा श्रावकः समुत्थाय श्रीदेवचन्द्रसूरीन् जगौ-भगवन् ! अयं 5 मोढज्ञातीयो मद्भगिनीपाहिणिकुक्षिभूः टक्करचाचिगनन्दनश्चाङ्गदेवनामा भवतां देशनां श्रुत्वा प्रबुद्धो दीक्षां याचते । अस्मिंश्च गर्भस्थे मम भगिन्या सहकारतरुः स्वमे दृष्टः । स च स्थानान्तरे उप्तस्तत्र महतीं फलस्फातिमायाति स्म । गुरव आहुः-स्थानान्तरगतस्यास्य 'बालस्य महिमा प्रैधिष्यते । महत्पात्रमसौ योग्यः सुलक्षणो दीक्षणीयः । केवलं पित्रोरनुज्ञा ग्राह्या । गती मातुल-भागिनेयौ पाहिणि-चाचिगान्तिकम् । उक्ता व्रतवासना । कृतस्ताभ्यां प्रतिषेधः करुण-10 वचनशतैः । चाङ्गदेवो दीक्षां ललौ । स श्रीहेमसूरिः प्रभुः।
६५७) तेन यथा श्रीसिद्धराजो रञ्जितः, व्याकरणं कृतम् , वादिनो जिताः। यथा च कुमारपालेन सह प्रतिपन्नम् । कुमारपालोऽपि यथा पञ्चाशद्वर्षदेशीयो राज्ये निषण्णः। यथा श्रीहेमसूरयो गुरुत्वेन प्रतिपन्नाः। तैरपि यथा देवबोधिः प्रतिपक्षः पराकृतः, राजा सम्यक्त्वं ग्राहितः श्रावकः कृतः, निर्वीराधनं च मुमोच सः। तत्प्रबन्धचिन्तामणितो ज्ञेयम् । किं चर्वितचर्वणेन?115 नवीनास्तु केचन प्रबन्धाः प्रकाश्यन्ते।
६५८) कुमारपालेन अमारी प्रारब्धायां आश्विनशुदिपक्षः समागात् । देवतानां कण्टेश्वरीप्रमुखाणां अबोटिकैर्नृपो विज्ञप्त:-देव! सप्तम्यां सप्तशतानि पशवः, सप्त महिषाः, अष्टम्यां अष्ट महिषाः, अष्टौ शतानि पशवः; नवम्यां तु नवशतानि पशवः, नव महिषा; देवीभ्यो राज्ञा देया भवन्ति पूर्वपुरुषक्रमात् । राजा तदाकर्ण्य श्रीहेमान्तिकमगमत् । कथिता सा वार्ता । श्रीप्रभुभि:20 कर्णे एवमेवमित्युक्तम् । राजोत्थितः। भाषितास्ते-देयं दास्यामः । इत्युक्त्वा वहिकाक्रमेण रात्री देवीसदने क्षिप्ताः पशवः । तालकानि दृढीकृतानि । उपवेशितास्तेषु प्रभूता आप्तराजपुत्राः। प्रातरायातो नृपेन्द्रः। उद्घाटितानि देवीसदनद्वाराणि । मध्ये दृष्टाः पशवो रोमन्थायमाना निर्वातशय्यासुस्थाः। भूपालो जगाद-भो अबोटिकाः! एते पशवो मयाऽमूभ्यो दत्ताः । यदि अमूभ्यो रोचिष्यन्ते, ते तदाऽग्रसिष्यन्त, परं न प्रस्ताः। तस्मान्नामूभ्योऽदः पलं रुचितम् । भव-25
द्भ्य एव रुचितम् । तस्मात्तूष्णीमाध्वम् । नाहं जीवान् घातयामि । स्थितास्ते विलक्षाः । मुक्ताइछागाः। छागमूल्यसमेन तु धनेन देवेभ्यो नैवेद्यानि दापितानि । अथाश्विन शुक्लदशम्यां कृतोपवासः मापो निशि चन्द्रशालायां ध्याने उपविष्टो जपति । बहिस्थाः सन्ति । गता बही निशा । रूयेका दिव्या प्रत्यक्षाऽऽसीत् । उक्तस्तया सः-राजन् ! अहं तव कुलदेवी कण्टेश्वरी । ऐषमः किमिति त्वया नास्मद्देयं दत्तम् ?। राज्ञोक्तम्-जैनोऽहं दयालुः पिपीलिकामपि न हन्मि,30 का कथा पश्चेन्द्रियाणाम् ? । तच्छ्रुत्वा कण्टेश्वरी कुद्धा राजेन्द्र त्रिशूलेन शिरसि हत्वा जग्मुषी। राजा कुष्ठी जातः। दृष्टं स्वं वपुर्विनष्टम् । विषण्णः । भृत्येन मन्त्रिणमुदयनमाकार्य तत्खरूपं निगद्य पप्रच्छ-मनिन् ! देवी पशून याचति । दीयन्ते न वा । मन्त्री दाक्षिण्यादाह-देव ! राजा
1 B •पहे। 2 PD ठाणांग। 3 P नास्ति । 4 P नास्ति ।
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प्रबन्धकोशे यत्नेन रक्ष्य एव । भूपो न्यगादीत्-निःसत्त्वो वणिगसि, यदेवं षे । मम किं कार्य जीवितेन ? । कृतं राज्यम् । लब्धो धर्मः । हताः शत्रवः। केवलं काष्टानि देहि रहः, येन प्रातर्मामीदृशं दृष्ट्वा लोको धर्म नोड्डाहं करोति । उदयनेन चिन्तितम्-अहो! महत्कृच्छ्रमापतितम् । पारवश्यमूलं नियोगं धिक् । मन्त्रिणोक्तं सद्यो बुद्धिवशात्-श्रीहेमसूरयो विज्ञप्यन्ते । राज्ञोक्तम्-तथाऽस्तु । 5गतो मन्त्री उपसूरि । सूरिभिर्जलमभिमच्यार्पितम्-अनेन राजाऽऽच्छोट्य इति । सचिवेन तथा चक्रे राज्ञः। राजा दोगुन्दुकदेव इव दिव्यरूपः सम्पन्नो भक्तश्च समधिकम् । श्रीगुरुं वन्दितुं ययौ । गुरुर्देशनां दत्ते१४०. शूराः सन्ति सहस्रशः प्रतिपदं विद्याविदोऽनेकशः, सन्ति श्रीपतयो निरस्तधनदास्तेऽपि क्षितौ भूरिशः। किन्त्वाकर्ण्य निरीक्ष्य वाऽन्यमनुजं दुःखार्दितं यन्मन,-स्तद्रूपं प्रतिपद्यते जगति ते सत्पुरुषाः पञ्चषाः ॥१॥
राजा खावासं गतः। राज्यं समृद्धं भुनक्ति । ६५९) एकदा प्रभुभिर्भरतस्य चक्रिणः साधर्मिकवात्सल्यकथाऽकथि । तां श्रुत्वा भूपः साधर्मिकवात्सल्यं दिव्यभोजनवसनकनकदानः प्रतिगामं प्रतिपुरं प्रारेभे। तद् दृष्ट्वा कविश्रीपालपुत्रः सिद्धपालः सूक्तमपाठीत्१४१. क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो, रेण्वावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं बद्ध्वा सुवर्णाचलः । 15 मामध्ये च धनं निधाय धनदो बिभ्यत्परेभ्यः स्थितः, किं स्यात्तैः कृपणैः समोऽयमखिलार्थिभ्यः स्वमर्थं ददत् ॥२॥
द्रम्मलक्षदत्तिरत्र । पुनः कदाचित्पठितम्१४२. श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि भगवत्याख्याति धर्म स्वयं, प्रज्ञावत्यभयेऽपि मत्रिणि न यां कर्तुं क्षमः श्रेणिकः । ___ अक्लेशेन कुमारपालनृपतिस्तां जीवरक्षां व्यधात्, यस्यास्वाद्य वचःसुधां स परमः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ॥३॥
अत्रापि लक्षदत्तिः। 20 $६०) अन्येाः कथाप्रसङ्गे प्रभवः प्राहुः स्म-पूर्व श्रीभरतो राजा श्रीमालपुरे नगरे शत्रुञ्जये
सोपारकेऽष्टापदे च जीवन्तस्वामीश्रीऋषभप्रतिमावन्दनाथ चतुरङ्गचमूचक्रोच्छलितरजःपुञ्जध्यामलितदिक्चक्रवालः संघपतिर्भूत्वा ववन्दे । तदाकर्ण्य श्रीचौलुक्यः स्वयं कारितरथेऽर्हडिम्बमारोप्य ससैन्यः शत्रुञ्जयोजयन्तादियात्रायै चचाल। संघे उदयनसुतो वाग्भटश्चतुर्विशतिमहाप्रासादका
रापकः, नृपनागाख्यश्रेष्ठिभूः श्रीमान् आभडः, षड्भाषाकविचक्रवर्ती श्रीपालः, तद्भः सिद्धपालः, 25 कवीनां दातॄणांचधुर्यो भाण्डागारिकः कपर्दी, परमारवंश्यः कूर्चालसरस्वती प्रह्लादनपुरनिवेशको राणः प्रह्लादनः, राजेन्द्रदौहित्रः प्रतापमल्लः, नवतिलक्षहेमस्वामी श्रेष्ठिछाडाकः, राज्ञी भोपलदेवी, चौलुक्यपुत्री लीलूः, 'राणअम्बडमाता माऊः, आभडपुत्री चाम्पलदें -इत्यादि कोटीश्वरो लोकः; श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः, श्रीदेवसूरयः, श्रीधर्मसूरयः, लक्षसंख्या मानवाः। स्थाने स्थाने प्रभावना। जिने जिने छत्रचामरादिदानम् । पात्राणां इच्छासिद्धिः। प्रथमं रैवताद्रितले सांकलीयालीपद्या30 दिशि गत्वा स्थितः क्षितिपतिः । नान्दीनिर्घोषः। रात्री भारत्या श्रीहेमसूरिभ्य आदिष्टम्-राज्ञा "नादावारोढव्यं विनसम्भवात् । अत्रैव देवो मदनसूदनो नेमिर्वन्द्यः । तथैव कृतम् । संघस्तु रैवतकगिरौ श्रीनेमिलानविलेपनपुष्पफलवस्त्रपूजानैवेद्यनादमालादिग्रहणैर्भावमपूरि । राजाप्यक्षवा_1 A नगरे पुरे, P नगरपुरे। 2 B राणा०। 8 A चाम्पल। 4 B नैवावा ।
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. हेमसूरिप्रबन्धः। टकवस्त्रापथराजिमत्यादिगुहामायस्थानयात्रया महादानैश्च धन-जीवितव्ययोर्लाभमग्रहीत् । देवपत्तने चन्द्रप्रभयात्रा ससङ्घस्यासीत् । ततो व्याधुव्य शत्रुञ्जयाद्रिं गतः। आरूढः। मरुदेवादर्शन-पूजे । तत्राशी:१४३. बालो मे वृषभो भरं सुमनसामप्येष कि सासहि-मन्दं धेहि किरीटमस्य करयोर्मा काङ्गणी भूयथा ।। ____गाङ्गेयं कटिसूत्रमत्र तनुकं युक्तं बलिष्ठेऽप्यमू-थे मातृदयागिरः सुरजने हास्यावहाः पान्तु वः ॥ ४ ॥ पुरः कपर्दी तत्र कायोत्सर्गः। आशीस्तु
१४४. रूढिः किलैवं वृषभः कपर्दिनं निषेवतेऽस्मिन्विमलाचले पुनः ।
___ अयं कपर्दी वृषभं शुभाशयस्तनोतु वः शान्तिकपौष्टिकश्रियम् ॥५॥ पुरो पृषभप्रभुप्रासादः । देवदर्शनं पूजा । आशीर्वाद:१४५. नव्योद्वाहविधौ वधूद्वययुतं पुत्रं सवित्रीरति-प्रीत्यासन्नमिव स्मरं किल ददौ यं वीक्ष्य सत्याशिषम् । 10 कल्पद्रुर्भुवि जङ्गमः किमधुना पत्रद्वयेनोगत-स्तत्त्वं स्याः शतशाख इत्यनुदिनं स श्रेयसे नाभिभूः ॥ ६॥
चैत्यपरिपाट्यां कपर्याह१४६. श्रीचौलुक्य ! स दक्षिणस्तव करः पूर्व समासूत्रितः, प्राणिप्राणविघातपातकसखः शुद्धो जिनेन्द्रार्चनात् ।
___ वामोऽप्येष तथैव पातकसखः शुद्धिं कथं प्राप्नुयात्, न स्पृश्येत करेण चेद्यतिपतेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः ॥७॥ ६६१) मेरुमहाध्वजावारितान्नदानयाचकसत्काराः प्रवर्तन्ते । मालोद्घनप्रस्तावे तादृशि सङ्के 15 राज्ञि च निषण्णे महं वाग्भटः प्रथमं लक्षचतुष्कमवदत् । प्रच्छन्नधार्मिकः कश्चित्कथापयतिलक्षाडौ। एषमन्यान्येष्वीश्वरेषु वर्द्धयत्मु कश्चित्सपावकोटीं चकार। राजाऽपि चमचकार, उवाच च-उत्थाप्यतां स यो गृह्णाति । उत्थितः सः। यावद् दृश्यते तावद्वादरमलिनवसनो वणिगरूपः। राज्ञा वागभटो भाषितः-द्रम्मसुस्थं कृत्वा देहि । वागभटो वणिजा सहोत्थाय पादुकान्तिकं गत्वा द्रम्मसुस्थं पप्रच्छ । तं वणिजा सपादकोटिमूल्यं माणिक्यं दर्शितम् । मश्रिणा पृष्टम्-20 कृत इदं ते?। वणिगाह-महुअकवास्तव्यो मत्पिता हंसाख्या सौराष्ट्रिका प्राग्वाटः । अहं त - जंगडमाता मे धारू। मम पित्रा निधनसमयेऽहं भाषितः-वत्स! चिरं कृताः प्रवहणयात्रा, फलिताश्च । मेलितं धनम् । तेन च क्रीतं प्रत्येकं सपादकोटिमूल्यं माणिक्यपञ्चकम् । अधुना प्रभु वृषभचरणौ शरणं मे । अनशनं प्रतिपन्नम् । 'क्षामिताः सर्वे जीवाः । एकं माणिक्यं श्रीऋषभाय, एकं श्रीनेमिनाथाय, एकं श्रीचन्द्रप्रभाय दद्याः। माणिक्यद्वयमात्मनोऽन्तर्धनं दध्या:, 25 पामधनमपि प्रचुरतरमास्ते । इदानी माता मया सहानीता कपर्दिभवने मुक्ताऽस्ति । तां जरती मातरं सर्वतीर्थाधिकतया 'पुराणपुरुषैनिवेदितामेतां माला परिधापयिष्यामि । श्रुत्वा हृष्टो मानी राजा सहय। मातृसम्मुखगमनं सर्वश्रावकाणाम् ; मालापरिधापनम् । तन्माणिक्यं हेना खचित्वा श्रीऋषभाय कण्ठाभरणमनकिरणभरितचैत्यगर्भमासूत्रयामहे । 'चलितः सङ्घः । प्राप्तः पत्तनम् । प्रवसेन्ते सङ्घभोज्यानि प्रतिलाभनाश्च । अमारिस्तु नित्यैव।
30
1Dमरः। 2Eमुखः। 3ADE'यो नाति 4A | 5AB क्षमिताः। 6A पुराणे। 7Pण। 8Bवलितः।
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प्रबन्धकोशे
१० .६६२) तस्य च कुमारपालदेवस्य भग्नी शाकम्भरीश्वरेण चाहमानवंश्येन राज्ञा आनाकेन परिणीताऽस्ति । एकदा तौ सारिभिः क्रीडतः। क्रीडता राज्ञा'सारिं गृहे मुञ्चतोक्तम्-मारय मुण्डिकान्, पुनर्मारय मुण्डिकान् । एवं द्विस्त्रिः।टोपिकारहितशीर्षकत्वान्मुण्डिका गूर्जरलोका विवक्षिता; अथवा श्वेताम्बरा गूर्जरेन्द्रगुरवो मुण्डिका इति हासगर्भोक्तिः। राज्ञी कुपिता वदति-रे जङ्ग5 डक! जिह्वामालोच्य नोच्यते ?, किं वक्षि?। न पश्यसि माम् ? । न जानासि मम भ्रातरं राजराक्षसम्? । क्रुद्धो राजा तां पदा जघान । साप्याह-यदि ते जिह्वां अवटुपथेन नाकर्षयामि तदा राजपुत्री मां मा मंस्थाः। इति वदन्त्येव सा ससैन्या निर्विलम्ब श्रीपत्तनमेत्य चौलुक्याय तं परिभवं प्रतिज्ञां च खोपज्ञामजिज्ञपत् । चौलुक्योऽभाषत-इत्थमेव करिष्यामः । कौतुकं पश्यः । ततश्चानाकस्तस्यां तत्र गतायां गूर्जरनृपतेजो दुर्द्धरं विदंश्चक्षोभ । चौलुक्योऽपि बह्राप्तपरिच्छदं 10 मत्रिणमेकं तत्रत्यवृत्तान्तज्ञानाय प्रेषीत् । गतः स तत्र । जग्राह गृहम् । राजासनदासीमेकां धनेन रञ्जयित्वा आत्मीयं भोगपात्रमकरोत् । नित्यं सा याममात्र्यां रात्र्यामायाति रञ्जयति तम्। एकदा निशीथे साऽऽगात्। मन्त्री कुपितः-आः पापे! 'परापरगामिनि! किमिति विलम्बन समागतासि ?। सापि सप्रश्रयं मत्रिणमभाषत-खामिन् ! मा कुपः । कारणेन स्थिताऽस्मि । 'मश्रिणोचे-किं कारणम् ? । सा जगाद-प्रभो! 'अहं अन्नस्य राज्ञस्ताम्बूलदासी । रात्रेर्याम एक15 मिन राज्ञा परिच्छदः सर्वो विसृष्टः। अहमपि विसृष्टा। विसृजता चाप्तनर एकोऽभाषि-व्याघ्रराजं हवारय । अहं स्तम्भान्तरिता कौतकेन स्थिता। को व्याघ्रराजः१. कथं 'चायते? इति । ततो राज्ञाऽऽकारितः स आगतः। कृतप्रणामः सन् राज्ञाऽऽलापि-भो! विजनमस्ति इति भाष्यसे । त्वमस्माकं कुलक्रमागतः सेवकः। सद्यो व्रज । गूर्जरेश्वरघातको भूत्वा व्यापादय तम् । लक्षत्रयं
हेन्नां दास्ये । अथ स व्याघ्रराजाख्यो बभाषे-देव ! हनिष्याम्येव तं राजानम् । मा म संशयं 20 कृथाः खामिन् ! । ततस्तद्वचः श्रुत्वा तुष्टः शाकम्भरीश्वरः। सद्यो हेमलक्षत्रयबदरकांस्तद्गृहायाचीचलत्। व्याघ्रराजं चापाक्षीत्-कदा केनोपायेन तं हनिष्यसि ? । व्याघ्रराजोऽवादीत्-नाथ ! अद्य रविवारो वर्त्तते । आगन्तुकामे सोमवारे कचनावसरं लब्ध्वा हनिष्यामि । उपायस्तु भरटकरूपं करिष्यामि । राजा तु कर्णमेरुप्रासादे आयाति सोमवारे ध्रुवम् । देवं नत्वा व्यावर्त्तमानायास्मै बाह्याङ्गणे शेषादानमिषेण पुष्पकलम्बकमुत्पाटयिष्यामि । तत्र धृतया कर्तिकया कङ्क25 मय्या घातयिष्यामि। 'अङ्गीकृतसाहसानां न किञ्चिदपि दुष्करम् ।' अहं हतश्चेत्तत्र तदा मन्मानुषाणामुपरि कृपा करणीया । उद्धृतश्चेदहं तदा" जितं जितम् । एवं व्याघ्रराजेन निगदिते आनाकेन पीटकं दत्तम् । विसृष्टोऽसौ । तत्सर्वं सावधानतया" स्तम्भान्तरितया मया श्रुतम् । राज्ञि शुद्धान्ते गतेऽहं त्वदजिसेवार्थमायाता। तस्मान्मा मनो मयि क्रोधकश्मलितं कार्षीः । एतदासीवचः श्रुत्वा चौलुक्यनियोगी चिन्तयति-लब्धं शत्रुगृहमर्म । यतिष्येऽतः कार्यकरणाय । 30 इति परामृशन् दासीमभाषत-याहि मृषाभाषिणि !, कः स्त्रीवचसि विश्वासः ।
. १४७. श्रूयते यन्न शास्त्रेषु यलोकेऽपि न दृश्यते । तत्कल्पयन्ति लोलाक्ष्यो जल्पन्ति स्थापयन्ति च ॥ ८॥
इत्यादि भाषित्वा तां व्यस्राक्षीत् । स्वयं तु चतुरांश्चतुरो यामलिकानुपचौलुक्यं प्रास्थाप- 1P सारिगृहे। 2 B पश्य। 3 BDP परन। 4 A मंश्योचे, D मंत्री उचे। 5 BC 'अहं' नास्ति । 6 ABP अनस्य' नास्ति। 7 P कथमा०। 8 DP 'तम्' नास्ति । । एतदन्तर्गता पंक्तिर्नास्ति A भादशैं। 9P उद्धृतः। 10A 'तदा' नास्ति। 11 AD सावधानया।
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हेमसूरिप्रवन्धः। यत् । विज्ञस्या चाज्ञापयत्-सावधानैः स्थेयम् । इत्थमित्थं खामिपादानामुपरि शत्रुकृतं कपट वर्त्तते । भरटकश्चिन्तनीयः । चौलुक्यः सावधानस्तस्थौ । सोमवारे गतो राजा कर्णमेरुम् । प्रकटीभूतः पूर्वोक्तचेष्टया भरटकः । दृष्टमात्रमेव तं नृपो मल्लैरदीधरत् । कर्तिका च लब्धा । बद्धो व्याघ्रराजः, जल्पितश्च-रे वराक! जङ्गडकेन प्रेषितोऽसि । सेवकस्त्वम् । 'सेवकस्य च हिताहितविचारो नास्ति।' खाम्यादेशवशंवदस्त्वं मा भैः। मुक्तोऽसि । तमेव हनिष्यामि य एवं द्रोह- 5 माचरति दुर्दुरूढः । इत्युक्त्वा परिधाप्य व्यसृजत् । वयं तु सौधं गत्वा सामग्री यौद्धी व्यररचत् । पाणिरक्षां विधिवद्विधाय चलितः। सपादलक्षान् प्रविष्टः। भट्टेन आनाकनरेन्द्रमालीलपत् । यथा__१४८. अये भेक ! च्छेको भव भवतु ते कूपकुहरं, शरण्यं दुर्मत्तः किमु रटसि वाचाट ! कटुकम् ? ।
पुरः सर्पो दी विषमविषफूत्कारवदनो, ललजिह्वो धावत्यहह भवतो जिग्रसिषया ॥ ९॥ 10 आनाकोऽपि तदुद्दामशौण्डीयरिपुदूतवचः श्रुत्वा लक्षत्रयाश्वेन' नरलक्षदशकेन पञ्चाशता च मदान्धैर्गन्धगजैरचलत् । शाकम्भरीतः पञ्चक्रोश्यार्वागागतः । दिनत्रयेण युद्धं भविष्यतीति निर्णीतमुभाभ्यां राजेन्द्राभ्याम् । अन्योऽन्यमक्षान् दीव्यन्ति राजपुत्राः । योधयन्ति मल्लयोध
मेष-वृषभ-महिष-गजान् । स्फोटयन्ति नालिकेराणि । तावन्तमवकाशं लब्ध्वा सपाद. लक्षश्मापालेन निशि द्रव्यबलेन नलीयकेल्हणादयो राजकीयाश्चौलुक्यभक्ता भेदिताः खपक्षे 15 कृताः। सर्वेषामेको मन्त्रः-युद्धाय सन्नद्धव्यमेव न तु योद्धव्यम् । राजा चौलुक्य एकाकी मोचनीयः । शत्रुभिर्हन्यताम् । 'अर्थो हि परावर्त्तयति त्रिभुवनम् ।'
१४९. दधाति लोभ एवैको रङ्गाचार्येषु धुर्यताम् । आरकशक्रं यन्नायपात्राणि भुवनत्रयी ॥ १० ॥ एवं' च तेषां मनं चौलुक्योऽद्यापि न वेत्ति । अतः प्राता राजा कुमारपालः कलहपञ्चाननं पट्टहस्तिनं महामात्रश्यामलपार्धात्पुरः प्रेरयामास । तटस्थांस्तु चेष्टितैर्दुष्टान्निरणैषीत् । नृपेण 20 गदितः श्यामल:-श्यामल ! किमर्थममी उदासीना इव दृश्यन्ते ? । श्यामलेन विज्ञप्तम्-देव! अरिकृतार्थदानादमी त्वयि द्रोहपराः सम्पन्नाः।राजाऽऽह-तर्हि तव का चेष्टा । श्यामलोडप्याललाप-देव! एको देवः १, अपरोऽहम् २, अन्यस्तु कलहपञ्चाननो हस्ती ३, एते त्रयः कदापि न परावय॑न्ते । नृपो वदति-तर्हि सम्मुखीने दृश्यमाने शत्रुनृपमुद्रघट्टे गजं प्रेरय । .. १५०. साहसजुत्तइ हलु वहइ दैवह तणइ कपालि । खूटा विणु खींखइ नही खेडि म खूटा यालि* ॥११॥ 25. तदैव चारण एको न्यगादीत्१५१. कुमारपाल! मन चिंत करि चिंतिई किंपि न होइ । जिणि तुहु" रज्जु सम्मप्पिउ" चिंत करेसइ सोइ ॥१२॥
तत्तदीयं वचः श्रुत्वा सुशब्दं मन्यमानः पुरःस्थे महाघद्देऽविशत् । नरसहस्रेण सह भञ्जन नन् गतो" गजारूढः कुमारपाल आनाकगजान्तिके। आस्फालितो गजो गजेन । लग्नः करः करेण । आस्फालितो दन्तौ दन्ताभ्याम् । एकदेहत्वमिव द्वयोरिभयोरभूत् । प्रवृत्तं युद्धं नाराचैः। 30
1 BP oमारचयति । 2 P सौधे। 3 A पूत्कारि०; P पूत्कार। 4 AD नयाश्वो। 5A कोशागागतः; D. •ांगतः। 6 A यहाव्यः। 7P.एनं; D एतं । 8 P 'पुरः' नास्ति । 9 P नास्ति । * P पुस्तके एतत्पबमीशं श्यते ।
खेति म खूटा टालि खूटा विण खीखा नही । दैवह तणा कपालि साहसजुत्तइहल वल॥ 10 Dति । 11 BDTE रज। 12 D समप्पियउ। 13 A 'गतो' नास्ति। ... .
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द्वावपि बलिष्ठी महोत्साही राजे भौ । तथापि कलहपश्चाननश्चीत्कारान्मुञ्चन् पुनः पुनः पञ्चान्निवर्त्तते । तदा चौलुक्येन श्यामल ऊचे - श्यामल । कथमयं निवर्त्तते । श्यामलो गदति मस्वामिन्! श्रीजयसिंहदेवे विपन्ने ३० दिनानि पादुकाभ्यां राज्यं कृतम् । मालवीयराजपुत्रेण चाहडकुमारेण राज्यं प्रधानपार्श्वे याचितम् । प्रधानैस्तु परवंश्यत्वान्न दत्तम् । ततो रुष्ट्वा चाहड 5 आनाकसेवकः सञ्जातः । स भगदत्तनृपवन्महामात्रधुर्यः, अतुलबलः । तस्य सिंहनादेन कलहपञ्चाननः क्षुभ्यन् पश्चान्निवर्तते । किमत्र क्रियते, न विद्मः । चौलुक्यस्तदाकर्ण्य द्विपदीं विदार्य 'फालिकद्वयेन द्वौ गजकर्णौ पूरयामास । ततश्चाहडसिंहनादमशृण्वन् कलहपश्चाननः स्थिरतरः स्थितो गिरिवत् । वर्त्तते षट्त्रिंशदायुधैर्युद्धम् । चमत्कृते द्वे अपि सैन्ये । उदासीनतया प्रथमं ' स्थिताश्चौलुक्यीयाश्चकम्पिरे भयेन । अहो ! एकाङ्गमात्रस्यापि कुमारदेवस्यासमसमरसम्पल्ल10म्पटत्वम् । सैन्ययोर्युद्धमपि निवृत्तम् । तावेव युध्येते । अत्रान्तरे चौलुक्यो विद्युदुत्क्षिप्तकरणं दत्त्वा आनाकगजपतिस्कन्धमारूढः । क्षिप्तौ भुजौ राजोपरि । कसणकानि च्छुरिकया छित्त्वा आनाकं सढंचक च भूमौ पातयित्वा योक्त्रबन्धं क्षित्वा हृदि पादं दत्त्वा छुरीं कराग्रे ग्रहीत्वा अवादीत्-रे वाचाट! मूढ ! निर्धर्मन् ! पिशाच! स्मरसि मद्भगिन्यग्रे 'मारय मुण्डिकान्' इति वदिष्यसि ? । पूरयामि निजभगिनीप्रतिज्ञाम् । छिनद्मि ते दुर्वाकपङ्कदूषितां जिह्वाम् । इत्येवं 15 वदति कृतान्तदुष्प्रेक्ष्ये चौलुक्ये सपादलक्षीयः किञ्चिन्नाचख्यत्; केवलं" तरलतारकाभ्यां चक्षुर्भ्यामद्राक्षीत् । चौलुक्योऽप्युत्पन्नलोकोत्तरकरुणापरिणामः प्राभाणीत् - रे जाल्म ! मुक्तोऽसि न भगिनीपतित्वेन, किन्तु कृपापात्रत्वेन । पूर्वं तव देशे टोपीबन्धे "ग्रभागे जिह्निके आसाताम् । कसाया जिह्रेति सञ्ज्ञा । अतः परं जिह्वाबन्धः पश्चात्करणीयः । अवटोर्जिह्वाकर्षणप्रतिज्ञासिद्धिसूचकत्वात् । एवं श्रुते तथेति प्रतिपेदे आनाकः । 'बलवद्भिः सह का विरोधिता' इति न्यायात् । 20 काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः । त्रिरात्रं खसैन्ये स्थापितः । जयातोधानि घोषितानि । पश्चात् शाकम्भरीपैतिर्विहितः । उत्खातप्रतिरोपितव्रताचार्यो" हि तिहुअणपालदेवनन्दनः । गम्भीरतया खभटा नोपालब्धाः । त्यक्तजीवाशास्ते तं सेवन्ते । मेडंतक" सप्तवारं भग्नम्। पल्लीकोटस्थाने आर्द्रकमुसम् । ततः पठितं चारणेन
प्रबन्धको
१५२. कुमरपाल रणइट्टि वलिउ कु करिसइ ववहरणु" । इक्कह पल्लीमट्टि ̈ वीसलक्खउ " झगडउ कियउ ॥ १३ ॥ 25 इति चिरं तस्थौ स तत्र । श्रीहेमचन्द्रसूरयः सहैव सन्ति । पृष्टास्ते तेन- भगवन् ! मालवीया राजानो गुर्जरानागताः प्रासादान् पातयन्ति आत्मख्यातये । तदस्माकमकृत्यम् । केनोपायेनात्मख्यातिं कुर्मः । " श्रीहेमसूरिपादैः प्रत्यपादि - राजेन्द्र ! पाषाणमयानि तिलपेषणयन्नाणि भञ्जय पुण्य- कीर्तिलाभात् । भञ्जितास्ते तेन घाणकाः । अद्यापि भग्नाः पतिताः स्थाने स्थाने दृश्यन्ते । ततो" ववले परराष्ट्रमर्दनचौलुक्यः । आयातः पत्तनम् । भगिनीं भर्तृकुले प्रगन्तुमतत्वरत् । 30 न तु सा गता अभिमानात् । तपस्तु तेपे । राजा स्तम्भनपुरे यात्रां सूत्रयामास । तत्पुरं पार्श्वदे
1A निववृते । 2P नास्ति पदमिदम् । 3 AP ० वंशस्त्रात् । 4 A निववृते । नास्ति । 7 P प्रथमः । 8 P सढं चक्रं । 9P नाचख्यौ । 10 AB नास्ति 'केवलं' । शाकंभरीशो | 13 ० रोषिताचार्यो । 14 P मेडतं । 1 एदतन्तर्गतः पाठो नाति P पुस्तके | 17 A बीसक्ख, B बीसकल० । 18 एतद्वाक्यस्थाने P पुस्तके 'गुरुभिरुक्तम्' छ वाक्यम्।
5.B फालक० । 6 P 'स्थितो' 11 AB बन्धो । 12 AD 15 A •हरण 16 D पट्टि । 19 A नाखि 'ततो' ।
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हेमसूरिप्रबन्धः ।
वाय ददौ । पुनः पत्तनमैत् । गृहीतसपादलक्षाधिपतिलश्चाद्रव्यान् कुसेवकान, मिगृह्य निश्चिन्तीभूतः श्रीकुमारपालः श्रीहेमसूरिपादान् पर्युपास्ते । सामायिकपौषधादीन्याचरति ।
६६३) एकदा पृष्टं राज्ञा-भगवन् ! इदमपि ज्ञायते यदहं पूर्वभवे कीदृशोऽभूवम् ? । गुरुराहराजन् ! निरतिशयः कालोऽयम् । यतः श्रीवीरमोक्षगमनाद्वर्षाणां चतुःषष्ट्या चरमकेवली जम्बूस्वामी सिद्धिं गतः । तेन समं मनः पर्यवज्ञानम्, परमावधिः, पुलाकलब्धिः, आहारकशरीरम्, क्षप-5 कश्रेणिः, उपशमश्रेणिः, जिनकल्पः, परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय यथाख्यातानि चारित्राणि, केवलज्ञानम्, सिद्धिगमनं च इति द्वादशस्थानानि भरतक्षेत्रे व्युच्छिन्नानि । सप्तत्यधिके वर्षशते ते स्थूलभद्रे स्वर्गस्थे चरमाणि चत्वारि पूर्वाणि समचतुरस्रसंस्थानं वज्रऋषभनाराचसंहननं महाप्राणध्यानं व्युच्छिन्नम् । आर्यवज्रखामिनि दशमं पूर्वम्, आद्यसंहननचतुष्कं च व्यपगतम् । ततः परं शनैः शनैः सर्वाणि पूर्वाणि प्रलयं गतानि । [सम्प्रति *] अल्पश्रुतं वर्त्तते । 10 तथापि देवतादेशात्किमपि ज्ञायते । राज्ञा विज्ञप्तम् - यथा तथा पूर्व भवं ज्ञापयत माम् । गुरुभिः प्रतिपन्नम् । ततः सिद्धपुरे निजैराप्ततपोधनैः सह सरखतीतीरं गत्वा विजने ध्याने निषण्णाः । द्वौ मुनी दिग्रक्षायां मुक्तौ । दिनत्रयान्ते विद्यादेव्य आजग्मुः । प्रभूणामग्रे ताभिरुक्तम्-यनतां सत्वेन तुष्टाः स्मः । याच्यतां किश्चित् । सूरिभिरभाणि - कुमारपालस्य प्राग्भवं वदत । ता ऊचु:- मेदपाटपरिसरे पर्वतश्रेण्यां परमारः पल्लीशो जयताको राज्यमकरोत् । अन्यायी 115 एकदा धनकनकसमृद्धा बलीवर्द्दश्रेणी तेन गृहीता । बलीवर्दाधिपतिर्नष्टः । जयताकेन सर्वं लुण्टि तम्' । बलीवर्दाधिपतिस्तु मालवदेशं गत्वा राज्ञा सह मिलित्वा सेनां गृहीत्वा तस्यां पल्लयां वेष्टकृत । कीटमारिः कृता । जयताको नष्टः । तस्य भार्या चटिता । तस्या उदरं विदार्य पुत्रं गर्भमुपले आस्फाल्य वणिज्यारकोऽवधीत् । पल्लीग्रामादि प्रज्वाल्य पुनर्मालवदेशं गतः । राज्ञा हृष्टेन पृष्टम् - कथं कथं विग्रहः कृतः । वणिज्यारकेणोक्तम्- खामिन् ! तत्पुरं प्रज्वालितम्, 20 जयताको नष्टः, तत्पत्नी चटिता सगर्भा हता । राज्ञोक्तम्-त्वया न सुष्ठु कृतम् । हत्याइयं गृहीतम् । अद्रष्टव्यमुखस्त्वम् । ममान्तिकं त्यज । निष्कासितः । लोकनिन्दोच्छलिता । तपोवनं गत्वा तपखिदीक्षा जगृहे । गाढं तपस्तस्वा मृत्वा स वणिज्यारको जयसिंहदेवो जातः । जयतास्तु स्थानभ्रंशं दृष्ट्वा देशान्तरं गतः । अटवीं गच्छतस्तस्य संडेरगच्छखामिनः श्रीयशोभद्रसूरयो मिलिताः । सूरिभिरभिहितम् - यद् भवतोऽधुना सर्व गतम्, किमर्थमन्यायं करोषि । 25 जयताकेनोक्तम्- 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम्' । ततः सर्वमकृत्यं करोमि । सूरिभिरुक्तम्अधुना शम्बलादि' भोजनादि कारयिष्यते । अनयं मा कृथाः । भोजनवस्त्रादिकं कस्यापि पार्श्वाहापितम् । साथै हि तदादेशकारिणो बहवः । चौर्यनियमं यावज्जीवं ग्राहितः । स तिळङ्गेषु' उरकुलपुरे ओढरवणिज्यारकगृहे भोजनादिवृत्त्या भृत्योऽस्थात् । तत्र विहारे' यशोभद्रसूरयः प्राप्ताः । चतुष्पथे मिलिता जयताकस्य । श्रावकैरुपाश्रयो दत्तः । जयताकेन तत्र गत्वा हृदयशुद्ध्या 30 पुनश्चौर्यनियमो 'गृहीतः, अन्येऽपि बहवो नियमा" गृहीताः । उत्सूरे ओढरगृहं गतः । ओढरेण पृष्ठम् - तव क वेळा लग्ना । त्वां विना कार्याणि सीदन्ति । तेनोक्तम्-मम गुरवः समागताः सन्ति ।
I
1P • ख्यावचा । 2 A व्यगतं । P पुस्तक एव एष शब्दो दृश्यते । 3 A लुण्ठितं । एतद्न्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके | 4 P पृष्टः । 5 D शम्बलादिकं D शम्बलभोज० । 6 A वस्त्रादि । 7 AD तिलिंगेषु । 8P विहरन् । 9A आहितः। 10 A गृहीता नियमाः ।
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प्रबन्धको
तत्क्रमकमलवन्दनानन्दमन्वभूवम् । नियमानग्रहीषम् । ओढरेणापि समुत्पन्नश्रद्धेन व्याकृतम्वयमपि गुरून् वन्दिष्यामहे । जयताकेनोक्तम् - पुण्यात्पुण्यमिदम् । ओढरस्तत्र गतः । गुरून् वन्दित्वा न्यवदत् । देशना श्रुता । तत्त्वज्ञानमुन्मीलितम् । श्रावकत्वं गृहीतम् । पश्चाद्-गुरुदक्षिणा गृह्यताम् - इति ओढरेणोक्ते सूरिभिरुक्तम्-वयं निर्ममा निष्परिग्रहाः । धनादि न b गृह्णीमः । अथ तवात्याग्रह एव तर्हि श्रीमहावीरप्रासादका रापणं दक्षिणाऽस्तु । कारितः प्रासादः । ओढरस्य जयताकेन सह सोदरत्वमिवासीत् । एकदा पर्युषणे ओढरः सपरिवारश्वलितो जयताकेन समं देवगृहं प्रति । पुष्पाणि गृहीत्वा ओढरेण देवस्य पूजा कृता । जयताको जजल्पेइमानि मे पुष्पाणि गृहीत्वा पूजां कुरु । जयताको जगाद - पुष्पाणि भवदीयानि; एभिः पूजायां कृतायां किं मे फलम् ? | वेष्टिरेव केवला । केवलं ममापि पञ्श्च वराटकाः सन्ति । तत्पुष्पैः पूजयि10 ष्यामि जिनेन्द्रम् । तथैव पूजितः । जयताकः पुण्यमगण्यमुपार्जयत् । तत ओढरजयताको गुरून् वन्दितुं जग्मतुः । उपवासः कृतो जयताकेन । द्वितीयदिने मुनिभ्यो दत्त्वा पारणं कृतम् । एवं पुण्यात्यः सन् मृत्वा श्रीमूलराजवंशे तिहुअणपालदेवगृहे श्रीकुमारपालोऽभूत् । एवमुक्तवा विरतासु देवीषु प्रभुभिः प्रोक्तम् - कोऽत्र प्रत्ययः । । पुनर्देव्यः प्राहुः - उपराजं वदे:- नवलक्षतिलङ्गशृङ्गारे' नगरे उरङ्गले मानवान् प्रेषय | अद्यापि ओढरस्य वंशीयाः सन्ति । तेषां दासी स्थिर15 देवी जीर्णवृत्तान्तान् जानाति वक्ष्यति च । इदं श्रुत्वा विसृज्य गच्छन्तीभिर्देवीभिस्तत्रत्ये ओढरगृहे लप्स्यमानानि निधानानि कथितानि । विज्ञाय पत्तने राजान्तिकं गताः प्रभवः । पृष्टं तत्र राज्ञा । तथैव राज्ञोऽग्रे न्यगादि । नरप्रेषणात्सर्वं ज्ञातम् | जिनधर्मे स्थैर्य जातम् । सह— सिद्धेशेनापि वैरकारणमुपलब्धम् । पूर्वभवे गर्भघातान्न सिद्धराजस्य पुत्रः । इति कुमापालपूर्वभवः ।
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॥ इति श्रीहेमसूरिप्रबन्धः ॥ १० ॥
100000
११. अथ हर्षकविप्रबन्धः ।
(६४) पूर्वस्यां वाराणस्यां पुरि गोविन्दचन्द्रो नाम राजा । ७५० अन्तःपुरीयौवनरसपरिमलग्राही । तत्पुत्रो जयन्तचन्द्रः । तस्मै राज्यं दत्त्वा पिता योगं प्रपद्य परलोकमसाधयत् । जयन्तचन्द्रः सप्तयोजनशतमानां पृथ्वीं जिगाय । मेघचन्द्रः कुमारस्तस्य यः सिंहनादेन सिंहानपि 25 भङ्कुमलम्, किं पुनर्मदान्धगन्धेभघटाः ? । तस्य राज्ञश्चलतः सैन्यं गङ्गा-यमुने विना नाम्भसा 'तृप्यतीति नदीद्वययष्टिग्रहणात्पङ्गुलो राजेति लोके श्रूयते । यस्य गोमतीदासी षष्टिसहस्रेषु वाहेषु प्रक्षरां निवेश्याभिषेणयन्ती परचक्रं त्रासयति । राज्ञः श्रम एव कः ? । तस्य राज्ञो बहवो विद्वांसः । तत्रैको हीरनामा विप्रः । तस्य नन्दनः प्राज्ञचक्रवर्ती श्रीहर्षः । सोऽद्यापि बालावस्थः । सभायां राजकीयेनैकेन पण्डितेन वादिना हीरो राजसमक्षं जित्वा मुद्रितवदनः कृतः । लज्जा30 पक्के मग्नः । वैरं बभार धारालम् । मृत्युकाले हर्ष स बभाषे वत्स ! अमुकेन पण्डितेनाहमाहत्य
एतदन्तर्गतपाठस्थाने P पुस्तके 'इत्युक्त्वा देव्यो
1 P विहाय सर्वत्र '० मिवास ।' 2D विशिष्टिरेव । 3P शृङ्गारन० । गताः स्वस्थानम् ।' एष पाठः । 4 P बिना नास्त्यन्यत्र 'सह' । 5 P सन्तानम् । 6P पूर्वस्यां दिशि । 7 P तृप्यति ।
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हर्षकविप्रबन्धः। राजदृष्टी जितः। तन्मे दुःखम् । यदि सत्पुत्रोऽसि तदा तं जयेः मापसदसि । श्रीहर्षेणोक्तम्ओमिति । हीरो यां गतः। श्रीहर्षस्तु कुटुम्बभारमाप्तदायादेष्वारोप्य विदेशं गत्वा विविधाचार्यपार्थेऽचिरात्तर्का-लङ्कार-गीत-गणित-ज्योतिष-चूडामणि-मन्त्र-व्याकरणादी: सर्वा विद्याः सस्फुराः प्रजग्राह । गङ्गातीरे सुगुरुदत्तं चिन्तामणिमत्रं वर्षमप्रमत्तः साधयामास । प्रत्यक्षा त्रिपुराऽभूत् । अमोघादेशत्वादिवराप्तिः। तदादि राजगोष्ठीषु भ्रमति । अलौकिकोल्लेखशिखरितं 5 जल्प न, यं कोऽपि न बुध्यते। ततोऽतिविद्ययाऽपि लोकागोचरभूतया खिन्नः पुनर्भारती प्रत्यक्षीकृत्याभणत्-मातः! अतिप्रज्ञाऽपि दोषाय मे जाता। बुध्यमानवचनं मां कुरु । ततो देव्योक्तम्-तर्हि मध्यरात्रेऽम्भाक्लिन्ने शिरसि दधि पिव । पश्चात्वपिहि। कफांशावताराजडतालेशमामुहि । तथैव कृतम् । बोध्यवागासीत् । खण्डनादिग्रन्थान् परम्शताञ्जग्रन्थ । कृतकृत्यीभूय कासीमायासीत् । नगरतटे स्थितः। जयन्तचन्द्रमजिज्ञपत्-अहमधीत्यागतोऽस्मि । राजाऽपि 10 गुणलेहलो हीरजेतृपण्डितेन सह सचातुर्वर्ण्यः पुरीपरिसरमसरत । श्रीहर्षों नमस्कृतः। तेनापि यथार्हमुचितं लोकाय कृतम् , राजानं त्वेवं तुष्टाव. १५३. गोविन्दनन्दनतया च वपुःश्रिया च, माऽस्मिन् नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः ।
__ अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री, रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्री ॥१॥ व्याचख्यौ च तारखरं सरसविस्तरम् । तुष्टा सभा राजा च। पितृवैरिणं तु वादिनं दृष्ट्वा 15 सकटाक्षमाचक्षे१५४. साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रहग्रन्थिले, तर्के वा मयि संविधातरि सम लीलायते भारती।
___ शय्या वास्तु मृदूत्तरच्छदवती दर्भाडरैरास्तृता, भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतियोषिताम् ॥२॥ एतच्छुत्वा स वादी पाह-देव ! वादीन्द्र ! भारतीसिद्ध !, तव समोऽपि न, न वाधिका'। १५५. हिंस्राः सन्ति सहस्रशोऽपि विपिने शौण्डीर्यवीर्योद्धता,-स्तस्यैकस्य पुनः स्तवीमहि महः सिंहस्य विश्वोत्तरम् । 20
___केलिः कोलकुलैर्मदो मदकलैः कोलाहलं नाहलैः, संहर्षो महिषैश्च यस्य मुमुचे साहङ्कतेर्तुङ्क्तेः ॥ ३॥ - इदं श्रुत्वा श्रीहर्षो निष्क्रोध इवासीत् । भूपेनोक्तम्-+ अत्र श्रीहर्षे इदमेव वक्तुमहम् । प्रतिवादिनां कोऽर्थः । सम्यगवसरमज्ञासीः। श्रीहीरवैरिन्नित्यर्थः । अन्योऽन्यं गाढालिङ्गनमचीकरद् द्वयोरपि वसुन्धरासुधांशुः । विस्तरेण सौधमानीय माङ्गलिकानि कारयित्वा गृहं प्रति प्रहितः । लक्षसंख्यानि हेमानि ददिरे । निश्चिन्तीकृत्यैकदा मुदा नृपेणोक्ता-कवीश! वादीन्द्र !25 किञ्चित्प्रबन्धरत्नं कुरु । ततो नैषधं महाकाव्यं बद्धं दिव्यरसं महागूढव्ययभारसारम। राजें दर्शितम् । राज्ञोचे-सुष्टुतममिदम् । परं काश्मीरं व्रज । तत्रत्यपण्डितेभ्यो दर्शय । भारतीहस्ते च मुञ्च । भारती च तत्र पीठे स्वयं साक्षाद्वसति। असत्यं प्रबन्धं हस्ते न्यस्तमवकरनिकरमिव दूरे क्षिपति । सत्यं तु मूर्द्धधूननपूर्व मुष्ठु इत्यूरीकरोति । उपरितः पुष्पाणि पतन्ति। श्रीहर्षों राजदत्तार्थनिष्पन्नविपुलसामग्रीकः काश्मीरानगमत् । सरस्वतीहस्ते पुस्तकं न्यास्थत् । सरखत्या 30 दूरे क्षिसं तत् । श्रीहर्षेण कथितम्-किं जरतीति विकलासि, यन्मदुक्तमपि प्रबन्धमितरमबन्ध. .
एतदन्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके। 3 B वसुधांशुः। 4.B
- 1P भाचष्टे। 2 Pसमो कोऽपि न किं पुनरधिकः। राहो। D.केवळं।
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प्रबन्धकोशे मिव मन्यसे?। भारत्याह-भोः परमर्मभाषक ! न मरसि, यत्रोक्तं त्वया एकादशे सर्गे चतुःषष्टितमे काव्ये
१५६. देवी पवित्रितचतुर्भुजवामभागा वागालपत्पुनरिमां गरिमाभिरामाम् ।
एतस्य' निष्कृपकृपाणसनाथपाणेः पाणिग्रहादनुगृहाण गणं गुणानाम् ॥ ४॥ 5 एवं मां विष्णुपत्नीत्वेन प्रकाश्य लोके रूढं कन्यात्वं लुप्तवानसि । ततो मया पुस्तकं क्षिप्तम् ।
१५७. याचको वञ्चको व्याधिः पञ्चत्वं मर्मभाषकः । योगिनामप्यमी पञ्च प्रायणोद्वेगहेतवः ॥५॥ इति वाग्देवीवाचं श्रुत्वा श्रीहर्षों वदति-किमर्थमेकस्मिन्नवतारे नारायणं पतिं चक्रुषी। त्वं पुराणेष्वपि विष्णुपत्नीति पठ्यसे । ततः सत्ये किमिति कुप्यसि ? । कुपितैः किं छुव्यते कल.
कात्? । इति श्रुत्वा वयं गृहीत्वा पुस्तकं हस्ते धारितम् । ग्रन्थश्च श्लाघितः सभासमक्षम् । श्रीहर्षेण 10 पण्डिता उक्तास्तत्रत्या:-ग्रन्थमत्रत्याय राज्ञे माघवदेवनान्ने दर्शयत । श्रीजयन्तचन्द्राय च शुद्धोऽयं ग्रन्थ इति लेखं प्रदत्त । इति श्रुतेऽपि ग्रन्थे भारत्यभिमते ज्ञातेऽपि ते न लेखं ददते, न भूपं दर्शयन्ति । स्थितः श्रीहर्षों बहून मासान् । जग्धं पाथेयम् । विक्रीतं वृषभादि । मितीभूता परिच्छदः । एकदा नद्यासन्नदेशे कूपतटासन्नतमे देवकुले रुद्रजपं रहः करोति । तत्रागते कयोश्विद्गृहिणोरुल्लण्ठे चेव्यौ जलप्रथमपश्चाद्ग्रहणघटभरणविषये वादे लग्ने । तयोश्चिरमु15क्तिप्रत्युक्तिरभूत् । शीर्षाणि स्फुटितानि घातप्रतिघातैः । गते राजकुलम् । राजा साक्षिणं गवे. षयति । उक्ते ते-अत्र कलहे कोऽपि साक्षी विद्यते न वा? । ताभ्यां जगदे-विप्र एकस्तत्रास्ते जपतत्परः। गता राजकीयाः । आनीतः श्रीहर्षः पृष्टस्तयोर्नयानयो । श्रीहर्षेण गीर्वाणवाण्योक्तम्-देव! वैदेशिकोऽहम् । न वेद्मि किमप्येते प्राकृतवादिन्यो ब्रूतः। केवलं तान् शब्दान् वेनि।
राज्ञोक्तम्-ब्रूहि । तत्क्रमस्थमेव तदुभाषित-प्रतिभाषितशतमभिहितमनेन । राजा चमत्कृता20 अहो प्रज्ञा !, अहो अवधारणा!। दास्योर्वाद निर्णीय यथासम्भवं निग्रहानुग्रही कृत्वा प्रहित्य श्रीहर्षमपृच्छद् राजा-कस्त्वमेवं मेधिरशिरोमणिः । श्रीहर्षेणोक्तं सर्व कथानकं स्वम् । राजन्! पण्डितकृतदौर्जन्यात्तव पुरे दुःखी तिष्ठामि । सम्यक्पारम्पर्यज्ञो राजा पण्डितानाहूयावादीत्धिङ्मूढाः! ईदृशेऽपि रत्ने न लियथ ।
१५८. वरं प्रज्वलिते वह्नावहाय निहितं वपुः । न पुनर्गुणसम्पन्ने कृतः खल्पोऽपि मत्सरः ॥ ६ ॥ 25 १५९. वरं सा निर्गुणाऽवस्था यस्यां कोऽपि न मत्सरी । गुणयोगे तु वैमुख्यं प्रायः सुमनसामपि ॥७॥
तस्मात्खला यूयम् । गच्छत एतं महात्मानं प्रत्येकं खखगृहेषु सत्कुरुत । तदा श्रीहर्षः प्रागदत्
१६०. यथा यूनस्तद्वत्परमरमणीयापि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं केव कुरुते ।।
मदुक्तिश्चेतश्चेन्मदयति सुधीभूय सुधियः किमस्या नाम स्यादरसपुरुषाराधनरसैः १ ॥८॥ 30 इति ललजिरे पण्डिताः सर्वे । गृहं नीत्वा सत्कृत्यानुनीय राज्ञा च सत्कार्य 1 प्रहितः
श्रीहर्षः कासीम् । मिलितो जयन्तचन्द्राय । उक्तं सर्वम् । तुष्टः सः। प्रसृतं नैषधं लोके ।
1P अस्यारिनिष्कृ०। 2P सत्यं। 3P खगृ। 4P प्रागदीत्। 5 BDP लजिरे। 6BDE सत्कार्या।।
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हर्षकविप्रबन्धः ।
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(६५) अत्रान्तरे जयन्तचन्द्रस्य पद्माकरनामा प्रधाननरः श्रीअणहिलपत्तनं गतः । तत्र सरस्तदे रजकक्षालितायां शाटिकायां केतक्यामिव मधुकरकुलं निलीयमानं दृष्ट्वा विस्मितोऽप्राक्षीद्रजकम्यस्या युवतेरियं शाटी तां मे दर्शय । तस्य हि मन्त्रिणस्तत्पद्मिनीत्वे निर्णयस्थं मनः । रजन सायं तस्मै तगृहं नीत्वा, तामर्पयित्वा तत्खामिनी सूह्वदेविनाम्नी शालापतिपत्नी विधवा यौवनस्था सुरूपा दर्शिता । तां कुमारपालराजपार्श्वादुपरोध्य तद्गृहान्नीत्वा सोमनाथयात्रां 5 कृत्वा कासीं गतः । तां पद्मिनीं जयन्तचन्द्रभोगिनी मकरोत् । सूहवदेविरिति ख्यातिमगात् । साव सगर्वा विदुषीति कृत्वा 'कलाभारती' ति पाठयति लोके । श्रीहर्षोऽपि 'नरभारती' ति पठ्यते । तस्य तन्न सहते सा मत्सरिणी ।
६६६) एकदा ससत्कारमाकारितः श्रीहर्षः । भणितश्च त्वं कः ? । श्रीहर्ष : - ' कलासवज्ञो ऽहम् । राश्याsभाणि - तर्हि मामुपानहौ परिधापय । को भावः यद्ययं न वेद्मि इति भणति द्विजत्वा- 10 तर्हि अज्ञः । श्रीहर्षेणाङ्गीकृतम् । गतो निलयम् । 'तरुवल्कलैस्तथा तथा परिकर्मितैः सायं लोलाक्षः सन् दूरस्थः स्वामिनीमाजूहवत् । चर्मकारविधिनोपानहौ पर्यदीधपत्, अभ्युक्षणं निक्षिपध्वं चर्मकारोऽहमिति वदन् । राजानमपि तत्कृतां कुचेष्टां ज्ञापयित्वा खिन्नो गङ्गातीरे संन्यासमग्रहीत् । सा च सूहवदेविः साम्राज्येशा पुत्रमजनयत् । सोऽपि यौवनमाससाद । धीरः परं दुर्नयमयः । तस्य च राज्ञो विद्याधरमन्त्री । स च चिन्तामणिविनायकप्रसादात्सर्वधातु है- 15 मत्वकरणप्रख्यातमाहात्म्यस्पर्शपाषाणलाभात् ८८०० विप्राणां भोजनंदाता इति लघुयुधिविरतया ख्यातः । कुशाग्रीयप्रज्ञः' । राजा तं जगदे - राज्यं कस्मै कुमाराय ददामि ? । मध्याहमेघचन्द्राय सुवंशाय देहि, न पुनर्धृतापुत्राय । राजा तु तया कार्मणितस्तत्पुत्रायैव दित्सति । एवं विरोध उत्पन्नो मनि राज्ञोः । कथंकथश्चिन्मत्रिणा राज्ञीवाचमप्रमाणीकार्य भूपो मेघचन्द्रकुमाराय राज्यदानमङ्गीकारितः । राज्ञी क्रुद्धा । धनाढ्यतया स्वच्छन्दतया निजप्रधाननरान् 20 प्रेष्य तक्षशिलाधिपतिः सुरत्राणः कासीभञ्जनाय प्रयाणे प्रयाणे सपादलक्ष हेमदानेन चालितः । आयाति । ततु विद्याधरेण चरदृशा विदितम् । राज्ञे कथितम् । राजा तत्कार्मणदृढमूढः प्राहममेयं वल्लभेश्वरी नैवं पतिद्रोहं समाचरति । मन्त्री तु वदति - राजन् ! अमुकप्रयाणे तिष्ठति शाखीन्द्रः " । राज्ञा हक्कितो गतो गृहम् । चिन्तितं च तेन - नृपस्तावन्मूढः; राज्ञी बलवती, लब्धप्रसरा, अविवेकिनी । मम मरणं यदि " स्वामिमरणादर्वाग् भवेत्तदा धन्यता । प्रातश्चलितो 25 मी वसदनात् । पथि गच्छन्तं पिण्याकं दृष्ट्वा तमजिग्रसिषत् । पुनः पुरो गतः स्फुटितचनकपटक मालोक्य तददने मनोऽदधत् । तेन कुचेष्टाद्वयेनात्मनो विधिवैपरीत्यं निर्णीयोपराजं गत्वा व्यज्ञपयत्" - देव ! अहं गङ्गाजले मक्त्वा म्रिये, यद्यादिशसि । राज्ञाऽऽख्यातम् - " यदि ब्रियसे तदा सुखेन जीवामः । कर्णज्वरो निवर्त्तते । मन्त्री दूनः । हुं ! -
१६१. हितवचनानाकर्णनमनये वृत्तिः प्रियेष्वपि द्वेषः । निजगुरुजनेऽप्यवज्ञा मृत्योः किल पूर्वरूपाणि ॥ ९ ॥ आगतं राज्ञो मरणम् । राजानमापृच्छय गृहं गत्वा सर्वखं" द्विजातिलोकाय प्रदाय भववि
1P प्राक्षद् । 2 P सायं गत्वा । 3P 'तां' नास्ति । 4 P पाठते । 5 ABD तरुवल्कैः । 6P भोजनं । 7 A प्रायः । 8 P बिना सर्वत्र 'मेघचन्द्रराज्य०' । 9A कार्मणमूढः; P कार्मणदिङ्मूढः । 10 A साखीन्द्रः । 11 P 'यदि' नाखि । 12 P व्यज्ञपत् । 13P राजाऽख्यत्; B राजाख्यात् । 14 A गृहे । 15 P सर्वं । 16 P द्विजादि० ।
८ प्र० को ०
30
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रक्तो जाह्नवीजलमध्यं प्रविश्य कुलपुरोहितमाह-दानं गृहाण । विप्रेणापि करः प्रसारितः । दत्तः स्पर्शपाषाणः । तेनोक्तम्-धिक ते दानम् !, यद्भावाणं दत्से । इति क्रुद्धेनान्तरुदकं चिक्षिपे । सोऽइमा गङ्गादेच्या ललें । मन्त्री जले मङ्क्त्वा मृतः । राजा अनाथो जातः । सुरत्राण आयातः । नगरे' भाण्डं भाण्डेन स्फुटितम् । राजा युद्धायाभिमुखमागात् । ८४०० [* एतावन्ति निखा5 नानि निजदले परं एकस्यापि ] निखानखनं राजा न शृणोति । आपृच्छच तटस्थान् । तैर्बभणेम्लेच्छधनुर्ध्वानेषु मग्नानि ध्वानान्तराणि । राजा हृदयेऽहारयत् । ततो न ज्ञायते किं हतो गतो मृतो वा । [ गङ्गाजलेऽपतत्* ] यवनैर्लाता पूः ।
॥ इति श्रीहर्ष - विद्याधर - जयन्तचन्द्रप्रबन्धः ॥ ११ ॥
१२. अथ हरिहरप्रबन्धः ।
10 ९६७) श्रीहर्षवंशे हरिहरः । गौडदेश्यः सिद्धूसारखतः । स गुर्जरधरां प्रत्यचालीत् । अश्वशतद्वयम्, मानवानां शतपञ्चकम्, करभाः पञ्चाशत्, अनिवार मन्नदानम् । धवलक्ककतटग्राममागात् । राणश्री वीरधवल - श्रीवस्तुपाल-श्रीसोमेश्वरदेवेभ्यः पृथक पृथक आशीर्वादं प्रगल्भबद्धहस्तेन प्राहैषीत् । श्रीवस्तुपालो जहर्ष । उत्थाय बहुं सह नीत्वा श्रीवीरधवलाय पण्डितस्याशीर्वादमदीहशत्, तद्गुणांचावर्णयत् । राणकेनोक्तम्-किमत्र युक्तम् ? | मन्याह - देव ! विस्तरेण प्रातः पण्डि15 तस्य प्रवेशमहोत्सवः क्रियते । विपुलं देयं दीयते । राणकेनोक्तम् न्याय्यम् । ततो निवृत्तो मन्त्रिराजश्च बहुश्च । बहुना तृतीयाशीर्वादः पण्डितसोमेश्वरदेवायादर्शि' । तत्कवितया तस्य मात्सर्यमदीपिष्ट । सनिःश्वासमधोऽद्राक्षीत् । बहुं 'चालापीदपि न । आगत" उत्थाय बहुर्हरिहरान्तिकम् । उक्त राणक-मन्त्रिणोः सौमनस्यम्, सोमेश्वरस्य तु दौर्मनस्यम् । कुपितः सोमेश्वरदेवे हरिहरः । जातं प्रातः । राणकः समत्रिकः सचातुर्वर्ण्यः सर्वय सम्मुखो गतः । मिलितो 20 हरिहरः । तत्र वीरधवलं प्रति
प्रबन्धको...
25
१६२. शम्भुर्मानससन्निधौ सुरधुनीं मूर्ध्ना दधानः स्थितः, श्रीकान्तश्चरणस्थितामपि वहन्त्रेतां निलीनोऽम्बुधौ । मग्नः पङ्करुहे कमण्डलुगतामेनां दधन्नाभिभू, मन्ये वीर ! तव प्रतापदहनं ज्ञात्वोल्बणं भाविनम् ॥ १ ॥ १६३. दृष्टस्तेन शरान्किरन्नभिमुखः क्षत्रक्षये भागवो, दृष्टस्तेन निशाचरेश्वरवधव्यग्रो रघुग्रामणीः । स्तेन जयद्रथप्रमथनोन्निन्द्रः सुभद्रापति, ईष्टो येन रणाङ्गणे सरभस चौलुक्यचूडामणिः ॥ २ ॥
बटुः पृष्टः पण्डितेन - अत्र सदसि सोमेश्वरोऽस्ति न वा ? । बहुराह-स क्रोधान्नागतः । पण्डितो ज्ञात्वाऽस्थात् । जातः प्रवेशः । राणकेन दत्तं सौधं" धन-कुप्य- वसन-परिजन तुरगादिचमत्कारकम्" ।
९६८) अथ मन्त्रिगृहं गतोऽसौ । गुर्वी सभा । मत्र्यभ्युत्थानं चक्रे । ऊचे च
१६४. सुधा मधु मुधा सीधु मुधा सोऽपि सुधारसः । आस्वादितं मनोहारि यदि हारिहरं वचः ॥ ३ ॥
1 A विप्रेण । 2 P जले । 5. A अदीदिशत्; DE अदिशत् । आयातः । 11 DP सौध० ।
3 AC नगरं । * P पुस्तक एवायं 6 AC प्रवेशोत्सवः । 7 A दर्शितः 12 B चमत्कारम् ।
।
कोष्ठकगतः पाठः प्राप्यते । 4 P हारयामास । 8AP कवि ० । 9 AC बटुवा० । 10 A
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हरिहरप्रबन्धः। पण्डिस्तूचे-देव! लघुभोजराज! विचारचतुर्मुख! सरस्वतीकण्ठाभरण ! अवधारय । वयं पण्डिताः । अस्माकं माता भारती । सा च त्रिभुवनचारिणी । एकदा भारत्या सह महेन्द्रस्य सभामगमाम । सा च सुधर्मा नाम । इन्द्रः श्रीमान् । ३ कोट्यः सुराङ्गनाः । ८४ सहस्राणि सामानिकाः। तथा
१६५. द्वादशार्का वसवोऽष्टौ विश्वेदेवास्त्रयोदश । षट्त्रिंशत् तुषिताश्चैव षष्टिराभाखरा अपि ॥ ४॥ १६६. पत्रिंशदधिके माहाराजिकाश्च शते उभे । रुद्रा एकादशैकोनपञ्चाशद्वायवोऽपि च ॥५॥
१६७. चतुर्दश तु वैकुण्ठाः सुशर्माणः पुनर्दश । साध्याश्च द्वादशेत्याद्याः प्रसिद्धा गणदेवताः ॥ ६॥ . [*एतत्समृद्धिखरूपं विलोक्य] वयं विस्मिताः स्थिताः-अहो! तपःफलभोगः। [-*इत्यादि चिन्तयन्तो यावता मः] अत्रान्तरे आगतस्तत्र कश्चन बुम्बावक्त्रः। १६८. देव! स्वर्नाथ ! कष्टं ननु क इह भवान्नन्दनोद्यानपालः
खेदस्तत्कोऽद्य केनाप्यहह हृत इतः काननात्कल्पवृक्षः । हुं मा वादीस्तदेतत्किमपि करुणया मानवानां मयैव
प्रीत्यादिष्टोऽयमुास्तिलकयति तलं वस्तुपालच्छलेन ॥ ७ ॥ - एवं तत्रालापं श्रुत्वा विस्मितोऽहं भारत्या सह पञ्चमं 'कल्पद्रुमं त्वां द्रष्टुमागाम् । एवं सविस्तरं' काव्यं व्याख्याय स्थितः पण्डितः । मन्त्री यावत्किं ददामि-इति चिन्तयति तावद् 15 डोडीयवंश्यराणभीमदेवेन जात्या वाहनोत्तीर्णाश्चतुर्विशतिरश्वा एकं च दिव्यं पदकं प्राभृतमानीतम् । तदेव पण्डिताय सर्व दत्तम् । तुष्टोऽसौ पञ्चमः कल्पतरुर्भवसि इत्युक्त्वा खोत्तारकमगात् । गतेषु कतिपयेष्वहःसु मिलितायां सभायां पुरःस्थे सोमेश्वरे राणकेन पण्डितहरिहर उक्ता-पण्डित! अत्र पुरेऽस्माभिर्वीरनारायणाख्यः प्रासादः कारितोस्ति । तत्प्रशस्तिकाव्यान्यटोत्तरं शतं सोमेश्वरदेवपार्धात्कारितम् । तत्र भवन्तोऽवदधतु । यथा शुद्धत्वे निश्चयो भवति 20 ज्ञानाम् । महालक्ष्मीदृष्टौ नाणकपरीक्षा यतः।हरिहरेणोक्तम्-कथाप्यन्तां तानि । उक्तानि सोमेश्वरेण।तानि श्रुत्वा हरिहर ऊचे-देव! सुष्टु काव्यानि परिचितानि च नः। यतो मालवीयेषूज्जयनी गतैरस्माभिः सरखतीकण्ठाभरणप्रासादगर्भगृहे पट्टिकायां श्रीभोजदेववर्णनाकाव्यान्यमून्यदृक्षत' । यदि तु प्रत्ययो नास्ति तदा परिपाट्या श्रूयन्ताम् । इत्युक्त्वा क्रमेणास्खलितान्यपाठीत् । खिन्नो राणकः । प्रीताः खलाः । व्यथिताः श्रीवस्तुपालादयः सजनाः। उत्थिता सभा। 25 हत इव मृत इव स्तभित इव जडित इव जातः सोमेश्वरः । गतः खगृहम् । हिया वदनं न दर्शयति गृहेऽपि, का कथा राजादिसदनगमनस्य ।
६६९) अथ सोमेश्वरः श्रीवस्तुपालमन्दिरं गत्वोवाच-मन्निन् ! ममैव तानि काव्यानि; नान्यथा । मम च" शक्तिं जानासि त्वम् । हरिहरस्त्वेवं मां व्यजूगुपत् । किमहं करोमि। मन्याह-तमेव शरणं श्रय । यतः
30
1A अगमम् । 2.A ३० कोट्यः। 3A ८४०. सप्तसहः। 4A धिकं । * P पुस्तक एवैष कोष्टकगतः पाठो विद्यते। 5 P कोऽपि बुम्बां पातयन्नाह । 6P पञ्चकल्प० । 7 P विस्तरं । 8 P तानि श्रुत्वा तानि हरिः। 9 A अदृश्यत । 10P श्रूयतां। 11 'च' नास्ति P1 12 AC'वं नास्ति ।
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(प्रबन्धको
१६९. भजते विदेशमधिकेन जितस्तदनु प्रवेशमथवा कुशलैः ।
[*मुखमिन्दुरुज्वलकपोलमितः प्रतिमाच्छलेन सुतनोरविशत् ॥ ]
इति न्यायात् । पण्डितः - तर्हि तन्त्र' मां नय । तथाकृतं मन्त्रिणा । पण्डितसोमेश्वरं बहिरासयित्वा मन्त्री स्वयं हरिहरान्तिकमगात् । वभाण च - पण्डितसोमेश्वर देवस्तवान्तिकमागतोऽस्ति विज्ञीप्सुः । हसितो हरिहरः । आनीनयत्स्वसमीपम् । चकाराभ्युत्थानालिङ्गनमहासनादिसत्कारम् । सोमेश्वरेणोक्तम् - पण्डित ! निस्तारय मामस्मात्परकाव्यहरणकलङ्कपङ्कात् । यतः१७०. आगतस्य निजगेहमप्यरेगौरवं विदधते महाधियः ।
मीनमात्मसदनं समेयुषो गीष्पतिर्व्यधित तुङ्गतां कवेः ॥ ८ ॥
तुष्टो हरिहरो भणति स्म - मा स्म चिन्तां विधाः । पुनगौरवमारोपयिताऽस्मि त्वाम् । गतः 10 स्वस्थानं मन्त्री सोमेश्वरश्च । प्रत्यूषे राणकस भाभरे सोमेश्वर आह्रायितः । प्रस्तावना चारब्धा । यथा - जयति परमेश्वरी भारती, यत्प्रसादादेवं मम शक्तिः । श्रीवस्तुपालेनोक्तम्- किं किम् ? । हरिहरः - देव! मया कावेरीनदीतटे सारखतो' मन्त्रः साधितः । होमकाले गीर्देवी प्रत्यक्षाऽऽसीत् । वरं वृणीष्वेत्याह स्म माम् । मया जगदे - जगदेकमातर् ! यदि तुष्टाऽसि तदा एकदा भणितानां १०८ सङ्ख्यानां ऋचां षट्पदानां काव्यानां वस्तुकानां घत्तानां दण्डकानां वाऽवधारणे समर्थो 15 भूयासम् । देव्याचष्ट तथाऽस्तु । ततः प्रभृति यो यदाह १०८ तत्तु ब्रुवे । यथेदं सोमेश्वरदेवोपज्ञ काव्याष्टोत्तरशतम् । राणकेनोक्तम्-प्रत्ययः कार्यताम् । भाणितान्यष्टोत्तरशतानि तत्त च्छन्दसाम्; प्रतिभाणितानि च हरिहरेण तानि । जातो निश्चयः । पण्डितहरिहरवचने क्षुत्तृष्णातपप्रभृतिचिन्तानपेक्षः स्थितो लोकः । राणकेश्वरेण बभणे- तर्हि पण्डित ! कथमेवं दूषितः सोमेश्वरः ? । हरिहरः प्राभाषत - देव ! राणेन्द्र' ! 'पण्डितेन मय्यवज्ञा दधे । तत्फलमिदं ददे । यतः
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१७१. प्रियं वा विप्रियं वापि सविशेषं परार्पितात् । प्रत्यर्पयन्ति ये नैव तेभ्यः साप्युर्वरा वरा ॥ ९ ॥ राणः प्राह्-तर्ह्यस्त्वेवम् । परं मिथः सरखतीपुत्रयोः स्नेहो युक्तः । इत्युक्त्वा कण्ठग्रहणमकारयत् । स्थितो निष्कलङ्कः सोमेश्वरः । वर्तते नित्यमिष्टगोष्टी । हरिहरो नैषधकाव्यान्यवसरोचि - तानि पठति । श्रीवस्तुपालः प्रीयते-अहो ! अश्रुतपूर्वाणि काव्यान्यमूनि । एकदाssलापितः हरिहरः' - पण्डित ! कोऽयं ग्रन्थः ? । पण्डितो वदति - नैषधं महाकाव्यम् । कः कविः ? | श्रीहर्षः 25 वस्तुपालेन गदितम् - तदादर्श दर्शय तर्हि । पण्डितो ब्रूते- नान्यत्रायं ग्रन्थः । चतुरो यामानर्पयिष्यामि पुस्तिकाम् | अर्पिता पुस्तिका । रात्रौ सद्यो लेखकनियोगिभिर्लेखिता नवीना पुस्तिका । जीर्णरज्वावृता, वासन्यासेन धूसरीकृत्य मुक्ता । प्रातः पण्डिताय पुस्तिका दत्ता । गृह्यतां तदिदं "स्वं नैषधम् । गृहिता पण्डितेन पुस्तिका । मन्त्रिणा न्यगादि - अस्माकमपि कोशे किलास्तीवेदं शास्त्रमिति स्मरामः । विलोक्यतां कोशः । यावद्विलम्बेनैवं कृष्टा नवीना प्रतिः । यावच्छोट्यते' 30 तावत् 'निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथा' इत्यादि नैषधमुदघटिष्ट । दृष्ट्वा पण्डितहरिहरेणोक्तम्- मन्त्रिन् ! तवैव मायेयम् ।
2 A विज्ञाप्सुः । 3A व्यधुः । 4A सरस्वती० । 5 P ' माम्' नास्ति । P पुस्तके | 7 P पण्डितहरिहरः कोऽयं । 8P स्वनै0 19P • च्छोध्यते । 1 A आदर्शे 'निपीय यस्य क्षितिरक्षिणः कथास्तथाद्रियन्ते न बुधाः सुधामपि । नलः सितच्छत्रितकीर्तिमण्डलः स राशिरासीन्महसां महोज्ज्वलः ॥' इदं सम्पूर्ण पद्यं लिखितं लभ्यते ।
* एतदुत्तरार्द्धपद्यभागः A आदर्श एव लभ्यते, नान्यत्र । 1 P 'तत्र' नास्ति । 6P राण । + एतद्दण्डान्तर्गतः पाठः पतितः
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अमरप्रबन्धः।
'यदीदृशेषु कार्येषु नान्यस्य क्रमते मतिः ।' युक्तं त्वया दण्डिताः प्रतिपक्षाः । स्थापितानि जैन-वैष्णव-शैवशासनानि च । उदश्चितः खामिवंशः। यस्यैवं प्रज्ञा प्रकाशते ।
६७०) अत्रान्तरे वीरधवलाहितसैन्यचम्पितेन महाराष्ट्रप्रभुणा सपादकोटिहेमप्रमितो दण्डः प्रहितः। श्रीवस्तुपालेन तु तद्धेम चतुर्दिग्यात्रिकेभ्यो याचकेभ्योऽदापि विवेकात् । तद् दृष्ट्वा 5 हरिहरो वर्णयति१७२. आः! साम्यं न सहेऽहमस्य किमपि क्रोडीकृतैकश्रिया', याचोत्तानकरण खर्वितनिजाकारोष्मणा शाङ्गिणा ।
येनैताः पुरुषोत्तमाधिकगुणोद्भारेण युद्धार्णवादा,-कृष्यैव तथा श्रियः शकलशः कृत्वाऽर्थिनामर्पिताः ॥ १०॥ तदा वीरधवलस्य 'सपादकोटीकाञ्चनवर्षः' इति भट्टादिषु विरुदं ख्यातिमायातम् । ६७१) अथ हरिहरः सोमेश्वरं नन्तुं गतो देवपत्तनम् । पण्डितसोमेश्वरदेवस्य तत्र तदूदौर्जन्यं 10 स्मृत्वा विषण्णेन काव्यं भणितम्१७३. व यातु कायातु क वदतु समं केन पठतु, क काव्यान्यव्याज रचयतु सदः कस्य विशतु ।
___ खलव्यालग्रस्ते जगति न गतिः क्वापि कृतिना,-मिति ज्ञात्वा तत्त्वं हर! हर! 'विमूढो हरिहरः ॥११॥ १७४. आरुक्षाम नृपप्रसादकणिकामद्राक्ष्म लक्ष्मीलवान् , किञ्चिद्वाङ्मयमध्यगीष्महि गुणैः कांश्चित्पराजेष्महि ।
इत्थं मोहमयीमकार्म कियती नानर्थकन्यां मनः, स्वाधीनीकृतशुद्धबोधमधुना वाञ्छत्यमापगाम् ॥ १२॥ 15 इत्युक्त्वा धनाई दत्त्वा शेषार्द्ध गृहीत्वा धवलक्ककमध्ये भूत्वा राणक-मन्त्रिणी आपृच्छय कासी प्राप्य स्वार्थमसाधयदिति ॥
॥ इति हरिहरप्रबन्धः समाप्तः ॥ १२॥
१३. अथ अमरचन्द्रकविप्रवन्धः। ७२) श्रीअणहिल्लपत्तनासन्नं वायटं नाम महास्थानमास्ते। चतुरशीतिमहास्थानानामन्यतमत्। 20 तत्र परपुरप्रवेशविद्यासम्पन्नश्रीजीवदेवसूरिसन्ताने श्रीजिनदत्तसूरयो जगर्जुः । तेषां शिष्योऽमरो नाम 'प्रज्ञालचूडामणिः । स श्रीजिनदत्तसूरिभक्तात् कविराजात् अरसिंहात् सिद्धसारखतं मन्त्रमग्रहीत् । तद्गच्छमहाभक्तस्य विवेकनिधेः कोष्ठागारिकस्य पद्मस्य विशालतमे "सदनैकदेशे विजने एकविंशत्याचाम्लैनिद्राजयासनजयकषायजयादिदत्तावधानस्तं मन्त्रमजपत् । विस्तरेण होमंच" चक्रे । एकविंशतितम्यां रात्रौ मध्यप्राप्तायां नभस्यभ्युदिताचन्द्रबिम्बान्निगत्य 25 स्वरूपेणागत्यामरं भारती करकमण्डलुजलममलमपीप्यत् । वरं च प्रादात्-सिद्धकविर्भव; निःशेषनरपतिपूजागौरवितश्चैधि । इति वरं दत्त्वा गता भगवती । जातः कविपतिरमरः । रचिता 'काव्यकल्पलता' नाम कविशिक्षा, 'छन्दोरत्नावली', 'सूक्तावली' च । 'कलाकलापाख्यं' च शास्त्रं निबद्धं, 'बालभारतं' च । बालभारते प्रभातवर्णने
1P प्रकाश्यते। 2P सैन्यकम्पितेन । 3 Poथियो। 4 P हरहरिमूढो। 5 P .कन्थी। 6P परकायप्र० A परपुरुषप्र०। 7 P प्रज्ञाचू०। 8 P कविराज अरिसिं०। 9P विना नास्त्यन्यत्रेदं पदम् । 10 A विशालनाम्नः। 11 A तमे सद। 12 P 'च' नास्ति । 13 P प्राक्षीत् । 14 P गौरवताश्चैधि ।
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प्रबन्धकोशे
१७५. दधिमथनविलोललोलहगवेणिदम्भादयमदयमनङ्गो विश्वविश्वकजेता ।
. भवपरिभवकोपत्यक्तबाणः 'कृपाणश्रममिव दिवसादौ व्यक्तशक्तिर्व्यनक्ति ॥१॥ इत्यत्र वेण्याः कृपाणत्वेन वर्णनाद 'वेणीकृपाणोऽमर' इति विरुदं कविवृन्दाल्लब्धम् । दीपिकाकालिदासवत्, घण्टामाघवच्च । कवित्वप्रसिद्धेश्च महाराष्ट्रादिराजेन्द्राणां पूजा उपतस्थिरे । 5६७३) तदा 'वीसलदेवो राजा गूर्जराधिपतिर्धवलकके राज्यं शास्ति । तेनामरकवेर्गुणग्रामः
श्रुतः । ठक्कुरं वइजलं प्रधानं प्रेष्य प्रातराहूतः कवीन्द्रः । आसनादिप्रतिपत्तिः कृता। सभा महती। अमरेण पठितम्१७६. वीक्ष्यैतद्भुजविक्रमक्रमचमत्कारं नकारं मयि, प्रेम्णो नूनमियं करिष्यति गुणग्रामैकगृह्याशया ।
श्रीमद्वीसलदेव ! देवरमणीवृन्दे त्वदायोधनप्रेक्षाप्रक्षुभिते विमुञ्चति परीरम्भान्न रम्भा हरिः॥२॥ 10 १७७. त्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधननिधनितारातिवीरातिरेकक्रीडत्कीलालकुल्यावलिभिरलमत स्पन्दमाकन्दमुर्वी ।
दम्भोलिस्तम्भभास्वद्भुज ! भुजगंजगद्भर्तुराभर्तुरेनां तेनायं मूर्ध्नि रत्नद्युतिततिमिषतः शोभते शोणभावः ॥ ३॥ रञ्जिता सभा, प्रीणितः पृथ्वीपालः । ततो राज्ञा प्रोक्तम्-यूयं कवीन्द्राः श्रूयध्वे । अमरोऽभिधत्ते-सत्यमेव, यदि गवेषयति देवः । ततो नृपेण सोमेश्वरदेवे दृष्टिः सञ्चारिता । ततः सोमेश्वरेण समस्याऽर्पिता । यथा
___शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूलोचनानामशीतिः' । अमरेण सद्यः पूरिता१७८. कैषा भूषा शिरोऽक्ष्णां तव भुजगपते ! रेखयामास भूत्या
द्यूते मन्मूर्ध्नि शम्भुः सदशनवशतान(९१०)क्षपातान् विजित्य । गौरी त्वानञ्ज दृष्टीर्जितनखनवभू(१९२०)स्तद्विशेषात्तदित्थं
शीर्षाणां सैव वन्ध्या मम नवतिरभूल्लोचनानामशीतिः ॥ ४॥ अत्र शिरोऽक्ष्णामिति शिरसा युक्तानामक्षणामिति मध्यमपदलोपी समासः कार्यः । इन्द्रे तु प्राण्यङ्गत्वादेकत्वं प्राप्नोति । ६७४) ततो वामनस्थलीयकविसोमादित्येन समस्या दत्ता
___'धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः' । 25. अमरेणोक्तम्
१७९. भवस्याभूद् भाले हिमकरकला ऽग्रे गिरिसुताललाटस्याश्लेषे हरिणमदपुण्ड्रप्रतिकृतिः ।
कपईस्तत्प्रान्ते यदमरसरित्तत्र तदहो! धनुष्कोटौ भृङ्गस्तदुपरि गिरिस्तत्र जलधिः ॥५॥ ६७५) ततः कृष्णनगरवास्तव्येन कमलादित्येन समस्या वितीर्णा
. 'मशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम्' । 30 अमरेण पुपूरे
१८०. तटविपिनविहारोच्छृङ्खलं यत्र यादोमशकगलकरन्ध्रे हस्तियूथं प्रविष्टम् ।।
बत बक! न कदाचित्किं श्रुतोऽप्येष वार्द्धिः प्रतनुतिमिनि तल्ले कापि गच्छ क्षणेन ॥ ६ ॥ ६७६) अथ वीसलनगरीयेण नानाकेन समस्या विश्राणिता
___ 'गीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु' । - 1 कृपाणः। 2P लब्धममरेण । 3A प्रसिद्धिश्च । 4 AC विश्वल। 5 P .योधने प्रेक्ष्य । GA भुजयुगलजगद् P भुजगभुजजगद् ।
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अमरचन्द्रकविप्रबन्धः।
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अमरेणोक्तम्-' - १८१. श्रुत्वा ध्वनेर्मधुरतां सहसाऽवतीणे भूमौ मृगे विगतलाञ्छन एष चन्द्रः ।
मा गान्मदीयवदनस्य तुलामितीव गीतं न गायतितरां युवतिर्निशासु ॥ ७॥ एवमष्टोत्तरं शतं बहुकविदत्ताः पूरिताः समस्याः श्रीअमरेण । ततो राज्ञाऽभिहितम्-सत्यं कविसार्वभू(भौ)मः श्रीअमरः। तत्र दिने सन्ध्यावधि सभा निषपणा स्थिता । राजा लडितः 5 सभ्यलोकोऽपि।
रसावेशे हि कालो बर्गच्छन्नपि न लक्ष्यते ।। द्वितीयदिने सद्यः काव्यमयैः प्रमाणोपन्यासैः प्रामाणिका जिताः। तृतीयदिने राज्ञा पृष्टम्अस्माकं सम्प्रति का चिन्ताऽस्तीति कथ्यताम् । अमरेण भणितम्-देव! कथं दूरं गताः । स्वर्ग ऐरावणस्य दक्षिणकर्णे लुकिताः । भूपतिः स्वसंवादेऽमोदत, शिरोऽधुनोत् । नित्यं गमनागमने 10 जिनधर्मासन्नः कृतो राजा । चैत्येषु पूजाः कारयति ।
६७७) एकदा नृपेण पृष्टम्-भवतां कः कलागुरुः ? । अमरेण गदितम्-'अरसिंहः कविराज इति । तर्हि प्रातरत्रानेयः । अमरचन्द्रेणानीतः प्रातः कविराज उपराजम् । तदा राजा खङ्गेन श्रमयन्नास्ते। राज्ञा पृष्टम्-अयं कविराजः १ । कविराजेन व्याजहे-ओमिति । राजाह-तर्हि वद कालोचितं किश्चित् । अरसिंहः कवयति
१८२. त्वत्कृपाणविनिर्माणशेषद्रव्येण वेधसा । कृतः कृतान्तः, 'सर्पस्तु करोद्वर्त्तनवर्तिभिः ॥ ८ ॥ १८३. "अर्थीच्छाभ्यधिकार्पणं किमपि यः पाणेः कृपाणे गुणः, सञ्चक्राम स यद्ददौ धुपदवीं प्रत्यर्थिषु क्ष्मार्थिषु ।
'तत्सङ्गान्न स बद्धमुष्टिरभवद्येनारिपृथ्वीभुजां, पृष्ठेषु खमपि प्रकाममदितप्रोद्दामरोमोगमः ॥९॥ १८४. कलयसि किमिह कृपाणं वीसल ! बलवन्ति शत्रुषु तृणानि । यानि मुखगानि तेषां तवैष लचयितुमसमर्थः॥१०॥ १८५. देव ! त्वं मलयाचलोऽसि भवतः श्रीखण्डशाखीभुज,-स्तत्र क्रीडति कजलाकृतिरसिर्धाराद्विजिह्वः फणी। 20
एष स्वाङ्गमनर्गलं रिपुतरुस्कन्धेषु संवेष्टयन , दीर्घ व्योमविसारि निर्मलयशो निर्मोकमुन्मुञ्चति ॥ ११ ॥ अद्भुतकवितादर्शनात्कविराजो राजेन्द्रेण नित्यसेवकः कृतः । ग्रासो महान् प्रत्यष्ठापि ।
एकदा श्रीवीसलदेवेन भोजनान्ते तृणं करे धृत्वारसिंहोऽभिदधे-इदं तृणं सयो वर्णय। यदि रुचितभङ्गया वर्णयसि, तदा "ग्रासद्वैगुण्यम् ; अन्यथा सर्वग्रासत्याजनम् । इत्युक्तिसमकालमेवाहतप्रतिभतया स ऊचे
25 १८६. क्षारोऽब्धिः शिखिनो मखा विषमयं श्वभ्रं क्षयीन्दुर्मुधा, प्राहुस्तत्र सुधामियं तु दनुजत्रस्तेव लीना तृणे। पीयूषप्रसवो गवां यदशनाद्दत्त्वा यदास्ये निजे, देव ! त्वत्करवालकालमुखतो निर्याति जातिषिाम् ॥ १२ ॥
ध्वनितो भूपालः । ग्रासद्वैगुण्यं कृतम् । F७८) कालान्तरेऽमरेण कोष्ठागारिकपद्मगिरा पद्मानन्दाख्यं शास्त्रं रचितम् । एवं कविताकल्लोलसाम्राज्यं प्रतिदिनम् ॥
॥ इति अमरचन्द्रकविप्रबन्धः ॥ १३॥
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1A नास्ति पदमेतत् । 2P जाताः। 3 P अरिसिंह। 4 A कथयति । 5A कृतान्तसर्प। 6P अत्यर्थाभ्यधिः। 7P स्वत्सः। 8P मुदित। 9Pन चैप। 10P स्तम्भः क्रीडति। 11 P संवेष्टयेद। 12 Aनित्यं । 13 A द्वैगुण्यं पासस्य । 14 DE यवशनहत्त्वा। 15 P चमत्कृतो।
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... प्रबन्धकोशे
१४. अथ मदनकीर्तिप्रवन्धः । ६७९) उज्जयिन्यां विशालकीर्तिदिगम्बरः । तच्छिष्यो मदनकीर्तिः। स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिनः सर्वान् विजित्य 'महाप्रामाणिकचूडामणिः' इति विरुदमुपायं स्वगुर्वलतामुज्जयिनीमागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रुतंतत्कीर्तिः स मदनकीर्तिः भूयिष्ठम5 श्लाघिष्ट । सोऽपि प्रामोदिष्ट । दिनकतिपयानन्तरं च गुरुं न्यगदीत्-भगवन् ! दाक्षिणात्यान् वादिनो विजेतुमीहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम्-वत्स ! दक्षिणां मा गाः। स हि भोगनिधिदेशः। को नाम तत्र गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् । एतद्गुरुवचनं विलय विद्यामदाध्मातो जालकुद्दालनिःश्रेण्यादिभिः प्रभूतैश्च शिष्यैः परिकरितो महाराष्ट्रादिवादिनो
मृद्गन् कर्णाटदेशमाप। 10 ६८०) तत्र विजयपुरे कुन्तिभोज नाम राजानं वयं त्रैविद्यविदं विद्वत्मियं सदसि निषण्णं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श । तमुपश्लोकयामास१८७. देव! त्वद्भुजदण्डदर्पगरिमोद्भारप्रतापानल, ज्वालापक्रिमकीर्तिपारदघटीविस्फोटिनो बिन्दवः ।
शेषाहिः कति तारकाः कति कति क्षीराम्बुधिः कस्यपि, प्रालेयाचलशङ्खशुक्तिकरकाकर्पूरकुन्देन्दवः ॥१३॥ १८८. कीर्तिः कैकत! कुन्तिभोज! भवतः खर्वाहिनीगाहिनी, दिक्पालान् परितः परीत्य दधती भावन्मयं गोलकम् । 15 लचित्वाऽम्बुधिसप्तमण्डलभुवस्त्वय्येकपत्नीव्रत,-ख्यात्यै विष्णुपदं स्पृशत्यविरतं शेषाहिशीर्षाण्यपि ॥ १४ ॥
चमत्कृतो राजा। स्थापितो दिगम्बरः सौधासन्नदेशे। राज्ञादिष्टम्-ग्रन्थमेकं कुरु, अस्मत्पूर्वजवर्णनप्रतिबद्धम् । तेनोक्तम्-देव ! अहं श्लोकपञ्चशती एकस्मिन् दिने कर्तुं क्षमः, तावत्तु लेखितुं न क्षमोऽस्मि । कश्चिल्लेखकः समय॑ताम् । राज्ञोक्तम्-अस्मत्पुत्री मदनमञ्जरी नाम 'लिखिष्यति जवनिकान्तरिता सती । दिगम्बरेण ग्रन्थः कर्तुमारेभे । राजपुत्री पञ्चशतीं लिखति । एवं कत्य20 प्यहानि ययुः।
६.८१) एकदा राजसुता तस्य स्वरं कोकिलरवजित्वरं शृण्वती सती चिन्तयति-अस्य रूपमपि सुन्दरं भविष्यति । जवनिकान्तरितया कथं दृश्यते ? । करोमि तावदुपायम् । रसवत्यां लवणबाहुल्यं कारयामि । सोऽपि राजपुत्री तादृग्विदुषीं सुखरां दिदृक्षते । लवणातिशये दिक्पट ऊचे-अहो लवणिमा !। राजपुत्र्याऽभिदधे-अहो निष्ठुरता!। एवमालाप-प्रत्यालापे दूरे कृते' 25 उभाभ्यां मर्यादामयी वस्त्रमयी च जवनिके । परस्परं दिव्यरूपदर्शनम् ।तावता दिग्वस्त्रेणोक्तम्१८९. निरर्थकं जन्म गतं नलिन्याः , यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् ।
राजसुतयाऽपि भणितम्
उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव, दृष्टा प्रबुद्धा नलिनी न येन ॥ १५ ॥ ततश्चक्षुःप्रीतिमुद्भवन्तीवा"ऽपराणि कुसुमचापचापलानीति वचनान्निरर्गले मदने भग्नं कौमा30 रव्रतं तयोः।"वर्त्तते विकथा । अल्पो निष्पद्यते ग्रन्थः । सायं राजा विलोकयति शास्त्रम् । को हेतुरद्य स्तोकं निष्पन्नम् ? । दिगम्बरस्तेषु त्रिचतुराणि विषमाणि पद्यानि निक्षिपते । ततो राजाने ___1A अगात् । 2 A परम्परया; DE परम्पराच्छ्रुतः। 3 AD 'वत्स' नास्ति । 4 A परिवारितो। 5A लेखिष्यति । 6 P ग्रन्थं । 7 Pसोऽपि दिग्वस्त्रः। 8P कृता। 9 P जवनिका । 10 A अभाणि। 11A चा०। 12 A वर्द्धतेतिकथा । 13 A तेषु पद्येषु।
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मदनकीर्तिप्रबन्धः। भणति-देव! ममेयं प्रतिज्ञा-अहमबुध्यमानस्य लेखितुः पार्थान्न लेखयामि । तव तु पुत्र्या इदं स्थानं कृच्छ्रेण बुद्धम् । इति कालविलम्बाद ग्रन्थाल्पत्वं जायते । राजेन्द्रो विमृशति-शठोत्तरमेवेदं दृश्यते। एकदा हेरयामि, किमिमौ समाचरतः। निशायां विभातायां एकदा राजा छन्नरूप एकाकी तयोग्रन्थनिष्पत्तिप्रदेशकुड्यान्तरेऽस्थात् । तदैव दिक्पटो राजपुत्रीं प्रति प्रणयकलहानुनयगर्भमाह१९०. सुभ्र ! त्वं कुपितेत्यपास्तमशनं त्यक्त्वा कथा योषितां, दूरादेव निराकृताः सुरभयः स्वर्गन्धधूपादयः ।
रागं रागिणि ! मुञ्च मय्यवनते दृष्टे प्रसीदाधुना, सत्यं त्वद्विरहे भवन्ति दयिते ! सर्वा ममान्धा दिशः ॥ १६ ॥ एतत्काव्यश्रवणाद् द्वयोदौःशील्यं निर्णीय मन्दपदं निर्ययो । स्थानं गतो वसुधाधिपतिः । क्रुद्धेन तेन तत्कालमाहूतो दिक्पटः। आगतः। भाषितो यथा-पण्डित ! किमिदं नवीनं पद्यम्-'सुश्रु! त्वं कुपितेत्यपास्तमशनम्' इत्यादि । दिग्वसनेन विमृष्टम्-राज्ञा हेरितोऽहम् । अपराधी लब्धः । 10 तथाप्युत्तरं ददामि। यथातथेति चिन्तयित्वाऽवनिपतिमभ्यधात्-देव! दिनद्वयात्प्रभृति दृग् मे पीडार्ता वर्तते । तदुपश्लोकेनानुनयपरं' पद्यमिदमपाठिषम् । इति प्रस्तावनां कृत्वा निक्षोभस्तयैव भङ्गया सद्यो व्याचचक्षे । तया सूक्त्या तुष्टोऽन्तः क्षितिपः, अकृत्यकरणदर्शनात्तु रुष्टः । ततः सधूभङ्गं भृत्यानूचे-बनीत रे! अमुं कुकर्मकारिणम् , घातयत च । बद्धस्तैः । तदाकर्ण्य राजपुत्री द्वात्रिंशता सखीभिः शस्त्रिकापाणिभिः समं 'शस्त्रिकापाणिरागात् । राजदृष्टिमेत्य स्वयमकथ.15 यत्-यद्यमुं मे मनोरुच्यं मुञ्चसे तदा चारु । अथ न मुञ्चसे तदा चतुस्त्रिंशद्धत्यास्तव भवितारः। एका दिगम्बरहत्या त्रयस्त्रिंशद्युवतिहत्या इति । ततो राजा मन्त्रिभिर्विज्ञप्तः-देव ! त्वयैवेयमस्यासन्नीकृता । यूनां स्त्रीसन्निधानं च मन्मथद्रुमदोहदः। कस्य दोषो दीयते ।
१९१. चित्रस्था अपि चेतांसि हरन्ति हरिणीदृशः । किं पुनस्ताः स्मरस्मेरविभ्रमभ्रमितेक्षणाः ॥ १७ ॥ मुच्यतां प्रसद्य दिग्वस्त्रः । इयं चास्यैव भवतु । इति श्रुत्वा तं मुक्त्वा तां तस्यैव पत्नीमकरोत् ।20 स च राज्यांशभाजनं कृतः। दिग्जयधनानि श्वशुरसाचकार । व्रतं त्यक्त्वा भोगी जातः । तं तादृशं वृत्तान्तं विशालकीर्त्तिगुरुरुजयिन्यामश्रौषीत् । अध्यासीच-अहो ! यौवनधनकुसङ्गानां महिमा । येनायमेवंविधोऽपि व्रती विद्वान् वादी योगज्ञो भूत्वा एवंविधं उग्रदुर्गतिपतनमूलं कुपथं प्रपन्नः । हा! हा! धिम् । १९२. परिच्छेदातीतः सकलवचनानामविषयः, पुनर्जन्मन्यस्मिन्ननुभवपथं यो न गतवान् ।
विवेकप्रध्वंसादुपचितमहामोहगहनो, विकारः कोऽप्यन्तर्जडयति च तापं च तनुते ॥ १८॥ एवं विमृश्य चतुरांश्चतुरः शिष्यांस्तबोधनाय प्राहैषीत् । तैस्तत्र गत्वोक्तोऽसौ१९३. विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात् क्षणभङ्गुरात् , कुरुत करुणाप्रज्ञामैत्रीवधूजनसङ्गमम् ।
न खलु नरके हाराकान्तं घनस्तनमण्डलं, भवति शरणं श्रोणीबिम्ब "क्वणन्मणिदाम वा" ॥ १९॥ इत्यादि-गुरुभिर्बोध्यमानोऽसि"; बुध्यस्व, मा मुहः । सोऽथ निस्त्रपतया तेषां हस्ते गुरुभ्य: 30 पद्यानि पत्रे लिखित्वा प्रजिघाय । गतास्ते तत्र । वाचितानि पद्यानि गुरुणा
1P.श्लोकायानुनयः। 2P प्रज्ञया। 3A कृत्यक०। 4 P नास्ति 'ततः। 5 'शस्त्रिकापाणिः' नास्ति P पुस्तके । 6P नास्ति 'स्तव'। 7A एकः। 8A .हत्यायां। 9ADE नास्ति 'राजा'। 10P धनानि च। 11 A कुरुते । 12 A भजत। 13 P रणन् । 14 A च। 15 PE ऽपि। .
९ प्र० को.
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६६
: प्रबन्धकोशे १९४. तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासौ गुरुय॑स्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ २० ॥ १९५. प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनान्तरैः । प्राप्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा ॥ २१ ॥
१९६. सन्दष्टाधरपल्लवा सचकितं हस्ताग्रमाधुन्वती, मा मा मुञ्च शठेति कोपवचनैरानतितभ्रूलता। 5 सीत्काराञ्चितलोचना सरभसं यैश्चुम्बिता मानिनी, प्राप्तं तैरमृतं श्रमाय मथितो मूढैः सुरैः सागरः ॥ २२ ॥ इत्यादि श्रुत्वा तस्थौ तूष्णीं गुरुः । मदनकीर्तिस्तु व्यलासीद्विविधम् ।
॥ इति मदनकीर्तिप्रबन्धः ॥१४॥
१५. अथ सातवाहनप्रबन्धः। ६८२) इह भारते वर्षे दक्षिणखण्डे महाराष्ट्रदेशावतंसं श्रीमत्प्रतिष्टानं नाम पत्तनं विद्यते । 10 तच निजभूत्याभिभूतपुरन्दरपुरमपि कालान्तरेण क्षुल्लकग्रामप्रायमजनिष्ट । तत्र चैकदा द्वौ
वैदेशिकद्विजो समागत्य विधवया खस्रा साकं कस्यचित् कुम्भकारस्य शालायां तस्थिवांसौ । कणवृत्तिं विधाय कणान् स्वसुरुपनीय तत्कृताहारपाकेन समया कुरुतः स ।
६.८३) अन्येाः सा तयोर्विप्रयोः वसा जलाहरणाय गोदावरी गता। तस्याश्च रूपमप्रतिरूपं निरूप्य स्मरपरवशोऽन्तर्हदवासी शेषो नाम नागराजो हदान्निर्गत्य विहितमनुष्यवपुस्तया सह 15 बलादपि सम्भोगकेलिमकलयत्। भवितव्यताविलसितेन तस्याः सप्तधातुरहितस्यापि तस्य दिव्य
शक्त्या शुक्रपुद्गलसञ्चाराद गर्भाधानमभवत् । खनामधेयं प्रकाश्य व्यसनसङ्कटे मां स्मरेरित्यभिधाय च नागराजः पाताललोकमगमत् । सा च गृहं प्रत्यगच्छत् । व्रीडापीडिततया च स्वभ्रात्रोस्तं वृत्तान्तं न खलु न्यवेदयत् । कालक्रमेण सहोदराभ्यां गर्भलिङ्गानि वीक्ष्य सा जातगर्भा इत्यलक्ष्यत । ज्यायसस्तु मनसि शङ्का जाता-यदियं खलु कनीयसोपभुक्ता इति । शङ्कनी20 यान्तराभावात् यवीयसोऽपि चेतसि समजनि विकल्पः-नूनमेषा ज्यायसा सह विनष्टशीला इति । एवं मिथःकलुषिताशयौ विहाय तामेकाकिनी पृथक् पृथग् देशान्तरमयासिष्टाम् । साऽपि प्रवर्द्धमानगर्भा परमन्दिरेष कर्माणि निर्मिमाणा प्राणवृत्तिमकरोत। क्रमेण प्रणेऽनेहसि सर्वलक्षणलक्षिताङ्गं प्रासूत "सूनुम् । स च क्रमाद्वपुषा गुणैश्च वर्द्धमानः सवयोभिः सह रममाणो बालक्रीडया खयं भूपतीभूय तेभ्यो वाहनानि करितुरगरथादीनि कृत्रिमाणि दत्तवान् 25 इति । सनोतेर्दानार्थत्वाल्लोकः 'सातवाहनः' इति व्यपदेशं लम्भितः । खजनन्या पाल्यमानः
सुखमवस्थितः। __८४) इतश्चोजयिन्यां श्रीविक्रमादित्यस्यावन्तिनरेशितुः सदसि कश्चिन्नैमित्तिकः' सातवाहनं प्रतिष्ठानपुरे भाविनं नरेन्द्रमादिशत् ।
६८५) अथैतस्यामेव पुर्यामेकः स्थविरविप्रः स्वायुरवसानमवसाय चतुरः खतनयानाहूय प्रोक्त30 वान् यथा-वत्सा! मयि पुरेयुषि मदीयशय्योच्छीर्षकदक्षिणपादादारभ्य चतुर्णामपि पादानामधो
1 BE 'दृष्ट्वा'। 2 P तस्याः स्वरूप० । 3 BD स्वं नाम। 4 AE सोदर्याभ्यां । 5 P नास्ति 'चेतसि' । GP सुतम्। 7A नैमित्तिकनिमित्तकः। 8 P ज्ञावा। 9P मृते । 10 A शिज्योच्छीर्षक० ।
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सातवाहनप्रबन्धः।
वर्तमानं निधिकलशचतुष्टयं युष्माभिर्यथाज्येष्ठं विभज्य ग्राह्यम् , येन भवतां निर्वाहः सम्पनीप. द्यते । पुत्रैस्तु तथेत्यादेशः खीचक्रे पितुः । तस्मिन्नुपरते तस्यौदेहिकं कृत्वा त्रयोदशेऽहनि भुवं खात्वा यथायथं चतुरोऽपि निधिकलशास्ते जग्रहिरे।यावदुद्घाट्य विलोकयन्ति तावत्प्रथमस्य कुम्भे कनकम् , द्वैतीयीकस्य कृष्णमृत्स्ना, तृतीयस्य बुशम् , तुरीयस्य त्वस्थीनि ददृशिरे। तदनु ज्यायसा साकमितरे त्रयो विवदन्ते स्म-तदस्मभ्यमपि विभज्य कनकं वितरेति । तस्मिंश्चावितरति सति । तेऽवन्तिपतेर्द्धर्माधिकरणमुपास्थिषत । तत्रापि न तेषां वादनिर्णयः समपादि । ततश्चत्वारोऽपि ते महाराष्ट्रजनपदमुपानंसिषुः । सातवाहनकुमारस्तु कुलालमृदा हस्तिरथसुभटानन्वहं नवनवान् विदधानः कुलालशालायां बालक्रीडादुर्ललितः कलितस्थितिरनयत् समयम् । ते च द्विजतनुजाः प्रतिष्ठानपत्तनमुपेत्य परतो भ्रमन्तस्तस्यामेव चक्रजीविनः शालायां तस्थिवांसः। सातवाहनस्तु तानवेक्ष्येगिताकारकुशलःप्रोवाच-भो विप्राः! किं भवन्तो वीक्षापन्ना इव वीक्ष्यन्ते । 10 तैस्तु जगदे-जगदेकसुभग! कथमिव वयं चिन्ताचान्तचेतसस्त्वयाऽज्ञासिष्महि । कुमारेण बभणे-इङ्गितैः किमिव नावगम्यते । तैरुक्तम्-युक्तमेतत् । परं भवतः पुरो निवेदितेन चिन्ताहेतुना किं स्यात् ? । बालः खलु भवान् । बाल आलपत्-यदि परं जातु मत्तोऽपि साध्यं वः सिध्यति, तन्निवेद्यतां स चिन्ताहेतुः । ततस्ते तद्वचनवैचित्रीहृतहृदयाः सकलमपि स्वस्वरूपं निधिनिरयणादि मालवेशपरिषद्यपि विवादानिर्णयान्तं तस्मै निवेदितवन्तः । कुमारस्तु स्मित-15 विच्छुरिताधरोऽवादीद्-भो विप्राः! अहं यौष्माकं झगटकं निर्णयामि, श्रूयतामवहितैः । यस्मै वप्ता कनककलशं प्रददे, स तेनैव निवृत्तोऽस्तु । यस्य कलशे कृष्णमृत्स्ना निरगात् स क्षेत्रकेदारादीन गृह्णातु । यस्य तु बुशं स कोष्ठागारगतधान्यानि सर्वाण्यपि स्वीकुरुताम् । यस्य चास्थीनि निरगुः सोऽश्वमहिषीदासीदासादिकमुपादत्ताम्-इति युष्मजनकस्याशयः। इति क्षीरकण्ठोक्तं श्रुत्वा सूत्रकण्ठाः छिन्नविवादाः तद्वचनं प्रतिश्रुत्य तमनुज्ञाप्य प्रत्याययः स्वां नगरीम् । प्रथिता 20 सा तद्विवादनिर्णयकथा पुर्याम् । राज्ञाप्याकार्य ते पर्यनुयुक्ताः-किं नु भो! भवतां वादनिर्णयो जातः ? । तैरुक्तम्-आम" खामिन् ! । केन निर्णीतः ?-इति नृपेणोदिते ते सातवाहनस्वरूपं सर्वमवितथमकथयन् ।
६८६) तदाकर्ण्य तस्य शिशोरपि बुद्धिवैभवं विभाव्य, प्रागुक्तं दैवज्ञेन तस्य प्रतिष्ठाने राज्यं च भविष्यतीत्यनुस्मृत्य तं खप्रतिपन्थिनमाकलय्य क्षुभितमनास्तन्मारणौपयिकमचिन्तयत् चिरं-5 नरेश्वरः । "अभिमरादिप्रयोगैारिते चास्मिन्नयशा-क्षात्रवृत्तिक्षती जायेतामिति विचार्य सन्नद्धचतुरङ्गचमूसमूहोऽवन्तिपतिः प्रस्थाय प्रतिष्ठानपत्तनं यथेष्टमवेष्टयत् । तदवलोक्य ते ग्राम्यास्त्रस्ताश्चिन्तयन्ति स्म-कस्योपरि अयमेतावानाटोपः सकोपस्य मालवेशस्य ? । न तावदत्र राजा राजन्यो वा वीरस्तादृग् दुर्गादि वा!-इति चिन्तयत्सु तेषु मालवेशप्रहितो दूतः समेत्य सातवाहनमवोचत्-भो कुमारक ! तुभ्यं नृपः क्रुद्धः। प्रातस्त्वां मारयिष्यति । अतो युद्धाय" 30 चिन्तनावहितेन भवता भाव्यमिति । स च श्रुत्वाऽपि "दूतोक्तं निर्भयं निरन्तरं क्रीडन्नेवास्ते । ___1 P खनित्वा। 2A द्वैतीयकस्य । 3 P धर्माधिकारिणः। 4 'ते' नास्ति P। 5 P .दुर्ललितकलितः। 6 P त्वया ज्ञाताः। 7 P वैचित्र्यः। 8P निर्गमनादि। 9A निर्णय ते। 10 P छिन्नवादाः। 11 P ओम्। 12 A भविप्यदनुस्मृत्य; E भविष्यत्यनु०। 13 मारणोपायः। 14 BE अभिघातकनरादि०; P अभिघातकरादि। 11 P युद्धाधुपाय० । 15 E श्रुत्वापि न दूनो; P श्रुत्वापि दूतोक्कीः।
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प्रबन्धकोशे ___ अत्रान्तरे विदितपरमार्थौ तौ तन्मातुलावितरेतरं प्रति विगतदुर्विकल्पो पुनः प्रतिष्ठानमागतो। परचक्रं दृष्ट्वा तां स्वभगिनीं प्रोचतुः-हे वसः ! येन दिवौकसा तवायं तनयो दत्तस्तमेव स्मर । यथा स एवास्य साहाय्यकं विधत्ते । साऽपि तद्वचसा प्राचीनं नागपतेर्वचः स्मृत्वा शिरसि निवेशितघटा गोदावर्या नागहृदं गत्वा लात्वा च तमेव नागनायकमाराधयत् । तत्क्षणान्नागराजः 5 प्रत्यक्षीभूय वाचमुवाच ब्राह्मणीम्-को हेतुरहमनुस्मृतस्त्वया? । तया च प्रणम्य यथावस्थितमभिहिते बभाषे शेषराजः-मयि प्रतपति कस्तव तनयमभिभवितुं क्षमः ? । इत्युदीर्य घटमादाय हृदान्तर्निमज्य पीयूषकुण्डात्सुधया घटं प्रपूर्य च तस्यै दत्तः। ऊचे च-त्वमनेनामृतेन सातवाहनकृतमृन्मयाश्वरथगजपदातिजातमभिषिञ्चेस्तथा तत्सजीवं भूत्वा परबलं भनक्ति; त्वत्पुत्रं
च प्रतिष्ठानपत्तनराज्ये अयमेव पीयूषघटोऽभिषेक्ष्यति । प्रस्तावे पुनः स्मरणीयोऽहमित्युक्त्वा 10 स्वास्पदमगमद् भुजङ्गपुङ्गवः। साऽपि सुधाघटमादाय खसद्मोपेत्य तेन तन्मृन्मयं सैन्यमदैन्यमभ्युक्षामास । प्रातर्दिव्यानुभावतः सचेतनभूय तत्सैन्यं संमुखं गत्वा युयुधे परानीकिन्या सार्द्धम् । तया सातवाहनपृतनया भग्नमवन्तीशितुर्बलम् । विक्रमनरपतिरपि पलाय्य ययाववन्तीम् । तदनु सातवाहनो राज्येऽभिषिक्तः। प्रतिष्ठानं च निजनिजविभूतिपरिभूतवखोकसाराभिधानं धवलगृह-देवगृह-हद्दपति-राजपथ-प्राकार-परिखादिभिः सुनिविष्टमजनिष्ट पत्तनम् । 15 सातवाहनोऽपि क्रमेण दक्षिणापथमनृणं विधाय तापीतीरपर्यन्तं चोत्तरापथं साधयित्वा स्वकीयसंवत्सरं प्राचीवृतत् । जैनश्च समजनि । अचीकरच जनितजननयनशैत्यानि चैत्यानि । पञ्चाशद्वीरा अपि प्रत्येकं स्वस्वनामाङ्कितानि अन्तनगरं कारयांबभूवुर्जिनभवनानि ।
$८७) परसमयलोकप्रसिद्धं सातवाहनचरित्रं शेषमपि किञ्चिदुच्यते।-श्रीसातवाहने क्षिति रक्षति सति पश्चाशद्वीराःप्रतिष्ठाननगरान्तस्तदा वसन्ति स्म, पञ्चाशन्नगराद्वाहिः। इतश्च तत्रैव पुरे 20 एकस्य द्विजस्य सूनुर्दपोद्धरः शूद्रकाख्यः समजनि । स च युद्धश्रमं दर्पात् कुर्वाणः पित्रा खकुलानुचितमिदमिति प्रतिषिद्धोऽपि नास्थात् । अन्येयुः सातवाहननृपतिर्बापला-खूदलादिपुरान्तवर्तिवीरपञ्चाशदन्वितो द्विपञ्चाशद्धस्तप्रमाणां शिलां श्रमार्थमुत्पाटयन् दृष्टः पित्रा समं गच्छता द्वादशाब्ददेशीयेन शूद्रकेण । केनापि वीरेणाङ्गुलीचतुष्टयं केनचित्षडङ्गुलान्यपरेण त्वङ्गुलान्यष्टौ शिला भूमित उत्पाटिता। महीजानिना त्वाजानु नीता। इत्यवलोक्य शूद्रकः स्फूर्जदूर्जितमवादीत्25 भो ! भो! भवत्सु मध्ये किं शिलामिमां मस्तकं यावन्न कश्चिदुद्धर्जुमीष्टे । तेऽपि "सेय॑मवादिषुयथा-त्वमेवोत्पाटय यदि समर्थमन्योऽसि । शूद्रकस्तदाकर्ण्य तां शिला" वियति तथोच्छालयांचकार" यथा दूरमूर्ध्वमगमत् । पुनरवादि शूद्रकेण-यो भवत्सु अलम्भूष्णुः स खलु इमां निपतन्तीं स्तनातु । सातवाहनादिवीरैर्भयो,भ्रान्तलोचनैरूचे स एव सानुनयम् , यथा-भो महाबल! रक्ष रक्ष, आम माकीनान् प्राणान् इति । स पुनस्तां पतयालु तथा मुष्टिप्रहारेण प्रहतवान् , यथा 30 सा त्रिखण्डतामन्वभूत् । तत्रैकं शकलं योजनत्रयोपरि न्यपतत् । द्वैतीयिकं च खण्डं नागहृदे । तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे चतुष्पथमध्ये निपतितमद्यापि तथैव "वीक्ष्यमाणमास्ते जनः। तद्बलविल
1A प्राचीन। 2 P पत्यौ। 3 BP नास्ति पदमेतत् । 4 P वं चानेन; BE वं वानेन। 5 P यथा। GP षेकयिष्यति। 7A विस्वौक०; P वस्त्वौक०। 8 A महीपतिना। 9 P समर्थः। 10 AB तदर्थम । 11 A नास्ति । 12 ABचके। 13 AE अलंकरिष्णुः। 14 P भयादू० । 15A अस्माकीयान् । 16 P विखण्डमः। 17 ABE वक्ष्यमाण।
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सातवाहनप्रबन्धः ।
सितचमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शूद्रकं सुतरां सत्कृत्य पुरारक्षकमकरोत् । शस्त्रान्तराणि प्रतिषिध्य दण्डधारस्तस्य दण्डमेवायुधमन्वज्ञासीत् । शूद्रको बहिश्चरान् वीरान् पुरमध्ये प्रवे. टुमपि न दत्तवान् , अनर्थनिवारणार्थम् ।।
६८८) अन्यदा खसौधस्योपरितले शयानः सातवाहनक्षितिपतिमध्यरात्रे शरीरचिन्तार्थमुत्थितः । पुराबहिःपरिसरे करुणं रुदितमाकर्ण्य तत्प्रवृत्तिमुपलब्धुं कृपाणपाणिः परदुःख- 5 दुःखितहृदयतया गृहान्निरगात् । अन्तराले शूद्रकेणावलोक्य सप्रश्रयं प्रणतः, पृष्टश्च महानिशायां निर्गमनकारणम् । धरणीपतिरवदत्-यदयं बहिःपुरपरिसरे करुणकन्दितध्वनिः श्रवणाध्वनि पथिकीभावमनुभवन्नस्ति । तत्कारणप्रवृत्तिं ज्ञातुं व्रजन्नस्मि-इति राज्ञोक्ते शुद्रको व्यजिज्ञपत्-देव! प्रतीक्ष्यपादैः खसौधालङ्करणाय पादोऽवधार्यताम् । अहमेव 'तत्प्रवृत्तिमानेष्यामि । इत्यभिधाय वसुधानायकं व्यावर्त्य स्वयं रुदितध्वन्यनुसारेण पुरावहिर्गन्तुं 10 प्रवृत्तः। पुरस्ताद् व्रजन् दत्तकर्णो गोदावर्याः स्रोतसि कञ्चन रुदन्तमौषीत् । ततः परिकरबन्धं विधाय शुद्रकस्तीवा यावत्सरितो मध्यं प्रयाति; तावत्पयःपूरप्लाव्यमानं नरमेकं रुदन्तं वीक्ष्य बभाषे-भोः! कस्त्वम् ?, किमर्थं च रोदिषि ?। इत्यभिहितः स नितरामरुदत् । अति निर्बन्धेन पुनः पृष्टः स्पष्टमाचष्ट-भो साहसिकशिरोमणे! मामितो निष्कास्य भूपतेः समीपं प्रापय, येन तत्र खवृत्तमाचक्षे। इत्युक्तः शुद्रकस्तमुत्पाटयितुं यावदयतिष्ट तावन्नो-15 पटति स्म सः। ततोऽधस्तात्केनापि यादसा मा' विधृतोऽयं भवेद्-इत्याशङ्कय सद्यः कृपाणिकामधो वाहयामास शुद्रकः। तदनु शिरोमात्रमेव शूद्रकस्योद्धत्तुः करतलमारोहत् लघुतया । "तच्छिरःप्रक्षरद्रुधिरधारमवलोक्य शूद्रको विषादमाप । 'ततश्चिन्तयति स्म-धिर ! मामप्रहर्तरि प्रहारं शरणागतघातकं च" । इत्यात्मानं निन्दन वज्राहत इव क्षणं मूर्च्छितस्तस्थौ । तदनु समधिगतचैतन्यश्चिरमचिन्तयत्-कथमिवैतत्सुदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेदयिष्यामि । इति लजि-20 तमनास्तत्रैव काष्टैश्चितां विरचय्य तत्र ज्वलनं प्रज्वाल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदुदर्चिषि प्रवेष्टुं प्रववृते तावत्तेन मस्तकेन निजगदे-भो महापुरुष ! किमर्थमित्थं व्यवसीयते भवता? । "यावदहं शिरोमात्रमेवास्मि सैं हिकेयवत् सदा । तद् वृथा मा विषीद। प्रसीद, मां राज्ञः समीपमुपनय । इति तद्वचनं निशम्य चमत्कृतचित्तः प्राणित्ययमिति प्रहृष्टः शुद्रकस्तच्छिरः पदां
ष्टितं विधाय प्रातः सातवाहनमुपागमत । अपृच्छदथ' पृथिवीनाथ:-शद्रक! किमिदम् ?125 सोऽप्यवोचत्-देव! सोऽयं यस्य ऋन्दितध्वनिर्देवेन रात्रौ शुश्रुवे । इत्युक्त्वा तस्य प्रागुक्तं वृत्तं सकलमावेदयत् । पुना राजा तमेव मस्तकमप्राक्षीत्-कस्त्वं भो!, किमर्थं चात्र भवदागमनमिति?। तेनाभिदधे-महाराज ! भवतः कीर्तिमुभाकर्णि समाकर्ण्य करुणरुदितव्याजेनात्मानं ज्ञापयित्वा "त्वामहमुपागमम् । दृष्टश्च भवान् । कृतार्थे मेऽद्य चक्षुषी जाते इति । कां कलां सम्यगवगच्छसि ?-इति राज्ञ आज्ञया निरवधि" गीतं गातुं प्रचक्रमे । क्रमेण तद्गानकलया30 मोहिता सकलापि नृपतिप्रमुखा परिषत् । स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां मायां निर्माय महीए
1A दुःस्थित। 2 AB निरगमत् । 5A निर्गमकाः। 4 P अहमपि प्र०। 5 P इति। 6P नास्ति 'पृष्टः' । 7P'मा' नास्ति। 8 P.तया शिरः। 9P मापनश्चिन्तयति। 10P विहाय नास्स्यन्यत्रेदं पदम् । 11A घातकमवेस्यात्मानं। 12 'व्यवसीयते' स्थाने 'करोषि' P पुस्तके। 13 ‘भवता यावदु' नास्ति P पुस्तके। 14 P राहुवत् । 15 P नास्ति 'अथ'। 16P कीर्तिमाकर्ण्य । 17 'त्वां' नास्ति । 18 BEP निरवगीते गीतं ।
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प्रबन्धकोशे
तेर्महिषी महनीयरूपधेयामपजिहीर्षुरुपागतो बभूव । न च विदितचरमेतत्कस्यापि । लोकैस्तु शीर्षमात्रदर्शनात् तस्य प्राकृतभाषया 'सीसुला' इति व्यपदेशः कृतः। तदनु प्रतिदिनं तस्मिन्नतितुम्बरी मधुरतरं गायति सति श्रुतं तत्स्वरूपं महादेव्या दासीमुखेन । भूपं विज्ञाप्य तच्छीर्ष खान्तिकमानायितम । प्रत्यहं तमजीगपत् राज्ञी। दिनान्तरे रात्री प्रस्तावमासाद्य सद्य 5 एवापहरति स्म तां मायासुरः। आरोपयामास च तां घण्टावलम्बिनामनि स्वविमाने । राज्ञी च करुणं क्रन्दितुमारेभे-हा! अहं केनाप्यपहिये । अस्ति कोऽपि वीरः पृथिव्यां यो मां मोचयति। 'तत्खरं खून्दलाभिख्येन वीरेण श्रुत्वा व्योमन्युत्पत्य च तद्विमानस्य घण्टा पाणिना गाढमधार्यत । ततस्तत्पाणिनाऽवष्टब्धं विमानं पुरस्तान प्राचालीत् । तदनु चिन्तितं मायासुरेण-किमर्थ विमानमेतन्न सर्पति । यावदद्राक्षीत्तं वीरं हस्तावलम्बितघण्टम् । ततः खड्नेन तद्भस्तमच्छिदत् । 10 पतितः पृथिव्यां वीरः। स चासुरः पुरः प्राचलत् । ततो विदितदेव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः
पञ्चाशतमेकोनां वीरानादिशत्-यत्पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियतां केनेयमपहृतेति । ते प्रागपि शूद्रक प्रत्यसूयापराः प्रोचुः-महाराज! शुद्रक एव जानीते । तेनैव तच्छीर्षकमानीतम् । तेनैव च देवी जहे । ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपणमाज्ञापयत् । तदनु देशरीतिवशात्तं रक्तचन्दनानुलिताङ्गं शकटे शाययित्वा, तेन सह गाढं बद्ध्वा, शूलायै यावद्राजपुरुषाश्चेलुः, तावत्पश्चाशदपि 15 वीराः संभूय शूद्रकमवोचन्-भोः महावीर ! किमर्थ रण्डेव म्रियते भवान् । 'अशुभस्य काल
हरण'मिति न्यायात् मार्गय नरेन्द्राकतिपयदिनावधिम् , शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम् । किमकाण्डे एव स्वकीयां वीरत्वकीर्तिमपनयसि ? । तेनोक्तम्-गम्यतां तर्हि उपराजम् । विज्ञाप्यतामेनमर्थ राजा । तैरपि तथा कृते प्रत्यानायितः शूद्रकः क्षितीन्द्रेण । तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृता-महाराज! दीयतामवधिः । येन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीं तदपहारिणं च । राज्ञा दिनद20 शकमवधिदत्तः । शूद्रकगृहे च सारमेयद्वयमासीत् तत्सहचारि । नृपतिरवदत्-एतद्भषणयुगलं प्रतिभूप्रायमस्मत्पार्चे मुश्च । खयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये हिण्डतां महीमण्डलम् । सोऽप्यादेशः प्रमाणमित्युदीर्य प्रवीर्यवान् प्रतस्थे । भूचक्रशक्रस्तत्कौलेयकद्वन्द्वं शृङ्खलाबद्धं शय्यापादयोरबन्नात् । शुद्रकस्तु परितः पर्यटाट्यमानोऽपि यावत्प्रस्तुतार्थस्य वार्तामात्रमपि कापि नोपलेभे, तावदचिन्तयत्-अहो! ममेदमयशः प्रादुरभूत्। यदयं खामिद्रोही मध्ये भूत्वा देवीम25 मपाजीहरदिति । न च कापि शुद्धिलब्धा तस्याः। तस्मान्मरणमेव मम शरणम् । इति विमृश्य दारुभिश्चितामरचयत्" । ज्वलनं चाज्वालयत् । यावन्मध्यं प्रविशेत् तावत्ताभ्यां शुनकाभ्यां देवताधिष्ठिताभ्यां ज्ञातम्-यदस्मदधिपतिनिधनं ध्यायन्नस्तीति। ततो दैवतशक्त्या शृङ्खलानि' भक्त्वा निर्विलम्बौ गतौ तौ तत्र यत्रासीच्छूद्रकरचिता चिता। दशनैः केशानाकृष्य शूद्रकं
बहिनिष्कासयामासतुः" । तेनापि अकस्मात्तौ विलोक्य विस्मितमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ! 30 किमेतत्कृतं भवद्भ्यामशुभवद्भ्याम् ? । राज्ञो मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति, यत्प्रतिभुवावपि तेनात्मना सह नीतौ । अर्थ" भषणाभ्यां बभाषे-धीरो भव अस्मद्दर्शितां दिशमनुसर । सरभसं का चिता तव !। इत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थितौ तेन सार्द्धम् । क्रमात्माप्तौ कोल्लापुरम् ।
1P मधुरस्वरं। 2P तच्च। 3ABE बूंदलाभिख्य-खूदला। 4 A एकोनान् । 5AE आदिक्षत्। GP'च' नास्ति । 7A उपतस्थे। 8P पादेऽवलीत् । 9P पर्यटत् । अट्यमानो। 10 P नास्ति 'मध्ये'। 11A मारचत् । 12 Pप्राविशत् । 13 BE धनायन्नस्ति; P वाच्छन्नस्ति । 14 A शृङ्खला। 15Pास। 16P'भथ' नास्ति।
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सातवाहनप्रबन्धः। तत्रस्थं महालक्ष्मीदेव्या भवनं प्रविष्टौ । तत्र शूद्रकस्तां देवीमभ्यर्च्य कुशस्रस्तरासीनस्त्रिरात्रमुपावसत् । तदनु प्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्-वत्स! किं मृगयसे ?। शूद्रकेणोक्तम्-स्वामिनि ! सातवाहनमहीपालमहिष्याः शुद्धिं वद । *कास्ते केनेयमपहृता ?। श्रीदेव्योदितम्-सर्वान् यक्षराक्षसभूतादिदेवगणान् सम्मील्य तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि । परं तेषां कृते त्वया बल्युपहारादि प्रगुणीकृत्य धार्यम् । यावच्च ते कणेहत्य बल्यादि उपभुज्य प्रीता न 5 भवेयुस्तावत्त्वया विघ्ना रक्षणीयाः। ततः शूद्रको देवतानां तर्पणार्थ कुण्डं विरचय्य होममारेभे। मिलिताः सकलदैवतगणाः। खां खां भुक्तिमग्निमुखेन जगृहिरे । तावत्तद्धोमधूमःप्रसमरः प्राप तत्स्थानं यत्र मायासुरोऽभूत् । तेनापि ज्ञातलक्ष्म्यादिष्टशूद्रकहोमस्वरूपेण प्रेषितः खभ्राता कोल्लासुरनामा होमप्रत्यूहकरणाय । समागतश्च वियति कोल्लासुरः खसेनया समम् । दृष्टस्तहैवतगणैः । चकितं च तैः । ततो भषणौ दिव्यशक्त्या युयुधाते दैत्यैः सह । क्रमान्मारितौ च तौ 10 दैत्यैः । ततः शूद्रका खयं योद्धं प्रावृतत् । क्रमेण दण्डव्यतिरिक्तप्रहरणान्तराभावाद्दण्डेनैव बहूनिधनं नीतवानसुरान् । ततो दक्षिणबाहुं दैत्यास्तस्य चिच्छिदुः। पुनर्वामदोष्णैव दण्डयुद्धमकरोत् । तस्मिन्नपि छिन्ने दक्षिणांहिणोपात्तदण्डो योर्बु लग्नः । तत्रापि दैत्यैर्टूने वामपादात्तयष्टिरयुध्यत । तमपि क्रमादच्छिदन्नसुराः। ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे । ततस्तैर्मस्तकमच्छेदि। अथाकण्ठतृप्ता दैवतगणास्तं शूद्रकं भूमिपतितशिरस्कं दृष्ट्वा-अहो! अस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्यास्य किं 15 जातम् । इति परितप्य योद्धं प्रवृत्ताः। कोल्लासुरममारयत् । ततः श्रीदेव्याऽमृतेनाभिषिच्य पुनरनुसंहिताङ्गश्चक्रे शूद्रकः, प्रत्युज्जीवितश्च । तस्य सारमेयावपि पुनर्जीवितौ । देवी च प्रसन्ना सती तस्मै खगरत्नं प्रादात् । अनेन त्वमजय्यो भविष्यसीति च वरं व्यतरत् । ततो महालम्यादिदैवतगणैः सह सातवाहनदेव्याः शुद्ध्यर्थं समग्रमपि भुवनं परिभ्रम्य प्राप्तः शूद्रको महार्णवम् । तत्र चैकं वटतरुमुच्चैस्तरं निरीक्ष्य विश्रामार्थमारुरोह यावत्, 'तावत्पश्यति तच्छा-20 खायां लम्बमानमधःशिरसं काष्ठकीलिकाप्रवेशितोद्भुपादं पुरुषमेकम् । स च प्रसारितजिह्वोऽन्तर्षीरं विचरतो जलचरादीन् भक्षयन् वीक्षितस्तैः । पृष्टश्च शुद्रकेण-कस्त्वम् ?, किमर्थं चेत्थं लम्बितोऽसि ? । तेनोक्तम्-अहं मायासुरस्य कनिष्ठो भ्राता । स च मदनोन्मदिष्णुर्मदग्रजः प्रतिष्ठानाधिपतेः सातवाहनस्य नृपतेर्महिषीं रिरंसुरपाहरत् सीतामिव दशवदनः । सा च पतिव्रता तन्नेच्छति । तदनुप्रोक्तो अग्रजन्मा-न युज्यते परदाराऽपहरणं तव । __ १९७. विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिरसया । कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धरः ॥ १॥
इत्यादिवाग्भिनिषिद्धः क्रुद्धो मह्यं मायासुरोऽस्यां वटशाखायां टङ्कित्वा मामित्थं व्यडम्बयत् । अहं च प्रसारितवदनः समुद्रान्तः सञ्चरतो जलचरादीनभ्यवहरन् प्राणयात्रां करोमि । इति श्रुत्वा शुद्रकोऽप्यभाणीत्-अहं तस्यैव महीभृतो भृत्यः शुद्रकनामा तामेव देवीमन्वेष्टुमागतोऽस्मि । तेनोक्तम्-एवं चेत्तर्हि मां मोचय, यथाऽहं सह भूत्वा तं दर्शयामि, तां च देवीम् ।30 तेन खस्थानं परितो जातुषं दुर्ग कारितमस्ति । तच्च निरन्तरं प्रज्वलदेवास्ति ततो 'दुर्लङ्ग्यम् । तन्मध्ये प्रविश्य तं निपात्य देवी प्रत्याहर्तव्या। इत्याकर्ण्य शूद्रकस्तेन कृपाणेन तत्काष्ठबन्धनानि च्छित्त्वा तं पुरोधाय, दैवतगणपरिवृतः प्रस्थाय, प्राकारमुल्लङ्घय तत्स्थानान्तः प्राविशत् । दैवत
* A आदर्श नास्ति एतद् वाक्यम् । 1 P दृष्टः स्वदैवत.। 2 'तस्य' नास्ति P1 3A अदात् । 4 A नास्ति तावत्' । 5P वान्छनपाहरत् । 6P प्रसारितरसनः। 7 P ततस्तदुलंध्य। 8A तत्कष्ट ।।
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प्रबन्धकोशे
गणांश्चालोक्य मायासुरः खसैन्यं युद्धाय प्रजिघाय । तस्मिन्पश्चतामश्चिते खयं योद्धमुपतस्थे । ततः क्रमेण शूद्रकस्तेनासिना तमवधीत् । ततो घण्टावलम्बिविमानमारोप्य दैवीं दैवतगणैः सह प्रस्थितः प्रतिष्ठानं प्रति ।
इतश्च, दशमं दिनमवधीकृतमागतमवगत्य जगत्यधिपतिर्ध्यातवान्-अहो! मम न महादेवी,न 5च शुद्रकवीरो, न चापि तौ रसनालिहौ; सर्व मयैव कुबुद्धिना विनाशितम् । इति शोचनात्सपरिच्छद एव प्राणत्यागचिकी' पुरावाहिश्चितामरचयचन्दनादिदारुभिः । यावत्क्षणादाशुशुक्षार्णि क्षेप्स्यति परिजनश्चितायाम्', तावद्वर्धापक एको देवगणमध्यात्समायासीत् । व्यजिज्ञपच सप्रश्रयम्-देव! दृिष्ट्या वर्द्धसे महादेव्यागमनेन । तन्निशम्य श्रवणरम्यं नरेश्वरः स्फुरदानन्दकन्दलितहृदय ऊर्ध्वमवलोकयन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शूद्रकं च । अयमपि विमानादवतीर्य राज्ञः 10 पदोरपतत् महादेवी च । अभिननन्द सानन्दं मेदिनीन्दुः शूद्रकम् । राज्याई तस्मै प्रादिशत् । सोत्सवमन्तनगरं प्रविश्य श्रुतशुद्रकचारुचरितः सह महिष्या राज्यश्रियमुपबुभुजे महाभुजः।
६८९) तस्य च सातवाहनस्य चन्द्रलेखाद्याः पश्चशतानि पल्यः । सर्वा अपि षड्भाषाकवित्वविदः। राजा पुनरनधीतव्याकरणः। आगत उष्णकालः। आरब्धा जलकेलिः। चन्द्रलेखा शीतालु:
शीतं न सहते । नृपस्तु प्रेम्णा शृङ्गकजलैस्तामनवरतं सिश्चते । ततः सा संस्कृतेन प्राह-देव! मां 15 मोदकैः पूरय । हालस्तु तत्संस्कृततत्त्वमनवगच्छन् मोदकनाम श्रुत्वा दास्याः पार्थान्मोदकपटलिकामानीनयत्। चन्द्रलेखा तां दृष्ट्वा पतिमतिभ्रमदर्शनादहसीत्-अहो! महाराजस्य शास्त्रोत्तेजितमतिव्यापः । राज्ञाऽप्युपहासो ज्ञातः । पृष्टा राज्ञी-किमर्थं वयमुपहस्यामहे ? । राज्ञी जगादअन्यार्थस्थानेऽन्यार्थावबोधादुत्पासितोऽसि प्रिय !। लजितो राजा । सद्यो विद्यार्थं भारती त्रिरात्रोपवासेनाराध्य प्रत्यक्षीकृत्य तद्वरान्महाकविर्भूत्वा सारस्वतव्याकरणादिशास्त्रशतान्य20 चीकृपत् । तस्येश्वरस्य गुणकृत्वों' भारती देवताऽवसरेऽवतीर्याह । एकदा भारतीमभ्यार्थयत
सकलमपि पुरं आद्ययामाईमहः कविरूपं भवतु । तथैव कृतं देव्या । एकस्मिन् दिने दशकोटयो गाथाः सम्पन्नाः। 'सातवाहनकशास्त्र' तत्कृतम् ।
६९०) तस्य चोर्वीपतेः खरमुखो नाम दण्डनाथः शूरो भक्तः प्राज्ञः पुण्याख्यः आरम्भसिद्धः। एकदा हालेनादिष्टं खरमुखाय-मथुरा लाहि। आदेशः प्रमाणमित्युक्त्वा बहिर्व्यापारिणां पार्श्वमेत्य 25 राजादेशमचकथत् । व्यापारिभिः प्रोक्तम्-खरमुख ! दे मथुरे स्तः। एका दक्षिणमथुरा पाण्डवकृता । अपरा पूर्वमथुरा यगोष्ठे कृष्णः समुत्पन्नः। यत्र वृन्दावनादीनि वनानि । द्वयोर्मध्यात्का मथुरा ग्राह्येति पृच्छ । खरमुखेनोक्तम्-प्रतापमार्तण्डं तं कः प्रष्टुमीष्टे । वक्ष्यति हि-रे! मम चेतो न जानीथ ? । तस्य च प्रकोपः सद्यः प्राणहरः। दे अपि मथुरे ग्रहीष्यामः । सैन्यं द्विखण्डं कृत्वा
द्वे मथुरे एकस्मिन्नेव मध्याह्ने खरमुखेन जगृहाते । तत्पुरीद्वयग्रहणव पनिकामुखौ द्वौ नरौ 30 आगमताम् । यावत्प्रमोदात्तौ नृपतिरालपति तावत्तृतीय एक आगात् । स उवाच-देव ! भव
त्काराप्यमाणजैनप्रासादभूमितलेऽक्षयो निधिः प्रादुर्बभूव दिष्ट्या । यावत्तदभिमुखमीक्षते, तावदेव दासी प्रेममञ्जूषा शुद्धान्तादायासीत्। स्वामिन् ! देव्या चन्द्रलेखया सर्वाङ्गलक्षणः सुतो
1A चिकीर्षुः । 2A 'चितायाम्' नास्ति; BED परिजनश्च तौ। 3 Pमतिश्रमः। 4 P हसितोऽसि। 5A विद्याभारती प्रति; BE विद्यावर्ष भारती प्रति। 6P चीकरत् । 7A गुणाकृष्टा। 8 Poभ्यर्थयत् । 9A आदिश० । 10P आयाती।
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सातवाहनप्रबन्धः। जातः। चतस्रोऽपि वर्दापनिका दत्ताः मापालेन । तेन प्रमोदेनास्य महोन्माद उत्पन्नः । ततो मेलयित्वा लोकं हयारूढो गोदावरीतीरमुपेत्य, तां जगाद तारतरखरम्१९८. सच्चं भण गोदावरि ! पुश्वसमुद्देण साहिया संती । सालाहणकुलसरिसं जइ ते कूले कुलं अस्थि ॥ २ ॥ १९९. उत्तरओ हिमवंतो दाहिणओ सालवाहणो राया । समभारभरकंता तेण न पल्लत्थए पुहवी ॥३॥ तादृशं तस्य गर्वमीक्षमाणा महामन्त्रिणोऽन्योन्यं मन्त्रयामासुः-नृपः श्रिया तरलितः। ततो' 5 २००. जितश्चेत्पुरुषो लक्ष्म्या, हृतं लोकद्वयं ततः । जिता चेत्पुरुषेणैषा जितं लोकद्वयं ततः ॥ ४॥ तस्मादस्य दुःखोत्पादनेन मदगदोच्छेदः कर्तुमर्हः । इत्यालोच्य राजानं व्यजिज्ञपत्-देव ! ललाटंतपतपनः कालः, भोजनावसरो वर्तते। पादोऽवधार्यतां सौधायेत्युदित्वा सौधमानैषुः । तत्रापि मदात् स्तम्भादीनि कुट्टयति । ततो मन्त्रिभिः खरमुखं वीरोत्तंसं छन्नीकृत्य राज्ञे उक्तम्देव ! खरमुखः सद्यो व्याधिना द्यामगमत् । अथ तच्छ्रवणे क्षमापो दुःखाच्छोकान्मदमहासीत् । 10 शोकात्तु वैकल्यमचकलत् । अथामात्यैर्विज्ञप्तम्-प्रजेश्वर ! विदेशादायातैर्मृतजीवन विद्याविदुरैः खरमुखो जीवितः । यद्यादेशः स्यात् तदा पदकमलयुगलतले लोठ्यते । इत्युक्ते सुस्थो जातः । दृष्टः खरमुखः। सुष्टु तुष्टो राजा । एवं तस्योदयः।
६९१) अन्यदासोऽसौ गोदावरीतीरे क्रीडति । तदैकेन मीनेन जलाबहिर्मुखं निष्कास्य हसितम् । भीतश्चमत्कृतश्च भूपः। रात्रौ ध्यानाकृष्टाऽऽयाता ब्राह्मी पृष्टा-देवि ! मीनः किमर्थं 15 हसति? । ब्राह्याह-वत्स! प्राग्भवे त्वमन्त्रैव पुरे काष्ठभारहारक आसीः। स च मध्याहे काष्ठकष्टार्जितधनकीतान् सक्तून् उष्णोदकविलोडितान् मासक्षपणिकऋषये मुदा ददे । तेन पुण्येन त्वं सम्राडवातारीः । तदेकस्तत्रत्यो व्यन्तरो वेत्ति । तेन मीने सङ्क्रम्य हसितं त्वया दृष्टम् । राजाहहासस्य को भावः । ब्राह्मी वक्ति-अयं भावः-अयं दानादाप्तर्द्धिः, पुनर्दाने मन्दादरः। धिगात्मकार्यमूढं जीवलोकमिति । सातवाहनो जल्पति-तस्य व्यन्तरस्य मचर्चया किं कार्यम् ? 120 ब्रायाह-प्राग्भवेऽयं तवैव सखाऽभूत् । तेन तु' कृपणत्वात्किमपि न दत्तम् । केवलं त्वद्दत्तमेव किश्चिदनुमोदितम् । तेन पुण्येन व्यन्तरत्वेनावतीर्णोऽयम् । ततस्त्वयि हितार्थित्वमस्य । मां च त्वन्मत्रशक्तिसमाकृष्टिप्रत्यक्षां त्वन्मातृकल्पां जानाति । ततस्तथाऽहसदिति विद्धि । न्तज्ञानादवनीशो वदान्यत्वं सुष्ठाददे। ब्राह्मी-श्रीदत्तशब्दवेधरससिद्धरिच्छादानी मानी जैनः ।
६९२) इत्थंकारं नानाविधान्यवदातानि हालक्षितिपालस्य कियन्ति नाम वर्णयितुं पार्यन्ते । 25 स्थापितश्चानेन गोदावरीतीरे महालक्ष्मीप्रासादः । अन्यान्यपि च यथार्ह दैवतानि निवेशितानि तत्तत्स्थानेषु । राज्यं प्राज्यं चिरं भुञ्जाने जगतीजानौ, अन्यदा कश्चिद्दारुभारहारकः कस्यचिद्वाणिजस्य वीथौ प्रत्यहं चारूणि दारूण्याहृत्य विक्रीणीते स्म। दिनान्तरे च तस्मिन्ननुपेयुषि वणिजा तद्भगिनी पृष्टा"-किमर्थं भवद्भाताऽद्य नागतो मद्वीभ्याम् ? । तया बभणे-श्रेष्ठिश्रेष्ठ! मत्सोदय: खर्गिषु सम्प्रति प्रतिवसति । वणिगभणत्-कथमिव ? । सावदत्-कङ्कणबन्धादारभ्य विवाह-30 प्रकरणे दिनचतुष्टयं नरः खर्गिष्विव वसन्तमात्मानं मन्यते । तत्तदुत्सवालोकनकौतूहलात् । तचाकर्ण्य राजाऽप्यचिन्तयत्-अहो ! अहं स्वर्गिषु किं न वसामि । चतुर्षु चतुर्पु दिनेषु अनवरतं
1 P नास्ति 'ततो'। 2P जीवनविदुरैः। 3 BE लोट्यते; P लोच्यते। 4 तदैकः। 5 P हसितः। 6P भूपोऽभूत् । 7 P नास्ति 'तु'। 8 P स्थापिता। 9 P महालक्ष्मीः प्रासादे। 10 P भगिन्यापृष्टा ।
प्र० को
१०
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प्रबन्धकोशे
विवाहोत्सवमय एव स्थास्यामि । इति विचार्य चातुर्वर्ण्य यां यां कन्यां युवतिं रूपशालिनीं पश्यति शृणोति स्म 'च, तां तां सोत्सवं पर्यणैषीत् । एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लोकैश्चिन्तितम् - अहो ! कथं भाव्यमनपत्यैरेव सर्ववर्णैः स्थेयम् । सर्वाः कन्यास्तावद्राजैव विवोढा । योषिदभावे च कुतः सन्ततिरिति । एवं विषण्णेषु लोकेषु विवाहवाटिकानाम्नि ग्रामे वास्तव्य 5 एकोद्विजः पीठजां देवीमाराध्य व्यजिज्ञपत्-भगवति ! कथं विवाहकर्माऽस्मदपत्यानां भावीति । देव्योक्तम्- भो वाडव ! त्वद्भवनेऽहमात्मानं कन्यारूपं कृत्वाऽवतरिष्यामि । यदा मां राजा प्रार्थयते तदाऽहं तस्मै देया । शेषमहं भलिष्ये । तथैव राजा तां रूपवतीं श्रुत्वा विप्रमयाचत । सोsपि जगाद - दत्ता मया । परं महाराज ! खयमन्त्रागत्य मत्कन्योद्वोढव्या । प्रतिपन्नं राज्ञा । गणकदत्ते लग्ने क्रमाद्विवाहाय प्रचलितः । प्राप्तश्च तं ग्रामं श्वशुरकुलमवनिपतिः । देशानुरोधा10 द्वधूवरयोरन्तराले जवनिका दत्ता । अञ्जलिर्युगन्धरीलाजैर्भृतः । लग्नवेलायां तिरस्करिणीमपनीय यावदन्योऽन्यस्य शिरसि लाजान्वितरीतुं प्रवृत्तौ तदनु किल हस्तमेलापो भविष्यतीति, तावद्राजा तां रौद्ररूपां राक्षसीमिवैक्षिष्ट । ते च लाजाः कठिनकर्करपाषाणरूपा राज्ञः शिरसि लगितुं लग्नाः । क्षितिपतिरपि किमपि वैकृतमिदमिति विभावयन् पलायितः । तावत्सा पृष्ठलग्नाऽश्मशकलानि वर्षन्ती प्राप्ता । ततो नरपतिर्नागदं प्राविशन्निजजन्मभूमिम् । तत्रैव च 15 निधनमानशे । अद्यापि सा पीठजा देवी प्रतोल्या बहिरास्ते निजप्रासादस्था । शूद्रकोऽपि क्रमेण कालिकादेव्याऽऽजारूपं विकृत्य वापीं प्रविष्टया करुणरसितेन विप्रलब्धस्तन्निष्कासनार्थं प्राविशत् । पतितस्य तस्य कृपाणस्य कृपद्वारे तिर्यक्पतनाच्छिन्नाङ्गः पञ्चतामानश्च । महालक्ष्म्या हि वरवितरणावसरे - अस्मादेव कौक्षेयकात्तवदिष्टान्तावाप्तिर्भवित्री त्यादिष्टमासीत् ।
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९९३) ततः शक्तिकुमारो राज्येऽभिषिक्तः सातवाहनायनिः । तदनन्तरमद्यापि राजा न 20 कश्चित्प्रतिष्ठाने प्रविशति 'वीरक्षेत्र इति । अत्र च यदसम्भाव्यं कचिद् गर्भे, तत्र परसमय एव मन्तव्यो हेतुः * । यन्नासङ्गतवाग्जनो जैनः । श्रीवीरे शिवं गते ४७० विक्रमाक राजा तत्कालीनोऽयं सातवाहनस्तत्प्रतिपक्षत्वात् । यस्तु कालिकाचार्य पार्श्वात् पर्युषणामेकेनाहा अर्वागानाययत्, सोऽन्यः सातवाहन इति सम्भाव्यते । अन्यथा
२०१. नवसयतेणउएहिं समइक्कंतेहिं वीरमुक्खाओ । पज्जोसवणचउत्थी कालयसूरीहिं तो ठविआ ॥ ५ ॥ 25 इति चिरत्नगाथाविरोधप्रसङ्गात् । न च सातवाहनक्रमिकः सातवाहन इति विरुद्धम् । भोजपदे बहूनां भोजत्वेन, जनकपदे बहूनां जनकत्वेन रूढत्वात् ।
॥ इति सातवाहनप्रबन्धः समाप्तः ॥ १५ ॥
1P नास्ति 'च' । 2 P करिष्ये । 3 एतत्पाठस्थाने P पुस्तके 'अस्माद्देवखड्गात्तव मरणं भावी०' एतादृशः पाठः प्राप्यते । 4 P पुस्तके 'सातवाहनस्य निसूदनान्तर' एतादृशो भ्रष्टः पाठो विद्यते । 5P वीरक्षेत्रत्वात् । 6 BP यदसद्भाव्यं । * A आदर्शों ' मन्तव्यो हे वर्य नासंगत०' एषः पाठः । 7 P राजाऽभवत् ।
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वकचूलप्रबन्धः।
१६. अथ वङ्कचूलप्रबन्धः । २०२, पारेतजनपदान्तश्चर्मण्वत्यास्तटे महानद्याः । नानाघनवनगहना जयत्यसौ ढींपुरीति पुरी ॥१॥ ६९४) अत्रैव भारते वर्षे विमलयशा नाम भूपतिरभूत्। तस्य सुमङ्गलदेव्या सह विषयसुखमनुभवतः क्रमाजातमपत्ययुगलम् । तत्र पुत्रः पुष्पचूलः, पुत्री पुष्पचूला । अनर्थसार्थमुत्पादयतः पुष्पचूलस्य कृतं लोकैर्वकचूल' इति नाम । महाजनोपलब्धेन राज्ञा रुषितेन निःसारितो नगरा-5 द्वङ्कचूलः । गच्छंश्च पथि पतितो भीषणायामटव्यां सह निजपरिजनेन स्वस्रा च स्लेहपरवशया। तत्र च क्षुत्पिपासार्दितो दृष्टो भिल्लैः। नीतः स्वपल्ल्याम् , स्थापितश्च मृतपूर्वपल्लीपतिपदे । पर्यपालयद्राज्यम् । अलुण्ठयद् ग्रामनगरसार्थादीन् । अन्यदा सुस्थिताचार्या अर्बुदाचलादष्टापदयात्रायै प्रस्थितास्तामेव सिंहगुहां नाम पल्लीं सगच्छाः प्रापुः । जातश्च वर्षाकालः। अजनि पृथिवी जीवाकुला । साधुभिः सहालोच्य मार्गयित्वा वङ्कचूलादसतिं स्थिता तत्रैव सूरयः। 10 तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता-मम सीमान्तर्धर्मकथा न कथनीया । यतो युष्मत्कथायां अहिंसादिको धर्मः। न चैवं मम लोको निर्वहति । एवमस्तु इति प्रतिपद्य तस्थुरुपाश्रये गुरवः । 'वङ्कचूलेनाह्रय सर्वे प्रधानपुरुषा भणिता:-अहं राजपुत्रस्तन्मत्समीपे ब्राह्मणादय आगमिप्यन्ति । भवद्भिर्जीववधो मांसमद्यादिप्रसङ्गश्च पया मध्ये न कर्त्तव्यः । एवं कृते यतीनामपि भक्तपानमजुगुप्सितं कल्पत इति । तैस्तथैव कृतं यावच्चतुरो मासान् । प्राप्तो विहारसमयः । 15 अनुज्ञापितो वङ्कचूलः सूरिभिः। २०३. समणाणं सउणाणं भमरकुलाणं च गोकुलाणं च । अनिआओं वसहीओं सारईआणं च मेहाणं ॥२॥
इत्यादि वाक्यैः। ततस्तैः सह चलितो वङ्कचूलः । खसीमां प्रापुषा तेन विज्ञप्तम्-वयं परकीयसीमां न प्रविशाम इति । सूरिभिर्भणितः-वयं सीमान्तरमुपेतास्तत् किमप्युपदिशामस्तुभ्यं [ दाक्षिण्यात् ] तेनोक्तम्-यन्मयि निर्वहति तदुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः । ततः सूरिभि-20 श्चत्वारो नियमा दत्ताः । तद्यथा-अज्ञातफलानि न भोक्तव्यानि १। सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य घातो देयः २। पट्टदेवी नाऽभिगन्तव्या ३ । काकमांसं न भक्षणीयमिति ४ । प्रतिपन्नास्तेन ते । गुरून् प्रणम्य 'स्वगृहमगमत् । अन्यदा गतः सार्थस्योपरि धाट्या । शकुनकारणान्नागतः सार्थः । त्रुटितं च तस्य पथ्यदनम् । पीडिताः क्षुधा राजन्याः। दृष्टश्च तैः किम्पाकतरुः फलितः। गृहीतानि फलानि । न जानन्ति ते नामधेयमिति तेन न भुक्तानि । इतरैः सर्वैर्बुभुजिरे । मृताश्च 25 ते किम्पाकफलैः। ततश्चिन्तितं तेन-अहो ! नियमानां फलम् । तत एकाक्येवागतः पल्लीम् । रजन्यां प्रविष्टः स्वगृहम् । दृष्टा पुष्पचूला दीपावलोकेन पुरुषवेषा निजपल्या सह प्रसुप्ता। जातश्च कोपस्तयोरुपरि । द्वावप्येतो खड्गप्रहारेण छिनमीति यावदचिन्तयत्तावत्स्मृतो नियमः। ततः सप्ताष्ट पदान्यपक्रम्य' घातं ददतः खाट्कृतमुपरि खड्गेन । व्याहृतं स्वस्रा-जीवतु वङ्कचूलः। इति तद्वचः श्रुत्वा लज्जितोऽसावपृच्छत्-किमेतदिति ? । साऽपि नटवृत्तान्तमचीकथत् । कथं ?-30 भ्रातः ! अत्र प्रतिभूपतेर्नटवेषधराश्चरा आगच्छन् । यदि पल्लयां वङ्कचूलोऽस्ति तदाऽस्माकं
__1A चूड। 2 A नास्ति 'वंकचूलेन'। 3 AE तत्समीपे। 4 P ते। 5 P पुस्तक एवैतत्पदं दृश्यते। 6 CP स्वस्व गृ०। 7 BC पदान्यपसृत्य । 8P 'कथं नास्ति ।
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• प्रबन्धकोशे नृत्यं पश्यतु-इत्यब्रुवन् । तदा मया चिन्तितं' साम्प्रतं भ्राता वङ्कचूलो नास्ति गृहे । तदा मया तव वेषधारिण्या नृत्यमकारि तेषां पार्वात् । दानमदायि तेभ्यः । गताश्च ते खस्थानम् ।[*ततो बहुनिशागमनेन निद्रापरवशा ] तेनैव' वेषेण भ्रातृजायापार्श्वे अखपम् । इति वृत्तान्तं श्रुत्वाऽतीव मनसि खेदो दः तेन । 5_६९५) कालक्रमेण तस्य तद्राज्यं शासतस्तत्रैव पल्लयां तस्यैवाचार्यस्य शिष्यौ धर्मऋषि-धर्मदत्तनामानौ कदाचिद्वर्षाराचमवास्थिषाताम् । तत्र तयोरेका साधुस्त्रिमासक्षपणकं विदधे,दितीयस्तु चतुर्मासक्षपणम् । वङ्कचूलस्तु तद्दत्तनियमानामायतिशुभफलतामवलोक्य व्यजिज्ञपत्हे भदन्ती! मदनुकम्पया कमपि पेशलं धर्मोपदेशं ददताम् । ततस्ताभ्यां चैत्यविधापनदेशना पापनाशिनी विदधे । तेनापि शराविकापर्वतसमीपवर्तिन्यां तस्यामेव पहयां चर्मण्वती सरित्तीरे 10 कारितमुच्चैस्तरं चारु चैत्यम् । स्थापितं च तत्र श्रीमन्महावीरबिम्बम् । तीर्थतया च रूढं तत् ।
तत्रायान्ति म चतुर्दिग्भ्यः सङ्घाः। __कालान्तरे कश्चिन्नैगमः सभार्यः सर्वद्ध्या तद्यात्रायै प्रस्थितः। प्राप्तः क्रमेण रन्तिनदीम् । नावमारूढौ च दम्पती चैत्यशिखरं व्यलोकयताम् । ततः सरभसं सौवर्णकचोलके कुङ्कुमचन्दन
कपूरं प्रक्षिप्य जलं क्षेसुमारब्धवती नैगमगृहिणी । प्रमादात् निपतितं तदन्तर्जलतलम् । ततोऽ15 भाणि वणिजा-अहो! इदं कच्चोलकं नैककोटिमूल्यरत्नखचितं राज्ञा ग्रहणकेऽर्पितमासीत् । ततो राज्ञः कथं 'छुटितव्यम् । इति चिरं विषद्य वङ्कचूलस्य पल्लीपतेर्विज्ञापितं तत् यथा-अस्य राजकीयवस्तुनो विचितिः कार्यताम् । तेनापि धीवर आदिष्टस्तच्छोधयितुं प्राविशदन्तर्नदीम् । विचिन्वता चान्तर्जलतलं' दृष्टं तेन हिरण्यमयरथस्थं जीवन्तखामिश्रीपार्श्वनाथबिम्बम् । याव
त्पश्यति स्म स बिम्बस्य हृदये तत्कच्चोलकम् । धीवरेणोक्तम्-धन्याविमौ दम्पती यद्भगवतो 20 वक्षसि घुसूणचन्द्रचन्दनविलेपना स्थितमिदम् । ततो गृहीत्वा तदर्पितम् नैगमस्य । तेनापि
दत्तं तस्मै बहुद्रव्यम् । उक्तं च बिम्बस्वरूपं नाविकेन । ततो वङ्कचूलेन श्रद्धालुना तमेव प्रवेश्य' निष्कासितं तद्विम्बम् । कनकरथस्तु तथैव मुक्तः। निवेदितं हि स्वप्ने प्राग्भगवता "नृपतेः-यत्र क्षिप्ता सती पुष्पमाला गत्वा तिष्ठति, तत्र बिम्ब शोध्यमिति। तदनुसारेण "बिम्बमानीय समर्पितं राज्ञे वङ्कचूलाय । तेनापि स्थापितं श्रीवीरबिम्बस्य बहिर्मण्डपे, यावत्किल नव्यं चैत्यमस्मै 25 कारयामि-इत्यभिसन्धिमता । कारितेच चैत्यान्तरे, यावत्तत्र स्थापनार्थमुत्थापयितुमारभन्ते
राजकीयाः पुरुषास्तावद्विम्बं नोत्तिष्ठति स्म । देवताधिष्ठानात्तत्रैव स्थितम् । अद्यापि तथैवास्ते । धीवरेण पुनर्विज्ञप्तः पल्लीपतिः-यत्तत्र देव ! मया नद्यां प्रविष्टेन बिम्बान्तरमपि दृष्टम् । तदपि बहिरानेतुमौचितीमञ्चति । पूजारूढं हि भवति । ततः पल्लीश्वरेण पृष्टा खपरिषत्-भोः ! जानीते कोऽपि अनयोर्बिम्बयोः संविधानकम् ? । केन खल्वेते नद्यन्तर्जलतले न्यस्ते ?। इत्याकण्यकेन 30 पुराविदा स्थविरेण विज्ञप्तम्-देव ! एकस्मिन्नगरे पूर्व नृपतिरासीत् । स च परचक्रेण समुपेयुषा साई योद्धं सकलचमूसमूहं सन्नह्य गतः। तस्याग्रमहिषी च निजं सर्वखमेतच विम्बद्वयं कनक
1Pऽचिन्ति । * कोष्ठकगत पाठः P पुस्तक एव लम्यते । 2 AB तेन । 3 P एकस्त्रिमासः। 4 P दत्तः। 5 AC 'तेनापि शिरोनामिदंबिकापर्वतः। 6 AB जलं तत् । दण्डान्तर्गता पंक्तिः पतिता AED आदर्शेषु । 7P चान्तर्जलं । 8 P तेन। 9 A प्रविश्य। 10 P तत्रैव। 11 AB नृपेण। 12 'बिम्ब' नास्ति AI 13 A चमूसमूलसनहनेन गतः, BE चमूसमूहसन्चहनेन ।
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पारमेन
वङ्कचूलप्रवन्धः। रथस्थं विधाय जलदुर्गमिति कृत्वा चर्मण्वत्यां कौटिम्बके प्रक्षिप्य स्थिता। चिरं युध्यतस्तस्य कोऽपि खलः किल वार्तामानैषीत्-यदयं नृपतिस्तेन परचक्राधिपतिना व्यापादित इति । 'तच्छ्रुत्वा देवी तत्कौटिम्बकमाक्रम्यान्तर्जलतलं प्राक्षिपत् । स्वयं च परासुतामासदत् । स च नृपतिः परचक्र निर्जित्य यावन्निजनगरमागमत् , तावद्देव्याः प्राचीनं वृत्तमाकर्ण्य भवाद्विरक्तः
* दीक्षा कक्षीचक्रे । तत्रैकं बिम्बं देवेन बहिरानीतं पूज्यमानं चास्ति । द्वितीयमपि 5 चेनिःसरति तदोपक्रम्यतामिति । तदाकर्ण्य वङ्कचूलः परमाईतचूडामणिस्तमेव धीवरं तदानयनाय प्रावीविशत् । स च तद्विम्बं कटीदनवपुर्जलतले तिष्ठमानं बहिस्थशेषाङ्गमधोऽवलोक्य निष्कासनोपायाननेकानकार्षीत् । न च तन्निर्गतमिति दैवतप्रभावमाकलय्य समागत्य च विशामीशाय न्यवेदयत् तत्स्वरूपम् । अद्यापि तत्किल तत्रैवास्ते ।
६९६) श्रूयते ह्यद्यापि, केनापि धीवरस्थविरेण नौकास्तम्भे जाते तत्कारणं विचिन्वता तस्य 10 हिरण्यमयरथस्य युगकीलिका लब्धा। तां कनकमयीं दृष्ट्वा लुब्धेन तेन व्यचिन्ति-यदिमं रथं क्रमात् सर्व गृहीत्वा ऋद्धिमान भविष्यामीति । ततश्च स रात्रौ निद्रां न लेभे। उक्तश्च केनापि अदृष्टपुरुषेण-यदिमां तत्रैव विमुच्य सुखं स्थेयाः। नो चेत्सद्य एव त्वां हनिष्यामीति। तेन भयातेन तत्रैव विमुक्ता युगकीलिका इत्यादि । किं न सम्भाव्यते देवताधिष्ठितेषु पदार्थेषु । श्रूयते च सम्प्रत्यपि काले कश्चिन् म्लेच्छा पाषाणपाणिः श्रीपार्श्वनाथप्रतिमां भतमुपस्थितः । स्तम्भि-15 तबाहुर्जातो महति पूजाविधौ कृते सजतामापन्न इति । श्रीवीरविम्बं महत्, तदपेक्षया लघीयस्तरं श्रीपार्श्वनाथबिम्बमिति महावीरस्यार्भकरूपोऽयं देव इति मेदाश्चेल्लण इत्याख्यां प्राचीकथत् । श्रीमचेलणदेवस्य महीयस्तममाहात्म्यनिधेः पुरस्ताभ्यां महर्षिभ्यां सुवर्णमुकुटाम्नायः साधितः । प्रकाशितश्च भव्येभ्यः। सा च सिंहगुहा पल्ली कालक्रमाद् दिपुरीत्याख्यया प्रसिद्धा नगरी सञ्जाता । अद्यापि स भगवान् श्रीवीरः, स च चेल्लणपार्श्वनाथः, सकलसकेन तस्यामेव 20 पुर्यो यात्रोत्सवैराराध्यते इति।
६९७) अन्यदा वङ्कचूल उज्जयिन्यां खातपातनाय चौर्यवृत्त्या कस्यापि श्रेष्ठिनः सद्मनि गतः । कोलाहलं श्रुत्वा वलितः । ततो देवदत्ताया गणिकाया गृहं प्राविशत् । दृष्टा सा कुष्ठिना सह प्रसुप्ता। ततो निःसृत्य गतः पुरः श्रेष्ठिनो वेश्म । तत्रैकविंशोपको लेख्यके त्रुट्यतीति परुषवाग्भिनिर्भर्त्य निःसारितो गेहात्पुत्रः श्रेष्ठिना । विरराम च यामिनी । यावद्राजकुलं 25 यामीत्यचिन्तयत्, तावदुजगाम धामनिधिः। पल्लीपतिश्च निःसृत्य नगरादू गोधां गृहीत्वा तरुतले दिनं नीत्वा पुना रात्रावागाद्राजभाण्डागाराबहिः । गोधापुच्छे विलग्य प्राविशत् कोशम् । दृष्टो राजाग्रमहिष्या रुष्टया। पृष्टश्च-कस्त्वमिति ?। तेनोचे-चौर इति। तयोक्तम्-मा भैषीः। मया सह सङ्गमं कुरु । सोऽवादीत्-का त्वम् ? । साऽप्यूचे-अग्रमहिष्यहमिति । चौरोऽवादीत्-यद्येवं तर्हि ममाम्बा भवसि।अतो यामि।इति निश्चिते तया खाझं नखैर्विदार्य पूत्कृतिपूर्वमाहूता आरक्षकाः130 गृहीतस्तैः। राज्ञा चानुनयार्थमागतेन तद् दृष्टम् । राज्ञोक्तास्ते पूरुषा:-मैनं गाढं कुर्वीध्वमिति । ते रक्षितः। प्रातः पृष्टः क्षितिभृता। तेनाप्युक्तम्-देव ! चौर्यायाहं प्रविष्टः। पश्चाद्देवभाण्डागारे देव्या दृष्टोऽस्मि । यावदन्यन्न कथयति, तावत्तुष्टो विदितवेद्यो नरेन्द्रः स्वीकृतः पुत्रतया ।
1 AB ततः। 2 P प्राविशत् । 3 P मुक्ता। 4 P चलितः। 5 P स्वपुरुषाः। 6 P विधो।
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प्रबन्धकोशे स्थापितश्च सामन्तपदे। देवी विडम्ब्यमाना रक्षिता वङ्कचूलेन । अहो! नियमानां शुभं फलमिति अनवरतमयमध्यासीत्। प्रेषितश्चान्यदा राज्ञा कामरूपभूपसाधनार्थ । गतो युद्धे घातैर्जर्जरितो विजित्य तमागमत्स्वस्थानम् । व्याहृताश्च राज्ञा वैद्याः। यावद्रुद्धोऽपि घातव्रणो विकसति । तैरुक्तम्-देव! काकमांसेन शोभनो भवत्ययम् । तस्य च जिनदासश्रावकेण साई प्रागेव 5 मैत्र्यमासीत् । ततस्तदानयनाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना, येन तद्वाक्यात् काकमांस भक्षयतीति । तदाऽऽहूतश्च जिनदासोऽवन्तीमागच्छन्नुभे दिव्ये सुदत्यौ रुदत्यावद्राक्षीत् । तेन पृष्टेकिं रुदिथः । ताभ्यामुक्तम्-अस्माकं भर्ता सौधर्माच्च्युतः। अतो राजपुत्रं वङ्कचूलं प्रार्थयावहे । परं त्वयि गते स मांसं भक्षयिता । ततो दुर्गतिं गन्ता । तेन रुदिवः । तेनोक्तम्-तथा करिष्ये
यथा तन्न भक्षयिता। गतश्च तत्र राज्ञोपरोधाद्वङ्कचूलमवोचत्-गृहाण बलिभुपिशितम् । पटू10 भूतः सन् प्रायश्चित्तं चरेः । वङ्कचूलोऽवोचत्-जानासि त्वं यदाचर्याप्यकार्य प्रायश्चित्तं ग्राह्यम् , ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय इति ।
'प्रक्षालनाद्धि पकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' इति वाक्यानिषिद्धो नृपतिः। विशेषप्रतिपन्नव्रतनिवहश्चाच्युतकल्पमगमत् । वलमानेन जिनदासेन ते देव्यौ तथैव रुदत्यौ दृष्ट्वा प्रोक्तम्-किमिति रुदिथः । न तावत्स मांसं ग्राहितः। ताभ्यां 15 अभिदधे-स ह्यधिकाराधनावशादच्युतं प्राप्तः। ततो नाभवदस्मद्भूर्तेति। एवं जिनधर्मप्रभावं सुचिरं विभाव्य जिनदासः खावासमाससादेति । अस्य दिपुरीतीर्थस्य निर्मापयिता वङ्कचूलः।
॥ इति वङ्कचूलप्रबन्धः ॥ १६॥
१७. अथ विक्रमादित्यप्रबन्धः। ६९८) विक्रमादित्यपुत्रं विक्रमसेनराजानं प्रति पुरोधसाऽऽशीर्दत्ता-यत्त्वं पितुर्विक्रमादित्याद20धिको भूयाः। तदा देवताधिष्ठिताभिः सिंहासनस्थाभिश्चतसृभिः काष्ठपुत्रिकाभिर्हसितम्।। तदा विक्रमसेनेन पृष्टाः पुत्रिका:-किमिति हस्यते ?। ताः प्रोचुः तेन सह समत्वमपि न घटते, कुतो नामाधिक्यम् ।
आद्याह-अवन्त्यां विक्रमो राजा अपूर्वसत्यवार्ताकथकाय दीनारपञ्चशती दत्ते । एवं श्रुत्वा 'खर्परकचौरेण दीनारपञ्चशती याचिता। वार्ता चैका कथिता । यथा-गन्धवहश्मशानसमीपे 25 पातालविवरकूपे मया दीपो देवीहरसिद्धिप्रेषितः पतन् दृष्टः । मयापि तत्पृष्टे झम्पापितम् । पाताले तत्र दिव्यं सौधं दृष्टम् । तत्र तैलकटाहिका ज्वलन्ती दृष्टा । तत्पार्चे एको नरो दृष्टः। पृष्टश्च-किमर्थं त्वमिह ? । तेनोक्तम्-अत्र सौधे शापभ्रष्टा दिव्यकन्याऽस्ति । सा ब्रूते 'यस्तैलकटाहिकायां झम्पां दाता स मे वर्षशतं पतिर्भविता ।' अतोऽहमेतत्पतित्वार्थमत्र तिष्ठामि । परं साहसं नास्ति । इति वार्तया पञ्चशती लब्धा । तेन खर्परेण समं राजापि तत्र गतो विवरेण ।
1P रूढो। 2 A ततो। दण्डान्तर्गतपाठस्थाने ABE आदर्श' 'चतसृभिवारांगनाभिर्हसितं देवताधिष्ठिताभिः सिंहासनस्थिताभिः' एतादृशः पाठभेदः। 3A शतं। 4 AB कर्परक०। 5A तन्न । 6A कर्परचोरेण ।
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विक्रमादित्यप्रबन्धः। तैलकटाहिकायां झम्पा दत्ता । कन्यया सोऽमृतेन जीवितः। यावत्सा राजानं वृणुते । तावद्राज्ञोक्तम्-अग्रेतनं नरं वरय । वृतः स तया । एवं यः परोपकारी तदधिकोऽयं कथं भावी ?॥१॥
द्वितीययोक्तम्-कासीतो द्वौ द्विजौ आयातौ। विक्रमार्केण पृष्टौ राज्यस्वरूपम् । ताभ्यामूचेअस्मद्देशे पातालविवरमस्ति । तत्रान्धो राक्षसो वर्तते । अस्मद्देशस्वामी तैलकटाहे झम्पां दत्त्वा खमांसेन राक्षसस्य पारणं कारयति स्म । राक्षसोऽपि तं पुनर्नवीकरोति । सप्त अपवरिका वर्ण- 5 सम्पूर्णाश्च कुरुते । प्रत्यहं प्रातः सप्ताप्यपवरिकास्त्यागेन रिक्तीकुरुते । श्रुत्वेदं विक्रमोऽपि तत्र गतः। कटाहे झम्पा दत्ता । रक्षसा भक्षितो जीवितश्च । पुनर्भक्षितो जीवितश्च । राक्षसस्य शापेनान्ध्यमस्ति । तच्छापान्तोऽभूत् । दृग्भ्यां पश्यति । दृष्ट्वा चाह-कस्त्वं साहसी ?। तेनोक्तम्विक्रमोऽहम् । तुष्टोऽहं ते। याचस्व । राज्ञोक्तम्-तुष्टश्चेत्तदाऽस्य राज्ञो'] नित्यं सप्ताप्यपवरिकाः वर्णपूर्णा भूयासुः। तथाऽस्य पुनरेवं कटाहझम्पापातादियातना मा भूत्। रक्षसोक्तम्-एव-10 मस्तु । अतः कथं विक्रमार्कादधिको भावी ?; समोऽपि न । अतो हसितः॥२॥
तृतीययोक्तम्-एकदा विक्रमार्को निजपूर्वास्तव्यखल्वाटकुम्भकारयुक्तो देशान्तरं गतः । परवेशविद्यावेदी योगी मिलितः। स आवर्जितः तुष्टश्च विद्यां दातुमारेभे । राज्ञोक्तम्-प्रथमं मम मित्रस्य ददत । तेनोक्तम्-न योग्योऽसौ । निर्बन्धात्तस्यापि दत्ता [गुणरञ्जितेन योगिना नृपस्य पश्चाद् बलाद्दत्ता।] अवन्तीं गतो राजा राज्यं करोति । एकदा पट्टाश्वो मृतः । विद्यापरीक्षार्थं 15 राज्ञा खजीवस्तत्र क्षिप्तः । कुम्भकारेण स्वजीवो नृपदेहे । कुम्भकारो राज्यं करोति। तेनाश्वो मारणाय चिन्तितः। नृपजीवस्तु पूर्वमृतशुकदेहे प्रविष्टः । शुकोऽपि सोमदत्तश्रेष्ठिभार्याप्रोषितभर्तृकाकामसेनागृहं गतः। सा तचातुर्येण हृष्टा राज्ञी समीपं न गच्छति । श्रेष्ठी समागतः। सा राज्ञी समीपं गता । अनागमनकारणं पृष्टा । शुकचातुर्यकारणं प्रोक्तम् । तया आनायितः शुकः' । सा रञ्जिता तेन, यथा राज्ञा पूर्वम् । एकदा शुकेन राज्ञीलेहपरीक्षार्थं गृहगोधिकादेहे 20 गतम् । राज्या तद्वियोगेन काष्ठभक्षणं कर्तुमारब्धम् । नृपजीवेन शुको जीवापितः । सा राज्ञी व्यावृत्ता। शकेन सर्वोऽपि वृत्तान्तो राज्य कथितः। राज्या
। तेन कुम्भकारजीवेन तुष्टेन विद्याप्रदर्शनाय मृतबोत्कटदेहे खजीवः क्षिप्तः । नृपो निजदेहं गतः। अजो भयात्कम्पते । राज्ञा उक्तः-न भेत्तव्यम् । नाहं त्वत्समो भावी । सकृपोऽस्मि । त्वं सुखं जीव । चर । पिब । ततः कथं तेन समो भविष्यति ॥ ३॥
चतुर्योक्तम्-एकदा विक्रमार्केणोत्तमं सौधं कारितम् । राजा तत्र गतः विलोकनाय । तत्र चटकयुग्ममुपविष्टमस्ति । चटकेनोक्तम्-सुष्टु सौधमस्ति । चटिकयोक्तम्-यादृशं स्त्रीराज्ये लीलादेव्या बाह्यगृहमस्ति तादृशमेतत् । राज्ञा तच्छ्रुतम् । तद्गमनौत्सुक्यं जातम् । "परं स्थानं तु न वेत्ति । तेन सचिन्तो "जातः। भहमात्रो नृपाशयं ज्ञात्वा तत्स्थानकजानाय चचाल । तन्मार्गे लवणसमुद्रं ततो धूलीसमुद्रमुत्तीर्य तत्र रात्री मदनायतने स्थितः। निशीथे हयहेषारवसंसूचितं 30 दिव्यालङ्कारभूषितं दिव्यस्त्रीवृन्दमागमत् । तत्स्वामिन्या कामः पूजितः "व्यावृत्तमानानां तासां
25
1A अपवरकान् । 2 A सम्पूर्णाश्च । 3A झम्पा दत्त्वा । * P पुस्तके इदं द्वितीयं वाक्यं नोपलभ्यते। 4 A रक्षसः। 5 AP नास्ति पदमेतत्। + P पुस्तक एव कोष्ठकगतः पाठो दृश्यते। 6A नास्ति । 7 A 'शुकः' नास्ति । 8 A विक्रमेण । 9-10 'जातं परं' नास्ति A आदर्श। 11 'जातः' नास्ति A आदर्श। 12 A व्यावर्तमा०।
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८०
प्रबन्धकोशे अश्वपुच्छे लगित्वा तत्र गतः। दासीभिदृष्टः । स्वामिनी पार्श्वे नीतः। तया स्लानादि कारितः । रात्रौ तद्गृह् एव स्थितः । तया खपत्या उक्तम्-मम विक्रमादित्यो भर्ता भूयात्, किं वा यो मां चतुर्भिः शब्दैर्जागरयति । इत्युक्त्वा सुप्ता । तेन चिन्तितम्-किं चतुर्भिरपि शब्दैन जागर्ति । तर्हि एनामहमेव जागरयिष्यामि । चत्वारः शब्दाः कृताः। यदा न जागर्ति तदा पादाङ्गुष्ठश्च5 म्पितः। तया पादेनाहतो यत्र विक्रमादित्यः सुप्तोऽस्ति तत्र पतितः। राज्ञा पृष्टम्-किमिदं ?।
तेन सर्वोऽपि वृत्तान्तः प्रोक्तः। __ ततो राजाऽग्निसझं वेतालमारुह्य तत्र गतः । वेतालः प्रच्छन्नो जातः । राजा दासीभिस्तत्र नीतः। तया भक्तिः कृता। तद्रूपदर्शनात्सरागा जाता। परंशयानया प्रतिज्ञा कृता । तथैवोक्तम् ।
राज्ञा दीपस्थितो वेताल उक्तः-भोः प्रदीप ! कामपि कथां कथय । स वक्तुमारेभे-कश्चि10 द्विप्रः। तस्य पुत्री । सा चतुर्णा वराणां दत्ता पृथक् पृथग ग्रामे । चत्वारोऽप्यागताः। विवादो
जातः । तिया महान्तमनथे दृष्ट्रा काष्ठभक्षणं कृतम् । लेहादेकेन वरेणापि चितामध्ये झम्पापितम्। एकोऽस्थीनि गृहीत्वा गङ्गां गतः । एकस्तत्रोटजं कृत्वा स्थितो भस्मरक्षार्थम् । एको देशान्तरं गतः। भ्रमता च तेन सञ्जीवनी विद्या शिक्षिता। पुनरपि तत्रागतः। अपरेऽप्यागताः।
सा जीवापिता । पुनर्विवादो जातः । तर्हि चतुर्णी मध्ये कस्य सा पत्नी। राज्ञोक्तम्-अहं न 15 वेनि । त्वमेव ब्रूहि । स आह-यश्चितया सहोत्थितः* स भ्राता। योऽस्थिनेता स पुत्रः । येन जीवापिता स पिता, उत्पत्तिहेतुत्वात् । यो भस्मरक्षकः स भर्ता, पालकत्वात् ॥४-१॥
राज्ञा ताम्बूलस्थगिका 'द्वितीयकथां पृष्टा । वेतालाऽधिष्ठानात्साप्याह-कुत्रापि मृतभर्तृका ब्राह्मणी अभूत् । तस्या जारेण सह सुता जाता। तां रात्रौ बहिस्त्यक्तुं गता। इतश्च तत्र कोऽपि
शूलाक्षिप्तो जीवन्नस्ति । तस्य पादे स्खलिता। तेनोक्तम्-कापापी दुःखिनोऽपि दुःखमुत्पादयति। 20 किं दुःखम् ? । सोऽप्याह-देहपीडादिकं, विशेषतो निष्पुत्रत्वं कथितम् । पुनः शूलानरेणोक्तम्त्वमपि कथय, का त्वम् ? । निजचरितं तयोक्तम् । तनिशम्य तेनाप्युक्तम्-पुराहृतं भूनिक्षित अत्रस्थं द्रव्यं त्वं मदीयमादाय सुतां मया सह विवाहय । ब्राह्मणी प्राह-त्वमिदानीं मरिष्यसि । सुता च लघ्वी । कथं पुत्रोत्पत्तिः । ऋतुकाले कस्यापि द्रव्यं दत्त्वा पुत्रमुत्पादयेः । तया तथैव
सर्व कृतम् । पुत्रो जातः। स रात्रौ राज्ञो द्वारे क्षिप्तः। राज्ञः केनाप्यर्पितः । कालेन' निष्पुत्रस्य 25 नृपस्य र वोपविष्टः। श्राद्धा
पिण्डदान कत्तुं गतः। जलाद्धस्तत्रयं निर्गतम् । स राजा विस्मितः। कस्य करस्य पिण्डं ददामि । तर्हि भो राजन् ! वद कस्य देयः पिण्डः। राज्ञोक्तम्-चौरहस्तस्य ॥ ४-२॥
राज्ञा स्वर्णपालकं जल्पितम् । तदपि कथामाह-कस्मिन्नपि ग्रामे कश्चित्कुलपुत्रः। स परिणीतोऽन्यग्रामे । परं तत्पत्नी श्वशुरगृहं नागच्छति । खजनैर्निर्गुण इति हस्यते । एकदा सर्वजन30 प्रेरितो मित्रयुतस्तत्र गतः। मार्गे यक्षस्य शिरो नामितम् । तत्प्रभावात्सादरा जाता । आगन्तुं
1 एतत्पदं नास्ति AB आदर्श । + दण्डान्तर्गतपाठस्थाने ABE आदर्शषु 'एकेन सह काष्ठभक्षणं कृतं' इत्येव पाठो लभ्यते । 2 P वच्मि । 3 A त्वमिह । * अत्र A आदर्श, पत्रपार्श्वभागे टिप्पन्यां 'तीर्थे तु स्थापकः पुत्रः, पुनर्जन्मप्रदः पिता । सहोस्थश्च पुनीता स भर्ता यस्तु पोषकः ॥' एषः श्लोको लिखितो लभ्यते। 4 A 'कथा' इत्येव। 5A नास्ति 'अभूत्। GA नास्ति । +P पुस्तके 'पुत्रो जातमात्रो राजद्वारे क्षिप्तः। ईदृशं वाक्यम् । 7A नास्ति। 8 Pपालनकं । 9 .गृहे।
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विक्रमादित्यप्रबन्धः।
८१ प्रवृत्ता। यक्षभवने' समीपमागते स एकाकी यक्ष नन्तुमगच्छत् । यक्षेण स्त्रीलोभेन तस्य शिरश्छेदितम् । महत्यां वेलायां मित्रमागतम् । तदवस्थो जातो दृष्टः । चिन्तितं च तेन-जनप्रवादो भविष्यति, यथा-अनेन स्त्रीहेतोहतः। तर्हि ममापि मर्तुं युक्तम् । इति विचिन्त्य तेनापि खशिरश्छिन्नम् । साप्यागता। द्वावपि तदवस्थौ प्रेक्ष्य चिन्तितं तया-जनोऽग्रेऽपि मां पतिद्वेषिणी" कथयन्नस्ति, सम्प्रति पतिनीमिति कथयिष्यति । तर्हि म्रियेऽहम् । इति ध्यात्वा गले शस्त्रिका 5 लगिता । तावता यक्षेण करे धृता-मा साहसं कुरु । तयोक्तम्-द्वावपि जीवापय । यक्षेणोक्तम्"-शिरसी निजनिजकबन्धे योजय । तयोत्सुकयाऽन्यान्यकबन्धयोय॑स्ते । तयोर्भार्याविवादो जातः-एको वदति मदीया, द्वितीयोऽपि तथा । तर्हि कस्य सा? । राज्ञोक्तम्-यस्य कबन्धे शिरः स भत्ता-'सर्वस्य गात्रस्य शिरः प्रधान'मिति वचनात् ॥ ४-३॥
कर्पूरसमुद्गकोऽपि कथामाह-कुतोऽपि ग्रामात्खखकलाविदश्चत्वारः सुहृदो देशान्तरं चेलुः । 10 एकः काष्ठसूत्रधारः, द्वितीयः स्वर्णकारः, तृतीयः शालापतिः, तुर्यो विप्रः । कापि वने राबावुषिताः। प्रथमयामे सूत्रधारः प्राहरके स्थितः। तेन काष्ठपुत्रिका तरुणीसदृशी कृता समग्राऽपि । द्वितीये प्रहरे वर्णकारो यामिकः । तेनाभरणैर्विभूषिता । तृतीये शालापतिः । तेन क्षौमाणि परिधापिता। चतुर्थे विप्रेण सजीवा कृता । प्रातः सजीवां दृष्ट्वा सर्वेऽपि तजिघृक्षया मिथो विवदन्ते । तर्हि कस्य सा, भो विक्रमादित्यनरेन्द्र ! ? । सा नाम श्रुत्वा चुक्षोभ । राज्ञोक्तम्-15 तदहं न वच्मि । तयोरकथयतोश्च तया जल्पितम्-भो राजन् ! कस्य सा ? । राज्ञोक्तम्-वर्णकारस्य । [*अधुनापि यः खणं चटापयति स एव भर्ता भवति ] ॥४-४॥
सा पप्रच्छ-के यूयम् ? । दीपस्थेन वेतालेनोक्तम्-असौ स विक्रमादित्यः । सा हृष्टा व्यूढा । तां गृहीत्वाऽवन्तीमागमत् । य ईदृग तत्समः कः; आधिक्ये तु का कथेति हसितम् । विक्रमसेनेन गर्वस्त्यक्तः। इति श्रीविक्रमप्रवन्धः॥
६९९) ततो विक्रमसेनः पुरोधसमप्राक्षीत्-यदि किल एताः काष्ठपुत्रिका मम पितरमद्भुतगुणं वर्णयन्ति, तर्हि स एव लोके तत्प्रथमतयोत्तमत्वेनावतीर्णो भविष्यति । ततः प्राक्" तु न कोऽपि तागुत्तमोऽभूदिति ब्रूमः । पुरोधाः प्राह-राजन् ! अनादिरियं रत्नगर्भा । अनादिश्चतुर्युगी । युगे युगे नररत्नानि जायन्ते । अहमेव प्रधानमिति गर्वो न हितकारी, न च निर्वहते। यतस्त्वत्पितुर्विक्रमादित्यस्य मनस्येकदा एवमभूत् ; यथा-रामेण व्यवहृत्य लोकः सुखीकृतः, तथाऽहमपि करिष्ये। 25 ततो रामायणं व्याख्यापितम्। तत्र यथा रामस्य दानं, अगारस्थापनं, वर्णाश्रमव्यवस्था, गुरुभक्तिस्त सर्वमारब्धम। ततोऽभिनवो राम इत्यात्मानं पाठयति। तद दृष्टा मन्त्रिभिश्चिन्त्यते स्म-अनुचितकारी अस्मत्प्रभुः, यो" गर्वादात्मानं तद्वन्मन्यते। अयं गर्वोऽस्योपायेनोत्तारयितव्यः प्रस्तावे। इतश्च त्वत्पित्रा विक्रमादित्येन पृष्टम्-लोके स कोऽपि काप्यास्ते योऽश्रुतपूर्व रामस्याचरणं ज्ञापयति नः। तत एकेन ज्यायसा मन्त्रिणाऽपरमन्त्रिप्रेरितेन कथितम्-राजेन्द्र ! कोशलायां 30
20
प
.
G
1A यक्षे। 2 P जातो धनिको दृष्टः। 3 AB नास्ति 'तेन'। 4 B छिन्ने। 5 P महति वेलायां साऽप्यागता । 6 Pऽग्रेऽपि द्वेषणीं। 7 'हम्' नास्ति ABI 8 P लगापिता। 9 P जीवय । 10 AB तेनोक्त। 11 A B वेनि । * कोष्ठकगता पंक्तिः प्रक्षिप्तप्राया P पुस्तके। 12 P०समकः। 13 A अधिकः कोऽत्र । P पुस्तके नास्ति समाप्तिज्ञापकमेतद् वाक्यम् । 14 A पराक् मनु। 15 AB यदात्मानं ।
११ प्र० को
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प्रबन्धकोशे विप्र एको वृद्धोऽस्ति । स काश्चित् श्रीरामस्य वार्ताः पारम्पर्यायाताः सम्यग् 'विवेद । आहूय पृच्छयते। राज्ञा आहूतः स सगौरवम् । आयातः। पूजितः पृष्टश्च-वृद्ध ! वद काश्चिद्रामकथां नव्याम् । विप्रो बभाण-पृथ्वीनाथ ! यदि कोशलायामागच्छसि, तदा रामस्य कमपि प्रबन्धं साक्षाद्दर्शयामि । इह स्थितस्तु वक्तुं न पारयामि । तदा राज्ञा राज्यभारो मन्त्रिषु न्यस्तः। स्वयं 5 महाचमूसहितो वृद्धद्विजयुक्त अयोध्योपशल्यां ययौ । स्कन्धावारे तस्थौ । तदानीं स एव सर्वदिगीश इत्यभीः । विप्रो भाषितः क्षमापालेन-दर्शय रामदेवचरित्रम् । ततो विप्रः स्थानमेकं दर्शयित्वा भूपालमालपत्-इदं भूखण्डं खानयत । ततः खानयति क्षमापालः। खनत्सु खनकेषु उपरि हेमकलशः, ततो हैमी मण्डपिका प्रकटीबभूव । उपरितनं 'रजोऽपसारितम् । पश्चानुपूर्व्या प्रथमद्वितीयतृतीयक्षणा हैमा दृष्टा महीभुजा। चतुर्थे क्षणे नीरजी कृते विपुला उपानदेका 10 हैमसूत्रकृता ज्योतिर्जालजटालमाणिक्यखचिता दृष्टा । भूपेन' विस्मितेन गृहीत्वा हृदि शिरसि निहिता । अहो ! असामान्या रत्नजातिरियम् । ततो विप्रेण विज्ञप्तम्-देव ! चर्मकारपन्या उपानदेषा; न स्पष्टमहों तव विष्टपपतेः। विक्रमेणोक्तम्-सा चर्मकार्यपि धन्या, यस्या इंदृगुप नत्। वद केयं कथा? । ततो विप्रो ब्रूते-विश्वेश्वर! श्रीरामे राज्यं कुर्वति सति, अत्र चर्मकारसदनानि
आसन् । इदमेकस्य चर्मकारस्य सदनम् । तस्य पत्नी लाडबहुला । अतो गर्वमुद्हति; विनयं न 15 करोति । ततः सा तेन हकिता हता च। याहि रे दुःखं गृहीत्वा इत्युक्ता च। ततो रुष्टाऽस्यामेकस्यां उपानहि तटपतितायां अपरिहितायां द्वितीयस्यां तु परिहितायां निजतातस्य सदनं जगाम । गत्वा पत्युः कठोरं भाषितं पित्रे बभाण। पित्रा दिनद्वयमस्थापि," आवर्जिता च । अथोक्तावत्से ! कुलस्त्रियः पतिरेव शरणम् । तत्रैव याहि । सोचे-न यामि मानक्षयात् । द्विस्त्रिरुक्तिप्रत्युक्तयो भणिताः। पितृभ्यां भाणितापि यदा पतिगृहं न याति तदा पित्रा भाषितम्-वत्से ! 20 अहमेवं मन्ये-यदा श्रीरामः सीता-लक्ष्मणसहितः खयमागत्यानुनीय त्वां श्वशुरकुले प्रहिता,
तदा तत्र गन्त्री त्वम् । साऽप्यलीकाभिमानिनी प्रवदति-इदमित्थमेव, राम एवागते यामि तत्र नापरथा। इमं वृत्तान्तं चरत्वनियक्ताः प्रच्छन्नाः सूरा गत्वा रामं व्यजिज्ञपन-देव ! अयं वृत्तान्तश्चर्मकारपुत्र्याः। ततो देवः श्रीरामः प्रजावत्सलः प्रातः ससीतः सलक्ष्मणः सामात्यस्तचर्मकारभवनमगात् । तन्मध्यं प्रविष्टः । पूजितः कारुभिर्विस्मितैर्विज्ञप्तश्च-देव ! अयमस्मान् कीटान् 25 प्रति कियान् प्रसादः कृतः। खप्नेऽपि नेदं सम्भाव्यते-यद्देवोऽस्मानुपतिष्ठते । किं कारणमागम
नस्य ?। श्रीरामः प्राह-त्वत्पुत्र्याः श्वशुरकुले प्रेषणायायाताः स्मः। तस्या हि वराक्यास्तथाविधा "प्रतिज्ञाऽऽस्ते । ततो हृष्टस्तजनकः । अपवरकं गत्वा दुहितरमाह स्म-मुग्धिके" ! तव प्रतिज्ञा पूर्णा । श्रीरामदेव आयातः सदेवीकः । एहि, वन्दख तं जगत्पतिम् । ततस्तुष्टा रामान्तिकमा
गता । ववन्दे तम् । आलापिता प्रजातातेन-वत्से ! गच्छ श्वशुरमन्दिरम् । तया भणितम्30 आदेशः प्रमाणम् । ततो गता पतिगृहम् । रामः खस्थानमायासीत् । श्रीविक्रम! अस्या द्वितीया उपानत तत्र" पितगृहे खन्यमाने लप्स्यते। स्वामिन ! आयाहि. तत्र : राजा तत्र । खानितं तत् । लब्धा द्वितीयाऽप्युपानत् । दृष्टं हैमं गृहम् । एवमन्यान्यपि तेन विप्रेण
__ 1 A सम्यग्वेद। 2 B विप्र । 3 Pप्रथमं । 4 A राज्ञाऽपसारितं । 5 P नीरजे। 6 AB विपुले। 7AB नास्ति 'भूपेन'। 8 AB विस्मितेन च । 9P मर्हति। 10 P अतः कारणात् सा। 11 P स्थापिता। 12 P सन्धा। 13 AB पुत्रिके। 14A प्रजानाथेन। 15 'ततो नास्ति P1 16AB नास्ति 'तत्र'। 17 P तत् ।
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विक्रमादित्यप्रबन्धः ।
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खानयितानि । लातं तद्वेम । राज्ञा विप्रः पृष्टः- विप्र' ! कथमीदृशं सम्यग् जानासि ? । विप्रेण गदितम् - पूर्वज पारम्पर्योपदेशात् ज्ञातं तुभ्यमुक्तं च । परं गर्वं मा धाः । स रामः स एव । तस्य ह्याज्ञया जल-ज्वलनौ स्तम्भेते स्म । पतन्त्यो भित्तयो दत्तायां तदाज्ञायां न पेतुः । लूता द्विचत्वारिंशत्, अन्धगडाः सप्तविंशतिः, स्फोटिका अष्टोत्तरं शतम्, विड्वराणि दोषाश्च सर्वे व्यनेशन । या तु तद्देवी सीता, ये त्रयस्तद्धातरः, ये तद्भृत्या हनूमत्सुग्रीवादयस्तेषां महिमानं 5 वर्षशतेनापि वाक्पतिरपि वक्तुं न शक्तः । इति श्रुत्वा विक्रमेण गर्यो मुक्तः । बिरुदं निषिद्धं 'अभिनवरामः' इति । पुनरुज्जयिनीमागात् । यथाशक्ति लोकमुदधरत् । तस्य हि अग्निवेतालपुरुषकसिद्धिभ्यां सुवर्णसिद्ध्या चोपकारैश्वर्य तदा निरुपममासीत् । ततो विक्रमो धन्य एव । ततोsधिकास्तु परे 'कोटाकोटयोऽभूवन् । इत्याकर्ण्य विक्रमसेनो विवेकी अभूत् ॥
(१००) *जैन तत्त्वबाह्य मुग्धजन चित्रमात्रफलं विक्रमादित्यप्रबन्धमेकं ब्रूमः ।
उज्जयिन्यां राज्यं शासति विक्रमादित्ये, आसन्ने ग्रामे विप्रेणैकेन हलं खेडयता दिव्यं ज्योतिमनमेकं भूमौ पतितं लेभे । जगृहे । तन्मौल्यप्रश्नार्थमुज्जयिन्यां रत्नपरीक्षिनैगमपार्श्वमागमत् । दर्शितं तद्रत्नम् । विस्मितास्ते ऊचु:-न वयमस्य रत्नस्य मौल्यकरणे क्षमाः, ईदृशस्य पूर्वमदृष्टस्वात्; अलीकमौल्यकरणे तीव्रदोषाच्च । केवलं देवः श्रीविक्रमादित्यो यदि वेत्ति मूल्यमस्य । स हि रेखाप्राप्तो रत्नमूल्यज्ञाने । विप्र उपविक्रमं जगाम । रत्नमदीदृशत् । विक्रमेण पृष्टम् - क 15 लब्धमिदम् ? । विप्रेणोक्तम्- देव ! हलं खेटयता स्वक्षेत्रभूमौ लब्धम् । राज्ञा भणितम् तर्हि दिनद्वयेन वक्ष्यामः । रत्नमस्मद्धस्त एवास्तु | विप्र ! मा भैः, न वयं परधनबद्धाभिलाषाः । धीरां दत्त्वा वसौधमध्य एव स्थापितः सः ।
अथ रात्रौ विक्रमेण विमृष्टम् - रत्नपरीक्षकाः संसारे बलिमनु । स च पाताले । तत्रापि गन्तव्यम् । 'कुतूहली लसो न भवेत् । ततोऽग्निवेतालमारुह्याशु पातालं गतः । बलिभुवनद्वारेऽस्थात् । 20 तत्र नारायणो द्वास्थः । प्रणतः । नारायणेन पृष्टम् - किं कार्यं तेऽत्रागमने ? । विक्रमेणोक्तम् - उपबलगतो विज्ञपय, राजा कार्यगौरवादायातोऽस्ति । यद्यादेशः स्यात्तदा दर्शनं लभते । ततः कृष्णेनोक्तं बलये- राजा समागतोऽस्ति द्वारे । बलिना निवेदितम् - राजा चेद्युधिष्ठिरः ?, पृच्छेः 'कृष्ण ! । गतः कृष्णः । पप्रच्छ- किं युधिष्ठिरोऽसि ? । विक्रमेणोक्तम् - राजानं युधिष्ठिरं मन्यते सः, तस्मादन्यद्वक्तव्यम् । गच्छ कृष्ण' !, मण्डलीक आगतोऽस्तीति वद । गतः सः । विज्ञप्तं तत् 1 25 बलिरूचे - मण्डलीकः किं रावण: ? । पुनरागतः कृष्णः । मण्डलीकश्चेत् किं रावण इति पृष्टोऽसि । विक्रमेणा भाणि - तर्हि गत्वा वद, कुमार आगतोऽस्ति । गत्वा तथोक्तम् । बलिराह- किं कार्तिकेयः, किं वा लक्ष्मणः, किं वा पातालवासी नागपुत्रो धवलचन्द्रः, किंवा वालिपुत्रोऽङ्गदो रामदूत इति ख्यातः १ । पुनरेहिरेयाहिरा कृष्णस्य । पुनर्विक्रमेणा भाणि - वदेस्त्वम्, वण्ठ आयातोऽस्ति । पुनर्गतः । बलिर्भणति - वण्ठश्चेत्किं हनूमान् ? । पुनः कृष्णो वागरितः । भणितं बलिवचः । 30 पुनर्विक्रमः प्रोचे - गत्वा वद, तलारक्ष आगतोऽस्ति । उक्तं तेन तत्तथा । ततो बलिर्जगाद - किं विक्रमकः ? | कृष्णेनैत्य पृष्टम् - किं विक्रमादित्यः ? । विक्रमादित्येन ओमित्युक्तम् । बल्यादेशा
1 AB अखानयिषत । 2P नास्ति 'विप्र' । 3P स्वाज्ञया । 4 P परःकोटयो । * P पुस्तके नोपलभ्यतेऽयं प्रबन्धः । 5 E नास्ति 'लेभे । GB गतः कृष्णः उक्तं । 7 A 'कृष्ण' नास्ति ।
10
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प्रबन्धकोशे दुपबलि नीतः। पृष्टो बलिना-रे विक्रम ! रत्नमूल्यं प्रष्टुमागतोऽसि ? । विक्रमादित्यो वदति इत्यमेवेदम् । दर्शितं रत्नम् । बलिर्वभाण-ईदृशानि अष्टाशीतिं सहस्राणि रत्नानि नित्यं युधिष्ठिरो निर्मूल्यान्यदत्त पात्रेभ्यः। तेषां मध्यादिदमरुलत् २ विप्रेण लब्धम् । प्रायो भूमि गतानि सर्वाणि रत्नानि, कालस्य बहुलत्वात् । ततो रे! राजा युधिष्ठिर एव, त्वं कः ?। 5 विक्रमेणोक्तम्-देव ! सत्यम् । एतत्प्रष्टुमिच्छामि-ईदृक्संपत्तियुधिष्ठिरस्य कुतः ? । बलिराहदिगजयधनानि तस्मै भ्रातृभिश्चतुर्भिराहृतानि । पूर्व 'चमत्कृतनामा काप्पटिको दारिद्यमग्नो रुद्रमारराध । तेन तुष्टेन तस्मै खवाञ्छया कैलासासन्ना आमूलचूलं हेमरत्नमयी पूनिष्पाद्य दत्ता। सा सुखेन तेन भुक्ता । तस्मिन्मृते रुद्रेण पांशुवृष्ट्या सा पिदधे । यदा तु युधिष्ठिरबान्धवः सहदेव उत्तरां दिशं साधयितुमुपतस्थे, तदा रुद्रस्तां पुरं खैर्गणैरुद्घाट्य सर्वां त?10 मादिविभूतिं युधिष्ठिरगृह्मविष्टामचीकरत् । ततो युधिष्ठिरस्य दानेच्छासिद्धिः । ततः स
राजा। मण्डलीकस्तु रावण इति व्यक्तम् । लोके तादृगबलवत्त्वं विद्यादर्पयोगात । कुमारस्त कार्तिकेयो वक्तुं युक्तः । सप्ताहवयाः सन्, यस्तारकं जघान । लक्ष्मणोऽपि कुमारः, यो मेघनादं ममई । तथा धवलचन्द्रोऽपि पीहुलिपुत्रः कुमारः, यो विषेण जगद्धतु क्षमः । विषममपि विषममृततां नेतुं समर्थः। अङ्गदोऽपि कुमारः सारः, य एवं वक्तुं समर्थः15 २०४. सन्धौ वा विग्रहे वापि मयि दूते दशाननी । अक्षता वा क्षता वापि क्षितिपीठे लुठिष्यति ॥१॥
इत्यादि ख्यातिश्च । वण्ठश्च सत्यो हनूमान् , यः स्वामिनं रामं प्रियावियोगज्वरजर्जराङ्गं सन्धीरयामास मध्येसभम् । २०५. देवाज्ञापय किं करोमि किमहं लङ्कामिहैवानये, जम्बूद्वीपमितो नये किमथवा वारांनिधि शोषये ।
__ हेलोत्पाटितविन्ध्यपर्वतहिमवर्णत्रिकूटाचल,-क्षेपक्षोभविवर्द्धमानसलिलं बध्नामि वा वारिधिम् ॥२॥ 20 इत्यादि चमत्कारिखामिकार्यसिद्धिसारतया वण्ठो हनूमान् एव । तलारक्षस्तु भवसि । गच्छ,
मूल्यं नास्ति रत्नस्येति द्विजाय वदेः । तदाकर्ण्य विक्रमः स्वपुरीं ययौ । रत्नं दत्त्वा, बल्युक्तमुक्त्वा स्वग्रामाय विद्म विसृष्टवान् । चिरं राज्यं चक्रे ।
॥ इति विक्रमादित्यप्रबन्धः ॥ १७॥
१८. अथ नागार्जुनप्रबन्धः। 25 ६१०१) ढण्कपर्वते सुराष्ट्राभूषणशत्रुञ्जयगिरिशिखरैकदेशरूपे राजपुत्ररणसिंहस्य भोपलनाम्नीं
पुत्री रूपलावण्यसम्पूर्णां पश्यतो जातानुरागस्य तां सेवमानस्य वासुकिनागस्य पुत्रो नागार्जुननामा जातः। स च जनकेन पुत्रस्नेहमोहितेन सर्वासां महौषधीनां फलानि मूलानि दलानि च भोजितः। तत्प्रभावेन स महासिद्धिभिरलङ्कृतः, सिद्धपुरुष इति विख्यातः । पृथ्वीं विचरन् पृथ्वीस्थानपत्तने सातवाहनस्य राज्ञः कलागुरुर्जातः । स च गगनगामि नीविद्याध्ययनार्थ पालित्तानकपुरे 30 श्रीपादलिप्ताचार्यान् सेवते । अन्यदा भोजनावसरे पादप्रलेपबलेन तान् गगने उत्पतितान्
1 A पूर्व च मरुत्वन्तु। 2 BE 'सुखेन' नास्ति । 3 P भोपाल। 4 'तो' नास्ति P। 5A गामिविद्या० ।
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नागार्जुनप्रबन्धः । पश्यति। अष्टापदादितीर्थानि नमस्कृत्य स्वस्थानमुपागतानां तेषां पादौ प्रक्षाल्य, सप्तोत्तरशतमहौषधीनामावादेन वर्णगन्धादिभिर्नामानि निश्चित्य, गुरूपदेशं विनापि पादलेपं कृत्वा कुर्कुटपोत इवोत्पतन्नवटतटे निपतितः। व्रणजर्जरिताङ्गो गुरुभिः पृष्टः-किमेतदिति ? । तेन यथास्थिते प्रोक्ते तस्य कौशल्येन चमत्कृतचित्ता आचार्यास्तस्य शिरसि पद्महस्तं दत्त्वा भणन्ति-पष्टिकतन्दुलोदकेन तान्यौषधानि वर्तयित्वा पादप्रलेपं कृत्वा गगने गरुड इव स्वैरं व्रजेः। ततस्तां सिद्धिं 5 प्राप्य परितुष्टोऽसौ ननर्त्त । पुनरपि कदाचिद् गुरुमुखादाकर्णयति, यथा-रससिद्धिं विना दानेच्छासिद्धिर्न भवति ।ततो रसं परिकर्मयितुं प्रवृत्तः । खेदन-मर्दन-जारण-मारणानि चक्रे । रसस्तु स्थैर्य न बध्नाति । ततस्तु गुरून् पप्रच्छ-कथं रसः स्थैर्यमाबधाति ? । गुरवः प्राहुर्यथा-दुष्टदैवतनिर्दलनसमर्थायां श्रीपार्श्वनाथस्य दृशि साध्यमानः, सर्वलक्षणोपलक्षितया महासत्या योषिता च मृद्यमानो रसः स्थिरीभूय कोटिवेधी भवति । तच्छ्रुत्वा स पार्श्वनाथप्रतिमां'समहिमामन्वेष-10 यितुमारेभे । [ परं तादृशीं न कापि पश्यति ।]
६१०२) इतश्च नागार्जुनेन खपिता वासुकिात्वा प्रत्यक्षीकृतः, पृष्टश्च-श्रीपार्श्वनाथस्य दिव्यकलानुभावां प्रतिमां कथय। तेनावाचि-द्वारवत्यांसमुद्रविजयदशाहेण श्रीनेमिनाथमुखान्महातिशयसम्पन्ना ज्ञात्वाश्रीपार्श्वस्य प्रतिमा प्रासादे स्थापयित्वा पूजिता।द्वारवत्या दाहानन्तरं समुद्रेण प्लाविता सा प्रतिमा तथैव समुद्रमध्ये स्थिता । कालेन कान्तीवासिनो धनपतिनामकस्य सांया-15 त्रिकस्य यानपात्रं देवताऽतिशयात् स्खलितम् । अत्र जिनबिम्बं तिष्ठतीत्यदृष्टवाचा निश्चित्य नाविकांस्तत्र निक्षिप्य सप्तभिरामसूत्रतन्तुभिर्वद्धोधृता प्रतिमा । निजनगर्यां नीत्वा प्रासादे स्थापिता । चिन्तितातिरिक्तलाभप्रहृष्टेन पूज्यते प्रतिदिनम् । ततः सर्वातिशायि तद्विम्ब ज्ञात्वा नागार्जुनेन रससिद्धिनिमित्तमपहृत्य सेडीनद्यास्तटे स्थापितम् । तस्य पुरतो रससाधनार्थ सातवाहनस्य राज्ञी चन्द्रलेखाभिधां महासतीं देवीं सिद्धव्यन्तरसान्निध्येनानाय्य प्रतिनिशं रसम-20 ईनं कारयति । एवं तत्र भूयो भूयो गतागते तया बान्धव इति प्रतिपेदेऽसौ । सा तेषामौषधानां मईनकारणं पृच्छति । स च कोटीवेधस्य रसस्य वृत्तान्तं सत्यं कथयति । अन्यदा द्वयोर्निजपुत्रयोस्तया निवेदितं यथा-सेडीनदीतटे नागार्जुनस्य रससिद्धिर्भविष्यति । तौ रसलुब्धौ निजराज्यं मुक्त्वा नागार्जुनान्तिकमागतौ । कैतवेन तं रसं जिघृक्ष प्रच्छन्नवेषौ यत्र नागार्जुनो जेमति तस्य गृहस्य परिसरे भ्रमतः। रन्धनीमालपतः-त्वं नागार्जुनाय रसवती लवणबहुलां कुर्याः 125 यदा तां रसवती क्षारां कथयति, तदाऽस्मभ्यं वदेः । साऽप्योमिति प्रतिशुश्राव । अथ सा तज्ज्ञानार्थं तदर्थ सलवणां रसवतीं साधयति । षण्मास्यामतिकान्तायां रसवती तेन क्षारेति दूषिता । रन्धन्या च राजपुत्रयोरग्रे गदितम् । अद्य क्षारत्वं जज्ञे नागार्जुनेन । ताभ्यामपि तस्य रससिद्धिनिश्चिक्ये । अथ तौ तस्य वधोपायं ध्यायतः पृच्छतश्च लोकं तज्ज्ञम् । पृच्छद्भ्यां ज्ञातं यथा-वासुकिना एवास्य दर्भाङ्करान्मृत्युः कथितोऽस्ति । नागार्जुनेन सिद्धस्य शुद्धस्य रसस्य 30 कुतपो द्वौ भृतौ ढङ्कपर्वतस्य गुहायां क्षिप्तौ । पृष्टचराभ्यां ताभ्यां ज्ञातौ । मुक्त्वा वलमानो नागार्जुनस्ताभ्यां संमुखस्थो दर्भाङ्कुरेण जघ्ने । मृतः सद्यः।
1P पादलेपं। 2 ABE प्रतिष्टोऽसौ। 3 BP रसं। 4 ABE नास्ति 'समहिमां'। * P पुस्तक एवं एप कोष्ठकगतः पाठो दृश्यते। 5 AB श्रीपार्श्वस्य । 6P स्थापिताऽस्ति। 7A चिन्तातिः। 8 P नागार्जुगो। 9 P अतिष्ठिपत् । 10 'अस्मभ्यं नास्ति ABI
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प्रबन्धकोशे
२०६. आलेख्ये चित्रपतिते मृते च मधुसूदन ! । क्षत्रिये त्रिषु विश्वासश्चतुर्थो नोपलभ्यते ॥ १ ॥
तौ कुतप देवतया संगृहीतौ । राजपुत्रौ नरकपङ्कगोचरतां गतौ । देवतया क्रुद्धया हतौ । न रसलाभो न च धर्मस्तयोः । तावपि राजपुत्रौ मरणकाले पश्चात्तापेन दग्धौ - हा हा ! येन खटिकासिद्धिवशाद्दशार्हमण्डपादिकीर्त्तनानि रैवतोपत्यकायां कृतानि येन रसो लोकोपकाराय साधितः, तस्य प्राणद्रोहेणावाभ्यां किं साधितम् ? । 'एकस्तावत्कलापात्रद्रोहः, 'अपरश्च मातुलद्रोहः । एवं दुःखात्तौ मृतौ । रसस्तम्भनात् स्तम्भनं नाम तीर्थं तत्पार्श्वदेवस्य । कालान्तरे तद्विम्बं ततः स्थानात्स्तम्भनपुरे पूज्यतेऽधुना ॥
10
८६
॥ इति नागार्जुनप्रबन्धः ॥ १८ ॥
१०३) पूर्वस्यां वत्सो जनपदः । तत्र कौशाम्बी पूः । श्रीऋषभवंश्यशान्तनु-विचित्रवीर्य-पाण्डुअर्जुन - अभिमन्यु-परीक्षित- जनमेजयकुले सहस्रानीको राजा । तत्पुत्रः शतानीकः । तस्य पत्नी महासती चेटकराजनन्दिनी मृगाक्षी मृगावती नाम । तयोर्नन्दन उदयनः, यः किल नादसमुद्रो विख्यातः । यो 'गीतशक्त्या उज्जयिन्यां अनलगिरीभं विन्ध्याभिमुखं गच्छन्तं पुनरालाने निवेश्य चण्डप्रद्योत राज्यमद्योतयत् । स सुखेन राज्यं शास्ति । यौवनस्थो भोगी कलासक्तो धीरः 15 ललितो नायकः ।
11000
१९. अथ वत्सराजोदयनप्रबन्धः ।
(१०४) इतश्च पाताले क्रौञ्चहरणं नाम पत्तनम् । तत्र वासुकिः सर्पराजः श्वेतो नीलसरोजलाञ्छितफणः । तस्य नामलदेवी नाम दयिता । विपुलो देशः । तक्षको नाम तस्य प्रतीहारो विषमादेवीप्रियः । यस्य फणामण्डपे त्रयोदशभारकोट्यो विषस्य वसन्तीति श्रुतिः । वासुकेः पुत्री दिव्यरूपा कनी वसुदत्तिर्नाम । तस्याः सख्यश्चतुर्दश । तद्यथा - धारू १, वारू २, चम्पकसेना ३, 20 वसन्तवल्ली ४, मोहमाया ५, मदनमूर्च्छा ६, रम्भा ७, विमलानना ८, तारा ९, सारा १०, चन्दनवल्ली ११, लक्ष्मी १२, लीलावती १३, कलावती १४ । सा ताभिः सह वीणामृदङ्गवंशसूक्तादिभिः क्रीडति । एकदा तासां मध्यादेकया उक्तम्-खामिनि ! वसुदत्तिके! अहं खपरिच्छदा सधीची नरलोके कौशाम्त्र्यां दिव्यरूपं महोद्यानं क्रीडितुमगाम् । दृष्टा तत्र बकुलविचकिलदमनक चम्पकविरहकादिद्रुमाणां सारणीनां द्रुमालवालानां वाटीकोट्टस्य श्रीः । यदि खामिनी 25 तत्केलिं काम्यति, तदा तत्र पादमवधारयतु । इदं श्रुत्वा सा वसुदत्तिका ताभिः सर्वाभिः सहेच्छा सिद्ध्या सहसा तद्वनं जग्मुषी' । तत्र केलिं कुर्वन्ति ताः, कुसुमानि चिन्वन्ति, तैः करण्डान् पूरयन्ति, धमिल्लानुत्तङ्गयन्ति, हारान् सारान् रचयन्ति । एवं खेलन्तीनां तासां वने कोकिलकुलकलरवकलः कोलाहल उच्छलितः । तदाऽऽकर्णनादुद्यानपालक एत्य ता अद्राक्षीत् । अहोरूपमहो खरोsहो प्रभेति विसिष्मिये । भक्त्या श्रीउदयनं ताः समालोकितुमाहातुमगमत् । 30 उदयनोऽपि कुतूहलादल्पपरिच्छदो वनमगात् । वसुदत्तिं ससखीकामालोकिष्ट । अध्यासीच
1 P एकं । 2 P अपरं । 3 A योगी तत् शक्त्या ।
4 P प्राप्ता ।
5 A विसिस्मये ।
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वत्सराजोदयनप्रबन्धः। [मनोजन्मनः महाव्याधेः परमरसायनमेतत् । अस्याः रूपसम्पत् जिहाभिः कोटिभिः ताभिवर्णयितुमशक्या*।] २०७. अस्याः सर्गविधौ प्रजापतिरभूचन्द्रो नु' कान्तिप्रदः, शृङ्गारैकरसः स्वयं 'नु मदनो मासो नु पुष्पाकरः ।
वेदाभ्यासजडः कथं नु विषयव्यावृत्तकौतूहलो, निर्मातुं प्रभवेन्मनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः ॥१॥ २०८. यत्पश्यन्ति झगित्यपाङ्गसरणिद्रोणीजुषा चक्षुषा, गच्छन्ति क्रमलालितोभयभुजं यन्नाम वामभुवः।
भाषन्ते च यदुक्तिभिः सचकितं वैदग्ध्यमुद्रात्मभि,-स्तद्देवस्य रसायनं रसनिधेर्मन्ये मनोजन्मनः ॥२॥ तं दृष्ट्वा सा पलायिष्ट । नृपोऽप्यन्वगाद् द्रुतं द्रुतम् । क्षणार्द्धन सर्वाः सख्योऽदृश्याः समपत्सत । सापि पातालविवरप्राये गर्त एकस्मिन् प्रविष्टा । राज्ञापि ज्ञातम्-कामरूपिणी गमिष्यत्येवेति । तावत्करे धृत्वा तस्या वेणीदण्डो यमुनाजलप्रवाहप्रायः कृपाणिकया छिन्नः। गता सा मृगशावलोचना। वेणी करेऽस्थात् । तां वेणी पश्यंस्तां चमत्कृतचकोरचलाचलाक्षीं स मुहु-10 मुहुरस्मार्षीत् । २०९. निन्दीवरिणी मुखाम्बुरुहिनी भ्रूवल्लिकल्लोलिनी, बाहुद्वन्द्वमृणालिनी यदि पुनर्वापी भवेत् सा प्रिया ।
तल्लावण्यजलावगाहनजडैरङ्गैरनङ्गानल,-ज्वालाज्वालमुचस्त्यजेयमसमाः प्राणच्छिदो वेदनाः ॥३॥ -इत्यादि । ततो हतप्रारम्भ उबाष्पः सखेदः पू:परिसरमेत्य अमात्यानाहूयावादीत्-मया एवं एवं बालिकायाः कस्याश्चिद्वेणी छिन्ना। सा तु श्वभ्रमूलमगात् । अतो मम राज्येन न कार्यम् । 15 इमामेव वेणी राज्यं कारयत । तेऽपि तथेति प्रतिपद्य पूर्वहिर्मण्डपे सोत्सवं वेणी राज्यं कारयन्ति रामपादुकावत्।
इतश्च सा वसुदत्तिका खिन्ना गत्वा खसौधेऽखाप्सीत् । तस्याः सख्यस्तत्कबरी छिन्नामीक्षित्वा नामलदेवीमाकार्यादीद्वशत् । जागरितां पुत्रीं नामलदेवी-वत्से! किमेतत् तवापि परिभवपदमित्यप्राक्षीत् । तनयापि यथास्थितं मात्रे आख्यत् । सापि नागपतये खपतये । क्रुद्धः 20 सद्योऽसौ तक्षकमाकार्य कथामुक्त्वा आदिक्षत्, यथा-गच्छ सराष्ट्रमुदयनं भस्मीकुरु । सोऽपि तदादेशादचालीत् । कौशाम्बी प्रापत् । तत्परिसरे उत्सवान् दृष्ट्वा नररूपः कश्चित्पप्रच्छ-किमेतदुत्सवसाम्राज्यम् ? । तत्रत्येन जनेनोक्तम्-एवं एवं राज्ञा दिव्यकन्यावेणी छिन्ना । उत्पन्नानुतापेन राज्यं तदायत्तं कृतम् । अतो वेणी राज्ञीह । राज्ञाऽत्रैव, एकदेशे तपस्तप्यते। तक्षकेणोत्सवो दृष्टो । मध्ये भ्रमता राजाऽप्यालोकितः । कुशस्रस्तरगः पद्मासनी जपमालापाणिः तपःक्षाम:25 जितप्राणायामः मौनी । पृष्ठश्च तक्षकेण नृरूपेण-कस्त्वम् ?, किमर्थ तपश्चरसि । तेनापि दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य गदितम्-भो पुरुषविप्र ! किं पृच्छसि मां मन्दभाग्यम् ?। दृष्टा मयैका पुण्यवती मृगहक । तामनुसर्पता मया पातकिना यान्त्यास्तस्याः कवरी कृपाणिकया निजपुण्यदशया सह कृत्ता । सा मनीषितं स्थानं ससर्प । अहं तु उदयनो राजा राज्यं तत्सात्कृत्वा खयं तपः कुर्वाणोऽस्मि । एवं श्रुत्वा क्षणं स्थित्वा, उपद्रवमकृत्वा, पातालं यात्वा नागेन्द्रमाललाप निष्पाप-30 प्रज्ञः-देव ! दृष्टो मया उदयनः, वेणीपुरश्च तथा राज्योत्सवः । स पुण्यात्मा मृदुमना बाढं परितप्यते । विनयी मानमर्हति । तच्छ्रवणाद् अतुषदाशीविषेन्द्रः। तर्हि किं युक्तमिति तक्षकमूचे।
* कोष्ठकगतेयं पंक्तिः P पुस्तक एव लभ्यते। 1P तु। 2 P स्वयं नु तनो। 3 A समपश्यत; BE समपत्स्यंत । + P पुस्तके नोपलभ्यते पद्यमिदम् ।
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प्रबन्धकोशे तक्षको बभाषे-देव! स एव वसुदत्तिविवाहाहः। कुलेन शीलेन विद्यया वृत्तेन पराक्रमेण रूपेण च किं वय॑ते सः। ___२१०. *अमुमकृत यदङ्गनां न वेधाः, स खलु यशखितपस्विनां प्रभावः ।
त्रिजगति कथमन्यथा कथापि, क्षततपसां तपसा पदं लभेत ॥४॥ 5 विद्या-कन्या-लक्ष्म्यो हि कुस्थाने निवेशिता निवेशयितारं शपन्ति । नामलदेवीमतं 'कनीमतं च लात्वा तक्षकेणैव वत्सराजमाजूहवत् । प्रवेशमहमचीकरत् । विवाहः प्रारब्धः। प्रथमायां दक्षिणायां सवत्सा गौः कामधेनुर्लब्धा । द्वितीयस्यां विशिष्टा नागवल्ली । तृतीयस्यां सोपधाना खट्वा सतूलीका । चतुर्थ्यां रत्नोद्योतो दीपः। एवं रत्नचतुष्केण सत्कृत्य सजायं जामातरं कौशाम्बी पुरीं प्रति प्रेषयत् । गतः स्वपुरं । तत्र ऋद्धं राज्यं भुनक्ति । 10 २११. *सुधाधौतं धाम व्ययभरसहश्वार्थनिवहः, सकामा वामाक्षी सुहृदपि निवेद्यात्महृदयः ।
गुणानामन्वेष्टा प्रभुरपि च शास्त्रव्यसनिता, पुराऽऽचीर्णस्यैतत् फलमलघु तीवस्य तपसः ॥५॥ २१२. यदेतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं, सदार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकश्रमफलम् ।
मनो मन्दस्पन्दं बहिरिति चिरस्थापि विरसन् , न जाने कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः ॥ ६॥ क्रमेण स एव वासवदत्तां चण्डप्रद्योतपुत्रीं गुणक्रीतां पर्यणैषीत् । डिाहलदेशाधिपपुत्री 15 पद्मावतीं च । पञ्चालदेशाधिपेनाकान्तं कौशाम्बीराज्यं मन्त्र क्षात्राभ्यां पुनरग्रहीत्।
६१०५) इयं च कथा जैनानां न सम्मता, देवजातीय गैः सह मानवानां विवाहासम्भवतः। विनोदिसभाऽर्हेति नागमतादुद्धृत्यात्रोक्ता।
॥इति उदयनप्रबन्धः समाप्तः ॥१९॥
२०. अथ लक्षणसेनस्य-मन्त्रिणः कुमारदेवस्य च प्रबन्धः। 20 ६१०६) पूर्वस्यां लक्षणावती पूः। तत्र लक्षणसेनो नाम प्रतापी न्यायी नृपः । तस्य द्वितीयमिव जीवितं प्रज्ञाविक्रमभक्तिसारो मन्त्री कुमारदेवः। विपुलं राज्यम् , अपारं सैन्यम् । ।
अत्रान्तरे वाराणस्यां गोविन्दचन्द्राख्यनृपपुत्रो जयन्तचन्द्रो राजा। तस्य विद्याधरो मन्त्री। महेच्छानां, अन्नदातृणां, सत्यवादिनां च प्रथमः।
एकदा जयन्तचन्द्रसभायां वार्ता इयमासीत्-यल्लक्षणावतीदुर्ग दुर्ग्रहम् , राजा महाचमूस25 मूहसम्पन्नः। तां वार्तामवधार्य काशीपतिः प्रतिज्ञा सभासमक्षमग्रहीत्-इतश्चलित्वाऽस्माभिर्ल
क्षणावतीदुर्ग ग्रहीतव्यम् । अथ न गृह्णामि तदा यावन्ति दिनानि दुर्गतटे तिष्ठामि, तावन्ति हेमलक्षाणि दण्डे गृह्णामि । अन्यथा न निवर्ते । इति सन्धां निर्माय प्रयाणढक्कामदापयत् । मिलितः समकालं राजलोकः। जाता गजमयीव सृष्टिः, भूपालमालामयीव भूमिः, अश्वमयमिव
जगत् । निर्गतं सैन्यं बहिः। अखण्डितैः प्रयाणैर्भअन् परबलानि, शोषयन् सरांसि, पङ्कयन् 30 नदीः, समीकुर्वन् विषमाणि, चूर्णयन् शिखराणि, लेखयन् शासनानि, जीवयन् साधुलोकान् ,
* एतचिह्वाङ्कितं पद्यद्वयं नोपलभ्यते P पुस्तके। 1P नास्ति। 2 A नास्ति 'पुरी प्रति'। 3 P गुणकीर्ति। । दण्डान्तर्गतः पाठः P पुस्तके नास्ति। 4 P बलान् ।
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लक्षणसेन-कुमारदेवप्रबन्धः। लक्षणावतीं प्राप्तः। दुर्गान्नातिदूरासन्ने भूभागे आवासान् दापयामास । लक्षणसेनस्तु द्वाराणि पिधाय पूर्मध्ये एव तस्थौ । 'क्षुभिता पुरी। सङ्कीर्णत्वमापन्नमनपाथोघृततैलवसनताम्बूलदलीदलादिवस्तूनाम् । स्थाने स्थाने वार्ता आर्ताः प्रवर्त्तन्ते-काशीपतिस्तु मुत्कलं परदेशं ग्रसते । सार्था एहिरेयाहिरां कुर्वन्ति । सुभिक्षमक्षामम् । नव्यानि कूपादीनि खातानि । विचरन्ति खैरं सैनिकाः । वर्द्धन्ते व्यवसायर्द्धयः । लुट्यन्ते ग्रामाः। द्वयोर्नुपयोरूर्ध्वमुखैरधोमुखैः शरैयुद्धानि। 5 गतानि दिनान्यष्टादश । तस्मिन् दिने सायं लक्षणसेनेन कुमारदेवो मन्त्री न्यगादि-मनिन् ! इदमस्माभिरनुचितमाचरितम् । यदयं रिपुर्देशं प्रविशन्नेव न प्रतिस्खलितः। अधुना दुर्गरोधे लोको दुःखी, मानग्लानिनः। तस्मात्यातर्योद्धव्यम् । दण्डं न ददामि । आह्वय सामन्तामात्यादीन् । कुमारदेवः प्राह-देव ! युक्तमेवेदम् ।
२१३. मृगेन्द्रं वा मृगारिं वा द्वयं व्याहरतां जनः । तस्य द्वयमपि व्रीडा क्रीडादलितदन्तिनः ।। १॥ 10 त्वयि धृतायुधे वज्रायुधोऽपि कातर एव । तत्कालं मिलिताः प्रधानयोद्धाः । उक्तो युद्धाभिप्रायः। प्रीतास्ते पीतामृता इव । उक्त' च
२१४. *मित्रस्नेहभरैर्दिग्धो रूपितो रणरेणुभिः । खड्गधाराजलैः स्नातो धन्यस्यात्मा विशुद्ध्यति ॥ २॥ उत्तम्भिता नेत्र वैजयन्त्यः। निष्पन्ना वीरकरम्बकाः। सम्पन्नानि पत्यादि मुत्कलापनानि । एवं सति कुमारदेवो राजान्तिकाद् गृहं गत्वा मन्त्रयते स्म
२१५. अस्माकं प्रभुयुद्धार्थी जयन्तचन्द्रस्तु बली । अस्थाने बलमारम्भो निदानं क्षयसम्पदः ॥ ३॥ तस्मात् किं कर्त्तव्यम् ? । आः! ज्ञातम्-जयन्तचन्द्रमन्त्री विद्याधरोऽनुसरणीयः । स हि प्रतिपन्नशूरः सकृपो निष्पापो दानी। इति विमृश्य पत्रीमेकां स्खलिखितां सहादाय प्राकारानगरस्रोतोहारेणैवैकाकी निर्गत्य मध्यरात्रे बहिःसैन्ये मन्त्रिगृहद्वारेऽस्थात् । तत्र द्वाःस्थैर्मध्ये मन्त्रिणं विद्याधरमात्मानमायातमजिज्ञपत्। सद्य आहूतस्तेन । आसितः खसमीपे, पृष्टश्च-के भवन्तः? 120 मत्रिणोक्तम्-अहं लक्षणसेनामात्यः कुमारदेवस्त्वां द्रष्टुमायासिषम् । किश्चिद्वक्तव्यमस्ति । तत्तु वक्तुं न शक्यते । पत्री तु लिखिता वक्ष्यति । इत्युत्तवा विद्याधरहस्ते तामार्पिपत् । तत्र श्लोको दृष्टः__ २१६. उपकारसमर्थस्य तिष्ठन् कार्यातुरः पुरः । मूर्त्या यामार्त्तिमाचष्टे न तां कृपणया गिरा ॥ ४ ॥
अस्य श्लोकस्यार्थं चिरं परिभाव्य विद्याधरोऽचिन्तयत्-अयं महीयान् मदन्तिकमागतः। 25 जयन्तचन्द्रापसारणमीहते । दण्डं च न दित्सते । मय्येव भारमारोपयति । तस्मानिस्तार्योऽसौ व्यसनसागरात्।
२१७. स एव पुरुषो लोके स एव श्लाघ्यतामिह । निर्भयं सर्वभूतानि यस्मिन् विश्रम्य शेरते ॥ ५॥ इति ध्यात्वा कुमारदेवं जगाद-मा भैः। दण्डं मा दाः। प्रातरत्रास्मत्सैन्यं न स्थास्यत्येव, गच्छ । इत्युक्त्वा कुमारदेवं सत्कृत्य व्यस्राक्षीत् । गतः स्वखामिलक्षणसेनसविधम्"। 30
1A क्षुध्नाति। 2 P ताम्बूलादि। P०याहिरे। 4 P खनितानि। 5 P व्यवसायाद् ऋद्धयः। 6 ABD नास्ति 'मन्त्री'। 7P नास्ति; C ऊचुश्च । * नोपलभ्यत इदं पद्यं P पुस्तके। 8 P तत्र वैजयन्त्यः। 9P पल्या मुल्कला० । 10P किं। 11A वक्ष्यते। 12P पुस्तके 'गतः स स्वस्थाने' इत्येव ।
१२ प्र० को
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प्रबन्धकोशे - इतश्च विद्याधरो जयन्तचन्द्रान्तिकं गत्वा विज्ञप्तवान्-राजेन्द्र ! अद्य देवस्यात्रागतस्य दिनाष्टादशकं गतम् । कुमारदेवेन स्वयमेत्य ममाष्टादश हेमलक्षाणि प्रवेशितानि । अतोऽभयं देहि । प्रसीद, स्वस्थानं गच्छ। काश्यामपि मुक्तायां निर्वाहो नास्ति, दुर्ग्रहं च दुर्गम् । इति श्रुत्वा काशीन्द्रः सद्यो रात्रावेव चलितः। दशक्रोशी गत्वा स्थितः। खनगर्यभिमुखीभिः पटकु5 टीभिः । लक्षणावतीलोको विस्मितो हृष्टश्च । लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः-किमिति गतो जयन्तचन्द्रः ? । मत्रिणोक्तम्-देव! त्वां युद्धोद्यतं श्रुत्वा काशीन्द्रः सुभीतः प्राणत्राणार्थं गतः। अन्यैव तव पिण्डशक्तिः।
२१८. गतिरन्या गजेन्द्रस्य, गतिरन्या खरोष्ट्रयोः । गतिरन्यैव सिंहस्य लीलादलितदन्तिनः ॥ ६॥
२१९. कः सिंहस्य चपेटपाटितमहामातङ्गकुम्भस्थल, स्थूलास्थिस्थपुटीभवत्परिसरां लीलागुहां गाहते । 10
कः काकोदरभर्तुरुद्धतविषज्वालावलीढस्फुरत् ,-फूत्कारावलिघोरमास्यकुहरं साडम्बरश्चुम्बति ॥७॥ अथ चापल्याड्डौकते कश्चित् तयोः तथापि क्षेमः कुतः। अतः स्वकीयमन्तुक्षमणोपायोऽयं तस्य । काश्यधिपोऽपि काश्यासन्नं गतः सन् विद्याधरमादिशत्-लक्षणावतीशदण्डधनं चतुर्दिग्मिलितेभ्योऽर्थिभ्यो देहि । येन यशांसि प्रैधन्ते । विद्याधरोऽपि खामिनं निगदति स्म'-देव! कुमार
देवेन मह्यं रत्नमेकं दण्डपदे दत्तमस्ति । तेन सद्यः कथं हेम निष्पद्यते । राजोचे-तर्हि रत्नं दर्शय। 15 अथ तेन पत्रीगतः श्लोकोऽदर्शि, कुमारदेवागमनवृत्तान्तश्च प्रोक्तः। विद्याधरमुखाच तदवधार्य
जयन्तचन्द्रो जजल्प अनल्पधीः-मन्निन् ! तदैव किं नेयं पत्री दर्शिता, येन तेभ्यो विशिष्टां कृपां कुर्मस्तदैव । त्वया खधनार्पणाङ्गीकारेणैव वयं तत उत्थापिताः । प्रापितो दण्डोऽस्मभ्यं किल, तेन हेमाष्टादशलक्षाणि कोशादाकृष्यार्थिभ्यो देहि । अष्टादशहेमलक्षास्तु कृपाप्रसादपदे
लक्षणसेनाय, अष्टौ हेमलक्षाः कुमारदेवाय प्रेषय । तथैव कृतं विद्याधरेण । प्रविष्टौ काशी तौ। 20 स्फीतं राज्यं भुङ्कः । षड्विंशतिहेमलक्षेषु तत्र गतेषु लक्षणसेनेन कुमारदेवः पृष्टः-किमिदम् ।
कुमारः स्मितपूर्वकमाचष्ट-त्वां विरोध्य का सुखी तिष्ठेत् । ततोऽरिणा दण्डस्तेऽर्पितः । पिप्रिये पृथ्वीपतिः, मुमुदे प्रजा, ववृते महोत्सवः । एवं मत्रिणः कालज्ञाः सुगूढाशयाः लोक-भूपयो।' कार्य कुयुरिति ॥ ॥ इति लक्षणसेन-कुमारदेवप्रबन्धः समाप्तः ॥२०॥
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२१. अथ मदनवर्मप्रबन्धः । ६१०७) चौलुक्यवंश्यो मूलराज-चामुण्डराज-दुर्लभराज-भीमान्वये कर्णदेवजन्मा मयणल्लादेविकुक्षिभूख्दशो रुद्र इति विदितबिरुदः श्रीजयसिंहदेवनामा महीपतिरभूत्। स अणहिल्लपत्तनान्निर्गत्यामितैः सैन्यैर्मालवदेशराजधानी धारां द्वादशभिर्वर्जग्राह । प्रतोलीत्रयं स्फोटयित्वा यशःपटहकुञ्जरेण लौहीमर्गलामन्वभञ्जत्। साऽद्यापि देवपत्तने श्रीसोमनाथाग्रे दृश्यते। यशःप80 टहो मृत्वा व्यन्तरोऽभूत्। जयसिंहो मध्ये परपुरं प्रविष्टो नरवर्माणं मालवेन्द्रं जीवग्राहमग्रहीत् ।
दण्डान्तर्गतः पाठो नास्ति P पुस्तके। 1 P माह। 2 A तेन । 3 A मुमुदुः प्रजाः। 4 A नास्ति पदमेतत् । 5A मध्ये पुरं । एतद्दण्डान्तर्गता पंक्तिः पतिता P पुस्तके ।
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मदनवर्मप्रबन्धः ।
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द्वादशवर्षाणि जयसिंहस्य खड्गो निष्प्रत्याकारोऽस्थात्, नरवर्मचर्मघटितमेव प्रत्याकारं करोमीति प्रतिज्ञावशात् । अत एव हस्त्यारूढं नरवर्माण भूमौ पातयामास । वितस्तिमात्रं चम्महिसत्कमुदतीतरत् । अत्रान्तरे प्रधानैर्विज्ञप्तम् - राजन् ! राजाऽवध्य एवेति नीतिवचः । तस्मान्मोक्तुमयम् । ततो मुक्तः सः । मुक्त्वा काष्ठपञ्जरे क्षिप्तः । नरवर्मचर्माऽन्यचर्मभ्यां सिद्धराजेन निजकृपाणे प्रत्याकारः कारितः । ततः कवीश्वरैर्विविधं स्तूयते सः
२२०. एकधारापतिस्तेऽद्य' द्विधारेणासिना जितः । किं चित्रं यदसौ जेतुं शतधारमपि क्षमः ॥ १ ॥ २२१. *क्षुण्णाः क्षोणिभृतामनेन कटका भग्नाऽस्य धारा ततः, कुण्ठः सिद्धपतेः कृपाण इति रे मा मंसत क्षत्रियाः । आरूढप्रबलप्रतापदहनः सम्प्राप्तधारश्चिरात् पीत्वा मालवयोषिदश्रुसलिलं हन्तायमेधिष्यते ॥ २ ॥
(१०८) ततो दक्षिणापथे महाराष्ट्र - तिलङ्ग कर्णाट-पाण्ड्यादिराष्ट्राण्यसाधयत् । अनन्तं धनं सङ्घटितम् । ततो गुर्जरधरां प्रति व्याघुटत् । यावद्देशसीमसन्धौ सैन्य निवेशं कृत्वा स्थितस्तावत् 10 सायम्, एकदा मह सभायामुपविष्टोऽस्ति प्रत्यक्ष इव सुरपरिवृढः । तावत्कश्चिद्वैदेशिको भट्ट एत्याशीर्वादं भणित्वा सभां दृष्ट्वाऽवददिदं यथा - अहो ! परमारवंशधूमकेतोः श्रीसिद्धराजस्य सभा मदनवर्मण इव मनोविस्मयजननी ! । तदाकर्ण्य सिद्धेन्द्रस्तमेव भहं पुर उपवेश्य पप्रच्छभट्ट ! कोऽसौ मदनवर्मा ?, क नगरे राज्यं करोति ? । भट्टः प्राह - देव ! पूर्वस्यां महोबकं नाम पत्तनं स्फारम् । तत्र मदनवर्मा नाम पृथ्वीपालः प्राज्ञस्त्यागी भोगी धर्मी नयी नल इव, पुरू - 15 रवा इव, वत्सराज इव, पुनरवतीर्णः पृथिव्याम् । तं राजानं तच पुरं यः खलु नित्यं पश्यति सोऽपि वर्णयितुं न पारयति । केवलं पश्यन्नन्तर्मनसं मूक इव स्वादं तद्गुणं जानाति । अस्माकं वचसि प्रायो लोकस्य विश्वासो नास्ति वावदूकत्वात् । परं प्रेषय कञ्चित्परमाप्तं निजं मन्त्रिणं ज्ञमू, येन स तामृद्धिं दृष्ट्वाऽत्रागत्य देवपादेभ्यो निवेदयति । एवं भाट्टीं वाचमवधार्य सिद्धराजो मन्त्रिणमेकं कतिपयजनयुतं द्रष्टुं तत्र तेनैव भट्टेन सह प्राहैषीत् । गतौ तौ भट्ट -मत्रिणी 20 महोबक पत्तनम् । दर्शितं पत्तनं भट्टेन । मन्त्रिणा दृष्ट्वा निर्विलम्बमुपराजमेत्य यथास्थितमभाणीत् - अवधारय खामिन् ! गतस्तत्राहम्, दर्शितं भट्टेन तत्पत्तनम् । 'तदा वसन्तमासोत्सवस्तत्र प्रवर्त्तते । गीयन्ते वसन्तान्दोलकादिरा गैर्गीतानि । भ्रमन्ति दिव्यशृङ्गारा नार्यः । मकरध्वजलक्षभ्रान्तिमुत्पादयन्तो विलसन्ति युवानः । क्रियन्ते प्रतिरथ्यं छण्टनानि यक्षकर्द्दमैः । प्रासादे प्रासादे सङ्गीतकानि । देवे देवे महापूजा । भोजनवाराः साराः प्रतिसदनम् । राजकीयसत्राकारे 25 तु दालिकराव स्रावणानि मुत्कलानि न मुच्यन्ते किन्तु गर्त्तायां नियन्त्र्यन्ते, तदा सघण्टो हस्ती निमज्जति । राजाश्ववाराः परितः पुरं भ्रमन्तो बीटकानि ददते लोकाय । कर्पूरैर्धूलिपर्वोदयः । रात्रौ विपणीन् वणिजो न संवृणन्ति; उद्घाटान् विमुञ्चन्ति । प्रातरागत्योपविशन्ति । एवं नीतिः । व्यवसायोऽप्याचारमात्रेणैव [*तत्र देशे लोहखानिवत्सुवर्णरूप्यखानीर्वहन्ति तेन सर्वः कोऽपि ] सिद्धार्थत्वात् । राजा तु कीदृगप्यास्ते, मया स न दृष्टः । इदं तु श्रुतम् - स नारीकुञ्जरः सभायां 30 कदापि नोपविशति । केवलं हसितललितानि तनोति । प्रत्यक्ष इन्द्रः ।
1 नास्ति P 'मुक्त्वा' । लभ्यते । 4 P पुरुषोत्तम । 'तु' नास्ति । 8P नेति ।
2 A तेन । * एतत्पद्यं नास्ति P पुस्तके 3P पुस्तके सर्वत्र 'भट्ट' शब्दस्थाने 'भद्र' शब्दो 5 AB प्राप्तस्तदा । 6 A विमुञ्चन्ते । * कोष्ठकगतः पाठः P पुस्तके प्रक्षिप्तमाय एव । 7 P
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प्रबन्धकोशे ___ एवं वचः श्रुत्वा सिद्धराजः सैन्यरक्षायां सैन्यं नियुज्य महता सैन्येन महोबकं प्रति प्रतस्थे। [क्रमेण गच्छन् ] तस्थौ तदासन्ने भूप्रदेशे कोशाष्टकेन । क्षुभितो देशः। स्थानाचलितं महोबकम् । प्रधानर्मदनवर्मा दिव्योद्यानस्थः स्त्रीसहस्रसमावृत एत्योचे-खामिन् ! सिद्धराजो गौर्जर उपनगरमागतोऽस्ति, स कथं पश्चान्निवर्तनीयः? । मदनवर्मणा स्मित्वा भणितम्-सिद्धराजः१; 5 सोऽयं धारायां द्वादश वर्षाणि विग्रहाय अस्थात् । स कबाडी राजा वाच्यो भवद्भिः-यदि नः पुरं भुवं च जिघृक्षसि, तदा युद्धं करिष्यामः । अथार्थेन तृप्यसि तदाऽर्थं गृहाणेति । ततो यद्याचते स वराकस्तद्देयं भवद्भिः। न वयं धने दत्ते त्रुट्यामः। सोऽपि जीवतु चिरम्, यो वित्तार्थ कृच्छ्राणि कर्माणि कुर्वाणोऽस्ति । राज्ञो वचोऽनुगृहीत्वा मत्रिणः पुरमगुः । तावता सिद्धे
शेन कथापितम्-दण्डं दत्त । मत्रिभी राजवाक्यं दूतमुखेन भाणितम्-यदि अर्थमीहसे तदाऽर्थ 10 लाहि, भूमिं चेत्तर्हि युध्यामहे वयम् । मदनवर्मदेवाय ज्ञापितमत्र भवदागमनम् । तेन अस्मत्प्रभुणा उक्तम्-कवाडी राजाऽर्थेन तर्पणीयः सः। सिद्धराजस्तल्लीलया विस्मितः षण्णवर्ति कोटीः कनकस्यायाचीत् । दत्तास्ताः प्रधानैः सद्यः। देशं सुखं तस्थौ । तथापि पश्चान्न याति । तदा प्रधानै णितम्-राजन् ! अर्थो लब्धस्त्वया; कथमथ न प्रतिगच्छसि। सिद्धेशेन भाणि
तम् -मत्रिपुरुहूता"! तं लीलानिधिं भवत्प्रभुं दिदृक्षे"। तेऽप्येत्य मदनवर्माणमभणन्-अर्थेन 15 तोषितः स क्लेशी राजा; परं भणति राजेन्द्रं द्रष्टमीहे । ततो मदनवर्मणा निगदितम्-तर्हि एतु
सः। ततः सैन्यं तथास्थमेव मुत्तवा मितसैन्यस्तत्रोद्याने आगतः सिद्धराजः", यत्र महाप्राकारस्थे सौधे मदनवर्माऽस्ति । प्राकाराबहिर्योधलक्षास्तिष्ठन्ति । प्रतोली यावदागत्य मध्येऽचीकथद् द्वाःस्थैः- आगम्यतामस्माभिः ? । महोबकप्रभुणा भाणितम्-जनचतुष्केण सहागच्छत ।
आगतो मध्ये सिद्धराजः । यावत्पश्यति काञ्चनतोरणानि सप्तप्रवेशद्वाराणि । अग्रे ददर्श 20 रजतमहारजतमयीर्वापीः । नानादेशवेश"भाषाविचक्षणाः शशाङ्कमुखीविशालनितम्बस्थलास्तारुण्यपुण्यावयवाः स्त्रीः। पणव-वेणु-वीणा-मृदङ्गादिकलासक्तं परिजनजनम् । स्फीतानि गीतानि शुश्राव । नन्दनोद्यानाधिकमुद्यानम् , हिमगृहाणि, हंससारसादीन खगान् , उपकरणानि हैमानि, कदलीदलकोमलानि वसनानि, जनितानङ्गरागान् उत्तुङ्गान् पुष्पकरण्डांश्चैक्षत । एवं पश्यन्
पश्यन् , पुरः पुरो गच्छन् , साक्षादिव मदनं मधुरे वयसि वर्तमानं मितमुक्ताफलप्रायभूषणं 25 सर्वाङ्गलक्षणं काञ्चनप्रभं मधुरखरं तामरसाक्षं तुङ्गघोणं उपचितगात्रं मदनवर्माणमपश्यत् ।
मदनवर्माऽप्यभ्येत्याश्लिष्य" हेमासनं दत्त्वा तमभाणीत्-सिद्धेन्द्र ! पुण्यमद्यास्माकं येन त्वमतिथिः सम्पन्नोऽसि । सिद्धराजः प्राह-राजन् ! आवर्जनावचनमिदं मिथ्या । यत्तु त्वन्मत्रिणामग्रे कबाडी इत्युक्तं तत्सत्यम् । मदनवर्मा जहास। सिद्धेश ! केन वो विज्ञप्तमिदम् ? । सिद्धेशः प्राह-तैरेव मन्त्रिभिस्तावकैः । कोऽभिप्रायो मनिन्दाभणने देवस्य ?। मदनवर्मा आह"-देव! 80 कलिरयम्, अल्पं जीवितम् , मिता राज्यश्रीः, तुच्छं बलम्, तत्रापि पुण्यैः स्फीतं राज्यं
___ 1P सिद्धराजो महता सैन्येन। 2P पुस्तक एवेदं दृश्यते। 3 P यद्धारायां। 4 P तर्हि। 5 P तृप्यति । 6 P कृच्छ्रकर्माणि । 7 P परचक्रमगुः। एषा पंक्तिः पतिता P पुस्तके। 8 ABD आदर्श न दृश्यते वाक्यमिदम् । 9A सिद्धसेनेन भणितं । 10 P मन्त्रिपुरः। 11 P दर्शयथ। 12 P नास्ति 'ततः'। 13 A नास्ति । 14 P आगतं । 15 A नास्ति 'अने। 16 P नास्ति 'महारजत'। 17 P 'वेश' नास्ति । 18 P तुङ्गाघ्राणं। 19 P .आश्लिक्षे। 20 A अवदत् ।
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रत्नश्रावकप्रबन्धः ।
लभ्यते, तदपि चेन् न भुज्यते, रुल्यते विदेशेषु, तत्कथं न 'कवाडिकत्वम् । सिद्धेशेनोक्तम्सत्यम्, एतादृशः कर्बाटिक एवाहम् । 'त्वमेव सत्यं धन्यो यस्येत्थं शर्माणि । त्वम जीवितं सफलम् । चिरं राज्यं भुङ्क्ष्व । इत्युक्त्वा तस्थौ । मदनवर्मणोत्थाय निजं परिजनकोश - देवतावसरादि सर्व दर्शितम् । प्रेमावृधत् । विंशत्युत्तरं पात्रशतं स्वाङ्गसेवकं सिद्धराजाय व्यतरत्' । तेन प्रीतो' जयसिंहदेवः सैन्यं गृहीत्वा धरां जित्वा पत्तनं अणहिल्लपुरं प्रविष्टः । 5 तेषां १२० मध्यादर्द्ध पथि मृतं मार्द्दवात्, शेषं पत्तने प्रविष्टम् । पत्तनप्रवेशोत्सवे श्रीपालक वेः सिद्धराजोपश्लोकन काव्यम् -
२२२. †हे विश्वत्रयसूत्रधार ! भगवन् ! कोऽयं प्रमादस्तव, न्यस्यैकत्र निवेश यस्य परतस्तान्येव वस्तूनि यत् । पाणिः पश्य स एष यः किल बलेवाक् सैव पार्थस्य या, चारित्रं च तदत्र यद् रघुपते चौलुक्यचन्द्रे नृपे ॥३॥
पुन:
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२२३. मानं मुञ्च सरस्वति ! त्रिपथगे ! सौभाग्यभङ्गीं त्यज, रे कालिन्दि ! तवाफला कुटिलता रेवे ! रयस्त्यज्यताम् । श्रीसिद्धेश कृपाणपाटितरिपुस्कन्धोच्छलच्छोणित, स्रोतोजात नदीनवीनवनितार क्तोऽम्बुधिर्वर्तते ॥ ४ ॥ एवमन्यैरपि 'कविभिर्भणितानि ॥
॥ इति मदनवर्मप्रबन्धः ॥ २१ ॥
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२२. अथ रत्नश्रावकप्रबन्धः ।
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६१०९) उत्तरस्यां दिशि काश्मीरेषु नवहुलं नाम महर्द्धिमत्पत्तनम् । तत्र विक्रमाक्रान्तभूचक्रो नवहंसो नाम भूपालः । तस्य राज्ञी रूपश्रीहसितरम्भा विजयदेवीनाम्नी । तत्रैव पत्तने पूर्णचन्द्रः श्रेष्ठिराजोऽभूत् । तन्नन्दनास्त्रयः - रत्नः, मदनः, पूर्णसिंहश्च । त्रयोऽपि जैनाः श्रीमन्तः प्रियंवदाः सात्त्विकाः प्राज्ञाः राजपूज्याः प्रारम्भसिद्धाः । रत्नस्य पत्नी पउमिणिरिति ख्याता । पुत्रस्तु कोमल इति नाम बालो वर्त्तते । तदा श्रीनेमिनाथनिर्वाणादृष्टसहस्त्री वर्षाणां व्यतीता - 20 स्ति । अस्मिन्नवसरेऽतिशयज्ञानी पट्टमहादेवेनामा नवहुल्लपत्तनपरिसरे समवासार्षीत् । देवैर्भूमिः शोधिता । उदकैश्छण्टिता । कनकपद्मं मण्डितम् । तत्र पट्टमहादेव उपविष्टः । मध्ये नगरस्य तदागमनं ज्ञापितमुद्यानपालेन" लोकाय नृपाय च । प्रथममागतो नृपः सान्तःपुरपरिच्छदः, सरत्न-मदन- पूर्णसिंहः । अपरोऽपि लोकस्तथैव । श्रेष्ठिनी पउमिणिरपि सपुत्रा " तत्रागता । एवं सभायां देव-दानव-मानव-विद्याधरादिवृन्द सुन्दरायां" गुरुर्देशनां प्रारेभे
२२४. यास्यामीति जिनालये स लभते ध्यायंश्चतुर्थं फलं, षष्ठं चोत्थितुमुद्यतोऽष्टममथो गन्तुं प्रवृत्तोऽध्वनि । श्रद्धालुर्दशमं बहिर्जिनगृहात् प्राप्तस्ततो" द्वादशं मध्ये पाक्षिकमीक्षिते जिनपतौ मासोपवासं फलम् ॥ १ ॥
1 A कटिकत्वं । 2 P त्वमेवायं । 3 AD वितेनिरे । श्रीपालकविना सिद्धराजो वर्णितः । † P पुस्तके नास्तिपद्यमिदम् । 9P भागर्वा ; A ० रम्भागर्वारम्भा । 10 B विजयदेवी । तत्र सपुत्रा । 14 P • मानव सुन्दरायां । 15 D तदा ।
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4 A ततो । 5 P घरामध्ये भूत्वा ; A धरांचित्वा । 6P 7 P विहाय नास्त्यन्यत्र 'कविभिः ' । 8P काश्मीरेषु देशेषु । 11 BE • महादेवि नामा | 12 AE • पालैः । 13 ABD
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प्रबन्धकोशे
२२५. सयं पमजणे पुन्नं सहस्सं च विलेवणे । सयसाहस्सिया माला अणंतं गीअवाइअं ॥२॥ २२६. पूजाकोटिसमं स्तोत्रं स्तोत्रकोटिसमो' जपः । जपकोटिसमं ध्यानं ध्यानकोटिसमो लयः ॥ ३॥ इदं सामान्यतः सर्वजिनसेवाफलम् । शत्रुञ्जये तु सविशेषं तदेव, असंख्यानां यतीनां सिद्धत्वेन सिद्धक्षेत्रत्वात् । 5 २२७. धूवे पक्खोवासो मासक्खवणं च कप्पूरधूवम्मि । कत्तिअमासक्खवणं साहूपडिलाभिए लहइ ॥ ४ ॥
इति वचनात् । शत्रुञ्जयादपि रैवतसेवा महाफला। रैवतो हि शत्रुञ्जयैकदेशत्वात् शत्रुञ्जय एव, श्रीनेमिकल्याणकत्रयभावादतिशायितमप्रभावश्च । नेमिनाथस्य माहात्म्यं मिथ्यादृशोऽपि प्रभासपुराणे एवं प्रवदन्तः श्रूयन्ते
२२८. पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्याख्यो नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ ५ ॥ 10 वामनावतारे हि वामनेन रैवते नेमिनाथाऽग्रे बलिबन्धसामर्थ्यार्थं तपस्तेपे इति तत्र कथा।
२२९. कलिकाले महाघोरे सर्वकल्मषनाशनः । दर्शनात्स्पर्शनादेवि ! कोटियज्ञफलप्रदः ॥ ६॥ ईश्वरोक्तमिदं प्रभासपुराण एवं । तस्माद्येन नेमिनाथो वन्दितो रैवतगिरिमारुह्य तेन किल परमपदं श्रद्धालुना गृहीतमेवेति तत्त्वम् । इत्येतां देशनां श्रुत्वा रत्नः श्रावक उत्थाय गुरोरने प्रतिज्ञा चक्रे-मया ससङ्घन यदा रैवतगिरौं नेमिः प्रणतो भविष्यति, तदा द्वितीया विकृति15 ग्रंहीतव्या। तदैव एकभक्तं 'मोक्तव्यम् । तावन्तं च कालं यावद् ध्रुवं भूमिशय्या-ब्रह्मचर्ये धायें।
वरं प्राणांस्त्यजामि परं नेमिनाथं नमाम्येवेति । ततः स्वगृहमायातो राजा लोकश्च । रत्नश्रावकोपरोधात् पट्टमहादेवस्तत्रास्थात् । रत्नस्तूपायनं दत्त्वा राजानमूचे-राजन् ! मां नेमियात्रायै रैवतगमनाय विसृज। राज्ञोक्तम्-वैरं धर्मः समाचर्यताम् । अस्माकं मतमेतत् । यद्विलोक्यते तद् गृहाण । रत्नो जहर्ष । सङ्घममेलयत् । गज-रथ-तुरग-पदातिरूपं महत्तमं सैन्यं नृपालेभे । यस्य 20 यन्यूनं तस्य तत्पूरयामास । अमारि-चैत्यपरिपाटी-शान्तिक-भोजनवारा-प्रतिलाभना-बन्दिमोक्ष-लोकसत्कारांश्चकार । गणितं मुहर्त्तम् । चलितो देवालयः। राजा महोत्सवकरः परमः सखा। करभशतर्धनानि चेलुः। श्रेष्ठिनी पउमिणिपपत्नी विजयादेवीं बालवयस्यां भेटयितुं जग्मुषी, पादयोस्तस्याः पेतुषी, आपप्रच्छे-स्वामिनि ! यात्रायै यान्त्यस्मि। भवद्वियोगदुःखं दिनकतिपयानि धर्मलोभतः सोदुमीहेऽहम् ।राज्ञी अपि "साश्रमूचे-सखि ! तत्र गता धनकृशतया" 25 कार्पण्यं कृत्वा मां लज्जापात्रं मा कृथाः । स्वैरं ददीथाः । अमूनि धनानि" भूषणानि वसनानि च "गृहाण । इत्युक्त्वा भूरि ददे । पदानि कतिपयानि सम्प्रेषयत् । निवृत्ता राज्ञी । श्रेष्ठिनी सङ्घमध्यमध्यास्त । श्रीपट्टमहादेवो गुरुः सह व्यवहरत् । तेन सनाथः सङ्घः । नित्यं धनस्य खैरं व्ययः । कोटीश्वराः साधर्मिकाः परःसहस्राः। चन्द्रहासवणाङ्का भटाः शतसहस्राः । तेन"क
भीः। एवं पथि तीर्थानि वन्दमानो रत्नः सङ्घपतिर्वान्धवद्वययुतः सपुत्रः सपत्नीकस्तावद् ययौ, 30यावद रोला-नोलाख्यौ द्वौ पर्वतौ स्तः। तत्र प्राप्तः। इह किल शत्रनयमध्ये भत्वा रैवतं गच्छतां
1 A कोटिगुणो । 2 A.BE नास्ति 'एव' । 3D देव। 4 P एवम् । 5 PBD रैवते। 6A नेमिनाथः । 7P भोक्तव्यम्। 8 A वयं। 9 A नेमिनाथयात्राय; B यात्रायै। 10 P शास्तु। 11 P धनकृच्छ्रतया। 12 ABE धनाम्यतिधनानि । 13 P यथेच्छं। 14 AB नास्ति 'तेन' ।
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रत्नश्रावकप्रबन्धः।
लोकानां रोला-तोलौ गिरी न स्तः। परं भद्रेश्वरपथेन गच्छतां स्तः। तत्र रोला-तोलयोरव्योर्मुखे मिलित्वा तोडकद्वयमिव जातमास्ते । तत्र परिसरे सङ्घ आवासितः। दिनं सर्व लात्र-चैत्यवन्दना-नादपूजा-भोजनादीनि स्वैरं ववृतिरे । रात्री सुखं स्थितम् । प्रातः पुरो गमनाय सन्नह्याचलत्सङ्घः । यावदग्रयानं गिरिमुखसङ्कटपथेन चलितुं प्रवृत्तम् , तावता कश्चिदेको मषीश्यामो व्यात्तवक्त्रो नरसिंहवपुरदृहासी बहुगव्यूतोचो दंष्ट्राकरालास्यो नखरैलॊकं दारयितुं प्रववृते। 5 भक्षयामि भक्षयामि च ऊचे । तद् दृष्ट्वा भीतो लोकः पश्चान्निवृत्य गच्छति । तद्राजपुत्रैज्ञोंतम् । तैर्गत्वा स कालरूपः प्रवभाषे-कस्त्वम् ?; कथं जनमुपद्रवसि ? । देवो वा दैत्यो वा राक्षसो वा येन तन्नाम्ना पूजयामः। स कालमूर्तिर्वदति-किं रे! बाढं वदथ । यदि पुरः पदमेकं व्रजिष्यथ, तदा सर्वान् एकैकशश्चर्विष्याम्येव । इति गदति सति तस्मिन् सङ्घरक्षपालैभेटैाघुट्य रत्नो विज्ञप्तः-देव! एवमेवं वृत्तान्तः । पुरो गन्तुं न लभ्यते । एतदंष्ट्राचर्विता लोकाः पुरः 10 'प्रेक्ष्यन्ताम् । तदाकर्ण्य कर्णकटुकं विषपणो रत्नः। क उपायः?, का गतिः, का मतिः?-इति कलकलितः सङ्घः। विशेषतः स्त्रीजनः । स्थाने स्थाने वृन्दशो वार्ताः। केचिद्वदन्ति-पश्चान्निवृत्य गम्यते । अयं सर्वं भक्षयिष्यत्येव । 'जीवन्नरो भद्रशतानि पश्यति । अपरे त्वाहुः-म्रियते चेद म्रियताम् । गम्यते पुरः, नेमिरेव शरणम् । केचिद दुमलतान्तरितास्तस्थुः । अन्ये ज्योतिषमपश्यन् । इतरे सङ्घप्रस्थानमुहूर्त्तदातारमनिन्दिषुः । इत्येवं विषमे वर्तमाने सङ्घपतिरत्नेन 15 भटाः प्रभाषिताः-गत्वा पृच्छत तं घोरं नरम् , त्वं कथं प्रसीदसि?, येन तत्कुर्मः, पुरो बजामः। गता भटाः। भाषितं रत्नवचनं तदने । तेनोक्तम्-अहमेतस्या गिरिभुवोऽधिष्ठाता । एकं सङ्घप्रधानमानुषं भक्षयामि, ततस्तृप्यामि, अन्येषां नोपद्रवामि, प्रतिज्ञां च न ल । ते भटा. स्तत्सम्यग्निीय' तदालापं रत्नाय ऊचुः। रत्नेनैकत्रोपवेशिताः सर्वे लोकाः। तथा सनद्धा एव भणिताश्च ते लोकाः-पुण्यं मे महद, येनासौ कोऽपि घोरपुरुष एकं मानुषं जिघत्सति । तद्भ-20 क्षणात् तृप्तश्चेच्छेषं न भक्षयति । तस्माद् यूयं यात, नेमि वन्दध्वम् । मयाऽस्मै "स्वाङ्गं देयम् । अहो! लाभोदयः। इयत्कालं विविधयत्नपालितं देहं सङ्घार्थे उपकृतम् । एवमुक्त्वा तूष्णीके सद्देशे, राजपुत्राः प्रभणन्ति-नररत्न रत्न ! त्वं चिरं जीव । अस्माकं "एकतरेण स ध्रायतु । वयं हि सेवकाः । सेवकानां च धर्मोऽयम्-मृत्वाऽपि प्रभुरुद्वरणीयः। अन्यथा धर्मयशोवृत्तिक्षयात् ।
२३०. ते मुग्गडा हराविया जे" परिविहा" ताहं । अवरुप्परजोयंतयह सामिउ गंजिउ जाहं ॥ ७॥ 25 ___सङ्घप्रधानसाधर्मिका ऊचुः-"रत्नदेव ! त्वं चिरं जीव । युवाऽसि, राजपूज्योऽसि, सहस्रलक्षजन पोषकोऽसि; वयं विनश्वरकलेवरव्ययेन स्थिरं धर्मं जिघृक्षामहे।
२३१. जइ उट्ठभइ तो कुहइ, अह डज्झइ तउ छारु" । एयह दुट्ठकलेवरह जं वाहियइ तं सारु ॥ ८॥ २३२. *सा सुकंतइं जगु मरइ ते वीरडी म सुक्क । इक्कु मरंतइं सु मरइ वरिसउ मरउ म इक्क ॥ ९॥ भदन-पूर्णसिंहौ" जगदतुः-आवयोस्त्वं ज्येष्ठो भ्राता पिता यथा। पितुरायत्तश्च पुत्रप्रायो 30 लघुभ्राता। किं रामाग्रे युद्धा लक्ष्मणेन न प्राणास्तृणीकृताः।
1P पुस्तक एव 'परं' दृश्यते। 2 P विहाय नास्त्यन्यत्र 'तद् दृष्ट्वा'। 3 P पुस्तक एवेदं पदं लभ्यते। 4 P लभ्यतेऽभाग्यात्। 5 P एवं तद् । 6P पुरः पतिताः। 7 P विहाय नोपलभ्यतेऽन्यत्र पदमिदम् । 8 P जिघृक्षति । 9 P स्थानं । 10 P अमाकं मध्ये। 11 Pये। 12 A परिवुढा; P परिविद्धा। 13 P अवरप्परजोयंतह । 14 P हे रत्न। 15 'जन, नास्ति A B| 16 A उन्भट्टह; P रक्खिजइ। 17 P छारं। 18 A वाहिए; P वाहियइ। *A आदर्श एवेदं पद्यं लभ्यते । 19P सिंहभ्रातरौ ।
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प्रबन्धकोशे
२३३. स्नेहो न ज्ञायते देव ! प्रणामान्न मृदूक्तितः । ज्ञायते तु क्वचित्कार्ये सद्यः प्राणप्रदानतः ॥ १० ॥ पउमणिब्रूते - कुलस्त्रियः पत्याधीनाः प्राणाः । पत्यौ लोकान्तरिते जीवन्त्यपि मृताः शृङ्गाराद्यभावात् । यथा
२३४. शशिना सह याति कौमुदी सह मेघेन तडिद् विलीयते । प्रमदाः पतिवर्त्मगा इति प्रतिपन्नं हि विचेतनैरपि ॥११॥ भर्तरि मृते नार्याऽनुमर्तव्यं तावत् । यदि मयि मृतायां त्वं जीवसि, तदा किं न लब्धं मया । कोमलः प्राह तात !
5
२३५. एकदेहविनिर्माणादधमर्णीकृतैः सुतैः । यशो-धर्ममयं देहद्वयं पित्रोर्वितीर्यते ॥ १२ ॥
इत्येवं वदतस्तान् सर्वान् युक्तिभिर्वाढं निषेध्य स्वयं मर्त्तु स्थितः । सङ्घो वहन् कृतः । कालपुरुषेणोपद्रवो न कृतः । गते तु सङ्घ रत्नः श्रीनेमिपरायणः स्थिरस्तस्थौ । पउमिणिर्नाग्रे 10 गता । परत्र स्थित्वा कायोत्सर्गमधात् । कोमलोऽपि तथैव । कालपुरुषेण रत्नो गिरिगुहायामेकस्यां क्षिप्तः । द्वारि शिलां दत्त्वा पुच्छमाच्छोटयति । सिंहनादैः खं बधिरयति । तथापि रत्नो न बिभेति । 'पविस्थिरजिनरागः ।
अत्रान्तरे कूष्माण्डीं वन्दितुं रैवतशिखरे क्षेत्रपतयः सप्त — कालमेघ १ मेघनाद २ गिरिविदारण ३ कपाट ४ सिंहनाद ५ खोटिक ६ रैवत ७ नामानो मिलिताः । ते देवीं वन्दित्वा 15 ऊचुः - देवि ! कापि पर्वतो धडहडायते । ईदृशं कापि पूर्वं न वृत्तम, यादृगधुना वर्त्तते । ततः पश्य, किमिदम् ? । कापि पुरुषो महानेक उपद्रूयमाणोऽस्ति केनापि क्रूरेण । अम्बया ज्ञातं ज्ञानेन । तैः सह तत्र गता । पउमिणि - कोमलौ दृष्टौ तथाकायोत्सर्गस्थौ । कृपा-भक्ती जाते । गुहाद्वारं गत्वा स आक्षिप्तः क्रूरः- रे ! किमिदं करोषि ? | युध्यस्व चेत्समर्थोऽसि । रत्नं रक्षामो वयं क्षेत्रपालाः, अहं अम्बा जगदम्बा । तथोक्ते घुरुहुरितः सः । युद्धं ववृते । " यावत् सोऽम्बया 20 पादे धृतः, शिरः परितो भ्रमयित्वा स्फालयिष्यते ग्रावण्युग्रे, तावत्प्रत्यक्षो दिव्यमूर्त्तिः पुरो " नरो ददृशे । रत्नश्च पुरः दिव्याभरणाङ्गरागी सप्रियः सपुत्रः, सुखी । ऊचे च स दिव्याङ्गःअम्बे ! क्षेत्रपाः ! श्रीरत्न ! शृणुत । यदा रैवतमहिमानं गुरुर्जगौ, तदाऽनेन नररत्नेन" रत्नेन प्रतिज्ञा कृता मया प्राणव्ययेनापि नेमिर्वन्दनीय एवेति । तदाऽहं वैमानिकः सुरः " शङ्करो नाम तत्र उपगुरु निषण्ण आसम् । मया न सोढा साऽस्य सन्धा । " तेनात्रागत्य एवमुपद्रुतोऽयं 25 रत्नः महासत्त्वः । धन्याऽस्य जाया, पुण्यवानङ्गजः, श्लाघ्या यूयं सङ्घभक्ताः साहाय्यकराश्च" । अहं यदि सत्येनैव युध्येयं तदा भवद्भिर्न जीयेय । परं क्रीडामात्रमेवैतदमलिनमनसा कृतमिति । रत्नैर्वृष्ट्वा रत्नमालिङ्ग्य सङ्घमध्ये मुक्त्वा" स्वयं द्यां ययौ । अम्बाद्या गिरिमगुः ।
६११०) सङ्घो रैवतकमारुरोह । नेमिं ननाम । लेप्यमूत्त नेमौ तथा स्नात्रं जलैस्तेने, यथा बिम्बं घये गलित्वा मृद्भूय भूम्या सह मिलितम् । विषण्णाः सर्वेऽपि ; विशेषतस्तु रत्नः । अचिन्तयच30 धिग्ामाशात नाकारिणम्, येन एवंविधतीर्थविध्वंस वृजिन भाजनं जातोऽस्मि । तदा" भोक्त
1 D मदनः । 2 P पुस्तक एव लभ्यते ' बाढं' । 3 A B निषिध्य । 4 AB कर्तुं । 5 D नेमिध्यानपरायणः । 6A आस्फोटयति । 7 P पुस्तके 'पविस्थिर' स्थाने 'हृदिस्थित' शब्दः । 8P जातम् । 9 P घुघुरितः । 10 P यावता । 11 Pपुरतो । 12 P नास्ति ' नररवेन' । 13 P विहायान्यत्र नास्ति । पदमेतत् । 16 A क्षित्वा । 17 P अथ तदा ।
14A B नास्ति 'तेन' । 15 P विहान्यत्र नास्ति
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आभडप्रबन्धः ।
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व्यम्, यदा तीर्थं पुनः स्थापितं भविष्यति । इत्युक्त्वा बान्धवौ सङ्घरक्षायै नियुज्य, अम्बां ध्यात्वा, तपस्तेपे । षट्युपवासान्तेऽम्बा प्रत्यक्षीभूय तं काञ्चनबलानाख्ये इन्द्रनिर्मिते निशि निनाय । तत्र तीर्थे द्वासप्ततिजिनबिम्बानि महाकायान्यदीदृशत् । तत्राष्टादश हैमानि, अष्टादश रत्नानि, अष्टादश राजतानि, अष्टादश शैलमयानि एवं द्वासप्ततिः । तत्रैकस्मिन् रत्नमये बिम्बे रत्नः खनामसाम्यादिव तुष्टो विलग्नः । इदमर्पय मे स्वामिनि !, येन तत्र स्थाने रोपयामीत्यम्बामूचे च । 5 अम्बाऽप्याह स्म-वत्सक ! तीर्थमिदं महत् । आगमिष्यति शनैः शनैः कलिः । तत्र लोको हीन - सत्त्वोऽलुब्धः पापकारी सर्वधर्मबाह्यो भावी । तदग्रतो रत्नं बिम्बं न छुटिष्यति । महत्या - शातना भाविनी ततः । तस्मादिदमाश्मनं गृहाण । रत्नेन तथेत्यूरीकृतम् । उदितं च-मातः ! कथमिदं महन्मया नेयम् । देव्योक्तम् - आमसूत्रतन्तुभिरेभिर्वेष्टय । ततश्चल' मा भैः । यत्र तु पश्चाद्विलोकयिष्यसि तत्रैव स्थास्यति । इत्यम्बिका गिरा चलितो रत्नो बिम्बं गृहीत्वा याव - 10 त्कियतीमपि भुवं पुरो याति तावद् विस्मितः पश्चादालुलोके - किं अम्बा आगच्छति नवेति । तत्रैव तस्थौ बिम्बम्। [उदुम्बरोपरि न चलति स्थानान्मनुष्यलक्षैरपि । ततः परावृत्त्य * ] ' तथैव द्वारस्य प्रासादस्य च रचना कृता । साऽद्यापि तथैव' तत्रास्ते । एवं प्रतिज्ञां सम्पूर्य रत्नः ससङ्घी रैवताद् व्याघुट्य शत्रुञ्जये ऋषभं प्रणम्य अन्यान्यपि तीर्थानि वन्दित्वा नवहुल्लपत्तनं प्रविष्टः राज्ञाऽभ्यागतः । गृहे गृहे मङ्गलानि साधर्मिकवात्सल्यानि । ऋद्धिर्वृद्धिश्व' । आचन्द्रार्कस्थायि 15 यशो ललौ । रत्नस्थापितं नेमिबिम्वमिदं यद्वन्द्यमानमास्तेऽधुना । तस्य तु स्तुतिरेवं प्राक्कविकृता२३६. न खानिमध्यादुदखानि सूत्रैर्नासूत्र टरुदटङ्कि नैव ।
अद्योति न द्योतनकैर्न वाहैरवाहि योऽमत्रि न सिद्धमत्रैः ॥ १३ ॥ २३७. अनादिरव्यक्ततनूरभेद्यः प्रभामयोऽनन्तबलः सुसिद्धः ।
तरीस्तरीतुं भविनां भवान्धिं स नेमिनाथः कृपयाऽऽविरासीत् ॥ १४ ॥ ॥ इति श्रावकरत्न रत्नप्रबन्धः ।। २२ ।।
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२३. अथ आभडप्रबन्धः ।
१११) अणहिलपुरे श्रीमालवंश्यः श्रेष्ठी नृपनागः । तत्पत्नी सुन्दरी । तज्जः श्रीआभड: तस्मिन् दशवर्षदेश्ये माता- पितरौ द्यां गतौ । श्रीर्नष्टा । तथाप्याभडः सुजनाश्रितो व्यवसायज्ञ इति ववृधे। पूर्वजकीय कन्या लब्धा । परिणीतः । वृत्त्यर्थं मणिकारकाणां गृहे घुर्षुरान् घर्षति 125 लोष्टिकान् पश्चोपार्जयति । तत्र" लोष्टिकमेकं धर्मे व्ययति । द्वौ कुटुम्बवृत्तिकार्ये । द्वौ सञ्चये विधत्ते । चतुर्दशेऽब्दे पुत्रो जातः । तस्य स्तन्यप्राप्तिरल्पा । अतइछागीगवेषणाय आभडो बहिर्ग्रामं गतः । तत्र, आवाहे प्रातर्दन्तपावनं कुरुते । अत्रान्तरे आगतं अजायूथम् । ताः सर्वा आवाहे पयः पातुं लग्नाः । पयः कम्बुधवलमपि सहसा नागवल्लीदलनीलच्छायं" जातम् । विस्मित आभडः ।
1 P नास्ति 'तसः' । 2 P इतश्चलमाने । 3EB इत्यम्बा० । * P विहायान्यत्र नास्ति कोष्ठकगतः पाठः । 4P नास्ति । 5 A B तत्रैवास्ते । 6P राजा स्वयमभ्यागतः । 7 'ऋद्धिः वृद्धि:' स्थाने P पुस्तके 'प्रवृत्तानि' । 8P विनाऽन्यत्र नास्ति पदमेतत् । 9 B ० काराणां । 10 P तेषां मध्ये । 11 Poदलच्छायं ।
१३ प्र० को ०
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प्रबन्धकोशे छागीषु पयः पीत्वा निवृत्तासु यावद् गवेषयति तावदेकस्याः कण्ठे टोकरकं तन्मरकतरत्नगर्भ ज्ञात्वा तेन सह सा विक्रिये। बालोऽजीवत्। [ रत्नं तु शिराणे उद्योतितं महातेजापुञ्जमयम् । परीक्षकाणां दर्शितम् । तैरमूल्यं भणितम् । तदनु जेसिंघदेवनृपाय अर्पितम् । तुष्टेन राज्ञा एका स्वर्णकोटी दापिता*] आभडोऽपि तेन महर्द्धिर्जातः। नखपृष्ठमात्रं हि तल्लक्षं लभते । सुभिक्षं च 5 तदा । व्यवहारी जातः । जयसिंहराज्यं तदा ऋद्धम्।
६११२) आभडस्य वहिकास्तिस्रः। एका रोक्यवही, अपरा विलम्बवही, तृतीया परलोक वही । [एतावता* ] को भावः-धरणबन्धनयातनाः कस्यापि न करोति कृपाम्भोधिः । ३६ वेलातटेषु धनर्द्धि; महालाभाः। पूगहहिका १-निजसदनं २-श्रीहेमसूरिपौषधशाला ३-माषपिष्टकेष्टकाचिताऽकारि । अमारिकारकश्रीकुमारपालदेवसमये महाव्यापस्तस्य । 10 $११३) एकदा श्रीहेमसूरिभिः साधर्मिकवात्सल्यं महाफलमिति राज्ञे व्याख्यातम् । राज्ञा
आभड उक्तः-त्रुटितधनं श्रावककुलं दीनारसहस्रं दत्त्वोद्धार्यम् । वर्षान्ते लेख्यकं वयमवधाराप्याः। आभडेन वर्षान्ते राज्ञे लेख्यकं दर्शितम् । एका कोटिः । राजा यावद्दापयति, तावदाभडेन विज्ञप्तम-देव ! भूभुजां कोशो द्विधा स्थावरो जङ्गमश्च । तत्र स्थावरो हेमादिः.जामो वणि
गजनः । वणिग्धनमपि खामिधनमेवेति । [राजोवाच-एवं मा वादीः । लोभपिशाचो मां छल15 यति । तावन्मात्रं तत्कालमेवानाय्य दापितम्।] राजा तुष्टः।
३११४) एवं व्रजति काले राजा कुमारपालदेवः श्रीहेमश्च वृद्धौ जातौ । श्रीहेमसूरिगच्छे च विरोधः । रामचन्द्र-गुणचन्द्रादिवृन्दमेकतः; एकतो बालचन्द्रः । तस्य च बालचन्द्रस्य राजभ्रातृव्येन अजयपालेन सह मैत्री। [एकदा प्रस्तावे* ] राज्ञो गुरूणामाभडस्य च रात्रौ
मन्त्रारम्भः । राजा पृच्छति-भगवन् ! अहमपुत्रः कं स्वपदे रोपयामि। गुरवो ब्रुवन्ति-प्रताप20 मल्लदौहित्रं राजानं कुरु धर्मस्थैर्याय; अजयपालात्तु त्वत्स्थापितधर्मक्षयः । अत्रान्तरे आभडः प्राह-भगवन् ! यादृशस्तादृशः खकीय एवोपकारी । पुनः श्रीहेमः-अजयपालं राजानं मा कृथाः [सर्वथैव*]। एवं मन्नं कृत्वोत्थितास्त्रयः। स मन्त्रो बालचन्द्रेण श्रुतः । अजयपालाय च कथितः । [अतो*] हैमगच्छीयरामचन्द्रादिषु द्वेषः, आभडे तु प्रीतिः । श्रीहेमसूरेः स्वर्गगमनं जातम् । ततो दिनद्वात्रिंशता राजा कुमारपालो अजयपालदत्तविषेण परलोकमगमत् । 25 अजयपालो राज्ये निषण्णः। श्रीहेमद्वेषाद् रामचन्द्रादिशिष्याणां तप्तलोहविष्टरासनयातनया मारणम् , राजविहाराणां बहूनां पातनम् । लघुक्षुल्लकानाहाय्य प्रातः प्रातर्मंगयां का अभ्यासयति । पूर्वमेते चैत्यपरिपाटीमकार्षरित्युपहासात् । बालचन्द्रोऽपि स्वगोत्रहत्याकारापक इति ब्रुवद्भिाह्मणैर्नृपमनस उत्तारितः। लघुता । मालवान् गत्वा मृतः । 'पापं पच्यते हि सद्यः'। प्रासादपातनं दृष्ट्वा श्रावकलोकः खिद्यते । आभडः पूर्वप्रतिपन्ना"न्मान्योऽपि वक्तुं न शक्नोति, 30 उग्रत्वाद्राज्ञः। [परं तेन* ] प्रपञ्चेन तु रक्षा "कारिता । "कथं ?
1P फ्रीता। * कोष्ठकगताः पाठाः P पुस्तक एवोपलभ्यन्ते। 2 P नास्ति। 3 P पारलौकिक०। 4 P कोटिरायाता । 5P हेमादिभाण्डागारः। 6P .क्षयो भावि। 7 P आत्मीयो भव्यः। 8 P मारणं कृतम्। 9P लजितो। 10 P
पन्नत्वान् । 11 P कारापिता। 12 P तदा हा कथं ।
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आभडप्रबन्धः।
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६११५) [ एकदा* ] आभडेन नृपवल्लभः कौतुकी सीलणो नामा भूरिहेमदानेन प्रार्थितःतथा कुरु, यथा शेषप्रासादा उद्धरन्ति । तेनोक्तम्-निश्चिन्तैः स्थेयम् , रक्षिष्याम्येव । सीलणेन सांठकसौधमेकं कृतम् । धवलितं चित्रितं च । पुत्राः पञ्च कर्णे एवमेवमुपराजं कर्त्तव्यमिति शिक्षिताः । गतो नृपान्तिकं सीलणो वदति-देव ! जरा मे शिरसि स्थिता । पुत्रपौत्रवान् जातः। अधुना तीर्थयात्रायै विदेशान् यामि, यद्यादेशः स्यात् । राज्ञोक्तम्-यथारुचि 'चेष्टस्व । 5 [तदनु*] तत्सौधं पुत्रांश्चादाय महासभास्थे नृपे आगात् । पुत्रा भलापिताः क्षितिपतये । पुत्राश्च भाषिता राज्ञि पश्यति सति-एतन्मे सौधं यत्नतो रक्ष्यम् । मम यशाशरीरमेतत् । [बहु*] यत्न निष्पादितमिति । तैस्तथेति प्रतिपेदे। [नृपादिसर्व*] आपृच्छय पुरस्तात् कियतीमपि भुवं यावत् सीलणो याति, किल तावत्तैस्तत् सौधं लकुटेरास्फाल्य सद्यो भग्नम् । खटत्कारं श्रुत्वा सीलणो व्याघुटितो वदति-रे हताशा ! अस्मादपि कुनृपात्कुपुत्रा यूयम् । अने-10 नात्मीये पितरि मृते [ सति*] तद्धर्मस्थानानि पातितानि; भवद्भिः पुनरहं पदशतकमपि गच्छन् न प्रतीक्षितः। राजा ललज्जे । चैत्यानामपातनमादिशति स्म।
६११६) तस्य कुत्सितस्य राज्ञो माता-पुत्रयोबलाद्विप्लवं कारयितुं रुचिरुत्पन्ना। वण्ठांस्तथा कारयति । एकदा एकेन वण्ठेन छन्नधृतहखकंकलोहकर्तिकया जघ्ने ।
६ ११७) दिनकतिपयानि कीर्तिपालनामा राजपुत्रो गूर्जरधराया लोकरक्षामकरोत् । छत्र-15 चामरादि न तस्य।
६११८) तस्मिन् मालवसैन्ये मृते गूर्जरधरायां भीमदेवो राजा आसीत् । स दीर्घजीवी । [परं*] विकलः पुण्याधिकः । [तस्य* ] सोढू मोढू द्वे गड्डरिके । ते हे लपयति, सर्वांगावयवविभूषिते कारयति', सुखासने उपवेशयति, ग्रामेषु ससैन्ये भ्रमयति । ग्रामाः 'सैन्यकैर्भक्ष्यन्ते। [एवं* ] बहुकालो गतः । एकदा देशपालैः सम्भूय राजा विज्ञप्तः-देव ! निरर्थकं किमिति 20 खदेशं भक्षापयसि । अन्नघृतवसनादिव्ययो वृथाऽयम् । [तदा*] राजा आह-कथामेकां शृणुत । कचिद्वेलाकूले पूर्व जलवेगाहतो [एको*] मीनस्तटे लग्नः । तदा तत्र दुर्भिक्षं घोरम् । अन्नाभावे क्षुधातॊ लोकः। अतः सर्वोऽपि जनः कुठाराद्यैश्छेदं छेदं तं मीनं भक्षयितुं गृह्णाति। तथापि स न म्रियते, महाकायत्वात् । अत्रावसरे क्षुधितः पत्नीप्रेरितः कोऽपि विप्रस्तन्मीनमांसं ग्रहीतुमगमत् । अपरलोकैश्छिद्यमानं पश्यतस्तस्य खभावदयालोर्विप्रस्य दया आसीत् । न छिनद्मि । तदा 25 व्यन्तरानुप्रवेशात् स मत्स्यो विप्रमाह-भो! छिन्धि माम् । अन्येऽपि खादन्तः सन्ति । तवोपकृतो भव्यः। विप्रः प्रोचे-दया मे, 'न छिनद्मि। मीनो वदति-तर्हि शृणु, अयं पापी लोको मां म्रियमाणं मारयति । अहं तु मृत्वाऽत्र तटे राजा भविष्यामि पुरन्दरो नाम । राजकुलेऽवतरिष्यामि । त्वं ममोपाध्यायो भविष्यसि । अहं प्रार वैरादमुं लोकं नवनवभङ्गिभिः कदर्थयिप्यामि । त्वया कस्याप्यर्थे विज्ञप्ति व करणीया। त्वां तु सत्पुरुषमहं गुरुवुद्धया पूजयिष्यामि । 30 इति जल्पन मृतः स मीनः। यथोक्तो राजा पुरन्दरो नाम समभूत् । विप्रस्तु गुरुः। तं लोकं कृत
* कोष्ठकगतानि पदानि P पुस्तक एव दृश्यन्ते। 1 P तथा चेष्टस्व । 2 A यत्नेन । 3A करोति। 4A सैन्येन । 5 P नास्ति 'तदा'। CP तेन न छिनत्ति ।
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प्रबन्धकोशे परमागसं स राजाऽपीपिडत्। विप्रस्तु तदुक्तं स्मरन् न ऊचे किश्चित् । तस्माद् भो! ग्रामण्योऽहमपि तद्विधः कोऽप्यवतीर्णोऽस्मि । क्रीडया पीडयामि लोकम् । [तस्माद* ] भवद्भिर्न वाच्यम् । वक्ष्यथ चेद् [तदा* ] रसनां छेत्स्यामि । [एवं श्रुत्वा*] स्थितस्तूष्णीं लोकः । देशोऽपचीयते ।
६११९) एवं राज्ये आभडस्तथैव ऋद्धिमान् ।आभडस्य च चाम्पलदेनानी बालविधवा वाग्मिनी 5 उचितज्ञा सर्वशास्त्रविदुरा तनया गृहव्यापारान् करोति 'कारयति । एकदा लोभात्किञ्चिच्चोरयन् भाण्डागारिको रुष्टेनाभडेन निष्काशितः। स कोपादुपभीमभूपं गतः । ऊचे च-राजन् ! आभडस्य अनन्ता ऋद्धिः । एवमेवं तां गृहाण। राजाह-कोऽप्यस्यान्यायोऽस्ति ? । भाण्डागारिक ऊचे-नास्ति । तर्हि परधनं कथं वृथा गृह्यते?। भाण्डागारिकः प्राह-छलं किमपि क्रियते। राजाहतथाऽहं करिष्यामि । [इति विचार्य*] भाण्डागारिकं स्वसौधे एव स्थापयित्वा छागीमांसं दासी10 शिरसि स्थालस्थं कृत्वा प्राहैषीत् । आगता सा दासी मध्याहे आभडसदनद्वारम् । तदा आभडो ध्यानेन जिनमर्चयति । चाम्पलया स्वयं द्वारमुदघाटि । दासी मध्यमागता । स्थालं दर्शितम् । चाम्पलया मांसं दृष्ट्वा, तदैव भाण्डागारिकविक्रियेयमिति ऊहांचके । [मध्ये ] आनीता सगौरवम् । सा पृष्टा किमेतत् ? । दास्याह-राज्ञा उत्सवे गौरवाय वा प्रस्थापितमदः । एतन्मांस
चाम्पलया स्थालान्तरे लातम् । सपादलक्षमूल्यों हारो राज्ञेऽर्पितः। दास्यै कण्ठाभरणम् । स्थालं 15 मौक्तिकैर्वर्द्धापितम् । दासी हृष्टा उपराजं वव्राज। भोजनादनु आभडः पुत्र्या जगाद-तात ! निष्कासितभाण्डागारिकप्रेरितनृपकर्तव्यमेतत् । मया दास्यै रीढा न कृता । यास्यति श्रीः। परं उपायं कुरु। सर्वस्वधनं टिप्पयित्वा राज्ञे दर्शय, कथय च-गृहाण स्वामिन् ! यदि ते रुचिरस्ति । तथैव चके सः। नृपो विस्मितो लजितो हृष्टश्च । भाण्डागारिक तटे धृत्वा राजोचे-रे मूढ !
यस्मै विधिव्यं दत्ते, तस्मै तद्रक्षोपायबुद्धिमपि दत्ते। ततो माऽत्र वृथा मत्सरी स्थाः। पुनरेवा20 भडपादयोर्लगितः। तृणमपि तत्सत्कं राज्ञा न गृहीतमेव । एवं धनी, अखण्डभाग्यः, चिरायुः, नीरुक्, आभडो मरणावसरे पुत्रोपकाराय खसदने चतुष्कोण्यां निधिचतुष्कं न्यास्थत्। मृतः खयं समाधिना । चाम्पलाऽपि द्यां गता। पुत्रैर्वाह्ये धने गते [ सति ] ते निधयः सम्भालिताः। [परं ] न लभ्यन्ते । अञ्जनं चटापितम् । अञ्जनी भणति-केऽपि श्यामाङ्गा मुद्गरपाणयोऽधोऽधो
धनं नयन्ति, किं मुधा क्लिश्यध्वे ?। जाता निराशाः । सामान्यवणिजोऽभवन् । तस्मात्पुरुषाणां 25 पुण्योदय एव धनवृद्धिनिवन्धनं न कुलमिति ॥
॥ इत्याभडप्रबन्धः ॥२३॥
1 नास्ति P पुस्तके। 2 P चाम्पलदेव्या । 3 P महिणिमोत्सवे 4 P मूलहारो। 5 P च दापितं ।
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श्रीवस्तुपालप्रबन्धः।
२४. अथ श्रीवस्तुपालप्रवन्धः । २३८. श्रीवस्तुपाल-तेजःपालौ मत्रीश्वरौ उभौ आस्ताम् ।
यौ भ्रातरौ प्रसिद्धौ, कीर्तनसंख्यां तयोधूमः ॥१॥ F१२०) पूर्व गूर्जरधरित्रीमण्डनायां मण्डलीमहानगर्या श्रीवस्तुपाल-तेजःपालाद्याः वसन्ति स्म। 'एकदा श्रीमत्पत्तनवास्तव्यप्राग्वाटान्वयठक्कुरश्रीचण्डपांत्मज-ठकुरश्रीचण्डप्रसादाङ्गज-मन्निश्री- 5 सोमकुलावतंस-ठकुर'श्रीआसराज नन्दनौ 'कुमारदेवीकुक्षिसरोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपाल-तेजःपालौ श्रीशत्रुञ्जय-गिरिनारादितीर्थयात्रायै प्रस्थितौ । 'हडालाग्रामं गत्वा यावत्वां भूति चिन्तयन्तस्तावल्लक्षत्रयं जातं सर्व खम् । ततः सुराष्ट्राख सौस्थ्यमाकलय्य लक्षमेकमवन्यां निधातुं निशीथे महाश्वत्थतलं खानयामासतुः। तयोः खानयतोः कस्यापि प्राक्तनः कनकपूर्णः शौल्वकलशो निरगात् । तमादाय श्रीवस्तुपाल: तेजःपालजायामनुपमदेवीं मान्यतया अपृच्छत्-क 10 एतनिधीयते ? । तयोक्तम्-गिरिशिखरे "एतदुच्चैः स्थाप्यते । यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसादु भवति । तत् श्रुत्वा श्रीवस्तुपालः तद्रव्यं श्रीशत्रुञ्जयोजयन्तादौ अव्यययत् । कृतयात्रो व्यावृत्तो धवलकपुरमगात्।
१२१) अत्रान्तरे"महणदेवी नाम कन्यकुब्जेश्वरसुता जनकात् प्रसन्नात् गूर्जरधरां कञ्चलिकापदे लब्धां सुचिरं भुक्त्वा कालेन मृत्वा तस्यैव गूर्जरदेशस्य अधिष्ठात्री महर्द्धिय॑न्तरी जाता । 15 सा धवलक्कके शय्यायां सुखविश्रान्तं राणकश्रीवीरधवलं प्रत्यक्षीभूय जगाद-राणक! इयं गूर्जरधरा वनराजप्रभृतिभिर्नरेन्द्रः सप्तभिश्चापोत्कटवंश्यैः षण्णवत्यधिकं शतं वर्षाणां भुक्ता । तदनु मूलराज-चामुण्डराज-वल्लभराज-दुर्लभराज-भीम-कर्ण-जयसिंहदेव-कुमारपाल-अजयपाललघुभीम-अर्णोराजैः चौलुक्यैः सनाथीकृताः। सम्प्रति युवां पिता-पुत्रौ लवणप्रसाद-वीरधवलौ स्तः। "इयं गूजरधरा कालवशादन्यायपरैः पापैः स्वाम्यभावान् 'मात्स्यन्यायेन' कदर्थ्यमा-20 नाऽऽस्ते, म्लेच्छैरिव गौः। यदि युवां वस्तुपाल-तेजःपालौ मन्त्रिणौ कुर्वाथे , तदा राज्य प्रतापधर्मवृद्धिर्भवति । अहं महणदेवी सर्वव्यापिभिर्भवत्पुण्यैराकृष्टा वदन्त्यस्मि । इति वदत्येव विधुदिव सहसाऽदृश्या बभूव । राणकवीरधवलः पद्मासनस्थस्तल्पोपविष्टश्चिन्तयति-अहो देव्युपदेशः साक्षात् !; कर्त्तव्यमेव तन्मन्त्रिद्वयं यद्देव्योक्तम् । यत:२३९. दृप्यद्भुजाः क्षितिभुजः श्रियमर्जयन्ति, नीत्या समुन्नयति मत्रिजनः पुनस्ताम् ।
25 रत्नावली जलधयो जनयन्ति किन्तु, संस्कारमत्र मणिकारगणः करोति ॥२॥ इत्यादि चिन्तयन् प्रातरुत्थितः । पूर्वोक्तमेवोपदेशं महणदेवी श्रीलवणप्रसादायाप्यदत्त । कृतप्रातःकृत्यौ मिलितौ पिता-पुत्रावेकत्र । कथितं रात्रिवृत्तमन्योऽन्यम् । तुष्टौ द्वावपि । तदैव च तेषां कुलगुरुः पुरुषसरस्वती सोमेश्वरदेवो द्विजः स्वस्त्ययनायागात्"। ज्ञापितोऽसौ तवृत्तान्तं ताभ्याम् । सोऽप्युवाच-देवौ ! युवयोः प्राचीनपुण्यप्रेरिता देवताऽपि साक्षात् । तस्मात्तदुक्त-80
1EB अन्यदा। 2P चण्डपस्तदात्मजः। 3P चण्डप्रसादस्तदङ्गजः। 4 P .सोमस्तस्कुला०। 5P मंत्रिश्रीआस । 6 P राजस्तनन्दनौ। 7 P कुमरा। 8 P हडालक०। 9 P सुराष्ट्रात्स्वं । 10 A प्राक्तनः। 11 A एवैतदुचैः । 12 P महणल। 13 P नामा। 14 P अर्णोराज एवं । 15 A इति । 16 A कुर्वध्वे; P कुर्वीथे। 17 P स्वस्त्ययनयोगात् ।
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प्रबन्धकोशे माचरताम् । मन्त्रिवलं विना न किञ्चिद् राज्यपरिकर्मणम् । मन्त्रिणौ च यौ भवतोरग्रे प्रतिपादितौ देव्या, तावत्रागतौ स्तः । मम मिलितौ। राजसेवार्थिनी, द्वासप्ततिकलाविदुरौ, न्यायनिष्ठौ, जैनधर्मज्ञौ स्तः । यद्यादेशः स्यात् , तदाऽऽनीयेते । राणकादेशात्पुरोहितेन सद्य आनीती, नमस्कारितो, आसनादिप्रतिपत्त्या गौरवितौ । उक्तौ च श्रीलवणप्रसादादेशाद्वीरधवलेन स्वयम्
२४०. आकृतिर्गुणसमृद्धिशंसिनी नम्रता कुलविशुद्धिसूचिका ।
वाक्क्रमः कथितशास्त्रसङ्क्रमः संयमश्च युवयोर्वयोऽधिकः ॥ ३॥ २४१. श्लाघ्यतां कुलमुपैति पैतृकं स्यान्मनोरथतरुः फलेग्रहिः ।
उन्नमन्ति यशसा सह श्रियः स्वामिनां च पुरुषैर्भवादृशैः ॥ ४ ॥ २४२. यौवनेऽपि मदनान्न विक्रिया नो धनेऽपि विनयव्यतिक्रमः ।
दुर्जनेऽपि न मनागनार्जवं केन वामिति नवाकृतिः कृता ॥५॥ २४३. आवयोश्च पितृपुत्रयोर्महा-नाहितः क्षितिभरः पुरद्रुहाँ ।
तद् युवां सचिवपुङ्गवावह योक्तुमत्र युगपत्समुत्सहे ॥ ६ ॥ २४४. येन केन न च धर्मकर्मणा भूतलेऽत्र सुलभा विभूतयः ।
दुर्लभानि सुकृतानि तानि यैर्लभ्यते पुरुषरत्नमुत्तमम् ॥ ७॥ ____ 15 अथ वस्तुपाल: प्राह
२४५. देव ! सेवकजनः स गण्यते पुण्यवत्सु गुणवत्सु चाग्रणीः ।
यः प्रसन्नवदनाम्बुजन्मना स्वामिना मधुरमेवमुच्यते ॥ ८॥ २४६. नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात्परं यन्मुखाम्बुजविलोकनादपि ।
नश्यति द्रुतमपायपातकं सम्पदेति च समीहिता सताम् ॥ ९॥ २४७. सप्रसादवदनस्य भूपतेर्यत्र यत्र विलसन्ति दृष्टयः ।
तत्र तत्र शुचिता कुलीनता दक्षता सुभगता च गच्छति ॥१०॥ किन्तु विज्ञपयिताऽस्ति किञ्चन स्वामिना तदवधार्यतां हृदि ।
न्यायनिष्ठुरतरा गिरः सतां श्रोतुमप्यधिकृतिस्तवेव यत् ॥११॥ २४९. सा गता शुभमयी युगत्रयी देव ! सम्प्रति युगं कलिः पुनः ।
सेवकेषु न कृतं कृतज्ञता नापि भूपतिषु यत्र दृश्यते ॥ १२ ॥ २५०. दृष्टिर्नष्टा भूपतीनां तमोभिस्ते लोभान्धान् साम्प्रतं कुर्वतेऽये।
तैीयन्ते वर्त्मना तेन यत्र भ्रश्यन्याशु व्याकुलास्तेऽपि तेऽपि ॥ १३ ॥ २५१. न सर्वथा कश्चन लोभवर्जितः करोति सेवामनुवासरं विभोः ।
तथापि कार्यः स तथा मनीषिभिः परत्र बाधा न यथाऽत्र वाच्यता ॥ १४ ॥ 30 २५२. *पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनादृत्य सहजानरीन् निर्जित्य श्रीपतिचरितमादृत्य च यदि ।
समुद्धर्तुं धात्रीमभिलपसि तत्सैष शिरसा धृतो देवादेशः स्फुटमपरथा स्वस्ति भवते ॥ १५ ॥ किश्च-सम्प्रति आवां मण्डलीनगरात् सेवार्थिनो वः समीपमागतौ स्तः सकुटुम्यौ । लक्षत्रयी द्रव्यस्य नो गृहेऽस्ति । यदा देवौ पिशुनवचने लगतः, तदा एतन्मात्रखापतेयसहितौ दिव्यं ___1A नास्ति 'हितेन'। 2P परदुहा। 8 A पुङ्गवा नरं। * P पुस्तक एतत्पद्यं नोपलभ्यते ।
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श्रीवस्तुपालप्रबन्धः ।
१०३.
कारयित्वा आवां मोक्तव्याविति । अत्र काहलिकं मर्यादीकृत्य परिग्रहस्य धीरा देवयोश्च भवतु । इति राणकाभ्यां धीरां दत्त्वा दापयित्वा प्रधानमुद्रानिवेशस्तेजःपालस्य करे कृतः । स्तम्भतीर्थधवलक्कयोस्त्वाधिपत्यं वस्तुपालस्य निवेशितम् । एवं श्रीकरणमुद्रायां लब्धायाम्, अन्यैव तयोः स्फूर्त्तिरुदलासीत्, देवतासान्निध्यात् सहजबुद्धिबलोदयाच्च । खगृहमायातो वस्तुपालः श्रीजिनराजं पूजयामास । अथ तत्त्वं क्षणमचिन्तयत्
२५३. उच्चैर्गर्व समारोप्य नरं श्रीराशु नश्यति । दैन्यदत्तावलम्बोऽथ स तस्मादवरोहति ॥ १६ ॥ २५४. अन्धा एव धनान्धाः स्युरिति सत्यं तथाहि ते । अन्योक्तेनाध्वना गच्छन्त्यन्य हस्तावलम्बिनः ॥ १७ ॥ २५५. धनी धनात्यये जाते दूरं दुःखेन दूयते । दीपहस्तः प्रदीपेऽस्ते तमसा बाध्यतेऽधिकम् ॥ १८ ॥ २५६. छत्रच्छायाछलेनामी धात्रा चक्रे निवेशिताः । भ्रमन्तोऽपि स्वमात्मानं मन्यन्ते स्थिरमीश्वराः ॥ १९ ॥ २५७. कालेन सौनिकेनेव नीयमानो जनः पशुः । क्षिपत्येष धिगासने' मुखं विषयशाडुले ॥ २० ॥ कायः कर्मकरोऽयं तन्नात्र कार्याऽतिलालना | भृतिमात्रोचितो ह्येष प्रपुष्टो विचिकीर्षति ॥ २१ ॥ २५९. प्रयोजकान्यकार्येषु नश्यन्ताशु महापदि । दुर्मित्राणीव खान्येषु बन्धुबुद्धिरधीमताम् ॥ २२ ॥ २६०. विषयामिषमुत्सृज्य दण्डमादाय ये स्थिताः । संसारसारमेयोऽसौ बिभ्यत्तेभ्यः पलायते ॥ २३ ॥ २६१. दुःखाग्निर्वा स्मराग्निर्वा क्रोधाग्निर्वा हृदि ज्वलन् । न हन्त शान्तिमायान्ति देहिनाम विवेकिनाम् ॥ २४ ॥ २६२. विधौ विध्यति सक्रोधे वर्म धर्मः शरीरिणाम् । स एव केवलं तस्मादस्माकं जायते' गतिः ॥ २५ ॥
२५८.
15
इत्यादि ध्यात्वा वस्त्राणि परावृत्त्य श्रीवस्तुपालः सपरिजनो बुभुजे । गृहीतताम्बूलो राजकुलमगमत् । एवं दिनसप्तके गते, प्रथमं तद्राज्यजीर्णाधिकारी एक एकविंशतिलक्षाणि वृहद्रम्माणां ausः । पूर्वमविनतोऽभूत् । [ तदनु* ] विनयं ग्राहितः । तैर्द्रव्यैः कियदपि हयपत्तिलक्षणं सारं सैन्यं कृतम् । तेजः पालेन पश्चात्सैन्यबलेन धवलक्कप्रतिबद्धग्रामपञ्चशतीग्रामण्यश्चिरसञ्चितं धनं हक्कयैव दण्डिताः; जीर्णव्यापारिणो निश्चयो तिताः । एवं मिलितं प्रभूतं खम् । ततः खबल सै - 20 न्यसंग्रहपटुतेजसं श्रीवीरधवलं सहैवादाय सर्वत्र देशमध्येऽभ्रमन् मन्त्री । अदण्डयत् सर्वम् । ततोऽद्भुतर्द्धिर्वीरधवलस्तेजः पालेन जगदे-देव ! सुराष्ट्रराष्ट्रेऽत्यन्तधनिनः ठक्करास्ते दण्ड्यन्ते । ततोऽचलदयम् ।
1 AB तथ्यं । 2 P अन्ये । 3 A 8 P नाम्ना जयतलदेवीं बहुपरिजनपरिवृतां ।
' लब्धा स्वादः पुमान् यत्र तत्रासक्तिं न मुञ्चति ।'
(१२२) अथ वर्धमानपुर- गोहिलवाव्यादिप्रभून् दण्डयन्तौ प्रभु मन्त्रिणौ वामनस्थलीं आगा- 25 ताम् । तटे चतुरकान् दत्त्वा स्थितो वीरधवलः । वामनस्थल्यां तदानीं यौ प्रभू सहोदरी तो साङ्गण चामुण्डराज नामानौ उद्दामस्थामानौ राणश्री वीरधवलस्य शालको - इति सौजन्यमर्यादां पालयंस्तद्भगिनीं निजजायां 'जयतलदेवीं मध्ये प्राहैषीत् । बहुपरिजना च सा गत्वा सहोदरौ अभाषिष्ट - भ्रातरौ ! भवतां भगिनीपतिरदण्डदण्डनः [ अभङ्गभञ्जनः * ] गूर्जर धरायां प्रतिग्रामं प्रतिपुरं दण्डयन् भवतोर्दण्डनायात्रा" गतोऽस्ति । दीयतां धनाश्वादिसारम् । एतद् भगिनीवचः 80 श्रुत्वा मदाध्माती" प्रोचतुः - मन्ये खसस्त्वं ततः समायाता सन्ध्यर्थम् । यतो माऽस्मद्बान्ध
grati 4 A पुष्टोऽपि । 5A आयाति । 6P जायतां । 9A ०धरां । 10 A दण्डनयात्रागतो० । 11 A B नास्ति ।
5
10
7 P सबल० ।
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प्रबन्धकोशे वयोः 'समरारूढयोरहं निर्धवाऽभूवम् । [एतां*] मा म चिन्तां कृथाः । अमुं त्वत्पतिं हत्वापि ते चारु गृहान्तरं करिष्यावः। न च निषिद्धोऽसौ विधिः; राजपुत्रकुलेषु' दृश्यमानत्वात् । ततो जयतलदेव्या-समानोदयौं! नाहं पतिवधभीता व समीपमागाम्, किन्तु निष्पितगृहत्वभीता । स हि 'कोऽस्ति वो मध्ये यस्तं जगदेकवीरं ऊपरवटाख्यहयारूढं नाराचान् क्षिपन्तं 5 कुन्तं' वेल्लयन्तं खङ्गं खेलयन्तं वा द्रष्टुमीशिष्यते । कालः साक्षादरीणां सः।
'अदृष्टपरशक्तिः सर्वोऽपि भवति बलवान् ।' इत्येवं वदन्त्येव ततो निर्गत्य सा सती पतिसविधं गत्वा तां वार्तामुच्चैरकथयत् । तन्निशम्य वीरधवलः क्रोधकरालाक्षो भ्रकुटीभङ्गभीषणभालानुकृतभीमसेनः सङ्ग्रामममण्डयत् । तौ द्वावपि वीराधिवीरौ ससैन्यौ आगतौ । सङ्घटितो रणः । पतितानि योधसहस्राणि पक्षद्वयेऽपि । 10 रजसाऽऽच्छादितं गगनम् । गतः स्व-परविभागः। वीरधवलो हत इति सैन्यद्वयेऽपि व्याचक्रे ।
क्षणार्द्धन वीरधवलो दिव्याश्वाधिरूढः सारसुभटयुक् साङ्गण-चामुण्डराजयोर्मेलापके गत्वा प्रसृतः। ऊचे च-रे सौराष्ट्रौ ! गृहीतं करे शस्त्रं यद्यस्ति तेजः । इत्युक्त्वा तचक्रे यद्देवैर्दिवि शिरो धूनितं कुर्वद्भिर्ददृशे। हतौ साङ्गण-चामुण्डराजौ अभिमुखौ"। शोधितं क्षेत्रम्"। पालिताः
खे परेच पालनार्हाः । प्रविष्टो वीरधवलो वामनस्थलीमध्यम् । गृहीतं शालकयोः कोटिसङ्ख्यं 15 पूर्वजशतसञ्चितं कनकम् , चतुर्दशशतानि दिव्यतुरङ्गमाणाम् , पञ्चसहस्राणि तेजखितुरङ्गमाणाम् , अन्यदपि मणिमुक्ताफलादि । जितं जितमित्युद्धोषः समुच्छालितः । स्थितस्तत्र मासमेकम् । ततो वाजा-मानगजेन्द्र-चूडासमा-वालाकादिखामिनः प्रत्येकं गृहीतधनाः कृताः । द्वीपबेटपत्तनेषु प्रत्येकं बभ्राम । धनमकृशं मिलितम् । एवं सौराष्ट्रजयं कृत्वा समन्त्री राणो धवलकं प्राविक्षत् । उत्सवा उत्सवोपरि" प्रास्फुरन् । 20 ६१२३) तत्र प्रस्तावे चारणेन दोधकपादद्वयं पठितम्
२६३. जीतउं छहिं उणेहिं, सांभली समहरि वाजियइ । एतावदेव पुनः पुनरपाठीत्, नोत्तरार्द्धम् । गतश्चारणः स्वस्थानम् । तत्र राजवंश्याः षण्णां जनानां मध्ये आत्मीयं नाम न्यासयितुं रात्रौ तस्मै प्रत्येकं लश्चामदुः। सोऽपि समग्रहीत् । एवं ग्राहं ग्राहं परिपारिते, एकदा प्रातः सभायां बहुजनाकीर्णायां राणकाग्रे उत्तरार्द्धमप्यपाठीत् ।
__बिहुँ भुजि वीरतणेहिं चिहुं पगि ऊपरवटतणे ॥ २६ ॥ [इति श्रुत्वा* ] सर्वेऽपि चमत्कृता राजन्यकाः । अहो! प्रपञ्चेनानेनास्मान् वञ्चयित्वा निर्यासे तत्त्वमेवोक्तम् । पुनः सविशेषं ददुः [खामिभक्तत्वात् ]।
६१२४) तदा भद्रेश्वरवेलाकूले भीमसिंहो नाम प्रतीहारस्तिष्ठति । स आत्मबली कस्याप्याज्ञा न मनुते"; धनी च । तस्मै वीरधवलो राजा आदेशमदीदपत्-सेवको भव । सोऽपि प्रत्यदीदपत्30 सेवको भव । 'यद्दीयते तल्लभ्यते' इति न्यायः। वीरधवलस्तद्विग्रहाय गूर्जरधराराजपुत्रानमेल
25
____ 1 A B समारूढयो।। 2 P •कुले। 3 P देव्याह । 4 A च। 5 P नास्ति । 6 A B शल्यं । 7 P भीमः सन् । 8 P व्याचक्षे। 9 AC श्वारूढः। 10 P गृह्णीतः। 11 B आभिमुखौ; P असिमुखैः। 12 P रणक्षेत्रे । 13 P उत्सवोपर्यपुस्फुरन् । 14 P वाजतइ। 15P मन्यते ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
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यत्, बहुसैन्यं च । भीमसिंहोऽपि बलेन प्रबलः । उभयपक्षेऽपि बलवत्ता ।
१२५) अत्रान्तरे जावालिपुरे चाहमानकुलतिलकः 'श्रीअश्वराजशाखीयः केतुपुत्रसमरसिंहनन्दनः श्रीउदयसिंहो नाम राजकुलो राज्यं भुनक्ति। तस्य दायादास्त्रयः सहोदराः सामन्तपाल-अनन्तपाल-त्रिलोकसिंहनामानो दातारः शूरास्तद्दत्तग्रासेन तृप्तिमदधतो धवलक्कमागत्य श्रीवीरधवलं द्वाःस्थेनाबभाणन्-देव! वयममुकवंश्यास्त्रयः क्षत्रियाः सेवार्थिन आगताः स्मः। 5 यद्यादेशः स्यात् तदा आगच्छामः । राणकेनाहूतास्ते । तेज-आकृति-श्रमादिभिः शोभनाः। रुचितास्ते तस्य । परं पृष्टाः-को ग्रासो वः कल्पते? ते प्रोचुः-देव! प्रतिपुरुषं लूणसापुरीयद्रम्माणां लक्षं लक्षं ग्रासः। राणकेनोक्तम्-इयता धनेन शतानि भटानां सङ्गच्छन्ते । किमधिकं यूयं करिष्यथ ? । न दास्यामीयत् । इति कथयित्वा ते बीटकदानपूर्व विसृष्टाः । तदा मनिवस्तुपाल-तेजःपालाभ्यां विज्ञप्तम्-खामिन् ! न एते मुच्यन्ते। पुरुषसङ्ग्रहाद् धनं न बहु मन्तव्यम् । 10 २६४. वाजि-वारण-लोहानां काष्ठ-पाषाण-वाससाम् । नारी-पुरुष-तोयानां अन्तरं महदन्तरम् ॥ २७॥
वं विज्ञप्तमपि राणकेन नावधारितम मक्ता एव ते गताः प्रतिभरत श्रीभीमसिंह प्रतीहारम् । भेटितः सः । उक्तो वीरधवलकृतः कार्पण्यव्यवहारः। तुष्टो भीमसिंहः। कृतं तदिष्टवृत्तिद्वैगुण्यम् । तैश्चोक्तम्-देव! शीघ्रमेव कथापय वीरधवलाय अस्मद्वलेन, यथा-यदि क्षत्रियोऽसि, तदा शीघ्रं युद्धायागच्छेः । अन्यथा अस्मदीयो भूत्वा जीवेः । प्रेषितो भीमसिंहेन 15 भः । उक्तः समेत्य वीरधवलस्तत् । [एवं श्रुत्वा*] वीरधवल ससैन्यश्चलितः। भद्रं पुरः प्राहैषीत् । पञ्चग्रामग्रामे' युद्धमावयोः। तत्र क्षेत्रं कारयन्नस्मि । शीघमागच्छेरित्याद्याख्यापयत् । सोऽपि तत्र ग्रामे समेतः 'सबलः । सङ्घटितं सैन्यद्वयम् । वर्तन्ते [ भटानां*] सिंहनादाः, नृत्यन्ति पात्राणि, दीयन्ते धनानि । [पूज्यन्ते शस्त्राणि, बद्ध्यन्ते महावीराणां टोडराणि*] त्रिदिनं तैयुद्धं प्रतिष्ठितम् । उत्कण्ठिता योद्धारः।
'नेदीयानिबाहूनामाहवो हि महामहः ।' सङ्ग्रामदिनादर्वाग् मनिवस्तुपाल-तेजःपालाभ्यां स्वामी विज्ञप्तः-देव ! त्रयो मारवाः सुभटास्त्वया न संगृहीतास्ते परबले मिलिताः। तद्बलेन भीमसिंहो निर्भीर्गर्जति, इति अवधार्यम् । चरैरपि निवेदितमेतन्नौ । राणकेनोक्तम्-यदस्ति तदस्तु । किं भयम् ।
'जयो वा मृत्युर्वा युधि भुजभृतां कः परिभवः ? ।' मत्रिणा ज्यायसोक्तम्-स्वामिन् ! कार्मुककरे देवे के परे परोलक्षा अपि । 'यदुक्तम्२६५. कालः केलिमलङ्करोतु करिणः क्रीडन्तु कान्तासखाः, कासारे "वनकासराः सरभसं गर्जन्त्विह खेच्छया । ___अभ्यस्यन्तु भयोज्झिताश्च हरिणा भूयोऽपि झम्पागतिं, कान्तारान्तरसञ्चरव्यसनवान् यावन्न" कण्ठीरवः ॥२८॥ कण्ठीरवे तु दृष्टे कुण्ठाः सर्वे वन्याः। अन्यच्च, प्रभो ! अस्मदीयसैन्ये डोडीयावंशीयो जेडुलः, चौलुक्यः सोमवर्मा, "गुलकुल्यः क्षेत्रवर्माऽस्ति । देवस्तु किं वर्ण्यते कल्यर्जुनः। एवं वार्तासु 30 वर्तमानासु द्वाःस्थ एत्य व्यजिज्ञपद्राणकम्-देव ! पुरुष एको द्वारि वोऽस्ति । कस्तस्यादेशः? ।
1-2A नास्ति 'च' 'ऽपि'+ P पुस्तके नास्ति दण्डान्तर्गतः पाठः। 3 P सेवार्थिनराः। 4 E D नास्ति 'कथयित्वा'; A दास्यामीत्युदिते। 5P श्रीभीमसिंहप्रतीहारेण भेटितास्ते। 6A युद्धायापत्तेः। *P विना नास्त्यन्यत्र । 7Pामाने। 8P समेतसैन्येन सबलः। 9A नास्ति । 10P बत। 11 A यावदि। 12 A गुणकुख्यः ।
१४ प्र० को
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प्रबन्धकोशे
भूसंज्ञया राणकस्तममोचयत् । मध्यमागत्य स उवाच-देव ! सामन्तपाल-अनन्तपाल-त्रिलोकसिंहस्त्वत्त्यक्तैर्भीमसिंहमाश्रितैः कथापितमास्ते-देव! त्रिभिलक्षैर्ये भटास्त्वया स्थापिता भवन्ति, तैरात्मानं सम्यग् रक्षेः । प्रातः कुमार्यामारेण्यां त्वामेव प्रथमतममेष्यामः। इति श्रुत्वा हृष्टेन राणेन ससत्कारं स प्रैषि । कथापितं च-एते वयमागता एव प्रातर्भवद्भिरपि ढौक्यम् । सर्वेषामपि 5 तत्रैव ज्ञास्यते भुजसौष्ठवम् । गतः स तत्र । प्रातर्मिलितं बलद्वयम् । वादितानि रणतुर्याणि । अङ्गेषु भटानां वर्माणि न ममुः। दत्तानि दानानि । तैस्तु त्रिभिर्मारवैरात्मीयं वर्षलभ्यं द्रव्यलक्षत्रयं भीमसिंहात्सद्यो लात्वाऽर्थिभ्यो ददे । खयमश्वेष्वारूढाः। प्रवर्तन्ते प्रहाराः। उत्थितमान्ध्यं शस्त्रैः । पतन्ति शराः कृतान्तदूताभाः। आरूढं प्रहरमात्रमहः । सावधानो वीरधवलः । दत्तावधाना मच्यादयस्तद्रक्षकाः । अत्रान्तरे आगतास्ते त्रयो मरुवीराः। भाषितः स्वमुखेन तैीरध10 वल:-अयं देवः इमे वयम्। सावधानीभूय रक्षाऽऽत्मानम् । त्वद्योधा अपि त्वां रक्षन्तु। वीरधवलेनाप्युक्तम्-किमत्र विकत्थध्वे । क्रिययैव दोःस्थाम प्रकाश्यताम् । एवमुक्तिप्रत्युक्तौ लग्नं युद्धम् । यत्नपरेषु तटस्थेषु रक्षत्स्वपि तैर्भलत्रयं वीरधवलस्य भाले लिङ्गितम् । एवं त्वां हन्मः, परं एकं तव बीटकं तदा भक्षितमस्माभिः-इति वदद्भिस्तैरेव श्रीवीरधवलस्य तटस्थाः प्रहरणैः पातिताः ।
तेऽपि त्रयो मारवाः 'व्रणशतजर्जराङ्गाः सनाताः । राणश्रीवीरधवल ऊपरवटाश्वात्पातितः। 15 ऊपरवटस्तैौरवैः स्वोत्तारके बन्धितः प्रच्छन्नः । रजसाऽन्धं जगत् । तदा राणश्रीवीरधवलो भुवि पातितो भट्टैरुत्पाट्य लले । तावता पतिता सन्ध्या । निवृत्तं सैन्यद्वयम् । रात्री भीमसिंहीयाः सुभटाः सर्वेऽपि वदन्ति-अस्माभिर्वीरधवलः पातितः । ततो मारवैरभिहितम्-युष्माभिः पातित इति किमत्राभिज्ञानम् । तैरुक्तम्-किं भवद्भिः पातितः? । मारवैरभिदधे-अस्माभिरेव पातितः।
ऊपरवटो वदिष्यति । उत्तारकादानीय ऊपरवटो दर्शितः। तुष्टो भीमसिंहः । उक्तवांश्च-शुद्ध20 राजपुत्रेभ्यो दत्तं धनं शतधा फलति । इदमेव प्रमाणम् । 'रिपुहयहरणं क्षत्रियाणां महान्
शृङ्गारः । एवं वार्ताः कुर्वतां भटानां रात्रिर्गता। प्रातर्वीरधवलो व्रणजर्जरोऽपि पटूभूयाक्षान् क्रीडितुं प्रवृत्तः । भीमसिंहसैन्यहेरिकैर्गत्वा तज्ज्ञात्वा तत्रोक्तम्-वीरधवलः कुशली गर्जति । [एवं सति ] यज्जानीथ तत्कुरुथ । अथ भीमसिंहाय तन्मतिभिर्विज्ञप्तम्-देव ! अयं बद्धमूलो
देशेशः। अनेन विरोधो दरायतिः। तस्मात्सन्धिः श्रेष्ठः। भीमसिंहेन मानितं तद्वचनम । परं 25 सङ्ग्रामाडम्बरः कृतः। अन्योऽन्यमपि यावद् अड्डितौ द्वौ, तावद् भट्टैरन्तरा प्रविश्य मेलः कृतः।
ऊपरवटाश्वो राणाय दापितः। भीमसिंहेन भद्रेश्वरमात्रेण धृतिधरणीया, बिरुदानि न पाठनीयानि; इति व्यवस्थाऽऽसीत् । एवं कृत्वा श्रीवीरधवलो दानं तन्वन् श्रीधवलककमागात् । शनैः शनैः प्राप्तपरमप्राणो भीमसिंहमपराध्यन्तं मूलादुच्छेद्य एकवीरां धरित्रीमकरोत् । ["एवं] धवलक्के राज्यं कुर्वतस्तस्य क्षुभितैः प्रभूतैः परराष्ट्रपतिभिः खं दत्तम् । तेन खेन सैन्यमेव 30 मेलितम् । चतुर्दशशतानि महाकुलानि राजवंश्यानां राजपुत्राणां मेलितानि । तानि समभोजन
भोग-वसन-वाहनानि श्रीतेजःपालस्य सहचारिणीछायावत् समजीवितमरणत्वेन स्थितानि । तहलेन सैन्यबलेन च स्वभुजाबलेन सर्वं जीयते।
1 ABD नास्ति पदमेतत् । 2 ABD विकत्थन (?)। 3A लिखितं । 4 A व्रणवात। 5A देवितुं । 6P विनाऽन्यत्र नास्ति । 7A तद्वचनं मतं। 8 A अद्भुती; P मिलितौ। 9 P विनाऽन्यत्र नास्ति 'अन्तरा प्रविश्य'। 10 P विना नास्ति ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
६१२६) इतश्च महीतटाख्यदेशे गोध्रा'नाम नगरम्। 'यत्र तत्तत्कार्येषु सङ्ग्रामे मृतानां राजपुत्राणां एकोत्तरशतसंख्यानि स्वयंभूलिङ्गानि उदभूवन् । तत्र घूघुलो नाम मण्डलीकः । स गूर्जरधरासमागन्तुकसार्थान् गृह्णाति । राणश्रीवीरधवलस्याज्ञां न मन्यते । तस्मै मन्त्रिभ्यां वस्तुपाल-तेजःपालाभ्यां भट्टः प्रेषितः-अस्मत्प्रभोराज्ञां मन्यख, अन्यथा साङ्गण-चामुण्डराजादीनां मध्ये मिल इति कथापितम् । तच्छ्रवणात् क्रुद्धेन तेन तेनैव भट्टेन सह स्वभट्टः प्रस्थापितः। तेनागत्य राणश्री- 5 वीरधवलाय कजलगृहं शाटिका चेति द्वयं दत्तम् । उक्तं च-ममान्तःपुरं सर्वोऽपि राजलोक इति नः प्रभुणा ख्यापितमस्ति । राणेन स भट्टः सत्कृत्य प्रहितः । गतः स्वस्थानम् । राणेन भाषिताः सर्वे निजभटाः-घूघुलविग्रहाय बीटकं को ग्रहीष्यति ? । 'कोऽपि नाद्रियते । तदा तेजःपालेन गृहीतम्। चलितःप्रौढसैन्यपरिच्छदः । गतस्तद्देशादागभागे कियत्यामपि भुवि', स्थित्वा सैन्यं कियदपि, स्वल्पमग्रे प्रास्थापयत् । खयं महति मेलापके गुप्तस्तस्थौ । अल्पेन सैन्येनाग्रे गत्वा 10 गोध्रागोकुलानि वालितानि । गोपालाः शरैस्ताडिताः। तैरन्तर्गोध्रकं पूत्कृतम्-गावो ह्रियन्ते कैश्चित् । क्षात्रं धर्म पुरस्कृत्य ततो धावत धावत इति शब्दे श्रुते घूघुलो व्यचिन्तयत्'नवीनमिदम् , केनास्मत्पद्रमागत्य गावो हियन्ते ?। २६६. वृत्तिच्छेदविधौ द्विजातिमरणे स्वामिग्रहे गोग्रहे, सम्प्राप्ते शरणे कलत्रहरणे मित्रापदां वारणे ।
आतंत्राणपरायणैकमनसां येषां न शस्त्रग्रह,-स्तानालोक्य विलोकितुं मृगयते सूर्योऽपि सूर्यान्तरम् ॥ २९॥ 15 इति वदन्नेव ससेनस्तुरङ्गममारूढः। जातोऽनुपदी गोहर्तृणाम् । गोहद्रोऽपि घूघुलाय दर्शनं ददते, शरान् सन्दधते, न च स्थित्वा युद्ध्यन्ते । इत्येवं खेदयद्भिस्तैस्तावन्नीतो घूघुलो यावन्मत्रिणो महति वृन्दे प्रविष्टः । ततो ज्ञातमीदृशं छद्मदं मत्रिणः । भवतु तावत् घूघुलोऽस्मि । निजाः सुभटाः समराय प्रेरिताः । स्वयं सविशेषमभियोगं दधौ । ततो लग्नः संहर्तुम् । मन्त्रिकटकेनापि डुढोके । चिरं रणरसरभसोऽभूत् । भग्नं घूघुलेन मन्त्रिकटकं कांदिशीकं दिशोदिशि 20 गच्छति । तदा मन्त्रितेजःपालेन स्थिरमश्वस्थितेन तटस्थाः सप्तकुलीनाः शुद्धराजपुत्रा भाषिताः-अरिस्तावडली, आत्मीयं तु भग्नं सकलं बलम् । नष्टानामस्माकं का गतिः, किं यशः। [यशो" विना] जीवितव्यमपि नास्त्येव । तस्मात् कुर्मः समुचितम् । तैरपि सप्तभिस्तद्वचोऽभिमतम् । व्याधुटिताऽष्टौ नन्ति नाराचादिभिः परसेनाम् । तावन्मानं स्ववृन्दं सङ्घटितं दृष्ट्वा, अपरेऽपि सत्त्वं धृत्वा" वलिताः । तदा तेजःपाल एकत्र निजांसेऽम्बिकादेवीमपरत्र 15 कपर्दियक्षं पश्यति । अतो जयं निश्चित्य प्रहरंस्तावद्ययौ यावद् घूघुलः । गत्वा भाषितः-हे मण्डलीक ! येनास्मन्नाथाय कज्जलगृहादि प्रहीयते तद् “भुजाबलं दर्शय । घूघुलोऽपि प्रत्याह-इदं तद् भुजाबलं पश्य-इत्युक्त्वा निबिडं युयुधे । द्वन्द्वयुद्धं मन्त्रि-मण्डलीकयोः सञ्जातम् । अथ मन्त्री सहसा दैवतबल-भुजाबलाभ्यां तमश्वादपीपतत् । जीवन्तं बद्ध्वा काष्ठपञ्जरेऽचिक्षिपत् । स्वसेनान्तर्निनाय । स्वयं बहपरिच्छदो गोध्रानगरं प्रविवेश । अश्वसहस्राणि चत्वारि, अष्टादश 30 कोटीहेम्नां कोशम् , मूटकं शुद्धमुक्ताफलनाम् , दिव्यास्त्राणि, दिव्यवस्त्राणि इत्यादि सर्व जग्राह ।
1 P गोधिरा। । दण्डान्तर्गतः पाठो नास्ति P पुस्तके। 2 ED स्वयं च लिंगानि; B स्वयं च लिंगितानि । 3 ABD स्खे सर्वे। 4 P विहाय नास्त्यन्यत्र; अग्रे 'उक्तं च' इत्यपि दृश्यतेऽधिकम् । 5 P परं कोऽपि । 6 A भुवं । 7 A विचिन्तयति । 8 P गतोऽनुपदं। 9 A पृतनाऽपि । 10 P विहाय नास्त्यन्यत्र 'यशो विना'। 11 A अवलम्ब्य। 12 A सर्वत्र 'भुजबलं'। 13 A B नास्ति। 14 P पुस्तक एवं लभ्यते पदमिदम् ।
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प्रबन्धकोशे घूघुलस्थाने आत्मीयं सेवकं न्यास्थत् । वलितो मन्त्री गतो धवलक्ककम् । दर्शितो घूघुलः श्रीवीरधवलाय । तत्कजलगृहं तद्गले बद्धं शाटिका च वण्ठैः परिधापिता । तदा घूघुलः स्वजिह्वां दन्तैः खण्डयित्वा मृतः । जातं वर्धापनं धवलकके। श्रीवीरधवलेन महत्यां सभायामाकार्य श्रीतेजःपालः परिधापितः। प्रसादपदे स्वर्ण भूरि ददे। तदवसरे कवीश्वरसोमेश्वरे च दृक 5 सञ्चारिता श्रीवीरधवलेन । ततः सोमेश्वरदेवः प्राह२६७. मार्गे कर्दमदुस्तरे जलभृते गतशतैराकुले, खिन्ने शाकटिके भरेऽतिविषमे दूरं गते रोधसि ।
शब्देनैतदहं ब्रवीमि महता कृत्वोच्छ्रितां तर्जनी,-मीदृक्षे गहने विहाय धवले वोढुं भरं कः क्षमः? ॥३०॥ विसृष्टा सभा । मिलितो वस्तुपाल-तेजःपालावेकत्र । कृताः कथाश्चिरम् । तुष्टौ द्वौ मन्त्रयेते स्म । 'धम्म एव धनमिदं पुण्यलब्धं व्ययनीयम् । ततः सविशेषं तथैव कुरुतः। ततः कविना 10 केनाप्युक्तम्___२६८. पन्थानमेको न कदापि गच्छेदिति स्मृतिप्रोक्तमिव स्मरन्तौ ।
तौ भ्रातरौ संसृतिमोहचौरे संभूय धर्मेऽध्वनि सम्प्रवृत्तौ ॥ ३१ ॥ ६१२७) अथ श्रीवस्तुपालः शुभे मुहर्त स्तम्भतीर्थं गतः। तत्र मिलितं चातुर्वर्ण्यम् । दानेन तोषितं सर्वम् । तत्र च 'सदीकनामा नौवित्तको वसति । स च सर्ववेलाकूलेषु प्रसरमाणवि15 भवो महाधनाढ्यो बद्धमूलोऽधिकारिणं नन्तुं नायाति । प्रत्युत तत्पार्थेऽधिकारिणा गन्तव्यम् । एवं बहुकालो गतः। पूर्व मन्त्रीन्द्रस्तं भट्टेनोवाच-अस्मान्नन्तुं किमिति नागच्छसि ? । स प्रतिवक्ति-न नवेयं रीतिः, प्रागपि नागच्छामि । यत्तु स्यान्यूनं तव, तदा तत्पूरयामि स्थानस्थः। तत् श्रुत्वा मन्त्री रुष्टः कथापयामास-पुरुषो भूत्वा तिष्ठेः । शास्मि त्वां दुर्विनीतम् । ततस्तेन
वडूआख्यवेलाकूलखामी राजपुत्रः, पश्चाशद्धंशमध्यस्थखादिरमुशलस्य एकखड्गप्रहारेण' छेदने 20 प्रभुः, प्रभूतसैन्यत्वात् 'साहणसमुद्र' इति ख्यातः शंखाख्य उत्थापितः । तेन भाणितं
मन्त्रिणे-मत्रिन् ! मदीयमेकं नौवित्तकं न सहसे । मदीयं मित्रमसौ ज्ञेयः । तस्माद्वचनात् क्रुद्धो मन्त्री तं प्रत्यवोचत्-श्मशानवासी भूतेभ्यो न बिभेति । त्वमेव प्रगुणो भूत्वा युधि तिष्ठेः । [इति श्रुत्वा*] सन्नद्धबद्धो [भूत्वा सोऽप्यागतः*] मन्त्री वस्तुपालो ऽपि धवलक्क
काद भूरि सैन्यमानाय्याभ्यषेणयत् । रणक्षेत्रेऽडितो" द्रौ। *प्रारब्धं रणम* 1 शड्रेन 25 निर्दलितं मन्त्रिसैन्यं पलायिष्ट दिशोदिशि । तदा श्रीवस्तुपालेन स्वस्य राजपुत्रो माहेचकनामा
भाषितः-इदमस्मन्मूलघर्ट वर्तते । त्वं च वर्त्तसे । [अथ* ] तत् कुरु येन श्रीवीरधवलो न लज्जते । ततोऽसौ राजपुत्रः खैरेव कतिपयैर्मित्रराजपुत्रैः सह तमभिगम्योवाच-हे शङ्क! नेयं वडूआख्या तव ग्रामहट्टिका", क्षत्रियाणां सङ्ग्रामोऽयम् । शङ्खोऽप्याह-सुष्टु वक्तुं
वेत्सि । नायं तव प्रभोः "पट्टकिलपरिपन्थनप्रदेशः, किन्तु सुभटस्य क्रीडाक्षेत्रमिदम् । इत्येवं 30 वादैर्जाते द्वन्द्वरणे माहेचकेन मन्त्रिणि पश्यति मन्त्रिप्रतापाच्छङ्खः पातितः । समरे जातो
दण्डान्तर्गतः पाठः पतितः P पुस्तके। 1 AB मनयेता। 2 AB तस्माद् धर्म। 3 AB नास्ति । 4 P सैद०। 5P पुस्तक एवेदं पदम्। 6P तव। 7AB खङ्गेन छेदने। 8A प्रत्यवीवचत् । *P पुस्तक एव एते पाठा: प्राप्यन्ते। 9P मन्त्रिणा। 10P वस्तुपालेन। 11 P मिलिती। -12 P नास्ति । 13 P स्वमेव। 14 P ग्रामसीमआखेटक्रीडा किन्तु। 15P पट्टः किल परिपन्थिनः। 16 AB माहिच्चकेन ।
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वस्तुपालप्रबन्धः ।
जयजयकारः । मन्त्रिणा तद्राज्यं गृहीतम् । वेलाकूलनृपद्धनां क्क संख्याः । ततः स्तम्भतीर्थमुत्तोरणमुत्पताकमविशत् । ततो' मन्त्री प्रविष्टः 'सदीकसदनम् । तस्य भट्टान् सप्तद्विगुण शतानि सन्नद्धानि हत्वा तं जीवग्राहं जग्राह । विब्रुवाणं तं कृपाणेन जघान । ततो गृहं तदीयमामूलचूलखातपातितम् । हेमटकानां संख्या न । तथा मणिमुक्ताफलपदकानाम् । [ प्रमाणं केनापि ज्ञातम् । केचिद् वृद्धा वदन्ति तत्र तेजनतूरिकायाः करण्डश्चटितः श्रीमन्नीश्वरस्य । ] 5 आयातो मन्त्री स्वधवलगृहम् । तोषितः स्वस्वामी वीरः परिग्रहलोकश्च । ततः [ कवीश्वराणां * ] स्तुतिः -
२६९. श्रीवस्तुपाल प्रतिपक्षकाल ! त्वया प्रपेदे पुरुषोत्तमत्वम् । तीरेऽपि वार्द्धरकृतेऽपि मात्स्ये रूपे पराजीयत येन शङ्खः ॥ ३२ ॥ २७०. तावल्लीलाकवलितसरित्तावदभ्रंलिहोर्मि, स्तावत्तीत्रध्वनितमुखरस्तावदज्ञातसीमा । तावत्प्रेङ्खत्कमठमकरव्यूहबन्धुः ससिन्धु, - र्लोपामुद्रासहचरकरक्रोडवर्त्ती न यावत् ॥ ३३ ॥ ततश्चक्षवाटि' - नौवित्तकवाट्योः पार्थक्यं कृतम् ।
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१२८) [ मन्त्रिणा * ] आ महाराष्ट्रेभ्यः साधिता भूः । वेलाकूलीयनरेन्द्राणां नरेन्द्रान्तराक्रम्यमाणानां मन्त्री प्रतिग्राहेण सान्निध्यं कृत्वा जयश्रियमर्पयति । इति [ कारणात् * ] ते [तुष्टाः * ] बोहित्थानि सारवस्तुपूर्णानि प्राभृते प्रहिण्वन्ति । अम्बिका कपर्द्दिनौ निधानभुवं 15 रात्रौ [ समागत्य * ] कथयतः । ते निधयो मन्त्रिणा खातं खातं गृह्यन्ते । [ तद्भाग्यात् * ] दुर्भिक्षस्य नामापि नाभूत् । विवराणि दूरे नष्टानि । मुद्गलबलानि [ वारं वारं * ] आगच्छन्ति
निरे एकदा । पुनर्नाययुः । पल्लीवनेषु दुकूलानि नागोदराणि च बद्धानि । ग्रहीता कोऽपि न । ग्रामे ग्रामे [ मण्डितानि * ] सत्राणि । सत्रे सत्रे मिष्टान्नानि । [ उपरि * ] ताम्बूलानि [ च । तत्र ग्लानार्थ *] वैद्याः [विविधाः प्रस्थापिताः । मन्त्रिव्यवस्थया *] दर्शनद्वेषो न; वर्णद्वेषो न । प्रतिवर्ष 20 स्वदेशे सर्वनगरेषु तिस्रस्तिस्रः श्वेताम्वरेभ्यः प्रतिलाभनाः । शेषदर्शनानामग्रेऽप्यर्चा ।
१२९) मत्रिवस्तुपालस्य पत्न्यौ द्वे ललतादेवि सोषूनाइयौ कल्पवल्लि कामधेनू इव । ललितादेव्याः सुतो मन्त्रिजयन्तसिंहः सूहवदेविजानिः प्रत्यक्षचिन्तामणिः । तेजः पालदयिताऽनुपमाऽनुपमैव । पठितं च कविना
10
२७१. लक्ष्मीश्चला शिवा चण्डी, शची सापल्यदूषिता । गङ्गा न्यग्गामिनी वाणी, वाक् साराऽनुपमा ततः ॥ ३४|| 25 श्रीशत्रुञ्जयादिषु नन्दीश्वरेन्द्र मण्डपप्रभृतिकर्मस्थायाः प्रारम्भिषत । आरासणादिदलिकानि स्थलपथेन [ जलपथेन " ] च तत्र तत्र प्राप्यन्ते । तपसामुद्यापनानां च प्रकाशः ।
(१३०) एकदा तौ भ्रातरौ द्वावपि मन्त्रिपुरन्दरौ महर्द्धिसङ्घोपेतौ श्रीपार्श्व नन्तुं स्तम्भनकपुरमीयतुः । प्रथमदिने ससङ्घौ तौ श्रीपार्श्वस्य पुरः श्रावक श्रेणिपुरःसरौ स्थितौ । [ तदा* ] गीत[ गान* ] रासादि [ महारसः प्र* ] वर्त्तते । [ तदवसरे तत्रत्य* ] सङ्घोपरोधात् तत्रत्याध्यक्षाः 30 सूरयो मल्लवादिनः समाकारिताः । ते यावद्देवगृहं प्रविशन्ति तावत् पठन्ति "
1 AB वेलाकूलनां । 2 AB नास्ति ' ततो मंत्री' । 3P सैद० । 4 P० गुणित । 5P ० चूलं खानितं पातितं च । 6 P हेमेष्टिकानां । 1 P पुस्तक एवैषा पंक्तिः प्राप्यते । * कोष्टकगताः पाठाः P पुस्तक एव लभ्यन्ते । 7 A चोक्षषवादि० । 8P प्रतिग्रहप्रेषणेन । 9 A • दर्शनानामप्यची | 10 A नास्ति पदमिदम् + P पुस्तके नास्ति वाक्यमिदम् । 11 P तावत्तैरेव पाठितम्।
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प्रबन्धकोशे २७२. अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचनाः । मत्रिभ्यां श्रुतं चिन्तितं च-अहो! मठपतिवद्देवगृहेऽपि शृङ्गारागारगर्भ पद्यं प्रस्तौति । देवनमस्कारादिकमुचितमिह, तन्नाधीते । तस्मादृष्टव्योऽसौ । उपविष्टः सूरिः सः। अन्येऽपि सूरयः
शतशः पङ्को निषण्णाः । मङ्गलदीपान्तेऽपरसूरिभिर्मल्लवादिन एवाशीर्वादाय प्रेरिताः । मन्त्री 5 पुरस्तिष्ठति । 'अस्मिन्नसारे संसारे' इत्यादि पादद्वयं भणितं तैः। [व्याख्यातं च तदेव* ] मन्त्री हस्तेन वन्दित्वा विरक्तो गतः स्वोत्तारकम् । एवं दिनाः ८ [स एव*] पद्यार्द्धपाठश्च [०चके । नवनवभङ्गया व्याख्यातः* ] मत्र्यवज्ञा' चारोहत्प्रकर्षे । अष्टम्यां रात्री मन्त्री मुत्कलापनिकां कर्तुं देवरङ्गमण्डपे निविष्टः । पुरो धनबदरकाः । कोऽपि कविराह
२७३. श्रीवस्तुपाल ! तव भालतले जिनाज्ञा, वाणी मुखे हृदि कृपा करपल्लवे श्रीः । 10 देहे द्युतिर्विलसतीति रुषेव कीर्तिः, पैतामहं सपदि धाम जगाम नाम ॥ ३५ ॥
अपरस्तु२७४. अनिस्सरन्तीमपि गेहगर्भात्, कीर्ति परेषामसतीं वदन्ति । खैरं भ्रमन्तीमपि वस्तुपाल !, त्वत्कीर्तिमाहुः कवयः सतीं तु ॥ ३६ ॥
इतरस्तु___15 २७५. सेयं समुद्रवसना तव दानकीर्ति,-पूरोत्तरीयपिहिताऽवयवा समन्तात् ।
अद्यापि कर्णविकलेति न लक्ष्यते यत् , तन्नाद्भुतं सचिवपुङ्गव ! वस्तुपाल ! ॥ ३७॥
___ कश्चित्तु२७६. क्रमेण मन्दीकृतकर्णशक्तिः, प्रकाशयन्ती च बलिखभावम् ।
___ कैर्नानुभूता सशिरःप्रकम्पं, जरेव दत्तिस्तव वस्तुपाल ! ॥ ३८ ॥ 20 तेभ्यः कविभ्यः सहस्रलक्षाणि ददिरे । एवं गायनभद्दादिभ्योऽपि । यावज्जातं प्रातरिव, तदा मल्लवादिभिः स्वसेवकाश्चैत्यद्वारद्वयेऽपि नियुक्ताः । एकं द्वारमन्यदिशि, एकं च मठदिशि । उक्तं च तेभ्यः-मन्त्री चैत्यान्निःसरन् ज्ञापनीयः। क्षणेन वस्तुपालो मठद्वारान्निर्गच्छति [यावत् ] तावता सेवकज्ञापिताः सूरयः समागत्य सम्मुखाः स्थिताः। मन्त्रिणा रीढया '5प्रणाम इव कृतः। आचार्यैरभिहितम्
दूरे कर्णरसायनं निकटतस्तृष्णापि नो शाम्यति । विजीयताम् ; तीर्थानि पूज्यन्ताम् । मन्त्री कौतुकात्तथैव तस्थौ, किंपर्यवसानेयं प्रस्तावनेति ध्यानात; ऊचे च-न विद्मः परमार्थ किमेतदभिदध्वे । आचार्येरुक्तम्-पुरो गम्यताम्, ताम्। भवतां कार्याणि भूयांसि । मन्त्री सविशेषं पृच्छति। सूरयो वदन्ति-सचिवेन्द्र ! श्रूयताम्
६१३१) मरुग्रामे कचित् ग्रामाराः स्थूलबहुला लोमशाः पशवो वसन्ति । पर्षदि निषीदन्ति । 30 कपोलझल्लरी वादयन्ति । तत्रैकदा वेलाकूलीयचरः पान्थ आगमत् । नवीन इति कृत्वा ग्राम्यै
25
गम्य
1P पदद्वयं कथयन्नस्तीति । 2 P तत्किं नाधीते। 3A मछयवज्ञातविचारोहत्प्रकर्षे B मध्यज्ञात चारो०; DE मच्यज्ञानं चा०। 4 P बदरकाणां राशयः। 1P पुस्तके नोपलभ्यते पद्यमिदम् । 5P पुनः कश्चिदूचुः। 6P चास्ति । 7 P प्रभुप्रणाम ।
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वस्तुपालप्रवन्धः ।
१११ राहूतः । पृष्टः-त्वं कः? कुत्रत्यः' ? । तेनोक्तम्-अहं समुद्रतटेऽवात्सम् । पान्था, पुरो यामि । तैः पृष्टम्-समुद्रः केन खानितः। तेनोचे-स्वयंभूः सः। पुनस्तैः पृष्टम्-कियान् सः । पान्थेनोक्तम्अलब्धपारः। किं तत्रास्ते ?-इति पृष्टे पुनस्तेनाचख्ये
२७७. ग्रावाणो मणयो हरिर्जलचरो लक्ष्मीः पयोमानुषी,
मुक्तौघाः सिकताः प्रवाललतिकाः सेवालमम्भः सुधा ।
तीरे कल्पमहीरुहाः किमपरं नानाऽपि रत्नाकरः, इति पादत्रयं पठित्वा व्याख्याय पुरो गतः पान्थः। तेषु ग्राम्येष्वेकः सकौतुकः पृच्छन् पृच्छन् समुद्रतटमगात् । दृष्टः कल्लोलमालाचुम्बितगगनानः समुद्रः। तुष्टः सः। अचिन्तयच्च[इतो*] ऋद्धयः सर्वा लप्स्यन्ते । प्रथमं तृषितः सलिलं पिबामि । [इति मत्वा*] पीतं तत् । दग्धः कोष्टः । ततः पठति'
दूरे कर्णरसायनं निकटतस्तृष्णापि नो शाम्यति ॥ ३९ ॥ २७८. 'वरि वियरा जहिं जणु पियइ घुट्टग्घुटु 'चुलुएहिं । सायरि अस्थि बहुत्तु जलु छि खारा" किं तेण ॥४०॥
तैरेव पदैनष्टः स्वास्पदं गतः। तथा वयमपि स्मः। मन्त्रिणोक्तम्-कथं तथा यूयं यथा स ग्राम्यः ?। सूरयस्तारमूचुः-महामात्य ! वयमत्र श्रीपार्श्वनाथसेवकाः, त्रैविद्यविदः, सर्वर्द्धयः [अवस्थाः*] शृणुमः। यथा-धवलक्के श्रीवस्तुपालो मन्त्री सरस्वतीकण्ठाभरणो भारतीप्रति-15 पन्नपुत्रो विद्वज्जनमधुकरसहकारः सारासारविचारवेद्यास्ते इति । तदुत्कण्ठितास्तत्रागन्तुम् । ईश्वरत्वाच न गच्छामः कापि । [पुनश्चिन्तितं च*] कदाचिद्, अत्र तीर्थमित्येता" मन्त्री, तस्य पुरो वक्ष्यामः स्वैरं सूक्तानि। इति ध्यायतामस्माकं मबिमिश्रा "अनागताः। यावत्पठ्यते किमपि ताव"दसत्सम्भावनयाऽवज्ञापरा यूयं स्थिताः। ततः किं पठ्यते। गच्छत गच्छत; उत्सूरं भवति । मन्त्री प्राह-मम मन्तुः" क्षम्यताम् ; किमेतत्पठितुमारेभे भवद्भिः? । आचार्या जगदुः-देव! यदा 20 युवां सबान्धवौ श्रावकण्यग्रे राजराजेश्वरौ दिव्यभूषणी, श्रावकाश्च धनाढ्या दृष्टाः, गीताधुच्छ्रयश्च । तदा एतन्नश्चित्ते बभूव-जगति स्त्रीजातिरेव धन्या । यद्भुवो" जिन-चयर्द्धचक्रि-नलकर्ण-युधिष्ठिर-विक्रम-सातवाहनादयो जाताः। सम्प्रत्यपि ईदृशाः सन्ति । तस्मात् श्रीसाम्बश्रीशान्ति-ब्रह्मणाग-आमदत्त-नागडवंश्यश्रीआभूनन्दिनी "कुमारदेवी श्लाघ्या । यया एतौ कलियुगमहान्धकारमजजिनधर्मप्रकाशनप्रदीपौ ईदृशौ नन्दनौ जातौ । इत्येवं चिन्तयतामस्माकं 25 पद्यपादद्वयं वदनादुद्गतम् । जिननमस्कारादि विस्मृतम् । पश्चाई तु शृणुत
यत्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपाल ! भवादृशाः ॥४१॥ सविस्तरतरं व्याख्यानं कृतम् । लजितः सचिवेन्द्रः। पदोर्लगित्वा सूरीन् क्षमयित्वा [चलितः*] क्रोशान्ते ग्राम एक आगात् । तत्र स्नातभुक्तविलिप्तः [तदनु*] खं भृत्यं सचिवमेकमाकार्य आदिक्षत्-इयं वाहिनी हेमसहस्रदशकवदरकयुक् सूरिभ्यो मठे देयाः। गतो मन्त्रिसेवकस्तत्र 130 भाषिताः सूरयः-मत्रिदत्तमिदमवधार्यताम् । आचार्यैदृष्टम् । अश्वमारुह्य भटशतोल्लालितकृपा
1P क्वत्यः। 2 P तत्रास्ति । कोष्ठकगताः पाठा: P पुस्तक एव दृश्यन्ते। 3 P तेन पठति इति । 4 P वर। 5 P जिहिं । GP घट्ट घटु; B घुडुग्धुदु। 7 P जलुएहिं; P चलुएहिं। 8 P बहुत; B बहुय। 9 P छह । 10 P खारुं। 11P तीर्थनत्यै एताऽत्र। 12 PB अप्यागताः। 13 ABE दसम्भावन। 14 P अपराधः। 15 P यद्गर्भे । 16 A नास्ति 'श्रीशान्ति'। 17 P कुमरा। 18 A शृणु तत् । 19 A जिह्वाय ।
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प्रबन्धकोशे णजलप्लावितरवास्तत्र गताः, यत्र श्रीवस्तुपालः । उदितश्च तैः-मत्रिन् ! किमहमुचितभाषी, किं' चारणः, किं बन्दी, किं नु सर्वसिद्धान्तपारगः सम्यग् जैनः सूरिः ? । मया मनःप्रमोदेन यद् व उपश्लोकनमुक्तं तन्मूल्यभूतामिमां वो दत्तिं कथं गृह्णामि । न मयेदं वित्तायाभिहितम् । किन्त्विदं अन्तर्मनसं ध्यात्वा [भणितं*] यथाऽद्यापि जयति जिनपतिमतम् [तीर्थकृद्वारकसदृशं 5 एवंविधैः पुरुषरत्नैः*] । धनं न गृह्णाम्येव । मन्त्री प्राह-भवन्तो निःस्पृहत्वान्न गृह्णन्ति, वयं तु दत्तत्वान्न प्रतिगृह्णीमः; तर्हि कथमनेन हेम्ना भवितव्यमिति शिक्षा दत्त । ततः सूरिभिर्जगदे जगदेकदानी मन्त्री-मन्निन् ! स्वगृहाय सम्प्रति गंस्यते भवद्भिस्तीर्थाय कस्मैचिद्वा? । मन्त्री आहप्रभो! श्रीसुव्रततीर्थवन्दनार्थं गच्छन्तः स्मः। आचार्याः प्राहुः-तर्हि लब्ध एतदुहेमव्ययोपायः।
तत्र लेप्यमयी प्रतिमाऽऽस्ते । तत्र स्नात्रसुखासिका न पूर्यते श्रावकाणाम् । तस्मादनेन राया 10 रीरीहेममयीं लानप्रतिमा निर्मापयत । मत्रिणोर्ध्वनितं मनः । तत्तथैव च कृतम् । ततः समायातः खसदनं गूर्जरेन्द्रमन्त्री।। ६१३२) अन्येधुरादर्श प्रातर्वदनं पश्यता सचिवेन पलितमेकमालोकि, अपाठि च२७९. अधीता न कला काचित् न च किञ्चित्कृतं तपः । दत्तं न किञ्चित्पात्रेभ्यो गतं च मधुरं वयः ॥४२॥
२८०. आयुर्योवनवित्तेषु स्मृतिशेषेषु या मतिः । सैव चेजायते पूर्वं न दूरे परमं पदम् ॥ ४३॥ 15 २८१. आरोहन्ती शिरःस्वान्तादौन्नत्यं तनुते जरा । शिरसः स्वान्तमायान्ती दिशते नीचतां पुनः ॥४४॥ २८२. लोकः पृच्छति मे वार्ता शरीरे कुशलं तव । कुतः कुशलमस्माकमायुर्याति दिने दिने ॥ ४५ ॥
ततोऽधिकं जिनधर्मे रेमे । ६१३३) अथैकदा द्वावपि भ्रातरौ राणश्रीवीरधवलं व्यजिज्ञपताम्-देव! देवपादैरियं गूर्जरधरा साधिता, राष्ट्रान्तराणि करदानि कृतानि । यद्यादेशः स्यात् तदा राज्याभिषेकोत्सवः क्रियते। 20 राणकेनोक्तम्-मत्रिणौ ! ऋजू भक्तिजडौ युवाम् । २८३. अजित्वा साऽर्णवामुर्वीमनिष्ट्वा विविधैर्मखैः । अदत्त्वा चार्थमर्थिभ्यो भवेयं पार्थिवः कथम् ॥ ४६ ॥
___ ततो राणकमात्रत्वमेवास्तु । इत्युक्त्वा व्यसृजत्तौ। ६१३४) एकदा मन्त्रिभ्यां श्रीसोमेश्वरादिकविभ्यो विपुला वृत्तिः कृता भूम्यादिदानैः । ततः पठितं सोमेश्वरेण25 २८४. सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्वं दुर्गसिंहेन धीमता । विसूत्रे तु कृता तेषां वस्तुपालेन मत्रिणा ॥४७॥
६१३५) श्रीवीरधवलोऽपि सेवकान् सुष्टु पदवीमारोपयन् जगत्प्रियोऽभूत् । किमुच्यते तस्य । पश्यत-श्रीवीरधवलो ग्रीष्मे चन्द्रशालायां सुप्तोऽस्ति । वण्ठश्चरणौ चम्पयत्येकः । राणकः पटीपिहितवदनो जाग्रदपि वण्ठेन सुप्तो" मेने । ततश्चरणाङ्गुलिस्था रत्नाङ्का मुद्रा जगृहे, मुखे च
चिक्षिपे । राणकेन किमपि नोक्तम् । उत्थितो राणः । भाण्डागारिकपार्थाद् गृहीत्वाऽन्या मुद्रा 30 तादृगेव पादाङ्गुलौ स्थापिता। द्वितीयदिने पुना राणकस्तत्रैव "चन्द्रशालायां प्रसुप्तः। वण्ठश्चरणौ
1 P किं वा । 2 AB तु । 3 P जैनसूरिः । * P पुस्तक एवेदं दृश्यते । 4 A मध्यप्याह । 5 P जगदेकदानवीर !। 6P इदं 17 P तस्मादनेन हेममयीं। 8 'च' नास्ति P19 A नास्ति पदमिदम् । 10P अस्माकं । 11 A सुप्त इति । 12 P शालायौ ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
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'चम्पयति । राणस्तथैव पटीस्थगितवदनोऽस्ति । वण्ठः पुनः पुनः मुद्रामालोकते। अहो! प्राक्तनी चेयम् । ततो राणेन्द्रः प्राह-भो वण्ठ ! इमां तु मुद्रां मा ग्रहीः । या कल्ये गृहीता सा गृहीता। एतद्वचनाकर्णन एव वण्ठो भीत्या वज्राहत इवास्थात् । यत:२८५. हसन्नपि नृपो हन्ति मानयन्नपि दुर्जनः । स्पृशन्नपि गजो हन्ति जिघन्नपि भुजङ्गमः ॥ ४८॥ तां तस्य दीनतां दृष्ट्वा राणकेन भणितम्-वत्स! मा भैषीः। अस्माकमेवायं कार्पण्य दोषो 5 येन तेऽल्पा वृत्तिः । इच्छा न पूर्यते । ततो बह्वपाये चौर्ये बुद्धिः। अतः परं हय आरोहाय दीयमानोऽस्ति, लक्षार्द्ध वृत्तौ । इत्याश्वासितः सः। अतो वीरधवलः क्षमापरत्वाजगवल्लभः सेवकसदाफलत्वेन पप्रथे । स सहजदया इति मन्त्रिभ्यां रहः कथान्तरे शान्तिपर्वणि श्रीद्वैपायनोक्तभीष्म-युधिष्ठिरोपदेशद्वाराऽऽयातं द्वैपायनोक्तद्वात्रिंशदधिकारमयेतिहासशास्त्रीयाष्टाविंशाधिकारस्थं शिवपुराणमध्यगतं च मांसपरिहारं व्याख्याय व्याख्याय प्रायो मांस-मद्य-10 मृगयाविमुखकृतः । पुनर्मलधारिश्रीदेवप्रभसूरिसविधे व्याख्यां श्रावं श्रावं सविशेषं तेन तत्त्वपरिमलितमतिर्विरचितः।।
६१३६) अन्येयुर्वस्तुपालो ब्राह्म मुहूर्ते विमृशति-यद्यर्हद्यात्रा विस्तरेण क्रियते तदा श्री फलवती भवेत् ।
२८६. *श्रीणां स्त्रीणां च ये वश्यास्तेऽवश्यं पुरुषाधमाः । स्त्रियः श्रियश्च यदृश्यास्तेऽवश्यं पुरुषोत्तमाः॥४९॥ 15 २८७. विञ्चयित्वा जनानेतान् सुकृतं गृह्यते श्रिया । तत्ततो गृह्यते येन स तु धूर्तधुरन्धरः ॥ ५० ॥ २८८. नृपव्यापारपापेभ्यः सुकृतं स्वीकृतं न यैः । तान् धूलिधावकेभ्योऽपि मन्ये मूढतरान् नरान् ॥५१॥ इत्यादि विमृश्य तेजःपालेन नित्यभक्तेन सांमत्यं कृत्वा मलधारिश्रीनरचन्द्रसूरिपादानपृच्छत्भगवन् ! या मे चिन्ताऽधुना [वर्त्तते* ] सा निष्पत्यूहं सेत्स्यति ? । प्रभुभिः शास्त्रज्ञकिरीटैरुक्तम्-जिनयात्राचिन्ता वर्तते, सा सेत्स्यति । वस्तुपालेन गदितम्-तर्हि देवालये वासक्षेप: 20 क्रियताम् । तदा श्रीनरचन्द्रसूरयः प्राहुः-मन्त्रीश! वयं ते मातृपक्षे गुरवः, न पितृपक्षे । पितृपक्षे तु नागेन्द्रगच्छीयाः श्रीअमरचन्द्रसूरि-श्रीमहेन्द्रसूरिपदे-श्रीविजयसेनसूरय उदप्रभसूरिसञ्ज्ञकशिष्ययुजो विशालगच्छाः पीलूआईदेशे वर्तन्ते । ते वासनिक्षेपं कुर्वन्तु [परं*] न वयम् । यदुक्तम्२८९. जा जस्स ठिई जा जस्स संतई पुवपुरिसकयमेरा । कंठहिए वि जीए सा केण' न लंघियत्व ति ॥ ५२ ।। 25
अथ मच्याह-अस्माभिर्भवदन्तिके त्रैविद्य-षडावश्यक-कर्मप्रकृत्याद्यधीतम् । यूयमेव गुरवः । प्रभुभिरुक्तम्-नैवं वाच्यम्, लोभपिशाचप्रवेशप्रसङ्गात् । ततो मत्रिभ्यां मरुदेशाद् गुरवः शीघ्रमानायिताः। मुहूर्त प्रतिष्ठा देवालयप्रस्थापनं वासनिक्षेपणं कुलगुरुभिः कृतम् । साधर्मिकवात्सल्यं शान्तिकं मारिवारणं खामिपूजनं लोकरञ्जनं चैत्यपरिपाटीपर्यटनं च विहितम् । अथ प्रतिलाभना । तत्र मिलिताः कवीश्वराः, नरेश्वराः, सङ्घश्वराः। दत्तानि कौशेयकटककुण्डल-30 हारादीनि लोकेभ्यः । यतिपतिभ्यस्तु तदुचितानि वस्त्र-कम्बल-भोज्यादीनि । तदा श्रीनरचन्द्रसूरिभिः सङ्घानुज्ञातैाख्या कृता
1 P चरणौ स एव चम्पयति । 2 AB नास्ति तथैव'। 3 P कार्पण्यजो। 4 P इति कारणात् । 5 P इह । * P पुस्तकं विहायान्यत्र नोपलभ्यते पद्यमिदम् । P पुस्तके नोपलभ्यत इदं पद्यम् । 7AB तेण । SA नास्ति ।
१५ प्र. को.
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प्रबन्धकोशे २९०. चौलुक्यः परमार्हतो नृपशतस्वामी जिनेन्द्राज्ञया, निर्ग्रन्थाय जनाय दानमनघं न प्राप जानन्नपि ।
___स प्राप्तस्त्रिदिवं स्वचारुचरितैः सत्पात्रदानेच्छया, त्वद्रपोऽवततार गूर्जरभुवि श्रीवस्तुपालो ध्रुवम् ॥ ५३॥ ध्वनितः सङ्घ । अथ चलितः सुशकुनैः सङ्घः । मार्गे सप्तक्षेत्राण्युद्धरन् श्रीवर्द्धमानपुरासन्नमावासितः। 5 ६१३७) तदा [वर्द्धमानपुरमध्ये* ] बहुजनमान्यः श्रीमान् रत्ननामा श्रावको वसति । तद्गहे दक्षिणावर्तः शङ्खः पूज्यते । स रात्री करण्डान्निर्गत्य स्निग्धगम्भीरं घुमधुमायते नृत्यति च । तत्प्रभावात्तस्य गृहे चतुरङ्गा लक्ष्मीः । शलेन रात्रौ रत्न आलेपे-तव गृहेऽहं चिरमस्थाम् । इदानीं तव पुण्यमल्पम् । मां श्रीवस्तुपालपुरुषोत्तमकरपङ्कजप्रणयिनं कुरु । सत्पात्रे मद्दानात् त्वमपीह
परत्र च सुखी भवेः। [तस्याभिप्रायं* ] व्यक्तं तज्ज्ञात्वा रत्नो विपुलसामग्र्याऽभिमुखो गत्वा 10 मन्त्रीशं [ससचं निमच्य*] स्वगृहे बहुपरिकरं भोजयित्वा परिधाप्योचे-एवमेवं शङ्खादेशो मे ।
गृहाणेमम् । मच्याह-न वयं परधनार्थिनः । पिशुनाच्छङ्कसत्तां ज्ञात्वा तं ग्रहीष्यति खयं मन्त्री, तस्मात् स्वयमेव ददामि-इत्यपि मा शतिष्ठाः, निर्लोभत्वादस्माकमस्मत्प्रभूणां च । इत्युक्त्वा विरते मत्रिणि रत्नेन गदितम्-देव! मद्गृहावस्थानमस्मै न रोचते । ततः किं क्रियते ?, गृहाणैष ।
ततो गृहीतो मश्रिणा शङ्खः। तत्प्रभावोऽनन्तः। 15 ६१३८) शनैः शनैः सङ्घः श्रीशत्रुञ्जयतलहट्टिकां प्राप्तः । तत्र ललितासरः प्रासादादिकीर्ण
नानि पश्यन् प्रमुदितः ससङ्घः सचिवः। आरूढः शत्रुञ्जयादि विवेकं च भावं च । तत्र मन्त्री प्रथमं ऋषभं वन्दते । तदा काव्यपाठः२९१. आस्सं कस्य न वीक्षितं क न कृता सेवा न के वा स्तुताः, तृष्णापूरपराहतेन विहिता केषां च नाभ्यर्थना ।
_____ तत् त्रातर् ! विमलाद्रिनन्दनवनीकल्पैककल्पद्रुम!, त्वामासाद्य कदा कदर्थनमिदं भूयोऽपि नाहं सहे ॥५४॥ 20 अथावारितसत्र-मेरुध्वजारोपणेन्द्रपदार्थिरञ्जनादीनि कर्तव्यानि विहितानि । देवेभ्यो हैमानि "आरात्रिकतिलकादीनि दत्तानि । कुङ्कुमकर्पूरागुरुमृगमदचन्दनकुसुमपरिमलमिलदलिकुलशङ्कारभारपूरितमिव गगनमभवत् । गीत-रासध्वनिभिर्दिक्कुहराणि अम्रियन्त । पूर्व मनिश्रीउदयनदत्ता देवदायाः सर्वेऽपि सविशेषाः कृताः । देवद्रव्यनाशनिषेधार्थ चत्वारि श्रावककुलानि अद्रौ मुक्तानि । अनुपमा दानाधिकारिणी [कृताऽस्ति*]। तस्याः साधुभ्यो दानानि ददत्याः किल महति 25 वृन्दे पतता घृतकडहटकेन क्षौमाण्यभ्यक्तानि । तदा' याष्टिकेन कडहभृते साधवे यष्टिप्रहार
लेशो दत्तः। मत्रिण्या देशनिर्वासनं समादिष्टम्। [भणितं च-*] रे न वेत्सि! यद्यहं तैलिकपत्नी कान्दविकी वाऽभविष्यम्, तदा प्रतिपदं तैलघृताभिष्वङ्गान्मलिनान्येव वासांस्य भविष्यन् । एवं तु वस्त्राभ्यङ्गो [ भाग्यलभ्यः* ] दर्शनप्रसादादेव स्यात् । य इदं न मन्यते तेन नः कार्यमेव न इत्युक्तं च । अहो ! दर्शनभक्तिरिति ध्वनितं सर्वम् । 30 ६१३९) एकदा मन्त्रीश्वरो नाभेयपुर आरात्रिके स्थितोऽस्ति दिव्यधवलवासाश्चान्दनतिलको दिव्यपदकहारभूषितोरस्थलः। सूरीणां कवीनां श्रावक-श्राविकाणां च नतिः। तिलकं तिलकोपरि। पुष्पस्रक पुष्पस्रगुपरि। तदा सूत्रधारेणैकेन दारवी कुमारदेव्या मातुर्मूर्तिमहन्तकायनवीनघटिता
1P ससो मनी। कोष्ठकगता: पाठा: P पुस्तक एव प्राप्यन्ते। 2 A रत्नस्य । 3 A. पिशुनाः। 4 A. हट्टिकाया. माप। 5 P आभरणानि तिल। 6A दिक्षु अन्तराणि। 7.A तदयोयष्टीकेन । 8P कान्दविकपत्री।
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वस्तुपालप्रबन्धः ।
११५
दृष्टौ कृता । उक्तं च तेन - मातुर्मूर्त्तिरियम् । तदा मन्त्रीश्वरेणाशिखानखं दृष्टा मूर्त्तिः । दृष्ट्वा रुदितं च' प्रथममश्रुमात्रम्, ततो व्यक्तेतरो ध्वनिः, ततो व्यक्ततरः । सर्वे तदस्थाः पृच्छन्ति - देव ! किं कारणं रुद्यते ? । हर्षस्थाने को विषादः ? । [ यथा* ] श्रुतशील उद्धव इव विष्णोः, अभय इव श्रेणिकस्य, कल्पक इव नन्दस्य, जाम्बक इव वनराजस्य, आलिग इव सिद्धराजस्य, उदयन इव कुमारपालस्य [तथा*] त्वं मन्त्री वीरधवलस्य । विपद्भीताः पर्वता इव सागरं [तथा *] त्वामाश्रयन्ति 5 भूपाः । तार्येणेव पन्नगाः [ तथा *] त्वया हताः सपत्नाः पृथिवीपालाः । चन्द्राय इव चकोराः [तथा *] तुभ्यं स्पृहयन्ति खजनाः । हिमवत इव गङ्गा [तथा *] त्वत्प्रभवा' राजनीतिः । भानोरिव पद्मा: [ तथा *] तवोदयमीहन्ते सूरयः । विष्णाविव रमते त्वयि श्रीः । तन्नास्ति यन्न' ते [ एवं सति किमर्थं दुःखं धियते ?* ] ततो मन्त्रिणोक्तम्- इदं दुःखं यन्मे 'भाग्य-सङ्घाधिपत्यादि विभूतिर्मातृमरणादनन्तरं सम्पन्ना । यदि तु सा मे माता इदानीं स्यात्, तदा खहस्तेन मङ्गलानि कुर्वत्या - 10 स्तस्या मम च मङ्गलानि कारयतः पश्यतश्च लोकस्य कियत्सुखं भवेत् । परं किं कुर्मो धात्रा हताः स्मः [ एकैकन्यूनीकरणेन * ] । ततः श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मलधारिभिरभिहितम् - मनीश्वर ! यथा त्वं सचिवेषु तथाऽत्र देशे प्रधानं राजसु सिद्धराजो व्यजयत । स मालवेन्द्रं जित्वा पतनमागतो मङ्गलेषु क्रियमाणेष्वपाठीद् यथा
२९२.
15
मास्म सीमन्तिनी कापि जनयेत् सुतमीदृशम् । बृहद्भाग्यफलं यस्य मृतमातुरनन्तरम् ॥ ५५ ॥ तस्मात् [ हृदयमधः कृत्वा स्थीयते विवेकिभिः * ] न सर्वेऽपि नृणां मनोरथाः प्रपूर्यन्ते । [ इत्याद्युक्त्वा मन्त्री बलादारात्रिकमङ्गलदीपादिकारितः । ततो चैत्यवन्दना गुरुवन्दनं च । तदा *] श्रीनरचन्द्रसूरिभिराशीर्दत्ता
२९३. तवोपकुर्वतो धर्मं तस्य त्वामुपकुर्वतः । वस्तुपाल ! द्वयोरस्तु युक्त एव समागमः ॥ ५६ ॥ इत्यादि' । अथ रात्रौ तन्मयतया नाभेयपूजाध्यानदानपूजाः । तदा कवयः पठन्ति । एकः कश्चित्
२९४. ये पापप्रवणाः स्वभावकृपणाः स्वामिप्रसादोल्बणा, स्तेऽपि द्रव्यकणाय मर्त्यभषणा जिह्न ! भवत्या स्तुताः । तस्मात् त्वं तदघापघातविधये बद्धारा सम्प्रति, श्रेयःस्थानविधानधिक्कृतकलिं श्रीवस्तुपालं तुहि ॥५७॥ अपरस्तु
२९५. सूरो रणेषु चरणप्रणतेषु सोमो, वक्रोऽतिवक्रचरितेषु बुधोऽर्थबोधे ।
नीतौ गुरुः कविजने कविरक्रियासु, मन्दोऽपि च ' ग्रहमयो नहि वस्तुपालः ॥ ५८ ॥ अन्यस्तु२९६. श्रीभोजवदनाम्भोजवियोगविधुरं मनः । श्रीवस्तुपालवक्त्रेन्दौ विनोदयति भारती ॥ ५९ ॥ इतरस्तु -
२९७. श्रीवासाम्बुजमाननं परिणतं पञ्चाङ्गुलिच्छतो, जग्मुर्दक्षिणपञ्चशाखमयतां पञ्चापि देवद्रुमाः । वाञ्छापूरणकारणं प्रणयिनां जिह्वैव चिन्तामणि, जीता यस्य किमस्य शस्यमपरं श्रीवस्तुपालस्य तत् ॥ ६०॥ सर्वत्र लक्षदानम् । अष्टाहिकायां गतायां ऋषभदेवं गद्गदोक्त्या मन्त्री आपृच्छत"
1 P दृष्ट्वा च रुदितम् । 5 P तदा । 6 P व्यजियत ।
* P पुस्तके प्रक्षिप्तप्राया एते पाठाः । 7A इति । 8P ० ध्यानदानः ।
22 P प्रभवति । 9 V विग्रहमयो ।
3 PV यन्नास्ति । 10 P अपृच्छत् ।
4 P भाग्यं ।
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प्रबन्धकोशे
२९८. त्वत्प्रासादकृते नीडे वसन् शृण्वन् गुणांस्तव । सङ्घदर्शनतुष्टात्मा भूयासं विहगोऽप्यहम् ॥ ६१ ॥ २९९. यदाये द्यूतकारस्य यत्प्रियायां वियोगिनः । यद्राधावेधिनो लक्ष्ये तद् ध्यानं मेऽस्तु ते मते ॥ ६२ ॥ इत्याद्यकवत् । एवं सद्योऽपि चलितः। ससङ्घः सचिवः मरुदेवाशिखरादग्रे यावत् कियदपि याति, तावत् श्रमवशविगलत्खेदक्लिन्नगात्रवसनान् कत्यपि मालिकान् पुष्पकरण्डकभारितशिर5 सोऽपश्यत्। पृष्टास्ते-कथमुत्सुका इव यूयम् ? । तैर्विज्ञप्तम्-देव ! वयं दूरात् पुष्पाण्याहार्मः। सङ्घः किल शत्रुञ्जयशिखरेऽस्ति; प्रकृष्टं मूल्यं लप्स्यामहे । तत्पुनरन्यथा जातम् । सङ्घश्वलितः। तस्मादभाग्या वयमिति । तेषां दैन्यं दृष्ट्वा मत्रिणाऽभाणि-अत्रैव स्थीयतामूःक्षणम् । तावता पाश्चात्यं सर्वमप्यायातम् । श्रीवस्तुपालेन खकुटुम्बं सङ्घश्वाभाण्येताम् । यथा-भो धन्याः!
सर्वेषां पूर्णस्तीर्थवन्दनापूजाभिलाषः। लोकेनोक्तम्-[भवत्प्रसादात्*] पूर्णः। मच्याह-किमपि 10 तीर्थमपूजितं स्थितम् [अस्ति* ] ? लोकः प्राह-प्रत्येकं सर्वाणि तीर्थानि पूजितानि ध्यातानि ।
मनिमहेन्द्रः प्राह-यद्विस्मृतं तन्न जानीथ यूयम् , वयं स्मारयामः । सङ्घो वदति-किं विस्मृतम् । [तत्कथयन्तु*] मन्त्री गदति-भो लोकाः ! पूर्व तीर्थमयं पर्वतः । यत्र स्वयमृषभदेवः समवासापीत् । ततो नेमिवर्जिता द्वाविंशतिर्जिनाः समवासार्दुः। असङ्ख्याः सिद्धाश्च यत्र।सोऽद्रिः कथं न
तीर्थम् । लोकोऽप्याह-सत्यं तीर्थमयं पर्वतः।तर्हि पूज्यताम् । पुष्पादीनि केति चेत् [अकथयिष्यन् 15 तदा*] इमे मालिका इमानि पुष्पाणि वः पुण्यैरुपास्थिषतेति । ततः सङ्घन तानि पुष्पाणि गृहीत्वाऽद्रिपूजा कृता । [ द्रम्मेण पुष्पं जातम्* ] नालिकेरास्फालन-वस्त्रदानादिकेलयश्च । तुष्टा मालिकाः। एवं पराशाभङ्गपराङ्मुखः आसराजभूः। ___६१४०) [तता* ] शनैः शनैः पशु-तुरङ्ग-शिश्वाद्यपीडया सङ्घो रैवतकमारुरोह च । नेमिनि
दृष्टे मन्त्री ननर्त, पपाठ च आनन्दाश्रुनिर्झरिताक्ष:20 ३००. कल्पद्रुमस्तरसौ तरवस्तथाऽन्ये, चिन्तामणिमणिरसौ मणयस्तथाऽन्ये ।
धिग् जातिमेव ददृशे बत यत्र नेमिः, श्रीरैवते स दिवसो दिवसास्तथाऽन्ये ॥ ६३॥ ३०१. अभङ्गवैराग्यतरङ्गरौं, चित्ते त्वदीये यदुवंशरत्न !।
कथं कृशाङ्योऽपि हि मान्तु हन्त, यस्मादनकोऽपि पदं न लेभे ॥ ६४ ॥ तत्राऽप्यष्टाहिकादिविधिःप्रागिव । नाभेयभवनकल्याणत्रय-गजेन्द्रपदकुण्डान्तिकप्रासाद-अ25 म्बिका-शाम्ब-प्रद्युम्नशिखरतोरणादिकीर्तनदर्शनैर्मनी सङ्घश्व नयनयोः स्वादुफलमार्पिपताम् । आरात्रिकेऽर्थिनां ससम्भ्रमं मन्त्रिमध्ये झम्पापनं दृष्ट्वा श्रीसोमेश्वरश्वकवे३०२. इच्छासिद्धिसमन्विते सुरगणे कल्पद्रुमैः स्थीयते, पाताले पवमानभोजनजने कष्टं प्रणष्टो बलिः ।
नीरागानगमन् मुनीन् सुरभयश्चिन्तामणिः क्वाप्यगात्, तस्मादर्थिकदर्थनां विषहतां श्रीवस्तुपालः क्षितौ ॥६५॥ लक्षः सपादोऽस्य दत्तौ मन्त्रिणः । दानमण्डपिकायां निषण्णो निरर्गलं [दानं* ] ददद् एवं 30 स्तुतः केनापि [कविना*]३०३. पीयूषादपि पेशलाः शशधरज्योत्स्नाकलापादपि, स्वस्था नूतनचूतमञ्जरिभरादप्युल्लसत्सौरभाः ।
___ वाग्देवीमुखसामसूक्तविशदोद्गारादपि प्राञ्जलाः, केषां न प्रथयन्ति चेतसि मुदं श्रीवस्तुपालोक्तयः ॥६६॥ ___ 1 P इत्याद्यकथयत् ; A इत्याद्येकवत् ; V इत्याद्यपठत् । 27 वृत्तम्। 3 P आभाण्यताम् । 4 P त्रयोविंशतिः । 5 P संघस्य । 6A झम्पापतनं। 7A सोमेश्वरस्य कवे; P सोमेश्वरकविः प्राह। 8 P समुन्नते।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
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३०४. वस्तुपाल! तव पर्वशर्वरीगर्वितेन्दुकरजित्वरं यशः ।
क्षीरनीरनिधिवाससः क्षितेरुत्तरीयतुलनां विगाहते ॥ ६७॥ एवं भावं सम्पूर्य देवोत्तमं श्रीनेमिनाथमापृच्छय सर्वास्तीर्थचिन्ताः'कृताः। निर्माल्यपदं दत्त्वा पर्वतादुदतारीत्, न सतां हृदयात् नापि महत्त्वात् ।
६१४१) अथ खङ्गारदुर्गादि-देवपत्तनादिषु देवान् ववन्दे । तेजःपालं खङ्गारदुर्गे स्थापयित्वा स्वयं 5 ससङ्घो वस्तुपाल: श्रीधवलक्कके श्रीवीरधवलमगमत् । खागतप्रश्नः स्वामिना कृतः। आरम्भसिद्धिप्रश्नश्च । ततो मच्याह
३०५. कामं स्वामिप्रसादेन प्रेष्याः कर्मसु कर्मठाः । तद् वैभवं बृहद्भानोः क्वचिदूष्मा जलेऽपि यत् ॥ ६८ ॥ राणकेन ससङ्घः सचिवः खसदने भोजितः, परिधापितः, स्तुतश्च ।
तेजापालस्तु खङ्गारदुर्गस्थो भूमि विलोक्य तेजलपुरममण्डयत् सत्रारामपुरप्रपाजिनगृहादि-10 रम्यम् । प्राकारश्च तेजलपुरं परितः कारितः पाषाणबद्धस्तुङ्गः।
६१४२) अथ वस्तपाल श्रीवीरधवलपार्श्वे सेवां विधत्ते । देशः सस्थः। धर्मो वर्तते । एवं सत्येकदा दिल्लीनगरादेत्य चरपुरुषैः श्रीवस्तुपालो विज्ञप्त:-देव! ढिल्लीतः श्रीमोजदीनसुरत्राणस्य सैन्यं पश्चिमां दिशमुद्दिश्य चलितम् । चत्वारि प्रयाणानि व्यूढम् । तस्मात्सावधानः स्थेयम् । मन्ये अर्बुददिशा गूर्जरधरां प्रवेष्टा । मन्त्रिणा सत्कृत्य ते चरा राणपार्श्व नीताः। कथापितः स प्रबन्धः। 15 ततो राणकेनाभाणि-वस्तुपाल ! म्लेच्छैगर्दभिल्लो गईभीविद्यासिद्धोऽप्यभिभूतः। नित्यं सूर्यविम्बनिर्यतुरङ्गमकृतराजपाटीकः शिलादित्योऽपि पीडितः । सप्तशतयोजनभूनाथो जयन्तचन्द्रोऽपि क्षयं नीतः। विंशतिवारबद्धरुद्ध सहावदीनसुरत्राणमोक्ता पृथिवीराजोऽपि बद्धः । तस्माद् दुर्जया अमी। किं कर्ताऽसि ?। वस्तुपाल उवाच-खामिन् ! प्रेषय माम् , यदुचितं तत्करिष्यामि । ततः साराश्वलक्षेण सह चलितो मन्त्री। तृतीये प्रयाणे महणदेवीं कपूरादिमहापूजापूर्वे सस्मार। सा 20 तद्भाग्यात्प्रत्यक्षीभूयोवाच-वत्सक ! मा भैषीः । अर्बुदगिरिदिशा यवनाः प्रवेक्ष्यन्ति । तव देशं यदाऽमी प्रविशन्ति तदैव तल्लंघिता घटिकाःस्वराजन्यै रोधयेथाः। तेऽथ*] यत्रावासान् गृह्णन्ति, तत्र स्थिरचित्तः ससैन्यो युद्धाय सरभसं ढौकेथाः। जयश्रीस्तव करपङ्कजे एव । इदं श्रुत्वा धारावर्षायाव॑दगिरिनायकाय स्वसेवकाय नरान् प्रेषयत् । अकथापयच्च-म्लेच्छसैन्यमबुंदमध्ये भूत्वा आजिगमिषदास्ते । त्वमेतानागच्छतो मुक्त्वा पश्चाद् घट्टिका रुन्ध्याः । तेन तथैव कृतम् । 25 प्रविष्टा यवनाः । यावदावासान् ग्रहीष्यन्ति तावत्पतितो वस्तुपालः कालः। हन्यन्ते यवनाः । उच्छलितो वुम्बारवः। केचिद्दन्तान्तरं अङ्गुली गृहन्ति; अपरे तु तोबां कुर्वन्ति । तथाऽपि न च्छुटन्ति । एवं तान् हत्वा तच्छीर्षलक्षः शकटानि भृत्वा धवलक्कमेत्य मन्त्री स्वस्वामिनं प्रत्यदर्शयत् । श्लाघितश्च तेनायम् । ३०६. न ध्वानं तनुषे न यासि विकटं नोच्चैर्वहस्याननं, दोन्नोलिखसि क्षितिं खरपुटै वज्ञया वीक्ष्यसे। 30
किन्तु त्वं वसुधातलैकधवल ! स्कन्धाधिरूढे भरे, तीर्थान्युच्चतटीविटङ्कविषमाण्युल्लङ्घयन् लक्ष्यसे ॥ ६९ ॥ 1P सर्वासां तीर्थचिन्ताकृताम् । 2 P तेजःपालोऽपि। 3 P अर्बुदमध्ये भूत्वा। 4 P .बद्धसहावदीन. 5 B महणक०, P महणल। 6A तदैतलंधिताः। 7PB 'तु' नास्ति । 8V न तु। 9AB 'प्रति' नास्ति । 10 A ध्वानंतमुखेन ।
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प्रबन्धकोशे
ततः परिधापितः । विसृष्टः स्वगृहाय । तत्र मङ्गलकरणाय लोकागमः । द्रम्मेण पुष्पं लभ्यते । [ तदवसरेऽपि* ]। एवं पुष्पस्रग्व्ययो लोकैः कृतः ।
६१४३) इतश्च नागपुरे साधुदेहासुतः सा० पूनः श्रीमोजदीनसुरत्राणपत्नीबीबी' प्रतिपन्नबान्धवो अश्वपति- गजपति - नरपतिमान्यो विजयते । तेन प्रथमं श्रीशत्रुञ्जये यात्रा त्रिसप्तत्य5धिकद्वादशशतवर्षे (१२७३) बम्बेरपुरात् विहिता । द्वितीया सुरत्राणादेशात् षडशीत्यधिके द्वादशशतसङ्ख्ये (१२८६ ) वर्षे नागपुरात्कर्त्तुमारब्धा । [ तत्सङ्घ * ] अष्टादशशतानि शकटानि, बहवो महाधराः । [ तदनुसारेण शेषः परिवारः * ।] कुमारने ना' सहितो माण्डलिपुरं' यावदायातः [ससङ्घः* ] । ततः सम्मुखमागत्य महन्तकतेजःपालेन' धवलक्ककमानीतः । श्रीवस्तुपालः सम्मुखमागात् । सङ्घस्य धूली पवनानुकूल्याद् यां यां दिशमनुधावति, तत्र तत्र स 10 गच्छति । 'तटस्थैर्भणितम्-मन्त्रीश! इतो रजः, इतो रजः । इतः पादोऽवधार्यताम् । ततः सचिवेन भणे - इदं रजः स्प्रष्टुं पुण्यैर्लभ्यते । अनेन रजसा स्पृष्टेन "पापरजांसि दूरे नश्यन्ति । यतः
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३०७. श्रीतीर्थपान्थरजसा विरजीभवन्ति, तीर्थेषु बम्भ्रमवतो न भवे भ्रमन्ति ।
ततः सङ्घपतिपूनड- मन्त्रिणोर्गाढमालिङ्गन- प्रियालापौ संवृत्तौ । सरस्तीरे स्थितः सङ्घः " । 15 fपूनडः कुलगुरुमल धारिश्रीनरचन्द्रसूरिपादान् ववन्दे । । रात्रौ श्रीवस्तुपालेन कथापितं पूनडाय पुण्यात्मने - प्रातः "सर्वसङ्घनास्मद्रसवत्यतिथिना युष्मता च भवितव्यम्" । धूमो न कार्यः खावासेषु" । पूनडेन तथेति " प्रतिपन्नम् । रात्रौ मण्डपो द्विद्वारो रसवतीप्रकाराश्च सर्वे निष्पन्नम् । [भोजनमण्डपे *] प्रातरायान्ति नागपुरीयाः । सर्वेषां चरणक्षालनं तिलकरचनां च श्रीवस्तुपालः स्वहस्तेन करोति । एवं लग्ना द्विप्रहरी । मन्त्री तु तथैवानिर्विण्णः । तदा तेजःपालेन विज्ञप्तम्20 अन्यैरपि देव ! वयं सङ्घपदप्रक्षालनादि करिष्यामः, भुंग्ध्वम्, तापो भावी इति । "मनिनरेन्द्रेणोक्तम् - मैवं वदत" | पुण्यैरयमवसरो लभ्यते । गुरुभिरपि कथापितम्
३०८.
द्रव्यव्ययादिह नराः स्थिरसम्पदः स्युः पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ७० ॥
यस्मिन् कुले यः पुरुषः प्रधानः, स एव यत्नेन हि रक्षणीयः । तस्मिन् विनष्टे हि कुलं विनष्टं, न नाभिभङ्गे त्वरका वहन्ति ॥ ७१ ॥ मन्त्रिणा पत्री गुरुभ्यः प्रैषि, तत्र काव्यम्३०९. अद्य मे फलवती पितुराशा, मातुराशिषि शिखाऽङ्कुरिताऽद्य । यद् युगादिजिनयात्रिकलोकं, पूजयाम्यहमशेषमखिन्नः ॥ ७२ ॥
भोजयता मन्त्रिणा नागपुरीयाणामेकपङ्गित्वं दृष्ट्वा शिरो धूनितम् । अहो ! शुद्धा लोका एते ।
तस्माद् भोक्तव्यं भवद्भिः, तापो मा भूद्" ।
1 P बीबी प्रेमकमला; V बीबी हूरा० । 2 P विक्रमात् १२७२ वर्षे । 3 A वासरे; BED वच्छरे; V बंध्वेर०; P बिम्बेरपुरात् कृता । * P पुस्तक एव कोष्टकगताः पाठाः लभ्यन्ते । 4 BED कुमारतेना । tt P पुस्तके नास्तीदं वाक्यम् । 5 P मांडलिग्रामreat | 6 P तावत् । 7 P तेजःपालमन्त्रिणा । 8AB नास्ति 'स' | 9 P तटस्थनरैः । 10 A वृजिन० । + P विहायान्यत्र नोपलभ्यते पद्यमिदम् । 11 AB नास्ति 'संघः' । +P नास्ति वाक्यमिदम् । 12 V आदर्श एव लभ्यते पदमिदम् । P पुस्तके 'सर्वसङ्घनास्मदावाले भोक्तव्यम् ;' V सर्वसंघेन भवता युष्मता चास्मद्रसव ० । 13 AB तथेत्याहतम् । SP देव अन्यैरपि संघभक्तिः कारयिष्यते । 14 P ' मन्त्री भणति' इत्येव । 15 P वादीः । 16P नास्ति । $ P मन्त्रिणा गुरून् प्रति पुनरिदं काव्यं प्रहितम् ।
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वस्तुपालप्रबन्धः ।
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एवं भोजयित्वा परिधाप्य च रञ्जितो नागपुरसङ्घः । गतौ वस्तुपाल - पूनडौ श्रीशत्रुञ्जयं ससङ्घौ । वन्दितः श्रीऋषभः । एकदा स्नात्रे सति देवार्चको देवस्य नासां पिधत्ते पुष्पैः, किल कलशेन नासा' मा पीडीदित्याशयतः । तदा मन्त्रिणा चिन्तितम् - कदाचिद् 'दैवाद् देवाधिदेवस्य कलशादिना परचक्रेण वाऽवक्तव्यममङ्गलं भवेत् तदा का गतिः सङ्घस्य । इति चिन्तयित्वा पूनड आलेपेभ्रातः ! सङ्कल्पोऽयमेवं मे संवृत्तः । यदि बिम्बान्तरमस्य मम्माणीमयं क्रियते तदा सुन्दरम् । 5 तत्तु सुरत्राणमोजदीनमित्रे त्वयि यतमाने स्यान्नान्यथा । पूनडेनोक्तम्- ततः गतैश्चिन्तयिष्यतेऽदः । इत्यादि वदन्तौ रैवतादितीर्थान् वन्दित्वा व्यावृत्तौ तौ । गतः पूनडो नागपुरम् । मन्त्री धवलक्कके' राज्यं शास्ति ।
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(१४४) एवं स्थितेऽन्येद्युः सुरत्राण मोजदीनमाता वृद्धा हजयात्रार्थिनी स्तम्भपुरमागता । नौवित्तगृहेऽतिथित्वेनास्थात् । सा समागता सचिवेन चरेभ्यो ज्ञाता । चराः प्रोक्ताः श्रीमन्त्रिणा - रे 110 यदा इयं जलपथेन याति तदा मे ज्ञाप्या । गच्छन्ती ज्ञापिता तैः । मन्त्रिणा निजकोलिकान् प्रेष्य तस्याः सर्व कोटीम्बकस्थं वस्तु ग्राहितम् । सुष्ठु रक्षापितं च कचित् । तदा नौवित्तैः पूत्कृतं उपमनि-देव ! जरत्येकाऽस्मद्यूथ्या हजयात्रायै गच्छन्ती त्वत्पद्रे तस्करैर्लुण्ठिता । मन्त्रिणा पृष्टम्का सा जरती ? । तैरुक्तम्- देव! किं पृच्छसि ?, सा मोजदीन सुरत्राणमाता' पूज्या । मन्त्रिणा भणितं मायया- अरे ! वस्तु विलोकयत विलोकयत । [ दिनद्वयं विलम्ब्य *] आनीयार्पितं सर्वम् । जरसीं तु 15 स्वगृहे आनिन्ये । विविधा भक्तिः क्रियते । पृष्टा च किं हजयात्रेच्छा वः । तयोक्तम् - ओमिति । तर्हि दिन कतिपयान् प्रतीक्षध्वम् । प्रतीक्षां चक्रे सा । तावताऽऽरासणाश्मीयं' तोरणं घटापितम् । [आनायितं च *] मेलयित्वा विलोकितम् । पुनर्विघटितम् । रूतेन बद्धम् । सूत्रधाराः सह प्रगुणिताः, मनिता मन्त्रिणश्च । मार्गश्चान्तरे त्रिविधोऽस्ति । एको जलमार्गः, अपरः करभगम्यः, इतरश्च अश्वलङ्घयः । यत्र ये राजानः, योऽध्वा यथोल्लङ्घयते तथा सूत्रं कृतम् । राज्ञां उपदायै द्रव्याणि 20 प्रगुणीकृतानि । एवं सामग्र्या [स्वयं सह भूत्वा *] सा प्रहिता । तत्र रचितं तोरणं मसीतिद्वारे । तत्र दीपतैलादिपूजा चिन्ता तद्राजपार्श्वात् शाश्वती कारिता । दत्तं भूरि भूरि तत्र । उदभूद् भूरि यशः । [ श्रीनाभेयपादुकास्थाने महामण्डपश्च तत्र । परमार्थतस्तीर्थमिदं श्रीऋषभपादुकामयं बाहुबलिना कृतम् । ततो ] व्यावृत्ता जरती । आनीता स्तम्भपुरम् । पुरप्रवेशमहः" कारितः । स्वयं तदंहिक्षालनं" चक्रे । एवं भक्त्या दिनदशकं स्थापिता [ खगृहे * ] । तावता धवलकिशोरशतपञ्चकं 25 अन्यदपि दुकूलगन्धराजकर्पूरादि गृहीतम् । वृद्धा प्रोक्ता - मातश्चलसि " । " यद्यादिशसि तत्र मानं च दापयसि तदाऽहमप्यागच्छामि [ तव सम्प्रेषणार्थम् * ] । तया भणितम् - तत्राहमेव प्रभुः । खैरमेहि । पूजा ते * तत्र [ बहुतरी * ] । श्रीवीरधवलानुमत्या चलितो मन्त्रिमहेन्द्रः । गतो ढिल्लीतटम् । राजमातृवचनात् कोशद्वये [Sar * ] तस्थौ । सुरत्राणः सम्मुखमागान्मातुः । माता प्रणता पृष्टा च सुखयात्राम्। जरत्या प्रोक्तम्-कथं न मे भद्रम् । यस्या ढिल्लयां त्वं 30 पुत्रः, गूर्जरधरायां तु वस्तुपालः । राज्ञा पृष्टम् - कोऽसौ ? । जरत्या वृत्तान्तः प्रोक्तस्तद्विन
1P नासां 2A 'दैवात्' नास्ति । 3P अश्ममम्माणी ० । । एतचिह्नान्तर्गताः पंक्तयः V आदर्शे नोपलभ्यन्ते सर्वथा; तत्स्थाने 'अव्यक्तदैवात्' इत्येव वाक्यांशो दृश्यते । 4P स्तम्भतीर्थे । 5 P तैस्तथा कृतम् । गच्छन्ती ज्ञापिता । 6 AB मोजदीनमाता । 7 P आरासणे आख्यीयं । 8 AP नास्ति 'मन्त्रिताः '; V स्वसेवकाः । 9A मशीति० । पंक्तिः प्राप्यते । 10 P प्रवेश० । SV आदर्श एवैषा 11 AB • क्षालने । 12 A चलामि । 13 AB यथा० । 14 AP पूज्यते ।
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प्रबन्धको
यख्यातिगर्भः। राजाह -स किमिति नात्रानीतः । वृद्धाह-आनीतोऽस्ति । दृश्यतां तर्हि ? | अश्ववारान्' प्रहित्य आनाय्य दर्शितो वस्तुपालः । दत्तोपदा [ मन्त्रिणा * ] । आलापितश्च राज्ञा[ मात्रा मदधिकस्त्वं पुत्रो मतः । तेन मम बान्धवस्त्वम् * ] अस्मन्माता त्वां स्तौति । [ एवं सुखवार्त्ता कृत्वा महतोत्सवेन स्वमातुरग्रेसरः कृत्वा श्रीवस्तुपालो ढिल्लीपुरं नीतः । आवासितश्च 5 साधुपून डस्यावासे । खमुखेन सुरत्राणेन निमत्र्य साधुपूनडसदने भोजयित्वा निजधवलगृहे आकारितः सचिवेन्द्रः । सविनयं सत्कृत्य परिधापितः । सुवर्णकोटिमेकां प्रसादपदे दत्त्वा उक्तश्चेति *-] किञ्चिद्याचख । [ येन वस्तुना प्रयोजनं तद्वद । ] वस्तुपालेनाभिहितम् - देव ! गुर्जरधरया सह देवस्य यावज्जीवं सन्धिः स्तात् । उपलपञ्चकं मम्माणीखनीतो दापय । राज्ञा मतं तत् । [ दत्ता धीरा * ] फलहीपञ्चकं तु [ नृपादेशात् * ] पूनडेन प्रेषितं शत्रुञ्जयाद्रौ । 10 तत्रैका ऋषभफलही । द्वितीया पुण्डरीकफलही । तृतीया कपर्द्दिनः । चतुर्थी चक्रेश्वर्याः । पञ्चमी तेजलपुर' [प्रासाद*] पार्श्वफलही । [ चलितः पश्चात् * ] मन्त्रीश्वरः खपुरं गतः । प्रणतः खखामी तेन चिरदर्शनोत्कण्ठाविह्वलेन' । पूर्वमपि कर्णाकर्णिकया श्रुतं ढिल्लीगमनवृत्तान्तम् । [ पुनः सविशेषं * ] मन्त्रिणं पप्रच्छ । सोऽपि निरवशेषमगर्वपरः प्राचख्यौ । तुष्टो वीरधवलः । दत्ता दशलक्षी हेन्नां प्रसादेन' । सा तु गृहादर्वागेव दत्ता [ बहुमिलितयाचकेभ्यः । मिलितो * ] 15 मन्त्रिगृहे सर्वो[ऽपि *] लोकः । [स*] सत्कृत्य प्रेषितः । कवयस्तु पठन्ति
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३१०. श्रीमन्ति दृष्ट्वा द्विजराजमेकं, पद्मानि सङ्कोचमहो भजन्ति । समागतेऽपि द्विजराजलक्षे, सदा विकासी तव पाणिपद्मः ॥ ७३ ॥ ३११. उच्चाटने विद्विषतां रमाणामाकर्षणे स्वामिहृदश्च वश्ये ।
एकोऽपि मन्त्रीश्वरवस्तुपाल ! सिद्धस्तव स्फूर्त्तिमियर्त्ति मन्त्रः ॥ ७४ ॥
एवं स्तूयमान उत्तमत्वाल्लज्जमानो वस्तुपालोऽधो विलोकयामास । ततो महानगरवासिना नानाककविना" भणितम्
३१२. एकत्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितम्, लज्जानम्रशिराः स्थिरातलमिदं यद्वीक्षसे वेद्मि तत् । वाग्देवीवदनारविन्दतिलक ! श्रीवस्तुपाल ! ध्रुवम्, पातालाद्वलिमुद्दिधीर्षुरसकृन्मार्गं भवान् मार्गति ॥७५॥ तदैव कृष्णनगरीयकविकमलादित्येन भङ्ग्यन्तरमुक्तम्
३१३. लक्ष्मीं चलां त्यागफलां चकार यां", साऽर्थिश्रिता कीर्तिमसूत नन्दिनीम् । साऽपीच्छया क्रीडति विष्टपाग्रत, स्तद्वत्तयाऽसौ त्रपते यतो महान् ॥ ७६ ॥
[ तेषां कवीनां भूरि दानं दत्तमू* । ]
१४५) अथ कदाचन मन्त्रिणा श्रुतं यथा - रैवतकासन्नं गच्छतां लोकानां पार्श्वतो भरटकाः पूर्वनरेन्द्रदत्तं करमुद्ग्राहयन्ति । पोट्टलकेभ्यः " कणमाणकमेकं १, कूपकात्कर्षः १ - एवं उपद्रूयते 30 लोकः । तत आयतिदर्शिना सचिवेन ते भरटकाः कुहाडीनामानं ग्रामं दत्त्वा तं करमुदूग्राहयतो निषिद्धाः ।
1 V किमानीतो न । 2 Vदश्यतां । 3 VB वारं । * एते कोष्टकगताः सर्वेऽपि पाठाः SV आदर्शऽधिकं वाक्यमिदम् । 4P नास्ति 'तु' | । 6 P ० पुरे श्रीपार्श्व० । 7 A 9 P प्रसादपदे । 10 VB • वासिनानकविना । नास्ति ।
5 A प्रैषि 11 P 'यां'
P पुस्तक एव उपलभ्यन्ते । ० विलेन । 8P प्राचख्यौ । 12 AB नन्दनीम् । 13 P पोहलि० ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
१२१ अङ्केवालियाख्यो' ग्रामस्तु ऋषभ-नेमियात्रिकाणां क्षीणधनानां खगृहाप्तियोग्यपाथेयरम्मपदे दत्तः । शत्रुञ्जय-रैवतकतलहट्टिका नगरयोः सुखासनानि कृत्वा मुक्तानि, अन्धज्वरितादीनां यात्रिकाणां तीर्थारोहणार्थम् । तदुत्पाटकनराणां तु ग्रासपदे शालिक्षेत्राणि प्रतिष्ठितानि ।
तीर्थेषु सर्वेषु देवेभ्यो रत्नखचितानि हैमभूषणानि [कारितानि*] । विदेशायातमूरिशुश्रूषार्थ सर्वदेशग्रामण्यो नियुक्ताः। तथा महातीर्थभूमौ नवीनवीयजिनप्रासादान; पुरे पुरे ग्रामे ग्रामे च 5 पुनर्जिनप्रासादान प्रारम्भयामास । लौकिकतीर्थकरणमपि वखामिरञ्जनार्थं चकार, न भक्त्या [खयं तु* ] सम्यग्दृष्टित्वात् । [एवं तस्योपकाराः कियन्त्यु(न्त उ-?)च्यन्ते विवेकशिरोमणेः*] ।
६१४६) एकदा मन्त्री स्तम्भ[तीर्थ*]पुरं गतो धवलककात् । तत्र [समुद्रतीरे*] यानपात्रात्तुरङ्गा उत्तरन्तः सन्ति । तदा सोमेश्वरः कवीन्द्र आसन्नवर्ती । मन्त्रिणा समस्या पृष्टा___३१४. प्रावृट्काले पयोराशिरासीद् गर्जितवर्जितः ।
___10 सोमेश्वरः पूरयति स्म
अन्तःसुप्तजगन्नाथनिद्राभङ्गभयादिव ॥ ७७ ॥ तुरङ्गमषोडशकमुचितदाने[ऽत्र दत्तम् ] । पुनः कदाचिन्मत्रिणोक्तम्
काकः किं वा क्रमेलकः ।
सोमेश्वरेण पूरितं पद्यम्३१५. येनागच्छन्ममाख्यातो येनानीतश्च मत्पतिः । प्रथमं सखि ! कः पूज्यः काकः किं वा क्रमेलकः १ ॥ ७८॥
अत्रापि षोडशसहस्रा द्रम्माणां दत्तिः। एवं लीलास्तस्य । ६१४७) एकदा वृद्धेभ्यः श्रुतमैतिह्यम् । यथा-प्राग्वाट्वंशे श्रीविमलो दण्डनायको नेढ-चाहिलयो_ताऽभवत् । स चिरमर्बुदाधिपत्यमभुनक्, गूर्जरेश्वरप्रसत्तेः। तस्य विमलस्य विमलमतेर्वाञ्छाद्वयमभूत् । पुत्रवाञ्छा प्रासादवाञ्छा च । तत्सिद्ध्यै [खगोत्रदेवीं] "अम्बामुपवासत्रये- 20 णारराध । प्रत्यक्षीभूय सा प्राह-वत्स! वाञ्छां ब्रूहि । विमलो जगौ-पुत्रेच्छा प्रासादनिष्पत्तीच्छा चाऽबुंदशृङ्गे मे वर्तते। अम्बया प्रोक्तम्-द्वे प्राप्ती न स्तः। एकां ब्रूहि । ततो [भार्याश्रीदेव्या वचसा] विमलेन संसारद्धिमात्रफलामसारां पुत्रेच्छां मुक्त्वा प्रासादेच्छैव सफलीकर्तुमिष्टा । अम्बयोक्तम् -सेत्स्यति तवेयम् । परं क्षणं प्रतीक्षख । यावताऽहं गिरिवरार्बुदाधिठान्याः सख्याः श्रीमातुर्मतं गृह्णामि । [इत्युक्त्वा गता देवी, तावद्*] विमलो ध्यानेन तस्थौ ।25 श्रीमातृमतं लात्वा देव्यायाता; अभाणीच्च
३१६. पुष्पस्रग्दामरुचिरं दृष्ट्वा गोमयगोमुखम् । प्रासादाहाँ भुवं विन्द्याः श्रीमातुर्भवनान्तिके ॥ ७९ ॥
तत्तथैव दृष्ट्वा चम्पकद्रुमसन्निधौ तीर्थमस्थापयत् । पैत्तलप्रतिमा तत्र महती। विक्रमादित्यात् सहस्रोपरि वर्षाणामष्टाशीतौ गतायां चतुर्भिः सूरिभिरादिनाथं प्रत्यतिष्ठिपत् । 'विमलवसतिः' इति प्रासादस्य नाम [ दत्तम्*] । तस्मिन् दृष्टे जन्मफलं लभ्यते ।
30 1A आकवालिया। 2 AB रैवतोपत्यका०। 3 AB तयुग्यनराणां । । एतदन्तर्गता पंक्तिः V आदर्श एवं विद्यते। 4 V विहाय नास्त्यन्यत्र पदमिदम्। 5 AB आसन्नः। 6 P राशिः कस्माद् । 7 P प्राह । 8 P श्रुतमेवंविधम् । 9 BV नेड०, PV वाहिल। 10P 'दण्डनायकोऽभवत्' इत्येव पाठः। 11 P अम्बिका। 12 V अम्वया प्रोक्तम् । 13V मातुरनुमतं । 14 V मतं नीत्वा अम्बायाता । 15 ABD तत्तथा। 16 BD अवास्थापयत् A अवस्थापयत् । 17 P जन्म सफलं कथ्यते ।
१६ प्र० को.
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प्रबन्धकोशे एतत्कथाश्रवणान्मन्त्री दध्यौ'-वयं चत्वारो भ्रातरोऽभूम । [तन्मध्ये* ] द्वौ स्तः। द्वौ तु मालदेव-लूणिगावल्पवयसौ दिवमगाताम् । 'मालदेवनाम्ना कीर्तनानि प्रागपि अकारिषत कियन्त्यपि । लूणिगश्रेयसे तु लूणिगवसतिरवुदे काराप्या । एतत्तेजःपालाय प्रकाशितम् । तेन विनी
तेन सुतरां मेने। 5६१४८) अथ तेजःपालो धवलककादर्बुद गिरिभूषणां चन्द्रावतीं पुरीं गत्वा धारावर्षराणकगृह
मगात् । तेनात्यर्थ पूजितः, किं कार्यम् ?, आदिश्यतामित्युक्तं च । मन्त्रिणोक्तम्-अर्बुदशिखराने प्रासादं कारयामहे । यदि यूयं साहाय्याः स्यात। धारावर्षेण भणितम्-तव सेवकोऽस्मि । अहं सर्वकार्येषु धुरि योज्यः। ततो राष्ट्रिक-गौग्गलिकादयो महादानैर्वशीकृतास्तथा, 'यथा निष्पत्स्यमानं
चैत्यं करैर्न भारयन्ति । 'दानेन भूतानि वशीभवन्ति' [इति वचनात्*]। ततश्चन्द्रावतीमहाज10 नमुख्यं श्रावकं चाम्पलनामानं गृहे गत्वाऽऽललाप-वयं चैत्यमबुदे कारयामहे, यदि पूजासान्निध्यं कुरुध्वे । 'चाम्पलेनापि स्वस्य कुटम्बान्तराणामपि देवपूजार्थ नित्यधनचिन्ता कृता । ततो मन्त्री आरासणं गत्वा चैत्यनिष्पत्तियोग्यं दलवाटकं निष्काशयत् । तद् युग्यै रहकलैश्चार्तुदोपत्यकामानीनयत् । अर्द्धक्रोशार्द्धक्रोशान्तरे हद्दानि [मण्डापितानि तत्र*] सर्व लभ्यते । पशूनां नराणां क्षुधादि कृच्छ्रेमा भूदिति [कारणात्*]। 'उम्बरिणीपथेन प्रासादनिष्पत्तियोग्यं दलं द्विगुणमुपरि 15 गिरेः प्रवेशयामास। पुनस्तां पद्यां विषमां चकार यथा परचक्रस्य प्रवेशो नो भवेत्। एवं सिद्धे पूर्वकर्मणि, शोभनदेवं सूत्रधारमाहूय कर्मस्थाये" न्ययुत । ऊदलाख्यं "शालमुपरिस्थायिनमकरोत्। अर्थव्यये खैरितां च समादिशत् । एवं सूत्रं कृत्वा तेजःपालो धवलक्ककमागमत् । निष्पद्यते प्रासादः । श्रीनेमिबिम्ब कषोपलमयं "घट्यते । सूत्रधाराणां सप्तशती घटयति घाटम् । ते तु
दुःशीलाः पुरःपुरोऽथ गृह्णन्ति । कार्यकाले पुनः पुनर्याचन्ते । तत ऊदलो मत्रितेजापालाय 20 लिखति-देव ! द्रम्मा विनश्यन्ति । सूत्रधाराः कर्मस्थायात् प्रथमं प्रथमं गृह्णन्ति । ततस्तेजःपालेन कथापितम्-द्रम्मा विनष्टा इति किं ब्रूषे। विनष्टाः किं कुथिताः ? । न तावत् कुथिता, किन्तु मनुष्याणामुपकृताः। उपकृताश्चेद्विनष्टाः कथं [कथ्यन्ते*] ? । माता मे वन्ध्येति वाक्यवत्परस्परं विरुद्धं ब्रूषे । तस्मात् तत्त्वमिदम्-सूत्रधाराणामिच्छाछेदो न कार्यः, देयमेवेति । ततो
दत्ते ऊदलः।तावन्निष्पन्नं यावद् गर्भगृहम् , मध्ये श्रीनेमिनाथविम्बं स्थापितम्। एतच्च कृतं श्रीतेज:25 पालाय विज्ञप्तम् । तुष्टौ द्वौ मत्रिणौ । श्रीवस्तुपालादेशात् तेजःपालोऽनुपमया सहानल्पपरिच्छेदोर्बुदगिरि प्राप्तः। प्रासादं निष्पन्नप्रायं ददर्श । तुतोष । लात्वा सद्वस्त्रप्रावरणः सपत्नीको मन्त्री नेमि पूजयति स्म । अथ "ध्यानेनोर्ध्वस्तस्थौ चिरम् । क्षणार्द्धनानुपमा पतिं तथास्थं मुक्त्वा प्रासादनिष्पत्तिकुतूहलेन बहिरागात् । तत्र सूत्रधारः शोभनदेवो मण्डपचतुःस्तम्भीमूर्ध्वयितुमुपक्रमते । तदा*] मन्त्रिण्योक्तम्"-सूत्रधार! मम पश्यन्त्याश्चिरं बभूव। अद्यापि स्तम्भा नोत्त30 म्भ्यन्ते!। शोभनदेवेनोक्तम्-खामिनि ! गिरिपरिसरोऽयम् । शीतं स्फीतम् । प्रातर्घटनं विषमम् ।
मध्याह्रोद्देशे" तु गृहाय गम्यते, स्नायते, पच्यते, भुज्यते । एवं विलम्बः स्यात् । अर्थ" विल- 1A दधौ। 2 A मालवदेवः। 3 AV अर्बुदाग्रे। 4 A नास्ति । 1P यथा निष्पद्यमानचैत्योपरि प्रद्वेषं न भजन्ते । 5V चम्पकः। 61 चम्पकेनापि। 7 AB निरकाशयत् P निरवकाशयति । 8 A क्षुद्रादि। 9V उम्बरणी। 10 P परचक्रप्र०। 11 A स्थाने। 12 P आत्मशालकं। 13 BD पद्यते; P सजीकृतं विद्यते। 14 P अथ कायोत्सर्ग ध्यानेन । 15 V उपचक्रमे। 16 A मंत्रीण्युक्तं। 17 P मध्याहे। 18 P विना नास्त्यन्यत्रेदं पदम्। 19 V अथवा ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
१२३ म्यात् किं भयम् ? । श्रीमत्रिपादाश्चिरं राज्यमुपभुञ्जानाः सन्तीह तावत् । ततोऽनुपमया जगदेसूत्रधार ! चाटुमात्रमेतत् । कोऽपि क्षणः कीदृग्भवेत् ; को वेत्ति ?। सूत्रधारो मौनेनातिष्ठत् । पत्नीवचनमाकर्ण्य सचिवेन्द्रो बहिनि मृत्य सूत्रधारमवोचत्-अनुपमा किं वावदीति ? । सूत्रधारो व्याहार्षीत्-यद्देवेनावधारितम् । मन्त्री दयितामाह-किं त्वयोक्तम् ? । अनुपमाह-देव! वदन्त्यस्मि-कालस्य को विश्वासः । कापि कालकला कीदृशी भवति । न सर्वदा तेजः पुरुषाणां तथा। 5
३१७. श्रियो वा स्वस्य वा नाशो येनावश्यं विनश्यति । श्रीसम्बन्धे बुधाः स्थैर्यबुद्धिं बध्नन्ति तत्र किम् ॥८॥ ३१८. वृद्धानाराधयन्तोऽपि तर्पयन्तोऽपि पूर्वजान् । पश्यन्तोऽपि गतश्रीकान् अहो मुह्यन्ति जन्तवः ॥ ८१ ॥ ३१९. भूपभ्रूपलवप्रान्त निरालम्ब विलम्बिनीम् । स्थेयसीं बत मन्यन्ते सेवकाः खामपि श्रियम् ॥ ८२ ॥ ३२०. इतो विपदितो मृत्युरितो व्याधिरितो जरा । जन्तवो हन्त पीड्यन्ते, चतुर्भिरपि सन्ततम् ॥ ८३ ॥ एतत्तत्त्ववचः श्रुत्वा मन्त्रिवरः प्राह-अयि ! कमलदलदीर्घलोचने ! त्वां विना कोऽन्यः एवं 10 वक्तुं जानाति । ३२१. ताम्रपर्णीतटोत्पन्नैौक्तिकैरिक्षुकुक्षिजैः । बद्धस्पर्द्धभरा वर्णाः प्रसन्नाः स्वादवस्तव ॥ ८४ ॥ ३२२. गृहचिन्ताभरहरणं मतिवितरणमखिलपात्रसत्करणम् ।
किं किं न फलति कृतिनां गृहिणी गृहकल्पवल्लीव ॥ ८५॥ राज्यस्वामिनि ! वद, केनोपायेन शीघ्र प्रासादा निष्पत्स्यन्ते ?। देव्याह-नाथ ! रात्रीयसूत्र-15 धाराः पृथग , दिनीयसूत्रधाराः पृथग् व्यवस्थाप्यन्ते । कटाहिश्चटाप्यते । अमृतानि भोज्यन्ते । सूत्रधाराणां च विश्रामलाभाद्रोगो न प्रभवति । एवं चैत्यसिद्धिः शीघ्रा । आयुर्यात्येव श्रीरस्थिरैव । यतः
३२३. गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् । अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ॥ ८६ ॥ ___ इत्यादि सरखतीवीणाकणितकोमलया गिरोक्त्वा निवृत्ता सुलक्षणा सा। मन्त्रिणा सर्वदेश-20 कर्मस्थायेषु सैव रीतिः प्रारब्धा । निष्पन्नं च सर्वम् [स्तोकैरेव दिनैः] । गतो मन्त्री धवलक्ककम् । दिनैः कतिपयैर्व पनिकानरा आयाताः-देव ! अर्बुदाद्रौ नेमिचैत्यं निष्पन्नम् ।हृष्टौ द्वौ बान्धवौ। [पुनः प्रासादप्रतिष्ठा)] गतौ ससङ्घौ तत्र।
६१४९) तत्र च जावालिपुरात् श्रीयशोवीरो नाम भाण्डागारिका, सरस्वतीकण्ठाभरणत्वेन ख्यातः, आहूत" आगात् । मिलिता वस्तुपाल-तेजःपाल-यशोवीरा एकत्र, न्याय-विक्रम-विनया 25 इव साक्षात्। चतुरशीती राणाः, द्वादश मण्डलीकाः, चत्वारो महाधराः, चतुरशीतिर्महाजनाः-एवं सभा। तदा वस्तुपालेन यशोवीरः प्रोचे-भाण्डागारिक ! त्वं "उदयसिंहस्य मन्त्री, यौगन्धरायण इव वत्सराजस्य । तव स्तुतीः खस्थानस्थाः शृणुमः । यथा३२४. बिन्दवः श्रीयशोवीर ! मध्यशून्या निरर्थकाः । सङ्ख्यावन्तो विधीयन्ते त्वयैकेन पुरस्कृताः॥ ८७॥
__ यशोवीर ! लिखत्याख्यां यावच्चन्द्रे विधिस्तव । न माति भुवने तावदाद्यमप्यक्षरद्वयम् ॥ ८८॥ 30 1 P मौनं कृत्वा स्थितः। 2 V क्वापि कला कालस्य; P कालवेला । 3 P सर्वदापि। 4 P तेजस्तथा यथा-। IV स्वस्य श्रियो वा नाशे। 5 P प्रान्ते । 6 P लम्बाऽविल।$P स्वल्पावस्थायिनी लक्ष्मी मन्यन्ते मंत्रिणो बुधाः ॥ 7A न भवति; V रोगा न भवन्ति । 8 P विहाय सर्वत्र 'स्थिरः स्थिरैव'। 9 POपनिकानर आयातः। 10 P जालहुरपुरात् । 11 Pस आहूतः। 12P नृपउदय।
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अत एव नः सदा भवद्दर्शनरणरणकाक्रान्तमेव खान्तमासीत् । इदानीं चारुसम्पन्नं भवदीयसाङ्गत्यम् । तदपि विशेषतः श्रीमन्नेमिदृष्टौ । ततो यशोवीरो व्याहरति
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प्रबन्धकोशे
३२५. श्रीमत्कर्णपरम्परागतभवत्कल्याणकीर्त्तिश्रुतेः प्रीतानां भवदीयदर्शनविधौ ' नास्माकमुत्कं मनः ।
"श्रुत्य प्रत्ययिनी सदा ऋजुतया स्वालोकविस्रम्भिणी, दाक्षिण्यैकनिधान ! केवलमियं दृष्टिः समुत्कण्ठते ॥८९॥ इत्याद्याः सङ्कथाः प्रपथिरे । प्रासाद-बिम्बप्रतिष्ठोत्सवाः संवृत्ताः । श्रीवस्तुपालन एकदा चैत्यस्य दूषण-भूषणानि पृष्टो यशोवीरः प्रोचे-देव ! शोभनदेवः सूत्रधारः शोभनः । ततो युक्तमेतदम्बा कीर्तिस्तम्भोपरि स्थिता 'एकामङ्गुलीमध्वकृत्य वर्त्तमाना घटिता । [* स तु कर्मकर एव । द्रव्यलोलुपः । अत्र तव मातुर्मूर्त्तिर्विलोक्यते । येन दाता दुर्लभः ।
३२६. शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः । वक्ता शतसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ॥ ९० ॥
10 इत्यादि किमुच्यते ।] 'परमः प्रासादः । परं दोषा अपि सन्ति । प्रासादापेक्षया सोपानानि हस्वानि ९; स्तम्भे बिम्बान्याशातनाभाजनं स्युः २; द्वारप्रदेशे व्याघ्ररूपाणि पूजाऽल्पत्वाय स्युः ३; 'जिनपृष्ठे पूर्वजरोपणा' पाश्चात्यानामृद्धिनाशिनी ४; आकाशे जैनमुनिमूर्त्तिरोपणा त्वत्परं दर्शन पूजाऽल्पत्वाय ५; [ गूहली कृष्णा न मङ्गलाय ६; भारपट्टा: द्वादशहस्तप्रलम्बाः - कालेन स कोऽप्येवंविधो न भविष्यति यो विनाशे ईदृशः प्रक्षेपयिष्यति ७*] इत्यादि श्रुत्वा सत्यं मत्वा 15 न चुकोप' । भवितव्यतां चाप्रतिकारां निश्चिक्ये । विविधदानैर्विक्रमादित्य इव प्रकाश्य महिमानम्, विसृज्य स्वस्थाने लोकम्, सपरिजनो धवलक्ककं गत्वा प्रभुं "नत्वा सुखं तस्थौ ।
1
$ १५०) इतश्च श्रीवीरधवलस्य द्वौ पुत्रौ स्तः । एको वीरमः, अपरो वीसलः । तत्र वीरमो यौवन नस्थः शूरेषु रेखाप्राप्तः" । यो वर्षाकालेऽकस्मादुपरि पतन्त्या विद्युत उद्देशेन कृपाणीमाकृषत् । स एकदा कचिदेकादशीपर्वणि धवलक्ककमध्ये तरुतलमगमत् । तत्र पर्वण्यसौ रीतिः- वैष्णवैः सर्वै20 रष्टोत्तरशतं बदराणां" वा आमलकानां "वा द्रम्माणां वा मोक्तव्यं तरोरधः । वीरमेनाऽष्टोत्तरं शतं द्रम्मा मुक्ताः । एकेन तु वणिजा तस्यामेव सभायां "स्थितेनाष्टोत्तरं शतं "आछूनां "मुक्तम् । वीरमेण तस्योपरि कृपाणिका कृष्टा - रे ! अस्मत्तः किमधिकं करोषीति च" वदन्नसौ वणिजं हन्तुवधावत । वणिग्नष्ट्वा" वीरधवलाध्यासितां सभामाविशत् । जातः कलकलः । ज्ञातं पारम्पर्य वीरधवलेन । वणिजि पश्यति वीरमो [आकार्य *] हक्कितः - का ते चर्चा, यद्ययं त्वदधिकं करोति ? | 25 अस्माकं न्यायं न वेत्सि । दूरे भव; पुनर्मद्दृष्टौ " हि" नागन्तव्यं " भवता । वणिजो मम जङ्गमः कोशः । मयि जीवति" केनाभिभूयन्ते ? । इत्युक्त्वा तं वीरमग्रामाख्ये आसन्नग्रामेऽतिष्ठपत् । स तु कोणिककुमारवत् कंसवत् पितरि द्विष्टो जीवन्मृतंमन्योऽस्थात् । वीसलस्तु "राणश्रीवीरधवलस्य" वल्लभः श्रीवस्तुपालस्य च । अत्रान्तरे श्रीवीरधवलोऽचिकित्स्येन व्याधिना जग्रसे । तदा वीरमः खसहायैर्बलवान् भूत्वा" राज्यार्थी" राणकमिलनमिषेण धवलक्ककमागात् । तदैव श्रीवस्तु
1
1 P विधावस्माक० । 2 P श्रुत्वा । 3 P ततोऽपि न युक्तम् । 4 B एकदा मंगुली; DE एकदा एकदा० । * कोष्ठ
कगतः पाठः P पुस्तक एव दृश्यते स च प्रक्षिप्तप्रायः । 5 P प्रासादः परमतमः । 6 V निज० । 7 P ० रोपणात् । 8P ऋद्धिनाशो भविता । 9 A सत्यं सत्यं मन्वानः चुकोप; C D सत्यं मन्वन०; Poन चुकोप कोऽपि । 10 A नास्ति 'प्रभुं नत्वा' | 11 P रेखां प्राप्तः । 12 V बदिरफलानां । 13 P 'वा' नास्ति । 14 P तत्र स्थितेन० । 15 'आछूनां' स्थाने P 'दुष्कृता' । 16 P मुक्ता । 17 P 'च' नास्ति । 18P नष्टो 19 V मे दृष्टिं । 22 P जीवति सति । 23 P अतिष्टिपत् । 24 BV 'राणश्री' नास्ति ।
20 'हि' नास्ति PB | 21 PB नास्ति 'भवता' । 25 A वीरस्य । 26 V सम्भूय । 27 P राज्यार्थं ।
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वस्तुपालप्रबन्धः ।
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पालेन तं दुराशयं ज्ञात्वा प्रत्युत्पन्नमतित्वादश्व- गजहेमादिषु परमातमानुषैः परमो यत्नः कृतः । वीरमः प्रभवितुं न शशाक । धवलक्कक एव खसौधे विपुलेऽवतस्थे । दिनैस्त्रिभिर्वीरधवलो दिवं गतः । लोकः शोकसमुद्रे पतितः । बहुभिश्चितारोहणं कृतम् । मन्त्री तु सपरिजनः काष्ठानि भक्षयन्नपरापरैर्मन्त्रिभिर्निषिद्धः । उक्तं च-देव ! त्वयि सति राणपादाः स्वयं जीवन्तीव [लक्ष्यन्ते *] त्वयि तु लोकान्तरिते परिपूर्णाः पिशुनानां मनोरथाः । गता गुर्जरधरा [ इति 5 ज्ञेयम् * ] । ततो न मृतो मन्त्री । उत्थापनदिने मन्त्री श्रीवस्तुपालः सभासमक्षं पठति
३२७. आयान्ति यान्ति च परे ऋतवः क्रमेण, सञ्जातमेतदृतुयुग्ममगत्वरं तु ।
वीरेण वीरधवलेन विना जनानां, वर्षा विलोचनयुगे हृदये निदाघः ॥ ९१ ॥
अतीव निःश्वस्य गताः सर्वेऽपि स्वस्थानम् । ततश्च मृते वीरधवले तद्राज्यलिप्सुवरमः सन्नह्य गृहान्निर्गमिष्यति यावता, तावता श्रीवस्तुपालेन वीसलः कुमारो राज्ये विनिवेशितः । वीसल - 10 देव इति नाम प्रख्यापितम् । सर्वराज्याङ्गेष्वासनरै रक्षा कारिता । स्वयं वीसलं गृहीत्वा साराश्वखुरपुटक्षुण्णक्षमापीठोच्छलदूरजःपुञ्ज स्थगितव्योमा राजन्यकरक्रूरकरवाल शल्य भल्ल किरणद्विगुणद्योतितरविकिरणो वीरमसम्मुखं ययौ । दारुणः समरो जज्ञे । वीरमः स्वस्य तेजसोऽनवकाशं मन्यमानो नष्ट्वा श्वशुरेण राजकुलेन उदयसिंहेनाधिष्ठितं जावालिपुरं प्रत्यचालीत् । मन्त्री तस्याशयं दक्षतया ज्ञात्वा षोडशयोजनिकान्नरानुदयसिंहान्तिके' प्रैषीत् । आख्यापयत्, यथा-15 अमुं राजद्विष्टकारकं जामातृज्ञातेयेन' यदि खान्तिके स्थापयिष्यसि, तदा ते न राज्यं न जीवितं च । हन्याश्चैनम् । ततो यदा वीरमो जावालिपुरोद्यानं 'प्राप्तस्तदा विश्राम्यन्नङ्गरक्षिकामुत्तारयन्नलसायमान उदयसिंहनियुक्तैर्धनुर्द्धरैः शरैः " शतजर्जरश्वालनीप्रायकायः कृतः मृतस्तत्र । तस्य शिरो वीसलदेवाय प्रहितं उदयसिंहेन । ततो " जातं निष्कण्टकं वीसलदेवराज्यम् । यावमात्रं वीरधवलेन साधितं तावन्मात्रान्न किमपि न्यूनमासीत् । केवलं लब्धप्रसरेण वीसलेन 20 श्रीवस्तुपालो लघुतया दृष्टः ।
३२८. पुरुषः " सम्पदामग्रमारोहति यथा यथा । गुरूनपि लघुत्वेन संपश्यति तथा तथा ॥ ९२ ॥
$ १५१) राज्ञा पूर्वप्रीत्या " [वृद्धनगरीय] नागडनामा विप्रः प्रधानीकृतः । मन्त्रिणः " पुनर्लघुश्रीकरणमात्रं दत्तम् । [ अस्मिन् प्रस्तावे *] एकः " समराकनामा" प्रतीहारो राज्ञोऽस्ति । स प्रकृत्या नीचः पूर्वमन्यायं कुर्वाणो मन्त्रि श्रीवस्तुपालेन पीडितोऽभूत् । स लब्धावकाश उपराजं ब्रूते देव 125 अनयोः पार्श्वेऽनन्तं धनमास्ते तद्याच्यताम् । राजापि तावाहूयावादीत्-अर्थो दीयताम् । ताभ्यामुक्तम्-"अर्थः शत्रुञ्जयादिषु तीर्थेषु" व्ययितत्वान्नास्ति नः" । राज्ञोक्तम् तर्हि दिव्यं दीयताम् । मन्निभ्यामभिहितम् - यद्दिव्यं भवद्भ्यो रोचते तदादिश्यताम् । राज्ञा " घटसर्पः पुरस्कृतः । लवणप्रसादो [ तदा जीवन्नभूत्, स *] निषेधयति तदकृत्यम् । नतु तद्वचनं राजा शृणोति, अभिनवदर्पवशात् । तदा सोमेश्वरेणोक्तं काव्यमेकं वीसलं प्रति
1 A शोकादधौ । 2 V नास्ति 'स्वयं' । 3 V निवे० । 4 AB ॰सम्मुखो । 5 P जालडुरपुरं । 6 A उदयसिंहाधिष्ठितं जावालिपुरं । 7 PCD जामातृसम्बन्धेन । 8A गतः । 9A अङ्गरक्षकान् । 10 P शतमितैः । 11 तदनु । 12 V सम्पदामुप्रा० । 13 V आदर्श एवैतत्पदं दृश्यते । 14 AP मन्त्रिणोः । 15 AP एकश्च । 16 CD समरानामा । 17 P कृतघ्नेन राज्ञापि । 18 BCD दृढ अर्थः । 19 V आदर्श एवेदं पदं लभ्यते । 20 P नः पार्श्वे । 21 A घटे सर्पः ।
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प्रबन्धकोशे
३२९. मासान्मांसलपाटलापरिमलव्यालोलरोलम्बतः, प्राप्य प्रौढिमिमां समीर ! महतीं हन्त त्वया किं कृतम् ? । सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत्, पादस्पर्शसहं विहायसि रजः स्थाने तयोः स्थापितम् ॥९३॥
निवर्तितं दिव्यं राज्ञा। ६१५२) अथ कदाचिद् धवलक्कके मन्त्रिणि वसति सति, पौषधशाला एका आस्ते, तस्या 5 उपरितनं पुञ्जकं क्षुल्लकोऽधः क्षिपन्नासीत् । [तस्याज्ञानात् *] सः पुञ्जको वीसलदेवमातुलस्य सिंहनानो याप्ययानारूढस्याधो रथ्यायां गच्छतः शिरसि पतितः। क्रुद्धः सः । मध्ये आगत्य क्षुल्लक दीर्घेण तर्जनकेन पृष्ठे दृढमाहत्य-रे ! मां जेटुआकं सिंह राजमातुलं न जानासीति वदन खगृहं गतः। तं वृत्तान्तं मध्याह्ने मन्त्रिवस्तुपालं भोजनारम्भे उत्क्षिप्तप्रथमकवलं [आगत्य *] रुदन्नुघाटितपृष्ठोऽजिज्ञपत् क्षुल्लकः । मन्त्रिणाऽभुक्तेनैव उत्थाय क्षुल्लकः सन्धार्य प्रस्थापितः । 10[शालायां प्रेषितश्च । तदनु *] स्वयं स्वकीयः परिग्रहो भाषितः-भोः क्षत्रियाः! स कोऽप्यस्ति युष्मासु [मध्ये *] यो मम मनोदाहमुपशमयति । [तन्मध्ये*] एकेन राजपुत्रेण भूणपालाख्येनोक्तम्-देव! 'आदेशं देहि । [अहं तु*] प्राणदानेऽपि तव प्रसादानां नानृणीभवामः । [स एकान्ते नीत्वा*] छन्नं मन्त्रिणादिष्टम्-याहि*] जेटुआवंशस्य राजमातुलस्य सिंहस्य दक्षिणं पाणि छित्त्वा मे ढोकय ।स राजपुत्रस्तथेत्युक्त्वा एकाकी मध्याह्रोद्देशे" सिंहावासद्वारे तस्थौ। तावता राजकलात सिंह आगात् । राजपुत्रेणाग्रे भूत्वा प्रणिपत्य सिंहाय उक्तम-मत्रिणा श्रीवस्तुपालदेवेनाहं वः समीपं केनापि गूढेन" कार्येण प्रेषितोऽस्मि। तेन*] इतो भूत्वा प्रसद्याऽवधार्यताम्। इत्युक्ते स किश्चित्पराग् "भूत्वा यावद् वाती श्रोतुं यतते, तावन् मन्त्रिभृत्येन सिंहस्य करः खकरे कृतः", सहसा छुर्या "छिन्नश्च। तं छिन्नं करं गृहीत्वा-रे! वस्तुपालस्य भृत्योऽस्मि । पुनः श्वेताम्बरं
परिभवेरिति वदंश्चरणबलेन पलाय्य भूणपालो मत्र्यन्तिकमगमत्, करमदीदृशत् । मत्रिणा 20 शश्लाघे ऽसौ। स करः खसौधाऽने बद्धः। खमानुषाणि परमाप्सनरगृहे मुक्तानि । [आत्मीय*] परिग्रहो भाषितः-यस्य जीविताशा स खगृहं यातु, जीवतु [चिरम् *] । अस्माभिर्बलवता सह वैरमुपार्जितम् । मरणं करस्थमेव, जीविते सन्देहः । तैः सर्वैरप्युक्तम्-देवेन सह मरणं जीवितं च। "स्थिताः [स्मो वयम्, एतदर्थे निश्चयो ज्ञातव्यः] । ततो गोपुराणि दत्त्वा गृहं नरैः खावृतं कृत्वा स्वयं खसौधोपरि [ सज्जीभूय* ] तस्थौ । निषङ्गी, कवची, धनुष्मान् । ततः सिंहस्यापि 25 परिच्छदो मिलितो बान्धवादिर्भूयान् । [तैः सर्वैरभाणि-*] गत्वा वस्तुपालं सपुत्रपशुबान्धवं
हनिष्याम इति प्रतिजज्ञे। चलितं जेटुआकसैन्यम् । यावद्राजमन्दिराग्रे आयातं कलकलायमानं तत्", तावदेकेन ज्यायसोक्तम्-एवंविधं व्यतिकरं यदि*] राजा विज्ञप्यते [तदा वरं*] मा स्म
तत्कोपोऽभूत् । ततो विज्ञप्तं राज्ञे। राज्ञा वात्ती ज्ञात्वा विमृश्य भणितम्-अनपराधे वस्तुपालो"न पीडयति कञ्चित् । युष्माभिरन्याय्यं कृतम् ; मन्त्रिणो गुरुरपीडि । [राजा प्राह30 यदीत्थं कृतं*] तस्मात्तिष्ठतात्रैव । वयं स्वयं करिष्यामो यदुचितम् । ततः सोमेश्वरदेवः
1 A तस्या उपरि उपरितनं । 2 P यानाधिरूढस्य । 3 P दीर्घया। 4 BCD सिंहराजकुलं; P सिंहनामानं । 5 B उद्घाटितः । 6 BC अभ्यजिज्ञपत् । 7 A मे । 8 P ममादेशं । 9V मत्रिणा प्रच्छन्नमादिष्टम्; P मत्रिणा छन्नं कर्णे प्रविश्य समादिष्टं। 10 B ढोकय मम। 11 P मध्याहे। 12 PC गूढकार्येण। 13 A पराङ् भूस्खा; P किञ्चिद् गत्वा पराङ्मुखो भूत्वा। 14 P कृत्य । 15 P कंकलोहछुर्या छिन्नः। 16 P श्लाघेऽसौ। 17 A स्थितं। 18 V ततः । 19 B राज्ञो। 20 P माऽस्मत्सहसाकारित्वे तस्य कोपोऽभूत्। 21 P केषामपि वस्तुपालो। 22 V कांश्चित् ; P किञ्चित् । 23 P कृतं भावि । तैरुक्तम्-मन्त्रिणो गुरुः पीडितः । 24 A तिष्ठतां तत्रैव ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
१२७ पृष्टः-गुरो! किमत्र युक्तं स्यात् । गुरुणोक्तम्-मां तत्पार्श्वे प्रहिणुत । आयति पथ्यं करिष्ये । प्रहितः सः। प्राप्तो मन्त्रिसौधद्वारम् । प्राप्तो मन्यनुज्ञया मन्त्रिपार्श्व पुरोहित आह-मनिन् ! किमेतत् ? । अल्पे कार्य कियत्कृतं भवद्भिः!। जेठुअका मिलिताः सन्ति । राजापि तद्भागिनेयः क्रुद्धः । शम्यन्ताम्', येन सन्धि कारयामि । अथ मन्त्रीशः प्राह-मरणात् किं भयम् । ____३३०. *जिते च लभ्यते लक्ष्मीमते चापि सुराङ्गना । क्षणविध्वंसिनी काया, का चिन्ता मरणे रणे ॥ ९४ ॥ 5 गुरुपरिभवो दुस्सहः। [अथ किं*] व्यापृतम् , जग्धम्, पीतम् , दत्तम् , गृहीतम्, विलसितम् । यदा तदा यथा तथा मर्त्तव्यमेव । इदमेकं मरणमित्थं भवतु ।
३३१. जीवितैकफलमुद्यमार्जितम् , लुण्ठितं पुरत एव यद् यशः ।
ते शरीरकपलालपालनं, कुर्वते बत कथं मनस्विनः ॥ ९५॥ इत्यादिगीर्भिर्मृतिकृतनिश्चयं मत्रिणं ज्ञात्वा गुरुर्गत्वा राजानमूचे-राजेन्द्र ! नियत एवात्र 10 प्रघट्टके' मन्त्री। 'अग्रेऽपि युद्धशूरस्तेषु स्थानेषु [जयश्रीवरो जातः। तत्र वक्तुं न पार्यते। अपि च*] 'तृणं शूरस्य जीवितम्' [इति वचनात्*] ईदृशो योधः कचिद्विषमे कार्येऽग्रे धृत्वा घात्यते नैवं वृथा । बहुधा भवतामुपकारी। [अन्यच्च*] स किंप्रभुर्यो जीर्णभृत्यानां द्वित्रान्मन्तून्न सहते। अस्मदादीनामपि' मनसि देवस्य कीदृशी आशा भाविनी । इत्यादि दृढं मृदुसारं निगद्य हस्ते कृतो राजा । [यदुक्तम्-*] ___३३२. विल्ली नरिन्दचित्तं वक्खाणं पाणियं च महिलाओ । तत्थ य वचन्ति सया जत्थ य धुत्तेहिं निजन्ति ॥९६॥
[राजा*] प्रोवाच-मन्त्रीह धीरां दत्त्वा सम्मान्य समानीयताम्।गतो गुरुस्तत्र ।राज्ञोक्तमुक्त्वा नीतो मन्त्री । परं सन्नद्धबद्धः [एव मिलितः*]। राज्ञा विविधतदुपकृतिस्मृत्या आर्द्रनयनमनसा पितृवदुपशमितो मन्त्री। [ मिनिन् ! भवत्समो मम राज्ये न परो राज्यवर्द्धकः । पूर्व भवान् अधिकारी अभूत्, सांप्रतं तु राज्याधिष्ठाता मुख्यः । मत्प्रकृती राज्यं भवदीयमेव । नागडस्तु 20 तवादेशकर्ता मन्तव्यः। मातुला मत्रिपादयोर्लगिताः । [ ग्रिामशतं मन्त्रिणो ग्रासे शाश्वतं कृतम् । ] स मन्त्रिच्छेदितः सिंहहस्तो लोके दर्शितः। 'बहुराजलोकसमक्षं शब्दः प्रलापितः-यो मन्त्रिगुरु-देवहन्ता तस्य प्राणान् हनिष्यामः [ मिम राज्ये न्यायान्यायनिरीक्षणा मन्यधीना] इत्युक्त्वा जिनमतस्य मन्त्रिणश्च गौरवमवृधद" वीसलदेवः । [इत्यादि यावता श्रीवीसलदेवेन समं श्रीवस्तुपालस्य परमप्रीतिरभूत् ।]
३३३. यत्कृतं वस्तुपालेन नान्यथा तत्कथं च न । सौभाग्यभाग्यतः शश्वद्वर्द्धतेऽनुदिनं यशः ॥ ९७ ॥ ६१५३) "अथ विक्रमादित्यात् १२९८ वर्ष प्राप्तम्। श्रीवस्तुपालो ज्वररुक"लेशेन पीडितः। [तदा] तेजःपालं सपुत्रपौत्रं वपुत्रं च जयन्तसिंहमभाषत-वत्सा! श्रीनरचन्द्रसूरिभिर्मल्लधारिभिः संवत् १२८७ वर्षे भाद्रपदवदि १० दिने “दिवंगमसमये "वयमुक्ताः -मत्रिन् ! भवतां १२९८
15
25
1AB तद्भाग्नेयः। 2 P तागिनेयः । तेन क्रोधः शम्यताम् । 3 V कारापयामि। *P पुस्तक एवैष श्लोको लभ्यते । AP झगटके। 5 Pस अग्रे। 6 P द्विवानपराधान। 7 A 'अपि' नास्ति । $P पुस्तक एवेयं गाथा लभ्यते। [1] एतदङ्किताः पाठा: V आदर्श एव लभ्यन्ते। 8 P लगापिताः। 9 P विना सर्वत्र 'बहू राजलोकः' इत्येव । 10 P अवीवृधत् । tv आदर्श एवैष श्लोको लभ्यते । 11 P एवं काले गच्छति विक्र० । 12 P .रुकक्लेशेन । 13 P नास्ति 'स्वपुत्र'। 14P तेषां देवगमन । 15P वयमेवमुक्ताः।
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प्रबन्धको
वर्षे स्वर्गारोहो भविष्यति । तेषां च वचांसि न चलन्ति, गीः सिद्धिसम्पन्नत्वात् । ततो वयं श्रीशत्रुञ्जयं गमिष्याम एव ।
३३४. गुरुर्भिषग् 'युगादीशप्रणिधानं रसायनम् । सर्वभूतदयापथ्यं सन्तु मे भवरुग्भिदे ॥ ९८ ॥ ३३५. लब्धाः श्रियः सुखं स्पृष्टं मुखं दृष्टं तनूरुहाम् । पूजितं दर्शनं जैनं न मृत्योर्भयमस्ति मे ॥ ९९ ॥ 5 कुटुम्बेन 'तन्मतम् । शत्रुञ्जयगमनसामग्री निष्पन्ना | वीसलदेवो मन्त्रिणा साश्रुलोचनः समापृष्टः । [ मुत्कलापितश्च कतिपयपदानि सम्प्रेषणायायातः । *] ततो नागडगृह मन्त्री स्वयमगात् । तेनाऽऽसनादिभिः सत्कृतो [पृष्टः कार्यविशेषं मन्त्री *] बभाषे वयं भवान्तरशुद्धये विमलगिरिं प्रतिष्ठामहे । भवद्भिजैनमुनयोऽमी ऋजवः सम्यगरक्षणीयाः क्लिष्टलोकात् । [ यतः * ]
10
३३६. 'गौर्जरात्रमिदं राज्यं वनराजात् प्रभृत्यपि । स्थापितं जैनमत्रौघैस्तद् द्वेषी नैव नन्दति ॥ १०० ॥ इति ज्ञातव्यम् । मन्त्रिनागडेनोक्तम् - श्वेताम्बरान् भक्त्या गौरवयिष्यामि । चिन्ता [ एषा *] न कार्या । स्वस्त्यस्तु वः । इति तद्वचसा समतुषत् ।
९ १५४) अथ चचाल वस्तुपालः । 'अङ्केवालिआग्रामं यावत्प्राप, तत्र शरीरं बाढमसहं दृष्ट्वा तस्थौ । तत्र सहायाताः सूरयो निर्यामणां कुर्वन्ति । मन्त्रीश्वरोऽपि समाधिना सर्व शृणोति, श्रद्दधाति च । अनशनं प्रतिपद्य यामे गते स्वयं भणति15 ३३७. न कृतं सुकृतं किञ्चित् सतां संस्मरणोचितम् । मनोरथैकसाराणामेवमेव गतं वयः ॥ ३३८. यन्मयोपार्जितं पुण्यं जिनशासनसेवया । जिनशासनसेवैव तेन मेऽस्तु भवे भवे ॥
१०१ ॥
१०२ ॥
३३९. या रागिण विरागिण्यः स्त्रियस्ताः कामयेत कः । तामहं कामये मुक्तिं या विरागिणि रागिणी ॥ १०३ ॥ ३४०. शास्त्राभ्यासो जिनपदनुतिः' सङ्गतिः सर्वदाऽऽयैः, सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे, सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदाप्तोऽपवर्गः ॥ १०४ ॥ 20 इति भणन्ने वास्तमितो 'जैनशासन गगनमण्डलमृगाङ्कः श्रीवस्तुपालः । तदा निर्ग्रन्थैरपि तारपूत्कारमरोदि; का कथा सोदरादीनाम् । [ * मन्त्रिणि दिवंगते श्रीवर्द्धमानसूरयो वैराग्यादाम्बिलवर्द्धमानतपः कर्त्तुं मारेभुः । मृत्वा शंखेश्वराधिष्ठायकतया जाताः । तैर्मन्त्रिणो गतिर्विलोकिता, परं न ज्ञाता । ततो महाविदेहे गत्वा श्रीसीमन्धरो नत्वा पृष्टः । खाम्याह- अत्रैव विदेहे पुष्कलावत्यां पुण्डरीकियां पुरि कुरुचन्द्रराजा संजातः । स तृतीये भवे सेत्स्यति । अनुपदेजीवस्तु 25 अत्रैव श्रेष्ठिसुताऽष्टवार्षिकी मया दीक्षिता पूर्वकोट्यायुः । प्रान्ते केवलं मोक्षश्च । सा एषा साध्वी व्यन्तरस्य दर्शिता । तदनु तेन व्यन्तरेणात्रागत्य तयोर्गतिः प्रकटिता । ] तत्र तेजःपालो विलपति
३४१. आल्हाद कुमुदाकरस्य जलधेर्वृद्धिः सुधास्यन्दिभिः, प्रद्योतैर्नितरां चकोरवनितानेत्राम्बुजप्रीणनम् । एतत्सर्वमनादरादहृदयोऽनादृत्य राहुर्हहा !, कष्टं चन्द्रमसं ललाटतिलकं त्रैलोक्यलक्ष्म्याः पपौ ॥ १०५ ॥ जयन्तसिंहो वदति
30
३४२. खद्योतमात्रतरला गगनान्तरालमुच्चावचाः कति न दन्तुरयन्ति ताराः ।
एकेन तेन रजनीपतिना विनाऽद्य सर्वा दिशो मलिनमाननमुद्वहन्ति ॥ १०६ ॥
1 A युगादीनां । 2 P तम्मानितं । 3P नागडप्रधानगृहं । 4 P गौर्जराणां । 5P मन्त्रैस्तु । 6A आकवालिया० । 7 PA जिनपति० । 8 AB जिन० । * कोष्टकगतः एष सर्वोऽपि पाठः P पुस्तके लभ्यते, नान्यत्र ABCD आदर्शपु; अतः प्रक्षिप्तप्रायो ऽयम् । 9 A अहृदयेनादृत्य ।
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वस्तुपालप्रबन्धः।
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कवयः प्राहु:३४३. मन्ये मन्दधियां विधे ! त्वमवधिर्वैरायसे' चार्थिनां, यद्वैरोचन-सातवाहन-बलि-श्वेताज-भोजादयः । कल्पान्तं चिरजीविनो न विहितास्ते विश्वजीवातवो, मार्कण्ड-ध्रुव-लोमशाश्च मुनयः क्लुप्ताः प्रभूतायुषः ॥१०७॥
लोकास्तु वदन्ति३४४. किं कुर्मः ‘कमुपालभेमहि किमु ध्यायाम कं वा स्तुमः, कस्याग्रे खमुखं खदुःखमलिनं सन्दर्शयामोऽधुना। 5
शुष्कः कल्पतर्यदङ्गणगतश्चिन्तामणिश्चाजरत् , क्षीणा कामगवी च कामकलशो भग्नो हहा ! दैवतः ॥१०॥ ततस्तेजःपाल-जयन्तसिंहाभ्यां मनिदेहस्य शत्रुञ्जयैकदेशे संस्कारः कृतः। संस्कारभूम्यासन्नः स्वर्गारोहणनामा प्रासादो नमि-विनमियुत-ऋषभसनाथः कारितः।मन्त्रिण्यौं ललितादेवीसौख्वौ अनशनेन मम्रतुः।
६१५५) श्रीतेजःपालस्त्वनुपमासहितो मध्यमव्यापारभोगभाग 'लेशतस्तथैव दानं तन्वन् 10 १३०८ वर्षे द्यामगमत् । शनैः श्रीजयन्तसिंहोऽपि परलोकमभजत् । श्रीअनुपमापि तपसा खर्गमसाधयदिति भद्रम् ।
६१५६) एतयोश्च श्रीवस्तुपाल-तेजःपालयोधर्मस्थानसङ्ख्या कर्तुं क ईश्वरः, परं गुरुमुखश्रुतं किञ्चिल्लिख्यते-लक्षमेकं सपादं जिनबिम्बानां विधापितम् । अष्टादश कोव्यः षण्णवतिर्लक्षाः श्रीशत्रुञ्जयतीर्थे द्रविणं व्ययितम्" । द्वादश कोव्योऽशीतिर्लक्षाः श्रीउज्जयन्ते। द्वादशकोट्यस्त्रि-15 पंचाशल्लक्षा अर्बुदगिरिशिखरे लूणिगवसत्याम् । नवशतानि चतुरशीतिश्च पौषधशालाः कारिताः । पञ्चशतानि दन्तमयसिंहासनानां [कारापणं सूरीणां प्रत्येकमुपवेशनार्थमर्पणम्*]; पञ्चशतानि पश्चोत्तराणि समवसरणानां जादरमयानां [कारणं श्रीकल्पवाचनाक्षणे मण्डनार्थम् *]; ब्रह्मशालाः सप्तशतानि । [ब्रह्मपुर्यः*] सप्तशतानि सत्रागाराणाम् । सप्तशती तपखिकापालिक-भगवद्योगिनां मठानाम् । [तेषां*] सर्वेषां भोजननिर्वापादिदानं निश्चितं कृतम् । 20 'त्रिंशच्छतानि झुत्तराणि महेश्वरायतनानाम् । त्रयोदशशतानि चतुरुत्तराणि शिखरबद्धजैनप्रासादानाम् । त्रयोविंशतिशतानि जीर्णचैत्योद्धाराणाम् । अष्टादशकोटिव्ययेन सरस्वतीभाण्डा. गाराणां त्रयाणां स्थानत्रये करणम् [धवलक्क-स्तम्भतीर्थ-पत्तनादौ *]। पञ्चशती "ब्राह्मणानां नित्यं वेदपाठं करोति स्म [तेषां गृहमानुषाणां निर्वाहकरणम्*]। वर्षमध्ये सङ्घपूजात्रितयं [सर्वदर्शनिनाम् ] पञ्चशती श्रमणानां नित्यं गृहे विहरति स्म। तटिक-कार्पटिकानां सहस्रं समधिकं 25 प्रत्यहमभुक्त । त्रयोदशयात्राः सङ्घपतीभूय कारिताः [लोकानाम्* ]। तत्र प्रथमयात्रायां चत्वारि सहस्राणि पञ्चशतानि शकटानां सशय्यापालकानाम् । सप्तशती सुखासनानाम् । अष्टादशशती वाहिनीनाम् । एकोनविंशतिशतानि श्रीकरीणाम् । एकविंशतिशतानि श्वेताम्बराणाम् । एकादशशती दिगम्बराणाम् । चत्वारि शतानि सार्दानि जैनगायनानाम् । त्रयस्त्रिंशच्छती बन्दिजनानाम् । [चतुःसहस्रतुरगाः। द्विसहस्रोष्ट्राः । चतुश्चत्वारिंशदधिकशतं देवार्याः 130 सप्तलक्षमनुष्याः। इदं प्रथमयात्राप्रमाणम् । अग्रेतना तदधिका ज्ञेया*] (द्वितीययात्रायां सम
1P वैराय सेवार्थिनां। 2 CD श्वेतोऽब्जभोजा०; B श्वातोब्जभो०; P श्वेताजभो। 3 P तृप्ताः। 4 A किमुपा० । 5P मत्रिणः पन्यौ। 6A सौखौ; P सोषू। 7 P लेशवतोऽपि। 8 P तन्वानः। 9 P ततः। 10 A व्ययोचितं । + P पञ्चविंशतिशतानि हरिहरप्रमादिमहेश्वरा०। 11 V गारवयं स्थानत्रये। 12 V विप्राणां। 13 ACD कुर्वति स; P कारयति स्म। 14 AP पञ्चदशशती। 15 P बटुकटिककार्पटिकानां ।
१७ प्र० को
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१३.
प्रबन्धकोशे धिकम् )। तथा चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धाः। चतुःशती चतुःषष्ट्यधिका वापीनाम् । पाषाणमयानि द्वात्रिंशद् दुर्गाणि । चतुःषष्टिर्मशीतयः । तथा दन्तमयजैनरथानां चतुर्विशतिः। विशं शतं शाकघटितानां रथानाम् । [एकविंशत्याचार्यपदानि कारितानि*] सरस्वतीकण्ठा
भरणादीनि चतुर्विंशतिबिरुदानि [ भाषितानि कविजनैः।*] श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि 5 श्रीपर्वतं यावत्, पश्चिमायां प्रभासं यावत्, उत्तरस्यां केदारपर्वतं यावत्, पूर्वस्यां वाणारसी यावत्, तयोः कीर्तनानि [श्रूयन्ते]। सर्वाग्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दशलक्षा अष्टादशसहस्राणि अष्टशतानि द्रव्यव्ययः [पुण्यस्थाने]। त्रिषष्टिवारान् सङ्ग्रामे जैत्रपदं गृहीतम् । अष्टादश वर्षाणि तयोर्व्यापतिः ॥
॥ इति श्रीवस्तुपाल-तेजःपालयोः प्रवन्धः॥
V'द्वादश यात्रा संघपतीभूय संपूर्णा । प्रयोदशमी यात्रा अवसानकाले मार्गे मनसा पूर्णा।' एतद्वाक्याने 'एवं कौकिकमार कृतं मनो विनापि' इदं प्रक्षिप्तमधिकं वाक्यं कम्यते Pपुस्तके। 1P पमनदं। 2 म्यापारः।
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प्रन्थकारप्रशस्तिः। ग्रन्थकारप्रशस्तिः।
श्रीप्रश्नवाहनकुले कोटिकनामनि गणे जगद्विदिते । श्रीमध्यमशाखायां हर्षपुरीयाभिधे गच्छे ॥१॥ मलधारिबिरुदविदितश्रीअभयोपपदसूरिसन्ताने। श्रीतिलकसूरिशिष्यः सूरिः श्रीराजशेखरो जयति ॥ २॥ तेनायं मृदुगद्यैर्मुग्धो मुग्धावबोधकामेन । रचितः प्रबन्धकोशो जयताजिनपतिमतं यावत् ॥३॥
तथाकद्वारवीरदुस्साधवंशमुकुटो नृपौघगीतगुणः । बब्बूलीपुरकारितजिनपतिसदनोच्छलत्कीर्तिः ॥ ४॥ बप्पकसाधोस्तनयो गुणदेवोऽजनि सपादलक्षभुवि । तद्भूनकनामा तत्पुत्रः साढको दृढधीः ॥ ५॥ तत्सूनुः सामन्तस्तं कुलतिलकोऽभवजगत्सिंहः । दुर्भिक्षदुःखदलनः श्रीमहमदसाहिगौरवितः ॥ ६ ॥ तज्जो जयति सिरिभवः षड्दर्शनपोषणो महणसिंहः । ढियां स्वदत्तवसतौ ग्रन्थमिमं कारयामास ॥७॥ शरगगनमनुमिताब्दे (१४०५) ज्येष्ठामूलीयधवलसप्तम्याम् । निष्पन्नमिदं शास्त्रं श्रोत्रध्येत्रोः सुखं तन्यात् ॥ ८॥ ॥ इति चतुर्विंशतिप्रबन्धाऽपरनामा प्रबन्धकोशो ग्रन्थः सम्पूर्णः ॥
10
1AB मिषगच्छे।
2 ABE सत्कुल।
* नास्ति पद्यमेतत् A आदर्श ।
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प्रबन्धको
१. परिशिष्टम् - प्रथमम् । मन्त्रिवस्तुपालकृतसुकृतसूचिः ।
[v सन्ज्ञकादर्शप्रान्तभागे इयं सूचिर्लिखिता लभ्यते । ]
महं श्रीवस्तुपालेन अष्टादशभिर्वर्षैर्यावन्मात्रं सुकृतं कृतं तावन्मात्रं वैतरणीतीरे सन्तिष्ठमान5 सोपारा - आदिनाथदेवालय [स्थि]तप्राकृतप्रशस्तेर्ज्ञेयम् ।
श्रीजिनबिंब ल० १ स० २५लेकतपोधनसत्कमठ७०० । पोषधसाला ९८४ ।...... सिंहासन ५०० । जिनप्रासाद १३५७४ । तेषां मध्ये हेमकुम्भमय २४ । जैनतपोधनावासे अन्नपानं विहरति पंचदश, सह० १५००० ।
श्रीशत्रुञ्जयपर्वते कोडि १८ ल० ९६ । सोमेश्वरे कोडि १० । ब्रह्मशाला ७०० । पाखाणबद्ध 10 सरोवर २८४ । जादरमय समोसरण ५०५ । तीर्थयात्रा वार १२॥ । प्रतिवर्ष संघपूजा वार २३ । प्रतिवर्ष संघवात्सल्य वार २५ । तोरण सह० ३ जैन- माहेशप्रासादेषु । नानामार्गे प्रपा १०० । माहेश प्रा० ३००२ । ब्राह्मण ५०० वेदपाठं कुर्वति । आचार्यपद कारापित २१ । जीर्णोद्धार प्रासाद २०००, शत ३०० जैन-माहेश्वराणाम् । पाखाणमयमढ सह० ४००० । कूप ७०० । श्रीगिरनारि व्यये कोटि १२ ल० ८० । अर्बुदाचले १२ कोडि, लक्ष ३५ लूणिकवसत्यां पुण्यवरः । श्रीअचलेश्वरं 15 प्रति वृद्धदेवलोकजनानां दत्तद्रव्यलक्ष १, प्रतिदिनावासे कार्पटिकानां १ सह० भोजनम् । ब्राह्मणदत्तगौ १००० । ब्रह्मपुरी कारिता शत ७०० । वापीनां शत ४६५ । श्रीभृगे स्नानं कृत्वा दत्ता लक्ष ५ । श्रीभृगुपुरे श्रीजैनप्रासादमध्ये दत्ता को० २ | जैन- माहेश्वरग्रंथलेखने कोडि १८ द्रव्यव्ययः । रेवातीरे शुक्लतीर्थे स्नानं विधाय श्वेतवाराहं नत्वा दत्ता लक्ष २ । दर्भावत्यां वैद्यनाथे १२०००० शत १ दत्ता । श्रीसेरीशके श्रीपार्श्वनाथं प्रणम्य दत्त लक्ष १ सह० १३ शत १६५ । 20 नानास्थाने अकारि दुर्गं ४१६ । पाखाणमया ३२ । वाणारस्यां देवविश्वनाथपूजार्थं प्रहितद्रव्य ल०
१३
१। श्रीद्वारिकायां देवपूजार्थं प्रहितद्रव्य लक्ष १ स० ६१ श० १ । प्रयागतीर्थे प्रहितद्रव्य लक्ष १ । गंगातीर्थे प्रतिद्रव्य ल० ५ (१) । श्रीस्तंभने द्रव्य ल० १ | श्रीसंखेश्वरे द्रव्य ल० २ । सोपाराआदिनाथ...... ग्रे द्रव्य ल० ४ । ग (गो) दावर्यां द्रव्य ल० १ । तपत्यां प्रहित द्रव्य ल० १ । मसीति ६४ । हजतो० १ ।
संघचालतां शकटात ४५००, वाहणिशत १८, सुखासन ७००, पालषी ५००, दंतरथ २४, रक्तसांढि ७०० । संघरक्षणाय राणा ४, सीकरि १९०० । श्वेतांबर सह० २०००, शत १००, दिगंबर ११०० । जैनगायिनि ४००० (१) ४५०, भट्टशत ३३००, अपरगायिन सह० १००० । सरवतीकण्ठाभरण [ आदि ] बिरद २४ । नर्तकी १०० । वेसरशत १ संप्रदायसमं (?) । अश्ववैद्य १०, नरवैद्य १०० ।
25
30 श्रीवस्तुपालस्य दक्षिणस्यां दिशि श्रीपर्वतं यावत् कीर्तनानि ।
संग्रामे श्रीवीरधवलकार्ये वार ६३ जेत्र (तु) पदम् । सर्वाग्रे त्रीणि कोटिशतानि, १४ लक्ष, १८ सहस्र, ८ शतानि द्रव्यव्ययः ॥
॥ इति श्रीवस्तुपालमंत्रीश्वरधर्मवरः सर्वाग्रः ॥ छ ॥
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परिशिष्टम् ।
२. परिशिष्टम्-द्वितीयम् । [अस्मत्सहीतादर्शमध्यात् केवलं BDE सञ्ज्ञकानामादर्शानां प्रान्तमागे एषा वंशावली
लिखिता लभ्यत इति-सम्पादकः ।]
सपाद-लक्षीयचाहमानवंशो लिख्यते१ सं० ६०८ राजा वासुदेवः। २सामंतराजः। ३ नरदेवः। ४ अजयराजः।
अजयमेरुदुर्गकारापकः । ५विग्रहराजः। ६ विजयराजः। ७चंद्रराजः। ८ गोविंदराजः।
सुरत्राणस्य वेगवरिसनानो जेता । ९ दुर्लभराजः। १. वत्सराजः। ११ सिंहराजः।
सुरत्राणस्य हेजिवदीननानो 'जेठाणाकता। १२ दुर्योजनः।
निसरदीनसुरत्राणजेता। १३ विजयराजः। १४ बप्पइराजः।
शाकंभाँ देवताप्रसादाद् हेमादिखान' संपन्नः । १५ दुर्लभराजः। १६ गंडू।
महमदसुरत्राणजेता। १७ बालपदेवः। १८ विजयराजः। १९ चामुंडराजः।
सुरत्राणभक्ता। २० दूसलदेवः।
तेन गूर्जराजाधिपतिबद्धाऽनीतः । अजयमेरुमध्ये तक्रविक्रय कारापितः। २१ वीसलदेवः।
स च स्त्रीलम्पटः । महासत्यां ब्राह्मण्यां विलमो बलात् । तच्छापाद् दुष्ट-52
व्रणसङ्कमे मृतः। २२ बृहत्पृथ्वीराजः।
वगुलीसाहसुरत्राणभुजमीं। २३ आल्हणदेवः।
सहावदीनसुरत्राणजितः। २४ अनलदेवः। २५ जगदेवः। २६ वीसलदेवः।
तुरुष्कजित् । २७ अमरगांगेयः।
30
1 Bजेवाणाक'।
2 B'खान' नास्ति।
DE संपलाः। 4B भुजवल्ली।
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________________
१३४
२८ पान्धडदेवः' |
२९ सोमेश्वरदेवः ।
३० पृथ्वीराजः । ३१ हरिराजदेवः ।
5३२ राजदेवः ।
३३ बालणदेवः ।
३४ वीरनारायणः ।
३५ बाहडदेवः । ३६ जैत्रसिंहदेवः । 10३७ श्रीहम्मीरदेव : * ।
1 B पान्थदेवः ।
प्रबन्धकोशे
सं० १२३६ राज्यम् । वीरः १२४८ मृतः ।
बाबरीयालबिरुदं तस्य । तुरुष्कसमसदीनयुद्धे मृतः । मालवजेता ।
सं० १३४२ राज्यम् । १३५८ युद्धे मृतः । हस्ती ४, 'हस्तिनी ४, अश्वमहख ३०, दुर्ग १० एवं प्रभुः सत्त्ववान् ।
* DE आदर्श नास्ति एतन्नाम ।
2 CGI
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________________
परिशिष्टम् ।
१३५ ३. परिशिष्टम्-तृतीयम् ।
प्रबन्धकोषान्तर्गतसुभाषितस्वरूपवाक्यानां पादानां न्यायवचनानां च उद्धरणम् । गुरुवचनममलमपि सलिलमिव महदुपजनयति श्रवणस्थितं शूलमभव्यस्य । पृ०२७ पं० २३.. राजभिः पूज्यते यश्च सर्वैरपि स पूज्यते । पृ० ३, पं० ११. शोकापनोदो धर्माचार्यः। पृ० ३; पं० २७. तपो हि वज्रपञ्जरप्रायं महामुनीनां परप्रेरितप्रत्यूहपृषत्कदुर्भेदतरम् । पृ०४, पं० १९. कुञ्जरस्कन्धाधिरूढोऽपि भषणैर्भक्ष्यते । पृ०४; पं० २२. लोकः पूजितपूजकः । पृ०६;पं० १३. यचिन्त्यते परस्य तदायाति सम्मुखमेव । पृ०९; पं० ६. एकं वानरी, अपरं वृश्चिकेन जग्धा । पृ०९; पं० १८. हनूमति रक्षति सति शाकिन्यः पात्राणि कथं ग्रसन्ते । पृ० १०; पं० २१. जर्जरापि यष्टिः स्थालीनां भञ्जनाय प्रभवत्येव । पृ० १३, पं० २५. मृत्वापि पञ्चमो गेयः। पृ० १४, पं० २८. यः कालज्ञः स सर्वज्ञः । पृ० २५, पं० २१. । तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते । पृ० २६, पं० २५. रवानि पुण्यप्रचयप्राप्यानि। पृ० २६, पं० २८. नष्टं मृतं सहन्ते हि पितरो निजतनयम् । पृ० २७, पं० ३. धनार्जकस्य कृष्छ्रमस्थानव्ययी पुत्रो न वेत्ति तातस्य । पृ० २७, पं०१३. खनाम नामाददते न साधवः। पृ० २७; पं० २०. वात्याभिन चलति काञ्चनाचलः । पृ० ३४, पं० १४. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते । पृ० ३७, पं० १२. काकतालीयन्याय । पृ०४०, ३१. अन्धवर्तकीन्याय । पृ० ४०, ३१. अङ्गीकृतसाहसानां न किञ्चिदपि दुष्करम् । पृ० ५०; पं० २५. सेवकस्य च हिताहितविचारो नास्ति । पृ० ५१; पं०४. अर्थो हि परावर्तयति त्रिभुवनम् । पृ० ५१; पं० १७. बलवद्भिः सह का विरोधिता । पृ०५२, पं० १९. बुभुक्षितः किं न करोति पापम् । पृ०५३, पं० २६. अतिप्रज्ञापि दोषाय । पृ० ५५, पं० १०७. रसावेशे हि कालो जर्गच्छन्नपि न लक्ष्यते । पृ० ६३, पं०७. अशुभस्य कालहरणम् । पृ०७०, पं० १६. प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् । पृ०७८पं०१२. कुतूहली बलसो न भवेत् । पृ० ८३; पं० २०.
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________________
१३६
प्रबन्धकोशे विद्या-कन्या-लक्ष्म्यो हि कुस्थाने निवेशिता निवेशयितारं शपन्ति । पृ० ८८ पं०५. पापं पच्यते हि सद्यः। पृ० ९८; पं० २८.. इयं गूर्जरधरा कालवशादन्यायपरैः पापैः खाम्यभावात् 'मात्स्यन्यायेन' कदय॑माना आस्ते
म्लेच्छैरिव गौः । पृ० १०१, पं० २०. लब्धास्वादः पुमान् यत्र तत्रासक्तिं न मुञ्चति । पृ० १०३, पं० २४. अदृष्टपरशक्तिः सर्वोऽपि भवति बलवान् । पृ० १०४; पं० ६. यहीयते तल्लभ्यते-इति न्यायः। पृ० १०४; पं० ३०. नेदीयानिबाहनामाहवो हि महामहः । पृ० १०५; पं० ३१.
जयो वा मृत्यु युधि भुजभृतां कः परिभवः । पृ० १०५, पं० २५. 10 कण्ठीरवे तु दृष्टे कुण्ठाः सर्वे वन्याः । पृ० १०५; पं० २९.
दानेन भूतानि वशीभवन्ति । पृ० ११२, पं० ९. तृणं शूरस्य जीवितम् । पृ० १२७, पं० १२. स किं प्रभुर्यो जीर्णभृत्यानां द्वित्रान्मन्तून्न सहते । पृ० १२७; पं० १३.
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प्रबन्धकोशे उद्धृतपद्यानां विशेषनाम्नां च
अकाराद्यनुक्रमेण सूचिः।
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प्रबन्धकोशग्रन्थान्तर्गत-उद्धृतपद्यानां सूचिः ।
-:अकाराद्यनुक्रमेण :
sxccccccces
पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादांश
अस्याः सर्गविधौ प्रजापति ८९ ३२ अहयो बहवः सन्ति
अंबं तंबच्छीए अपुप्फं
पद्याङ्क पत्राङ्क २०७ ८७ ४२ १९ १८ १२
११२
आ
७० ३० ९४ ३२ ४० १८ ७६ ३० ३०९ ११८
९५ ३२ २७९ ११२
९८ ३३ २३७ ९७ २७४ ११०
२४० १०२ १७० ६० ३२७ १२५ २८० ११२ ६४ २८ १७४ ६१ २८१ ११२
प्रथमपादांश
अ अग्घायंति महुअरा अग्रे गीतं सरसकवयः अजित्वा सार्णवामुर्वी अजवि सा परितप्पइ अजवि सा सुमरिजइ अणफुल्लिय फुल्ल म अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा अद्य मे फलवती पितु अद्य मे सफला प्रीतिः अधीता न कला काचित् अध्यापितोऽसि पदवी० अनादिरव्यक्ततनूरभेद्यः अनिस्सरन्तीमपि गेहगर्भात् अनेकयोनिसम्पाता० अन्धा एव धनान्धाः स्युः अपूर्वेयं धनुर्विद्या अभङ्गवैराग्यतरङ्गरङ्गे अमुमकृत यदङ्गनां न वेधाः अयसाभियोगसंदूमियस्स अये भेक च्छेको भव अर्थीच्छाभ्यधिकार्पणं अर्हतस्त्रिजगद्वन्द्यान् अष्टौ हाटककोटयः अस्माकं प्रभुयुद्धार्थी अस्मान् विचित्रवपुष० अस्माभिर्यदि वः कार्य अस्माभिश्चतुरम्बुराशि० अस्मिन्नसारे संसारे
आकृतिर्गुणसमृद्धि० आगतस्य निजगेह० आयान्ति यान्ति च परे आयुर्योवनवित्तेषु आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण आरुक्षाम नृपप्रसाद आरोहन्ती शिरःखान्ताद् आलब्धा कामधेनुः आलेख्ये चित्रपतिते आलोकवन्त्यः सन्त्येव आवयोश्च पितृपुत्रयो आस्यं कस्य न वीक्षितं आः साम्यं न सहेऽहमस्य आल्हादं कुमुदाकरस्य
१३३
२०६ ८६ १२६ ४० २४३ १०३ २९१ ११४ १७२ ६१ ३४१ १२८
murom
२० ११६
३०१
२१०
ड
२४
१४८ १८३ १३६
इक्केण कुत्युहेणं इच्छासिद्धिसमन्विते इतो विपदितो मृत्यु इह लोए चिय कोवो
३०२ ११६ ३२० १२३
४४
७४ ८३
३० ३२
उच्चाटने विद्विषतां उच्चैर्गवं समारोप्य उजिंतसेलसिहरे उत्तरओ हिमवंतो उचिष्ठन्त्या रतान्ते
३११ १२० २५३ १०३ १३२ ४२ १९९ ७३ १२० ३०
२७२ ११०
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प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः। पद्याङ्क पत्राङ्क प्रथमपादांश २१६
क्षुण्णाः क्षोणिभृता०
पद्याङ्क पत्रात २२१ ९१
प्रथमपादांश उपकारसमर्थस्य उपद्रवत्सु क्षुद्रेषु उवयारह उवयारडउ
१२
८
खद्योतमात्रतरला
३४२ १२८
२३५
९६
२१८
___२५
एकदेहविनिर्माणाद् एकधारापतिस्तेऽद्य एकस्त्वं भुवनोपकारक० एकादशाधिके तत्र एकं ध्याननिमीलना०
१२०
६७
१२८
___३९
गतिरन्या गजेन्द्रस्य गुणचंदवाणवंतर० गुणसेण-अग्गिसम्मा गुरुभिषग् युगादीश० गुलसिउं चावइ तिलतांदली गृहचिन्ताभरहरणं गृहीत इव केशेषु गोविन्दनन्दनतया च गौरवाय गुणा एव गौ रात्रमिदं राज्यं गङ्गान्तर्मागधे तीर्थे ग्रावाणो मणयो हरिर्जल.
___३१
१८४
३३४
३३ २६ ३२२ १२३ ३२३ १२३ १५३ ५५
३ ३ ३३६ १२८ १२९ ४१ २७७ १११
२२८
९४ ११६
१२७
३०५ ११७
५३
२४
३७ १९१
कथासु ये लब्धरसाः कलयसि किमिह कृपाणं कलिकाले महाघोरे कल्पद्रुमस्तरुरसौ कवाडमासज वरंगणाए कामं खामिप्रसादेन कायः कर्मकरोऽयं कालउ कंबलु अनुनी चाटु कालेन सौनिकेनेव कालः केलिमलङ्करोतु कियती पञ्चसहस्री किन्तु विज्ञपयिताऽस्ति किं कुर्मः कमुपालभेमहि कीर्तिः कैकत ! कुन्तिभोज कीर्तिस्ते जातजाङ्येव कुमारपाल मन चितकरि कुमारपाल रणहट्टि वलिउ कैषा भूषा शिरोऽक्ष्णां कः कण्ठीरवकण्ठकेसर० कः सिंहस्य चपेटपातित क्रमेण मन्दीकृतकर्ण क्क यातु कायातु क वदतु क्षारोऽन्धिः शिखिनो मखा क्षिप्त्वा वारिनिधिस्तले
२५८ १०३
३४ १६ २५७ १०३ २६५ १०५
३७
१०२ ३४४ १२९ १८८ ६४
२० १७१
चक्किदुगं हरिपणगं चतुर्दश तु वैकुण्ठाः चाटुकारगिरां गुम्फैः चित्रस्था अपि चेतांसि चेतः सार्द्रतरं वचः चौलुक्यः परमाईतो नृप०
२१
- ๕ -
२५६ १०३
१५२
१७८
२३१
११
छत्रच्छायाछलेनामी छायाकारणि सिरि धरिय
ज जइ उट्ठभइ तो कुहइ जन्मस्थानं न खलु विमलं जय-विजया य सहोयर जलधरेपि कल्लोला० जह जलइ जलउ लोए जह जह पएसिणिं जा जस्स ठिई जा जस्स संतई
२१९
ะ ต * * *
२७६
११०
१७३ १८६
२
२८९ ११३
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प्रथमपादांश जितश्चेत्पुरुषो लक्ष्म्या जिते च लभ्यते लक्ष्मीः जीउं छहिं जणेहिं
जी जलबिंदुस
जीवितव्यं च मृत्युश्च जीवितैकफलमुद्यमा ० जे के वि पहू महिमंडल ० जं दिट्ठी करुणातरंगिय ०
99
तया मह निगम तटविपिनविहारो०
तत्ती सीयली मेलावा तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो
तवोपकुर्वतो धर्म ताम्रपर्णीतटोत्पन्नैः
तावड्डण्डिमघोषणां तावलीलाकवलितसरित् ते मुग्गडा हराविया त्वत्कृपाण विनिर्माण ०
त्वत्प्रसादकृते नीडे
त्वत्प्रारब्धप्रचण्डप्रधन०
दगपाणं पुप्फफलं दत्तानि दशलक्षाणि दधाति लोभ एवैको दधिमथनविलोलोल० दि कग्गीवाइ दिक्षुर्भिक्षुरायात दुःखाग्निर्वा स्मराग्निर्वा दृप्यद्भुजाः क्षितिभुजः दृष्टस्तेन शरान्किरन् ष्टष्टा भूपतीनां देव ! त्वं मलयाचलोऽसि
त
प्रबन्ध कोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः ।
प्रथमपादांश
देव ! त्वर्भुजदण्डदर्प •
देव ! सेवकजनः स
देव ! स्वर्नाथ ! कष्टं
देवाज्ञापय किं करोमि देवी पवित्रितचतुर्भुज ० दोवि गहत्था धडहड ० द्वादशार्का वसवष्टौ
पद्याङ्क पत्राङ्क
२००
७३
३३० १२७
२६३ १०४
११४ ३९
१७ ११
३३१ १२७ ९२ ३२
५५ २४
१२३
४०
३१
६२
९६
३३ |
१९४
६६
२९३ ११५
३२१ १२३
१४
९
२७० १०९
२३०
९५
१८२
६३
२९८ ११६
१७७ ६२
७८
१८०
३९ १७
४६ २०
१४९ ५१
१७५ ६२ १०६ ३५
४५ २० २६१ १०३
२३९ १०१
१६३ ५८
२५० १०२
१८५
६३
धनी धनात्यये जाते
धन्यास्त एव धवला धन्यास्ते ये न पश्यन्ति
धर्मलाभ इति प्रोक्
धिग् वृत्तनृत्तमुचितां धूपखवा
कृतं सुकृतं किञ्चित् न खानिमध्यादुदखानि
न गङ्गां गाङ्गेयं सुयुवति० न ध्वानं तनुषे न यासि न नाम्ना नो वृत्त्या नमोऽस्तु हरिभद्राय नवसय तेणउएहिं
ध
नवि मारिय नवि चोरियइ नव्योद्वाहविधौ वधूद्वय •
न सर्वथा कश्चन लोभ०
परं मुक्काण वि तरुवर पत्तमवलंबियं तह जो
न
नास्ति तीर्थमिह पार्थिवात् निरर्थकं जन्म गतं नलिन्याः निवपुच्छिण गुरुणा नृपव्यापारपापेभ्यः नेत्रेन्दीवरिणी मुखाम्बु ० न्युन्छने यामि वाक्यानां
प
३
पद्याङ्क पत्राङ्क
१८७ ६४
२४५ १०२
१६८ ५९
२०५ ८४
१५६ ५६
१२५ ४०
१६५ ५९
२५५ १०३
१०४ ३५
५२ २३
३५
१७
६५ २८
२२७ ९४
३३७ १२८
२३६ ९७
८०
३१
३०६ ११७
४४ १९
२६
६०
२०१
७४
३२ १६
१४५ ४९
२५१ १०२
२४६
१०२
१८९
६४
२२ १३
२८८ ११३
२०९ ८७
१०३
३४
९१
२८
३२
१५
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________________
४
प्रथमपादांश
पदं सपदिकस्य न पद्मासनसमासीनः पन्थानमेको न कदापि
परिच्छेदातीतः सकल०
परिसेसियहंसउलं पसुजेम पुलिंदउ पारेतजनपदान्त ०
पालित्य कह फुडं
पीयूषादपि पेशला
पीलूवृक्षमहाजाल्यां पुण्यलक्ष्म्याश्च कीर्तेश्व पुन्ने वास हस्से
पुरस्कृत्य न्यायं खल०
पुरुषः सम्पदामय ०
पुष्पखग्दाम रुचिरं पूजाकोटिसमं स्तोत्रं
पूर्वाह्णे प्रतिबोध्य
प्रभुप्रसादस्तारुण्यं प्रयोजकान्यकार्येषु प्रावृट्काले पयोराशि ० प्रियं वा विप्रियं वापि प्रियादर्शनमेवास्तु
27
बाला चंकमंती पए 'बालो मे वृषभो भरं 'बिन्दवः श्रीयशोवीर !
भजते विदेशमधिकेन भवस्याभूद् भाले
भत्रा काचन भूरिरन्ध्र० भिक्खयरो पिच्छइ
भुञ्जइ आहाकम्मं
भूपभ्रू पल्लवप्रान्त • भोगा भरवृत्तयो
प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः ।
पद्याङ्क पत्राङ्क
प्रथमपादांश
४३ १९
भोगे रोगभयं सुखे क्षय•
२२७ ९४
२६८
१०८
१९२
६५
८६
३२
९७ ३३
७५
२३ १३
११६
६३ २७
१३५
४३
३६ १७
२०२
३०३
२५२
३२८
३१६
२२६
१३४
४
२५९
३१४ १२१
१७१ ६०
१०१ ३४
१९५
७१ ३०
१४३ ४९
३२४ १२३
१६९
१७९
१११
१२८
११
३१९
१
१०२
१२५
१२१
९४
४३
४
मिता भूः पत्यापां १०३ | मित्रस्नेहभरैर्दिग्धो
६०
६२
३८
मनैः कुटुम्बम्बा
मदेन मानेन मनोभवेन
मद्गोः शृङ्गं शक्रयष्टि०
मनसा मानसं कर्म
मन्ये मन्दधियां विधे
६६ | यदृको दृषदो यदुष्ण० यत्कृतं वस्तुपालन
यत् पश्यन्ति झगित्य •
यथा नदी विनाऽम्भोदा०
मयनाहि सुरहिएणं
मर्दय मानमतङ्गजदर्पं
मलओ स चंदणु च्चिय
मलमूत्रादिपात्रेषु
महाव्रतानि पञ्चैव
माणसरहिएहिं सुहाई मानं मुञ्च सरस्वति !
मार्गे कर्द्दमदुस्तरे मासान्मांसलपाटला० मास्म सीमन्तिनी कापि
60
मुधा मधु मुधा सीधु मृगेन्द्रं वा मृगारिं वा
१२३
यायें द्यूतकारस्य
४१ यद्दूरं यदुराराध्यं
यथा यूनस्तद्वत्परम० यदीदृशेषु कार्येषु
यदेतत्स्वच्छन्दं विहरण ०
यन्मयोपार्जितं पुण्यं
यशोवीर ! लिखत्याख्यां २ । यस्मिन्कुले यः पुरुषः
म
य
पद्याङ्क पत्राङ्क
२७
१५
१३१
४२
१२२
४०
२९
१५
११६ ३९
३४३ १२९
१२४
४०
६९
२९
८८
३२
१०२
३४
१३७ ४५
८५ ३२
२२३
९३
२६७ १०८
३२९
१२६
२९२ ११५
३१
१५
२१४
८९
१६४ ५८
२१३
८९
१५
३३३
२०८
१०
१६०
१०
१२७
८७
७
५६
६१
२१२
८८
२९९ ११६
१९ १२
३३८ १२८
३२५ १२३
३०८ ११८
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प्रथमपादांश याचको वञ्चको व्याधिः यामः स्वस्ति तवास्तु या रागिणि विरागिण्यः यास्यामीति जिनालये स युष्मादृशाः कृपणकाः येन केन न च धर्म येनागच्छन्ममाख्यातो येनेदं भक्षितं भक्ष्यं ये पापप्रवणाः स्वभाव० योग्यं सुतं च शिष्यं च यौवनेऽपि मदनान्न
पद्याङ्क पत्राङ्क २६४ १०५ १९७ ७१ २६२ १०३ १९३ ६५ २६० १०३
__ ३२ १७६ ६३ २६६ १०७ ३१८ १२३ ७९ ३१
१२१
२९४ ११५
६२ २७ ३२६ १२४ १६२ ५८
रवेरेवोदयः श्लाघ्यः राज्ये सारं वसुधा रामो नाम बभूव हुं रूढिः किलैवं वृषभः रूपं रहो धनं तेजः
प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः । पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादांश १५७ ५६ वाजिवारणलोहानां
७३ ३० । विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि ३३९ १२८ विधौ विध्यति सक्रोधे २२४ विरमत बुधा योषित्सङ्गात्
विषयाविषमुत्सृज्य २४४ १०३ विंझण विणावि गया
वीक्ष्यैतदभुजविक्रम वृत्तिच्छेदविधौ द्विजाति० वृद्धानाराधयन्तोऽपि
वेश्यानामिव विद्यानां २४२ १०२
शताष्टके वत्सराणां १०७ ३६ शतेषु जायते शूरः
३४ | शम्भुर्मानससन्निधौ ११९ ३९ | शशिना सह याति कौमुदी १४४ ४९ शस्त्रं शास्त्रं कृषिविद्या
शाणोत्तीर्णमिवोज्वल०
शास्त्रज्ञाः सुवचखिनो ३१३ १२०
शास्त्राभ्यासो जिनपदनुतिः
शूराः सन्ति सहस्रशः ११५ ३९ शैत्यं नाम गुणस्तवैव
श्रियो वा स्वस्य वा नाशो १३० ४२ श्रीचौलुक्य ! स दक्षिण २८२ ११२
| श्रीणां स्त्रीणां च ये वश्याः
श्रीतीर्थपान्थरजसा १०५ ३५
श्रीमत्कर्णपरंपरागत १०९ ३८ श्रीभोजवदनाम्भोज २८७ ११३ श्रीमन्ति दृष्ट्वा द्विजराज० ५४ २४ | श्रीरियं प्रायशः पुंसा० १५८ ५६ | श्रीवस्तुपाल ! तव माल० १५९ ५६ श्रीवस्तुपाल-तेजःपालौ २७८ १११ । श्रीवस्तपाल! प्रतिपक्ष ३३२ १२७ श्रीवासाम्बुजमाननं ३०४ ११७ | श्रीवीरे परमेश्वरेऽपि
৩৩
लक्ष्मी चलां त्यागफलां लक्ष्मीश्चला शिवा चण्डी लजिजइ जेण जणे लन्धा श्रियः सुखं स्पृष्टं लावण्यामृतसारसारणि लोकः पृच्छति मे वाता
१३८ ४५ ३४० १४० ११२ ३८ ३१७ १२३
वइविवरनिग्गयदलो वक्त्रं पूर्णशशी सुधा० वञ्चयित्वा जनानेतान् वपुरेव तवाचष्टे वरं प्रज्वलिते वह्ना. वरं सा निर्गुणावस्था वरि वियरा जहिं जणु वल्ली नरिंदचित्तं वस्तुपाल! तव पर्व
२८६ ११३ ३०७ ११८ ३२५ १२४ २९६ ११५ ३१० १२० ६८ २९ २७३ ११० २३८ १०१ २६९ १०९ २९७ ११५ १४२ ४८
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पद्या पत्राङ्क १५४ ५५
प्रथमपादांश श्रुत्वा ध्वनेर्मधुरतां श्रूयते यन्न शास्त्रेषु श्लाघ्यतां कुलमुपैति
षट्त्रिंशदधिके माहा०
१६६
२११
१९०
७३
स एव पुरुषो लोके सञ्चं भण गोदावरि सद्वृत्त सद्गुण महार्य सन्दष्टाधरपल्लवा सचकितं सन्ध्यां यत्प्रणिपत्य सन्धौ वा विग्रहे वापि सप्रसादवदनस्य भूपते. समणाणं सउणाणं सर्य पमजणे पुन्नं सरखती स्थिता वक्त्रे सर्वदा सर्वदोऽसीति सद्यो पुवकयाणं सा गता शुभमयी युग० सा बुद्धिर्विलयं प्रयातु सा सुकंतई जगु मरइ साहसजुत्तइ हलु वहइ
प्रबन्धकोशान्तर्गतपद्यानां सूचिः । पद्याङ्क पत्राङ्क | प्रथमपादांश १८१ ६३ | साहित्ये सुकुमार वस्तु० १४७ ५० सांख्या निरीश्वराः केचित् २४१ १०२ सिद्धंततत्तपारंगयाण.
सीसं कह वि न फुझे सुअइ गुरू निचिंतो
सुधाधौतं धाम व्ययभर० २१७ सुभ्र ! त्वं कुपितेत्यपास्त. १९८ सूत्रे वृत्तिः कृता पूर्व ११३ ३८ सूरो रणेषु चरणप्रणतेषु १९६ सेयं समुद्रवसना तव
संपइ पहुणो पहुणो २०४ ८४ । स्नेहो न ज्ञायते देव २४७ १०२
स्फुरन्ति वादिखद्योताः २०३ ७५
स्वयंभुवं भूतसहस्र० २२५ ९४ ४८ २० हसन्नपि नृपो हन्ति ५० २० हितवचनानाकर्णन०
७ ५ हित्वा जीर्णमयं देहं २४९ १०२ | हिंस्राः सन्ति सहस्रशो
६१ २७ हे विश्वत्रयसूत्रधार ! २३२ ९५ । हंस जिहिं गय तिहिं गय १५० ५१ । हंसा जहिँ गय तहिं गय
२८५ ११३ १६१ ५७ १३९ ४५
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________________
प्रबन्धकोशान्तर्गतविशेषनाम्नां सूचिः ।
*अकाराद्यक्षरानुक्रमेण *
४८
अ ॐकारनगर अक्षवाटक अग्गिसम्म अग्निवेताल
८०,८३ अोवालिआ [प्राम] १२१, १२८ अनन्द
८३,८४ अजयपाल
९८, १०१ अणहिलपत्तन ५७,६१,९०, ९३
१२१
द
१२२
.
.
अवन्तीसुकुमाल
१९ । उज्जयिनी ८,१८,५९, ६४, ६५, अश्वराज
१०५
६६,७७, ८३, ८६ अष्टक [ग्रन्थ]
उत्तराध्ययन [सूत्र] अष्टापद [गिरि ४८,७५, ८५ उत्तरापथ आ
उदयन [वत्सराज] २,८६, ८७
उदयन मंत्री ४८, ११४, ११५ आचाराङ्ग [सूत्र]
उदयप्रभसूरि
११३ आणन्द
२५
उदयसिंह १०५, १२३, १२५ आदिनाथ
उद्धव
११५ आनाक [राजा]
५०-५२ उपमितिभवप्रपञ्चा [कथा] आभड २, ४८, ९७-१००
उम्बरिणि [प्राम] आभू
१११ उरङ्गलपुर
५३, ५४ आम [राज, नृप]
२७-४५
उवसग्गहर [स्तव] आमदत्त
१११ आरासण [प्राम] १०९, ११९, १२२
ऊदल आर्य खपट [सूरि] २,९,१०,११ आर्य नन्दिल
ऊपरवट [ अश्व] १०४, १०६ आर्य नागहस्ती आर्य रक्षित [खामी]
ऋषभ [देव, जिन] १, २२, ४९, ९७, आर्य वज्र [खामी]
११४, ११५, ११६, आर्य सुहस्ती [ सूरि]
११९, १२१, १२९ आर्य सम्भूति विजय
ऋषभध्वज चरित्र आर्हन्मत
ऋषभप्रतिमा आलिग
११५ ऋषभफलही
१२० आवश्यक [सूत्र]
२,२४
ऋषभवंश आसराज [ ठकुर]
१०१ ऋषिभाषित [ सूत्र]
ओ इन्द्रभूति
ओढर [ जाति] इन्द्रमण्डप
कट्टारवीर [बिरुद] ईशान [देवलोक]
कण्टिका [ देवी] ईशानेन्द्र
कण्टेश्वरी
४७ कन्धारकुडङ्ग
कन्यकुब्ज ९, २०, २७, ३२, उग्रसेनभवन
३८,१०१ उज्जयन्त [ गिरि, तीर्थ ] १२,४२, ४८, कपर्दी [यक्ष] ४८, ४९, १०९, १०१, १२९ ।
१२०
अनन्तपाल
१०५, १०६ अनलगिरि [ हस्ती] अन्न [राजा] अनुपदे
१२० अनुपमदेवी
१०१ अनुपमा
१०९, ११४, १२
१२३, १२९ अनेकान्तजयपताका भभय [मंत्री]
४८, ११५ अभयदेवसूहि अभिनव राम भभिमन्यु अमरचन्द्र [कवि] २, ६१-६३ अमरचन्द्रसूरि
११३ अम्बा [ देवी] ४२, ९६, ९७, १२१ अम्बिका , ४२, ४३, ९७, १०९ अम्बिकाशिखर अयोध्या भरसिंह कविराज
६१, ६३ अर्जुन अर्णोराज अर्द्धमागध [भाषा]
१८ अर्बुदगिरि
७५, ११७, १२१,
१२२, १२३, १२९ भलिंजरनाग अवलोकनाशिखर अवन्ती
१५, १९,२०६६,
__४०
७०४
.
११६
१०१
Choy
६८, ७e
2प्र.
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________________
प्रबन्धकोशे
कपाट
केतू
१०५ १३.
गुणसेनसूरि गुलकुल्य गूजर गूर्जरदेश गूर्जरधरा
१०५
५२, ६२ १,२६, ४३, १०१ ७,८,३७,४७,५८, ९१, ९९, १०१, १०३, १०४, १०६, ११२, ११७, ११९, १२०, १२५
१०१
गूर्जरधरित्री गूर्जरमण्डल गूर्जरलोक गूजरेन्द्र गूर्जरेश्वर गोदावर गोदावरी
५०, ११२ ५०, १२१
गोध्रा गोपगिरि
१४, ३२, ६६, ६८,
७२, ७३
१०७ २९, ३१, ३३, ३६, ३५, ४०, ४१, ४२,
कपर्दीभवन ४९ । कृष्ण
८३ कृष्णनगर
६२, १२० कमलादित्य [कवि] ६२, १२० कर्ण
४३, १११ केदार पर्वत कर्णदेव
९०, १.१
केल्हण कर्णमेरु [प्रासाद]
कैलास
८४ कर्णाटदेश १९१ कोटिकगण
१३१ कर्मप्रकृति [अन्ध] ' ११३ कोणिक
१२४ कलहपञ्चानन [हस्ती]
कोमल
९३, ९४ कल्प [सूत्र]
कोल्हापुर कल्पक [मंत्री]
११५
कोल्हासुर कलाकलाप
कोशला [ग्राम, नगरी]११, १५, ८१,८२ कलाकेलि
कौशाम्बी
८६-८८ कलाभारती
कंस
१२४ कलावती
क्रौञ्चहरण [ पत्तन ] कलि-अर्जुन १०५ क्षेत्रवर्मा
१०५ कल्याणमन्दिर [स्तव] काञ्चनबलानक
खङ्गार दुर्ग
११७ कात्यायन
खण्डन [खण्डखाद्य ] ग्रन्थ कान्ती [पुर, नगरी] १३,
खपटाचार्य कार्तिकेय
८३, ८४
खरमुख कालमेघ
खर्परक [ चौर]
७८ कालाग्निरुद्र
खेट [महास्थान ] कालिकाचार्य
खोटिक कालिकादेवी
खून्दला [वीर] कालिञ्जर [ गिरि] कालिन्दी [ नदी] कावेरी
गगनगामिनी विद्या काव्यकल्पलता
गङ्गा [देवी ] काशी
८८-१० गङ्गा [नदी] १२, ४३, ४६, ५४, काश्मीर
५५, ५७, ५८, ८०, कासी ५५, ५७, ६१, ७९
१०९, ११५ कीर्तिपाल
गजेन्द्रपद [कुण्ड]
११६ कुन्तिभोज
गन्धवह [श्मशान] कुमरनरिंद
गई भिल्ल
११७ कुमारदेव [मंत्री] ८८-९. गईभी विद्या
११७ कुमारदेवी १०१, १११, ११४ गिरिनार
१०१ कुमारपाल ४७, ४८,५०-५४, गिरिविदारण
५७,९८,१०१,११५ गिरिसेण कुमुदचन्द्र
गुडशस्त्रपुर
१२८ गुणचन्द कुहाडीग्राम
गुणचन्द्र कूर्मारपुर
गुणदेव
१३१ कूष्माण्डीदेवी
गुणसेण
२७, २८, ३३
गोपाल गिरि गोमती गोविन्द गोविन्दचन्द्र गोविन्दाचार्य
५४, ८८ ३४, ३५, ३८, ४४,
४५, ४६
१०३
१२२ १५, ३०,५८
८५
गोहिलवाटी गौग्गलिक गौडदेश गौडवध [ काव्य] गौर्जर गौर्जरात्र
७८
घण्टा माघ [बिरुद] घीन्दिणी [छन्द] घूघुलवंश
१०७, १०८
१२०
.
१२०
चउरासी प्रासाद चक्रेश्वरी [ देवी] चक्रेश्वरी विद्या चण्डप [ ठक्कुर] अण्डप्रद्योत
.
१०१
२५
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________________
विशेषनाम्नां सूचिः।
१०१ ।
जयन्तचद्ग
५४-५७, ८०-९०,
११७ १०९, १२७-१२९ ५२, ५३, ९०, ९१,
९३,१०१
जयन्तसिंह जयसिंहदेव
१२३
११५
८६
१०५, १२३, १२५
४७ १०१
चण्डप्रसाद [ ठकुर] चन्दनवल्ली चन्द्रप्रभ [जिन]
४३, ४९ चन्द्रलेखा
७२, ८५ चन्द्रावती
१२२ चमत्कृत [ कार्पटिक] चम्पकसेना चर्मण्वती
७५-७७ चाङ्गदेव चाचिग [ ठकुर] चापोस्कट [वंश ] चामुण्डराज [१] ९०, १०१ चामुण्डराज [२] १०३, १०४, १०७ चाम्पल [महाजन]
१२२ चाम्पलदे
४८, १०० चारण
१०४ चाहदकुमार चाहमान [वंश] चाहिल
१२१ चित्रकूट १७, २१, २४, २५ चित्रकूट तलहट्टि चिन्तामणि विनायक चूडासमा चेटकराज चेल्लणदेव चेल्लणपार्श्वनाथ चोक्षवाटि
१०९ चौलुक्य [वंश] ४८-५२, ५८, ९०,
१०१, १०५, ११४
जाम्बक जालिणि जावालिपुर जान्हवी जितशत्रु जिनदत्तसूरि जिनदास जिनधर्म जिनभटाचार्य जीवदेवसूरि जीवन्तस्वामी जेठुआक [वंश] जेसिंघदेव
तरङ्गलोला तापी ताम्रपर्णी ताक्ष्य
११५ तारा तालारस [प्राम] तिलकसूरि
१,१३१ तिलङ्गदेश
५३, ५४, ९१ तिहुअणपाल
५२, ५४ तेजलपुर
११७, १२० तेजःपाल [मंत्री] १०१, १०३, १०५
१०९, ११३, ११७, ११८, १२२, १२३,
१२७, १२८, १२९ त्रिकूटाचल त्रिपथगा त्रिपुरादेवी त्रिलोकसिंह
१०५, १०६ त्रैलोक्यविजयिनी विद्या
२, ७-९, ६१
७६
१२६
५०, १०५
जेहुल
जैन
44:54
१०५ १०, ११, १३, १५, १७, २०, २१, २३, ४०, ४२, ६१, ६८,
८३, ८८
१२९
जैन गायन जैन धर्म जैन प्रासाद जैन मुनि जैन रथ
१२९
१२४, १२८
१३०
ठाणावृत्ति [ग्रन्थ ]
छन्दोरखावली छाडाक [ श्रेष्ठी]
डाहलदेश डिण्डुआणक डूंबाउधीग्राम डोडीयवंश
दक्षिण खण्ड दक्षिण देश दक्षिण मथुरा दक्षिणापथ
२, ६८, दत्तसूरि दशकन्धर दशवदन । दशवकालिक [सूत्र] दशाश्रुतस्कन्ध [सूत्र] दशाहमण्डप दाशरथि दाहड दिक्पट
२४, ४३, ६४, ६५
७,४२, ६४,९४, १२९ दिग्वसन दिग्वासस्य दिवाकर दीपिका कालिदास दुन्दुक नृप
४१,४३-४६ दुर्गसिंह दुर्लभराज
९०, १०१ दुस्साध [वंश] देवचन्द्रसूरि देवदत्ता
१३१ ५०, ५१
२६, २७ ५९,१०५
"
ढङ्क पर्वत दिल्ली नगर
"
जगत्सिंह जङ्गडक जनक [ राजा] जनमेजय जम्बूद्वीप जम्बूस्वामी जय जयतलदेवी जयताक जयद्रथ
१३, ८४, ८५ ११७, ११९, १२०,
१३१ ७५, ७७, ७८
.
११२
दि(ढी)पुरी
१०३, १०४
५३, ५४
१३१
तक्षक नाग तक्षशिला
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________________
प्रवन्धकोशे
देवपत्तन
४९, ६१, ९०, ११७
देवपाल
११३
२१
११८
देवप्रभसूरि देवबोधि देवर्षि देवसिका देवसूरि देवादित्य देल्हा साधु दोगुन्दुक [देव] दोधक [छन्द] द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका द्वादशरुद्र [बिरुद] द्वारवती द्वीपबेट पत्तन द्वैपायन
७७७"७०
१०४
पउमिणि
९३, ९४,९६ पञ्चग्राम पञ्चलिङ्गी [प्रन्थ ] पञ्चवस्तुक [अन्य] पञ्चसूत्र [प्रन्थ] पञ्चालदेश पञ्चाशत् [प्रन्थ] पञ्चासर [ पुरी] पट्टमहादेव [सूरि] पत्तन ( अणहिलपुर) ५०, ५२, ५४,
१०१, ११७, १२९ पद्म पद्म कोष्ठागारिक
६१, ६३ पद्मदत्त पद्मप्रभ पद्मयशा पद्मा [राज्ञी]
४४, ४५ पद्माकर पद्मानन्द [ काव्य] पद्मावती [राज्ञी] पद्मिनीखण्ड [पत्तन] परकायप्रवेश [ विद्या] परमहंस परमार [वंश] ३५, ४८, ५३, परीक्षित
१०४
८८
११३
नमि-विनमि
१२९ नयचक्र [प्रन्थ ]
२२, २३ नरचन्द्रसूरि ११३, ११५, ११७,
१२७ नरभारती [बिरुद] नरवर्मा
९०, ९१ नल राजा
४३,९१,१११ नलिनीगुल्म [विमान] नवहुल्लपत्तन नवहंस नागड मंत्री १११, १२५, १२८ नागदत्त नागनायक | देव]
६८ नागपुर
११८,११९ नागमत नागार्जुन २,१३,१४,८४-८६ नागेन्द्र [ देव] नागेन्द्र गच्छ नाणायत्तक [प्रन्थ] नादसमुद्र नानाक कवि
६२, १२० नाभिभूत
११४,११५ नाभेयचैत्य नाभेयपादुका
११९ नाभेयभवन नामलदेवी नारायण निम्ब मंत्री निर्वाणकलिका [ग्रन्थ ] नूनक नृपनाग
४८, ९७ नेट मंत्री
१२१ नेना
११८ नेमि [नाथ, जिन] १,४२, ४३, ४७,
२५ १४, ८५
८६
५,८८
धण धणसिरि धनपति धन्धुक्कपुर धरण धरणेन्द्र [देव] धर्मऋषि धर्मदत्त धर्मदेव धर्मनृप ३०, ३२, ३३, ३५-३७ धर्मसूरि
४८ धवलक्क-क [पुर] ५८,६१, ६२, १०१,
१०३-१०८, १११
११७-१२६, १२९ धवलचन्द्र
८३, ८४ धारा [नगरी]
९०, ९२ धारावर्ष
११७, १२२ धारू धूलीसमुद्र
नामेय [जिन]
८६-८८
पल्ली
७९
पाटलीपुत्र)
११, १२, पाटलीपुर [पत्तन] पाडलापुर पाडलीपुर) पाण्डु पाण्ड्यनृप पाण्ड्य राष्ट्र पातालविवर [ कूप] पादलिप्सक [पुर] पादलिप्तसूरि २, १३, १४, १५
८४,८५ पाराञ्चिक
१८ पारेत जनपद पार्श्वनाथ [ जिन] १३, १४, ८५,
१०९, १११ पार्श्वनाथ द्वात्रिंशिका
१८
__ १२, १३
११६, ११७, १२१,
१२४
नेमिनाग नन्द
__११५
नेमिबिम्ब नन्दिल [ आचार्य]
नैषध [काव्य] नन्दीश्वर
नौवित्तकवाटि नमसूरि ३४, ३७,३८, ४४-४६ । न्यायावतारवृत्ति
९७, १२२ ५५, ५६, ६०
१०९
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________________
विशेषनामां सूचिः।
२२
फुलश्रेष्ठी
भृगुकच्छ) भृगुक्षेत्र भृगुपुर भोजदेव [ नृप]
१०-१६ ४१, ४४, ४५, ४६, ५९, ७४, ११५
४८,८४
भोपल देवी
ADDA.KAGW.
001
बब्बूलीपुर
१३१ बप्प [क्षत्रिय] बप्पक साधु
१३१ बप्पभट्टि सूरि
२, २७-४६ बम्बेरपुर
११८ बल मित्र बलि बापला-खुंदला [वीर ]
६८ बालचन्द्र बालभारत [काव्य] बाहुबलि
३८, ११९ बिभीषण बुद्ध
९, १०, ११, २२
२६, ३५-३७ ब्रह्मणाग ब्रह्मभवन ब्रह्मशान्ति [यक्ष] ग्राही
१३, १५, ७३
३५
बौद्ध
१३१
पार्श्वनाथ प्रतिमा पार्श्वनाथबिम्ब
१९, ७६ पावफलही पालित्त पालित्तानकपुर पाशुपत शास्त्र पाहिणि पीठजादेवी पीलूआई [देश]
११३ पीहुलि पुण्डरिकीणी
१२८ पुण्डरीक फलही पुरन्दर पुरुष सरस्वती [बिरुद] पुरूरवा पुष्कलावती
१२८ पुष्पचूल पुष्पचूला
७५ पूनड साधु
११८-१२० पूर्णचन्द्र पूर्णतल्ल गच्छ पूर्ण सिंह पूर्व देश पूर्वमथुरा पृथिवीराज
११७ पृथिवीस्थान [पुर, पत्तन ] २१,८४, ८५ प्रतापमल्ल
४८, ९८ प्रतिमाणा प्रतिष्ठान [पुर, पत्तन] २, ३, १४,६६,
६७, ६८ प्रतीहार [वंश]
१०४ प्रधुम्न शिखर
११६ प्रद्युम्न सूरि प्रबन्धकोश
१३१ प्रबन्धचिन्तामणि प्रभास [तीर्थ] ४३, १३० प्रभासपुराण प्रभप्रकाश प्रश्नवाहनकुल
१३१ प्रल्हादनपुर प्रल्हादनराणक प्राग्वाट [वंश] १.१, १२१ प्रेममञ्जुषा
१११
मण्डन मुनि मण्डली [नगर] १०१, १०२ मथुरा
३९-४१, ४६, ७२ मदन [श्रावक] मदनकीर्ति [कवि] २,६४, ६६ मदनमञ्जरी मदनमूच्र्छा मदनवर्मा २,९१, ९२, ९३ मधुसूदन मध्यम शाखा मम्माणी [खनि] ११९, १२० मयणल्लादेवि मरु [प्राम, देश] १०६, ११०, ११३ मरुदेवा मरुदेवा शिखर मलधारी [गच्छ] ११३, ११५, ११८,
१२७, १३० मल्लवादी [सूरि] २, २१, २२, २३
१०९, ११० महणदेवी
१०१,११७ महणसिंह महणीक (का) महमदसाहि महाकाल महाकालप्रासाद महानगर महामहविजय [काव्य] महाराष्ट्र [ देश, जनपद] ४३, ६१, ६२,
६४, ६६, ६७, ९१,
१०९ महालक्ष्मी [देवी] महालक्ष्मी देवी भवन । महालक्ष्मी प्रासाद महाविदेह [क्षेत्र]
१२८ महावीर प्रासाद महावीर बिम्ब महीतट [देश]
१३१
१३१
د
भगदत्त नृप भट्टमात्र महि
२६ भद्रबाहु भद्रा [श्रेष्टिनी] भद्रेश्वर [वेलाकूल] ९५, १०४, १०६ भरत [खण्ड, क्षेत्र] १, २, ५३ भरत [नृप, चक्री] ३२, ३८, ४८ भाद्रबाहवी संहिता भारतवर्ष भारती [देवी] १,५९, ६१, ७२ भार्गव भीमदेव [१] [चौलुक्य] ९०, १०१ भीमदेव [२] भीमदेव (राण) [डोडीयवंश्य] ५९ भीमसिंह
१०४-१०६ भीष्म भुवन मुनि
९-११ भूणपाल
१२६
ف لم
३७
»
K
.
७
5mm VV
४८
११३
१०७
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For Private & Personal use only
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________________
१२
प्रबन्धकोशे
४६
लक्ष्मी
.
.
महीधर महीपाल महूआक महेन्द्र [देव]
११, १३ महेन्द्रसूरि
१११ महेश्वरायतन
१२९ महोबक पुर [पत्तन] ९१, ९२ माऊ
४८ मागधतीर्थ माण्डलिपुर
११८ मातुलिङ्गीविद्या माधवदेव मानगजेन्द्र मायासुर
६९-७२ मारव
१०५, १०६ मालदेव
१२२ मालव [देश] १९,५३, ५९, ६७,
९०, ११, ९८, ९९ मालवीय मालवेन्द्र
११५ माहेचक
१०८
१०४
7
यशोभद्र [राणक] यशोभद्रसूरि
२, ४६, ५३ लघु भीम यशोवर्म
२७, २८ लघु भोजराज यशोवीर
१२३, १२४ लघु युधिष्ठिर यशःपटह [ हस्ती] याकिनी [साध्वी]
२४, २५
लच्छी युगादीश
१२८ ललितविस्तरा [ग्रन्थ ] युधिष्ठिर ४३,८३,८४, १११, ललि(ल)तादेवि
१०९,१२९ ११३ ललितासर यौगन्धरायण
१२३ लल्लश्रेष्ठी
लवणप्रसाद १०१, १०२, १२५
लवणसमुद्र रङ्क वणिक्
लाट [देश]]
२३ रणसिंह
लीलादेवी रत्र [ श्रावक] २,९३, ९४, ९५,
लीलावती ९७, ११४
लीलू रन्ति नदी
लाणिग रम्भा
लूणिगवसति
१२२, १२९ राजगिरि । राजगृहपुर
वइजल टक्कर राजशेखरसूरि
१३१ राजीमती गुहा
२,७५, ७८
वज्रकुमार रास ३६, ८१-८४, ९५
वटपद्र रामचन्द्र
वडूआ [ वेलाकूल]
१०८ रामसैन्य [प्राम
वत्स [ जनपद] रामायण
वत्सराज
९१, १२३ रावण
८३, ८४ वनराज
१०१, ११५, १२८ राशिल्लसूरि
वरदत्त राष्ट्रिक
१२२
वराहमन्दिर रुद्र
वराहमिहिर
२, ३, ४ वर्द्धनकुञ्जर
३५, ४७ रैवत [ क्षेत्रपाल]
वर्द्धमान [जिन] रैवत-क [ तीर्थ, पर्वत] ४२, ४३, ४७,
वर्द्धमानपुर
१०३, ११४ वर्द्धमानबिम्ब ९७, ११६, ११९, वर्द्धमानसूरि
१२८ १२०
वल भी [पुरी] रैवतक तलहट्टिका
२१, २२, २३ १२१ वल्लभराज
१०१ रोला-तोला [पर्वत] ९४, ९५
वसन्तवल्ली
वसुदत्ति(का) ८६, ८७, ८८ लक्षणसेन
२,८८-९० वस्तुपाल [मंत्री] २, ५०-६० १०१लक्षणावती ३०, ३३, ३६, ३७,
१३० ८८-९० वस्त्रापथ - लक्ष्मण
८२-८४, ९५ । चाक्पति [ कविराज] ३०, ३५-४०
१०९
५४, ९०,१०१
८४, ९६
मुरुण्ड मूलराज मृगावती मेषचन्द्र मेघनाद मेडतक मेदपाट मेरु मोजदीन सुरत्राण मोढ ज्ञाति मोढेर ... मोढेरक पुर] मोढेरवसहिका मोहमाया मौर्यवंश
११.xm
१६
रेवा
११७, ११८, ११९
२६, २९,३४, ३७,
८४५.४१
१९
यदुवंश यमुना यवन यशोधर्म
११६ ५४, ८७
११७
३७
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________________
विशेषनाम्नां सूचिः।
विष्णु
५७
१८
११३
७. ७७
२०
2:
१२५
वागडदेश बाग्भट [मंत्री] वाचक [बिरुद] वाजा [ ज्ञाति] वात्स्यायन
३७, ३८ वामन वामनस्थली ६२, १०३, १०४ वामा वायट [नगर, महास्थान] ७,८, वायटगच्छ वायुदेवता वाराणसी
५४, ८८, १३० वाराहसंहिता वारू वालाक वालि वासवदत्ता वासुकि [ नाग] १३, १४, ८४, ८६ विक्रमकाल विक्रमसेन
७८,८१ विक्रमादित्य २,८, १५, १७,१८, मार्क १९, २०, २३, ४३,
६६,६८, ७४, ७८८२, ८४, १११,
१२४ विक्रमादित्यवर्ष ४५, १२१, १२७ विचित्रवीर्य विजयपुर विजयवर्मा विजयसेनसूरि
११३ विजया
२५ विजयादेवी
९३, ९४ विद्याधर
, [मंत्री] ८८, ८९, ९० विद्याधर गच्छ
, वंश विद्याधरेन्द्रगच्छ) विन्ध्याचल
८४, ८६ विमलगिरि [पर्वत] ४२, ४९, १२८ विमल दण्डनायक
१२१ विमलयशस् विमलवसति विमलामना विवाहवाटिका
विशालकीर्ति
शम्भु विषमादेवी
शराविका [ पर्वत]
५६, ११५ शाक्य विसेणा
शाकम्भरी
५०-५२ वीर [जिन]
शाखीन्द्र वीरद्वात्रिंशिका
शातवाहन वीरधवल ५८, ६१, १०१- शान्तनु १०९, ११२, ११५, शान्ति
3 ປີ १२०, १२४, १२५ शान्तिनाथ चरित्र वीरनारायण प्रासाद
शान्तिपर्व वीरम [नृप] १२४, १२५ शाम्बशिखर
११६ वीरमग्राम
१२४ शालतपस्वी वीरमोक्षवर्ष ।
शालिभद्र , [संवत्
शासनदेवता वीसलदेव ६२, ६३, १२४- शिलादित्य
२२, २३, ११७
शिव वीसलनगर
शिवभवन वृन्दावन
शिवपुराण
११३
शिवा वृद्धनगर
शीलवती वृद्धवादी [ सूरि] २, १५-१८
६८-७४ वृषभ [जिन ]
शेष नागराज वेणीकृपाण [बिरुद]
शैव वैरोट्या
५-७, ११, १२ । शोभनदेव [ सूत्रधार] १२२, १२४ श्यामल
५१, ५२ वैष्णव ६१, १२४ श्रावक प्रज्ञप्ति
२५ व्यवहार
श्रीकान्त व्याघ्रराज
श्रीदेवी
१२१
श्रीपर्वत शक
श्रीपाद
श्रीपाल [कवि] शक्तिकुमार
४८, ९३
श्रीमाता शङ्कर [सुर]
१२१ श्रीमाल पुर १०८,१०९
२५, २६, ४८ शङ्केश्वर
श्रीमालवंश शतक [ग्रन्थ ]
श्रीहर्ष [कवि]
२,५४-५८ २५
श्रुतकीर्ति शतानीक शत्रुजित्
श्रेणिक [नृप] २२, ४३, ४८, ११५ शत्रुञ्जय [ गिरि, तीर्थ ] १२, १४, २२,
श्वेताम्बर [संप्रदाय ] ३, ७, ९, १०, ११, २३, ४६, ४८, ४९,
२२-२६, २९, ३९, ८४,९४,९,१०१,
४०,४२,४३, ५०, १०९, ११४, ११६,
१०९, १२६, १२८ ११८-१२१, १२८,
१२९ षडावश्यक [प्रन्थ ] शत्रुञ्जय तलहट्टिका . ११४ । षोडशक [प्रन्थ ]
२५
२
ar
६४
५०, ५१
१२८
ur m
१२१
११३
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________________
.
सिंह
२५
४१
स संस्कृत [भाषा] सञ्जीवनीविद्या सण्डेर गच्छ सतारकपुर सदीक [ नौवित्तक] १०८, १०९ सपादलक्ष [ देश] ५१, ५२, १३१ सपादलक्षीय समरसिंह समराइच समराक [प्रतीहार]
१२५ समरादित्य चरित्र समुद्र विजय समुद्रसेन सम्प्रति [राजा]
१९, ४३ सरस्वती [देवी] सरस्वती [नदी] सरस्वती [साध्वी] सरस्वतीकण्ठाभरण [बिरुद] १११ सरस्वतीकण्ठाभरणप्रासाद सर्षपविद्या सहदेव
८४ सहस्त्रानीक सहावदीन सुरत्राण साङ्कलीयाली पद्या साङ्गण
१०३, १०४, १०७ साढक
१३१ सातवाहन २, १४, १६, ६७
७४,८४,८५,१११ सातवाहनक [ शाक] सामन्त
१३१ सामन्तपाल
१०५, १०६ साम्ब सारस्वतमन्त्र
" व्याकरण सारा सालवाहण] सालाहण साहणसमुद्र सितपट सिद्ध [राजपुत्र] सिद्धपाल सिद्धपुर
प्रवन्धकोशे सिद्धराज [ जयसिंह ] ४७,५४,९१,९२, | सोमदत्त
९३, ११५ सोमनाथ सिद्धर्षि २६ सोममंत्री
१०१ सिद्धसेन [ दिवाकर] २, १५-१९ सोमवर्मा सिद्धसेन गच्छ
सोमेश्वर [कवि] ५९, ६२, १०१, सिद्धसेनसूरि २६, २९, ३३
१०८, ११२, ११६, सिद्धिमण्डप
१२१, १२५, १२६ सिहि
सोमेश्वर [महादेव] ५८,६०, ६१
१२६, १२७ सोमादित्य [कवि] सिंहगुहापल्ली
७५, ७७ सौराष्ट्र
१०४ सिंहनाद
सौराष्ट्रिक सीता
७१, ८२, ८३
स्कन्दिलाचार्य सीमन्धर [जिन]
१२८ स्तम्भतीर्थ ४२,१०३,१०८,१०९, १२९ सीलण कौतुकी
स्तम्भन ,
स्तम्भनका सीसुला
१४, २३ स्तम्भपुर
११९,१२१ सीह
स्तम्भन "
१४, ५२, ८६ सुग्रीव ३६, ८३ स्तम्भनक,
१०९ सुधर्मा
स्थिरदेवी सुन्दर [ग्रामणी]
स्थूलभद्र सुन्दरी
स्वर्गारोहणप्रासाद
१२९ सुभगा सुभद्रा
हजयात्रा सुमङ्गलदेवी
११९ हडालाग्राम
१०१ सुयशादेवी
२७
हनूमान् सुरत्राण
१०, ८३, ८४ ५७, ५८ हरसिद्धिदेवी
७८ सुराष्ट्रा [देश] २२, ४२, ४७, ८४,
१०१, १०३ हरिभद्रसूरि
२, २४-२६ सुवर्णकीर्ति
हरिहर [ कवि] २, ५८-६१ सुव्रततीर्थ
हर्षपुरीय गच्छ
११२ सुस्थिताचार्य
२२, ७५ हारिभद्र ग्रन्थ
२५ सूक्तावली
हाल [नृपति]
७२, ७३ सूत्रकृत [ सूत्र]
हिमवान् [पर्वत] ७३, ११५ सूरपाल
२६, २७ हिमाद्रि सूरिमन्न
हीर विष सूर्यप्रज्ञप्ति [सूत्र]
हेम [ चन्द्र] सूरि २, ४७, ४८, ४९, सूहवदेवि ५७, १०९
५२, ५३, ९८ सेण
हेम विद्या सेडीनदी
१४,८५
हेमसिद्धि विद्या सोखू
१०९, १२९ हेमसूरिपौषधशाला सोह-मोद
हंस [ श्रेष्ठी] सोपारक
हंस परमहंस
११७
सुरधुनी
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________________ सिंघी जैन ग्रन्थ माला // मुद्रितग्रन्थाः // 1 प्रबन्धचिन्तामणि ( मेरुतुङ्गाचार्यविरचित) 2 पुरातनप्रबन्धसङ्ग्रह (प्रबन्धचिन्तामणि सम्बद्ध द्वितीय ग्रन्थ) 3 प्रबन्धकोश (राजशेखरसूरिविरचित) 1 विविधतीर्थकल्प (जिनप्रभसूरिविरचित) // सम्प्रति मुद्यमाणग्रन्थाः // 1 प्रबन्धचिन्तामणि हिंदी भाषान्तर 2 प्रबन्धचिन्तामणिसम्बद्ध ऐतिह्यसाधनसङ्ग्रह 3 प्रबन्धकोश हिंदी भाषान्तर 4 विविधतीर्थकल्प हिंदी भाषान्तर 5 प्रभावकचरित्र मूल और भाषान्तर 6 पुरातनसमयलिसित जैनपुस्तकप्रशस्तिसङ्ग्रह 7 कुवलयमाला कहा (उद्द्योतनसूरिकृता) 8 जैनशिलालिपिका (शिलालेख-ताम्रपत्रादिसङ्ग्रह) 9 जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह 10 Life of Hemachandracharya // मुद्रणार्थनिर्धारितग्रन्थाः॥ -1 कुमारपालप्रबन्ध (पुरातन) 2 वस्तुपालचरित्र 3 विमलमंत्रिचरित्र 4 सोमसौभाग्यकाव्य 5 धूर्ताख्यान (हरिभद्रसूरिकृत, प्राकृत तथा संस्कृत) 6 तत्त्वोपप्लव (जयराशिभट्टकृत) 7 हेतुबिन्दुतर्कवृत्ति (अलभ्य बौद्धन्याय ग्रन्थ) 8 आवश्यकचूर्णि (जिनदासमहत्तरकृत) 9 छन्दोऽनुशासन (हेमचन्द्रसूरिकृत) 10 तिलकमञ्जरी कथा (धनपालकविकृत) पत्रव्यवहार संचालक-सिंघी जैन ग्रन्थमाला भारतीनिवास, नं. 18. / पो. शांतिनिकेतन बअथवा अहमदाबाद (गुजरात) जि. बीरभूम (बंगाल) Published by Babu Rajendrasinha Singhi, for Singhi Jaina Jnanapitha, Vis'vabharati-Shantiniketan. Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbbat Lane, Bombay.