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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य। E प्रतिकी पत्रसंख्या ५७ है, और D की ६९ । इसके सिवा दोनों प्रतियोंमें और कोई विशेष भेद नहीं है। कहीं कहीं कुछ पाठ-भेद, जो शब्द या अक्षर अशुद्धिके कारण, दिखाई देता है वह पंडित मेघाकी अज्ञताका परिणाम है। . P प्रति.-पाटणकी हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावलीमें प्रकाशित, पोथीके आकार-ही-में छपी हुई १३८ पत्राङ्कवाली प्रति । यह प्रति वि० सं० १९७७ में छपी है। वीरचन्द्र और प्रभुदास नामक श्रावक पण्डितोंने इसका संशोधन किया है। संशोधनसे मतलब सिर्फ व्याकरणकी दृष्टिसे पाठको शुद्ध बना देना और उसे छपा देना इतना ही समझना चाहिए। इससे अधिक कुछ परिश्रम करना, एकाधिक प्रतियोंका मिलान कर पाठकी शुद्धा-शुद्धिका निर्णय करना, भिन्न भिन्न प्रतियों में प्राप्त पाठोंका संग्रह करना और उसे यथोचितरूपमें मुद्रित करना-इत्यादि प्रकारकी जो आधुनिक ग्रन्थसम्पादनकी शास्त्रीय पद्धति है उससे हमारा पुराणप्रिय पण्डित-मण्डल और साधु-समाज प्रायः अज्ञान है । अतः यद्यपि जैन समाजमें, पिछले कुछ वर्षोंसे, ग्रन्थोंके प्रकाशित करनेकी प्रवृत्तिका खूब उत्साहके साथ प्रसार हो रहा है, तथापि उक्त कारणसे, विद्वत्समाजमें उसकी प्रतिष्ठा जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं हो पाती और उसके अभावमें हमारे अनेकानेक असाधारण महत्त्ववाले ग्रन्थ-रत्न भी विद्वानोंका लक्ष्य आकर्षित नहीं कर सकते। अस्तु । यह P संज्ञक पुस्तक जिस पुरातन प्रतिके ऊपरसे मुद्रित की गई है, उसके अन्तिमोल्लेखको, संशोधक पण्डितोंने, जैसाका वैसा ही छाप देनेकी उदारता बतलाई है इससे उसके लिपिकर्ताका नाम-स्थानादिका पता लग जाता है। यह उल्लेख इस प्रकार है श्रीमत्तपागच्छे पं० सागरधर्मगणयः (।) तच्छिष्य पं० कुलसारगणयस्तेनैषा प्रतिः सम्पूर्णीकृता स्वपरोपकारार्थम् । मणूंद्रगामे लिखिता। एषा प्रतिर्वाच्यमानाविचलकालं नन्दतात् । ___ यह प्रति, उक्त अन्य सब प्रतियोंसे, कुछ विशेष पाठ-भेद रखती है । यद्यपि यह पाठ-भेद वैसा कोई विशेष मह स्ववाला नहीं है-प्रायः ग्रन्थकारके अध्याहृत शब्द, पद या वाक्यांशोंको उल्लिखित कर देनेवाला मात्र हैतथापि इसकी बहुलता अवश्य उल्लेखयोग्य है । इसका यह पाठ-भेद एक प्रकारसे प्रक्षिप्त-पाठात्मक हैं; और इसीलिये हमने इसको [ ] ऐसे चतुष्कोण कोष्ठकके भीतर रखा है। वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धमें इसकी विपुलता अधिक उपलब्ध होती है। ___v प्रति.-केवल वस्तुपाल-तेजःपालप्रबन्धवाली एक ९ पन्नोंकी प्रति हमारे निजके संग्रहमें है, जिसका उपयोग हमने उक्त प्रबन्धके पाठसंशोधनमें किया है। यह प्रति अच्छी और शुद्धप्राय है । इसका आलेखन सं० १४७७ में हुआ, ऐसा इस पुष्पिकालेखसे विदित होता है ___ संवत् १४७७ वर्षे पौषवदि १० भूमौ । सूर्यपुरे लिखितं ॥ छ । इस प्रबन्धके अन्तिम पृष्ठमें कुछ जगह खाली होनेके कारण, पीछेसे किसी दूसरेने, मंत्री वस्तुपालने जो जो सुकृत कार्य किये उनकी एक तालिका लिख ली है, जिसको हमने, प्रस्तुत पुस्तकमें, परिशिष्ट १ के रूपमें (पृष्ठ १३२ पर ) मुद्रित कर दी है। इस तालिकाके पृष्ठकी पिछली बाजू पर, जैन आगम ग्रन्थोंकी नामावलि लिखी हुई है और उसके अन्तमें इस प्रकारका पुष्पिका-लेख है- । . संवत् १४७९ वर्षे चैत्रवदि तृतीया शुक्रे श्रीसूर्यपुरे भट्टा० श्रीरत्नसिंहसूरिशिष्य पंडितराजकल्लोलगणिना लिखिता ॥ श्रीः॥ इससे ज्ञात होता है कि उक्त वस्तुपाल प्र० लिखे जानेके २ वर्ष बाद, पंडित राजकल्लोल गणिने वस्तुपालकी यह सुकृतसूचि लिखी है । यह सूचि बहुत अंशोंमें तो उस सूचिसे मिलती-जुलती है, जो राजशेखर सूरिने प्रबन्धकोशके आखिरी भागमें दी है। पं० राजकल्लोल गणिकी लिखी हुई सूचि, जैसा कि उसके प्रारंभके उल्लेखसे ज्ञात होता है, बस्तुपालके बनवाये हुए सोपारा ग्रामके आदिनाथके मन्दिरमेंकी प्राकृत प्रशस्ति परसे लिखी गई है । अतः उसकी ऐतिहासिकता निस्सन्देह प्रमाणभूत मानी जा सकती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016085
Book TitlePrabandh kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajshekharsuri, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Gyanpith
Publication Year1935
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size15 MB
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