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प्रबन्धकोश
सम्वादक कुछ उल्लेख आया है। और वहां पर, विशेषमें, एक पुरातन प्राकृत गाथा उद्धृत की हुई है जिसमें कहा गया है कि-संवत् ९९० में रत्नने रैवतगिरि पर कांचन भवनसे लाकर मणिमय बिंबकी स्थापना की । इन दोनों उल्लेखोंके
अतिरिक्त राजशेखर सूरिको, शायद और भी कोई आधारभूत ग्रन्थ या प्रबन्ध, इस प्रबन्धकी रचनामें रहा हुआ हो। ६८. प्रबन्धकोशकी रचना-शैली
जैसा कि खुद ग्रन्थकार लिखते हैं, प्रबन्धकोशकी रचना. खास करके मुग्धजन-साधारण पठित वर्ग-के अवबोधके लिये की गई है और इस लिये इसका ग्रन्थन 'मृद्' अर्थात् सरल और सुबोध ऐसे गद्यमें किया गया है। एक मल्लवादिसूरि-प्रबन्ध पद्यमें बना हुआ है-जो शायद किसी अन्य ग्रन्थमेंसे तद्वत् उद्धृत कर लिया गया मालूम देता है-परंतु उसका पद्य भी वैसा ही सरल और सुगम है।
संस्कृत साहित्यमें इस प्रकारकी गद्य रचना बहुत कम मिलती है । इसके पहले, पुराने समयमें, ऐसे ग्रन्थ प्रायः पद्यबन्ध रचे जाते थे । पुराण, कथा, चरित इत्यादि ग्रन्थोंकी रचना विशेषतया पद्य-ही-में होती थी। पुराने कई जैन प्रन्थकार, जिन्होंने सूत्रात्मक और उपदेशात्मक ग्रन्थोंकी जो गद्यमय व्याख्याएं अथवा टीकाएं बनाई हैं, उनमें भी जहां कोई कथाका प्रसंग आगया तो उसे प्रायः पद्य-ही-में लिखना उन्होंने पसंद किया है। गद्यमें जो ऐसी कोई कथा, आख्यायिका आदि रची जाती थी तो वह काव्यात्मक-उपमा आदि अलङ्कारोंसे परिपूर्ण कवितास्वरूप-होती थी। उसमें कथा या चरितकी सामग्री गौण होती थी-वर्णन और विवेचनकी अधिकता ही उसमें मुख्य रहती थी। कथा, चरित आदिकी वस्तु जिनमें अधिकतया गुम्फित की जाती थी ऐसी पद्यरचनाएं भी प्रायः पाण्डित्यपूर्ण पद्धतिसे बनाई जाती थीं । ग्रन्थकारोंका लक्ष्य, हमेशाह, अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करनेकी और अधिक रहता था; और, ग्रन्थरचनामें जहां कहीं उनको मौका मिल जाय वहां वे अपनी विदग्धताका परिचय देने के लिये उत्सुक रहते थे। इसी ग्रन्थका उपर्युक्त कुछ कुछ आदर्शभूत ग्रन्थ, प्रभावकचरित, वैसी ही एक पाण्डित्यपूर्ण रचना है । वह सम्पूर्ण प्रन्थ पद्यमें है । अनुष्टुप् छन्दके सिवा और भी कई छन्दोंका उसमें प्रयोग किया गया है । यद्यपि उसमें कहीं काव्यकी कोई सामग्री नहीं है, तथापि उसकी रचना-पद्धति काव्यके ढंगकी है। उसके कर्ताका उद्देश मुग्ध-जनोंको अवबोध करानेका नहीं है; लेकिन विदग्ध-जनोंको अपनी विद्वत्ताका आस्वाद करानेका है । मेरुतुङ्ग सूरिने इस लक्ष्यको कुछ बदला है और बुद्धिमान् वर्गको भी सुखसे ज्ञानप्राप्ति करानेकी इच्छासे उन्होंने अपना पूर्वोक्त प्रबन्धचिन्तामणि ग्रन्थ गद्यमें बनाया है । मेरुतुङ्गकी रचना-प्रणालि यद्यपि प्रासादिक और सुललित है तथापि वह प्रस्तुत प्रबन्धकोशके कर्ताकी शैलीकी जितनी सुगम और सरल नहीं है। वह समास-बहुल होकर कुछ संक्षिप्त-स्वरूपात्मक है। उसका विषय काव्यमय न होने पर भी उसकी भाषा कुछ पुरातन गद्य-काव्य ग्रन्थोंका अनुकरणाभास कराती है। उसकी वाक्य कहीं कहीं जटिल-सी मालूम देती है । प्रबन्धकोशकी रचना एकदम सरल, सुगम और बोलचालकी भाषाकी तरह सीधी-सादी है। इसके वाक्य बिल्कुल अलग अलग और छोटे छोटे हैं। इसमें न कोई वैसी समस्त-शब्दोंसे लदी हुई लम्बी पंक्तियां हैं, न कोई दूरान्वयवाली वैसी कोई दुरवबोध उक्तियां हैं। न अल्पाभ्यासीको अपरिचित ऐसे शब्दोंकी कोई समधिकता है, न क्रियापदके कठिन रूपोंकी भरमारसे कोई क्लिष्टता है । प्रायः सारी कृति कर्म-उक्तिप्रधान है। संस्कृत भाषाका थोडा-सा भी अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी इसको सुगमतासे पढ-समझ सकता है। संस्कृतके प्रचलित कोशोंमें नहीं मिलनेवाले और देश्य भाषाकी सन्तति समझे जानेवाले ऐसे शब्दोंका भी कचित् व्यवहार ग्रन्थकारने निस्सङ्कोच होकर किया है-जिसको शायद संस्कृतके पुराणप्रिय पण्डित लोक, अपशब्द भी कह बैठें। परंतु हमारे मतसे इसमें कोई आक्षेपयुक्त बात नहीं दिखाई देती। हम तो इसको एक प्रकारसे भाषाके जीवनको पोषण करनेवाली बडे महत्त्वकी बात समझते हैं। सरल और सुगम संस्कृत-रचना करनेवालोंके
* पुरातनप्रबन्धसंग्रह, पृष्ठ ९७, प्रकरण २१९, पद्याङ्क २९९.
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