Book Title: Mansollas Satik Part 01
Author(s): Bhulakmalla Someshwar, G K Shrigonderkar
Publisher: Oriental Institute
Catalog link: https://jainqq.org/explore/034204/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૭૬ માનસોલ્લાસ-૧ : દ્રવ્ય સહાયક : પૂ. આ. શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા. સમુદાયના પૂ. આ. જગશ્ચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી અભયચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી શ્રી ધર્મનાથ શેઠ પો.હે. મૂ.પૂ. જૈન સંઘ જૈન નગર શ્વે. મૂ. પૂ. જૈન સંઘ, પાલડી, અમદાવાદના જ્ઞાનદ્રવ્યમાંથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૬૯ ઈ. ૨૦૧૩ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार પૃષ્ઠ ___84 ___810 010 011 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी | पू. विक्रमसूरिजी म.सा. 238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी | पू. जिनदासगणि चूर्णीकार 286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम् | पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२ श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 162 | 012 | काश्यशिल्पम् श्री विनायक गणेश आपटे 302 प्रासादमजरी श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र श्री नारायण भारती गोंसाई 352 | शिल्पदीपक श्री गंगाधरजी प्रणीत 120 | वास्तुसार श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા 498 | जैन ग्रंथावली श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१ श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१ पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा. 452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ श्री एच. आर. कापडीआ 500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह श्री बेचरदास जीवराज दोशी 454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः | श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य 188 | 027 | शक्तिवादादर्शः | श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री 214 | क्षीरार्णव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर श्री प्रभाशंकर ओघडभाई ___192 013 454 226 640 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ (?) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२) (૩) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम विषय | भाषा पृष्ठ पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ | संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी 181 | संस्कृत 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३ 330 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२ ___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव 248 504 संस्कृत पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला 448 188 444 616 190 632 | नारद 84 | 244 श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192 जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया संस्कृत हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर 446 |414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी 409 476 सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ 444 संस्कृत संस्कृत/गुजराती श्री डी. एस शाह | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219 प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220 | समासवादार्थ, वकारवादार्थ) | बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221 __ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता संस्कृत महादेव शर्मा 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 विविध कर्ता । संस्कृत | महादेव शर्मा 78 महादेव शर्मा 112 विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत महादेव शर्मा 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gaekwad's Oriental Series Published under the Authority of the Maharaja Sayajirao University of Baroda. General Editor: B. J. Sandesara, M.A., Ph.D. No. 28 Government of India Sanskrit Book Re-print Series भूलोकमल्ल-सोमेश्वर-विरचितः मानसोल्लासः। [द्वितीयप्रकरणान्तः प्रथमो भागः।] Aho ! Shrutgyanam Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho! Shrutgyanam Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MĀNASOLLĀSA OF KING BHOLOKAMALLA SOMEŚVARA Vol. I Edited by G. K. SHRIGONDEKAR, M.A., Late-Superintendent, Manuscripts Section, Oriental Institute, M. S. University of Baroda, Baroda & Sanskrit Librarian, Central Library, Baroda. सत्याशिवं सुन्दर Oriental Institute Baroda 1967. Aho ! Shrutgyanam Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition : 1925 Second Edition (Reprint ): 1967 Copies : 500 Published with the financial assistance of the Ministry of Education, Government of India. Reprinted by photo offset process at the Perfect Colour Printers, Modikhana, Baroda for Ramanlal J. Patel, Manager, The Maharaja Sayajirao University of Baroda Press (Sadhana Press ), Near Palace Gate, Palace Road, Baroda and published on behalf of the Maharaja Sayajirao University of Baroda by Dr. Bhogilal J. Sandesara, Director, Oriental Institute, Baroda, August, 1967. Price Rs. 16:00 Copies can be had from : The Manager, UNIVERSITY PUBLICATIONS SALES UNIT, M. S. University of Baroda Press (Sadhana Press ), Near Palace Gate, Palace Road, BARODA, Aho ! Shrutgyanam Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD (Second Edition ) The first volume of the Gaekwad's Oriental Series, viz., the Kāvyamimamsā of Rājasekhara, was published in 1916, and after that, more than 150 volumes are published in the Series, and a number of others are in the press or under preparation, Meanwhile many works published earlier have gone out of print, and it was necessary to reprint as many of them as possible. It has, now, become possible to reprint, at least a few such texts with the help rendered by the Ministry of Education, Government of India, under their scheme to republish out of print Sanskrit works. Mānasollāsa, Vol. I, was one of the works selected for reprint under the scheme. The authorship of the Mānasollāsa is ascribed to Someśvara, the famous ruler of Karnātaka. The work was edited by the Late Shri G. K. Shrigondekar, Ex-Superintendent, Manuscripts Section, Oriental Institute, Baroda. The first volume was published in 1925 as no. 28 of the Gaekwad's Oriental Series, and other two volumes were out subsequently. Mānasollāsa is a veritable encyclopaedia in Sanskrit, and its importance for the study of cultural conditions of mediaeval India is self-evident. Its first volume was long out of print, and I trust that the same, along with other reprints of several numbers of the series to be brought out in near future, will be useful to all students of Sanskrit literature and Indology. I take this opportunity to thank the Ministry of Education, Government. of India, for giving generous financial aid towards the publication of this volume. Oriental Institute, Baroda, June 21, 1967 B. J. Sandegara Director Aho ! Shrutgyanam Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aho ! Shrutgyanam Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE. The first instalment of the long-announced Mānasollāsa, otherwise known as the Abhilaṣitärthachintāmaṇi, which purports to have been composed by the great Western Chalukya King Bhülokamalla Someśvara, son of Vikramā. ditya VI, is now offered to the public. It is a voluminous work, extending to about 8000 Granthas, and is divided into five Vimsatis, each containing 20 Adhyâyas or chapters of unequal length, some chapters again including several subsections. The whole work is thus divided into one hundred chapters, dealing with one hundred different topics on the necessities and written for the instruction of the members of royal families. The first volume represents two among the five Vimsatis, and comprises 40 Adhyayas or chapters. The present edition is based on the following five MSS: A. Belonging to the BARODA CENTRAL LIBRARY. It is a complete press-copy prepared with the help of three MSS. B. Belonging to the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona. It contains 109 leaves and is, though incomplete, a very good copy. C. Complete, though recent. D. Complete, written in Saka 1592. Leaves are very brittle and the MS requires very careful handling. It offers good readings. Aho! Shrutgyanam Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi E. Incomplete; in the middle about 50 leaves are wanting. It is older than D. On the last leaves the ink has faded. The last three MSS belong to the Bikaner Durbar. The authorship of the Mānasollāsa is attributed, in the 9th śloka on page 2 and the colophon, to the Chalukya King Someśvara, surnamed Bhūlokamalla and Satyāśrayakulatilaka. A reference to sloka 371 on page 62 will, however, make it evident that this attribution is incorrect. In this sloka Somesvara is himself made the standard of comparison, and no anthor would be guilty of so flagrant a piece of vanity. It is therefore probable that the book was composed in his Court by some prodigiously learned and well-informed man, thoroughly acquainted with the royal household, royal necessities and royal whims.* King Someśvara is the son of Vikramāditya VI, and belongs to the line of the Western Chalukyas whose capital was at Kalyāni. Aufrecht in his Catalogus Catalogorum fixes the period of his reign as 1127-1138. In Barnett's Antiquities of India the date is 1126-1138. The date of composition of this work seems to be 1052 Saka ( 1131 A. D.) as the sloka 01 on page 34 while giving the Dhruvāuka mentions Friday as the first day of the month of Chaitra when the Śaka year 1031 had elapsed. * Another work nttributed to him is the Vikra månkabhyadaya, an incomplete M$ of which appears in one of the Pattan Bhandars, Farther details of this MS with be given in oar Pattan Catalogue which is in course of preparation. Aho ! Shrutgyanam Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vii It is generally believed that Someśvara ascended the throne in A. D. 1127; but the inscription recording the grant of land made by Mabāmặdaleśvara Mârasimhadevaraga to the temple of Māņikyadeva containing an image of Ekaśāleya Paršvanātha in the 6th year of the reign of Someśvara Bhūlokamalla in the year Saka (1052 corresponding to A.D. 1130-31) shows that the date of his accession cannot be 1127; it must be 1124-23. The real date of Someśvara's accossion therefore is a matter of controversy which may better be left in the hands of the historians and antiquarians for solution. The date of acoession, whether 1124 or 1127, does not, however, materially come in conflict with the date given as Dhruvanka in the Mānasollāca already mentioned. Some echolars are under the impression that A. D. 1127 is the date of composition of the Mānasollāsa. But this appears from the above, and also from other considerations, to be incorrect. Someśvara ascended the throne, as is commonly believed, in 1126 or 1127. It is quite natural that a king in those days should require a few years for getting himself firmly seated on the throne, and for waging wars with neighbouring countries, which gezerally gave trouble when a kingdom changed hands. It seems therefore probable that the date given as Dhruvanka, referred to above, is the real date of composition. Somebvara - seems to be a powerful ruler, but very little is known of his personal history. A few inscriptions were recorded during his reign but the information yielded by them is but meagre. What his religion was, it is difficult to ascertain. Here in the beginning his book opens with an obeisance to all the impor Aho ! Shrutgyanam Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viii tant deities of the IIindu Pantheon, namely, Gaņoša, Šiva, Vi. sņu, Brahmã, Indra, etc. The very first śloka refers to Gaņe. śa, but we shall not be justified in calling him a Saiva, because it is customary with authors of all sects to be. gin with an obeisance to Gaņeśa as the bestower of perfeotion and the remover of obstacles. The grant of Mabāmandalesvara Márasimbadevarasa already referred to further makes us believe that Jainism was also encouraged in bis time. Our conclusion therefore is that Someśvara also displayed the usual liberalism of Indian monarchs. Tlae sloka 105 on page 11 furthor strengthens this conclusion. The Mânasollaba is written in Anustubh metre, with occasional prose passages introduced in the middle. Its language is easy but florid. The work treats of many subjects and gives the maximum information in the minimum space. The work is designated by the author as the marardgeni, or a book which teaches the world, and the scope of the book is so extensive that it can rightly claim that epithet. An idea of the different subjects dealt with can be obtained form the table of contents; but we will mention here only a few interesting features among many that may be found in the book. It may be remembered that Someśvara was an orthodox Hindu king and the picture presented in his Mãnasolinea is of the glories, pomps and paraphernalia of a purely Indian court and royal household. The Western Chālukyas were never known to have been contaminated by the Mubam. madan civilization, as they, it is believed, had been destroyed by the Hoysalas. In this work sometimes the author gives even minute Aho ! Shrutgyanam Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dbtails like fauncey as ( on gfafèrera in ferqafuara p. 9. ) etc. and TSICOT ( p. 70.) and sometimes be omits the things that are really required, 0. g., T&T arti eto. (p. 106, bl. 860) where the word Tară is not explained. The meanings of such words, however, may be found in other books like Vasantaraja sākuna. Among the two Vimsatis contained in this volume, the first, generally speaking, describes the requisite qualifi. cations and necessities of an ambitious king who desires to obtain and extend his dominions. The second Vimsati mainly gives the ways and means of making the position of the king secure. The first Vimšati while dealing with the virtues of a king makes the Tîrtbasnina an ituperative necessity. In the Tirthasnānādbyāya the author mentions several Tirthas, namely, Suklatîrtha*, Vañjarāt, Bhinarathi, Venya, the tributaries of the Kraņā, etc. such as may reasonably be known to looal poople. He does not however mention Paşkara near Ajmor, which is one of the greatest Tirthag. The mention of the Tāpi river along with the famous and mighty rivers, Ganges, Yamunā, Narmadā, Gautamî, in the same sloka shows that the author could not shake off the local influence while speaking of * This may be one of the Narmadā nour Broach or anothor of the pame name of the Godavari. † The modern Mafijra in the Nizam'a dominions also known as Garuda Gangā or Garutmatt, a tributary of the Godāvari. ( 886 the 90th. Adhyâya of the Cautamt Mahatmaya in the Brahms Parana ). Aho! Shrutgyanam Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ India in general. The omission of the Kāveri is worth notioing. It is probable also that in this particular he has followed the Brahma Parāṇa which also mentions the rivers in the same strain.* The three slokas treating of Jvara (p. 18, śl. 188-190) are taken from an earlier work on medicine lvy Vāgbhaça, but the other slokas have not been traced so far. In this Adhyāya and in the Adhyāyas of Asvavaidyaka and Gajacikitsă it is worth noting that all the medicines mentioned are those propared from medicinal plants. There is no mention of Bhasma, etc or medicines prepared from métals like iron, gold, etc. In the first Vimsati the longest is the 19th Adbyāya called the Dinānāthabandhubhrtyaposaņādbyāya. Here the necessity of appointing excellent physicians and free distribution of medicines is omphasized. Someśvara might have realized that people must necessarily love a king who takes care of them when they are in distrese. The second Vimsati opens with an enumeration of the necessary qualifications of the king. Rasāyana comes next to make the king healthy and strong. Then he mentions the different officers required for the State, along with their requisite qualifications. Among the qualifications of the royal cook, one is Asambhedya ( who cannot be bought over by the King's enemies ) and the other is Kţtānnasya Parikşaka ( able to examine carefully the king's See blokas 33 and 34 of the 1st Adhyāya of GautamiMāhātmya in the Brahma Parāna: Anandasrama editio p. 190. Aho ! Shrutgyanam Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ king is perpetually food ). This shows that the life of a in danger. The line fastoor T ITÀ: offcar: gratar: (p.43 śl. 186.) indirectly shows that the author was well acquainted with the fact that people of the clerical profession are inclined to barass the public. It is quite possible also that he followed the previous writers on Niti (atfa) in this respect. On page 44 be fixes one-sixth of the produce of corn as the highest royal due, though in some cases it is made one-eighth or one-twelfth as a concession. The tax depends however on the productivity of the land. He fixes also one-sixth tax on honey and ghee, but does not formulate any taxation on other kinds of produce except to mention that a fruit graden is to be taxed according to its yield. In those days the night of the king was calculated according to the number of elephants which he possessed. Hence the author mentions the forests which are the haunts of elepbants, and minutely describes the varieties of the species and formulates ineans to catch them, train them, and make them fit for war. It is believed by the writers on elephants that the elephant is a faithless animal, but our author does not subscribe to that opinion. The only kind of elephant which is faithless is the Sarpasattva wbile the rogue elephants come under the category of Paiśācasattva and Rāksasasattvasanudbbaya. The code of words viven here for the training of elepuants must bave been in use in those days in Mabārāstra and Guzerat, as is evident from words such as 74, 79, va, Aho ! Shrutgyanam Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kli eto, but the code is different from the one that is now in use either at Baroda or Kolbapur. The elephant, though naturally timid in disposition, is able to destroy men in war if properly trained. The last lesson received by the elephant is how to destroy men ( faftig anafor p. 186, sl, 1194). In this book no less than five methods of catohing elephants are given. One of them is Vāribandha, which corresponds to the well-known Kheddah operations. A mention of this in Mānasollāsa shows that the method was in vogue in those days, but was afterwards forgotten, as may be seen from the following lines of G. P. Sanderson in his “ Thirteen Year among the Wild Beasts of India pp. 101 and 103. " Some of the Maharaja's mahouts who were amongst my following had been accustomed to catch single elephants with trained females, and in pitfalls, but they had never heard of any one attempting the cap. ture of a whole herd. It was said that Hyder bad made a trial, a centnry before, in the Kakankote jungles, but had failed, and had recorded his opinion that no one would ever succeed and his curse upon any one that attempted to do so, on a stone still standing near the scene of bis endeavours. Consequently all the true Mussulmans who were with me regarded the enterprise as hopeless, though they judiciously kept that opinion to themselves.” (p. 101) I was determined to make the scheme succeed if possible, not only from my love of adventure and the necessit.y for executing what I had suggested to Aho ! Shrutgyanam Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiii Government and undertaken to carry out, but from the desire to prove to several officers who considered the scheme to be the vision of a lunatic, that their croakings were rather the utterances of Bedlamites. Pleasantries appeared in the Bangalore papers regar ding the probable effects the Kheddah operations would have on the price of salt, which it was represented was being laid in by me in large quantities for application to the caudal appendages of any elephants I happened to meet with ". (p. 103) The author Someśvara mentions I elephant first. This is the only kind of elephant which is described as completely white (it). Modern writers on elephants say that no such elephants are found: " "I have never myself seen a really white one, nor have any of the experienced native bunters whom I have met xxx Regarding the white elephants of which we read as forming the most cherished possessions of the King of Ava, I am unable to give any information ". Sanderson p. 85. "Occasionally so called white elephants are met with, which are really albinos, the dark pigment being absent from a larger or smaller area of the skin; in Burma and Siam such albinos being highly valued and considered as sacred or royal animals " (Royal Natural History, by Lydekker Vol. II, p. 529.) Aho! Shrutgyanam Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xiy This kind of elephant may be गौरश्यामातनोश्छवि: mentioned on page 50, śl. 228. This is no doubt auspicious as it leads to victory. But this is not the white elephant described by Someśvara as fait. The autbor following previous writers might have mentioned various things, of course, which he never saw. Two short sub-adhyāyas viz: Nidhi and Dhatuvāda, Rasāyana in this book ( pp. 69-61 and 63-64 ) are extre mely interestiny. Enriching the Government treasury by the practice of alchemy is really astonishing. Not only ordinary people were keen on alchemy but Rajus and Maharajas also had recourse to such methods. Where pearls and various kinds of gems are treated of, their defects also are not omitted, and mention is made of the devastating results of possessing such defective pearls and gems. On page 61, śl. 426 Someśvara says that in this Kali-age pearls such as are found in oyster shells only are available. But he enumerates eight different sources of pearls, some altogether mythical, following portaps the tradition of previous writers. In this connection he does not rest content with mentioning the sources only, but also minutely describes the kind of pearls produced from each source. He says in one place (p. 71 śl. 471) that the king should not wear pearls which weigh more than two Kālañjas (equal to 60 Gunjas) On page 79 things worth storing in a fort are mnen. tioned. In lokas 551 to 555 the author deals with the necessity of keeping in stock stones and sand, serpents in eartben pots, Aho ! Shrutgyanam Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XV and lions fixed to some convenient spot, and in fact, everything that may cause havoc in an hostile army. On page 80, sloka 561, we see the author advising kings not to put faith in the army formed of enemies, men, and not to allow them near his presence. He further advises that an army of this kind should always be put in the front in the event of war. While referring to horses, Someśvara uses the word Yavanodbhuta, by which are meant probably the Arabian horses. It appears that in his time horses from Sind, Arabia and the Kamboja countries were famous. Among these the Arabian horses have maintained their reputation even now. He seems specially inclined towards the elephants of the Kalinga forests (fʊraadwa p. 136, sl. 1194.). He has also treated of the medicines to be administered to horses and elephants. On page 86 and 87 the description of fever in elephants etc is worth noting. There is no mention however of any medicine for fever in the case of elephants. In the Vasantarāja Sakuna it is mentioned that there are five jewels among the Sakunas:— पीतको भषण - काक- पिङ्गला-जम्बुक प्रियतमा च पश्चमी । एतदत्र मुनिसत्तमैः सदा कीर्त्यते शकुनरत्नपञ्चकम् ॥ ( अर्चना विधिप्रकरण 13 ) Among them the Potaki is the chief. The sloka runs thus: यतोऽखिलैः mgamafa: यामोदिता सर्वविहङ्गमानाम् । धानभूता X X X X X Aho! Shrutgyanam (op. cit. p. 93) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xyi All the five jewels are treated in this book. Sakunas like the Upašruti are also mentioned. It may be pointed out in this connection that while giving the names of the Svaras of Pingala we considered it safer to follow the Vasantarāja Sakuna as all the different MSS have different and probably incorrect readings. The chapters on polity give complete though sucoinct information about the royal policy. The three Upāyas also are briefly treated, but the fourth, viz. Daņda is dwelt on at greater length. It treats of the Caturasra Koțaoakra and many other things dealing with astrology. It shows how the army should stand And how the kings, princes and other officers of tbe state should be posted. In the end the author steaks of Courts of Justice. We take this opportunity of recording our cordial thanks and deep gratitude to His ExcELLENCY SIR MANUBHAI N. MEHTA Kt, C.S.I., M.A., L.L.B., Dewan Saheb of Baroda, for the keen interest he takes in the Series, and for the kind help rendered to us by obtaining a loan of the three Bikaner Durbar MSS on his personal responsibility. Our thanks are also due to the Bikaner Durbar for their courtesy in lending us these MSS; to the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona, for giving the loan of their MS; and to Pandit LB. Gandhi of our Library for løsistance rendered by him in many directions, such as collating MSS, leading proofs, eto. BARODA, September 19, 1926.} G. K. SHRIGONDEKAR. Aho ! Shrutgyanam Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमत्रिंशतिः असत्य वर्जनाध्याय: ( १ ) परद्रोहवर्जनाध्यायः (२) अगम्यावर्जनाध्याय: ( ३ ) अभक्ष्य वर्जनाध्यायः ( ४ ) असूयावर्जनाध्यायः (५) पतितसङ्ग वर्जनाध्याय: ( ६ ) क्रोधवर्जना ध्यायः ( ७ ) स्वात्मस्तुतिवर्जनाध्यायः (८) दानाध्यायः (९) प्रियवचनाध्यायः (१०) इष्टापूर्वाध्याय: (११) अनुक्रमणिका. गोविप्रतर्पणाध्याय : ( १३ ) पितृतर्पणाध्याय: (१४) अतिथिपूजनाध्याय: ( १५ ) गुरुशुश्रूषणाध्यायः (२६) तपोऽध्यायः (१७) तीर्थस्नानाध्यायः (१८) दीनानाथ बन्धुभृत्यपोषणा ध्यायः (१९) शरणागतरक्षाध्याय: ( २० ) द्वितीयविंशतिः स्वाम्यध्यायः (१) राजगुणाः रसायनम् ४ 19 19 ६ 13 " अशेषदेवताभक्त्यध्यायः (१२) १० ११ " " 11 10 १२ 19 १३ "" २८ २९ 39 अमात्याध्यायः (२) मन्त्रिलक्षणम् पुरोहितलक्षणम् पञ्चाङ्ग निर्णय: गणितम् कोशाध्यक्षगणक लक्षणम् प्रतीहारलक्षणम् सान्धिविग्रहिकलक्षणम् लेखक लक्षणम् सारथिलक्षणम् ज्योतिर्विद्रणकलक्षणम् ३६ ३७ सेनापतिलक्षणम् धर्माधिकारिसभाध्यक्षलक्षणम सूदलक्षणम् वैद्यलक्षणम् अन्तःपुररक्षककुमारप रिचारक लक्षणम् राष्टाध्यायः (३) राष्ट्रपालन विवेकः करादानविवेकः देशजनरक्षा गजवन विभाग लक्षणम् वारिबन्धः वशाबन्धः अनुगतबन्धः आपातबन्धः अवपातबन्धः ३३ ३४ Aho! Shrutgyanam "" د. 23 ४० " "" رو ४१ " 39 ૨ ४२ ४४ "" " ४५ ४५ ४७ ४८ ४९ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज शुभलक्षणम् गजजातिभेदलक्षणम् गज शिक्षा निरूपणम् निधिः कोशाध्यायः (४) धातुवादरसायनम् दोषगुणाः मौक्तिकपरीक्षा तुलालक्षणम् Alfredोलन मूल्य विन्यासः पद्मरागपरीक्षा इन्द्रनीलपरीक्षा मरकत परीक्षा स्फटिकपरीक्षा पुष्परागपरीक्षा परीक्षा गोमेद परीक्षा विद्रुमपरीक्षा रत्नपरीक्षा दुर्गाध्याय: ( ५ ) नवविधदुर्गलक्षणम् बलाध्यायः (६) पदातिलक्षणम अश्ववैद्यकम् गज चिकित्सा जौषधि निघण्टुः सुहृदध्यायः (७) प्रभुशक्त्यध्यायः (८) xviii ४९ ५० ५४ ५९ ६३ ६४ ६७ ७० " ७१ ७३ ७४ ७५ ७६ " "" " " ७८ ७९-९० ७९ ? ८५ ९० ९१ मन्त्र शक्त्यध्यायः ( ९ ) उत्साहशक्त्यध्यायः (१०) सम्ध्यध्यायः (११) विग्रहाध्याय ः (१२) यात्राध्याय: (१३) यात्राभेदाः सर्व दिक्षाणि वारशूलम् ऋक्षदोषवारणानि नक्षत्र दोहदम् अमङ्गलानि शकुनानि मङ्गलप्रदानि शकुनानि शकुनान शिवापल्लीका शकुनानि पोतकीशकुनम् पिङ्गलाशकुनम उपश्रुतिशकुम आसनाध्याय: (१४) आश्रयाध्यायः (१५) द्वैधीभावाध्यायः (१६) सामाध्यायः (१७) भेदाध्यायः (१८) दानाध्याय: (१९) दण्डध्यायः (२०) योगिनीचक्रम् सैन्यरचना लक्षणम् दण्डभेदाः breeारपदानि Aho! Shrutgyanam ९२ ९४ 95 ९५ ९६ ९७ ܘܘܐ १०१ 19 १०२ " १०३ १०४ १०५ १०७ ११२ ११३ ११५ " ११७ ११८ १२० १२२ १३२ १३७ १४१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसोमेश्वरभूपतिविरचितो मानसोल्लासः । अभीष्टफलदं सिद्धिसिद्धमन्त्रं गणेश्वरम् । कर्णताला निलोद्धृतविघ्नतूळलचं नुमः ॥ १ ॥ संवत्सखी जयत्येका काऽपि शुद्धा सरस्वती । यया स्वतः प्रर्बुद्धानां प्रकाशोऽतिप्रकाश्यते ॥ २ ॥ वन्दे भवलताबीजं लिङ्गरूपं महेश्वरम् । स(अ) व्यक्तमपि सुव्यक्तं यस्यान्तः सचराचरम् ॥ ३ ॥ कृष्ण कृष्णहर रक्ष मां विभो मां रमारमण माविभुं कुरु । ते हरे नरहरे नमोऽस्तु मे देहि देव पदमच्युताच्युतम् ॥ ४ ॥ नौमि वेदध्वनिवरं देवं धत्ते सदैव हि । नाभिपद्मोदरे विष्णोः कणद्भ्रमरविभ्रमम् ॥ ५ ॥ तं नमस्कुर्महे शक्रं देवानामपि दैवतम् । यो लोचनसहस्रेण विश्वकार्याणि पश्यति ॥ ६ ॥ यः सन्ततं तततमः पटलं विदीर्य सावित्रिक करशतैर्वमति प्रकाशम् । तं विश्वरक्षणपटुं परमेकमाद्य मादित्यमद्भुतविलासविधिं नमामि ॥ ७ ॥ १ B • बुद्धी • । २ A ० ० ० कृतक्षण ° | Aho! Shrutgyanam Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । [अनुक्रमणिका स्थाणुर्यस्येच्छया जातः शरीराधभृतप्रियः ।। अरिक्तशक्तये तस्मै नमः कुसुमधन्वने ॥ ८ ॥ . चालुक्यवंशतिलका श्रीसोमेश्वरभूपतिः । कुरुते मानसोल्लासं शास्त्रं विश्वोपकारकम् ॥ ९ ॥ शिक्षकः सर्ववस्तूनां जगदाचार्य पुस्तकः । अभ्यस्योऽयं प्रयत्नेन सोमभूपेन निर्मितः ॥ १० ॥ अत्रादौ कथ्यते राज्यप्राप्तिकारणविंशतिः । तस्य प्राप्तस्य राज्यस्य स्थैर्यकारणविंशतिः ॥ ११ ॥ स्थिरराज्यस्य भूभर्तुरुपभोगाश्च विचतिः । प्रमोदजनकास्तद्वद् विनोदा अपि विंशतिः ॥ १२ ॥ मुखोपपादिका क्रीडाविंशतिः परिकीर्त्यते। अनुक्रमणिका तत्र वच्मि संक्षेपतः पुरः॥ १३ ॥ असत्यवर्जनं कार्य परद्रोहस्य वर्जनम् । वर्जनं चाप्यगम्यानामभक्ष्यस्य च वर्जनम् ।। १४ ॥ अस्यावर्जनं चैव पतितः सावर्जनम् । क्रोधस्य वर्जनं चैव स्वात्मस्तुतिविवर्जनम् ॥ १५ ॥ दानं मनोहरं वाक्यमिष्टापूर्वप्रवर्तनम् । अशेषदेवताभक्ति!षु विषेषु तर्पणम् ।। १६ ॥ पितॄणां तर्पणं कार्यमतिथेश्चैव भोजनम् । शुश्रूषणं गुरूणां च तपस्तीर्थेषु मज्जनम् ॥ १७ ॥ दीनानाथार्तबन्धूनां भृत्यानामपि पोषणम् । शरणागतरक्षा च राज्यलाभाय विंशतिः ॥ १८ ॥ १B • वस्तूनि । Aho ! Shrutgyanam Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ] मानसोल्लासः । अथ प्राप्तस्य राज्यस्य स्थैर्यकारणविंशतिः । सप्ताङ्गानि तथा तिस्रः शक्तयः षड् गुणा अपि ॥ १९ ॥ उपाया अपि चत्वार इति विशतिरीरिता । स्वाम्यमात्य-सुहृत्- कोश-राष्ट्र- दुर्ग- बलानि च ॥ २० ॥ राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च । सन्धिश्व विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः ॥ २१ ॥ षड् गुणाः शक्तयस्तिस्रः प्रभावोत्साहमन्त्रजाः । भेदो दण्डः साम दानमित्युपायचतुष्टयम् ॥ २२ ॥ अथ राज्योपभोगस्य विंशतिः कथ्यते क्रमात् । ताम्बूलस्य विलेपस्य भोगश्चाम्बर- माल्ययोः ॥ २३॥ भूषणासनयोर्भोगश्चामरास्थानयोरपि । पुत्राणामुपभोगाच भोजनस्य जलस्य च ।। २४ ।। पादाभ्यङ्गस्य यानानां छत्राणां शयनस्य च । धूपस्य योषितां चेति भोगानां विंशतिः पृथक् ॥ २५ ॥ विंशतिः कथिता भोगा विनोदा नामतोऽधुना । दाक्ष्यं शस्त्रस्य शास्त्रस्य विनोदा गजवाजिनोः ॥ २६ ॥ - मल्ल विनोदस्तु विनोदस्ताम्रचूडजः । aranस्य तित्तिरस्य महिषस्य विनोदनम् || २७ ॥ पारावतविनोदश्च विनोदः सारमेयजः । श्येन - मीन-मृगाणां च विनोदो गीत वाद्ययोः ॥ २८ ॥ नृत्तस्य च कथायाश्च विनोदश्च चमत्कृतेः । प्रमोदाय विनोदानामिति विंशतिरीरिता ॥ २९ ॥ १ पानानां । २A भूषणं । Aho! Shrutgyanam Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मानसोल्लासः । or सौख्यप्रदा क्रीडाविंशतिः कथ्यते क्रमात् । पर्वते प्रमदोद्याने प्रेङ्खायां जलसेचने ॥ ३० ॥ क्रीडा तु शाद्वले देशे वालुकायां शशित्विषि । सस्यक्षेत्रे सुरागोष्ठयां महेलाकथनेष्वपि ॥ ३१ ॥ चतुरङ्गाक्षयोः क्रीडा वराटक- फणीन्द्रयोः । पञ्जिकायां च तिमिरे क्रीडा धीरेनरोचिता ॥ ३२ ॥ प्रेमक्रोडा रतौ क्रीडा क्रीडानां विंशतिः पृथक् । अध्यायशतकं त्वेवं पञ्च प्रकरणानि च ॥ ३३ ॥ इति संक्षेपतः प्रोक्तं मानसोल्लास बीजकम् । विस्तृतं शतशाखाभिर्वक्ष्ये कल्पद्रुमोपमम् ॥ ३४ ॥ कामलोभाद्भयात् क्रोधात् साक्षिवादात् तथैव च । मिथ्या वदति यत् पापं तदसत्यं प्रकीर्तितम् ॥ ३५ ॥ देवतासन्निधौ वाक्यं ब्रूते शपथपूर्वकम् । तद्• यो लङ्घयते मोहात् तच्चासत्यं प्रकीर्त्तितम् ॥ ३६ ॥ [ विशतिः १ अस्वर्ग्यमयशस्यं च लोकद्विष्टं जुगुप्सितम् । अनृतं नितरां पापं तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ३७ ॥ इत्य सत्यवर्जनाध्यायः ॥ १ ॥ ताडनं छेदनं क्लेशकरणं वित्तबन्धनम् । परेषां कुरुते यत् तु परद्रोहः स उच्यते ॥ ३८ ॥ पैशुन्यं परवादं च गालिदानं च तर्जनम् । मर्मोद्घाटं विधत्ते यत् परद्रोहः स उच्यते ॥ ३९ ॥ गृहद्वावसुक्षेत्रं वसु (ख) धान्यं धनादिकम् । हैरते यत् तु मूढात्मा परद्रोहः स उच्यते ॥ ४० ॥ १ B बीर० । २ A दहते । Aho! Shrutgyanam Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ४] मानसोल्लासः। तस्मात् परकृतो द्रोहो यश्चातीच सुदुःसहः । तस्मान्नर कदं घोरं परद्रोहं विवर्जयेत् ।। ४१ ॥ इति परद्रोहवर्जनाध्यायः ॥ २ ॥ पुष्पिता पतिता कन्या लिङ्गिता श्रेष्ठजातिजा । परस्त्री विधवा श्वश्रूः स्वसा च दुहिता तथा ॥ ४२ ॥ गुरु-ब्राह्मणपत्न्यश्च पुत्र-मित्र-नृपस्त्रियः । पत्न्यश्च भृत्य-बन्धूनामगम्याः परिकीर्तिताः ॥ ४३ ॥ अनायुष्यकरं नृणामगम्यागमनं स्मृतम् । परलोके च भयदं तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ४४ ॥ इत्यगम्यावर्जनाध्यायः ॥ ३ ॥ लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुामकुक्कुटः । विदुराहश्च छत्राकमभक्ष्यं परिकीर्तितम् ॥ ४५ ॥ व्याघ्र-जम्बूक-मार्जार-वृक-वायस-वानराः । ऋक्ष-सिंह-गजोष्ट्राश्च न भक्ष्याः परिकीर्तिताः ॥ ४६ ॥ पारावत-शुक श्येन हंसोट्रक-बकास्तथा । कोकिलः सारिका-गृध्र-सारमेयाश्च निन्दिताः ॥ ४७ ॥ ग्रामजाः पशवः सर्वे वर्जयित्वा त्वजाविकम् । कृमि-कीट-पतङ्गाश्च न भक्ष्याः परिकीर्तिताः ॥ ४८ ॥ शरटो दर्दुरः सो नकुलो गृहगोधिका । मकरः शिशुमारश्च नैव भक्ष्याः प्रकीर्तिताः ॥ ४९ ॥ गौडी पैष्टी च माध्वी च न पेया त्रिविधा सुरा । मदनीयं च यत् सर्व तत् सर्व च विवर्जयेत् ॥ ५० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः . [विंशतिः १ अवत्सायाः पयो धेनोर्दशाहाभ्यन्तरे च यत् । वत्सान्तरमनविन्याः क्रान्ताया उपमेण च ॥५१॥ आविकं कारभं क्षीरमपेयं परिकीर्तितम् । अभक्ष्यभक्षणेऽपेयपाने च नरकं व्रजेत् ॥ ५२ ॥ इत्यभक्ष्यवर्जनाध्यायः ॥ ४ ॥ सपदि वीक्ष्य चाम्यस्य रूपं शौर्यमुदारताम् । कलाकुशलतां शीलं सौभाग्यं गुणसम्पदः ॥ ५३॥ . असहिष्णुभवेद् यस्तु स याति यमन्दिरम् । लोके च निन्द्यतां याति नासहिष्णुर्भवेत् ततः ॥ ५४॥ इत्यसूयावर्जनाध्यायः ॥ ५ ॥ महापातकदुष्टानां लिगिनां धर्मलोपिनाम् । चन्डालान्त्यजजातीनां संसर्गात पतितो भवेत् ॥ ५५ ॥ तस्मात् पतितसङ्केन नरः पतति रौरखे। लोके चाशस्यतां याति तस्मात् तं परिवर्जयेत् ॥ ५६ ॥ इति पतितसङ्गानाध्यायः ॥६॥ क्रोधो नाशयते बुद्धिमात्मानं च कुलं धनम् । धर्मनाशो भवेत् कोपात् तस्मात् तं परिवर्जयेत् ।। ५७ ॥ इति क्रोधवर्जनाध्यायः ॥ ७॥ आत्मानं स्तौति यो मोहाज्जीवनापि मृतो भवेत् । परत्र यातनां याति तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ५८॥ इति स्वात्मस्तुतिवर्जनाध्यायः ॥ ८ ॥ श्रोत्रियाय दरिद्राय शीलाचारयुताय च। पुराणवेदविदुषे दान देयं कुटुम्बिने ॥ ५९॥ Aho ! Shrutgyanam Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १५] मानसोल्लासः । महापातकपातीनि महापुण्यफलानि च । महादानानि देयानि महादेवस्य तुष्टये ॥ ६ ॥ रौप्य-काश्चन-रत्नानि वस्त्र-शय्याऽऽसनानि च । गजाश्व-महिषी-गावो बलीवर्दा धुरन्धराः ॥ ६१ ॥ गृहं ग्रामस्तथा भूमि सी कन्या विभूषणम् । अन्न-पानं तिलौपध्यौ मीतस्याभयमुत्तमम् ॥ ६२॥ यद् यस्याभिमतं लोके यत् सुखं निजमन्दिरे । तत सर्व विदुषे देयं तदेवाक्षयमिच्छता ॥ ६३ ॥ इति दानाध्यायः ॥ ९ ॥ ऋतं वाच्यं प्रियं वाच्यं न वाच्यं हितमप्रियम् । प्रियं च नानृतं वाच्यमेष धर्मः सनातनः ।। ६४ ॥ हितं यान्मितं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् सदर्यरत् । एवं पदति यो नित्यं स लोके पूज्यते बुधैः ॥ ६५ ॥ बुधैस्तु पूज्यते भूमौ विबुधैः पूज्यते दिवि । लोकद्वयबुषः स स्याद् यः प्रियं वक्ति सवेदा ।। ६६ ॥ इति प्रियवचनाध्यायः ॥ १० ॥ नयझं ब्रह्मपङ्गं च देवयज्ञमतः परम् । भूतयझं पितृयज्ञं पश्च यज्ञान् प्रवर्तयेत् । ६७ ॥ ज्योतिष्टोमादिकान् यज्ञान् वाजिमेधावधिस्थितान् । शरत्काले वसन्ते च यथोक्तविधिना चरेत ॥ ६८ ॥ अत्रहीनो दहेद् राष्ट्रपत्विजो (ग् यो ?) मन्त्रवर्जितः । विना दानेन यज्वानमाचार्यमवधीत् क्रतुः ॥ ६९ ॥ अयुतं लक्षहोमं च कोटिहोमं च शान्तिकम् । कुर्वीत विप्रमुख्यैश्च कारयेच्छुभकाङ्क्षया ॥ ७० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ मानसोल्लासः । द्वारहीनो भवेत् कूपो द्वारेणैकेन वापिका । नैकद्वारा पुष्करिणी दीर्घाकारा तु दीर्घिका ॥ ७१ ॥ पाल्या विधृततोयस्तु तडागः परिकीर्त्तितः । एतेषां खनन कार्य तारकैश्वाप्यधोमुखैः ॥ ७२ ॥ पूर्वात्रयं विशाखा च कृत्तिका भरणी मघा । अधोवक्त्राणि भानि स्युरश्लेषा मूलमेव च ॥ ७३ ॥ कूपादिखननं चैव निधानोत्खननं तथा । द्यूतं च गणितं कार्यमधोवक्त्रे च सर्वदा ॥ ७४ ॥ अनिष्ठिकां प्रपाः सत्रमापाकं च प्रवर्तयेत् । सभां सभामतं चैव जीर्णदेवकुलानि च ॥ ७५ ॥ [ विंशतिः १ विश्वकर्ममतेनापि मयशास्त्रानुसारतः । मत्स्यप्रोक्तविधानेन पिङ्गलामतमानतः ॥ ७६ ॥ कलितेन प्रमाणेन पुरुषार्थचतुष्टयम् । कारयेद् देवतागारं महान् भक्त्या महीपतिः ॥ ७७ ॥ नवताप्रमाणेन विधानेन समन्विताः । प्रतिमाः कारयेत् पूर्वमुदितेन विचक्षणः ॥ ७८ ॥ सर्वावयवसम्पूर्णाः किञ्चित्पीना दृशोः प्रियाः । यथोक्तैरायुधैर्युक्ता बाहुभिश्च यथोदितैः ॥ ७९ ॥ तत्पृष्ठे स्कन्धदेशे वा कृकाट्यां मुकुटेऽथवा । कास पुष्पनि दीर्घ नालकं भेदनोद्भवम् ॥ ८० ॥ स्थापयित्वा तताच लिम्पेत् संस्कृतया मृदा । मषीं तुषमयीं घृष्ट्वा कार्पासं शतशः क्षतम् ॥ ८१ ॥ १ B दमनो० । Aho! Shrutgyanam Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ११ मानसोल्लासः। लवणं चूर्णितं श्लक्ष्णं स्वल्प संयोजयेन्मृदा । पेषयेत् सर्वमेकत्र सुश्लक्ष्णे च शिलातले ॥ ८२ ॥ वारत्रयं तदावर्त्य तेन लिम्पेत् समन्ततः । अच्छः स्यात् प्रथमो लेपः छायायां कृतशोषणः ॥ ८३ ॥ दिनद्वये व्यतीते तु द्वितीय: स्यात् ततः पुनः । तस्मिन् शुष्के तृतीयस्तु निबिडो लेप इष्यते ॥ ८४ ॥ नालकस्य मुखं त्यक्त्वा सर्वमालेपयेन्मृदा । शोषयेत् तं प्रयत्नेन युक्तिभिर्बुद्धिमान् नरः ॥ ८५ ॥ सिक्यकं तोलयेदादाव लग्नं विचक्षणः।। रीत्या साम्रण रौप्येण हेना वा कारयेत् तु ताम् ॥ ८६ ॥ सिक्थादष्टगुणं तानं रीतिद्रव्यं च कल्पयेत् । रजतं द्वादशगुणं हेम स्यात् षोडशोत्तरम् ॥ ८७ ॥ मृदा संवेष्टयेद् द्रव्यं यदिष्टं कनकादिकम् । नालिकेराकृति मूषा पूर्ववत् परिशोषयेत् ॥ ८ ॥ वहौ प्रतापितम सिक्थं निःसारयेत् तनः । मूषां प्रतापयेत् पश्चात् पावकोच्छिष्टवाहिना ॥ ८९ ।। रीतिस्तानं च रसतां नवागारैव्रजेद् ध्रुवम् । तप्ताबारैर्विनिक्षिप्त रजतं रसतां व्रजेत् ।। ९० ॥ सुवर्ण रसतां याति पञ्चकृत्या प्रदीपितः । मूषामूर्धनि निर्माय रन्ध्र लोहशलाकया ॥ ९१ ॥ सन्देशेन दृढं धृत्वा तप्ता पा समुद्धरेत् । तप्ता_नालकस्यास्ये वति प्रज्नलितां न्यसेत् ॥ ९२ ।। सन्दंशेन धृता मृषां तापयित्वा प्रयत्ननः । रसं तु नालकस्यास्ये क्षिपेदच्छिन्नधारया ॥ ९३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः १ नालकाननपर्यन्तं सम्पूर्य विरमेत् ततः। स्फोटयेत् तत्समीपस्थं पावकं तापशान्तये ॥ ९४ ॥ पीतलत्वं च यातायां प्रतिमायां स्वभावतः । स्फोटयेन्मृत्तिका दग्धां विदग्धो लघुहस्तकः ॥ ९५ ॥ ततो द्रव्यमयी साऽर्चा यथा मदननिर्मिता। जायते तादृशी साक्षादकोपानोपशोभिता ॥९६ ॥ यत्र काप्यधिकं पश्येच्चारणैस्तत्पशान्तये[1] । नालकं छेदयेचापि पश्चादुज्वलतां नयेत् ॥ ९७ ॥ अनेन विधिना सम्यग् विधायाची शुभे तिथौ। विधिवत् तां प्रतिष्ठाप्य पूजयेत् प्रत्यहं नृपः ॥ ९८ ॥ विष्णुं वाऽथ गणेशं वा दुर्गा वाऽपि सरस्वतीम् । दिनेशं विम्बरूपं वा शिवं वा लिङ्गरूपिणम् ॥ ९९ ॥ अर्चयेद् भक्तिभावेन श्रद्धापूतेन चेतसा। पत्रैः पुष्पैः शुभैर्गन्धैनैवेद्येधूप-दीपकैः ।। १०० ॥ य एवं कुरुते पूर्तमिष्टं च विधिना नरः। स याति परमां सिद्धि कोकद्वयशुभावहाम् ॥ १०१ ॥ इतीष्टापूर्ताध्यायः ॥ ११ ॥ अर्ध्य पायं शुभैस्तोथैर्मधुपर्कं च कल्पयेत् । तथैवाचमनं स्नानं तत्तद्रव्यसमायुतम् ॥ १०२ ॥ मन्वैनिपैहोंमैर्मुद्राभिर्विविधार्चनैः । अष्टापूर्वकं भक्त्या नत्वा स्तुत्वा विसर्जयेत् ॥ १०३ ॥ एवं यः पूजयेद् देवमिष्टं दृष्टमना नरः । म पामोति महद्राज्यं पूजया नात्र संशयः ॥ १०४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १५ ] मानसोल्लासः। अन्येषामपि देवानां निन्दा द्वेषं च वर्जयेत् । देवं देवकुलं दृष्ट्वा नमस्कुर्याद(?) लक्षयेत् ॥ १०५ ॥ एवं य आस्तिकं भावमाश्रितः समतां गतः। सर्वदेवप्रसादेन लभते सम्पदं वराम् ॥ १०६ ॥ इत्यशेषदेवतामक्त्यध्यायः ॥ १२ ॥ गवां ग्रासं सदा दद्यादातर्धमलिप्सया। आत्मीय-परकीयाणां तेन विष्णुः प्रसीदति ॥ १०७ ।। दानेन प्रियवाक्येन सन्मानेन द्विजोत्तमान् । तोषयेत् सर्वभावेन तेनामोति परं पदम् ॥ १०८ ॥ इति गोविप्रतर्पणाध्यायः ॥ १३ ॥ तोयमित्रैस्तिलैः कुर्यात् तत्रान्ना पितृतर्पणम् । गव्यक्षीरसमुत्पनैः पायसैः सितया सह ॥ १०९ ॥ भक्ष्यपूतैस्तथा मांसैघृतेन मधुनाऽपि च । अन्यैश्च विविधैः सृष्टैः पक्वाः सुमनोहरैः ॥ ११०॥ भोजयेद् द्विजमुख्यांश्च पितॄनुदिश्य भक्तितः । श्रद्धापूतेन चित्तेन श्राद्धं कुर्यादतन्द्रितः ॥ १११ ॥ एवं यः कुरुते श्राद्धं तर्पयेत् पितृदेवताः । तस्य सन्तानवृद्धिः स्याद् राज्यमायुर्महद् भवेत् ॥ ११२ ॥ यद् यदिच्छति चित्तेन तत् तदामोति कामवान् । अकामतस्तु कुर्वाणो निर्वाणं परमाप्नुयात् ॥ १११ ॥ इति पितृतर्पणाध्यायः ॥ १४॥ अज्ञातकुलनामानमन्यदेशादुपागतम् । क्षुधात पामुकीर्णाविमतिथि तं विदुधाः ॥ ११४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ {૨ मानसोल्लासः । ईदृग्विधं समायातमतिथिं यो न पूजयेत् । तस्य पुण्यानि सर्वाणि हृत्वा यात्यतिथिद्भुतम् ॥ ११५ ॥ [ विशति १ तस्मात् सर्वात्मना भक्त्या पूजयेदतिथिं बुधः । अतिथौ पूजिते विष्णुः पूजितः स्यान्न संशयः ॥ ११६ ॥ इत्यतिथिपूजनाध्यायः ॥ ११ ॥ जनकथोपनेता च विद्यां यश्च प्रयच्छति । पोषकच भयत्राता पञ्चैते गुरवः स्मृताः ॥ ११७ ॥ आचार्यः स्यादुपाध्यायादाचार्यादधिकः पिता । पितुरप्यधिका माता गौरवेण विशेषिता ॥ ११८ ॥ मनवाकयकर्मभ्यो गुरुभ्यो हितमाचरेत् । तेषामाज्ञा न लध्या स्यात् कुर्याच्छुश्रूषणं सदा ॥ ११९ ॥ एवं शुश्रूषते यस्तु गुरुं नत्वा समाहितः । कृतज्ञो दृढसङ्कल्पस्तस्य पुण्यफलं महत् ॥ १२० ॥ इति गुरुशुश्रूषणाध्याय: ॥ १६ ॥ कृच्छ्रेयान्द्रायणैः पुण्येतैश्च विविधैरपि । कन्द-मूल- फलाहारैः पत्र - पुष्पाक्षस्तथा ॥ १२१ ॥ अन्यक्षैर्वायुभक्षैश्च धूमभक्षैरभक्षणैः । शीतातप सहत्वेन सर्वभूतहितेच्छया ।। १२६ ।। ब्रह्मचर्येण तपसा निग्रहेणेन्द्रियस्य च । जपेन ध्यान- मौनाभ्यां प्राणायामैः समाधिना ।। १२३ ।। एतैस्तपोभिः कुरुते नियतः कायशोषणम् । स सर्व लभते कामं दुष्प्रापं नात्र संशयः ।। १२४ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दुर्धरतां स्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥ १२५ ॥ इति तपोऽध्यायः ॥ १७॥ अध्याय १९ ] Goat सरितां श्रेष्ठा यमुना नर्मदा शुभा । तापी तरङ्गिणी पुण्या गौतमी पापनाशनी ।। १२६ ॥ देवपादोद्भवा रम्या श्रीशैलोत्सङ्गगामिनी । तुङ्गभद्रा सदा भद्रा दर्शनात् पापनाशिनी ॥ १२७ ॥ वञ्जरा भीमरथ्या च कृष्णा वेण्या बृहन्नदी | मलापहारिणी यत्र सङ्गता लोकविश्रुता ॥ १२८ ॥ एताश्चान्याश्च सरितः सागराश्च सरांसि च । ह्रदाश्व देवखाताद्याः कुण्ड-कूप-स्रवा गिरेः ॥ १२९ ॥ पुष्कराणि च पुण्यानि शुक्लतीर्थ सुखपदम् । प्रभासप्रथितं तीर्थ केदारं क्लेशनाशनम् ॥ १३० ॥ प्रयागस्तीर्थराजश्च चिन्तितार्थप्रदायकः । अर्घ्यं तीर्थमनर्घ्यं च सुरसार्थनिषेवितम् ॥ १३१ ॥ वाराणसी महापुण्या महादेवनिषेविता । महाप्रभाव संयुक्ता महापातकनाशिनी ।। १३२ ॥ सरस्वती त्रिभिः स्नानैः पञ्चभिर्यमुनाऽपहृत् । जाह्नवी स्नानमात्रेण दर्शनादेव नर्मदा || १३३ ॥ एतेषु पुण्यतीर्थेषु स्नात्वा मुच्येत किल्बिषात् । ईप्सितं चैव लभते मोदते च महेन्द्रवत् ॥ १३४ ॥ इति तीर्थस्नानाध्यायः ॥ १८ ॥ देहीति भाषते यत् तु काङ्क्षया कृपणं वचः । दारिद्याद् दैन्यमापन्नः स दीनः परिकीर्तितः ।। १३५ ॥ Aho! Shrutgyanam १३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः १ तस्मै ददीत दीनाय वाञ्छितं द्रविणादिकम् । दयाहृदयो राजा धर्मार्थ स्वार्थनिस्पृहः ॥ १३६ ॥ माता-पित्रोविहीनस्तु रहितो मित्र-बान्धवैः । विगतः स्वामि-बन्धूनामनाथः परिचक्ष्यते ॥ १३७ ॥ आर्ता यवेन संरक्ष्याः तन्त्र-मन्त्र-क्रियाऽऽदिभिः । तेषामन्वेषणं कार्य पानान-शयनाप्सनैः ॥ १३८ । शस्त्र-शास्त्रविदो वैद्यानभ्यासनिपुणानपि । ऊहापोहविवेकज्ञान् सुधाहस्तान् प्रियंवदान् ॥ १३९ ॥ अर्पयित्वा विचित्राणि भेषजानि पृथक् पृथक् । निरालस्यांश्च धर्मज्ञान प्रकल्प्य परिचारकान् ॥ १४० ।। ज्वरे च रक्तपित्ते च कासे श्वासे च यक्ष्मणि । छदौ मदात्ययेऽर्शःम सारण-ग्रहणीषु च ॥ १४१ ॥ मूत्रकृच्छ्रे प्रमेहे च विद्रधौ गुल्म-कोष्ठयोः । पाण्डौ शोफे विसर्प च कृष्णे चित्रे बलामये ॥ १४२ ॥ वातशोणितरोगे च तथा रोगान्तरेष्वपि । वैद्यशास्त्रानुसारेण कारयेत् तत्पतिक्रियाम् ॥ १४३ ॥ ज्ञात्वा निदानं व्याधीनां स्वरूपं लक्षणैः स्फुटम् । देशकालानुसारेण सात्म्यप्रकृतितत्त्वतः ॥ १४४ ॥ सामो दोषश्चिराद् हत्वा पावकं जठरस्थितम् । निरुध्य च ससञ्चारमुदराग्निं बहिः क्षिपेत् ॥ १४५ ॥ एवं विनिर्गतो वह्निः कायमाश्रित्य तापयन् । ज्वर इत्युच्यते तज्जैः सर्वव्याधिपतिश्च सः ॥ १४६ ॥ पकमेवौषधं हन्ति दोष कोष्ठसमाश्रितम् । अपरं न गुणं किश्चित् कुरुते तत् मुषासमम् ॥ १४७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । अजीर्यत्यौषधं यस्माज्ज्वरार्तस्य विनाऽग्रिना । तस्मान दद्याद् भैषज्यं लङ्घनं तु प्रयोजयेत् ॥ १४८ ॥ अध्याय १९ ] भक्ष्यभोज्यस्य चोष्यस्य लेह्य-पेयस्य वारणम् । लङ्घनं प्रोच्यते सद्भिः कायलाघवकारणम् ।। १४९ ॥ वयोदोषं बलं कालं प्रकृर्ति कारणं तथा । विचार्य लङ्घनं कार्ये यावच्छुद्धं भवेद् वपुः ॥ १५० ॥ एकरात्रं त्रिरात्रं च पञ्चरात्रमथापि वा । सप्तरात्रं नव निशा निशाचैकाधिका दश ।। १५१ ॥ लङ्घनस्य कृतः काको दोषरूपानुसारतः । दातव्यमौषधं पश्चात् ज्वरामयविनाशनम् ॥ १५२ ॥ एकभक्तं तथा पेया मण्डो वा कोष्णवारिणा । दोषकोपानुसारेण लङ्घनं विविधं स्मृतम् || १५३ ॥ लङ्घितस्य यदा स्वास्थ्यं क्षुत् तृष्णा पाटवं रुचिः । मनःप्रसत्तिरोजश्च पक्तिळघवलक्षणम् ।। १५४ ॥ लङ्घनैर्विज्वरं जातं लघुपथ्यैर्मिताशनैः । उपाचरेद् भिषक् सम्यग् यावत् स्याद् दिनसप्तकम् ॥ १५५ ॥ नेऽपि कृते सम्यग् दृष्टे लङ्घितलक्षणे । ज्वरो यदि न मुच्येत तं पेयाभिरुपाचरेत् ॥ १५६ ॥ वात-पित्त - बळासानां ज्ञात्वा लक्षणमुत्कटम् । तस्योपशमनैर्द्रव्यैः कृत्वा पेयां प्रदापयेत् ।। १५७ ।। शूलेऽधिज्ञेयस्तापे पित्तं च लक्षयेत् । जाये कफं विजानीन्मिश्रे मिश्रं तु लक्षयेत् ॥ १९८ ॥ १ A भैषज्यं योजयेत्ततः । १५ Aho! Shrutgyanam Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः १ दोषत्रये प्रकुपिते सनिपातो भवेत् समे । दुधिकित्सो भवेद् रोगी यत्नादेनमुपाचरेत् ॥ १५९ ॥ बिल्वं बला पृथक्पर्णी नागरं धान्यकोत्पलम् । एतैः पेया कृता देमा वातपित्तज्वरापहा ॥ १६० ॥ कुक्षि-वस्ति-शिरशूले क्षुद्रा गोक्षुरसाधिता । पेया वातरजातस्य सोणा देया भिषग्वरैः ॥ १६१ ॥ गोक्षुरं बृहतीद्वन्द्वा गुहा चातिगुहापि च । एतैः प्रकथिता पेया श्वास-कास-ज्वरातिनुत् ॥ १२ ॥ श्रीपर्णी बिल्व-टेटूकं तकारी पाटला तथा। तेषां मूलयवैः सिद्धा पेया कफरजातिहत् ॥ १६३ ॥ भष्टतण्डुलसिद्धाऽपि पिप्पल्यामलकैर्युता। यषागूः सघृता पेया विष्टब्धमलरेचनी ॥ १६४ ॥ मागधी पिप्पलीमूलं मुद्रीका पात्रिकोषः। । कृता ऐया प्रपातव्या कोष्ठशूलविबन्धनुत् ॥ १६५ ॥ व्याघ्री-बदर-वृक्षाम्ल-पाटला-बिल्व-गोधुरैः । तृष्णाघ्री सेसिता पेया स्वेद निद्रामुखपदा ॥ १६६ ॥ कफपित्ताधिके ग्रीष्म नाभिस्थानस्थिते कफे। . दृषि च्छदौ विदाहे च मदोत्थे च सदासवे ॥ १६७ ॥ . ऊर्ध्वं प्रवृत्ते रुधिरे पेया नैव प्रशस्यते । ज्वरस्तै(घ्ने?) फलरसैः कृमिनाशं च वारुणम् ॥ १६८ ॥ शर्करा-मधुसंयुक्तं पिवेज्जीणे तु तर्पयेत् । यवागू क्षुधितोऽश्नीयाद् भक्तं वा भृष्टतण्डुलम् ॥ १६९ ॥ PA च। २ A भवत् । Aho ! Shrutgyanam Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १९ ] मानसोल्लासः । मुद्रादिधान्यकथितं तोयं यूषं निगद्यते । अस्नेहलवणं यूषं दकमित्यभिधीयते ॥ १७० ॥ 3 लवणस्नेहसंयुक्तं यूषं लावणिकं विदुः । षडङ्गं वर्तयेत् ताभ्यां रसैर्वा मुद्द्र-लाजजैः ।। १७१ ।। ज्ञात्वा दोषसमुत्थानं बलं रक्षेत् प्रयत्नतः । लङ्घनैः पेयपीयूषै रसैर्दोषं विपाचयेत् ।। १७२ ॥ दोषपाके च सञ्जते सप्तरात्रादतः परम् । पाचकैः शनकैः क्वाथैर्दोषशेषं तु निर्हरेत् ॥ १७३ ॥ तिक्तः पित्तहरो देयः कटुकः कफनाशनः । पित्त - श्लेष्महरोऽप्येष कषायो ने वरो रसः || १७४ ॥ नवज्वरे मलं रुध्दा ज्वरं विषमतां नयेत् । लापरुचि हिक्कां कषायो जनयेदसौ || १७५ || वरस्य मार्दवे जाते कायस्यापि च लाघवे । चलिते च मळे तज्ज्ञैस्त्रिरात्राद् देयमौषधम् ॥ १७६ ॥ सुस्तापर्यटककाथः शुण्ठीपर्पटकोऽपि वा । वाटको वाऽपि देयो ज्वरविनाशनः ।। १७७ ॥ पक्वः शीतः कषायो वा पाठोशीरैः सवालकः । अमृता- विश्व - भूनिम्ब- मुस्ताकाथोऽपि वा ज्वरे ॥ १७८ ॥ यथासात्म्यं प्रयोक्तव्याः कषाया दोषनाशनाः । अरुचि-ज्वर-तृड्-वक्त्रवैरस्यापाकनाशिनः ।। १७९ ॥ पटोलपत्रं कटुका बीजानि कुटजस्य च । एतैः कथितः काथः सन्ततज्वरनाशनः ॥ १८० ॥ १ A नवघा । Aho! Shrutgyanam १७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः१ पाठा-पटोल-कटुका-सारिवा मुस्तयाऽन्विताः । एतैः सिद्धः कषायस्तु सन्ततज्वरघातकः ।। १८१ ॥ मृद्वीका-त्रिफला-निम्ब-पटोली-मुस्त-वत्सकैः । कृतः क्वाथो निहन्त्येष ज्वरमन्येचुरुद्भवम् ॥ १८२ ।। शुण्ठी-गुडूची भूनिम्ब-चन्दनैः परिकल्पितः । कायो निहन्ति न चिरात तृतीयाहभवज्वरम् ॥ १८३ ॥ गुडूच्यामलकैर्मुस्ताकाथो मधुसमन्वितः । ज्वरं निवारयत्याशु चतुर्थदिनसम्भवम् ॥ १८४ ॥ मूर्वा-निम्ब-पटोलातिविष-धन्वयवासकैः । शुण्ठी-मुस्तामृतायासैः क्वाथो वातज्वरापहः ॥ १८५ ॥ अमृता पिप्पलीमूलं नागरेन्द्रयवाम्बुदैः । लघुना पञ्चमूलेन क्वाथ: स्यात् पित्तजे ज्वरे ॥ १८६ ॥ कटुका पर्पटं मुस्ता भूनिम्बश्च दुरालभा । एतैः सवत्सकैः क्वाथो ज्वरं हन्यात् कफोद्भवम् ॥ १८७ ॥ ज्वरोऽन्यः सनिपातोत्थः पित्तं यत्र पृथग् मतम् । त्वचि कोष्ठेऽथवा दोष(दाह) विदधातु(ति) पुरो न(ऽनु) वा॥१८॥ शीतं वात-कफौ तद्वद् दुस्तरो दाहपूर्वकः । शीतादौ तत्र पित्तेन कफे स्यन्दित-शोषिते ॥ १८९ ॥ शान्ते शीतेऽम्लकोदारो मदस्तृष्णा भवेदतः । दाहादौ पुनरेते स्युस्तन्द्रा स्वेद-वमि-लमाः ॥ १९० ॥ पटोल-कटुका-मुस्ता-प्राणदा-मधुकैः कृतः। त्रि-चतुः-पञ्चशः काया शीतिके विषमज्वरे ॥ १९१॥ कायस्या-नाकुली-तिक्ता-वयस्थागरु-चौरकैः। सहदेवी-बचायुक्तैः शीतने धूप-लेपने ॥ १९२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । एतैरेवौषधैः पिष्टैर्लावणक्षारसंयुतैः । साम्लेर्विपचितं तैलमभ्यङ्गाच्छीतनाशनम् ॥ १९३ ॥ अध्याय १९ ] शीतम्बरे शिळातैललेपनं परमौषधम् । हिङ्गु-सैन्धवसंयुक्तं नस्यं जीर्णघृतान्वितम् ॥ १९४ ॥ धात्रीचूर्ण घृताद् घृष्टमम्ळवेतसमम्भसा । प्रलेपाद् दाइनुत् फेनो बदर्या वा दलोद्भवः || १९५ ॥ काले बदरानन्ता - यष्टी - चन्दन - कक्षिकैः । सघृतैः स्याच्छिरोलेपस्तृष्णादाहज्वरापहः ॥ १९६ ॥ सन्निपातज्वरान्मुक्ते शोफो भवति दारुणः । कर्णमूले यदा तेन कश्चिदेव विमुच्यते ॥ १९७ ॥ रक्तावशोधनं कार्य नीरजाभिर्मुहुर्मुहुः । तथा कार्य प्रयत्नेन यथा पाको न जायते ॥ १९८ ॥ घृतं च पाचयेत् सिद्धं तिक्तैर्वा मधुरैरपि । एवं कृतं घृतं देयं मधुरं वात-पित्तयोः ॥ १९९ ॥ • क्षाराम्ललवणैर्द्रव्यैरवियुक्तैः श्रमादपि । आतपाच्च भृशं पित्तं कुपितं दूषयेदसृक् ॥ २०० ॥ ततो प्राणास्य कर्णेभ्यः पायु-मेहनमार्गतः । प्रवर्तते ततः ख्यातं रक्तपित्तं भिषग्वरैः ।। २०१ ॥ एकदोषं नवं चोर्ध्व बलिनश्चानुपद्रवम् । रक्तपित्तं सुखात् साध्यमधश्चेद् याप्यमुच्यते ॥ २०२ ॥ अधश्चोर्ध्वं च चलितं त्रिदोषं भूर्युपद्रवम् । असाध्यं रक्तपित्तं तत् त्यजनीयं भिषग्वरैः ॥ २०३ ॥ १ A तदाख्यातं Aho! Shrutgyanam १९ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० मानसोल्लासः । श्यामा त्रिवृत्कषायेण तत्कल्केन सितान्वितम् । लेहं विपाचितं दद्यात् कर्षमात्रमसृग्हरम् ॥ २०४ ॥ [ विंशतिः १ पिप्पली त्रिफला श्यामा शर्करा त्रिवृता मधु 1 एतैः कृतो मोदकोऽयं सन्निपातोत्थरक्तजित् ॥ २०५ ॥ कुपितो वातद्रव्यैर्मारुतः कफरेचितः । उरस्यावदते कासं हृत्पार्श्वगदपीडितम् ॥ २०६ ॥ अमृता- कण्टकारिभ्यां द्वाभ्यां षष्टिपळा रसैः । चतुर्भागं पचेत् सर्पिर्घृतशेषं तु कासजित ॥ २०७ ॥ कृमिघ्नमौषधं रास्ता मागधी हिगु सैन्धवम् । क्षारो भाङ्ग च तच्चूर्ण पिबेदाज्यस्य मात्रया ॥ २०८ ॥ कासे बलाससंयुक्तमारुतेन विनिर्मिते । हिक्कायामग्निमान्धे च श्वासे चैतत् प्रशस्यते ॥ २०९ ॥ वृद्धात् कासाद्भवेच्छ्रासः श्वासात् तु कुपितो मरुत् । कुपितात् पवनाभ्यासात् पाण्डुरोगात् (गो) ज्वराद् गदात् ॥२१०॥ कर्चुरं पौष्करं मूलं तथैरामलकीफलम् । पिबेदाज्येन तच्चूर्ण श्वासे मांसरसेन वा ।। २११ ॥ वेगानां धारणादोजः-स्नेह-शुक्रक्षयादपि । अपि व्यायामतो हीनः श्वास-कास- ज्वरामयः ।। २१२ ।। भृशं प्रकुपितो वातः कफपित्तमुदीरयेत् । देहसन्धीन् समाविश्य क्षयरोगं समावहेत् ॥ २१३ ॥ रास्ना-तिल बलाचूर्ण ससर्पिष्टिकोत्पलम् । अवलीढं हरेच्छोषमनिपान्द्यं च नाशयेत् ॥ २१४ ॥ १ B • सादं Aho! Shrutgyanam Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । अनिष्टानोपयोगेन मारुतः कुपितो भृशम् । उदानः कुरुते छर्दि नाभिपृष्ठरुजान्विताम् || २१५ ॥ अध्याय १९ ] जम्बू-चूत-बलोशीर- वटशृङ्गावरोहजः । क्षौद्रेण सहितः कायः पीत छर्दिविनाशनः ॥ २१६ ॥ क्षौद्रं हरीतकीचूर्ण कोळं वा मधुमिश्रितम् । मनं वा वमिद्रव्यै छर्दि विनाशयेत् ॥ २१७ ॥ हीनमिथ्यातिपानेन भवत्याशु मदात्ययः । छर्दिर्मो भ्रमस्तन्द्रा मलापो जायते ततः ।। २१८ ॥ पश्चाहं सप्तरात्रं वा जायतेऽसौ मदात्ययः । अत ऊर्ध्वं प्रसक्तश्चेद् रोगोऽन्यः परिकीर्त्यते ॥ २१९ ॥ सहलासे सदाहे च सहच्छ्रले मदात्यये । मनं वमनद्रव्यैः प्रयुञ्जीत प्रयोगवित् ।। २२० ॥ तृषि द्राक्षारसो देयो मधुना परिमिश्रितः । पाटल्युत्पलकन्दैर्वा तोयं केवलमेव वा ।। २२१ ।। चिश्चा-दाडिमवृक्षाम्लैः सह कोळाळवेत सैः । मुखलेपः कुतो हन्ति तृष्णां मद्यसमुद्भवाम् ।। २२२ ॥ मोहे विदाहे भ्रान्तौ च कर्त्तव्या शिशिरक्रिया | शिरःशूळे च जाडये च घनं प्रावरणं हितम् || २२३ ॥ स्वापः प्रलापबहुळे योजनीयो मदात्यये । छाग- तित्तिर- लावैण-शशमांसरसैर्युतम् ।। २२४ ।। सक्तपिष्टकमश्नीयात् पिबेश्च स्वादु पानकम् । घृतं वा केवलं पीतं मदात्ययहरं परम् ॥ २२५ ॥ गुदावलिसम्भूता विष्टाधारण हेतुकाः । अङ्कुराः कथिताः प्राज्ञैरर्शासीत्यभिधानतः ॥ २२६ ॥ Aho! Shrutgyanam २१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। पिंशतिः १ शृङ्गी-हरीतकी-कुष्ट-भल्लातकफलैः कृतैः। लेपस्तुत्यसमोपेतो गुदकीलविनाशनः ॥ २२७ ॥ मूलं(लैः) शिग्रुभवै जैनिम्बाश्वत्थदलैरपि । विल्वेन पीलुमूळेन रामठेनापि लेपनम् ।। २२८ ॥ पथ्याचूर्ण सलवणं तकेण च विलोडितम् । पीतमोहरं प्राहुर्गुडपथ्यां च तद्विदः ॥ २२९ ॥ अत्यम्बुपानाजायेत सुतरामतिसाररुक् । आमः पकः सरक्तश्च त्रिधाऽसौ व्याधिरीरितः ॥ २३०॥ तत्रामे नागरं मुस्ता तथा च यु(घु)णवल्लभा । तच्चूर्ण वटकः क्वाथः पाचनाय प्रयुज्यते । २३१ ॥ पक्कातिसारे दातव्यं जम्बूपल्लव-धातकी । जीरकं चूतबीजं च महावृक्षत्वचस्तथा ॥ २३२ ।। बिल्लारनाल-गोकण्ट-पश्चाङ्गुळयवैः शृता । स्विमा क्षौद्रयुता पथ्या पक्कातीसारभेषजम् ॥ २३३ ।। विषा कुटजबीजं च मुस्ता वालक-विस्वकम् । तत्कायो विनिहन्त्याशु रक्तातीसारमुल्षणम् ॥ २३४ ॥ अतिसारेषु जावेषु पथ्यं नानाति यः पुमान् । ग्रहणी जायते तस्य मुहुर्षद्धाऽतिसारिणी ॥ ३५ ॥ शुण्ठी सातिविषा मुस्ता क्वायः पीतो निहन्ति ताम् । गुडूच्या संयुतोऽप्येष चतुर्भद्र इतीरितः ॥ २३६ ॥ दीप्यकं माणिमन्यं च जलेन परिपेषितम् । उपयुक्तं निहन्त्याशु सुकृच्छ्रां ग्रहणीमिदम् ॥ २३७ ॥ त्रिविधं भूत्रकृच्छ् स्याद् वात-पित्त-कफोद्भवम् । मेहने वक्षणे वस्तौ वातजं जनयेद् व्यथाम ॥ २३८॥ Aho ! Shrutgyanam Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १९ ] मानसोल्लासः। पित्ते पीतं सदाहं वा सन्तप्तं शोणितान्वितम् । प्रस्तावमीरयेत् कृच्छू कफजं गौरवान्वितम् ॥ २३९ ॥ उरुबूको बला बिल्वं पश्चमूलद्वयं यवा । पुनर्नवा भीरुमूलं कुलत्थं बदरं तथा ॥ २४० ॥ मत्स्याक्ष-मत्स्यभेदं च तत् सर्व च समं कृतम् । तत्वायेन सकल्केन सर्पिस्तैलयुतेन च ॥ २४१ ॥ सूकरस्याच्छभल्लस्य वसया मिश्रितेन च । पञ्चभिलवणैः साई शूलं पीतेन हन्यते ॥ २४२ ॥ शतावरी गोक्षुरकं कसेरुं च विदारिकाम् । कुश-काश-कुशालीनां शराणां मूलपञ्चकम् ॥ २४३ ॥ तत्कायः शर्करायुक्तः शीतो मधुसमन्वितः । पित्तनं नाशयेत् कृच्छं सर्वा च शिशिरक्रिया ॥ २४४ ॥ सूक्ष्मैला सुरया युक्तां धात्रीफलरसैरपि । पाययेत् कफजे कृच्छ्रे वमनं चापि कारयेत् ॥ २४५ ॥ मधुरं शीतलं स्निग्धमम्लं गुरु च पिच्छलम् । अन्न-पानं च कुरुते प्रमेहं कफदूषणात् ॥ २४६ ॥ विशाला-त्रिफला मुस्ता-दार्वी-दारुविनिर्मितः । कायो निवारयेन्मेहं निशाकल्कविमिश्रितः ॥ २४७ ॥ त्रिफला चित्रकं दावी कलिङ्गा मधुमिश्रिताः । जलेन कथिता मेहं पीता निघ्नन्ति तत्क्षणम् ॥ २४८ ॥ पिवेद् वा श्रीफलरसं माक्षिकेण समन्वितम् । गुइच्याः स्वरसं वाऽपि मधुना सह मिश्रितम् ॥ २४९ ॥ रूक्ष-पर्युषितानुष्णशुष्कर्भुक्तैर्विदाहिभिः । रक्तं प्रकुपितं शोफ कुरुते स तु विद्रधिम् ॥ २५० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ मानसोल्लासः । एरण्डश्च विदारी च वृश्चिकश्च पुनर्नवा । स्नेहत्रयं पचेदेतैस्तल्लेपाद विद्रधिं जयेत् ॥ २५९ ॥ निशा दार्वी-पयस्याभिर्यष्टया दुग्धेन रोपयेत् । क्षीरवृक्षप्रवालत्वक्फलैः कफसमुद्भवः(म्) ॥ २५२ ॥ काधकरकादिसंयुक्तैर्विद्रधि नाशयेद् भिषक् । अतीसार- ज्वरच्छर्दिकर्शितो वातलं भृशम् || २५३ ॥ उपयुङ्केन-पानाय शीतं चाम्बु बुभुक्षितः । क्वायो देहसंक्षोभि कुरुते कर्म सत्वरम् || २५४ | [ चिंशतिः १ तस्य सञ्जायते गुल्मो वातसंक्षोभहेतुकः । उग्रगन्धा विदं शुण्ठी पुष्करं कवणत्रयम् ॥ २५५ ॥ राम चित्रकं तेषां चूर्ण गुल्मनिबर्हणम् । मरीचाजाजि- हनुषा- पृथ्वीका पञ्चकोलके ॥ २५६ ॥ दधा दुग्धेन सम्मिश्रैस्तथा मांसरसेन च । दाडिमा बदरान्मूळात् कल्कं निक्षिप्य सर्पिषि ।। २५७ ॥ त्रिगुणं जलमादाय पचेद् गुल्मविनाशनम् । अजीर्णस्यानुबन्धेन मलिनादन-पानतः ॥ २५८ ॥ विद्रोघाज्जायते व्याधिरुदरं वह्निमध्यतः । त्रिसप्तकृत्वः स्नुक्क्षीरभावितं मागधीरजः ॥ २५९ ॥ उष्णोदकेन पीतं च जठरव्याविनाशनम् । पलानां त्रितयं शृण्ठ्या दशमूलात् पलानि षट् ॥ २६० ॥ तैळाढकं घृतप्रस्थं मस्तुद्रोणेन संयुतम् । मिना पचेत् सर्व घृततैलावशेषितम् ॥ २६१ ॥ तन्मात्र योपयुञ्जीत निःशेषोदररोगजित् । वायुना वलिना क्षिप्रं पित्तं व्याप्याखिलां तनुम् ॥ २६२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १९] मानसोल्लासः। स्वमसान्तरमाविश्य त्वचि पाण्डत्वमावहेत् । चित्रकं वरं च प्रत्येकं पलसम्मितम् ॥ २६३ ।। पिप्पल्यईपलं ग्राह्य धान्यकस्य पलद्वयम् । दाडिमस्यापि कुडवं वारिणा परिपेषयेत् ॥ २६४ ॥ पलानि विंशतिः सर्पिः सलिलस्याढके पचेत् । पाण्डुरोगे च हृद्रोगे गुल्मेष्वस्सुि मारुते ॥ २६५ ॥ पलास-पळीहरोगे च प्रयोगोऽयमुदाहृतः । अतिसारादितः शीघ्रं लवणाम्लं निषेवते ॥ २६६ ॥ तस्य सजायते शोफा मुकुच्छ्रः सर्वदेहगः । विषा शुण्ठी देवदारु-कृमिघ्नेन्द्रयवोषणम् ॥ २६७ ॥ कथितं पाययेच्छोफरोगिणं शोफशान्तये । एरण्डातिविषा-रास्ना-देवदारुमहौषधैः ॥ २६८ ॥ सहितो गुग्गुलदेयः सर्वात च यथा नृणाम् । अतिमकुपितं रक्त तीक्ष्णैरबैर्विदाहिभिः ॥ २६९ ॥ प्रणं विसर्पिः कुरुते विसर्पः स तु कथ्यते । मुस्तारिष्टपटोलंच पेषितं शीतवारिणा ॥ २७ ॥ विसर्प तेन सेपेन क्षालयेच परेऽहनि । वटपरोहास्तरुणाः कदीमध्यमिश्रिताः ॥ २७१ ॥ मनाम्ग्रन्थिसम्मिमा विसर्प नन्ति लेपनात् । विरुदेनानपानेन साधूनां निन्दवा वधात् ॥ २७ ॥ पाक्तनैः कर्मभिः क्रूरैः कुष्ठं श्वित्रं च जायते । पात्री निम्बस्य पत्राणि पेषितानि तु भक्षयेत् ॥ २७१ ॥ कासमर्दशिफाकुष्टं लिम्मेद् दन्तशगम्बुना । एइची निम्बपत्राणि पटोळ कण्टकारिका ।। २७४ ।। Aho ! Shrutgyanam Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोडासः। [विधाता त्रिफला च करभश्च वासा रास्ना समांशकार। तेषां कायेन कल्केन घृतं सम्यग् विपाचितम् ॥ २७५ ॥ पानेन सर्वकुष्ठानि नाशयत्यचिरादिदम् । सारेण राजवृक्षस्य पूतिकीटः समन्वितः ॥ २७६ ॥ लेपाचित्रं निहन्त्याशु कुर्याञ्च समवर्णताम् । अत्यर्थ सेवितैर्वायुर्धातूनां क्षयकारकैः ॥ २७७ ॥ कुपितः कुरुते व्याधीन् सकृच्छ्रान् शूलपूर्वकान् । कोकिलाक्षक[पा] यस्य पानात् तच्छाकमोजिनः ॥ २७८ ॥ तद्वारिणा च स्नातस्य वातव्याधिविनश्यति । शुण्ठी राना चित्रकं च देवदारु सहाचरम् ॥ २७९ ॥ एषां कार्य तेलमिनं पिषद् वातरुजापहम् । रक्तं प्रकुप्यत्यनेन पटुनाऽतिविदाहिना ॥ २८०॥ आतपाल्लवणादम्ला यानाद् व्यायामसेवनात् । वायुना प्रेरितं तच्च नससन्धिः (१) प्रवर्तते ॥ २८१ ॥ सर्वेभ्यो रोमपेभ्यः स व्याधितिशोणितः । अमृताया रसः कायः कल्कं चूर्णमयापि वा ॥ २२ ॥ बहुकालस्थितं वातशोणितं नाशयेद् द्रुतम् । इक्षुर्दाता च सौवीरं मस्तु मधं तुषोदकम् ॥ २८३ ॥ शर्कराक्षौद्रसम्मिश्रं वॉगिसके प्रशस्यते। रोगे रक्ताधिके जाते सर्वाङ्गव्यापकेऽसृजि ॥ २८४ ॥ शिरामोक्षः प्रकर्तव्यः स्नेह-स्वेदपुरस्सरः । गाद निपीड्य गात्राणि यन्त्रणैर्विविधैरपि ।। २८५ ।। कुठार्या व्रीहिवक्त्रेण सिरा विध्येद् ऋजुक्षताम् । ललाटे लोचनोपान्ते नासायां रसनातले ।। २८६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय १९] मानतीजासः। मणिबन्धे बाहुसन्धौ दयाले गुल्फमूनि । हरेत् प्रादेशिकं यथितं वारिजन्ममिः ॥ २८७ ॥ मेदोग्रन्थीन् शितैः शस्त्रैः पाटयित्वा समुद्धरेत् । प्रदामश्मरीं शस्त्रैः पाटयित्वा बहिः क्षिपेत् ॥ २८८ ॥ गुदमध्येऽगुली क्षिप्त्वा मध्यमा परिवर्तयेत् । अश्मरीमानयेद् युक्त्या वस्त्युपान्तं विचक्षणः ॥ २८९ ॥ उच्छूना तो परिज्ञाय च्छिन्द्याच्छोण लाघवात् । कुलत्थमश्मभेदं च गोक्षुरं काययेजले ॥ २९० ॥ तयूषं पाययेत् माझो हरेत् तेनापि चाश्मरीम् । एवमन्येषु 'रोगेषु दोषो यत्राधिको भवेत् ॥ २९१ ॥ तस्य दोषस्य कुर्वीत चिकित्सा मतिमान् भिषक् । ॥ इति वैद्यकम् ॥ औषधपर्यायानाह-यवासो दुरालमा । कटुका तिक्ता। सारिका मुगन्धिः । धन्वयवासो यशस्वी दुरालभा । लघुपश्चमूली बृहतीद्वयं शालि. पर्णी पृष्टिपर्णी गोक्षुरम् । कायस्था काकमाची । नाकुली लागुलिका। वयस्था धात्री । चोरका ग्रन्थिपर्णी । शिला मनःशिला । कालया दावी । मनन्ता दुरालभा । श्यामा कृष्णा। त्रिवृद् अरुणं त्रिवृत् । औषधं शुण्ठी । वटशुगः अविकासितपल्लवः । वृक्षाम्लः तिन्तिडीका । कोळ बदः । ही कर्कटकशृङ्गी । पील कर्णाटे गोत्रः । एरण्डः उरूबुकश्च पञ्चाङ्गुलः । विषा अतिविषा । माणिमन्यं सैन्धवम् । बिल्वः श्रीपर्णी । काश्मर्या तकारी। एकली टुण्टुकः कर्णाटे दुडुलुः । महापञ्चमूलम् । अभीरुका शतावरी । वृषिकः कर्णाटे वेलाडके । सैन्धवं सौवर्चलं बिडं काचः समुद्रः । पयस्या दुग्धी । रामठं हिङगु । ऊषणं मरीचम् । महौषधं शुण्ठी। वासा आटरूषकः। इस्योषधनिघण्टुः ॥ ३०० ॥ १ B दोषेषु । २ B गोतु Aho! Shrutgyanam Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ मानसोल्लासः । पितृपक्ष समुद्भूता मातृपक्षसमुद्भवाः । आत्मसम्बन्धिनो ये च बान्धवास्ते प्रकीर्तिताः ॥ ३०२ ॥ बन्धूनां मधुरं वाच्यं यथायोग्यं सहासनम् । संविभागश्च कर्तव्यः सुवर्णाम्बर भूषणैः ॥ ३०२ ॥ [विशतिः १ तनाः किङ्करा दास्यो दासाः कर्मकरास्तथा । बुद्धिखनसहायाश्च भृत्यास्ते परिकीर्तिताः ॥ ३०३ ॥ एतेषां रक्षणं सम्यक् तथा भरणपोषणम् । दानं सम्माननं कार्ये लोकद्वय हितैषिणा ॥ ३०४ ॥ इति दीनानाथार्त बन्धु-भृत्यपोषणाध्यायः ॥ १९ ॥ व्याघ्र-सिंह- गजैथोरैः शत्रुभिचापि विद्रुतः । भयाच्छरणमायातः शरणागत उच्यते ॥ ३०५ ॥ रक्षेच्छरणमायातं प्राणैरपि धनैरपि । स यशो महदाप्नोति जनैः सर्वैः प्रपूज्यते ॥ ३०६ ॥ क्रतवो विधिसंयुक्ता भीतसध्वस्य रक्षणम् । तुळया तोलितं तत्र प्राणत्राणं विशिष्यते ॥ ३०७ ॥ इति शरणागतरक्षाध्यायः ॥ २० ॥ राज्यमाप्तेर्नृपकुलभुवामित्युपायोपदेशः सम्यक् सोमेश्वरनृपतिना गर्भसारस्वतेन । ash चन्द्रप्रतिमयशसा रञ्जनाय प्रजानां पुण्यौघानामपि च महतां वृद्धये वृ (बु) द्धये च ॥ ३०८ ॥ इति श्रीमहाराजाधिराजसत्याश्रयकुलतिलक - चालुक्या भरण- श्रीमद्मलोकमछश्री सोमेश्वरदेवविरचितेऽभिलषितार्थ चिन्तामणौ मानसोल्लासे राज्यप्राप्ते तूपायकथने प्रथमं प्रकरणम् । Aho! Shrutgyanam Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयं प्रकरणम्। राज्यमाप्तिनिमित्तानि कथितानीह विंशतिः । तस्थिरीभावमुद्दिश्य कारणानि वदाम्यहम् ॥ १॥ सत्यं सत्त्वं कुलं शीलं तारुण्यं च मुरूपता । दाक्षिण्यमविसंवादो वृद्धसेवा कृतज्ञता ॥ २ ॥ अक्षुद्रपरिवारत्वं बुद्धिवसहायता । वश्यसामन्तता शक्तिर्दक्षत्वं क्षिपकारिता ॥ ३ ॥ शौर्य धैर्य क्षमौदार्य शुचित्वं पियवादिता । उद्योगित्वमनिर्वेदः सर्वदा धर्मकारिता ॥ ४ ॥ जनानुरागः सौभाग्यं शास्त्रशस्त्रास्त्रनैपुणम् । विवेको दृढचित्तत्वं कलाकुशलता धनम् ॥ ५॥ दोषानुरूपदण्डत्वं सर्वसत्त्वहितैषिता । दयालुत्वं प्रसन्नत्वं भृत्याना सुखदर्शिता ॥ ६ ॥ आर्जवं तत्त्वदर्शित्वं सदोत्साहो नयज्ञता। मालाचार इत्येतैर्गुणैर्युक्तो वरो नृपः ॥ ७ ॥ सत्यं शौर्य क्षमा दानं पञ्चमी स्याद् गुणज्ञता । अवश्यम्भाविनः पञ्च गुणास्त्वेते महीभुजाम् ॥ ८ ॥ विभूति च तथा कीर्ति धर्म च विजयं सुखम् । यशवेत् सततं राजा गुणानेतान् विधारयेत् ॥ ९॥ इति राजगुणाः ॥ भाव्यं पथ्याशिना नित्यं नीरुजो जायते ततः। व्याधिभिर्वजितो राजा राजकार्यक्षमो भवेत् ॥ १०॥ Aho ! Shrutgyanam Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः १ वलिमिः परितैर्युक्तो रूपेण रहितो भवेत् । श्रीजनै त्यवर्गच भूपतिश्चावमन्यते ॥ ११ ॥ तस्माद् रसायनान् योगान् यत्नात् सेवेत पार्थिवः । खगात्रो भवेत् तेन वल्लीपलितवर्जितः ॥ १२ ॥ जीवेच मुचिरं काळं राजा रोगविवर्जितः। तस्माद् रसायनं वक्ष्ये नृपाणां हितकाम्यया ॥ १३ ॥ रसायनक्रिया देधा कथिता पूर्वसूरिभिः । कुटीप्रवेशनादेका वातातपसहा परा ॥ १४॥ कुटीमवेशका बया लोकरक्षापरैर्नृपः । बातातपसहा सेव्या राजकार्याविनाशिनी ॥ १५ ॥ कृष्णपक्षत्रयोदश्यां सन्ध्यायां शाल्मलीतरुम् । बलि-पूजादिकं खा रक्तसूत्रेण वेष्टयेत् ॥ १६ ॥ * हा अमृतस्यन्दिनी अमृतं सब स्वाहा' सप्तकत्वः प्रयुक्तेन मन्त्रेणानेन शाल्मलीम् । अभिमन्य कुगरेण हन्याद् वारान् बहून् सुधीः॥ १७ ॥ तस्या निर्यासमादाय प्रभाते भास्करोदये । धाच्या मृनशतावर्या गुहूच्याः स्वरसैः पृथक् ॥ १८ ॥ सप्त वारान प्रतिरसं तेन भावनमाचरेत् । सञ्चूण्योलूखले कुर्याद् गुटिका बदः समाः ॥ १९ ॥ प्रतिवासरमेकैकां धारयेद् गुटिका मुखे। अहां द्विसप्तके याते नूतना रदना नखाः ॥ २० ॥ सम्भवन्ति ततः केशा भृङ्गपक्षसमत्विषः । द्वयष्टवाकृतिश्यो बल-धीर्यसमन्वितः ॥२१॥ Aho ! Shrutgyanam Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्याय मानसोडासः। समासहसजीवी स्यामात्र कार्या विचारणा। मूल स्वर-पत्र-पुष्पाणि फलमित्यापञ्चकम् ॥ ११ ॥ आहृत्य शाल्मलीक्षात् सूक्ष्मचूर्ण तु कारयेत् । मधुना सर्पिषा युक्तं विडालपदमात्रकम् ॥ २३ ॥ तल्लिदेव प्रातरुत्थाय मासमेकं हिताशनः । मासेन जायते तेन वलीपलितवर्जितः ॥ २४॥ मासदयप्रयोगेण मत्तेभवलभार भवेत् । जीवत्यब्दसहस्राणि तेजस्वी तरुणाकृतिः ॥ २५ ॥ नीरुजो वीर्यसम्पनो नात्र कार्या विचारणा। पुण्यार्कदिवसे याते हस्तिकर्णी समाहरेत् ॥ २१ ॥ गयाशुष्को प्रकुर्वीत समूला चूर्णयेत् ततः । बाससा गालितं सूक्ष्म मधु-सर्पिःसमायुतम् । निषभाण्डे निधायाथ धान्यराशौ निग्रहयेत् ॥ २७ ॥ एकविंशे दिने याते समुदत्य तदौषधम् । पलं पलं प्रतिदिनं भक्षयेदवतन्द्रितः ॥ २० ॥ यावर दिनशतं याति तावदम्बं विवर्जयेत् । सहयूपसमायुक्तं भुजीत मधुरं लघु ॥२९॥ वर्षपोरदेशीयो मेधावी कोफिलस्वरः। योजनानां शतं याति दिनेनैकेन मानवः॥३०॥ नवनागवलोपेतो जीवेदब्दसहलकम् । हस्तिकर्णीपयोगेण निश्चितं भवभाषितम् ॥३१॥ सिता रक्तां च पीतां च कृष्णा मुण्डि चतुर्विधाम । पशम्यां शुरूपक्षस्य पूर्णिमायां तु पा निशि ॥ १२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मानतोलासः। [विंशतिः । रोहिण्यां श्रवणे पुष्ये रेवत्पांचा समुद्धरेत् । पञ्चाङ्गानि समाहृत्य छायायां परिशोषयेत् ।। ३३ ।। सर्पिषा मधुना साई बिडालपदमात्रकम् । तञ्चूर्णमुपयुमीत क्षीरषष्टिकभोजनः ॥ ३४॥ एकविंशे दिने याते दिव्यदेहो भवेबरः। मासत्रयप्रयोगेण पुमान् प्रामोत्यदृश्यताम् ॥ ३५ ॥ पञ्चमासप्रयोगेण मोदते विबुधैः सह । मासपट्कमयोगेण चिरायुः खेचरो भवेत् ॥ १६ ॥ वेतस्य ब्रह्मवृक्षस्य पत्रं पुष्पं फलं हरेत् । शोषयित्वा तु तच्चूर्ण भक्षयेन्मधुसर्पिषा ॥ ३७॥ सप्तरात्रप्रयोगेण बलीपलितवर्जितः । दयष्टवर्षाकतिर्मयों जीवेदग्दशतत्रयम् ॥ ३८ ॥ अमरौं पुष्यनक्षत्रे समूलां पल्लवान्विताम् । बोषयित्वा तु तच्चूर्ण शुद्धकायप्रयत्नवान् ॥ ३९ ॥ सर्पिषा मधुना साई भक्षयेत् कर्षमात्रकम् । गव्यक्षीरसमायुक्तं कुर्याउछाल्यत्रभोजनम् ॥ ४० ॥ स्वराः सर्वे विनश्यन्ति मुखरोगो जलग्रहः । पाः-श्रोत्रभवो रोगः. सर्वशूलं प्रशाम्यति ॥ ४१ ॥ कतिः किटभो दाहः कुष्ठं लूता भगन्दरः । प्रमेहो जठरो गुल्मः क्षयोऽपस्मार एव च ॥ १२ ॥ सप्ताहे प्रथमे याते नश्यन्त्येता रुजः स्फुटम् । पासे दितीयसमाहे दिव्यदेहो भवेबरः ।। ४३ ।। - १ B दत्पान्न । Aho ! Shrutgyanam Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याप] मानसीलामः। हतीये भूतलस्थानि निधानान्यपि पश्यति । चतुर्वे कुशिता नीला जायन्तेऽस्य शिरोरुहाः ॥ ४४ ॥ समासहस्रत्रितयं जीवेत् तारुण्यसंयुनः । पञ्चमे गन्धनीरजगन्धं गात्रे वात्यलम् ॥ ४५ ॥ पष्ठे वाचस्पतिपख्यः प्रज्ञावान् जायते नरः । सप्तमे पूर्णचन्द्राभः सर्वाडादकरो भवेत् ॥ ४६ ॥ अष्टमे सर्वसत्त्वानां पीयूषं वितरत्यसौ। सप्तद्वीपाधिपत्यं च नवमे सप्तके भवेत् ॥ ४७ ।। भूतं भव्यं भविष्यं च दशमे वेत्ति सप्तके । भश्रुतान्यपि शास्त्राणि जानात्येकादशे नर॥ ॥ ४८ ॥ द्वादशे सप्तके मासे द्वितीय इव मन्मयः । वशीकरोति सर्वाणि नर-नारीमनास्पपि ॥ ४९ ॥ संवत्सरोपयोगेन समालक्षत्रयं मुखी। जरापलितमुक्ताको जीवत्येव न संशयः ॥५०॥ एवं रसायनं प्रोक्तमव्याधिकरणं नृणाम् । नृपाणां हितकामेन सोमेश्वरमहीभुना ॥ ५१ ॥ इति रसायनम् । इति स्वाम्यध्यायः ॥ १ ॥ कुलीनाः श्रुतसंपन्नाः शुचयश्चानुरागिणः । शूरा धीराध नीरोगा नीतिशास्त्रविशारदाः ॥५२॥ प्रगरमा वाग्मिनः माज्ञा रागद्वेषविवर्जिवाः । वैराणां चाप्यकर्तारः सचित्राः स्युर्विभूतये ।। ५३ ॥ सत्यसन्धा महात्मानो द्धचित्ता निरामयाः । जनानां सम्मना दक्षाः सचिवा नृपसमदे ।। ५४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोलासः । विधतिः२ साता राजकार्येषु रागद्वेषविवर्जिताः । आय-व्यये च निपुणाः सचिवाः कोशवृद्धये ॥ ५५ ॥ अमार्गे वर्तमानस्य नृपस्य प्रतिकूलगा। बोधयन्तः प्रियैर्षाक्यः सचिवाः स्युनुपर्द्धये ॥ ५६ ॥ अन्वयादागतान् शुद्धानुपधाभिः परीक्षितान् । सचिवान् सम वाष्टौ वा कुर्चीत मतिमान नृपः ॥ ५७ ॥ स्वदेशजाताः सत्मज्ञा ऊहापोहविचक्षणाः । देशकालविदो धीराः साध्यासाध्यविवेकिनः ॥ ५८॥ परेजितमा धीमन्तः स्वाकारस्य निगृहकाः । मन्त्रसंरक्षकाचाप्ता मन्त्रिणः स्युमहीपतेः ॥ ५९॥ इति मन्त्रिलक्षणम् ॥ प्रय्यां च दण्डनीत्यां च शान्तिकर्मणि पौष्टिके । भाथर्वणे च कुशलः स स्याद् राजपुरोहितः॥६॥ - इति पुरोहितलक्षणम् ॥ षोडशमिर्हता षष्टिः प्रभवायसंयुता । तानैरपि समायुक्ता शकभूपोद्गताः समाः ॥ ६१ ॥ एकपश्चाशदधिके सहस्र शरद गते । शकस्य सोमभूपाले सति चालुक्यमण्डने ॥ ६२ ॥ समुद्ररशनामुर्वी शासति क्षतविद्विषि । सर्वशास्त्रार्थसर्वस्वपायोधिकलशोद्भवे ॥६३ ॥ सौम्यसंपत्सरे चैत्रमासादौ शुक्रवासरे। परिशोधितसिद्धान्तलब्धाः स्युर्बुवका इमे ॥ ६४ ॥ पड़ारा घटिकाः सा पदान्यपि च विंशतिः । भानि पड़िशस्वेिकचत्वारिंशच नाटिकाः ॥ ६५ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ३] मानसोल्लासः। प्रतिमासं क्षिपेद् वारं द्वात्रिंशमाडिकास्तियौ । नक्षत्रे दे पदे द्वे च नाड्यश्चैकादशापराः ॥ ६६ ॥ योज्यास्त्याज्याः पुनर्योज्या वारे नाडीषु पिण्डके । नक्षत्रे च पुनयोंज्यास्तिथिरेतायता भवेत् ॥ ६७ ॥ तिथौ वारेण संयुक्त सप्तभिश्च विभाजिते । अवशिष्टो भवेद् वार एवं वारविनिर्णयः ॥ ६८॥ पदे युक्तं तिथौ भागं चतुर्दशभिराहरेत् । चतुर्दशावधि ज्ञेयं धनं शिष्टमणं भवेत् ॥ ६९ ॥ आधे त्रयोदशे पश्च द्वितीये द्वादशे दश । एकादशे तृतीये च नाड्यः पञ्चदश स्मृताः ।। ७०॥ चतुर्थे दशमे तु स्यादेकोना विंशतिस्तु ताः । पञ्चमे नवमे नाड्यो द्वाविंशतिरुदीरिताः ॥ ७१ ॥ पष्ठेऽष्टमे च घटिकाश्चतुर्विशतिरीरिताः । सप्तमे घटिका ज्ञेयाः सङ्ख्यया पश्चविंशतिः ॥ ७२ ॥ मकरे सूर्यघटिकास्तिस्रः षद् च प्रवेशयेत् । कर्कटेऽप्येवमेव स्याद् घटिकास्तु वियोजयेत् ॥ ७३ ।। कुम्भे द्वादश विज्ञेयाः संयोज्या रविनाडिकाः। तावस्यो घटिका सिंहे रेचनीया विचक्षणैः ॥ ७४ ॥ मीने रुद्राश्च रुद्राय योज्याः सूर्यस्य नाटिकाः । तावत्य एव कन्यायां स्फोटनीया मनीषिभिः ।। ७५ ॥ मेषे रुद्रा दिशो नाज्यो मेलनीया धनाभिधाः । तुलायां नाडिकास्तास्तु वारणीया ऋणाभिधाः ॥ ७६ ॥ वृषेऽष्टौ षट् च नाड्यः स्युमिश्रणीया विपश्चिता । अपसार्यास्तु ता नाडयो वृश्चिके परिकीर्तिताः ॥७७॥ Aho ! Shrutgyanam Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोलासः। [विंशतिः२ युग्मे तिस्राव शून्यं च घटयेद् गणकोत्तमः । तदेव धारयेद् राशौ कोदण्डाख्ये विचक्षणः ॥ ७८ ॥ रचिताः संविऐऽत्र चतुर्मिर्गुणयेत् तिथिम् । तृतीयं तु तिथेभाग नक्षत्रघटिका अपि ॥ ७९ ॥ धनाख्या रविनाइयोऽत्र योज्यास्त्याज्या ऋणाभिधाः । संयोज्य विभजेत् षष्ट्या त्वर्धमृक्षण योजयेत् ॥ ८॥ वक्ष्यामि शशिनक्षत्रं सूर्यः योजयेत् तिथिम् । तिथि सङ्गुणयेत् षडभिर्योजयेत् तिथिनाडिभिः ॥ ८१ ॥ शोध्यं तद् रविनाडीषु ततः शशिभमाप्यते । शशि-रवियोगे योगो नाडियोगेऽस्य नाडिकाः ॥ १२॥ हन्याद् द्वाभ्यां तिथिं तत्र त्याज्यमेकं ततो घटीः । दिनस्य स्फोटयेत् तत्र सप्तभिः परिभाजिते ॥३॥ करणं जायते शिष्टं भुक्तिः सूर्योदयात् पुरः । करणं घटिकास्त्रिंशदिति पञ्चाङ्गनिर्णयः ।। ८४ ॥ इति पञ्चाङ्गनिर्णयः ॥ अनेन विधिनाऽऽनीय तिथिवारसमन्वितम् । नक्षत्रं च तथा योगं करणं गणकोत्तमः ॥ ८५ ।। अभिषेके पट्टबन्धे विवाहे जातकादिषु । गृहप्रवेशे यात्रायां गृहारम्भे च सारे ।। ८६ ॥ शुक्ले चन्द्रबलं मुख्यं कृष्णे ताराबलाबलम् । शतानि पश्च दोषाणां बुधो हन्ति विनिश्चितम् ।। ८७ ॥ शुक्रः पञ्च सहस्राणि दोषाणां हन्ति निश्चितम् । लक्षमेकं तु दोषाणां मुराचार्यों रुपपोहति ।। ८८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याव.] मानसोल्लासः। एवं ब्रहप शात्वा दुर्बलत्वं च पापिनाम् । लमं यः कथयेत् सम्यक् स कार्यो गणको नृपैः ॥ ८९ ॥ इति ज्योतिर्विद्-गणकलक्षणम् ॥ कुलजः शीलवान धीरश्चतुर्भाषाविशारदः । गजाचारोहणे दक्षः शस्त्र-शास्त्र विचक्षणः ॥ १० ॥ शकुने च निमित्ते च चिकित्सायां च वेदिता । वाहभेदविधानज्ञः सारेतरविशेषवित् ॥ ९१ ॥ दाता भियंवदो दान्तो मतिमान् दृढनिश्चयः । राज्ञा सेनापतिः कार्यः शूरो भृत्यविशेषवित् ।। ९२ ॥ इति सेनापतिलक्षणम् ॥ स्मृतिशास्त्रार्थकुशला रागद्वेषविवर्जिताः । धर्माधिकारिणः कार्या विलोभा भयवर्जिताः ॥ १३ ॥ स्मात्तैः सह समालोच्य यथोक्तं दण्डमाचरेत् । शक्तो राज्ञा विचारशः कार्यों दण्डधरो द्विजः ॥ ९४ ॥ इति धर्माधिकारिसमाध्यक्षलक्षणम् ॥ लोहवस्त्राजिनादीनां रत्नानां च विभेदवित् । व्यये च तद्विशेषज्ञो रक्षणे निपुणः शुचिः ॥ ९५ ॥ अनाहार्यः सुसन्तुष्टश्चातो बहुकुटुम्बकः । सावधानो गणितविद् भाण्डागारे नियोजयेत् ॥ ९ ॥ एकाद्या नवपर्यन्ता नवकाका स्वरूपतः । दशोत्तरक्रमेणैते वर्धन्ते बिन्दुवर्धिताः ॥ ९७ ॥ बिन्दुरेको दशस्थाने शते विन्दुद्वयं मरेत् । बिन्दुत्रयं. सहखे स्यादयुते तचतुष्टयम् ॥ ९८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ बिन्दवः पञ्च लक्षे स्युः प्रयुते बिन्दवस्तु पट । बिन्दवः सम कोटौ स्पुरचुदे चाष्ट विन्दवः ॥ ९९ ॥ बिन्दवो नव पझे स्युः खेदं स्युर्दश बिन्दवः । एकादश निखरे तु द्वादश स्युमेहाम्बुजे ॥ १०० ॥ शक्ने त्रयोदश प्रोक्ताः समुद्रे मनुविन्दवः । अन्त्यसंझे समाख्याता बिन्दवस्तिथिसंजया ॥१०१ ॥ द्विरष्ट बिन्दवो मध्ये परार्धे दश सप्त च । एवमष्टादशस्थानं गणितं व्यावहारिकम् ॥ १०२ ॥ एकाङ्के बिन्दुरेकश्चेद् दशकं तत् प्रकीर्तितम् । द्वितीयाङ्के पुरो चिन्दौ सङ्ख्या विंशतिरिष्यते ॥ १०३ ॥ एवं तृतीयायङ्केषु बिन्दुः स्यात् पुरतो यदि । त्रिंशदाद्या तदा सङ्ख्या नवत्यन्ता प्रकीर्तिता ॥ १०४ ॥ शताधिके परार्धान्ते यावन्तो बिन्दवः स्थिताः । यस्याङ्कस्य पुरोभागे तावत्सङ्ख्या तु सा भवेत् ॥ १०५॥ अङ्काः कतिपये स्थाप्या गुणनीयतया स्थिताः । अधस्तात् प्रथमाङ्कस्य गुणकाभ्याङ्कमालिखेत् ॥ १०६ ॥ एकैकं गुणयेत् सर्वपरिस्थमधस्तनैः । लब्धं निवेशयेत् तत्र स्वास्योपरि लेखयेत् ॥ १०७॥ एकादिगुणने योज्या बुधैरता विपर्ययात । लब्धं तु दशकस्थानं पूर्वेणाङ्केन योजयेत् ॥ १०८ ॥ गुणाकारक्रमेणादावशान् कतिपयान न्यसेत् । विभाजकानधस्तेषां सुसमं विन्यसेद् बुधः ॥ १०९ ॥ अधोऽङ्क हृदये कृत्वा तर्कयेदमूर्ध्वगम् । विभागो लभ्यते येन तेन भागं प्रकल्पयेत् ॥ ११० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्याव.] मानसाहासः। अनेन क्रमयोगेण भजनीयं विभाजयेत् । एकत्र स्थापयेल्लब्धमवशिष्टं तथाऽन्यतः ॥ १११ ॥ अवशिष्टं पुनर्भकृत्वा यथाभागानुसारतः । लब्धे तु मेलयेत् तत् तु भागहारोऽयमीशः ॥ ११२॥ प्रमाणं फलमिच्छति राशित्रितयमुच्यते । इच्छया गुणितं वस्तु प्रमाणेन विभाजयेत् ॥ ११३ ॥ प्रमाणं द्रव्यमाख्यातं फलं द्रविणमिष्यते । द्रव्यजातिविभागोत्थामिच्छामिच्छन्ति मूरयः ॥ ११४ ॥ त्रैराशिकमिदं प्रोक्तं गणितं गणकोविदैः। पश्चराशिकमत्रैव सप्तराशिकमेव च ॥ ११५ ॥ नवराशिकमप्यस्मिन ज्ञेयं त्रैराशिके विधौ । सकलं गणितं प्रोक्तं सक्षेपेण प्रसन्नतः ॥ ११६ ॥ वक्ष्यामि गणितं भिन्नमुद्देशे खण्डितं हि यत् । रूपमंशस्तथा च्छेदो नामैतद् व्यावहारिकम् ।। ११७ ।। रूपमूर्ध्वमपश्चाशस्तस्याधः छेद इष्यते । राशिदर्य प्रकर्तव्यं गुण्यं गुणकमेव च ॥ ११८ ॥ संपूर्ण कथ्यते रूपमंश उद्धरितो भवेत् । तस्यांशस्य विभागो यः स च्छेदः परिकीर्तितः ॥ ११९ ॥ गुणयेदंशमशेन च्छेदं छेदेन बुद्धिमान् । फलांशं विभजेत् तज्ज्ञः फलेन च्छेदजन्मना ॥ १२० ॥ गुणनं भिन्नमाख्यातं भिन्नभागोऽभिधीयते । रूपांशच्छेदमार्गेण भाज्यो राशिविधीयते ॥ १२१ ॥ भाजक तथा चान्यो राशिर्लेख्यो विपश्चिता। छेदेन गुणयेद् रूपं लब्धमंशेन मेलयेत् ॥ १२२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० मानसोल्लासः । छेदेनांश विपर्यासाद् गुणयेद् राशियुग्मके । भाजकेन भजे भाज्यं भिन्नभागोऽयमीदृशः ॥ ११३ ॥ इति गणितम् ॥ [विंशतिः २ ईदृशं गुणकारं च भागहारं च तवतः । त्रैराशिकविधानं च यो जानाति विनिश्चितम् ॥ १२४ ॥ अलुब्धः सावधानश्च रागद्वेषविवर्जितः । स राता गणकः कार्यः कोशे राष्ट्रे च धीमता ॥ १२५ ॥ इति कोशाध्यक्षगण कलक्षणम् ॥ उन्नतो रूपवान् दक्षः प्रियवाग् दर्पवर्जितः । ग्राही चिचस्य सर्वेषां प्रतीहारः प्रशस्यते ॥ १२६ ॥ इति प्रतीहारलक्षणम् ॥ प्रगल्भो मतिमान् दक्षः सर्वभाषाविशारदः । सन्धि विग्रहतत्त्वज्ञो लिपिज्ञोऽक्षरवाचकः ॥ १२७ ॥ सामन्तमण्डलेशानां मान्यकानां विशेषतः । आवाहने विसर्गे च स्थापने निपुणो भृशम् ॥ १२८ ॥ पाड्गुण्यविधितत्त्वज्ञो देश-काळ-विभागवित् । आप-व्ययौ च लोकं च देशोत्पत्ति च वेत्ति यः ॥ १२९ ॥ अर्यरक्षापरो भृत्यः कृत्याकृत्य विवेकवित् । सान्धिविग्रहिकः कार्यों राज्ञा कार्यविशारदः ॥ १३० ॥ इति सन्धिविग्रहिकलक्षणम् ॥ सर्वदेश लिपिज्ञाता लेखने कुशलः पटुः । अधीतो वाचको धीमान् योज्यो राज्ञा स लेखकः ॥ १३१ ॥ इति लेखकलक्षणम् ॥ Aho! Shrutgyanam Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्याय..] आयुर्वेदविदधानां निमित्त-शकुनादिविस् । शिक्षावेदी तुरगाणां भूमिभागविशारदः ॥ १३२ ।। बलावलरयाभिज्ञः पियवाक् प्रियदर्शनः । कृतविद्यश्च शूरश्च सारथी पार्थिवोचितः ॥ १३३ ॥ इति सारथिलक्षणम् ॥ असम्भेद्यः शुचिर्दक्षः कृतानस्य परीक्षकः । सूदानां च विशेषज्ञः सूदाध्यक्षो विधीयते ।। १३४ ॥ कुलक्रमसमायातास्तुष्टेष्टाश्चानुकारिणः । कृत्तकेशनखा दान्ताः पराभेद्या नृपे रताः ॥ १३५ ।। अम-पानविशेषज्ञा मांसपाकविशारदाः । शाफ-पाककलादक्षाः पकानकरणे बुधाः ॥ १३६ ॥ पानव्यानतत्त्वज्ञाः खण्डपाकस्य वेदिनः। क्षीरप्रकारचोद्धार: सूदा कार्या महीभुना ॥ १३७॥ इति सूदरक्षणम् ॥ नराणां च गजानां च वाजिनां च गवामपि । मृगाणां च खगानां च ये जानन्ति चिकित्सितम् ॥ १८ ॥ परं पारङ्गताः सम्यगष्टाङ्गे तु चिकित्सिते । शस्त्रकर्मकलादक्षा मन्त्रे तन्त्रे च कोविदाः ॥ १३९ ॥ देहे शिरसि वाले तु विषे शल्ये ग्रहेऽपि च । दृषे रसायने चैव कुशला भिषनोऽयम् ॥ १४० ॥ रोगनामनिदानं तु रुजं जानन्ति तत्त्वतः । औषधं रूप-नामभ्यां जानन्तो भिषनो वराः ॥ १४१ ।। Aho ! Shrutgyanam Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ मानसोल्लासः। [विशतिः २ घमौ विरेचने नस्ये बस्तौ शस्त्रक्रियास्वपि । शस्यन्ते भिषजः सम्यक् निष्णाताः पञ्चकर्मसु ॥ १४२ ॥ यत् किश्चिदौषधैः साध्यं शरीरेषु हिताहितम् । सम्यग विदन्ति ये वैद्या नृपयोग्या भवन्ति ते ॥ १४३ ॥ कुच्छ्रसाध्यमसाध्यं वा साध्यं जानन्ति तत्वतः । देशं कालं वयोऽवस्था प्रकृतिसात्म्यमेव च ।। १४४॥ असाध्याः परकीयाणामात्मस्वामिहिते रताः । धर्मज्ञा चित्ताच वैद्याः कार्या महीभुजा ॥ १४५ ॥ इति वैद्यलक्षणम् । विरूपो लोभहीनश्च सावधानो जितेन्द्रियः । इशिताकारकुशलः शुद्धान्ताध्यक्ष इष्यते ॥ १४६ ॥ मुप्तकामोपमाः शुद्धाः पुरुषाः कृतबुद्धयः । अन्तःपुरेक्षकाः कार्या नृपेण शुचियोनयः ॥ १४७ ।। धर्मज्ञाः शुचयो धीराः प्रभुभक्ता जितेन्द्रिया। कार्या राज्ञा कुमाराणामध्यक्षाः स्युः परीक्षिताः ॥ १४८ ॥ कर्मस्वन्येषु सर्वेषु दक्षाश्च शुचयस्तथा । शूराश्च बुद्धिमन्तश्च शस्त्र-शास्त्रकलाविदः ।। १४९ ॥ योग-क्षेममुखार्थाय दुष्टसंयमनाय च । आत्मनश्च विनोदाय राज्ञा योज्या पथाईतः ॥ १५० ॥ इत्यन्तःपुररक्षक कुमारपरिचारकलक्षणम् ॥ इत्यमात्याध्यायः ॥ ३॥ बर्द्धते भृगुणैर्देशो देशवृद्धिर्नपर्द्धये । भूमी गुणवती तस्मादावसेद् भूतये नृपः ॥ १५१ ॥ १ B सप्तकामोपधाः । Aho ! Shrutgyanam Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 अध्याय ३] मानसोल्लामः । सर्वसस्यवती सेव्या खनिद्रविणगर्मिणी । पशव्या बहुपानीया पुण्यवद्भिर्जनैर्युता ॥ १५२ ।। स्तम्बरमवनोपेता बड्याना सुशोभना । भूर्नदीमातका शस्ता सर्वदा धरणीभुजाम् ॥ १५ ॥ ईग्भूमियुतं राष्ट्र महापत्तनमासि]तम् । पालनाद् वयेद् राजा स्वकोशस्याभिवृद्धये ॥ १५४ ॥ स्वराष्ट्र पालयेद् राजा प्रजाः पुत्रानिवौरसान । चौरेभ्योऽमात्यकेभ्यश्च तथैवार्याधिकारितः ॥ १५५ ॥ चौरः साहसिकबाटैर्दुराचारैस्तथा परैः। विशेषेण च कायस्थैः पीडिताः पालयेत् प्रजाः ॥ १५६ ॥ स्वराष्ट्र यो नृपो मोहात् पीडयेदनवेक्षया । राज्यात् स च्यवते शीघ्रं प्राणेभ्यः सह पन्धुभिः ।। १५७ ॥ ययेव प्राणिनां प्राणा हीयन्ते देहपीडनात् । तथैव भूभुजा प्राणा हीयन्ते देशपीटनात् ॥ १५८ ॥ एकयामप्रभु कुर्याद् दशग्रामप्रभु तथा। प्रामाणां विंशः कुर्यात् प्रभुं शत-सहस्रयोः ॥ १५९ ॥ ग्रामे दोषं समुत्पन्नमशक्तश्शासितुं यदि । दशग्रामेशिनं शंसेद् दशेशो विंशतीश्वरे ॥ १६० ॥ विशतीशः शतेशाय तत् सर्व विनिवेदयेत् । घूयाद् ग्रामशतस्वामी सहस्रस्वामिनेऽखिलम् ॥ १६१॥ उत्पमारतु तथा दोषान् ग्रामादाशु निवेदितान् । हात्वा तत्र स्थिताः सर्वे कुर्युस्तेषां प्रतिक्रियाम् ॥ १६२ ॥ इति राष्ट्रपाटनविवेकः ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ मानमोलासः। (विशतिः २ पञ्चाशत्तम आदेयो भागः पशु-हिरण्ययोः। अष्टमो द्वादशो वाऽपि पष्ठो वा घान्यतो नृपैः ॥ १३ ॥ फलक्षेत्रानुरूपेण गृहीयात् तत्करं नृपः। स्वीकुर्यादथ षड्भागं पण्ययोर्मधुसर्पिषोः ॥ १६४ ॥ रस-गन्धौषधीनां च मूल-पुष्प-फलस्य च । तृणानां शाकपत्राणां कर्मणां चर्मणामपि ॥ १६५ ॥ मृत्तिकाकृतभाण्डाना भाण्डस्याश्मभवस्य च । आपत्स्थितोऽप्याददीत श्रोत्रियान करं नृपः ॥ १६ ॥ इति करादानविवेकः ॥ भूपदेशमकृष्टं तु गवां चाराय कल्पयेत् । देवोधानं सुप्रतिष्ठं मुनिभ्यो वितरेन्नृपः ॥ १६७ ॥ मृगसङ्घातसम्पन्न करसत्त्वैर्विवर्जितम् । वनमात्मविहारार्थ पालयेत् पुरपार्श्वगम् ॥ १६८ ॥ प्रत्यन्तदेशसम्भूतं वनं गिरिदरीयुतम् । सर्वेषां गृहकृत्यर्थ पार्थिवः प्रतिपादयेत् ॥ १६९ ॥ फलैमूलस्तृणैः का? शाकैस्तत्रोत्थितैनराः । जीवन्ति ये ततो ग्राह्यो दशमोऽशो महीभुजा ॥ १७० ॥ द्विपिजन्मवन श्रेष्ठं वर्तमानगजं च यत् । अवीवर्तिभिर्लोक रक्षणीयं क्षमाभुजा ॥ १७१ ॥ इति देशजनरक्षा ॥ गङ्गासागरहेमाद्रिप्रयागाणां च मध्यतः । धनं माच्यमिति मोक्तं लोहिताधिश्च पश्चिमे ॥ १७२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ३] मानसोल्लासः। त्रिपुर्याः कोसलादौ च वेदिकारूपकं धनम् । श्रीक्षेत्रं गौरवकालमागिरेयं वनं स्मृतम् ॥ १७३ ॥ विन्ध्यादिचित्रकूटाद्रिकलिङ्गद्रविडाश्रितम् । वनं कालिङ्गकं नाम समुद्रावधि कीर्त्यते ॥ १७४ ।। श्रीशैले दशैले च मलयाद्रौ तथैव च । पनं दाशार्णकं नाम करिणां जन्मकारणम् ॥ १७५ ॥ सह्याद्रिभृगुकच्छान्तमपरान्तवनं स्मृतम् । द्वारवत्यामनन्त्यां च सौराष्ट्रवनमुच्यते ।। १७६ ॥ कालसरे कुरुक्षेत्रे सिन्धुसागरसङ्गमे । वनं पाचनदं प्रोक्तं हिमालयकृतावधि ॥ १७७ ।। कालिकं वेदिकारूपं दाशार्ण च वनं वरम । आरिरेयं तथा प्राच्यं मध्यमं वनमिष्यते ॥ १७८ ॥ अपरान्सं पाचनदं सौराष्ट्रं चाधर्म वनम् । एवमष्ट बनान्याहुगेजानां जन्मनः पदम् ॥ १८९ ॥ इति गजवनविभागलक्षणम् ॥ घन्ति ये करिणः पापा घातयेत् तान् महीपतिः । दैवान्मृतेषु नागेषु तेषां दन्तान् समाहरेत् ॥ १८० ॥ फरिणो मूत्र-शकृतां लिसा.रटवीचरैः। अरुष्करदलच्छन्नै नीयादिभयूथकम् ॥ १८१॥ पदमचारैलेण्डैश्च तदाघातैर्हतद्रुमैः । बुध्येत शयनस्थानैर्गजांस्तद्वंहितैरपि ॥ १८२ ॥ १ A यत्नतो। Aho ! Shrutgyanam Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः २ पारिकर्मयुतः पादपाशजालसमन्वितः । करिणी-तुरगारूडैर्यन्त्रिभिहुभिर्वृतः ॥ १०३ ॥ समादिष्टः क्षितीशेन करिलक्ष्मविचक्षणः । द्विरदान धारयेद् ग्रीष्मे यन्त्रतो लक्षणान्वितान् । १८४ ॥ धारयेत् त्रिविधैर्बन्धैर्द्विपानामधिपादिभिः । पार्थिवेन विधातव्यः पुरुषैर्बन्धवेदिमिः ॥ १८५ ॥ पशान्धो वारिबन्धो बन्धश्चानुगतः परः । उत्तमत्रिपकारः स्याद् बन्धः करटिनामयम् ॥ १८६ ॥ आपातश्चावपातश्च द्वौ बन्धौ निन्दितौ मतौ । विनश्यन्ति गजा यस्मात् तस्मात् तौ परिवर्जयेत् ॥ १८७ ॥ चारस्थानं समालोक्य घासं हृयं ततः क्षिपेत् । सल्लकी-कदलीदण्डानिक्षुकाण्डान् सुधासमान् ॥ १८८॥ नलिनीकन्दकान् मृष्टान् नवान् पिप्पलपल्लवान् । वैणवं हरितं पत्रं तथैवान्यद् गजप्रियम् ॥ १८९ ॥ द्विपियूथं समागच्छेदाबासस्य लम्पटम् । प्रत्यहं दृश्यते तत्र तदा मागों निरुध्यते ॥ १९० । क्रोशमात्रायतां भूमि विस्तारेण चं तत्समाम् । वृक्षः परिघया वाऽपि समन्तात् परिवेष्टयेत् ॥ १९१ ॥ द्वारं तत्र प्रकुर्वीत निवर्तनमहीमितम् । कुञ्जराणां प्रवेशार्थ वारिबन्धविचक्षणः ॥ १९२ ॥ प्रविष्टान् द्विरदास्तत्र सम्यगालोक्य बुद्धिमान् । वारिद्वारं निरुन्धीत महास्तिरस्कृतम् ॥ १९३ ।। अन्तःस्थान् बन्धयेमागान् सर्वलक्षणसंयुतान् । ईग्विधस्तु यो बन्धो वारिबन्धः स उच्यते ॥ १९४॥ इति वारिबन्धः ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ राध्याप३) मानसालासः। समाष्टौ वा वशा वश्या महाकाया महाजवाः । मारूढाः पत्रसंउमाः पाशहस्ताश्च इस्तिपाः ॥ १९५ ॥ करिणीना करे पाशान् हस्तिबन्धाय दापयेत् । वायोरया शनैर्गच्छेद् गजानामन्तिकं बुधः ॥ १९६ ॥ घटयित्वा वशा नागैर्बध्नीयात् तत्र कुरान् । एष बन्धः समाख्यातो वशाबन्धो मनोहरः ॥ १९७ ॥ इति वशाबन्धः ॥ वीक्ष्य पापदिकैयनानिद्रितं गजयूथकम् । बहुभिः पाशहस्तश्च कूर्चहस्तैः ममामृतः ॥ १९८ ॥ हस्तैस्तथा कैश्चिदाराहस्तैश्च कैश्चन । वापकैर्विविधैः सार्धं गच्छेन्मातबन्धकः ॥ १९९ ॥ अश्वारूढैशाख्दैगजारूदैविचक्षणैः । सातो गजबन्धाय गच्छेद् राज्ञा नियोजितः ।। २०० ।। लोयस्थानेषु सर्वेषु समीपस्थेषु शाखिषु । पारोपयेद् बहून् भृत्यास्तूयहस्तान् विचक्षणान् ॥ २०१ ॥ निद्रावशसमापन यत्र यूथं व्यवस्थितम् । पातःकाले शनैर्गच्छेभिदाघे समुपस्थिते ।। २०२ ॥ सदागतेरधोभागे निवार्य जननिस्वनम् । सहसा वादयेत् तूर्य काहलारवसंयुतम् ॥ २०३ ॥ उत्थाय चकितं वेगानागययं विनिद्रितम् । सम्भ्रान्तमानसं भीतं पलायनपरं भवेत् ॥ २०४ ॥ ततस्तदनुगच्छेयुरिबन्धविशारदाः । येन मार्गेण सन्त्रस्तं गतं यूथं बनान्तरम् ॥ २०५ ।। Aho ! Shrutgyanam Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोडासः। [विशतिः २ यूयं विहाय यो गच्छेद भयसन्त्रस्तमानसः। तं नागमनुगच्छेयुः पाशकूर्चकधारिणः ॥ २०६ ॥ पिपासितः परिश्रान्तस्तोयान्तिकमुपागतः । श्रुत्वा तूर्यकृतं नादमन्यतः अपळायते ॥ २०७ ॥ शुष्कलालाजलेऽत्यर्थ गते च जडतां गजे । इलथे करे च पुच्छे च निश्चले कर्णपल्लषे ॥ २०८ ॥ ततो पेगयुता वश्या वशाश्चाधोरणेरिताः । श्रान्तं द्विपं समागत्य वेष्टयन्ति समन्ततः ॥ २०९ ॥ ततः पाशधरा दक्षा वशागात्रतिरोहिताः । निबध्नन्ति नराः शूरास्तं गात्रापरयोपिम् ॥ २१० ॥ कक्षामागे च कण्ठे च निगडैश्चमनिर्मितेः । समीपस्थस्य वृक्षस्य स्कन्धे बध्नन्ति सिन्धुरम् ॥ २११ ॥ अनेन विधिना यत्र क्रियते गजबन्धनम् । स बन्धोऽनुगतो शेयो बन्धविधासु कोविदः ॥ २१२ ॥ इत्यनुगतबन्धः॥ नालिकेराअनोद्भुतवल्ककल्पितपाशकम् । षष्टिहस्तायु(य)तं स्थौल्ये प्रकोष्टसमतां गतम् ॥ २१ ॥ तस्या निक्षिपेत् गात्रे पूरयेच्च दृढं मृदा । शेषाधं पाशवत् कुर्याद् गजग्रीवाधिरोधनम् ॥ २१४ ॥ तेन पाशेन यो बद्धः स भृशं पीडितो भवेत् । प्रमादोऽपि भवेत कापि वापि जीवति कुञ्जरः ॥ २१५ ॥ आपाताख्यः समाख्यातो बन्धोऽयं हस्तिबन्धकैः । निन्दितश्च भवत्यष सिंहसंशयितः सदा ।। २१६ ॥ इत्यापावधः ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ३] मानसोल्लासः । चतुर्हस्तमितं खातं विस्तरेण करट्यम् । पञ्चबाहुप्रमाणेन दीर्घ कुर्वीत बुद्धिमान् ॥ २१७ ॥ गोपनीयं प्रयत्नेन यष्टिभिस्तृणपल्लौः । यस्तत्र निपतेन्नागो विघ्नो ह्यस्यापि सम्भवेत् ।। २१८ ॥ खो वा जायते पादेवक्षो वाऽस्य प्रभज्यते । दन्तैर्वियुज्यते वापि कोऽपि जीवति वा न वा ॥ २१९ ।। बन्धोऽयमवपाताख्यस्तेनात्यर्थं विगर्हितः । यस्मानागाः प्रणश्यन्ति तेनैवं वर्जयेद् बुधः ॥ २२० ॥ || इत्यवपातबन्धः ॥ प्रबध्य कुअरान् राजा तेषां लक्षणमुत्तमम् । अनकमंशकं सत्वं कुलं सम्यग् विचारयेत् ॥ २२१ ॥ सप्तारत्निसमुत्सेधो नवारन्यायतश्च यः । दशारत्निपरीणाहः स गजो मानतः शुभः ॥ २२२ ॥ अरनिमात्रेणाधिक्यादरालः परिकीर्तितः । अत्यरालो द्वयाधिक्यान्निन्द्यौ मानाधिकाविमौ ।। २२३ ॥ अरनिमाने हीनो यः स मध्यो मानतो गजः । अरनिद्वयहीनस्तु कनिष्ठः परिकीर्तितः ॥ २२४ ॥ कनिष्ठादपि यो हीनो वामनः स निगद्यते । वामनादपि यो हीनः कुब्जौ निन्छौ गजाविमौ ॥ २२५ ॥ सुस्निग्धौ रदनौ वृत्तौ दक्षिणश्च समुन्नतः । अकृष्टं तालु तानं च दशाष्टौ नखराः शुभाः । २२६ ॥ अपाण्डु मेहनं शस्तं वालयुक्तश्च वालधिः । अच्छिद्रौ विस्तृतो कर्णौ मधुपिङ्गविलोचने ॥ २२७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० मानसोल्लासः । बृंहितं मेघगम्भीरं लोहितं पुष्करं वरम् । अङ्गुली वर्तुळा दीर्घा गौरश्यामा तनो | छविः ॥ २२८ ॥ शुभं लक्षणमेतत् स्याद् गजानां जयकारिणाम् । तस्माल्लक्षणसंयुक्ता गजा ग्राह्या महीभुजा ।। २२९ ।। इति गजशुभलक्षणम् ॥ अतो यदन्यत तत् सर्वे विरूपं विकृतं च यत् । न्यूनाधिकं तु यद्रूपं तत्सर्वमशुभं विदुः ॥ २३० ॥ [विंशतिः २ हीनलक्षणसंयुक्ता गजास्त्याज्या महीभुजा । दुर्भिक्षशोकभयदा लोचनोद्वेगकारिणः ॥ २३१ ॥ गति - चेष्टा-स्वरान् यस्य सत्त्वस्यानुकरोति यत् । अनूकमिति तद् ज्ञेयं गजचेष्टितकोविदैः ॥ २३२ ॥ शुभानां प्राणिनां चेष्टां शुभानूकं वरं हि तत् । निन्दितानां तथा चेष्टामनूकं निन्दितं विदुः ॥ २३३ ॥ सुव्यक्ता विन्दवो यस्य गौरो वर्णो मनोहरः । लोहितौ नेत्रयोः प्रान्तौ स्निन्धौ च बलिनौ रदौ ॥ २३४ ॥ एवं लक्षणसम्पूर्णो गजो ब्रह्मांशको मतः । पूजाऽसौ नरेन्द्राणां विजयारोग्यवर्धनः ।। २३५ ॥ कक्षाभागे तथा कण्ठे यः समः पृथुलासनः । मुखे कोकनदच्छायो युग्मरोमविराजितः || २३६ ॥ बहुकालमदः शूरो मेघनादेन हृष्यति । प्रजापत्यंशको नागः प्रजावृद्धिकरो ह्यसौ ॥ २३७ ॥ बिन्दवो वलिरेखा वा दृश्यन्ते यस्य वर्ष्मणि । स्वस्तिकैर्वर्धमानाब्जैर्नन्द्यावर्तैश्च सन्निभाः ॥ २३८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय ः ३ ] मानसोल्लासः । रक्तोत्पलसमे नेत्रे स स्यादिन्द्रांशको गजः । समरे विजयं दद्यात् परभूपालसम्पदः ।। २३९ ॥ ताम्रावोष्ठौ तथा जिह्वा धात्रीफलसमद्युतिः । नयने रदनौ यस्य कुसुमोदकसन्निभम् (भौ) ॥ २४० ॥ धनदांशसमुद्भूतो धनरत्नसमृद्धिकृत् । नृपाणां भवने तिष्ठन् पूजितः कुअरोत्तमः || २४१ || कृष्णमेघनिभो वर्णे स्त्यान सर्पिः सदग्रहः । आसने सुभगो मूर्ध्नि गम्भीरघनगर्जितः || २४२ ॥ स्रवति प्रचुरं दानं वरुगांशकसम्भवः । आवे रिपुसंहारी निजभर्तुर्जयप्रदः ॥ २४३ ॥ त्रिलीमण्डितः कण्ठे क्षौद्रपिङ्गविलोचनः । केतकच्छायदशनः पृथुरक्ताग्रपल्लवः || २४४ || बिन्दुमान् पाण्डुवर्णश्च शशाङ्कांशकसम्भवः । सङ्गराङ्गणे राज्ञां गजोऽयं विजयप्रदः ॥ २४५ ॥ अग्निज्वालासहग्रोमा केशवालेषु पिङ्गलः । पिङ्गाक्षः पिङ्गतालुच पिङ्गपुष्करशोभितः || २४६ || अग्न्यंशसमुद्भूतः साक्षाद् वह्निरिवाहवे । भस्मसात्कुरुते सैन्यमशेषं द्विषतां सदा ॥ २४७ ॥ कृष्णा यस्य तनो छाया गौरी चाक्ष्णोश्च कर्णयोः । नखा दीपशिखाभासा निविडा मांसला तनुः ॥ २४८ ॥ अग्निमारुतयोरंशसंजातः कोपनो जवी । तस्य दोषोऽयमेकः स्यादङ्कुशं यन्न मन्यते ॥ २४९ ॥ दोषाभासो गुणस्तस्य सञ्जाते समरोत्सवे । प्रचण्डत्वाद् भयं धत्ते रिपुसैन्येष्वयं गजः ॥ २५० ॥ Aho! Shrutgyanam Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ मानसोल्लासः । दन्तमध्यात् समारभ्य क्रमशो हीयते करः । ताम्रपुष्करपर्यन्तं सुममाणायताङ्गुलीः ॥ २५१ ॥ सुगन्धिः सीरासारो दीर्घा निश्वाससन्ततिः । घनवबृंहितध्वानो वळीहीनं वपुर्दृढम् ॥ २५२ ॥ मृदु सूक्ष्माअनश्यामं सर्वाङ्गीणं तनूरुहम् । श्रीगर्भपुष्करच्छाया कान्तिः सर्वाङ्गसङ्गिनी || २५३ ॥ सुवर्णकेत कोथोतों रदनौ वर्चुलौ ढौ । आयतः प्रोन्नतो मध्ये निम्नः स्याद्वाद्कुम्भकः ॥ २५४ ॥ अपेतमवानोष्ठः सगदे च समे शुभे । मुखमण्डलमत्यर्थं रम्यं दृष्टिमनोरमम् ॥ २५५ ॥ [ विंशतिः २ पुष्पसारसमे नेत्रे पक्ष्मले प्रान्तलोहिते । fort मृदुविस्तीर्णौ समौ छेदविवर्जितौ ॥ २५६ ॥ शिराविरहित कर्णवाल दुन्दुभिनिस्वनौ । लानत कुम्भौ समौ लक्ष्मीकुचोपमौ ॥ २५७ ॥ रम्यौ भालतलन्यासौ विपुलं चासनं समम् । ऋजुस्वो गलोद्देशो दीर्घावंसौ च मांसलौ ॥ २५८ ॥ बाहू दीर्घाजू पीनाधोऽधः क्रमशः कृशौ । कूर्माकारत लालग्नाः स्निग्धार्धेन्दुनिया नखाः ।। २५९ ॥ विंशतिर्वा दशाष्टौ वा शोभनाः परिकीर्तिताः । उरो विशालमुद्धद्धमुदरं प्रतनों कुचौ ॥ २६० ॥ अस्रस्तं मेहनं शस्तं वराहजघनं वरम् । सज्जचापनिभो वंशो वालधिश्वायतः कृशः ।। २६१ ॥ शङ्खचक्रगदाकारा बिन्दुनो वलयोऽथवा । दृश्यन्ते यस्य नागस्य स विष्वंशसमुद्भवः ।। २६२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । अभिषेकोचितः पूज्यः सर्वकार्यप्रसाधकः । पुनाति रत्नदो राष्ट्रं धनधान्य समृद्धिकृत् || २६३ ॥ अध्यायः ३ ] शुच्याहाररतो नित्यं वलिरेखाविवर्जितः । अनामयः स्थिरः शूरो देवसत्त्वा भवेद् गजः ॥ २६४ ॥ मेधावी वै क्रियादक्षः कामुकश्चपलः पटुः । क्षण शस्तो गजो गन्धर्वसत्वजः ।। २६५ ॥ जळावगाहनासक्तः कोपनः कातरो भृशम् । भोजने लम्पटो नित्यं कुअरो विप्रसवजः || २६६ ॥ दान्तः शूरः सदोत्साहो बली युद्धविशारदः । अभीरुराहवे धीरः क्षत्रसच्चो भवेद् द्विपः ॥ २६७ ॥ दण्डसाध्यस्तथा नीचो मूर्खश्च मलिनाशनः । आवे निरतः शूरः शुद्रसम्वो भवेत् करी ।। २६८ ॥ विश्वासघातकः क्रूरो गमने कुटिलक्रमः । न भुङ्क्ते च मदेऽत्यर्थे सर्पसत्त्वः करी मतः ॥ २६९ ॥ एतानि त्रीणि सत्त्वानि राजसस्य भवन्ति हि । राजसः पित्तभूयिष्ठः पित्तलस्तप्तविग्रहः || २७० || उन्मार्गेण सदा याति विवेकरहितो भृशम् । उन्मत्त इक्रं चेष्टायां द्विपः पैशाच सध्वजः ।। २७१ ॥ निशायां चरति स्वैरं मनुष्याणां वधे रतः । वेगवान सबलो हस्ती रक्षः सवसमुद्भवः ॥ २७२ ॥ एते द्वे तामसे सत्त्वे तामसो वातलो भृशम् । सातो ते रूक्षो निद्रालयपलो गजः ॥ २७३ ॥ जायते पाण्डुरो यस्तु केशे रोमणि वाळछौ । वर्णे च नेत्रयोश्चैव स स्यादैरावतान्वयः ॥ २७४ ॥ Aho! Shrutgyanam ५३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ युद्धक्षमः सारसरक् कोपी युद्धविशारदः । कुंजरोमा स्थूलशीर्षः पुण्डरीकान्वयो गजः ॥ २७५ ॥ श्यामवर्णः सुदेहश्च कृष्णकेशः कृशोदरः । स्थूलबिन्दुदेनुवैशः पुष्पदन्तान्वयः करी ।। २७६ ॥ अग्निवर्णः सुवर्णाक्षो वेगवान् जललम्पटः । आयतो विस्तृतोऽत्यर्थ वामनान्वयजो द्विपः ॥.२७७ ॥ पचण्डः कुमुदच्छायः कपोतनयनः शमी। मेधावी तनुरोमा च मुमतीकान्वयो गजः ॥ २७८ ।। स्निग्धवालधिदन्तो यश्चेतोहरकरान्वितः । उनतस्थळजघनः सोऽअनान्वयसम्भवः ॥ २७९ ॥ रौद्रः पृथुशिरा इस्वोत्रहस्तसमन्वितः । पेचकेऽल्पः स्थूलकल: सार्वभौमान्वयो गजः ॥ २८० ॥ कुमुदाभः स्थूलतनुः स्निग्धलोहितलोचनः । कृष्णविस्तीर्णहस्तानः कुअरः कुमुदान्वयः ॥ २८१ ॥ इति गजमातिभेदलक्षणम् ॥ एवं परीक्ष्य यत्नेन लक्षणैरुत्तमान् गजान् । स्वीकुर्यादवनीपालो विपरीतान परित्यजेत् ।। २८२ ॥ म्वीकृताननुषदांस्तान् सिन्धुरान् शिक्षयेनृपः। अवधेऽथ वधे कर्म वाक्पदाकुशभक्तिभिः ॥ २८३ ॥ शुभे दिने शुभे क्षेत्रे सौम्याशासम्मुखं गजम् । प्रातः कृत्वा द्विजश्रेष्ठान् मन्त्रसामा निवाचरे(ये)त् ॥ २८४ ।। १ Aकृष्णं । Aho ! Shrutgyanam Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ] मानसोल्लासः। दधि दूर्वाक्षतैः पुष्पैश्चन्दनैः कुङ्कमादिभिः । अर्चयेत् सिन्धुरं राजा सम्यग् दिनचतुष्टयम् ॥ २८५ ॥ ततश्चासौ स्मरेज्जन्म सामजन्मा मतङ्गजः । अभिनन्दन गृहावासं त्यजन् कान्तारजं सुखम् ॥ २८६ ॥ उत्तमेऽहनि नागानामपराणि प्रबन्धयेत् । निगडैश्चर्मनिर्माणदृढं गाढं यथासुखम् ॥ २८७ ।। पुरोभागे त्रयं स्थाप्यं कर्णदेशे नरावुभौ। पश्चाब्रागे तथा द्वौ च सप्ताराधारिणः क्रमात् ॥ २८८ ॥ पक्षयोरुभयोः स्थाप्ये करिण्यावतिशिक्षिते । आराहस्तैस्ततः सर्वैनियम्योऽसौ मतकनः ॥ २८९ ॥ शिक्षयेच ततो भाषां कर्मज्ञानाय दन्तिनम् । अनालस्येन निर्बन्धात प्रत्यहं गजपोषकः ॥ २९० ।। एबेहोति च सञ्चाले स्थितावप्यपसारणे । हेडे हेडेति वक्तव्यं गजशिक्षाविशारदैः ॥ २९१ ॥ पार्षद्वयापसार च फापेति विनियोजयेत् । उपवेशे प्रयोक्तव्यं विश्वीति वचनं स्फुटम् ॥ २९२ ॥ नुहरुत्थापने वाच्यं गजशिक्षाविशारदः। दिवाच्यं करसङ्कोचे वप(प्) डिहरेति शिक्षकैः ॥ २९३ ॥ भरीहेति प्रयोज्यं हि करस्योत्क्षेपणं प्रति । स्तम्भादिलगने वाच्यं हिज्ज-हिज्जेति शिक्षकैः ।। २९४ ॥ गात्रस्योत्क्षेपणे वाच्यं भले भलेति यन्त्रिभिः । अपरानमने किः किर्भणनीय विचक्षणैः ॥ २९५ ॥ याचनार्थ महामात्रो दे दे शब्दमुदीरयेत् । करमहारणे शिक्ष्यो हेहैयेति द्विरुक्तितः ॥ २९६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ कवलासने द्विर्यािवद् ग्रासो निगीर्यते । परित्यागे प्रयोक्तव्या चुरु चुदेति भारती ॥ २९७ ।। मा मा निवारणे वाच्यो गजशिक्षाविशारदैः। हिंग हिगेति वक्तव्यो भूमौ दन्तामिघातने ॥ २९८ ॥ बहिः शुण्डाभिघाते तु हू हू वाक्यं प्रबोधयेत् । शनैः सञ्चारणे वाच्यो लेच लेचेति कोविदैः ।। २९९ ॥ आह्वाने कुञ्जरो ज्ञाप्य इच्च भूभेति यन्त्रिभिः । कस्यापि ग्रहणे वाच्यो घे घे शब्दं मतङ्गजः ॥ ३०० ॥ ईदृशी प्रथमा भाषा शिक्षयेत मतङ्कजम् । भाषाभिषं गजं जातं पश्चात्कर्मणि योजयेत् ॥ ३०१ ॥ पुरःस्थितेन शुण्डाया नारदो(आरतो)दः शनैः शनैः । कर्तव्यस्तद्भयानागः करं सङ्कोच्य तिष्ठति ॥ ३०२ ॥ आराभ्यां मुखपार्श्वस्थौ तुदतो हनुयुग्मकम् । उन्नमयय मुखं नागस्तद्भयादवतिष्ठते ।। ३०३ ॥ ततः कर्णसमीपस्थः कर्णमूले प्रतोदनम् । कुरुतस्तद्भयाद् दन्ती कर्णावुद्धृत्य तिष्ठति ॥ ३०४ ॥ आराघातभयत्रस्तो यदि पश्चाद् व्रजेद् गजः । आराभ्यां तोदनं तस्य कुर्वाते पार्श्वसंस्थितौ ॥ ३०॥ ततः स्थानकसंसिद्धः सौष्ठवं लभते गजः । शिक्षयेत ततो नागं यन्त्रितं सर्वकर्मसु ॥ ३०६ ।। ततः कर्मकरो दक्षः पाणिभ्यां धृतभस्त्रिकः । स्थानके तिष्ठतस्तस्य प्रविश्य करिणोऽग्रतः ॥ ३०७ ॥ - १ A गिह गिहेति. Aho ! Shrutgyanam Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अय: ] 8 मानसोल्लासः । आस्फालय भस्त्रिके पूर्व दर्शयेदेकभस्त्रिकाम् । हूहूकारैर्द्विपं यन्ता भस्त्रिका हनने नुदेत् ॥ ३०८ ॥ करं कुण्डलिनं नागः प्रसार्य धृतभस्त्रिकाम् । महरेद् बाह्यहस्तेन प्रेरितः सनिषादिना ॥ ३०९ ॥ हस्तमुत्क्षिप्य नागेन्द्रं यन्ता वाक्यैः सुशिक्षितैः । अन्तःकरेण भस्त्रायां ताडनं कारयेद् दृढम् ॥ ३१० ॥ पार्श्वद्वयसमायुक्तौ ततः कर्मकरावुभौ । भस्त्रिका पाणिक नागमात्मानं प्रति कर्षतः || ३२१ ॥ बाह्यहस्तेन तत्रैकां भस्त्रिकां ताडयेद् गजः । अन्तर्हस्तेन वाप्यन्यां प्रहरेत पुनः पुनः ॥ ३९२ ॥ क्रमेणानेन तिष्ठन्ति भस्त्रिकापाणयस्त्रयः । चत्वारः पञ्च वा दक्षा दर्शयन्तः स्वभस्त्रिकाः || ३१३ ॥ अन्तर्हस्तेन तत्रैकां बाह्यहस्तेन चापराम् । प्रहारयेत् तमारूढो भस्त्रिकास्ता यथाक्रमम् || ३१४ ॥ ततः प्रहरणे दक्षो भवेन्मातङ्गकुञ्जरः । पश्चात् प्रहरतेऽङ्गानि नरोष्ट्र - गज- वाजिनाम् || ३१५ ॥ ततोऽङ्गधारणैः शिक्ष्यस्तज्ज्ञैः कर्मकरैः करी । घासं चेष्टं गुडं शालिमिक्षुकाण्डमथापि वा ।। ३१६ ॥ दर्शयित्वा प्रलोभ्यैनं प्रसारितकरं गजम् । विवेष्टयेन्निनं गात्रं घासलोभं प्रदर्शयेत् ।। ३१७ || करेण वेष्टितो गाढं दद्याद् ग्रासं कर स्थितम् । आस्फाल्य च करं तस्य स्वयमुद्धृत्य गच्छति ।। ३१८ ॥ धारणे विगताशङ्कं धारयेल्लोचनैर्विना । स्वाङ्गं च विधृतं यत्नाद् वञ्चयेत् परिवर्तनैः ।। ३१९ ॥ Aho! Shrutgyanam ५७ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानतीबासः। ततोऽशेन संख्दा प्रतोदेन च पीडितः । हिग हिंगेति संभोक्तो धृत्वा कर्मकरं दृढम् ॥ ३२० ॥ मुखं निक्षिप्य भूभागे पोहाबाकुच्य तिष्ठति । हस्तेन वेष्टयेदई कर्मकारस्य कुञ्जरः ॥ ३२१॥ पश्चादू वर्मविनिर्माण प्रतिरूपं निराकृतिः। निक्षिपेदग्रहस्तस्य कुअरस्य वधैषिणः ॥ ३२२ ॥ ततः शुण्डाभिघातेन दन्ताग्रन्यधनेन च । गात्राभ्यामपराभ्यां च मर्दनेन च पेपणैः ॥ ३२३ ॥ चूर्णीकरोति तद्रूपं वधर्मणि शिक्षितः । ततोऽसौ मारयेज्जन्तून् कृतान्त इव शिक्षितः ॥ ३२४ ॥ चतुरस्र कर्मलप्तं वालुकापूरितं मनाक् । दण्डाप्रसंस्थित कार्य तल्लाक्षेत्यभिधीयते ॥ ३२५ ॥ दण्डाने दर्शयेल्लसं कम्पयेच सशब्दकम् । निषादिपेरितो नागो रदनाभ्यां निहन्ति तम् ॥ १२६ ॥ समुमतैस्तथा नीचैर्धनैः पार्थसमाश्रितैः । विविधैः पहरेल्लाला दन्तघातेषु शिक्षितः ॥ ३२७ ॥ उन्मोच्य बन्धनं पश्चात् पूर्वस्थानकमाश्रितम् । सञ्चारयेत् ततो वीभ्यामष्ठाभ्यां नुदन् गजम् ॥ ३२८ ॥ कवलं दर्शयित्वा तु धावयेदनु धावतः । पार्धाभ्यां वर्तनः पश्चान्मण्डलेषु प्रचारयेत् ।। ३२९ ॥ एवं संशिक्षितो नागो वध्यावध्येषु कर्मसु । जयत्येकोऽपि सङ्कामे नर-चाजि-गजान् बहून् ॥ ३३० ॥ शुभलक्षणसंयुक्ताः कुअरा भद्रजातयः । शिक्षिताः सर्वकर्माणि बले कार्या महीभुना ॥ ३३१॥ इति गमशिक्षानिरूपणम् ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याप:३]. मानसोबासः। रजतस्य सुवर्णस्य रत्नानां रक्षयेत् खनिम् । तत्सम्भूतेषु सर्वेषु करं राजा समाहरेत् ॥ ३३२ ॥ द्रव्यं भूमिगतं विद्या विविधैर्लक्षणैर्नृपः। लक्षणानि प्रवक्ष्यामि निधीनां प्रतिपत्तये ॥ ३३३ ॥ . वर्षासु शीतकाले च यत्र गोधा निरन्तरम् । वृश्चिका पनगो वाऽऽस्ते तत्र भूमौ भवेनिधिः ॥ ३३४ ॥ दृश्यते खारीटानां सम्भोगो यत्र भूतले । निरिन्धनो ज्वलेद् वहिवं तत्र भवेनिधिः ॥ ३३५ ॥ आवतों दृश्यते यत्र विना हेतुं जलाशये। पङ्कजानि द्विशीर्षाणि तत्र तोये भवेभिधिः ॥ ३३६ ॥ अपरोहस्य वृक्षस्य प्ररोहो यत्र दृश्यते । रम्भा कण्टकिनी यत्र भूमौ तत्र भवेनिधिः ॥ ३३७ ॥ शिखाद्वितयसंयुक्तस्तालो यत्र प्रदृश्यते । पुष्पस्योपरि पुष्पं वा क्षितौ तत्र भवेनिधिः ॥ १३८ ॥ दृष्ट्वाऽक भुवमाघाय वृषभो यत्र नदेति । वारं वारं प्रहृष्टात्मा क्षोण्यां तत्र भवेनिधिः ॥ ३३९ ॥ इस्तद्वयसमुत्सेधो वाष्पो यत्रानिमित्तकः । रूढिर्वा लौकिकी यत्र निधि तत्र खनेपः ॥ ३४० ॥ खनिशास्त्रेषु सर्वेषु लक्षणेन निरूप्यते । तत्रापि लक्ष्यते तज्ज्ञैनिधिविध्युक्तमार्गतः ॥ ३४१ ॥ लक्षणैर्व्यजिते द्रव्ये स्थाननिश्चराहेतवे । अस्ति नास्तीति शङ्काया निवृत्त्य वर्तिरुच्यते ॥ ३४२ ॥ उलूकस्य वसाकोलतैलं कमलतन्तवः । एतैर्विहितया वा कजलं परिकल्पयेत् ॥ ३४३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ कन्जलेनाधयेत् तेन लोचने प्रयतो नरः । करस्थमिव भूमिस्थं निधि पश्यति निश्चितम् ॥ ३४४ ॥ सिताईतूलकस्यापि पद्मसूत्र विवेष्टितम् । सप्तकृत्वो वराहस्य वसया परिभावितम् ॥ ३४५॥ कपिलासपि(?)दीप्तं च कज्जलं जनयेद् यदा । तत्कज्जलाक्तनयनो निधिं पश्येद् भुवि स्थितम् ।। १४६ ॥ हृदयं कृष्णकाकस्य जिह्वां चादाय पेषयेत् । अअयेन्मधुना सार्द्ध नेत्रे पश्येत् ततो निधिम् ।। ३४७ ॥ रात्रौ कृष्णचतुर्दश्यामुलूकवसयोक्षिताम् । पद्मसूत्रकृतां वर्ति कज्जलार्थ प्रदीपयेत् ॥ ३४८ ॥ तेनाअिताक्षियुगलो गृध्रदृष्ट्याऽवलोकयेत् । शर्वर्या वीक्षते बाद निधि भूमितलस्थितम् ॥ ३४९ ॥ कुनी गन्धकं तालं शशकस्य च लेण्डिका । पद्मसूत्रार्कतूलेन वत्तिमेतैः प्रकल्पेयत् ॥ ३५० ॥ कपिलासर्पिषा दीप्ता वतिनिधिसमीपगा। उत्पतेत् मुस्फुटे द्रव्ये निपतेत् सा महानिधौ ॥ ३५१ ॥ अर्क-शाल्मलि-कार्पास-तूलकल्पिततन्तुभिः । पट्ट-पङ्कजसूत्रैश्च वेष्टयेच्छिखिनः शिखाम् ॥ ३५२ ॥ महानिलॅप्रदीप्ता सा निधिस्थाने प्रदर्शिता । त्रिशिखा जायते सद्यो निपतेद् वा निधिस्थले ॥ ३५३ ॥ एवं ज्ञात्वा निधिस्थानं पुष्प-धूपाक्षतैः फलैः । यथायोग्यं च बलिभिः पूजयेत् त्रिदिवौकसः ॥ ३५४ ॥ १ B “तूले च । २ B ‘मेकां । ३ B प्रस्फुटे। ४ B पक्व' । ५ B तैल। Aho ! Shrutgyanam Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ३] मानसोल्लासः। श्रीधरं च श्रिया युक्तमुमया च महेश्वरम् । ब्रह्माणं च सरस्वत्या सहितं पूजयेद् बुधः ॥ ३५५ ॥ गणेशं च गणैः सार्द्ध तत्स्थानाधिपति तथा। भूतवेतालसहितं क्षेत्रपालं च पूजयेत् ॥ ३५६ ॥ धनेशं यक्षसङ्घातपरिवारसमन्वितम् । जळस्थाने विशेषेण वरुणं च प्रपूजयेत् ॥ ३५७ ॥ त्रिभिर्वा पञ्चभिर्वापि सप्तभिनव भिस्तथा । अधिकैर्विषमैर्वाऽपि साधकैः खननोद्यतैः ॥ ३५८ ॥ उपोषितैः शुचिर्भूतैः शक्तैर्भयविवर्जितैः । खन्यशास्त्रानुसारेण निजाङ्गक्षतरक्षणैः ॥ ३५९ ।। समुद्धरेन्निधिं राजा निजाध्यक्षपुरःसरम् । एवं सिध्यन्ति सर्वाणि निधानानि न संशयः॥ ३६० ॥ धनानामीश्वरो राजा ब्रह्मणा परिकल्पितः । भूगतानां विशेषेण यतोऽसौ विबुधाधिपः ॥ ३६१ ॥ इति निधिः ॥ मौक्तिकानां समुत्पत्तिः स्थाने स्थाने मदोदधौ । तानि स्थानानि संरक्षेदाहरेच्च ततो धनम् ॥ ३६२ ॥ विचित्ररत्नगर्भस्य नानासत्त्वौघसद्मनः । शरदभ्रपतीकाशतरङ्गोल्लासभासिनः ॥ ३६३ ॥ अमरीकृतगीर्वाणनिवहस्य सुधारसैः । वडवाग्निशिखाजालैनिहताहिफणामणेः ॥ ३६४ ॥ १ B खनि। Aho ! Shrutgyanam Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ इन्द्रनीलनिमोत्तुङ्गतरङ्गालिङ्गितं वपुः । बिभ्राणस्यन्दिरामर्तुर्विश्रम्भस्वापसमनः ॥ ३६५ ॥ वज्रपातभयत्रस्तकुलाचलककुस्थितेः । रत्नौघदीप्तिसम्मिश्रफेनस्यातिवितन्वतः ॥ ३६६ ॥ सुधासूतिकलादानात् कृतार्थीकृतशूलिनः । पातालमूलपर्यन्तसम्माप्तजलधारिणः ॥ ३६७ ॥ प्रत्ययविद्रुमलतासन्दिग्धौर्वानलत्विषः । शझैश्च वडवावहिभूतिभ्रान्ति वितन्वतः ॥ ३६८ ॥ उल्लसद्भिर्जलेभाना बन्दैः फेनलवोज्ज्वलैः । आकुलस्य गिरेः शृङ्गमैनाकस्पेन राजतैः ॥ ३६९ ॥ अनन्तत्वान्महत्त्वाच विभ्रतो गगनोपमाम् । उद्दामस्फुरितोतुगतरत्रासकारिणः ॥ ३७० ॥ पक्षच्छेदभयायातभूभृद्रक्षाविधायिनः । उपमां विभ्रतः साक्षात् सोमेश्वरमहीभुजः ॥ ३७१ ॥ ऐरावत-सुधा-लक्ष्मी-शीतदीधितिजन्मनः । शयनस्य हरेस्तुङ्गभङ्गव्याप्तवियदिशः ।। ३७२ ॥ पारिजातं सुधां लक्ष्मी वारुणी शीतदीधितिम् । दत्वा त्रिजगतो भावान् सम्पाप्तस्य वदान्यताम् ॥ ३७३ ॥ बेलापुरेषु सर्वेषु समीपस्थेषु वारिधेः । रक्षा विधेया यत्नेन राज्ञा सम्पदमिच्छता ॥ ३७४ ॥ निजवेलातटस्थानां पोतवाहनकर्मणाम् । पोते प्रत्यागते तस्माद् दशमांश हरेनृपः ॥ ३७५ ॥ प्रतीपमारुतानीतपोतानां स्वेच्छया नृपः । स्वीकुर्यात् सकलं द्रव्यं किश्चिद् दद्याच भूपतिः ॥ ३७६ ॥ इति राष्ट्राध्यायः ॥ ३॥ Aho! Shrutgyanam Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १ ] मानसोल्लासः । धातुवादप्रयोगैश्च विविधैर्वर्धयेद् धनम् । ताम्रेण साधयेत् स्वर्ण रौप्यं वङ्गेन साधयेत् ॥ ३७७ ॥ शुष्कपुष्पपलाशस्य पुष्पं संशोष्य चूर्णयेत् । छागदुग्धेन तच्चूर्ण जीन् वारान् परिभावयेत् ॥ ३७८ ॥ वषष्ठांशचूर्णेन पिष्ठेनैतत् प्रलेपयेत् । पुटपाकेन तद् दग्धं तारं भवति शोभनम् ॥ ३७९ ॥ श्वेतमतः पुष्पं स्वरसेन विभावयेत् । तालं द्वात्रिंशतं वारान् तेन वङ्गं प्रलेपयेत् ॥ ३८० ॥ पुटपाकेन तद् दग्धं वज्रं व्रजति तारताम् । मार्दवं कालिमां गन्धं वज्रं त्यजति निश्चितम् ॥ ३८१ ॥ श्वेतब्रह्मत बजतैलेन परिभावयेत् । गन्धकं सप्तकृत्वोऽथ तेन ताम्रदलानि च ।। ३८२ ॥ लेपितं तत्पुढे दग्धं शुल् काञ्चनतां व्रजेत् । दाहच्छेदनिघर्षादिकर्मयोग्यं भवेत् ततः ॥ ३८३ ॥ तस्य तैलेन दरदं गन्धकं पारदं तथा । मर्दयेत् स्वल्पपाषाणे यावत् तत् कल्कतां व्रजेत् ॥ ३८४ ॥ लेपयेत् तेन कल्केन वङ्गपत्राणि सर्वतः । दग्ध्वा दग्ध्वा पुनर्लिम्पेद् वारान् द्वात्रिंशतं बुधः ॥ ३८५ ॥ ततो वज्रं भवेत् स्वर्ण रञ्जितं दरदादिभिः । व्यवहारक्षमं शुद्धं कर्मयोग्यं भवेच्च तत् ।। २८६ ।। निर्यासं शाकवृक्षस्य श्लक्ष्णवस्त्रेण गाळयेत् । समूलशिग्रुचूर्णेन निर्याससहितेन च ॥ ३८७ ॥ परितस्ताम्रपत्राणि दग्ध्वा दग्ध्वा विलेपयेत् । दाहैः पञ्चभिरेतत् तु कावानं जायते शुभम् || ३८८ ॥ કર Aho! Shrutgyanam Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ मानसीहासः। [विंशतिः फलानि शाकक्षस्य पक्कान्यादाय भावयेत् । तद्रसेन रसेनापि मभिष्ठासहितेन च ॥ ३८९ ॥ तेन कल्केन पत्राणि शुल्कजानि प्रलेपयेत् । दहेच्च पुटपाकेन यावद् भवति काञ्चनम् ॥ ३९० ॥ सञ्चूर्ण्य वल्कं शाकीयं तद्रसेन विभावितम् । करवीररसैर्युक्तं तेन पत्रं विलेपितम् ॥ ३९१ ॥ तानं तज्जायते तारं पुटपाके प्रतापितम् । गारोत्तारं भवेत् सम्यग्व्यवहारक्रियोचितम् ॥ ३९२ । एवमादिभिरन्यैश्च वादग्रन्थक्रियामैः । कारयेत् कनकं तारं धनवृद्धयै नराधिपः ॥ ३९३ ॥ मुवणे रजतै रत्नैर्वखैराभरणैस्तथा । ' पूर्णों व्ययसहः कार्यः कोशो नित्यं महीभुजा ॥ ३९४ ॥ इति धातुषाद-रसायनम् ॥ पुटीकृत्यानले तप्तं यत् स्वर्ण निरुपक्षयम् ।। तत् स्यात् षोडशवर्णाख्यं कोशे स्थाप्यं तदेव हि ॥ ३९५ ॥ वालार्कद्युतिसङ्काशं विद्युद्दीप्तिसमप्रभम् । शुद्ध भूषणयोग्यं स्यात् त्रिदशानां महीभुजाम् ॥ ३९६ ॥ कृतं वा निष्करूपेण घनं वा पिण्डरूपकम् । भूषणत्वेन वा सिद्धं शुद्ध कोशे विधारयेत् ॥ ३९७ ॥ धर्मस्यार्थस्य कामस्य साधकं जनरलनम् । शुद्धं सुवर्णकोशस्थमायुर्लक्ष्मीप्रदं भवेत् ॥ ३९८ ॥ १ A •त्मकैः । Aho! Shrutgyanam Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ४ ] मानसोल्लासः । धात्वन्तरसमायुक्तमशुद्धं नैव धारयेत् । अशक्तं स्वर्णकार्येषु गृहलक्ष्मी त्रिनाशकम् ।। ३९९ ।। नागेन मिश्रितं रौप्यं वह्निना परिशोधितम् । चन्द्रमण्डलसङ्काशं कोशे स्थाप्यं महीभुजा || ४०० ॥ 9 यशः- सौभाग्यजननं श्रेष्ठ पुत्रप्रदायकम् । गृहे विधारितं रौप्यं मलिनं चासुखमदम् ॥ ४०१ ॥ रत्नानि धारयेत् कोशे शुद्धानि गुणवन्ति च । सम्भवं च तथा जातिं गुणं तेषां परीक्षप च ॥ ४०२ ॥ कृते युगे कलिङ्गेषु कोसले वज्रसम्भवः । हिमालये मतङ्गाद्रौ त्रेतायां कुलिशोद्भवः ॥ ४०३ ॥ पौण्ड के च सुराष्ट्रे च द्वापरे या च सन्ततिः । वैरागरे व सोपारे कलौ हीरकसम्भवः ॥ ४०४ ॥ गुणाः पञ्च समाख्याता दोषाः पञ्च प्रकीर्तिताः । छायाश्चतस्रो विज्ञेया वाणां रत्नकोविदैः ॥ ४०५ ॥ षट्कोणत्वं लघुत्वं च समाष्टदलता तथा । तीक्ष्णाग्रता निर्मलत्वमिमे पञ्च गुणाः स्मृताः ॥ ४०६ ॥ मलो बिन्दुस्तथा रेखा त्रासः काकपदं च यत् । एते दोषाः समाख्याताः पञ्च वज्रेषु कोविदैः ॥ ४०७ ॥ श्वेता रक्ता तथा पीता कृष्णा छाया चेतुर्विधा । मिक्षत्रियवैश्यानां शूद्रनातेर्यथाक्रमम् ॥ ४०८ ॥ यज्ञैर्दानैस्तपोभिच पदानोति तदाप्नुयात् । गुणयुक्तस्य वज्रस्य विप्रजातेर्विधारणात् ।। ४०९ ॥ १ AB श्रेष्ठं । २ B तथाविधा । Aho! Shrutgyanam ६५ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । [विशतिः२ जयः पराक्रमस्तस्य शत्रुनाशय जायते । गुणवत् क्षत्रजातीयं वजं वसति यद्हे ।। ४१० ॥ कलाकुशलता द्रव्यं प्रज्ञा क्षेम यशो महत् । गुणिनः पविरत्नस्य वैश्यजातेर्विधारणात् ॥ ४११ ॥ परोपकारिता दाक्ष्यं धनधान्यसमृद्धयः । गुणयुक्तस्य वनस्य शूद्रजातेर्विधारणात् ॥ ४१२ ॥ मले मलिनता ख्याता धारणाद् दंष्ट्रिणो भयम् । कोणे व्याधिभयं प्रोक्तं मध्ये वहिभयं भवेत् ॥ ४१३ ॥ दोषेषु विन्दुरावर्तः परिवतों यवाकृतिः।। चतुर्दैवं समाख्याता बिन्दवो वज्रसंश्रयाः ॥ ४१४ ॥ रक्तोऽत्र वर्चुलो बिन्दुरावतः सव्यवर्तनः । रक्तश्व परिवर्तस्तु रक्त एवापसव्यकः ॥ ४१५ ।। बिन्दुरायुर्धनं हन्यादावतों भयमादिशेत् । परिवर्ते भवेद् व्याधिर्यवे तु फळमुच्यते ॥ ४१६ ॥ स च रक्तस्तथा पीत: श्वेतश्च त्रिविधो मतः । रक्तवर्णे यथे ख्यातं गजाश्वस्य विनाशनम् ॥ ४१७ ॥ यवे पीते कुलस्यान्तो धनमायुः सिते भवेत् । एवं दोषा गुणाश्चोक्ता यवचिन्दोरशेषतः ॥ ४१८ ॥ सव्यवका शुभा रेखा वामवक्रा भयङ्करी । छेदभ्रान्तिकरी छेदा रेखा शस्त्रभयप्रदा ॥ ४१९ ॥ पक्षद्वयमश्या या छेदगा सा प्रकीर्तिता । रेखा बन्धुविनाशाय जायते वज्रसंश्रिता ॥ ४२० ।। १ B एवं सव्याप । Aho ! Shrutgyanam Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ४] मानसोल्लासः । शुकः काकपदाकारो दृश्यते यः पवौ स्थितः । स मृत्युमादिशत्याशु धनं वा सकलं हरेत् ॥ ४२१ ॥ भनाग्रं भग्नमध्यं च दलहीनं च वर्तुलम् । कान्तिहीनं च यद् वजं दोषाय न गुणाय तत् ॥ ४२२ ॥ भिमप्रान्तिकरस्वासः सन्त्रासं जनयेत् स्फुटम् । एवं दोषा गुणाः प्रोक्ता वज्राणां सोमभूभुजा ॥ ४२३ ॥ इति वज्रदोष-गुणाः ॥ ... कोलाहि-करि-मत्स्यानां शीर्षे मुक्ताफलोद्भवः । वक्सार-शुक्ति-शङ्गानां गर्भे मुक्ताफलोद्भवः ॥ ४२४ ॥ धारापरेषु जायेत मौक्तिकं जलबिन्दुभिः। दुर्लभं तन्महारत्नं देवैस्तनीयतेऽम्बरात ॥ ४२५ ।। गजादिजं सुदुष्पापं मौक्तिकं तपसा विना । मौक्तिकं शुक्ति कभ्यमाकरेषु कलौ नृभिः ॥ ४२६ ॥ कुक्कुटाण्डसमं वृत्तं मौक्तिक निविडं गुरु । घनजं भानुसाशं देवयोग्यममानुषम् ॥ ४२७ ॥ काम्बोजकुम्भसम्भूतं धात्रीफलसमं निभम् । आताम्रपिअरच्छायं मौक्तिकं मन्ददीधिति ॥ ४२८ ॥ फणिनं वर्तुळे रम्यं नीलच्छायं महाधुति । पुण्यहीना न पश्यन्ति वासुके कुलसम्भवम् ॥ ४२९ ॥ कोलज कोळसाशं तदंष्ट्रासहशच्छवि । अलभ्यं मनुनै रत्नं मौक्तिकं पुण्यवर्जितः ॥ ४३० ॥ गुलाफलसमं स्थौल्यात तिमिजं मौक्तिकं लघु । पाटलीपुष्पसदृशं मन्दजाति सुवर्तुलम् ॥ ४३१ ।। १ B °धारं । Aho ! Shrutgyanam Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ मानसालासः। [विंशतिः २ वंशजं शशिसङ्काशं ककोलीफलमात्रकम् । प्राप्यते बहुभिः पुण्यैस्तद् रक्ष्यं घेदमन्त्रतः ।। ४३२ ॥ वर्पोपलसमं दीप्त्या पाश्चजन्यकुलोद्भवम् । कपोताण्डप्रमाणं तत् कान्तं पापहरं परम् ॥ ४३३ ॥ शुक्तिजन्माम्बुधेर्मध्ये सिंहले चारवाटके । पारसीके बर्बरे च भवेन्मुक्ताफलं शुभम् ।। ४ ३४ ॥ स्वात्यां स्थिते रवौ मेधैर्ये मुक्ता जलबिन्दवः । निगीः शुक्तिभिर्मुक्ता जायन्ते निर्मलत्विषः ॥ ४३५ ॥ स्थूला मध्यास्तथा सूक्ष्मा बिन्दुमानानुसारतः। भवन्ति मुक्तास्तासां च मूल्यं तन्मानरूपतः ॥ ४३६ ॥ रुक्मिण्याख्या भवेच्छुक्तिस्तस्यां जातं प्रमौक्तिकम् । निर्मलं कुकुमच्छायं जातीफलसमं वरम् ॥ ४३७ ।। अमूल्यं तद् विनिर्दिष्टं रन लक्षणवेदिभिः । दुर्लभं नृपयोग्यं स्यात् स्वल्पभाग्यैर्न लभ्यते ॥ ४३८ ॥ सुस्निग्धं मधुरच्छायं मौक्तिकं सिंहलोद्भवम् । आरवाटसगुत्पन्नं पीतच्छायं सुनिर्मलम् ॥ ४३९ ॥ पारसीकोद्भवं स्वच्छं सितं मुक्ताफलं शुभम् । ईपच्छ्यामं च रूक्षं च मौक्तिकं बर्बरोद्भवम् ॥ ४४० ।। चत्वारः स्युर्महादोषा मध्यमाः षट् प्रकीर्तिताः । एवं दश समाख्यातास्तेषां वक्ष्यामि लक्षणम् ।। ४४१ ॥ यत्रैकदेशे संलग्नः शुक्तिखण्डो विभाव्यते । शुक्तिलग्नः समाख्यातः स दोपः कुष्ठकारका ॥ ४४२ ॥ मीनलोचममाशो दृश्यते मौक्तिके तु यः । मत्स्याख्यः स तु दोषः स्यात् पुत्र नाशकरो ध्रुवम् ॥ ४४३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ४ ] मानसोल्लासः। दीप्तिहीनं गतच्छायं जठरं तद् विदुर्बुधाः । दारिद्यजननं यस्मात् तस्मात् तत् परिवर्जयेत् ॥ ४४४ ॥ मौक्तिकं विद्रुमध्छायमतिरक्तं विदुर्बुधाः । तस्मिन् सन्धारित मृत्युञ्जयते नात्र संशयः ॥ ४४५ ।। उपर्युपरि निष्ठन्ति वलयो यत्र मौक्तिके । त्रिवृत्तं नामतः ख्यानं दुर्भगत्वविधायकम् ॥ ४४६ ॥ अवृत्तं वलनं यत् तु चर्पटं तनिगद्यते । मौक्तिकं धियते येन तस्य कीर्तिर्भवेत् सदा ॥ ४४७ ॥ त्रिकोणं व्यसमाख्यातं सौभाग्यक्षयकारकम् । दीर्घ यत् तत् कृशं प्रोक्तं प्रज्ञाविध्वंसकारकम् ।। ४४८ ॥ निर्भुममेकतो यत् तु कृशपार्थ तदुच्यते । सदोष मौक्तिकं नित्यं निरुद्योगकरं हि तत् ॥ ४४९ ॥ अवृत्तं पीटकोपेतं खण्डं सम्भिनरूपितम् । अरम्यं गुणहीनं च स्वल्पमौल्यं हि मौक्तिकम् ॥ ४५० ॥ तारकाधुतिसङ्काशं सुतारं तन्निगद्यते । सुवृत्तं मौक्तिकं यत् स्याद् गुणवत् तत् प्रकीत्येते ॥ ४५१ ॥ स्वच्छं दोषविनिर्मुक्तं निर्मलं मौक्तिक मतम् । गुरुत्वं तोलने यस्य तद् घनं मौक्तिकं मतम् ॥ ४५२ ।। शीतांशुविम्बसङ्काशं मौक्तिकं स्निग्धमुच्यते । व्रणरेखाविहीनं यत् तत् स्यादस्फुटितं शुभम् ॥ ४५३ ।। ईटक्सर्वगुणोपेतं मौक्तिकं येन धार्यते । तस्यायुर्वर्धते लक्ष्मीः सर्वपापं प्रणश्यति ॥ ४५४ ॥ चतुर्था मौक्तिकच्छाया पीता च मधुरा सिता । नीला चेति समाख्याता रत्नतत्त्वपरीक्षकः॥ ४५५ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ पीता लक्ष्मीप्रदा ज्ञेया मधुरा बुद्धिवर्धनी । शुक्ला यशाकरी छाया नीला सौभाग्यनाशनी ॥ ४५६ ॥ इति मौक्तिकपरीक्षा ॥ माअली पोच्यते गुआ तास्तिस्रो रूपकं भवेत् । रूपकैदेशभिः प्रोक्तः कलो नाम नामतः ॥ ४५७ ॥ कांस्यपात्रद्वयं वृत्तं समान रूपनामतः । चतुश्छिद्रसमायुक्तं प्रत्येकं रज्जुयन्त्रितम् ॥ ४५८ ॥ दण्डः कांस्यमयः श्लक्ष्णो द्वादशाङ्गुलसमितः । पक्षद्वयसमानश्च प्रान्तयोर्मुद्रिकायुतः ॥ ४५९ ॥ मध्ये तस्य प्रकर्तव्यः कण्टकः कांस्यनिर्मितः । पञ्चाङ्गुलायतस्तस्य मूले छिद्रं प्रकल्पयेत् ॥ ४६० ॥ निवेश्य छिद्रदेशेऽस्य शलाकाङ्गुलमात्रिका। शलाके प्रान्तयोस्तस्याः कीलयेत् तोरणाकृतिः ॥ ४६१ ॥ तोरणस्य शिरोमध्ये कर्तव्या लघुकुण्डली। तत्र रज्जु निबधीयात् तां धृत्वा तोळयेत् सुधीः ॥ ४६२ ॥ कलनमानकं द्रव्यमेकदेशे निवेशयेत् । अन्यतो जलबिन्दुस्तु तोलनार्य विनिक्षिपेत् ॥ ४६३ ॥ कण्टके च समे जाते तोरणस्य च मध्यमे । तदा समं विजानीयात् तोलनं नाम कोविदः ॥ ४६४ ॥ इति तुलालक्षणम् ॥ चत्वारि त्रीणि युग्मं वा तथैकं वा तुलास्थितम् । समं कलअमानेन तदुत्तमतमं क्रमात् ॥ ४६५ ॥ नवमात पञ्चमं यावत् कलओन समं यदा । तत् क्रमादुत्तमं झेयं मौक्तिकं रत्नवेदिभिः ॥ ४६६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ४] मानसालासः। चतुर्दशात् समारभ्य दशसख्यावधि क्रमात् । कलशस्य समानत्वात् मौक्तिकं मध्यमं स्मृतम् ।। ४६७ ॥ आरभ्य विशतितमात् क्रमात् पञ्चदशावधि । लव्यस्ताः कथिता मुक्ता मूल्यं च तदनुक्रमात् ।। ४६८ ॥ अतः परं च सूक्ष्माणि मौक्तिकानि प्रचक्षते । तोळने क्रम एष स्यान्मूल्ये चापि निरूपितः ॥ ४६९ ॥ सूक्ष्माणां स्वल्पकं मूल्यं लघूना लघुमूल्यकम् । मध्यानां मध्यमं मूल्यं गुरूणां बहुमूल्यता ॥ ४७० ॥ कलअद्वयमानेन योकं मौक्तिकं भवेत् । न धार्य नरनाथस्तद् देवयोग्यमनुत्तमम् ॥ ४७१ ॥ उत्पत्तिराकरश्छाया गुणदोषाः शुभाशुभम् । तोलनं मूल्यविन्यासः कथितः सोमभूभुना ॥ ४७२ ॥ इति मौक्तिकतोलन-मूल्यविन्यासः ॥ सिन्धौ गवणगङ्गायां सिंहले जन्म कीर्तितम् । क्षेत्राणि तत्र चत्वारि माणिक्यस्य बुधा जगुः ।। ४७३ ॥ सिंहलं प्रथम क्षेत्रं तत्र कालपुरं परम् । अन्धं तृतीयमादिष्टं चतुर्थ तुम्बरं स्मृतम् ॥ ४७४ ॥ सिंहले तु भवेद् रक्तं पद्मरागमनुत्तमम् । पीतं कालपुरोद्भूतं कुरुविन्दमिति स्मृतम् ॥ ४७५ ।। अशोकपल्लवच्छायमन्ध्रे सौगन्धिकं विदुः । तुम्बरच्छायया नीलं नीलगन्धि प्रकीर्तितम् ॥ ४७६ ॥ उत्तम सिंहलोद्भूनं निकृष्टं तुम्बरोद्भवम् । मध्ययोर्मध्यमं ज्ञेयं माणिक्यं क्षेत्रभेदतः ॥ ४७७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ मानसोल्लासः । [ विंशतिः २ माणिक्यस्य समाख्याता अष्टौ दोषा मुनीश्वरैः । गुणाश्चत्वार आख्याताः छायाः षोडश कीर्तिताः ॥ ४७८ ॥ छायाद्वितयसम्बद्धं द्विच्छायं बन्धुनाशनम् । द्विरूपं द्विपदं तेन माणिक्येन पराभवः ॥ ४७९ ॥ सभेदं भिनमित्युक्तं शस्त्रघातविधायकम् । कर्करं शर्करायुक्तं पशुबन्धुविनाशकृत ॥ ४८० || दुग्धेन च समालितं लशुनापटमुच्यते । अशोभनं तदुद्दिष्टं माणिक्यं मणिकोविदैः ॥ ४८१ ॥ मधुबिन्दुसमच्छायं कोमलं परिकीर्त्तितम् । आयुर्लक्ष्मीं जयं हन्ति सदोषं तन्न धारयेत् ॥ ४८२ ।। हीनं जड प्रोक्तं धनहान्यपवादकृत् । घूनं धूमसमाकारं वैद्युतं भयमावहेत् ॥ ४८३ || ईदृग्दोषयुता निन्द्या मणयों मूल्यवर्जिताः । अपि प्राप्ता न ते धार्या गृहे शोभनमिच्छता ॥ ४८४ ॥ माणिक्यस्य गुणाः प्रोक्ताश्चत्वारो मुनिपुङ्गवैः । fareच्छाया गुरुत्वं च नैर्मल्यमविरक्तता ॥ ४८५ ॥ सर्वलक्षणसम्पूर्णे पद्मरागे ग्रहस्थिते । अश्वमेधफलं तस्य वित्तमायुर्जयो भवेत् ॥ ४८६ ॥ छाया स्यात् पद्मरागस्य रक्तकोकनदप्रभा । खदिराग्निश्वकोराक्षी कोकिलानेत्रसन्निभा ॥ ४८७ ॥ सारसाक्षी चकोरस्य सन्निपातश्च सप्तधा । एते गुणाः फलं छाया सिंहलोत्थमहामणौ ।। ४८८ ।। सिन्दूर- लोधपुष्पाभा गुञ्ज-किंशुकसन्निभाः । छायास्ताः कुरुविन्दस्य चतस्रः परिकीर्तिताः ॥ ४८९ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः मानसोल्लासः। अच्छत्वात् क्षीरसच्छाया कुङ्कुमोदकसन्निभा । ईषद्रक्ता भवेच्छाया सौगन्धिकमणेरियम् ॥ ४९० ॥ नीलोत्पलदलमख्या लोहवह्निसमप्रभा। नीलगन्धिमणेः प्रोक्ते छाये द्वे मणिकोपिदैः ॥ ४९१ ॥ इति पद्मरागपरीक्षा ॥ इन्द्रनीलस्य सम्भूतिः सिंहलद्वीपमध्यतः । नद्या रावणगङ्गायाः कूले पभाकरे स्मृता ॥ ४९२ ॥ सितच्छायो भवेद् विस्ताम्रः क्षत्रिय जातिकः । पीतस्तु वैश्यजातीयो वृषलः कृष्णदीधितिः ॥ ४९३ ॥ दोषांस्तस्य प्रवक्ष्यामि नामभिलक्षणैश्च षट् । गुणांश्च कथयिष्यामि पञ्चधाऽएविधा च्छविः ।। ४९४ ॥ अभवत् पटलं यस्य तदभ्रकमिति स्मृतम् । धारणे तस्य सम्पत्तिरायुश्चैव विनश्यति ।। ४९५ ॥ शर्करामिश्रितं यत् तु तद् विज्ञेयं सशर्करम् । तस्मिन् धृते दरिद्रत्वं देशत्यागश्च जायते ॥ ४९६ ॥ भेदसंशयकृत् बासस्तेन दंष्ट्रिभयं भवेत् । भिनं भिन्नमिति ज्ञेयं भार्यापुत्रविनाशनम् ॥ ४९७ ॥ मृत्तिका यस्य गर्भस्था लक्ष्यते रत्नकोविदः । मृत्तिकागर्भक नाम त्वग्दोषजननं भवेत् ॥ ४९८ ॥ हषत प्रलक्ष्यते यस्य गर्भे नीलस्य कोविदैः । अश्मगर्भ तदाख्यातं तद्धर्ता परिभूयते ।। ४९९ ॥ गुरुत्वं स्निग्धकान्तित्वं सुरकं पारअनम् । हणग्राहित्वमित्येते गुणाः पञ्च प्रकीर्तिताः ॥ ५० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ मानसोल्लासः । ferreसमाभासा वैणवीपुष्यसन्निभा लवणी पुष्पसङ्काशा नीलेन्दीवरसप्रभा ॥ ५०१ ॥ [विंशतिः २ अतसीपुष्पसङ्काशा चाषपक्षसमद्युतिः । कृष्णाद्रिकर्णिका पुष्प समानद्युतिधारिणी ।। ५०२ ॥ मयूरकण्ठसच्छाया शम्भोः कण्ठनिभा तथा । विष्णुदेवसमाभासा भृङ्गपक्षसमप्रभा ॥ ५०३ ॥ दोषैस्त्यक्तो गुणैर्युक्त इन्द्रनीलो महामणिः । यस्य हस्ते भवेत् तस्य वित्तमायुर्बलं यशः ॥ ५०४ ॥ क्षीरमध्ये क्षिपेन्नीलं दुग्धं चेन्नीलतां व्रजेत् । इन्द्रनीलः स विज्ञेयो रविनन्दनवल्लभः || ५०५ ॥ इन्द्रनीले धृते सौरिः प्रसन्नः सततं भवेत् । आयुश्च महतीं लक्ष्मीमारोग्यं च प्रयच्छति ॥ ५०६ ॥ इतीइन्द्रनीलपरीक्षा ॥ तुरुष्कविषयेऽम्भोधेः समीपे विषमस्थले । भवेन्मरकतं रत्नं गुणो दोषोऽस्य कथ्यते ॥ ५०७ ॥ दोषाः सप्त भवन्त्यस्य गुणः पञ्चविधः स्मृतः । भवेदविधा च्छाया मणेर्मरकतस्य हि ॥ २०८ ॥ अस्निग्धं रूक्षमित्युक्तं व्याधिस्तस्मिन् धृते भवेत् । विस्फोटं स्यात् सपिटकं तत्र शस्त्रहतिर्धृते ॥ ५०९ ॥ सपाषाणे भवेद् बन्धुनाशो मरकते धृते । विच्छायं मलिनं प्राहुर्बाधिर्ये तेन जायते ॥ ५९० ॥ कर्करं शर्करायुक्तं पुत्रशोकमदं धृतम् । जठरं कान्तिहीनं स्याद् दंष्ट्रिवह्निभयावहम् ।। ५११ ॥ Aho ! Shrutgyanam) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय मानसोल्लासः। कल्माषवर्ण शबलं ततो मृत्युभयं भवेत् । इति दोषाः समाख्याता वर्ण्यन्ते साम्प्रतं गुणाः ॥५१२॥ निर्मलं कथितं स्वच्छं गुरु स्याद् गुरुतायुतम् । स्निग्धं रौक्ष्यविनिर्मुक्तमरजस्कमरेणुकम् ॥ ५१३ ॥ मुरागं रागबहुमिति पश्च गुणाः स्मृताः। एतैर्युक्तं मरकतं सर्वपापभयापहम् ॥ ५१४ ॥ बहिपिच्छसमाभासा चापपक्षसमा परा। हरिकाचनिभा चान्या तथा सेवालसनिमा ॥ ५१५॥ खद्योतपृष्ठसङ्काशा बालकीरगरुत्समा । नवशालसच्छाया शिरीषकुसुमोपमा ॥ ५१६ ॥ एवमष्टौ समाख्याताश्छाया मरकताश्रयाः। छायाभिर्युक्तमेताभिः श्रेष्ठं मरकतं भवेत् ॥ ५१७ ॥ सेवालवल्लरीच्छायं सुरङ्ग त्रासवर्जितम् । अनयं तं मरकतं माहुः सर्वविषापहम् ॥ ५१८ ।। इति मरकतपरीक्षा । हिमालये सिंहले च विन्ध्ये तापीतटे तथा। स्फटिकं जायते रत्नं नानारूपमनोहरम् ॥ ५१९ ॥ . हिमाद्रौ चन्द्रसङ्काशं स्वच्छ कान्तियुतं भवेत् । सूर्यकान्तं च तत्रैकं चन्द्रकान्तं तथा परम् ॥ ५२० ॥ सूर्याशुस्पर्शमात्रेण व िवमति तत्क्षणात् । सूर्यकान्तं तदाख्यातं स्फटिकं रनवेदिभिः ॥ ५२१ ॥ पूर्णेन्दुकरसंस्पर्शादमृतं क्षरति क्षणात् । चन्द्रकान्तं तदाख्यातं दुर्लभं स्यात् कलौ युगे ॥ ५२१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ अशोकपल्लवच्छायं दाडिमीबीजसप्रभम् । विन्ध्ये तापीतटोद्देशे जायते मन्दकान्तिकम् ॥ ५२३ ॥ सिंहले जायते कृष्णमाकरे नीलमन्धिके । पद्मरागभवस्थाने विविध स्फटिकं भवेत् ॥ ५२४ ॥ इति स्फटिकपरीक्षा ॥ ईषत्पीतं पविच्छायं स्वच्छं कान्त्या मनोहरम् । पुष्परागमिति ख्यातं रत्नं रत्नपरीक्षकैः ॥ २५ ॥ इति पुष्परागपरीक्षा ॥ सितं च धूम्रसङ्काशमीपत्कृष्णं सितं तु यत् । वैडूर्य नाम तत् प्रोक्तं मारिनयनोपमम् ॥ ५२६ ॥ इति वैडूर्यपरीक्षा ॥ मधुबिन्दुसमं वाऽपि गोमूत्रादिसमप्रभम् । गोमेदकं तदाख्यातं रत्नं सोममहीभुजा ॥ ५२७ ।। इति गोमेदपरीक्षा ॥ सेतो सागरमध्ये तु जायते वल्लरी तु या। विद्रुमाख्या सुरक्ता सा दुर्लभा रत्नरूपिणी ॥ ५२८ ॥ पाषाणत्वं भजत्येषा प्रयत्नात् कथिता सती। प्रवालं नाम तद् रत्नं वर्णाव्यं मन्दकान्तिकम् ॥ ५२९ ॥ इति विद्रुमपरीक्षा । पनरागस्य नीलस्य ये दोषाः परिकीर्तिताः । . तैरेव दूषितं रत्नं सन्त्याज्यं स्फटिक नृपः ॥ ५३० ॥ १ B सिताभ्रधूम । २ B रत्नं वर्णपरीक्षकैः । Aho ! Shrutgyanam Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ४] मानसोल्लासः। गौरवं स्वच्छता कान्तिः काठिन्यं रत्नजा गुणाः। विहाय वज्रं नान्येषु लाघवं शोभनं भवेत् ॥ ५११ ॥ रत्नानां रूपसाम्यं तु धूर्ताः कुर्वन्ति यत्नतः । तेषां परीक्षा वक्ष्यामि रत्नारत्नविचारिणीम् ॥ ५३२ ॥ वप्रेण वेधयेद् वज्रं कृत्रिमं चेद् विभिद्यते । कृत्रिमं मौक्तिकं नश्येत् क्षालितं लवणाम्भसा ॥ ५५ ॥ माणिक्यादीनि रत्नानि घर्षणात् क्वथनादपि । शोधयेद् रत्नवित् प्राज्ञः कृत्रिमं शुद्धमेव च ॥ ५३४ ॥ त्यजति कथितं रागं कृत्रिमं तदुदीरितम् । मार्दवं दृश्यते घृष्टे ज्ञेयं तत् कृत्रिमं बुधैः ॥ ५३५ ॥ एवं विचार्य रत्नानि कोशे सञ्चिनुयान्नृपः । आयुर्लक्ष्मी जयं कीर्ति लभते रत्नसङ्ग्रहात ॥ ५३६ ॥ इति रत्नपरीक्षा ॥ स्तोकस्तोकेन पूर्यन्ते तडागा जलबिन्दुभिः । मृत्तिकाकणसङ्घातैवल्मीकं वर्धते यतः ॥ ५३७ ॥ सौद्रं च राजवित्तं च स्तोकस्तोकेन वर्द्धते । तस्माद् राज्ञा प्रयत्नेन कोशे द्रव्यस्य सञ्चयः ॥ ५३८ ॥ राष्ट्रादायातवित्तस्य चतुर्भागान् प्रकल्पयेत् । धर्मार्थकामसिद्धयर्थ कुर्याद् भागत्रयं नृपः ॥ ५३९ ॥ १ B प्रयच्छन्ति मनीषिताम् । Aho! Shrutgyanam Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ भागेनैकेन चावश्यं कार्यः कोशस्य सञ्चयः । कोशवान सुखमामोति कोशहीनस्तु सीदति ॥५४॥ इति कोशाध्यायः ॥ ४ ॥ जलदुर्ग गिरिदुर्ग दुर्ग पाषाणनिर्मितम् । इष्टिकाभिः कृतं दुर्ग दुर्ग स्यान्मृत्तिकामयम् ॥ ५४१ ॥ वनदुर्ग मरुदुर्ग दुर्ग दारुविनिर्मितम् । नरदुर्ग च नवमं तेषां वक्ष्यामि लक्षणम् ॥ ५४२ ॥ अगाधेनाय तोयेन वेष्टितं जलजं भवेत् । दुरारोहं च शैलायमुदकेन समन्वितम् ॥ ५४३ ॥ गिरिदुर्ग समाख्यातं नयशास्त्रविशारदः । पाषाणघटितं दुर्गमश्मदुर्गमुदीरितम् ॥ ५४४ ॥ इष्टिकाभिः कृतं सम्यक् सुधालितं समुज्ज्वलम् । इष्टिकादुर्गमाख्यातं परिखावेष्टितं महत् ॥ ५४५ ॥ मृदा विरचितं यत् तु तद् दुर्ग मृत्तिकामयम् । बनदुर्ग समाख्यातं घनं कण्टकशाखिभिः ॥ ५४६ ॥ अन्तःस्थैः सञ्चितं तोयं बहिःस्थानां च दुर्लभम् । मरुदुर्ग समाख्यातं मरुदेशसमं यतः ॥ ५४७ ॥ दारुभिर्वेणुभिः क्लृप्तं दुर्ग दारुमयं स्मृतम् । शस्त्रहस्तैर्महायोधैर्निर्मितं नरदुर्गकम् ॥ ५४८ ॥ एतेषामुत्तमं दुर्ग गिरिजं जलजं तथा । मध्यमानीतराण्याहुः कनिष्ठं स्याच दारुजम् ॥ १४९ ॥ इति नवविचदुर्गलक्षणम् ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ६ मानसोल्लासः। दुर्गे यन्त्राणि कार्याणि नाना प्रहरणानि च । दुर्गद्वाराणि गुप्तानि कार्याण्यपि च भूभुजा ॥ ५५० ॥ सञ्चयश्चात्र सर्वेषामायुधानां विधीयते । अश्मनां च प्रभूतानां सिकतानां तथैव च ॥ १५१॥ कुद्दालरज्जुवेत्राणां पिटकानां तथैव च । सर्वेषां शिल्पभाण्डानां तत्र सञ्चय इष्यते ॥ ५५२ ॥ औषधानां च सर्वेषां वादित्राणां तथैव च । यवसानां प्रभूतानामिन्धनानां च सञ्चयः ॥ ५५३ ॥ गुडस्य सर्वतैलानां घृतस्य मधुनस्तथा। तथा च सर्वधान्यानां पशुगोमययोरपि ॥ ५९४ ॥ कुम्भेष्वाशीविषा धार्या व्याघ्रा सिंहाश्च बन्धनैः । अन्यानि सर्ववस्तूनि दुर्गे सचिनुयान्नृपः ॥ ५५५ ॥ इति दुर्गाध्यायः ॥५॥ मौलं भृत्यं तथा मैत्रं श्रेणमाटविकं बलम् । अमित्रमपरं षष्ठं सप्तमं नोपलभ्यते ॥ १५६ ॥ वंशक्रमागतं मौलं भृत्यं द्रविणदानतः । मैत्रीकरणतो मैत्रं श्रेष्ठमेतद् वलत्रयम् ॥ ५५७ ॥ सम्बद्धं जन्मकर्मभ्यां निश्चित समयैश्च यत् । तद् बलं श्रेणमाख्यातं तच्च मध्यममिष्यते ॥ १५८ ॥ पर्वतोपान्तसंवासिनिषादम्लेच्छजातिकम् । अधमं तत् समाख्यातं बलमाटविकं बुधैः ॥ १५९ ॥ शात्रवास्तु समाक्रान्ता दासभावमुपस्थिताः। तेषां बलं तु विज्ञेयममित्रजबलं बुधैः ॥ १६०॥ Aho ! Shrutgyanam Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसीलासः। [विंशतिः । समिधौ न च तत् कार्य विश्वसेन कदाचन । युद्धेषु पुरतः कार्य नृपैयुद्धविशारदैः ॥ ५६१ ॥ लोहचर्मविनिर्माणाः कार्पासरचिता अपि । शल्कैश्च घटिताः कार्याः सन्नाहाः सुदृढाः सदा ॥ १६२ ॥ बाहुत्राणैः शिरस्त्राणैरङ्गवाणैश्च संवृतम् । पताकाभिर्ध्वजैः स्तम्भैः शोभमानं भवेद् बलम् ॥ ५६३ ॥ धेरैर्वशैश्च काष्ठैश्च चर्मभिदृढबन्धनैः । वर्तुलानि विधेयानि वर्माणि बलगुप्तये ॥ ५६४ ॥ व्याघ्रचर्मपिनद्धानि शातकौम्भमयानि च । फलकानि विचित्राणि कारयेत् स्वबळे सदा ॥ १६५ ॥ मौले बले तु ये मुख्यास्तेषां कुर्वीत माननम् । रत्नैर्विभूषणैर्वखैः प्रियैर्वाक्यगनोहरैः ॥ ५६६ ॥ वृत्ति तेषां प्रकुर्वीत यथायोग्यं सुपुष्कलाम् । ग्रामेण ग्रामयुग्मेन ग्रामैर्वा हेमसञ्चयः ॥ १६७॥ भृत्यानां वेतनं दद्याद् यथाकालमतन्द्रितः । प्रत्यहं प्रतिमासं वा मासत्रयमथापि वा ॥ ५६८ ॥ चतुर्मासोदितं वाऽपि मासपदकमथापि वा। संवत्सरमितं वाऽपि कार्यापेक्षितया नृपः ॥ ५६९ ॥ प्रत्यहं वीक्षणं कार्यमलुब्धैरात्मपूरुषैः । पक्षे पक्षे स्वयं पश्येद् वेतनैर्विधृतान् भटान् ॥ ५७० ॥ कृतश्रमान् सदोत्साहान रणोचितधृतायुधान् । जितश्रमाणां शूराणां सायुधानां नरेश्वरः ॥ ५७१ ।। Aho! Shrutgyanam Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यापः ६] मानसोल्लासः। दद्यात् प्रसादं भृत्यानां सोत्साहास्ते भवन्त्यतः । अलसानायुधैीनान् दण्डयेत् तान् महीपतिः ॥ ५७२ ॥ इति पदातिलक्षणम् ॥ सैन्धवैर्यवनोगतः काम्बोजप्रभवैरपि । शिक्षितैर्बहुभिर्वा है। संयुक्तं बलमुत्तमम् ॥ ५७३ ॥ साध्यन्ते तुरगैरेव दूरस्था अपि वैरिणः । लभ्यते तुरगैः कीर्तिर्यस्याश्वास्तस्य भूः स्थिरा ॥ ९७४ ॥ वाहिताः पोषिताः सम्यग्वाहाः कार्या महीभुना । अवाहिता न योग्यास्ते मार्ग सङ्ग्रामकर्मणि ॥ ५७५ ॥ दुर्वादियवसैरश्वान् खादनैश्चणकादिभिः । स्नेहघृतादिकैर्भोज्य रसैश्च परिपोषयेत् ॥ ५७६ ॥ प्रत्यहं वाहयेदवान् प्रातःकाले प्रयत्नतः । ततस्ते कर्मयोग्याः स्युर्विनोदे समरेऽध्वनि ॥ १७७ ॥ रूक्षाहारैरजीर्णन वाहनस्यातियोगतः । शीतातपपरिक्लेशैरश्वानां रोगसम्भवः ।। ५७८ ॥ तेषां चिकित्सितं कार्यमश्वायुर्वेदकोविदः । अविलम्बेन दातव्यमोप, रोगशान्तये ॥ ५७९ ॥ उत्यायोत्थाय विशति गात्रं सङ्कोचयत्यपि । आध्मातो विह्वलीभूतः शीर्प धारयते गुरु ॥ ५८० ॥ शकृत् त्यजति सामं च सशब्दं जठरानिलः । व्याधेः सुभिक्षवर्तस्य लक्ष्मैतत् परिकीर्तितम् ॥ ५८१ ॥ नवद्वारेषु निक्षिप्य शुण्ठीचूर्ण तुरङ्गमः । सञ्चार्यः शनकैस्तेन प्रकृति याति मारुतः ॥ ५८२ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ तथापि यदि नो सुस्थस्तदाऽभ्यङ्गं प्रयोजयेत् । सिद्धार्थलवणं व्योषयुजा तैलेन वाजिनः ॥ ५८३ ॥ कुक्षी च जठरं पृष्ठं स्वेदयेद् यत्नवान भिषक् । साकम्बलगूडेन सन्तप्तेनाश्मना मुहुः ॥ ५८४ ॥ तथापि यदि नो शाम्येत् तदा कुर्यान्निरूहणम् । चिश्चाफळकृतं कल्कं कामिकेन विमिश्रितम् ॥ ५८५ ॥ सिद्धार्थसैन्धवोपेतं कन्दर्पफलसंयुतम् । शतपुष्पासवोपेतं तिलतैलेन मिश्रितम् ॥ ५८६ ॥ निरूहणे नियुभीत तेन वायुः प्रशाम्यति । सुस्थात्मा जायते वाजी यदि नानेन कर्मणा ॥ ५८७ ॥ कुक्षिद्वये तदा तस्य तप्तलोहशलाकया। बिन्दवो बहवः कार्याः पद्वियसमाश्रिताः ॥ ५८८ ॥ तत्क्षणे जायते सुस्थो जठरं शिथिलं भवेत् । मनामसत्तिं भजते तुरगो नात्र संशयः ॥ ५८९ ॥ अन्ययुर्दापयेत् पानं पाचनं वह्निदीपनम् । एला मागधिका शुण्ठी तिक्तं लवणपञ्चकम् ॥ ५९० ॥ वचा चातिविषा हिङ्ग चूर्णमेतैः प्रकल्पितम् । पलार्द्ध सुरया युक्तं सुराप्यर्धाढकोन्मिता ॥ ५९१ ॥ क्रमोऽयं सर्वशूलानां शान्तये परिकीर्तितः । गुडेन सहितां शुण्ठी केवला वा प्रयोजयेत् ॥ ५९२ ॥ त्रिफला पिप्पलीमूलं ब्यूषणं जीरकद्वयम् । रामठं तिन्तिडीकं च यवानी गौरसर्पपाः ।। ५९३ ॥ अजमोदोऽश्वगन्धा च पटोलं चाम्लवेतसम् । त्रिनिम्बश्च मुस्ता च पर्पटं कटुरोहिणी ॥ ५९४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यायः ३] मानसोल्लासः। दाडिमं कृष्णलवणं सैन्धवं विडमेव च । सामुद्रं काचलवणं सर्वमेकत्र चूर्णयेत् ।। ५९५ ॥ पलमेकं प्रयुञ्जीत वातरोगे घृतान्वितम् । पित्तोद्भषेषु रोगेषु मधुशर्करयान्वितम् ॥ ५९६ ॥ कफजन्मसु रोगेषु दापयेत् मुरया समम् । आरनालयुतं दत्तं शूलाध्मानहरं परम् ॥ ५९७ ॥ युक्तं मांसरसेनैतद् वाजिनां पुष्टिवर्धनम् । उष्णोदकेन वा दत्तं सर्वरोगहरं परम् ॥ ५९८ ॥ श्लेष्मा समुत्कटोऽश्वानां नासारन्ध्रात् स्रवेद यदि । तदा सिंहाणको रोगस्तस्य वक्ष्ये चिकित्सितम् ॥ १९९ ।। तैलं सिद्धार्थकोद्भूतमजामूत्रविमिश्रितम् । सिंहीफलरसोन्मिश्रं नस्यं सिंहाणकापहम् ॥ ६०० ॥ शुण्ठी दुरालमा मुस्ता कचूर बृहतीद्वयम् । माहीं कर्करमही च वचा पुष्करपिप्पली ॥६०१॥ घृतेन मधुना वापि सितया च समन्वितम् । चूर्ण लेहे प्रयुञ्जीत कासहिकाविनाशनम् ॥ ६०२ ॥ रसाजीणे समुत्पन्ने सर्वगात्रं जहं भवेत् । क्लेशाद् यत् क्रमते वाजी तस्य वच्मि प्रतिक्रियाम् ॥ ६०१ ॥ रसातस्य प्रयोक्तव्यं लङ्घन लाघवावधि । कृष्णमृचिकया लिम्पेत् सर्वगात्राणि कोष्णया ॥६०४॥ शिरावेधा प्रकर्तव्यः प्रबले गागौरखे । उरसः पुरतो भागे पश्चाद्भाग उपाण्डजे ॥ ६०५ ॥ पूर्वपश्चिमकायस्य गौरखे चाधिके सति । शिरा सर्वाः प्रमोक्तव्या वंशोपाण्डगता अपि ॥ ६०६॥ Aho ! Shrutgyanam Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ पथ्यां गुडसमोपेतां पिचुमन्ददलान्विताम् । प्रदद्याद् रसपाकाथ जठराग्निप्रदीपनम् ॥ ६०७॥ चलत्यूर्ध्वमधो मुष्कं पीडां प्रकुरुते भृशम् । यस्मिन् भागे चलेन्मुष्कस्तेन पादेन लङ्गति ॥ ६०८ ॥ मुष्कसञ्चलनाचाली तस्य वच्मि चिकित्सितम् । तैलाभ्यङ्गः प्रकर्तव्यः स्वेदो धान्यसमुद्भवः ॥ ६०९॥ निर्वात स्थापयेदश्वमुष्णमन्नं प्रदापयेत् । उपाण्डजा च मोक्तव्या भिषजा तद्गता शिरा ॥६१० ॥ तथाप्यशान्तौ योक्तव्यो निरूहः सानुवासनः । चालिभागत्रिके कार्यमग्निकर्म विचक्षणैः ॥ ६११ ॥ शङ्कवत तिष्ठतः कर्णों नेत्रयोः परिवर्तनम् । स्तम्भस्सर्वेषु गात्रेषु भवेदुत्कर्णकेऽनिलात् ॥ ६१२ ॥ अभ्यङ्गो मर्दनं स्वेदः कर्तव्यश्च प्रयत्नतः । शङ्खयोर्मन्ययोः पुच्छे शिरावेधः प्रशस्यते ॥ ६१३ ॥ कर्णमूलात् स्कन्धपार्थात पृष्ठवंशस्य पार्श्वगे । त्रिकमध्यसमायाते रेखे स्थूरावधिस्थिते ॥ ६१४ ॥ कारयेत् तप्तलोहेन घृतेनाभ्यअनं व्यहम् । जलमुष्णं यवक्षारमिधे तैलेन पाययेत् ॥ ६१५ ॥ मन्ययोः स्तब्धता यस्य स्वेदादिस्तस्य पूर्ववत् । मन्यावंशे शिरावेध्ये नस्यं यत्नेन कारयेत् ।। ६१६ ॥ आमा शुण्ठी निशा रास्ना हिङ्ग कुष्ठ रसाधनम् । कणा प्रियङ्ग तच्चूर्ण रास्नाकाथेन भावनम् ॥ ६१७ ।। Aho ! Shrutgyanam Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ६] मानसोल्लासः। गोराबहिणः पिच्छमच्छभल्लस्य दन्तिनः । केशा नखाश्च दन्ताश्च सिद्धार्थाश्चेति चूर्णितैः ।। ६१८ ॥ एतैः प्रकल्पितो धूपो मन्दुरासु प्रधूपितः । अश्वकायगतान् सर्वान् ग्रहानुच्चाटयत्यलम् ॥ ६१९ ॥ इत्यश्ववैद्यकम् ॥ वारणैर्भद्रजातीयैः कालिङ्गवनजन्मभिः । शिक्षितैः सन्जितैः शूरैर्लभ्यते विनयो युधि ।। ६२० ॥ शूरो रूढो महाकायः सर्वलक्षणसंयुतः । एको विजयते दन्ती मदपूर्णितलोचनः ।। ६२१ ।। मुख्यं दन्तिवलं राज्ञां समरे विजयैपिणाम् । तस्मानिजबले कार्या बहवो वारणोत्तमाः ॥ ६२२ ॥ ततस्तेषां महीपालः पोपणे यत्नवान् भवेत् । रानाघृतसम्मित्रैर्दना च परिलोडितैः ॥ ६२३ ॥ पुष्टमांसरसोपेतैरिक्षुकाण्डैः सुधासमैः । शुकपक्षप्रतीकाशशालिपुमनोहरैः ॥ ६२४ ।। नवगोधूमकल्मापैर्यावनालैः फलान्वितैः । हरितैश्च तथा शुष्कैस्तृणैः कालोचितैरपि ॥ ६२५ ॥ विविधैः क्षीरपानैश्च शर्करारससंयुतैः । द्विकालं जलपानैश्च तथा तोयावगाहनैः ॥ ६२६ ॥ मृत्तिकामृदुशय्याभिः पांमुक्रीडनकैरपि । पीणयेद् द्विरदान नित्यं यथा पुष्टा भवन्ति ते ॥ ६२७ ॥ पन्धनात् ताडनाद् व्याधेर्वनसौख्पविचिन्तनात् । असात्म्यादन्नतोऽजीर्णादायासान्जागरादपि ।। ६२८ ।। Aho ! Shrutgyanam Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । [विंशतिः २ जायन्ते करिणा रोगास्तेषां कार्य चिकित्सितम् । औषधैर्वनसम्भूतैरापणादाहृतैरपि ॥ ६२९ ॥ चूर्ण दशपलं दद्यात् प्रत्यरस्नि विषाणिनाम् । कल्कं तद् द्विगुणं क्वाथमाढकं परिभाषितम् ॥ ६३० ॥ द्रव्ये मूलं द्रवे तोयं समभागाक्शेषितम् । प्रबोधकालः काले च मूत्रे मूत्रं च दन्तिनः ॥ ६३१ ॥ नवबन्धनदुःखार्त तोयं द्रोणीषु पाययेत् । यामार्धनालिकाशिष्टे दिने निस्सारयेज्जलात् ॥ ६३२ ॥ आलानयेत् ततो नागं शतधौतेन सपिपा।। सेचयेत् सर्वगात्रेषु दिनसायं विचक्षणः ॥ ६३३ ॥ ततो दिनदवा घृतेनैव प्रसेचयेत् । शीतात सेचयेमागं तैलेनकेन कोविदः ॥ ६३४ ॥ हासयेत् क्रमशस्वस्य कालं सोयावगाइने । इथून पिसमृणालानि मधुराच महीरुहः ॥ ६३५ ॥ कदलीकन्दशालूकै शृङ्गाटककसेरुकम् । मधुकाकोलवाराणां मूलमारग्वधस्य च ॥ ६३६ ॥ मनःप्रीतिकरं दद्यादेतत्सन्तापशान्तये । व्याधियुक्तस्य नागस्य वक्ष्याम्यथ चिकित्सितम् ॥ ६३७ आदौ रोगपति वक्ष्ये स्थावरं जङ्गमाश्रितम् । नामभिर्बहुभिर्युक्तं जन्मन्यन्ते च यो भवेत् ।। ६३८ ॥ ज्वरो नेरषु विख्यातः पालकः सामजन्मसु । अभितापस्तुरङ्गेषु वारको रासभेष्वसौ ॥ ६३९ ॥ १CE पाकलः २D खरको । Aho ! Shrutgyanam Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः ] मानसोल्लासः। उद्देष्वलसकः प्रोक्तो गोषु प्रोक्तस्तथेश्वरः । अक्षको दन्दशूकेषु हारिद्रो महिषेष्वपि ॥ ६४० ॥ अजाविक प्रलाप: स्यान्मृगरोगो मृगेष्वपि । अवपातः शकुन्तेषु मत्स्येष्विन्द्रमदाभिधः ॥ ६४१ ॥ गुल्मेषु ग्रन्थिको ज्योतिर्वनस्पत्यौषधीष्वपि । पुष्पेषु पर्वतः प्रोक्तो रूपको नलिनीष्वपि ॥ ६४२ ॥ धान्येषु चूर्णकः ख्यातः कोद्रवेषु ललः स्मृतः । शाकेषु मधुको भूम्यामूषरोऽप्सु च नीलिका ॥ ६४३ ॥ अमीभिर्नामभिलोंके ज्वर एको निगद्यते । विहाय मानवानन्ये ज्वरं सोडुमनीश्वराः ॥ ६४४ ॥ पालकस्य ततश्चास्य चिकित्सा नोपदिश्यते । अन्तर्धातून पुरो व्याप्य बहिः पश्चात् प्रकाशते ॥ ६४५ ॥ दुश्चिकित्सस्ततश्चासौ पालको मृत्युरूपकः । आचार्यैर्बहुभिस्तस्माचिकित्सा नास्य वर्णिता ॥ ६४६ ॥ सुवहा सुरसा दारु मुस्ता-कुष्ठ-रसोनकम् । मधुशीर्ष-विडङ्गौ च भागी सिद्धार्थकद्वयम् ॥ ६४७ ॥ मूलकं पञ्चकोलं च करअद्वितयं तथा । महान्ति पञ्चमूलानि कफवातप्रशान्तये ।। ६४८ ॥ गुदूची पर्णिकायुग्मं द्वे मेदे जीवकर्षभौ । काकोल्यावश्वगन्धा च विदारी च शतावरी ॥ ६४९ ॥ वातपित्तभवान् रोगानशेषान् सामजन्मनाम् । चूर्णः कल्कः कषायो वा योगोऽयं हन्ति निश्चितम् ॥ ६५० ॥ १ D° षु श्वास । २ A अन्तिको । ३C E पाकल । ४C E पाकलो Aho ! Shrutgyanam Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ पटोलपाठाकुष्ठानि निम्बधात्र्यमृता विषा। धान्यकं पपटं तिक्ता-वत्सके कफपित्तजित् ॥ ६५१॥ हिक सौवर्चलं शुण्ठी गुडं शूलस्य शान्तये । भ्यूषणेनाअनं चाक्ष्णोः शुण्ठ्या केवळयाऽपि वा ॥ ६५२ ॥ अश्वगन्धा कणा रात्रिः कृमिघ्नं रसपञ्चकम् । पृथक पृथक् पलान्यष्टौ वरिष्ठो मुष्टिमात्रकः ॥ ६५३ ॥ पञ्चभिलवणैर्युक्तो योगोऽयं हन्ति मारुतम् । मूत्रकृच्छ्रमथाध्मानं शूलं चापि व्यपोहति ॥ ६५४ ॥ कुटजं शृङ्गवेरं च यवक्षारं च चित्रकम् । पूतिद्वयं च सिद्धार्थ विडङ्गातिवषा घनः ॥ ६५५ ॥ पिप्पली पिप्पलीमूलं रजनी शिग्र कुष्ठकम् । सिन्धुनातं वचा हिड चूर्णितो गोमयान्वितः ॥ ६१६ ॥ योगोऽयं जाठरस्यानेः करिणां दीपनः परः । सामवायुं हिनस्त्याशु सामवातोद्भवा रुजः ॥ ६५७ ॥ सैन्धवं जीरकं दन्ती शृङ्गवेरं फलत्रयम् । करञ्जद्वितयं कृष्णा पटोलं निम्बपल्लवाः ॥ ६५८ ॥ ज्योतिष्मती गुडूची च वासा चेति सुचूर्णितः । पिण्डो मृदोहदं हन्ति वहिमाशु करोति च ॥ ६५९॥ . त्रिदः स्नुही दन्ती नीली लवणपञ्चकम् । ब्राह्मी च रेचनाः शूलकम्याध्मानविनाशनाः ॥ ६६० ॥ पाठा-पटोल-कुष्ठानि निम्बभूनिम्बपर्पटम् । ज्योतिष्मती स्नुही वासः चव्यग्रन्थिकशिकम् ।। ६६१ ॥ वचा-कट्फल-रोध्राणि चित्रकं बृहतीफले । तिक्ता दुरालभा रात्रिः करणं त्रिफला तथा ॥ ६६२ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चाका मानसोल्लासः। त्रिकटु प्रायमाणा च पौष्करं गजपिप्पली। धातकी चेति चूर्णोऽयं मधुना कण्ठरोगनुत् ॥ १६ ॥ सैन्धवं नागरं कुठं वचा शिग्रु निशाद्वयम् । सिद्धार्थक-यवक्षारौ सर्वमेकत्र चूर्णितम् ॥ ६६४ ॥ दना विलोडितं कोष्णं कफवातजशोफजित् । स्वेदं च कारयेच्छोफे प्रच्छन्नं वा यथोचितम् ॥ ६६५ ॥ शोफे विपाटिते पक्वे द्विपविद् सैन्धवान्विता । क्षेपणीया प्रयत्नेन व्रणान्तः पूयशान्तये ॥ ६६६ ॥ कुप्यत्यसृक् च पित्तं च जाते सद्यःक्षते भृशम् । घृतमाक्षिकपूर्ण तद् विधातव्यं दिनत्रयम् ॥ ६६७ ॥ तिला निम्बस्य पत्राणि रजनी चेति पेषितम् । मधुयुक्तं व्रणानां स्याच्छोपनं रोपणं परम् ॥ ६६८ ॥ कतकस्य फलं रोधं मधुकं चन्दनं घनम् । प्रपौण्डरीकं मभिष्ठा वालकोशीरकं तथा ॥ ६६९ ॥ एभिर्विरचिना वर्तिश्चूर्णमाश्चोतनं तथा। सर्वेषामक्षिरोगाणां शस्यते साममन्मनाम् ॥ ६७०॥ सीरमाणां निष्काथे त्रिवृतं निक्षिपेदनु । त्रिफला रोचनं लाक्षा सिन्दूरं रोधगुग्गुलम् ॥ ६७१ ॥ भल्लात-रजनी-घोष्टाफलकासीर(म)-सैन्धवम् । सौराष्ट्रिकाञ्जनं चैव रसं स समुद्भवम् ॥ ६७२ ॥ श्रीषेष्ठं चेति सवर्ण्य काणे सम्मिश्रयेत् ततः । दर्पा विघटयंस्तज्ज्ञः शनैमिना भिषक् ।। ६७३ ॥ 12 Aho ! Shrutgyanam Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः २ लेहवत् तद् घनीभूतं पिच्छलं वज्रलेपयेत् । द्विपानां तलबन्धार्थ कल्पयेत् मुविचक्षणः ॥ ६७४ ॥ इति गनचिकित्सा ॥ पर्णिका मुद्गपर्णी माषपर्णी। उग्रगन्धा वचा-रसोनौ । रसपश्चकः। पूतिद्वयं कृष्णा पिप्पली । वासा आटरूषकः । ग्रन्धिकं पिप्पलीमूलम् । कट्फलं काश्मयम् । सौराष्ट्रिका तुवग्मृत्तिका । त्रिवृतं त्रिस्नेहम् । श्रीवेष्टः सरलद्रुमनिर्यासः ।। ६७७ ॥ इति गजौषधिनिघण्टुः । मुख्यं दन्तिवलं राज्ञां समरे विजयैषिणाम् । तस्मानिनबले कार्या बहवो द्विरदा नृपैः ॥ ६७८ ॥ उपचारान् प्रकुर्वीत दानार्थ करिणां नृपः । अनेकायुधसङ्कीर्णाः पताकाध्वजराजिताः । चतुर्भिस्तुरगैर्युक्ता दृढाः सारथिनोदिताः ॥ ६७९ ॥ महारथैः समाक्रान्ता बहवः स्यन्दना नृपैः । चतुरङ्गे बले कार्या रणे विजयकाक्षिभिः ॥ ६८० ॥ खाचर्मधराः केचिदन्ये स्युः कुन्तपाणयः । सेल्लचक्रधराः केचित् केचिन्मुद्रपाणयः ॥ ६८१ ॥ धनुर्धरास्तथा केचित् केचित् परशुपाणयः । शक्तिशूलधराः केचित् केचिच्च क्षुरिकाधराः ॥ ६८२ ॥ यन्त्रमुक्तायुधाः केचित् केचिन्मुक्तायुधास्तथा । अमुक्तायुधहस्ताश्च मुक्तायुधकरास्तथा ॥ ६८३ ॥ ईदृक् चतुर्बलं विद्वान् युद्धाय विजितश्रमः । . कुर्यादतन्द्रितो राजा शत्रुसंहरणोद्यतः ॥ ६८४ ।। इति बलाध्यापः ॥ ६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्यायः ८ ] मानसोल्लासः। कुलीनं च सुशीलं च सुखे दुःखे च सम्मतम् । अमायं दृढचित्तं च धनैः प्राणैरवञ्चकम् ॥ ६८५॥ नीतिज्ञं शौचसम्पन्नं व्यसनेष्वपराङ्मुखम् । कुर्वीत नृपतिर्मित्रं धर्मार्थ सुखसिद्धये ॥ ६८६ ॥ __ इति सुहृदध्यायः ॥ ७ ॥ आत्मायत्तो नृपः श्रेष्ठो द्वयायत्तस्तु मध्यमः । कनिष्ठः सचिवायत्त इति नीतिविदो विदुः ॥ ६८७ ॥ मदधीनमिदं राज्यं राजा च वशगो मम । मया यत् क्रियते कार्य तत् कार्य केन लयते । ॥ ६८८ ॥ इत्यात्मगणाध्मातः सचिवो यत्र जल्पति । कनिष्ठं तत्र तत् राज्यं सचिवायत्तमुच्यते ॥ ६८९ ॥ विज्ञप्तं यन्मया कार्यमवश्यं मन्यते प्रभुः। इत्यारोप्य दयों माम्यं सचिवो यत् तु भापते । ६९० ॥ मुखासुखपदं चैवमुभयाधीनसिद्धितः । तद्राज्यमुभयायत्तं मध्यमं परिकीर्तितम् ॥ ६९१॥ प्रभोराज्ञां विना नाहं समर्थः कार्यसिद्धये । इति भीत्या नृपे भक्त्या सचिवो यत्र वक्त्यलम् ॥ ६९२ ॥ यत् तु राज्यं भयापेतं सुखदं सर्वसिद्धिदम् । श्रेष्ठं स्थिरतरं सम्यगात्मायत्तं प्रकीर्तितम् ॥ ६९३ ।। अनुग्रहे निग्रहे च दाने चादानकर्मणि । प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च ग्रहणे मोक्षणे तथा ॥ ६९४ ॥ स्वयं समर्थो यो राजा स्वाज्ञा चैव निरर्गला । निजशक्त्या समायुक्तः स प्रभुः प्रभुरुच्यते ॥ ६९५ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः २ आशारूपेण या शक्तिः सर्वेषां मूर्धनि स्थिता । प्रभुशक्तिहि सा ज्ञेया समभा महिमोदया ।। ६९६ ।। इति प्रभुशक्त्यध्यायः ॥ ८॥ कार्यस्य साधनोपायाः सहायास्तत्कृतौ क्षमाः । वेशकालविचारश्च विनानां च प्रतिक्रिया ॥ ६९७ ॥ कार्यसिद्धौ सुखं चेति पश्चाङ्गो मन्त्र इज्यते । गुरुशुक्रमतेऽप्येष चाणक्यादिमते तथा ॥ ६९८ ॥ पश्चातापविहीनश्च सानुबन्धं सुखोदयः। अभीष्टश्चाविलम्बश्च विशिष्टो मन्त्र इष्यते ॥ ६९९ ॥ बहुभिभियते मन्त्रो द्वाभ्यां मन्त्रो न नश्यति । आत्मना विहितो मन्त्रो ब्रह्मणाऽपि न मिद्यते ॥ ७०० ॥ सततं गुप्तवाक्यस्य नित्यं गुप्तेगिताकृतेः । फलैयाः सदारम्भाः पुण्यं पूर्वार्जितं यथा ॥ ७०१ ॥ अधिराम्पजडान मकान व्याधितान् वद्ध-बालकान् । प्रिया अपि स्त्रियो म्लेच्छांस्तिरथोऽपि शुकादिकान् ॥७०२॥ श्रुतिगोचरतो देशात् तथा लोचनगोचरात् । धारयेत् परतो यत्नात् तत्र काल नरेश्वरः ॥ ७०३ ॥ आरुह्य चोवतं स्थान प्रासादं वा रहास्थितम् । अरण्ये विजने वाऽपि मन्त्रं कुर्मदलक्षितः ॥ ७०४ ॥ मध्याह्ने मन्त्रयेन्मन्त्रं कृताहारो गतलमः। रात्रावपरभागे वा गतनिद्रः सुखोत्थितः ॥ ७०५ ॥ धर्ममर्थ च कामं च कृत्याकृत्यं बलाबलम् । अमित्रानपि मित्राणि देशरक्षाक्रियाकमम् ॥ ७०६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १] मानसोलातः। रिपूणां निग्रहोपायमर्थानामर्जनोगमम् । भृत्यानां भरणं चैव प्रत्यूहानां प्रतिक्रियाम् ।। ७०७ ॥ सन्माननं च मित्राणां पुत्राणां नयशिक्षणम् । शुद्धान्तवनितारक्षा शिक्षां च गजवाजिनाम् ।। ७०८ ।। मन्त्रिणां मन्त्रितं दुष्टममात्यानां विचेष्टितम् ।। रक्षणं च कुमाराणां सामन्तानां च शातनम् ॥ ७०९ ॥ रागापरागौ लोकानामात्मनश्च गुणागुणौ । आय-व्ययं च वित्तानां कोशस्यापि विवर्धनम् ॥ ७१० ॥ दुष्टानां दमनं चैव शिष्टानां परिपालनम् । पूजनं सुर-विप्राणां वर्णाश्रमनिरीक्षणम् ॥ ७११ ॥ दुर्गाणां रक्षणं सम्यक् परभूपालचेष्टितम् । मारणं तस्करादीनामात्मरक्षाविधिक्रमम् ॥ ७१२ ॥ प्रकृतीनां च सद्भाव धान्यादीनां समर्घताम् । शान्तिकं पौष्टिकं कर्म नित्यं नैमित्तिकं तथा ॥ ७१३ ॥ माननं बुद्धिवृद्धानां देशकालविमर्शनम् । चिन्तयेन्मन्त्रिभिः सार्दै स्वयं वा वसुधाधिपः ॥ ७१४ ॥ आइय मन्त्रिणः सर्वान् मन्त्रयेत पृथक् पृथक् । अभिमायं विदित्वैषां गुणदोषौ विचारयेत् ॥ ७१५ ।। मन्त्रिभिर्मन्त्रिते मन्त्रे गुणदोषौ विचार्य च । स्वयं निश्चित्यान्यतरत् कार्य कुर्यान्महीपतिः ॥ ७१६ ॥ किं कृतं करणीयं किं क्रियमाणं च किं मया । किं सिद्धं किमु साध्यं मे इति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः ॥ ७१७ ॥ १ B रक्षा । Aho ! Shrutgyanam Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ मानसोल्लासः । बहुलाभं सुसाध्यं च धर्म्य कीर्त्तिविवर्धनम् । कार्य विचार्य कर्तव्यं भूभुजा सुखमिच्छता ।। ७१८ ॥ [ विशतिः २ समावाय - व्ययौ यत्र व्ययो यत्राधिको भवेत् । असाध्यं च शतोपायैः कथञ्चित् तन्न मन्त्रयेत् ॥ ७१९ ॥ अधर्म्यमयशस्यं च पश्चात्तापकरं च यत् 1 दुर्लभं शबहुलं दुर्मन्त्रं तन मन्त्रयेत् ॥ ७२० ॥ कामात् क्रोधाद् भयादन्यल्लोभ्यमानो न मुह्यति । यथा शक्त्या युतः कार्य ( ये ) मन्त्रशक्तिस्तु सा स्मृता ॥ ७२१ ॥ इति मन्त्रशक्त्यध्यायः ॥ ९ ॥ भूमि द्रव्यं गजानश्वान रत्नानि विजयं तथा । ग्रहीतुमुद्यतोऽरीणां विक्रमोपचितो नृपः ॥ ७२२ ॥ प्रारब्धं यत् स्वयं कार्य दैवादु यदि न सिध्यति । न सीदति च तत् कर्तुमुत्साही च पुनः पुनः ॥ ७२३ || यस्य स्वादुद्यमे नित्यं चित्तमुत्साहसंयुतम् । उत्साहशक्तिः सा ज्ञेया नृपाणां भूतिमिच्छताम् || ७२४ ॥ इत्युत्साहशक्त्यध्यायः ॥ १० ॥ नाकान्तिसाध्यो यः कश्चिद् देशकालाद्यपेक्षया । तेन सार्द्धं प्रकुर्वीत सन्धि नीतिविचक्षणः ।। ७२५ ॥ जेता शशुं बलिष्ठं यस्तस्मादभ्यधिकेन वा । तत्रापि सन्धि कुर्वीत नयशास्त्रविशारदः ।। ७२६ ॥ बलीयसा पीड्यमानो योद्धुं तेन च न क्षमः । तत्रापि सन्धि कुर्वीत मत्वा नीतिमनुत्तमाम् ।। ७२७ ॥ सन्धितुर्विधः मोक्तो मैत्रः सम्बन्धजस्तथा । परस्परोपकाराख्य उपहारस्तथैव च ।। ७२८ ॥ Aho! Shrutgyanam Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १२] मानसोल्लासः। मुजनोऽयमिति ज्ञात्वा स्वयं सद्गुणवान्धवः । करोत्यलोभत: सन्धि मित्रसन्धिः स उच्यते ॥ ७२९ ॥ कन्यादानेन यः कुर्यात् सन्धि कार्यवशामृपः।। सम्बन्धनः स विज्ञेयः सन्धिः सन्धिविचारकैः ॥ ७३० ॥ अन्योऽन्यस्योपकारार्थ यत्र सन्धीयते नृपः । परस्परोपकाराख्यः स सन्धिः मोच्यते बुधैः ॥ ७३१॥ गजानवांस्तथा रत्नं सुवर्ण भूमिमेव च । दत्त्वा यः क्रियते सन्धिरुपहारः स उच्यते ॥ ७३२ ।। इति सन्ध्यध्यायः ॥ ११ ॥ मुयत्नेन सहायेन सामर्थ्येन बलेन च । मन्त्रैहीनेन भूपाळ सादै कुर्वीत विग्रहम् ।। ७३३ ।। कामजो लोभजथैव भूभवो मानसम्भवः । अभयाख्यः समाख्यात इष्टजोऽथ मदोत्थितः ॥ ७३४ ॥ अर्थशाने परः ख्यात एकद्रव्याभिलाषुकः । इत्यष्टौ विग्रहाः प्रोक्ता नवमो मोपलभ्यते ॥ ७३५ ।। स्त्रीनिमित्तो हि यो जातो विग्रहः कामजः स्मृतः । द्रव्यापहारजनितो विग्रहो लोभनस्तथा ॥ ७३६ ॥ भूम्यर्यमुत्थितो यस्तु विग्रहो भूभवो महान् । विरुदार्थ कृतो यस्तु विग्रहो मानसम्भवः ।। ७३७ ॥ शरणागतरक्षार्थ यो भवेद् विग्रहो महान् । अभयाख्यः स कथितो विग्रहो नीतिवेदिभिः ॥ ७३८॥ मित्रार्थे बन्धुभृत्यार्थे विग्रहो यः समाचरेत् । इष्टजः स तु निर्दिष्टो नीतिस्पष्टार्यदृष्टिभिः ॥ ७३९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ मानसोल्लासः । मदिरामदजातेन विद्याधनमदेन च । यौवमेन मदेनाथ विग्रहो यो भवेनृणाम् ॥ ७४० ॥ [ विंशतिः २ एतैर्मदैः समुत्पन्नो मतिभ्रंशकरो महान् । अविवेकाद् य उत्पन्नः स भवेच्च मदोत्थितः ।। ७४१ ।। एकमर्थं समुद्दिश्य यो भवेद् विग्रहो मिथः । स प्रोक्तः शास्त्रतत्वज्ञैरेकद्रव्या भिलाशुकः ।। ७४२ ॥ इति विग्रहाध्यायः ॥ १२ ॥ दैवोपहतकोशथ व्याधिना बाधितोऽपि वा । व्यसनासक्तचित्तो वा शत्रुणा पीडितोऽपि वा ॥ ७४३ ॥ बलकोशविहीनो वा यो वा मित्रैर्नियोजितः । तस्योपरि नृपो यायाज्जिगीषुर्जयसिद्धये ॥ ७४४ || शरत्काले वसन्ते वा रिपोर्नाशमुपस्थिते । निमित्तं शकुनं लब्ध्वा यात्रां कुर्वीत भूपतिः ॥ ७४५ ॥ सन्धानजा पाणिरोधा मित्रविग्रहणी तथा । द्वन्द्व निर्व्याजजा कुल्या सप्तमी चापि शीघ्रगा ॥ ७४६ ॥ पाणिग्राहेण सन्धाय पश्चात् कुर्वीत भूपतिः । सन्धानयात्रा सा ज्ञेया नृपाणां क्षेमकारिणी ॥ ७४७ ।। पाणिग्राहस्य रोधार्थी नियोज्यात्मबळं महत् । गच्छतां सा भवेद् यात्रा पाणिरोधा शुभावहा || ७४८ ॥ शत्रोः सार्धं स्वमित्रेण कारयित्वा सुविग्रहम् । गच्छतां सा भवेद् यात्रा मित्रविग्रहणी परा ॥ ७४९ ॥ यस्योपरि स्वयं यायादानयेत् तदरिं नयात् । सा यात्रा द्वन्द्वजा प्रोक्ता रिपुसंहारकारिणी || ७५० ॥ Aho! Shrutgyanam Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३] मानसोल्लासः। सर्वतः स्वस्थचित्तस्य बलिष्ठस्यारिघातिनः । भवेद् या नृपतेर्यात्रा निर्याना सा प्रकीर्तिता ॥ ७५१ ॥ रिपुवंश्येन साई यो गच्छत्यरिविनाशने । सा तु यात्रा भवेत् कुल्या द्विषतां भयकारिणी॥ ७५२ ॥ रिपोर्दिनाशमुद्दिश्य त्वक्त्वा चान्यप्रमादकम् । सहसा क्रियते यात्रा सा भवेच्छ्रीघ्रगा भृशम् ॥ ७५३ ॥ इति यात्राभेदाः ॥ देशं कालं तथा मित्रं निमित्तं बलमात्मनः । विचार्य कुर्वतो नित्यं यात्रा भवति सिद्धिदा ।। ७५४ ।। मूले के श्रवणे सौम्ये भौमाहिर्बुध्यदैवते । कृत्तिकायां बुधो युक्तो वाक्पतिस्तु पुनर्वसौ ।। ७५५ ।। भाग्ये शुक्रः शनिः स्वातौ तिष्ठन्तः सर्वसिद्धिदाः । तस्मादेते समाख्याताः सिदियोगा मनीषिभिः ॥ ७५६ ॥ सहस्रकिरणो इस्ते मृगाको मृगशीर्षके। अश्विन्यां च धरापुत्रे मैत्रे चन्द्रमसः सुतः ॥ ७५७ ॥ दिवौकसां गुरुः पुष्ये रेवत्यां भृगुनन्दनः । रोहिण्यां शनिवारे तु सुधायोगाः प्रकीर्तिताः ॥ ७५८ ।। रिक्तासु सूर्यजे सूर्य नन्दामु भृगुनन्दने । जयासु परणीपुत्र भद्रासु च बुधे विधौ ॥ ७५९ ॥ पूर्णासु त्रिदशाचायें स्थिते सिद्धा तिथिर्मवेद । सर्वकार्यकरी नृणां यात्रायां च विशेषतः ॥ ७६.॥ प्रतिपद् गमने शस्ता द्वितीया क्षेमदा भवेत् । तृतीया धनकामाय चतुर्थी निन्दिता सदा ॥ ७६१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोडासः। [धितिर पश्चमी श्रीकरी ज्ञेया षष्ठी यानेऽतिकुत्सिता । सप्तमी सर्वलामाय कुत्सिता चाष्टमी तिथिः ॥ ७६२ ॥ नवमी च सदा निन्या भूमिदा दशमी भवेत् । वैष्णवी जयदा नित्यं द्वादशी परिवर्जिता ।। ७६३ ॥ किं पुनर्बहुनोक्तेन सर्वसिद्धा त्रयोदशी । असिते च सिते पक्षे वर्जनीया चतुर्दशी ।। ७६४ ।। पूर्वभागं परित्यज्य पूर्णिमा गमने वरा । अमावास्या विशेषेण शशिहीना विवर्जिता ॥ ७६५ ॥ उत्तरात्रितयं पुष्यो रविवारे शुभप्रदः । रोहिणी श्रवणं चित्रा सोमवारे सुखावहाः ।। ७६६ ॥ अहिर्बुध्न्यं च पौष्णं च भौमवारे पशस्यते । पुनर्वमुर्गुरोवारे भाग्यं च श्रवणे स्थिते ॥ ७६७ ॥ हरिदेवं द्विदैवं च वहिदैवं शनेर्दिने । धिष्ण्यान्येतानि शस्तानि वारेवेतेषु सर्वदा ॥ ७६८ ॥ हस्तः पुनर्वसुः पुष्यो रेवती मृगशीर्षकम् । अनुराधाधिनी श्रोत्रं शस्तानि गमने नृणाम् ॥ ७६९ ॥ चरलग्ने प्रयातव्यं द्विस्वभावेऽथवा नृपः। लग्ने स्थिरे न गन्तव्यं यात्रायां क्षेममिच्छुभिः ॥ ७७० ॥ अष्टमं जन्मतस्त्यक्त्वा लग्नं द्वादशमेव च । ग्रहाणां च बलं प्राप्य गच्छेदिच्छन् जयं नृपः ॥ ७७१ ॥ गुरुर्लने बुधस्तुर्ये पञ्चमे भृगुनन्दनः । षष्ठे कुजाकेतन्यौ तृतीये चण्डदीधितिः ॥ ७७२ ॥ चन्द्रमा दशमो यस्य स यात्रायां नयी भवेत् । क्षेमेण गमनं तस्य क्षेमेण च निवर्तते ॥ ७७३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३] मानसोल्लासः। बुधजीवसितानां च यदि केन्द्रत्रिकोणगः । एको भवेद् ग्रहो यस्य तस्य यात्रा सुखप्रदा ॥ ७७४ ।। दो चेत् केन्द्रत्रिकोणस्थावतियोगः स कथ्यते । तत्र यात्रा नरेन्द्राणां क्षेमदा रिपुनाशिनी ॥ ७७५ ।। योगाषियोगः कथितः त्रिभिः केन्द्रत्रिकोणगैः । तत्र यातुर्भवेत् क्षेमो भुवो लाभो रिपोर्वधः ॥ ७७६ ॥ केन्द्रत्रिकोणगाः सौम्याः पापाः षष्ठ-त्रि-लाभगाः। ग्रहा यस्य प्रयाणे स्युस्तस्य लाभो जयो भवेत् ॥ ७७७ ॥ योगयात्रा भवेच्छस्ता नृपाणां भूतिमिच्छताम् । तारागुणे द्विजातीनामन्येषां शकुनादिभिः ॥ ७७४ ॥ उत्तराम विशाखायां रोहिण्यां गमने नृपः । दिवसस्प तृतीयांशमाघमागं विवर्जयेत् ॥ ७७९ ॥ सार्प-राक्षस-ौद्वेषु ज्येष्ठायां वासरस्य हि । वर्जयेन्मध्यमं भागं यात्रायां पृथिवीपतिः ॥ ७८० ॥ स्वात्यश्वि-पुष्य-इस्तेषु यात्रायां परिवर्जयेत् । दिनस्य पश्चिमं भागं जयपिच्छन् महीपतिः ॥ ७८१ ॥ मैत्रैन्द्र-त्वाष्ट्र-पौष्णेषु त्याज्यो यनान्महीभुजा । रजन्याः प्रथमो भागः सदा विजयमिच्छता ॥ ४२ ॥ याम्ये पूर्वात्रये मैत्रे निशामध्यं परित्यजेत् । गमने भूपतिदक्षो रिघाती जयोत्सुकः ॥ ७८३ ।। श्रवणादित्रये त्याज्यो नक्षत्रे दितिदैवते । निशायाश्चरमो भागः प्रयाणे पृथिवीभुना ॥ ७८४ ॥ श्रवणे च तथा हस्ते पुष्ये च मृगमस्तके । सर्वदा गमनं शस्तं नृपाणां सिद्धिमिच्छताम् ॥ ७८५ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० मानसोल्लासः । मैत्राश्वि- पुष्य - हस्ताश्च सर्वदिक्षु शुभावहाः । यात्रायां सुप्रशस्तास्ते सर्वद्वारिकसंज्ञिताः । ७८६ ॥ गच्छेत् माचीमुदीचीं च कृत्तिकादिषु सप्तसु । मघादिसप्तके गच्छेद् दक्षिणां पश्चिमां दिशम् || ७८७ ॥ [ विशतिः २ मैत्रादिसप्तके यायात् पश्चिमां दक्षिणां दिशम् । धनिष्ठादिषु धिष्ण्येषु व्रजेद् यक्षेन्द्रयोदिशोः ॥ ७८८ ॥ वैपरीत्याद् यदा गच्छेत् परिघो लङ्घितो भवेत् । लङ्घितः परिषो हन्ति सर्वकार्याणि यायिनाम् ॥ ७८९ ॥ वायव्यमानमाशां समाक्रम्य स तिष्ठति । परिघो दण्डवत् तस्माद् यात्रायां तं विवर्जयेत् ॥ ७९० ।। गमनं केचिदिच्छन्ति कृत्तिकादिषु सप्तसु । आग्नेयां दिशि प्राच्यां च न दोषः परिघोद्भवः ॥ ७९१ ॥ मादिषु तथाssari प्राचीं गच्छन् न दुष्यति । "मैत्रादिषु दिशं वायोर्धनदस्य दिशं व्रजेत् ।। ७९२ ॥ धनिष्ठादिषु धिष्ण्येषु वायव्यामथ वारुणीम् । ककुभं गच्छता नैव परिघो लङ्घितो भवेत् ॥ ७९३ ॥ ज्येष्ठा प्राचीदिशं हन्ति गच्छतां कामितं फलम् । पूर्वाभाद्रपदा याभ्यां प्रतीचीमपि रोहिणी ॥ ७९४ ॥ उत्तराफाल्गुनी तद्वदुत्तरां ककुभं सदा । यातॄणां च भवेत् क्लेशः सन्देहेन निवर्त्तनम् || ७९५ ॥ इति सर्वदिक्षाणि । शुक्रादित्यदिने गन्ता वर्जयेत् पश्चिमां दिशम् । बुधे भौमे च कौबेरीं ककुभं परिवर्जयेत् ॥ ७९६ ।। Aho! Shrutgyanam Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३] मानसोडासः। सोमे शनैश्व-रे वारे दिशं प्राची परित्यजेत् । गुरोर्वारे न गन्तव्यं दक्षिणां ककुभं प्रति ॥ ७९७ ॥ वारशूलमिदं प्रोक्तमाचार्यैः कैश्चिदेव हि। तस्मादस्मिन् न गन्तव्यं वारशूले विचक्षणैः ॥ ७९८ ॥ इति वारशूलम् ॥ आदित्यस्य दिने वा धनिष्ठा कृत्तिका मघा । अनुराधा तथाऽश्लेषा भरणी गमने बुधैः ॥ ७९९ ॥ आषाढे द्वे विशाखा च त्याज्याः सोमस्य वासरे । धनिष्ठाऽर्दा शतभिषग् भौमवारे विवर्जिताः॥ ८०० ॥ कृत्तिका रेवती मूलमनुराधा तथाऽश्विनी । वा शतभिषक् चैव बुधवारे शुभेच्छुभिः ॥ ८०१ ॥ सुगं शतभिषा पौष्णं वर्जयेद् गुरुवासरे । पुष्याश्लेषामघा वामी याने शुक्रदिने त्यजेत् ॥ ८०२॥ आषाढयुगलं हस्तं चित्रामुत्तरफाल्गुनीम् । मन्दवारे त्यजेत् पाझो यात्रायां पार्थिवोत्तमः ॥ ८०३ ॥ इति ऋतदोषवारणानि ॥ बहलासु दधि प्राश्यं ब्रायां च घृतपायसम् । ऐन्दवे माषवटिका रौद्रे च मधुरं दधि ॥ ८०४ ॥ पुनर्वसौ पटोलानि पुष्ये सर्पिश्च पायसम् । सर्पधिष्ण्ये तिला भक्ष्या मघामु कशरोदनम् ॥ ८०५ ॥ पायसं पूर्वफाल्गुन्यामर्यम्णे शाकभोजनम् । यावकं पाणिनक्षत्रे चित्रायां चित्रभोजनम् ।। ८०६ ॥ स्वास्यां धात्रीफलं खाद्यं द्विदैवे गुडभक्तकम् । कुलत्थान मित्रनक्षत्रे यावकं शक्रदेवते ।। ८०७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ मूले मूलकमास्वाधं पूर्वाषाढे घनं दधि। उत्तरायां जलं शीतं श्रवणे श्लक्ष्णसक्तवः ॥ ८०८॥ शालिभक्तं धनिष्ठायां वारुणः च शकुलीः । पूर्वाभाद्रपदे क्षौद्रं बीजपूरं तथोत्तरे ॥ ८०९ ॥ रेवत्या सिद्धमुगाः स्युरश्चिन्यां स्वादु भोजनम् । भरण्यां सतिलं तोयं प्राश्य याता सुखी भवेत् ॥ ८१० ॥ इति नक्षत्रदोहदम् ॥ पुष्पवत्यां महादेव्यामकाळे वृष्टिदर्शने । समाते गोत्रकलहे वृषदंशमृगे तथा ॥ ८११ ॥ आशौचे गृहदाहे च भूकम्पे चण्डमारुते । दिग्दाहे भूमिनिर्घोषे न गन्तव्यं जिगीषुणा ॥ ८१२ ॥ भुते स्वयं वाऽपि परैर्लने क्वापि च वारिते। रष्टे ज्वाला विना धूमे तुषकाष्ठस्य दर्शने ॥ ८१३ ।। मपीभस्मनि तैले च परिशुष्क च गोमये । शशे दिगम्बरे सर्प न गन्तव्यं सुखार्थिना ॥ ८१४ ॥ खरोष्ट्रमहिषारूढाः संन्यासिश्रावकान्त्यजा। कर्णनासादिभिहींना विकेशाः कृष्णवाससः ॥ ८१५ ॥ मुक्तकेशाप्रतिकृष्णाका तैलाभ्यक्ता रजस्वला । गर्भिणी विधवोन्मत्त-क्लीबान्ध-बधिरा नराः ॥ ८१६ ॥ एतेषां दर्शने जाते न गन्तव्यं कदाचन । आत्मनो दौर्मनस्ये च न यात्रा सिद्धिदा भवेत् ॥ ८१७ ।। इत्यमङ्गलानि शकुनानि ॥ पूर्णकुम्भे तथाऽग्दर्श दनि मधे तथाऽऽमिषे । मीने शङ्के ध्वजे छत्रे चामरे वारयोषिति ॥ ८१८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३ ] मानसोल्लासः। चाषे मृगभरद्वाजे फलपुष्पाक्षतेष्वपि । वृषभे समदे नागे सिते वाहे द्विजोत्तमे ॥ ८१९ ॥ मुवर्णे दिव्यरत्ने च वीणायां पटहे तथा । बड़े चैव पशोष्टे यात्रा भवति सिदिदा ।। ८२० ॥ नृपो विप्रः मुहद् धेश्या कुमारी पाण्दुराम्बरा । वृषाच कुअरारूढा नरा नार्यः शुभावहाः ॥ ८२१ ॥ गच्छेति पृष्ठतो वाक्यमेहीति पुरवः शुभम् । आशिषः सर्वतः शस्ता मनसस्तुष्टिरूर्जिता ॥ ८२२ ॥ छिन्धि भिन्धि जहीत्यादि वाचो निन्धा अपि स्फुटम् । उधतानां रिपोर्घाते पापद्धौं शोभनाः सदा ॥ ८२३ ॥ इति यात्रायां मङ्गलप्रदानि शकुनानि ॥ श्वा यात्रासमय गच्छेद् वामं दक्षिणतो यदि । स्पृशेद् वा श्रवणं वामं यात्रासिद्धिभेवेत् तदा ॥ ८२४ ॥ प्रवेशे दक्षिणं गच्छेज्जृम्भते वा रतोयतः । करोति नितरी सौख्यं विपरीता तु कुकरी ॥ ८२५ ॥ क्रोशदयं यदा गच्छेत् सह पान्येन मण्डलः । वामगो मूत्रयेद् वाऽपि तदाऽसौ शुभमूचकः ॥ ८२६ ॥ गजस्थानं हयस्थानं शादलं शयनस्थलम् । . उलूखल-ध्वज-छत्र-चामरं सफलद्रुमम् ।। ८२७ ॥ 'इष्टिकानिचयं कुम्भं पर्याणं मृत्तिकाचयम् । पुष्पबत् फलवत् स्थानं श्वा गच्छन् शुभदो भवेत् ॥ ८२८ ।। कृतमत्रो यदा गच्छेत पुरस्तात् सरमासुतः। तदाऽभिलषितं कार्य यातुः सिध्यति निश्चितम् ॥ ८२९ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ वामगो मूत्रयेदा गोमये कुक्कुरो यदि । मृष्टं भोजनमुद्दिष्टं शुष्के निःस्नेहभोजनम् ।। ८३० ॥ अमेध्यमोदनं मांसं नूतनं वस्तु किञ्चन । मुखे निक्षिप्य गच्छन् वा यातुर्लाभं विनिर्दिशेत् ।। ८३१ ॥ आर्द्रमस्थि तथा वस्त्रं पादत्राणं मुखे दधन् । उपस्थितः प्रमुश्चेच्चेत् सारमेयः मुखपदः ॥ ८३२ ।। इति श्वशकुनानि ॥ शान्तदीप्तमभेदेन ज्ञातव्याः ककुभः क्रमात् । शुभाशुभफलज्ञानविचाराय मनीषिभिः ॥ ८३३ ॥ सूर्ये ज्वाला ततो धूमः पश्चादकारसम्भवः । ततश्च पश्चिमे भागे भस्मस्थानं प्रकीर्तितम् ॥ ८३४ ॥ भस्मानारशिखाधूमं दीप्तमित्यभिधीयते । शेषाः शान्ता दिशः प्रोक्ताश्चतस्रः पूर्वसूरिभिः ॥ ८३५ ॥ निष्फलं भस्मनः स्थानमारस्वासमावहेत् । ज्वाले मृत्युभषेव् धूमस्थाने दुःखं विनिश्चितम् ॥ ८३६ ।। . याममात्रं वसेद् भानुर्दिग्विदिक्षु प्रदक्षिणम् । चत्वारो दिवसे यामा यामवस्यां तथैव च ॥ ८३७ ॥ : माहेन्द्यां प्रथमे योमे सूर्यो ज्वालाकुलो भवेत् । द्वितीय वहिदिग्भागे तृतीये पिदैवते ॥ ८३८॥ चतुर्थे नैर्ऋते स्थाने रात्रौ तिष्ठति भानुमान् । ' तृतीये धनदस्थाने प्रत्यूषे दिशि शूलिनः ॥ ८३९ ॥ शिवा स्टन्ति दीप्तेषु फलमीरितमावहेत् । शिवा शान्ते ज्वलन्तीषु शुभं शंसति निश्चितम् ॥ ८४० ।। Aho ! Shrutgyanam Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३] मानसोल्लासः। लाभं च विजयं सौख्यं मित्राणां च समागमम् । रटन्ती शान्तदिग्भाग क्रमात् फलमिदं वदेत् ।। ८४१ ॥ अनेनैव प्रकारेण पल्लीशकुनमादिशेत् । दीप्तस्थाने रटन् काकः शोभनं फलमादिशेत् ॥ ८४२ ॥ दी दीसमुखः काकः कुर्वाणः परुषं स्वरम् । कार्यसिद्धि प्रदर्याय विनाशं कुरुते ध्रुवम् ॥ ८४३ ॥ दिप्ताभिमुखमारब्धः पुनः शान्तेऽभिवासते । कार्य संशयितं कृत्वा पुनस्तत्सिद्धिमादिशेत् ॥ ८४४ ।। दी शान्तमखः काकः कुर्वाणो मधुरं स्वरम् । ईप्सितार्थ रिपोशिं लाभं स्त्रीरत्नजं दिशेत् ॥ ८४५ ।। अन्तरिक्षेऽय वृक्षे वा कुर्वाणो मधुरं स्वरम् । मूर्द्धस्थाने शुभं वक्ति सर्वदा बलिभोजनः ॥ ८४६ ॥ इति शिवा-पल्ली-काकशकुनानि ॥ पोतकीस्थानमालोक्य तोरणानि प्रकल्पयेत् । तोरणात् तोरणं कार्य चत्वारिंशत्क्रमान्तरम् ॥ ८४७ ॥ पक्षद्वयस्थितौ वृक्षावष्टधन्वन्तरान्तरौ । शिलाशकलयुग्मं वा कल्पितं तोरणं विदुः॥ ८४८ ॥ गृहे पिष्टमयं कृत्वा पोतकीमिथुनं सुधीः । पूजयेत पुष्प-धूपायैः कुमारीमपि भोजयेत् ॥ ८४९ ॥ तोरणस्थानमागम्य पोतक्यावधिवासयेत् । प्रयतः सन् गृहं गत्वा स्वप्यात् पाण्डविके स्मरन् ॥ ८५० ॥ सूर्योदये समुत्थाय सहायैः सहितो ब्रजेत् । नियतस्तोरणाभ्याचं शकुनालोकतत्परः ॥ ८५१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ मानसोल्लासः । [विंशतिः २ प्रशान्तदिङ्मुखो भूत्वा पोतकी नामभिः स्तुवन् । पाण्डपुत्रस्य मध्यस्य दश नामानि कीर्तयेत् ॥ ८५२ ॥ पाण्डवी पोतकी दुर्गा श्यामोमा चटकाभिधा। वाराही शकुनी कृष्णा श्वेतपक्षेति नामभिः ॥ ८५३ ॥ एतैरावाह्य विकिरदक्षतान् कुसुमैः समम् । ध्यायेच्च फाल्गुनं वीरं सर्वयोधधुरन्धरम् ॥ ८५४ ॥ किरीटी विजयः कृष्णो बीभत्सुः फाल्गुनोऽर्जुनः। सव्यसाची च पार्थश्च श्वेताश्वोऽय धनञ्जयः ॥ ८५५ ॥ " ॐ शिवे ज्वालामुखि बलिं गृहाण स्वाहा ॥ ॐ शिव शिवति भगवति चण्डे इदमयं मया लीलया समर्पितं गृहाण गृहाण ॥ आगच्छ वायुवेगेन शुभं कुरु कुरु स्वाहा ॥" __ अनेन मन्त्रेण त्रिपथे चतुष्पथे वो शिवाय बलिमयं दद्यात् । तोरणेषु नामान्येतानि कीर्तयेत् । सिद्धिदा जायते देवी पाण्डुपुत्रोपकारिणी ॥ ८५७ ॥ निःशब्दा होनशब्दा वा गच्छतो यदि दक्षिणम् । बजेत् कृष्णा तदा शस्ता शकुनज्ञस्य तोरणे ॥ ८५८ ॥ तोरणान्तनिवृत्तस्य पोतकी वामगा शुभा। अग्रे दक्षिणतः कृष्णा वामतः पुरुषः पुरः ॥ ८५९ ॥ एका ताराऽभयं विद्याद् द्वितीया कामदा भवेत् । तृतीया राज्यलाभाय व्रजन्ती दक्षिणां दिशम् ।। ८६० ॥ प्रथमं वामगा भूत्वा दक्षिणं यदि गच्छति । विनाश्य कुरुते कार्य पश्चात कृष्णा न संशयः ।। ८६१ ।। विपरीतक्रमे शेषा विपरीतफलप्रदा। न या नयक्रमाद् यान्ती मिश्रकार्याणि शंसति ॥ ८६२ ।। १ BC वा बलि । Aho ! Shrutgyanam Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३] मानसोल्लासः। शुभं वाप्यशुभं प्रान्ते तदेव फलदायकम् । • पोतकीशकुनज्ञानं कीर्तितं सोमभूभुजा ॥ ८६३ ॥ इति पोतकीशकुनम् ॥ फल-पुष्प-पलाशाढ्यं क्षीरिणं वा महीरुहम् । पवित्रस्थानसंयुक्तं पिलायुगलान्वितम् ।। ८६४ ॥ अर्चयेदधिवासार्थ सायङ्काले समाहितः । स्नात्वा शुक्लाम्बरो भूत्वा सहायसहितो बुधः ॥ ८६५ ॥ नषेन गोमयेनोवीं लिप्त्वा गोचर्मनिर्मिताम् । अष्टपत्रं लिखेत् पद्मं पिष्टेनाट्टैण कोविदः ॥ ८६६ ॥ कृत्वा पिष्टमयं तत्र पिङ्गलायुगलं शुभम् । चण्डी च स्थापयेत् तत्र क्लिष्टां (क्लृप्तां) पिटेन सायुधाम् ।।८६७॥ लोकपालाष्टकं तत्र ध्यायेत् पद्मदलाष्टके । ब्रह्माणं कमलस्योर्ध्वमच्युतं च तलस्थितम् ॥ ८६८ ॥ तचनामाक्षरैर्मन्त्रैः प्रणवाधैर्नमोऽन्तगैः । पूजयेत् फल-पुष्पायेधूप-नैवेद्य-दीपकैः ॥ ८६९ ॥ वृक्षस्थानाय नमः इत्यासनमन्त्रः । ॐ ह्रीं श्रीं चामुण्डे हुं नमोऽ स्मिन् वृक्षे अवतर स्वाहा। ध्यायननेन मन्त्रेण चण्डी वृक्षेऽवतारयेत् । पिङ्गलायुगलस्पापि मन्त्रोऽयं कथ्यतेऽधुना ॥ ८७० ॥ ॐ पिङ्गले मेखले रेवति रात्रिचारिणि ब्रह्मपुत्र सत्यमेतद् हि मे स्वाहा । इत्यावाहनमन्त्रः । ॐ श्रीं ह्रीं हूं चलि वौषटै इति मूलमन्त्रः । ॐ सिद्धचामुण्डे कृष्णपिङ्गले स्वाहा । ॐ नमो भगवति कालरात्रि मन्त्रमूर्ति महेश्वरि चामुण्डे प्रजापालनि योगेश्वरि आगच्छ आगच्छ एबेहि तिष्ठ तिष्ठ ॐ हीं चिलि चिलि शब्दाय स्वाहा । इत्यधिवासनमन्त्रः ॥ १ BC वृषमस्वा । २ 0 पंचा। ३ CE ॐ हीं ही हूँ वलि वलि वौषट् । · Aho ! Shrutgyanam Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ पूजां जपं च होमं च मूलमन्त्रेण कल्पयेत् । अष्टोत्तरशतं जप्त्वा दशांशं होममाचरेत् ॥ ८७१॥ अश्वत्थोदुम्बराम्राणां ब्रह्ममहीरुहः । समिधो मधु-सर्पिभ्यां जुहुयाचण्डिका स्मरन् ॥ ८७२ ॥ प्रेतासनगतां शुष्का भस्मलिप्तां कपालिनीम् । धूकध्वजां शूलहस्तां रक्तपां मुण्डमालिनीम् ॥ ८७३ ॥ वसामुग्रचितां कृष्णा गजसिंहाजिनाम्बराम् । अक्षवृक्षस्थितां भीमां स्मरेची कृतार्चनः ॥ ८७४ ॥ अर्चयित्वा ततो वृक्ष वेष्टयेत् सिततन्तुभिः । अर्पयेद् गुरवे सर्व होमार्चनजपादिकम् ॥ ८७५ ॥ देव्यै कार्य निवेद्याथ गृहं गच्छेनिशामुखे। गृहे च भोजयेत् कन्याः स्वयं भुनीत बन्धुभिः ॥ ८७६ ।। प्रत्यूषेऽथ समुत्थाय कृतदेवार्चनादिकः । गत्वाऽधिवासितं स्थानं जानुभ्यां धरणीगतः ॥ ८७७ ॥ बद्धाअलिपुटो भूत्वा मन्त्रग्राममुदीरयेत् । कथयेदुचया वाचा कार्य शपयपूर्वकम् ॥ ८७८ ॥ तथ्यं कथय देवि ! त्वं ब्रह्मपुत्रि ! शुभाशुभम् । इत्युक्त्वा पृष्ठतः कृत्वा मदीप्तां ककुभं बुधः ॥ ८७९ ॥ शृणुयाद् विरुतं तस्या स्तथा वीक्षेत चेष्टितम् । एकानमानसो भूत्वा शकुनालोकनोद्यतः ॥ ८८० ॥ पार्थिवो वाडिवस्त्वाप्यः कैलकस्तैजसः पुनः । कुरङ्गली समीरोस्थो वीशः किंशुरिवाम्बरः ।। ८८१ ॥ एते पश्च स्वराः ख्याताः पिङ्गलाख्यस्य पक्षिणः । तेषां मात्राप्रभेदोऽयं वक्ष्यते स्वरभेदतः॥८८२॥ १) शूलध्वजतदाहस्तां रक्ताक्तमु । २ D कुर्याद् दीप्ताशां चतुरो बु... ३ D वायव । ४ कुरु । Aho ! Shrutgyanam Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १३ ] मानसोल्लासः। एकमात्रश्चिलित्युक्तः तवयेन द्विमात्रिकः । त्रितयेन त्रिमात्रः स्याच्चतुर्मात्रश्चतुष्ककः ॥ ८८३ ॥ पञ्चभिः पश्चमात्रस्तु बोद्धव्योऽसौ मनीषिभिः । स्वरूपं तस्य वक्ष्यामि स्वराणामनुकारतः ॥ ८८४ ॥ चिल् एकमात्रः १ । चिलि द्विमात्रः २। चिलिलि त्रिमात्रः ३। चिलिचिलि चतुर्मात्र: ४ । चिलिचिलिलि पश्चमात्रः ५ पार्थिवः ॥ किन् १ । किचि २ । किचिचि ३ । किचि किचि ४ । किचि किचिचि ५ आप्यः ॥ कुम् १ । कुकु २ । कुकुकु ३ । कुकुकुकु ४ । कुकुकुकुकु ५ तैजसः । चीच १। चीचु २। चीचुचु ३ । चीचुचीचु ४ । चीचुचीचुचु ५ वायुः ॥ सृक् १ । चिच २। कुसुरु ३। कीः कीसरु ४। चुरुचुरु चुरु ५ आकाशः ॥ पार्थिवादिक्रमेणोक्ताः पञ्च मात्राः पृथग्विधाः । तेषां त्रिरुक्तो यः कश्चित् स लघुः स्वर इष्यते ॥ ८८५ ॥ पोढोदितो गुरुः प्रोक्तो नवधोक्तः प्लुतो भवेत् । लघौ स्वल्पं गुरौ मध्यं प्लुते पुष्टं फलं भवेत ॥ ८८६ ।। पार्थिवं कुरुते हष्टः संलापी जलजं स्वरम। तैजसं मदनाक्रान्त इति शान्तात्रयः स्वराः ॥ ८८७ ।। वायव्यं कुरुते क्रुद्धः शोकातों नाभसं स्वरम् । स्वराविमौ प्रदीप्ताख्यौ विबुधैः परिकीर्तितौ ।। ८८८॥ पूर्वदक्षिणदिग्भागे पार्थिवः प्रबल: स्वरः । पश्चिमायां च कौबेर्या बलवान् जलजः स्वरः ॥ ८८९ ॥ वायव्ये तैजसे कोणे बलिष्ठस्तैजसः स्वरः । ऐशाने नैऋते कोणे बलीयान् नाभसः स्वरः ॥ ८९० ॥ आप्य-पार्थिवयोमैत्री तयोराप्यो बलाधिकः । आप्य-तैजसयोवैरं तयोराप्यो महाबलः ॥ ८९१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० मानसोल्लासः । आप्य मारुतयोर्वैरं बलवान् मारुतस्तयोः । मध्यस्थात्राम्बरायौ नाभसस्तु तयोर्बली [ विंशतिः २ ।। ८९२ ।। नैव शत्रू न मित्रे च नामसाध्यौ परस्परम् । तथापि नामसो नादः प्रबलः परिकीर्तितः ।। ८९३ ॥ पार्थिवायोमैत्री तत्र भौमो बली स्वरः । अनलानिलयोमैत्री बलवाननिलस्तयोः || ८९४ ॥ जल मारुतौ शब्दौ प्रागुक्तौ भौमवैरिणौ । तावेव पश्चादुद्भूतौ मित्रे भौमस्य कीर्तितौ ।। ८९५ ।। चतुर्णामपि शब्दानां नाभसः शत्रुरिष्यते । एवं स्वराणामुद्दिष्टं मित्रामित्रबलाबलम् || ८९६ ॥ स्वस्यां दिशि फलं पूर्ण तदर्द्ध मित्रसद्मनि । शत्रुक्षेत्रे फलाभावो विपरीतमथापि वा ॥ ८९७ ॥ भौमादनन्तरश्चाप्यः सर्वसिद्धिप्रदो भवेत् । विपरीतक्रमेणैव फलनाशकरौ स्वरौ ॥ ८९८ ॥ प्रथमं पार्थिवो नाद स्तैजसस्तदनन्तरम् । वाञ्छितार्थौ स्यातां विपरीतौ ततोऽन्यथा ।। ८९९ ॥ आदौ चेत् पार्थिवो नादः पश्चान्मारुतजो यदि । लाभपूर्वा तदा हा निर्लाभो विपर्ययात् ॥ ९०० ॥ प्रथमो भूमिजो नादो द्वितीयो नाभसो यदि । सुखपूर्व भवेद् दुःखं दुःखात् सौख्यं विपर्ययात् ॥ ९०९ ॥ आप्यस्य पश्चादाग्नेयः फलं कृत्वा विनाशयेत् । व्यत्यासेन समुद्भूतौ व्यत्यस्तफलकारिणौ ॥ ९०२ ॥ Aho! Shrutgyanam प्रथमो जलजः शब्दस्ततश्चेद् वायुसम्भवः । भयं वित्तविनाशाय वैपरीत्येऽपि तादृशौ ॥ ९०३ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । जलजाद् व्योमजः पश्चान्मित्रयुद्धाद् भवेन्मृतिः । विपरीतक्रमद्धत त्रुतो मृतिसूचकौ ॥ ९०४ ॥ अध्याय: १३ ] Q आय-मारुतौ शब्दौ क्रमाज्जातौ धनापहौ । मृतिसंसूचकौ ज्ञेयौ विपरीतक्रमोदितौ ।। ९०५ ।। क्रमेण व्युत्क्रमेणापि नादौ तेजस - नाभसौ । कुरुतः कलहं चोग्रं भयं च सुमहत्तरम् ॥ ९०६ ॥ व्यत्यासात् क्रमशो वाऽपि शब्दौ वायव्य - नाभसौ । वित्तनाशं रणे मृत्युं नरस्य कुरुते ध्रुवम् ॥ ९०७ ॥ अन्यैरभिहितो भौमः कार्यसिद्धिविघातकृत् । अधिकः पार्थिवो नादः सर्वकामफलप्रदः ॥ ९०८ ॥ त्रयाणां वा चतुर्णां वा पञ्चानां श्रवणे सति । पश्चाच्छ्रुतोऽधिको वाऽपि पार्थिवो ध्वनिरुत्तमः ॥ ९०९ ॥ पार्थिवं सलिलं नादं स्वस्थानादूर्ध्वगस्तरोः । कुर्वन् लाभं सुखं कीर्ति जयं शंसति पिङ्गलः ॥ ९९० ॥ अवतीर्य निजस्थानात् कुर्वन नादौ शुभावहौ । कनिष्ठं फलमाचष्टे क्रेशालाभं विहङ्गमः ।। ९११ ॥ वृक्षस्याग्रे एवं कुर्वन् पार्थिवं वारिजं खगः । पुष्कलं फलमाख्याति मध्ये मध्यमधो लघु ॥ ९९२ ॥ विन्यस्य वदने भक्ष्यं भुक्त्वा वा तद् विहङ्गमः । रम्यस्थानस्थितः कुर्वन् शुभौ नादौ शुभं दिशेत् ॥ ९१३ ॥ भक्ष्यमुत्सृज्य वक्त्रस्थं यदा वक्ति शुभौ ध्वनी । तदा शंसति सम्पत्तेनं पिङ्गविहङ्गमः ॥ ९९४ ॥ १ D अतुलं च सुखं । Aho! Shrutgyanam १११ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ अर्चितं पादपं त्यक्त्वा पादपान्तरमाश्रितः। रचयन् शोभनं शब्दं दिशेद् देशान्तरे सुखम् ॥ ९१५ ॥ अम्बरे शुष्कवृक्षे वा भग्नशाखे च कोटरे । कुर्वन् नादं शुभं पिङ्गो भयमुग्रं प्रशंसति ॥ ९१६ ॥ शुभस्थानस्थितो वापि गत्वा वाऽथ प्रदक्षिणम् । कुर्वन् शान्ते शुभादन्यनादं शंसत्यशोभनम् ॥ ९१७ ॥ वामतः शान्तदिग्वैर्ती कुर्वाणः शोभनं ध्वनिम् । शोभनं फलमाचष्टे चिरकालेन पिङ्गलः ॥ ९१८ ॥ भौमाप्यतेजसैन दर्जल्पन्ती शुभदेशगा। पिङ्गला भीतिमाचष्टे मुखं लाभं जयं यशः ॥ ९१९ ॥ इति पिङ्गलाशकुनम् ॥ अर्चयित्वा गणाधीशं सर्वविघ्नविनाशनम् । कुमार्या सहिता नार्यस्तिस्रः मुते जनेऽखिले ॥ ९२० ॥ अक्षतैः पूरयेयुस्ता यत किश्चित् कुडवादिकम् । चण्डिकायै नमः कृत्वा सतकृत्वोऽभिमन्त्रितम् ॥ ९२१ ॥ सम्मार्जनीकृतावेष्टे स्थापयेयुगणाधिपम् । बजेयुस्तं समादाय रजकस्य निकेतनम् ॥ ९२२ ॥ तद्नेहस्य पुरोभागे निक्षिपेयुः सिताक्षतान् । मनोगतं समुद्दिश्य शृणुयुः मुसमाहिताः ॥ ९२३ ॥ श्रूयते वचनं किश्चिद् रजकालयमध्यगम् । नार्या नरेण बालेन मोक्तमन्येन केनचित् ॥ ९२४ ॥ स्वैरसंलापनोद्भूतं शुभं वा यदि वाऽशुभम् । शृण्वन्तीभिः फर्क क्षेयं तद्वाक्यार्थविचारतः ॥ ९२५ ॥ १० वासतः। २D दिग्भागे । Aho ! Shrutgyanam Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ अध्यायः १५ मानसोल्लासः। चण्डालनिलयेऽप्येवं श्रवणे बोधने क्रमः। यद् अयुर्वचनं तत्र तत् तथा न तदन्यथा ॥ ९२६ ॥ शाकुन शास्त्रमालोक्प भाविकार्यावबोधकम् । शकुनं वर्णितं सम्यक् सोमेश्वरमहीभुजा ॥ ९२७ ॥ इत्युपश्रुतिशकुनम् ॥ इति यात्राध्यायः ॥ १३ ॥ अवृष्टया तोयरहिते दुर्भिक्षे परकान्विते । परेषां दुःस्थिते देशे नैव यायात् कथश्चन ॥ ९२८ ॥ परस्परविरोधेन क्षीयमाणेषु शत्रुषु । तद्विनाशो भवेद् यावत् तावत् तिष्ठतु बुद्धिमान् ॥ ९२९ ॥ स्वस्थासनमुपेक्षाख्यं मार्गरोषासनं तथा । दुर्गसाध्यासनं चैत्र राष्ट्रस्वीकरणासनम् ॥ ९३० ॥ रमणीयासनं चान्यत् तथा च निकटासनम् । दूरमार्गासनं चैव प्रलोभाख्यं तथैव च ॥ ९३१ ॥ पराधीनासनं चैतद् दशमं परिकीर्तितम् । इतोऽधिकं न दृश्येत नीतिझरन्यदोसनम् ॥ ९३२ ।। निष्कण्टके तथा राज्ये संहते वैरिमण्डले । स्वस्थाने या स्थिती राज्ञां स्वस्थासनमिति स्मृतम् ॥ ९३३ ॥ यदस्माभिरनुष्ठेयं देवेन क्रियते हि तत् । उग्रदण्डप्रयोगाश्च व्यसनाद् वृत्यदर्शनात् ॥ ९३४ ॥ दुर्भिक्षान्मरकापाताद् विनाशं यास्यति ध्रुवम् । इत्युपेक्ष्य नृपस्थानमुपेक्ष्यासनमुच्यते ॥ ९१५ ॥ नद्याः पूर्णपवाहेण गमनं रोधितं यदि । तेन दोषेण यत् स्थानं मार्गरोधासनं स्मृतम् ॥ ९३६ ॥ | ABCE तिष्ठेत । २ D थास । 15 Aho ! Shrutgyanam Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । [विंशतिः । दुर्ग ग्रहीतुमुधुक्तो वारयन् यवसादिकम् । तदुपान्ते वसेद् यस्तु दुर्गसाध्यासनं हि तत् ॥ ९३७ ॥ बलादुपार्जिते राष्ट्र वैशार्थ यत्र तिष्ठति । तत् स्थानं कथितं राज्ञां राष्ट्रस्वीकरणासनम् ।। ९३८ ॥ विजिगीषुर्नपो गत्वा रिपुं हत्वा रणाङ्गणे । रम्यां वसतिमालोक्य यत्र तिष्ठति सानुगः ॥ ९३९ ॥ यवसेन्धनभूयिष्ठे जलधान्यसमन्विते । तत् स्थानं नीतितत्वझै रमणीयासनं स्मृतम् ।। ९४० ॥ दूरस्थस्य रिपो राजा विनाशाय समुद्यतः । समीपे यत् स्थिति कुर्यात् तद् भवेन्निकटासनम् ॥ ९४१ ॥ दूरदेशं नृपो गत्वा कृत्वा कार्यमशेषतः । विज्ञाय स्वपुरं दूरं पत्र तिष्ठत्यनाकुलम् ॥ ९४२ ।। वर्ष व्यत्ययो यावच्छरत्कालस्य सम्भवः । तावद् यदुचितं स्थानं दूरमार्गासनं हि तत् ।। ९४३ ॥ हस्त्यश्व-धन-रत्नानि दुर्ग राष्ट्र तथैव च । किञ्चित्कालं स्थितिः कार्या रिपुं हत्वा ददामि ते ॥ ९४४ ॥ इति प्रलोभितोऽन्येन यत्र तिष्ठति भूमिपः । तत् प्रलोभासनं नाम कथितं नोतिवेदिभिः ।। ९४५ ।। मासे पक्षे दशाहे वा षडहे पश्चरात्रके । माभृतं ते ददामीति प्रैलोभ्य स्थापयेन्नृपम् ॥ ९४६ ॥ आशया धार्यमाणस्तु तत्र तिष्ठति यचिरम् । प्रलोभासनमेवं या तदाख्यातं मनीषिभिः ॥ ९४७ ॥ १ A वासार्थ ॥ २ B प्रभृतं तन्मनीषिभिः ।। Aho ! Shrutgyanam Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः । स्नेहाद् वा वैरिभावाद वा गन्तुं देशं स्त्रर्क न यः । लभते तस्य तत् स्थानं पराधीनासनं स्मृतम् ॥ ९४८ ॥ अध्यायः १६ ] इत्यासनाध्यायः ॥ १४ ॥ स्वयं हीनबलो राजा जयहेतुं न पश्यति । बलिना पीड्यमानो यः क्षेमस्थानं समाश्रयेत् ॥ ९४९ ॥ सत्संश्रयोऽन्यसंसर्गे दुर्गसंश्रयणं तथा । इति भेदास्त्रयः प्रोक्ताश्चतुर्थो नोपलभ्यते ॥ ९५० ॥ महता शत्रुणा यस्तु पीडितोऽल्पबलो नृपः । सत्यसन्धं परिज्ञाय तमेवाश्रयते बुधः ॥ ९५९ ॥ बहून वा सद्गुणान् वीक्ष्य शत्रुं यस्तु समाश्रयेत् । तं गुणं नीतितत्वज्ञाः सत्संश्रयमुशन्ति हि ॥ ९५२ ॥ शत्रुणा बाध्यमानो हि स्वयं वाऽप्यनुपायकः । गुणहीनं रिपुं ज्ञात्वा श्रयेदन्यं गुणाधिकम् ॥ ९५३ ॥ afai क्रियया युक्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् । आश्रयेदीदृशं यस्तु सोऽन्यसंश्रय उच्यते ।। ९५४ ॥ वैरिणा बलयुक्तेन पीडितो ह्यसमो रिपुः । यत् तु संश्रयते दुर्गे दुर्गसंश्रय इष्यते ॥ ९५५ ॥ इत्याश्रयाध्यायः ॥ १५ ॥ निर्द्विषतोर्मध्ये वाचाऽऽत्मानं समर्पयेन् । द्वैधीभावेन वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितः ॥ ९५६ ॥ लाभाद् वाऽपि भयाद् वाऽपि योगक्षेमार्थमुद्यतः । द्वयोर्मध्ये चिरं कालं द्वैधीभावेन यापयेत् ॥ ९५७ ॥ नीतिशास्त्रार्थसारज्ञैनमभेदार्थयनतः । मिथ्या चित्तः समादिष्टो मिथ्यावचन एव च ।। ९५८ ॥ १ ABDE र्पयेत् । Aho! Shrutgyanam ११५ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ मिध्याकरण इत्यन्यस्तथा चोभयवेतनः । युग्मप्राभृतकश्चेति द्वैधीभावोत्र पञ्चधा ॥ ९५९ ॥ चित्ते विरोधमाधत्ते वचसा प्रियभाषणम् । द्वैधीभावोऽयमाख्यातो मिथ्याचित्तोऽर्यकोविदः ॥ ९६० ॥ वचसा पियमाख्याति कर्मणा वर्ततेऽन्यथा । द्वैधीभावोऽपरः प्रोक्तो मिथ्यावचनसंज्ञकः ॥ ९६१ ॥ स्तोकं स्तोकं किमप्यादौ कार्य विश्वासकारणात् । करोति भावदुष्टोऽसौ महत् कार्य विनाशयेत् ॥ ९६२ ॥ एवं यः कुरुते मिथ्या रिपोशाय पार्थिवः । मिथ्याकरणनामाऽसौ द्वैधीभावः प्रकीर्तितः ॥ ९६३ ।। गुप्तं वेतममेकत्र तथाज्यत्र प्रकाशितम् । गृहीत्वा यश्चरन् मायी गुप्तं दस्युहितेच्छया ॥ ९६४ ।। अलक्षितो रिपोर्मन्त्रं भिच्या स्वस्वामिनेऽर्पयेत् । यत्र तिष्ठति द्वैविध्यात् स स्यादुभयवेतनः ॥ ९६५ ॥ मद्रिधु साधयस्वेति ढौकितं पाभृतं महत् ।। अन्येनापि तमुद्दिश्य दत्तं वाजि-गजादिकम् ॥ ९६६ ॥ संवाहं प्रेषयिष्यामि साधयिष्यामि ते रिपुम् । इति ब्रुवन् विरुद्धाभ्यां द्वाभ्यामर्थ समाहरेत् ।। ९६७ ।। तयोरज्ञातरूपः सन् यत्र राजा प्रवर्तते । द्वैधीभावं तमप्याहुर्युग्ममाभृतकं बुधाः ।। ९६८ ॥ द्वैधीभावं समालम्ब्य य एवं वर्तते नृपः । विपक्षलक्ष्मीमादत्ते मन्त्ररक्षाविचक्षणः ॥ ९६९ ॥ इति द्वैधीभावाध्यायः ॥ १६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १७] मानसोल्लासः। सन्धि च विग्रहं चैव मानमासनमाश्रयम् । द्वैधीभावं च यो वेत्ति प्रयोक्तुं शत्रुमण्डले ॥ ९७० ॥ बलवान् कोशसम्पन्नो गुणषट्कक्रियाबुधः । स कृत्स्नां पृथिवीं मुझे देशकालसहायवित ॥ ९७१ ॥ उपायेवृत्तमं साम भेदो मध्यम इष्यते । उपप्रदानमधमं दण्डः कष्टतमः स्मृतः ।। ९७२ ॥ अपायरहितत्वाच द्रव्यहानेरभावतः । सिद्धिमायान्ति कार्याणि ततः सामोत्तमं मतम् ॥ ९७३ ।। कुत्सिता भेदमायान्ति न ते विश्वासभूमयः । अतः सन्देहरूपत्वाद् भेदोऽयं मध्यमः स्मृतः ।। ९७४ ॥ वित्तस्य संक्षयः पूर्व सिद्धिदैवे व्यवस्थिता । उपप्रदानमधमं तेन प्रोक्तं मनीषिभिः ।। ९७५ ॥ लाभार्य क्रियते युद्धं रणे संशयितो जयः । राज्यं च जीवितं चैव दण्डः कष्टतमस्ततः ।। ९७६ ॥ कुपितस्य प्रियं वाक्यं कोपवृद्धौ प्रजायते । यथाऽऽज्यस्य प्रतप्तस्य ज्वालायै जलबिन्दवः ॥ ९७७ ॥ कुलीनेषु कृतज्ञेषु साईचित्तेषु साधुषु । कार्यार्थेषु च मेधावी पूर्व साम प्रयोजयेत् ।। ९७८ ॥ प्रथमं कर्णसुभगं द्वितीयं दैविक तथा । तृतीयं स्मारकं प्रोक्तं चतुर्थ लोभनं स्मृतम् ॥ ९७९ ॥ तथैव पञ्चमं साम निजार्पणमिति स्मृतम् । उपायेषूत्तमं साम कथितं निरुपद्रवम् ॥ ९८० ॥ मधुरैः सुखसंलापैरन्यैश्च हृदयङ्गमैः । एवं वचोभिर्यत् साम तत् कर्णसुभगं स्मृतम् ॥ ९८१ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ka मानसोल्लासः । विश्वासजननोपायैः शपथैर्देवपूर्वकैः । क्रियते यच्च नीतिज्ञैः साम तद् दैविकं विदुः ॥ ९८२ ॥ [ विशतिः २ यदासीद् बान्धवं पूर्व साम्प्रतं विस्मृतं त्वया । इति संस्मार्यते यत्र स्मारकं साम तत् स्मृतम् ॥ ९८३ ॥ ग्रामं पुरं तथा राष्ट्रं वाजिनं वारणं धनम् । दास्यामीति च यत् साम स्मृतं तदिह लोभजम् ॥ ९८४ ॥ भवत्कार्ये मदीयं स्वं शरीरं च मयार्पितम् । इति वागपिंते सानि कथितं तमिजार्पणम् ॥ ९८५ ॥ इति सामाध्यायः ॥ १७ ॥ सामोपायैर साध्या ये शत्रवो मदमोहिताः । भेदोपायेन ते साध्या नृपेण विजिगीषुणा ॥ ९८६ ॥ क्षीरं नीरं यथा हंसो विश्लेषयति संहतम् । तथा सुसंहतान् शत्रून् भेदाद् विश्लेषयेत् तु तान् ॥ ९८७ ॥ शत्रुस्थैरात्मपुरुषैर्गुदैरुभय वेतनैः । भीतापमानितान् क्रुद्धान् भेदयेश्च नृसङ्गतान् ॥ ९८८ ॥ माणापहो मानभङ्गो धनहानिश्व बन्धकः । दाराभिलाषोऽङ्गभङ्ग इति भेदोऽत्र परिधः ॥ ९८९ ॥ मन्त्रः सम्यग् मया ज्ञातो नृपस्त्वां हन्तुमुद्यतः । अद्य श्वो वाऽतितीक्ष्णैव किञ्चिन्नाद्यापि बुध्यसे ॥ ९९० ॥ पैशुन्येनाप्यनाख्याप्य हेतुभिः प्रत्ययात्मकैः । भीतिरुत्पद्यते यत्र स भेदः प्राणहा स्मृतः ॥ ९९१ ॥ त्वद्विषत्प्रेरितो राजा तव मानं हरिष्यति । एवं विद्वेष्य यो भेदो मानभङ्गः स वर्णितः ॥ ९९२ ॥ १ ABC वापि । २ DE हनि । Aho! Shrutgyanam Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १८] मानसोल्लासः । धनिकोऽयं महानेव तव किश्चिन्न दित्सति । केनाप्युपायेन तस्माद् धनमाहर्तुमर्हति ।। ९९३ ।। इति सम्मन्त्र्य भूपेन तद् ब्रूते धनिकाय च । अर्थलुब्धो वयं राजा तव द्रव्यं हरिष्यति ।। ९९४ ॥ यत्रैवं पिशुनत्वेन भिनत्युभयवेतनः। धनहानिस्त्वयं भेदो नीतिझैः समुदाहतः ॥ ९९५ ॥ न करोति तव स्वामी विश्वासं त्वयि कर्हि चित् । बन्धयित्वा तु निगडैः कारागारे निधास्यति ॥ ९९६ ॥ इति विश्वासमुद्भाव्य निजस्वामिहिते रतः । यद् भिनत्ति परं बुद्धया स भेदो बन्धकः स्मृतः ॥ ९९७ ॥ विलासी चपलो भोगी रूपवांस्तरुणो विटः । अन्तःपुरे मदीयां स्त्री कटाक्षः स्पष्टुमीतते ॥ ९९८ ॥ वध्योऽयमिति भूपालो मया सार्द्धममन्त्रयत् । इति यं कुरुते भेदं स स्याद् दाराभिलाषकः ॥ ९९९ ॥ त्वद्भार्या रूपसम्पन्नां नवयौवनशालिनीम् । ममाग्रे वर्णयन् राजा सापेक्ष इति लक्षितः ॥ १००० ॥ त्वयि जीवत्यलभ्यत्वात् तव द्रोहं विधास्यति । दाराभिलाषभेदोऽयमेचं वा परिकीर्तितः ॥ १००१ ।। अयमस्मिन कुले जातः कदाचिद् राज्यमिच्छति । अगली वा तथा नेत्रे सन्ततः साधनानि च ॥ १००१ ॥ छेत्तुं निश्चितवान राजा सर्वथा नत् करिष्यति । इति यो निर्मितो भेदः सोऽङ्गभङ्गः प्रकीर्तितः ॥ १००३ ॥ सम्यग्भेदेन शत्रूणां भिनत्ति प्रकृति तु यः। भेदवजेण तद् भित्रं हृदयं प्रतिभूभृतः ।। १००४ ॥ इति भेदाध्यायः ॥ १८ ॥ १ A स्पष्ट, BC सस्पृह, E स्पृह ।. २ BD लाषुकः । Aho! Shrutgyanam Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ अर्थभारमदानेन स्वाधिकारकुलेन च । अलन्धवेतनत्वेन द्रव्यापहरणेन च ॥ १००५ ॥ द्विषतां कारणैरेभिर्विरक्ता ये च मन्त्रिणः । अमात्याः सचिवाश्चैव तथा सामन्तमान्यकाः ॥ २००६ ॥ भृत्याश्च वान्धवाश्चैव ये चान्तर्वतिनो जनाः। युद्धबुद्धिसहाया ये तेषां दानं प्रयोजयेत् ॥ १००७॥ अन्ये ये लोभसंयुक्ता व्यसनासक्तचेतसः । तेभ्योऽपि दानं युजीत नृपः शत्रुजिघांसया ।। १००८ ॥ एवं रागविहीना ये स्वकीया सचिवादयः । तेषामपि प्रयुञ्जीत दानं राज्याभिवृद्धये ॥ १००९ ॥ अभीष्टं हायनं देश्यं करजं दन्ति-समिजम् । ग्रामजं शासनं भूषा वसनं प्रतिपत्तिजम् ॥ १०१० ॥ आकरं रुक्मजं कन्या वैश्यं लाकरं तथा । उपपदानमेवं तु प्रोक्तं षोडशवा बुधैः ॥१०११ ॥ यस्मै यत् रोचते वस्तु तस्मै योग्यानुसारतः। यद् दीयते तदाख्यातमभीष्टं दानमुत्तमम् ॥ १०१२ ॥ एकं संवत्सरं यावत् कुटुम्बभरणक्षमम् । यस्य यद् दीयते तस्य तद् दानं हायनं स्मृतम् ॥ १०१३ ॥ राष्ट्र प्रदीयते यत् तु तद् दानं देश्यमुच्यते । राष्ट्रोत्यकरदानं यत् तत् स्मृतं करनं बुधैः ॥ १०१४ ॥ वारणस्य पदानं यत तद् दानं दन्तिसंज्ञितम् । हयस्य दानपाख्यातं सप्तिजं नीतिकोविदः ॥ १०१५ ॥ अगृहीतकरो वाऽपि प्रगृहीतकरोऽपि वा। ग्रामः प्रदीयते यत तु तद् दानं ग्रामजं मतम् ॥ १०१६ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय: १९ ] 16 मानसोल्लासः । पुत्रपौत्रमपौत्रेण दत्तं नैव विलुप्यते । अचाल्यत्वेन यत् किश्चित् तद् दानं शासनं स्मृतम् ॥ १०१७ ॥ रत्नेन जातरूपेण घटितं चारु भूषणम् । दीयते यत् तु तद् दानं भूषाख्यं समुदाहृतम् ॥ १०९८ ॥ नानावर्णविचित्राणि नानासूत्रमयानि च । नानादेशसमुत्थानि सूक्ष्माणि च धनानि च ॥ १०१९ ॥ वस्त्राण्यतिमनोज्ञानि प्रभूतानि प्रसादतः । दीयते यत्तु तद्दानं वसनं परिकीर्तितम् ।। १०२० ॥ आसनं चामरं छत्रं यानं सम्माननोचितम् । मानवद् दीयते यत् तु तद् दानं प्रतिपत्तिकम् ।। १०२१ ॥ रौप्य काञ्चन- रत्नानि सञ्जायन्ते यतो भुवः । साखनिर्दीयते यत् तु तदाकरमितीरितम् ।। १०२२ ॥ दीयन्ते यत्र निष्काणि प्रभूतानि वराणि च । तद् दानं रुक्मजं प्रोक्तमर्थशास्त्रविचक्षणैः ॥ १०२३ ॥ भूषणैर्भूषिता कन्या लक्षणैश्च समन्विता । विधिवद् दीयते यत् तु कन्यादानं तु तद् विदुः ॥। १०२४ ॥ रूपयौवनसम्पन्ना नृत्यगीतविशारदा । बेश्या प्रदीयते यत् तु तद् दानं वैश्यमुच्यते ।। १०२५ ॥ यत्रादया बहवः सन्ति वहित्रस्योपजीविनः । रत्नाकरस्य वेलायां बहुपण्यप्रचारिणः || १०२६ ॥ अपूर्वोपायनोपेतं पट्टनं बहुवस्तुदम् । दीयते यत्तु तद्दानं बैलाकरमिति स्मृतम् ।। १०२७ ॥ यदसाध्यं हि भेदस्य तद् दानेन प्रसिध्यति । पशुदत्तेनेट् भवति दानेनोभयलोकजित् ।। १०२८ ॥ १ D विशारदैः । १२१ Aho! Shrutgyanam Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ मानसोङ्गासः । न सोऽस्ति लोके दानेन बशगो यो न जायते । देवा अपि भवन्तीह वशगाः सर्वदेहिनाम् || १०२९ ॥ [ विंशतिः १ दानं श्रेयस्करं श्रेष्ठं दानं सर्वार्थसाधकम् । दानशीको नृपो लोके देववत् पूज्यते जनैः ॥ १०३० ॥ इति दानाध्यायः ।। १९ ॥ उपायत्रितयेनापि यो न शक्यो भवेद् रिपुः । तस्य दण्डं प्रयुञ्जीत बलवान् यदि भूपतिः ।। १०३१ ॥ सामादीनां प्रयोक्तारमशक्तं मन्वते द्विषः । तस्माद् दण्डं प्रयुञ्जीत दण्डो हि वशकृनृणाम् || १०३२ ॥ बलिन तथा कार्या दण्डा द्वादशभेदजाः । अशक्तेन त्रयः कार्या एवं पञ्चदश स्मृताः ।। १०३३ ॥ अन्ये च दण्डाः कर्तव्या भूभृता धर्मवर्तिना I वधः क्लेशोऽर्थहरणो जनानां वृत्तरक्षकः ।। १०३४ ॥ देशनाशश्च शत्रूणां जनाङ्गच्छेदकस्तथा । गोग्रहो धान्यहरणो बन्दिग्राहस्तथाऽपरः || १०३५ ।। देशहारो धनादानः सर्वस्वहरणोऽपरः । दुर्गभङ्गः स्थानदाहो देश निर्वासकस्तथा ॥ १०३६ ॥ युद्धावहो महादण्डः शत्रुसंहारकारकः । उपायानां तुरीयश्च कथितः सोमभूभुजा ।। १०३७ ॥ वनानि यत्र छेद्यन्ते भेद्यन्ते च जलाशयाः । ग्रामाच यत्र दह्यन्ते स दण्डो देशनाशकः || १०३८ ।। नासिका श्रवणद्वन्द्वं छिद्यते देशवासिनाम् । जनानां यत्र दण्डोऽसौ जनाङ्गच्छेदनो मतः ।। १०३९ ॥ १ D छिद्यन्ते भिद्यन्ते Aho! Shrutgyanam Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यायः २०] मानसोल्लासः। १२५ देशजाः पशवः सर्वे गृह्यन्ते सहसा बलात् । दण्डोऽसौ गोग्रहो नाम विख्यातः परभूमिषु ॥ १०४० ॥ गर्भेषु पिहितं धान्य क्षेत्रसस्यशिखाईतम । आपणे पुचितं यच्च खले राशीकृतं च यत् ॥ १०४१॥ तत् सर्वे हीयते यत् तु रिपुराष्ट्रषु संस्थितम् । दण्डोऽसौ धान्यहरणो देशदुर्भिक्षकारकः ॥ १०४२ ।। कुटुम्बिनो गृहस्था ये धनिका व्यवहारिणः । नीयन्ते यत्र बद्ध्वा ते बन्दिग्राहः स उच्यते ॥ १०४३ ॥ जनानामभयं दत्त्वा तत्र स्थित्वा तथाऽन्यजम् । आत्मसात् क्रियते राष्ट्रं स दण्डो देशहारकः ॥ १०४४ ॥ आक्रम्य सैनिकामान् बलात् कृत्वा मुसङ्गतिम् । आहरेत काश्चनं दण्डो बला(धना)दानः स उच्यते ॥१०४५॥ महत्या सेनया युक्तः ख्यातं नगरपट्टनम् । आवेश्च लप्यते पत्र धन-धान्य-गवादिकम् ॥ १०४६ ॥ लोहमाण्डानि वस्त्राणि गृहोपकरणानि च । यस्माच गृह्यते सर्वे सर्वस्वहरणो हि सः ॥ १०४७ ॥ चतुरस्सं लिखेत् तज्जः कोटचक्रं विराजितम् । तत्र न्यासं प्रकुर्वीत नक्षत्राणां यथाक्रमम् ॥ १०४८॥ सर्वेष्चीशानकोणेषु कृत्तिकादिचतुष्टयम् । अन्तर्विल्लिखेत् तत्र कोटचक्रे विचक्षणः ॥ १०४९ ॥ विनिर्गरछस्तथा लेख्य पुनर्वस्वादिकत्रयम् । पूर्वस्यां दिशि चाऽऽयकोणादन्तर्विशंस्तथा ॥ १०५० ॥ चतुष्टयं मपादीनां पुनर्निर्ममतो लिखेत् । चित्रादित्रितयं याम्ये नैर्ऋतेऽन्तर्विल्लिखेत् ॥ १०५१ ॥ १ B 'खापहं, CE खापहतं । - Aho ! Shrutgyanam Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ मानसोल्लासः । [विंशतिः २ मैत्रादिकचतुष्कं तु निर्गच्छन् पश्चिमे लिखेत् । उत्तरादित्रयं तद्वत् कोणाद् वायोर्दिशं लिखेत् ।। १०५२॥ धनिष्ठादिचतुष्कं तु पुनरुत्तरनिर्गतम् । रेवत्यादित्रयं लेख्यं नक्षत्राणामयं विधिः ॥ १०५३ ॥ अन्तःस्थचतुरस्रा ये रेखाया मध्यतः स्थिताः। स्तम्भताराः समाख्याता ज्योतिर्विद्याविशारदः ॥ १०५४ तस्य बाह्यस्थितास्तारा अष्टौ प्राकारसङ्गताः । ततो बाबस्थिताश्चान्यास्तारा वायाः प्रकीर्तिताः ॥ १०५५ स्तम्भपाकारवर्तीनि नक्षत्राण्यपराणि हि। इतराणि विजानीयाद् बाह्यानीति विचक्षणः ॥ १०५६ ॥ अन्तःस्थिते आहे पापे कोटनाशं प्रपद्यते । शुभग्रहे च बायस्थे बहिःस्थानां जयो भवेत् ॥ १०५७ ॥ यस्यां दिशि भवेश्चन्द्रस्तस्यां खण्डी विनिष्पतेत् । खण्डीस्थानं परिज्ञाय तत्र कुर्वीत सङ्गरम् ॥ १०५८ ।। परिखासंस्थितं तोयं खनित्वा परिवाहयेत् । सेतुं वा कारयेत् तत्र पूरयेद् वा मृदादिभिः ॥ १०५९ ।। यद्यगाधं महत् तोयं तरेद् वा तन्नवादिभिः(?) । एवमुत्तार्य सैन्यानि दुर्ग वारिमयं जयेत् ॥ १०६० ॥ दुरारोहं तु गिरिज दुर्गमावेष्टय सेनया । अप्रवेशात् तु धान्यानां दुर्गस्थानामनिर्गमात् ।। १०६१ ॥ अमक्षयाभिरोषाच निबन्धाद् भेदतोऽपि च । एवंविधैरुपायैश्च गिरिदुर्ग जयेनृपः ॥ १०६२ ॥ पाषाणरिष्टकाभिर्वा मृदा वा निर्मितं च गत् । तद् दुर्ग यन्त्रपाषाणैः खननैश्च निपातयेत् ॥ १०६३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २०] मानसोल्लासः। मण्डपैश्चर्मभिनंदैश्चलद्भिश्चक्रयन्त्रकै । नदद्भिः संस्थितैर्योधैः प्रसरद्भिः समन्ततः ॥ १०६४ ॥ अमितळमुखैबर्बाणैर्वायुसंप्रेरितैरपि । आरोहनिर्भटानीकै शूरैनिःश्रेणिकान्वितैः ॥ १०६५ ॥ दन्तिदन्तहढापार्योधोन्मुक्तशरोत्करैः। पतिदुर्गविधानेन दुर्गत्रितयमाहरेत् ॥ १०६६ ॥ कुठारैः शतसाहः छेदयेत् विटपास्तरून् । दहन् दावामिना वाऽपि वनदुर्ग जयेनृपः ॥ १०६७ ॥ पूर्णानि जलभाण्डानि तोयैदेरसमाहतैः। महिषोष्ट्रबलीवर्दैहुधैर्वाऽधिकैरपि ।। १०६८ ॥ आनीय च निजानीकै सन्तर्प्य च चतुर्दिशम् । आवेष्ट्य च खनेत् कूपानगाधांश्च समन्ततः ॥ १०६९ ॥ आरभेत ततो युद्धं यन्त्रपाषाणपावकः । अनळश्चा(लं चा)नुकूलेन वायुना समुदापयेत् ॥ १०७० ॥ अग्नितळमयं वहिं सर्वतो धुलयेदतः।। जलाभावेन सन्तप्ता नाश मेष्यन्ति दुर्गगाः ॥ १०७१ ॥ तोयपानेन सन्तृप्तं कुर्यादात्मबलं नृपः। एवंमकारैरन्यैश्च मरुदुर्ग प्रसाधयेत् ॥ १०७२ ॥ साधयेद् दारुजं दुर्ग चूर्णनाद् गजघट्टनैः । पाषाणपातिभिर्यन्त्रैर्दाहनाद् दहनेन वा ॥१०७३ ॥ नरदुर्ग जयेद् राजा गजाचवळसंयुतः । एवं दण्डः समाख्यातो दुर्गभङ्गसमायः ॥ १०७४ ।। यस्मिन् पुरे वसेच्छत्रुः सपुत्रबलवाहनः । तत् पुरं राजनिलयं सादृप्राकारतोरणम् ॥ २०७५ ॥ १ DE पातकैः । Aho ! Shrutgyanam Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मानसोल्लासः। [विशतिः २ अन्तःपुरे पुरन्ध्रीणां रम्याणि भवनानि च । निकेतनानि पुत्राणाममात्यानां गृहाणि च ॥ १०७६ ॥ सचिवानां निवासाश्च मन्त्रिणां सदनानि च । अन्येषां च मनुष्याणां मन्दिराणि बहूनि च ।। १०७७ ॥ मन्दुरा गजशालाच विविधानापणानपि । भस्मसात् कुरुते यत् तु स दण्डः स्थानदाहकः ॥ २०७८ ॥ देशत्यागपरिभ्रष्टः कृतभोगपरिच्युतः । गिरिकन्दरकान्तारनिकुञ्जभवनाश्रयः ।। १०७९ ॥ वियुक्तो दारपुत्रैश्च बन्धुभिः सचिवैस्तथा । धुत्पिपासापरीतश्च चिन्ताशोकसमन्वितः ॥ १०८० ॥ यानासनविहीनश्च गजवाजिविवर्जितः । पत्रोरेवंविधो दण्डो देशनिर्वासकः स्मृतः ॥ १०८१ ॥ ज्ञात्वा स्वरवलं राजा बलं भूमेस्तथैव च । कुर्वीत सर्वकार्याणि सामं तु विशेषतः ॥ १०८२ ।। अतः स्वरबलं वक्ष्ये दशधा प्रविभाजितम् । मात्रा वर्णों ग्रहो जीवो राशिरेवं च पञ्चधा ॥ १०८३ ।। बाल कुमारस्तरुणो वृद्धश्चास्तगतः स्वरः । द्वितीयः पञ्चभेदोऽयमित्थं दशविधः स्मृतः ॥ १०८४ ॥ अकारः प्रथमस्तस्मिनिकारस्तदनन्तरम् । उकारश्चैवमेकार ओकारो मातृका पुरा ॥ १०८५ ॥ ककारादिहकारान्तान् वर्णान् डणवर्जितान् । पचत्रिंशत्सु कोष्ठेषु पञ्च पञ्च क्रमान्न्यसेत् ॥ १०८६ ॥ १ ABCE कृतो भो । २ B दाप्त । Aho ! Shrutgyanam Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २.] मानसोल्लासः। १२७ रेखाः पडूलका कार्यास्तिर्यगष्टौ च राजयः । पञ्चत्रिंशद् भवन्त्येवं कोष्ठास्तत्सभिवेशतः ॥ १०८७॥ तत्रादिपञ्चकोष्ठेषु पञ्चमात्रास्वरान् क्रमात् । लिखेद् वर्णानधस्तेषां कादीन् अणवर्जितान् ॥ १०८८ ॥ अकारपको ये वर्णा अधोऽधः संव्यवस्थिताः । अकारसमधर्माणः सर्वे वर्णाः स्वराश्च ते ॥ १०८९ ॥ इकारादिस्वरेष्वेवमधस्ताद् ये व्यवस्थिताः । तत्तद्धर्माण एव स्युस्ते वर्णाः स्वरसंहिताः ॥ १०९० ॥ नामादौ यो भवेद् वर्णः स स्वरः परिकीर्तितः । संयोगे प्रथमो ग्राह्यः स्वराणां नियमो न हि ॥ १०९१ ॥ मात्रास्वराः समाख्यातास्तथा वर्णस्वरा मया । ग्रहस्वरा निरूप्यन्ते साम्प्रतं राशिभेदतः ।। १०९२ ॥ मेषवृश्चिकसिंहानामकारः स्याद् ग्रहस्वरः । एवं ग्रहस्वराः प्रोक्ताः कथ्यन्ते जीवसंहिताः ॥ १०९३ ॥ यत्र नामनि यावन्तो वर्णाः स्वरसमन्विताः । तांश्च वर्गक्रमेणैव गणयेच स्वरांस्तथा ॥ १०९४ ॥ गणयित्वा कृतं राशि विभनेत् पञ्चभिः पुनः । अवशिष्टस्तु यो राशि वस्वर इतीरितः ॥ १०९५ ॥ ग्रहस्वरः समाख्यातः प्रोक्तो जीवस्वरस्तथा । राशिस्वरमतो वक्ष्ये स्वरशास्त्रानुसारतः ॥ १०९६ ॥ पोक्तो राशिस्वरोकारो रेवत्यादिषु सप्तम् । एवं परेष्विकारायाः स्वराः पश्चसु पञ्चसु ॥ १०९७ ॥ राशिस्वराः समाख्याता वक्ष्यन्ते उदितादयः । उदेत्यकारो नन्दायां भद्रायामिः स्वरः सदा ॥ १०९८ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः २ जयासूकारस्सर्वासु भवेदुदयवान् सदा । उदेति रिक्तास्थेकार ओकारः पूर्णके तिथौ ॥ १०९९ ॥ उदितः प्रथमेऽहि स्याद् द्वितीयेति कुमारकः । तृतीये तरुणः ख्यातश्चतुर्थे स्थविरो भवेत् ॥ ११०० ॥ पञ्चमेऽहनि पञ्चत्वं स्वरो याति विनिचितम् । अकारादिषु सर्वेषु क्रमोऽयं परिकीर्तितः ॥ ११०१ ॥ अकारादिस्वराः पञ्च प्रकृतित्वेन रूपिताः । वर्णादिस्वरभेदोऽपि ककारादिषु सङ्गतः ॥ ११०२ ॥ यस्य कस्यापि नामादौ योऽसौ वर्णः प्रदृश्यते । अवस्थां तस्य वर्णस्य विचार्य फळमादिशेत् ॥ ११०३ ॥ मेषादिराशियोगेषु सम्मोक्ता ये ग्रहस्वराः । वेषां बलं विजानीयात् मात्वा कर्म समाचरेत् ॥ ११०४ ॥ सिंहस्यापिपतिः सर्यः कर्कटस्य निशापतिः । मेषवृश्चिकयोभौंमः कन्या-मिथुनयोर्युषः ॥ ११०५ ।। चाप-मीने सुराचार्यस्तुलायां वृषभे कविः । कुम्भे च मकरे सौरिः प्रभुरूपेण कीर्तिताः ॥ ११०६ ॥ ऋतु-काल-दिशा-रुद्रैः सूर्यः शुभकरो भवेत् । जन्मसन्ध्यर्नुसूर्याच दिगीशानैः शुभः शशी ।। ११०७ ॥ हरनेत्र-कुमारास्य-रुद्वैभौमः शुभावहः । पक्षान्धि-रस- दिनाग-पङ्कि-रुदैर्बुधः शुभः ॥ ११०८ ॥ नराधि-बाण-मुनिभिग्रह-रुदैर्गुरुः शुभः। एकद्वित्रिचतुःपञ्च वसु-रत्नेश-भास्करैः ॥ ११०९ ।। सुराणां च गुरु शुक्रा स्थानैरेभिः शुभावहः । कुशानु-रस-रुद्रैश्च शुपकारी शनैश्वरः ॥ १११० ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २० ] मानसोल्लासः । स्वस्य ग्रहबलं प्राप्य परेषां ग्रहदूषणम् । कुर्वीत तुमुलं युद्धं शत्रुसंहारकारकम् ॥ ११११ ॥ 17 जीवस्वरगतान् वर्णान गणयित्वा विचक्षणः । यत्र नास्ति निजाधिक्यं तत्र कुर्वीत सङ्गरम् ॥ १११२ ॥ रेवत्यादिषु धिष्ण्येषु सङ्गता यत्र ये ग्रहाः । राशिस्वरे विचार्यास्ते शुभाद् युद्धमाचरेत् ।। १११३ ॥ एकः स्वरश्रेदुभयोः प्रीतिं प्रकुरुते पराम् । द्वितीयः कुरुते मानं तृतीयः कार्यपोषकः ।। १११४ ॥ उपेक्षकचतुर्थश्च पञ्चमो जयनाशनः । स्वरमैत्रीं विदित्वैवं नृपः कुर्वीत सङ्गरम् ॥ १११५ ॥ मात्रास्वरो यदोदेति तदा कुर्वीत शोभनम् । गर्भाधानादिकं कर्म निधिधान्यादिसङ्ग्रहम् ॥ १११६ ॥ वापनं सर्वसस्यानां पुरवेश्मप्रवेशनम् । रसायनप्रयोगं च व्याधीनां च चिकित्सितम् ॥ १११७ ॥ मात्रास्वरे कुमारे तु विवाहः प्रीतिकृद् भवेत् । भृत्यानां सङ्ग्रहः शस्तः स्वामिसंश्रयणं तथा ॥ १११८ ॥ उत्कोचन मरातीनां ग्रामगेहप्रवेशनम् । वैरिनिर्मूलनोद्युक्तो यात्रां कुर्वीत भूपतिः ॥ १११९ ॥ यूनि मात्रास्वरे जाते पट्टबन्धाभिषेचनम् । गजाद्यारोहणं शस्तं वरनारीसमागमः ।। ११२० ॥ १२९ द्यूतमाहवकर्माणि यात्रा लेखविसर्जनम् । कुर्वीत कदनं राजा रिपूणां प्राणखण्डनम् ॥ ११२१ ॥ १ D ऋक्षेषु २ D तु सततं Aho! Shrutgyanam Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानतोहातः। [विशतिः २ यदा मात्रास्वरो वृद्धस्तदा सन्धिर्विधीयते । शान्तिकं पौष्टिकं कर्म मोक्षदीक्षा समाचरेत् ॥ ११२२ ॥ मृते मात्रास्वरे जाते कुर्यादनशनं व्रतम् । आरभ्य पूर्व दिग्भागाद् रेखामावर्तयेत् सुधीः ॥ ११२३ ॥ पूर्वानयेत वायव्यं वायव्याद् याम्यमानयेत् । याम्यादीशानदिग्भागमैशानात् पश्चिमं नयेत् ॥ ११२४ ॥ पश्चिमात् कोणमाग्नेयमाग्नेयादुत्तरं नयेत् । उत्तरार्ऋतं कोणं नैर्ऋतादैन्द्रमानयेत् ॥ ११२५ ॥ एवमष्टाश्रितं चक्रं जायते सनिवेशतः। तत्र चैत्रादिमासानां विन्यासो दिक्षु वक्ष्यते ॥ ११२६ ॥ चैत्रमासोऽर्दवैशाखः पूर्वभागे भवेत् सदा । अर्द वैशाखमासस्य ज्येष्ठं वायव्यतः क्षिपेत् ।। ११२७ ॥ आपाढं श्रावणस्याः याम्यभागे प्रकल्पयेत् । श्रावणस्यार्धमैशान्यां नमस्यं च विनिक्षिपेत् ॥ ११२८ ॥ आधिनं कार्तिकस्यार्द्ध वारुण्यां दिशि विन्यसेत् । अर्द्धकार्तिक-मार्गों च हुताशनदिशि क्षिपेत् ॥ ११२९ ॥ पौषमध च माघस्य कौवे ककुभि क्षिपेत् । माघस्यादै फाल्गुनं च नैर्ऋत्यां दिशि कल्पयेत् ॥ ११३० यस्यां दिशि स्थितो मासः साईस्तत्रोदयो भवेत् । तावत्कालं भुवः सोऽपि यावन्नाडीयतुष्टयम् ॥ ११११॥ यामा? तु बलं भूमेः क्रमाद् दिक्षु व्यवस्थितम् । रेखाविन्यासमार्गेण क्रमाद् भ्राम्यति मेदिनी ॥ १११२ ॥ उदयादस्तपर्यन्तमस्तादप्युदयावधि । चतुर्यामेषु मेदिन्यां दिक्षु भ्रमणमष्टसु ॥ ११३३ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः १०] मानसोल्लासः। भूषलं पृष्ठतः कार्य दक्षिणे वा जिगीपुणा । एवमन्यानि कार्याणि सिद्धिं यान्ति विनिश्चयम् ॥ ११३४ ॥ अस्यैव चक्रराजस्य कोणानाश्रित्य विन्यसेत् । अष्टौ वर्गानकारादीन् प्रादक्षिण्येन पूर्वतः ॥ ११३५ ॥ अवर्गे गरुडः प्रोक्तः कवर्गे वृपदंशकः । चवर्गे मृगराजः स्यात् टवर्गे सरमासुतः ॥ ११३६ ॥ तवर्गे पन्नगः प्रोक्तः पवर्गे मूषकस्तथा । यवर्गे तु मृगः मोक्तः शवर्गे मेष इप्यते ॥ ११३७ ॥ पूर्वाभैर्ऋतपर्यन्तं भक्षकाः समवस्थिताः । पश्चिमाद् रौद्रदिग्भागं यावद् भक्ष्या व्यवस्थिताः ॥ ११३८ । भक्षकात् पश्चमे स्थाने स्थितो भजति भक्ष्यताम् । तस्माद् विचार्य यनेन शत्रु पश्चमतां नयेत् ॥ ११३९ ॥ एवं नामबलं चक्रे विचार्य पृथिवीपतिः । द्यूतं समाह्वयं युद्धं नारभेत जयोत्सुकः ॥ ११४० ॥ ब्रह्माणी पूर्वदिग्भागे प्रतिपन्नवमे तिथौ । द्वितीयायां दशम्यां च माहेशी सौम्यदिगगता ॥ ११४१ ॥ एकादश्यां तृतीयायां कौबेरी वविदिविस्थता। द्वादश्यां च चतुर्थ्यां च वैष्णवी नैर्ऋते स्थिता ॥ ११४२ ॥ पञ्चम्यां च त्रयोदश्यां वाराह्या दक्षिणे स्थितिः । चतुर्दश्यां तथा षष्ठयामिन्द्राणी पश्चिमोदया ॥ ११४३ ॥ सप्तम्यां पौर्णमास्यां च वायव्ये चण्डिकास्थितिः । अमावास्याऽष्टमीतिथ्योर्महालक्ष्मीस्तयेशगा ॥ ११४४॥ Aho ! Shrutgyanam Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशतिः २ दक्षिणे पृष्ठतः कार्या योगिन्यो विजिगीषुणा। योगिनीनां बलं त्वेवं कथितं सोमभूभुजा ॥ ११४५ ॥ इति योगिनीचक्रम् ॥ युद्धपूर्वदिने राजा कृतोत्साहः सभागतः। कुमारमण्डलाधीशान् सामन्तान् मान्यकानपि ॥ ११४६ ॥ मुवर्णवस्त्राभरणैस्तोषयेव सैन्यकांस्तथा । वाग्भिः प्रोत्साहयेत् तांश्च गुणकीर्तनमाननैः ॥ ११४७ ॥ तेषां प्रतिज्ञा संश्रित्य सुभटानां नृपोत्तमः । मातङ्गान् मदसंयुक्तान् वाजिनश्च जवोत्तमान् ॥ ११४८ ॥ दद्याद् यथार्ह सर्वेषां सङ्घामजयकाङ्गया। ततो विसर्जयेत् सर्वान् युद्धाय कृतनिश्चयः ॥ ११४९ ॥ तस्या राज्यामलातैश्च पूरयेद् गगनाङ्गणम् । महातूर्यमघोषैश्च काहलाशङ्खनिस्वनैः ॥ ११५० ॥ सिंहनादैर्भटानां तु त्रासयेद् रिपुसैनिकान् । अधिवास्य ततो राजा शस्त्राणि कुलदेवताः ॥ ११५१ ॥ ततः शयीत मेदिन्यां कुशानास्तीर्य यत्नतः । ततः मातः समुत्थाय निरीक्ष्य घृत-दर्पणौ ॥ ११५२ ॥ स्नात्वा तीर्थजलैः पुण्यश्चित्राम्बरविभूषितः । समाराध्य जगन्नाथमिष्टमिष्टफलप्रदम् ॥ ११५३ ॥ . ततः कृत्वा महापूजां विविधां कुलदैवते । धेनुं भूमि हिरण्यं च विप्रेभ्यो विधिनाऽर्पयेत् ॥ ११५४ ॥ तदाशिषः समादाय नीराजित हयद्विपः । दक्षिणानखुरोल्लेखात् हयानां हेषितादपि ॥ ११५५ ।। १ D चैवं २ DE रात्राव Aho ! Shrutgyanam Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ अध्यायः १.] मानसोल्लासः। वामेतरविषाणाप्रवेष्टनात् स्वकरेण च । बृंहितेन गनानां च जानीयाज्जयमअसा ॥ ११५६ ॥ नराणां शुभवाक्यैश्च मङ्गलद्रव्यदर्शनैः । प्रदक्षिणागमैश्वापि भरद्वाजशिखण्डिनाम् ॥ ११५७ ।। अन्यैश्च शकुनैभव्यैर्जयमङ्गलसूचकैः । दक्षिणाक्ष्णः परिस्पन्दाद् दक्षिणस्य भुजस्य च ॥ ११५८ ॥ मनसश्च प्रसादेन स्वानुकूलानिलेन च । एवं निमित्तैनिश्चित्य जयं समरदुर्जयः ॥ ११५९ ॥ शुभस्थानस्थितैः सर्वैग्रहस्ताराभिरेव च । उदितेन स्वरेणाथ जयभूमिबळेन च ॥ ११६० ॥ निमित्तैविहितोत्साहो निर्गत्य निजमन्दिरात । ताडयित्वा महाभेरी प्रतिसैनिकभीषणीम् ॥ ११६१॥ धनुषां वे शते गत्वा तत्र स्थित्वा नृपोत्तमः । मेलयित्वा बलं सर्वमेवमाघोपयेत् ततः ॥ ११६२ ॥ तस्मै दास्यामि नियुतं राजानं हन्ति यो रणे । तत्कुमारनिहन्तृणां दास्यामि प्रयुतत्रयम् ॥ ११६३ ॥ सामन्तमण्डलाधीशहन्तणां प्रयुत तथा । सचिवामात्यहन्तृणामयुतं पारितोषिकम् ॥ ११६४ ॥ प्रधानयोधहन्तृणां दास्ये पञ्चसहस्रकम् । द्विसहस्र प्रसादेन प्रदास्ये गजघातिनाम् ।। ११६५॥ सहस्रं प्रतिदास्यामि स्यन्दनस्य विघातिनाम् । अश्वसादिनिहन्तृणां प्रदास्ये शतपश्चकम् ॥ ११६६ ॥ १ BCE सर्वैर्भयौं। Aho ! Shrutgyanam Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विशति:२ शतं तस्मै प्रदास्यामि समानयति यः शिरः। एवं प्रलोभ्य तान् सर्वान् प्रयायाद् युद्धसम्मुखम् ॥ ११६७॥ मुभटान् बलसंयुक्तान् हयविद्याविशारदान् । वरवाजिसमारूढान् भूपरीक्षाविचक्षणान् ॥ ११६८॥ द्विशतं वा शतं वाऽपि तदर्ध हयसादिनः । पुनः प्रस्थापयेद् राजा युद्धभूमिपरीक्षणे ॥ ११६९ ॥ गत्वा समागतानां तु विज्ञप्त्या च भुवो गुणान् । परेषा व्यूहरचना परिज्ञाय क्षितीश्वरः ॥ ११७०॥ संस्थूलस्थूलवल्मीकक्षगुल्मोपकण्टके । भूभागे रचयेद् राजा व्यूहं व्यूहविचक्षणः ॥ ११७१ ॥ अल्पवृक्षोपलाच्छिद्राऽलचनीयदरीस्थिता । निःशर्करा विपङ्का भूरश्वव्यूहाय शस्यते ॥ ११७२ ॥ निःस्थाणुसिकतापका निर्वल्मीकोपला समा। केदारव्रततिश्वभ्रवृक्षगुल्मविवर्जिता ॥ ११७३ ।। अतीवकठिना भूश्च शुरचङ्गमणक्षमा । स्थिरा चक्रसमा धात्री स्थव्यूहे प्रशस्यते ॥ ११७४ ॥ मुगम्यशैला विषमा मृदुवृक्षावभेदिनी । मुपदरभङ्गा भूर्गजन्यूहे वरा मता ॥ ११७५ ॥ सर्वदोषोज्झिता भूमिः कुत्रचिद् वारिसंयुता । विशाला गुणभूयिष्ठा चतुरङ्गालोचिता ॥ ११७६ ॥ एवं परीक्ष्य भूभागं यस्मिन् यत्र यथोचितम् । तत्र संरचयेद् न्यूहान् नृपो युद्धविशारदः ॥ ११७७॥ १ E प्रतिव्यूई वि॰ । २ ABC निरुद्याना निर्देरणा । Aho ! Shrutgyanam Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २०] मानसोलालः। सर्वलक्षणसम्पूर्णे भूभागे रिपुमर्दनः । रचयेदुत्तमं व्यूहं परव्यूहविभेदकम् ॥ ११७८ ॥ मुखं पूर्व विभागः स्यादुरश्च तदनन्तरम् । उरसः पश्चिमे भागे पौरस्यं परिकीर्तितम् ॥ ११७९ ॥ पौरस्यस्य तथा पृष्ठे प्रतिग्रह इतीरितः । कक्षौ प्रकक्षौ पक्षौ च प्रपक्षौ पार्थयोः क्रमात् ॥ ११८० ॥ प्रतिग्रहपरो भागः पृष्ठमित्यभिधीयते । एवं व्यूहविभागांश्च विज्ञाय नृपतिस्ततः ॥ ११८१ ॥ मुखे मदमुखं नागं शूरारूढं सुशिक्षितम् । तनुत्राणसमोपेतं योधद्वयसमन्वितम् ॥ ११८२ ॥ पश्चिमासनरूढेन सुभटेन समन्वितम् । त्रिश्चतैः षट्शतैर्वापि नवभिर्वा तथा शतैः ॥ ११८३॥ विधा विभक्तैः मुभटैः स्थानत्रयमुसंस्थितैः । पृष्ठे च कक्षमागे च रक्षितं खड्गपाणिभिः ॥ ११८४ ॥ प्रकादेशनिक्षिप्तैश्चण्डकोदण्डमण्डितैः । सुभटैः शतसङ्ग्यातैः सुलझेढयोतिभिः ॥ ११८५ ॥ पक्षदेशे तथा शूरैः शक्तिखेटकथारिभिः । सहस्रद्वयसङ्ख्यातैस्तदडैर्वा शतैर्वृतम् ॥ ११८६ ॥ प्रपले जवसंयुक्तैर्गात्रत्राणसुरक्षितैः । अवैः सर्वायुधोपेतैर्वाहकैश्च समन्वितैः ॥ ११८७ ॥ शतपञ्चकसख्यातः प्रपक्षद्वयकल्पितः । तुरगैः पत्तिभिः शूरैरावृतं पुरतो न्यसेत् ॥ ११८८ ॥ १D यायिभिः । Aho! Shrutgyanam Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ मानसोल्लासः । वारणं सर्वसैन्यानां वारणं वैरिवारणम् । एवंविधबलोपेतं व्यूहस्याग्रे नियोजयेत् ॥। १९८९ ॥ त्रिमुखं द्विमुखं तद्वदेकवक्त्रमथापि वा । परव्यूहस्य भेदार्थ कुर्याद् व्यूहमुखं नृपः ॥ ११९० ॥ उरःस्थाने महीपालः श्रेणमाटविकं बलम् । अमित्रं च तथा फल्गु युद्धभूमौ प्रकल्पयेत् ॥ ११९९ ॥ भौरस्ये युद्धभाण्डानि शस्त्राणि विविधानि च । वारि भूरि नये दुष्ट्रैस्तृषार्तानां सुप्ये ॥ ११९२ ॥ प्रतिग्रहप्रदेशे तु स्वयं तिष्ठेन्महीपतिः । भद्रलक्षण सम्पूर्णमैरावणकुलोद्भवम् ।। ११९३ ॥ [ विंशतिः २ विष्ण्वंशक शुभानकं कालिङ्गनसम्भवम् । भूभृच्छिखरसञ्चारं शिक्षितं तु वधावधि ।। ११९४ ॥ मदावस्थां चतुर्थी च सम्प्राप्तं गिरिसन्निभम् । शुरं महाबलं दान्तं धीरमन्वर्थवेदिनम् ।। ११९५ ।। सुवर्णघटितोदारपक्षरक्षासमन्वितम् । तनुत्राणसमोपेतं दृढदेञ्चाकधारिणम् ॥ ११९६ ॥ मयूरपिच्छगुच्छाङ्कध्वजदण्डविपण्डितम् । नानावर्णविचित्राङ्गं पताकापरिशोभितम् ॥ ११९७ ॥ देवकान्तः स्थितैयधैर्मध्ये कुन्तरोद्धतम् । पाश्चात्यसादिना युक्तं शक्तितोमरपाणिना । ११९८ ॥ ० १ अत्यन्त २A आदर्श पुस्तकेऽयमधिकः पाठः- मौलिमित्रबले सम्यक् पुत्रान् प्रतिग्रहे न्यसेत् । ३ ABC च कुर्वीत । ४ B वक्त्रत्राणं । Aho! Shrutgyanam Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अध्यायः २० ] मानसोल्लासः। अन्तरारूढशूरेण खेटकद्वयधारिणा । ईदृग्गुणयुतं नागमारोहेद् विनयोगः ॥ ११९९ ॥ विज्ञातनामभिमौलैः कृत्तिकामपाणिभिः । अङ्गरक्षान्वितैः शूरैर्टनः सन्नारक्षकैः ॥ १२०० ॥ कक्षस्थैर्दशसाहस्तदर्धेळ सुरक्षितः । प्रकक्षे सचिवामात्य-कुमारे च घटान्वितः ॥ १२०१ ॥ मित्र-भृत्यबलैः पक्षे पापसायकधारिभिः। शक्ति-तोमर-निस्त्रिंश-कुन्त-मुद्रपाणिभिः ॥ १२०२॥ वरंवारणसम्बद्धैः मुभटैर्लक्षसम्मितैः । क्रमशः स्थापिर्योधैर्यथोदीरितनामभिः ॥ १२०३ ॥ नानायुधधरैवीरैरश्वारूढः सुशिक्षितैः । प्रकक्षेऽयुतयुग्मेन संवृतश्च महीपतिः ॥ १२०४ ॥ पृष्ठे भूमौ वशाल्डपुष्पकान्तरसंस्थितैः । अवरोधवधवृन्दै रक्षिभिः परिरक्षितैः ।। १२०५ ॥ घेनुकाव्याशिताशेन कोशेनाधिष्ठितस्तथा । तेषां तु पृष्ठरक्षार्थ नरवाजिबलं न्यसेत् ॥ १२०६ ॥ ईशी न्यूहरचनां विधाय परवीरहा । बजेदन्धिरिव क्षुब्धो निगिरन् परवाहिनीम् ॥ १२०७ ॥ इति सैन्यरचनालक्षणम् ॥ शूराणां सिंहनादैश्च खुरारावैश्च बाजिनाम् । महामात्रकरास्फालमातङ्गगलगर्जितैः ॥ १२०८ ।। भेरीमहारघोषैश्च काहलाशशनिस्वनैः । युद्धाशंसिमहातूर्यनिनादैः स्फोटयन् दिशः ॥ १२०९ ॥ १ D वर्म। २ ABC सन्नद्धसु, D वारवाणेन स। Aho ! Shrutgyanam Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मानसोल्लासः। [विंशतिः२ यतः फल्गु यतो भिन्नं यतो दृष्यैरधिष्ठितम् । तद् बलं प्रथमं हन्यादात्मनश्चोपबृंहयन् ॥ १२१० ॥ सारं द्विगुणसारेण फल्गु सारेण पीडयेत् । संहतं तु गजानीकैः प्रचण्डैरवदारयेत् ॥ १२११ ॥ प्रचण्डै/रमुख्यैश्च फल्गुसैन्यं विदारयेत् । अश्वव्यूह भेंटानीकं वाजिव्यूहं तु दन्तिभिः ॥ १२१२ ॥ घाणसारैस्तथा कुन्तैः पाश-पट्टिश-तोमरैः । अग्नितैलाचितैर्बाणैर्निभिन्याद् द्विपयूथपान ॥ १२१३ ॥ पभूतकुअरानीकघंटासङ्घघट्टनैः । पाटनैः करटिखातं द्विषतां रणमूर्द्धनि ॥ १२१४ ॥ विमृश्य राजचिह्नानि निश्चित्य नृपतेः पदम् । सर्वसैन्येन संयुक्तस्तत्र यायाल्जयोत्सुकः ॥ १२१५ ॥ नाराचैर्जर्जरीकृत्य कुन्तैर्निर्भिद्य निर्भरम् । चक्रापीत द्विधाकृत्य पाशैराकृष्य पातयेत् ॥ १२१६ ॥ सञ्चयॆ मुद्राघातैछित्त्वा परशुना भटान् । स्वारूढकुअरेणाथ संयोज्य परवारणम् ।। १२१७ ॥ तद्नं स्वगजोद्दामदन्ताघातैर्निपात्य च । निस्त्रिंशेन रिपोश्छिन्द्यात् कुण्डलालङ्कृतं शिरः ॥ १२१८ एवं निहत्य सङ्ग्रामे दुष्टशत्रु मदोद्धतम् । जयतूर्यनिनादेन हर्षयन सुभटान् स्वकान् ॥ १२१९ ॥ कुमारामात्यसचिवान् सामन्तान् मण्डलेश्वरान् । विनिहत्यागतानां च दानं दद्याद् यथोदितम् ।। १२२० ॥ १ D °घंटा । २ ADE योन्मुखः । ३ BC को ।। ४ D यंश्च स्वसैनिकान् । Aho ! Shrutgyanam Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २० ] मानसोल्लासः। १३९ द्विषतां रक्तपूरेण तर्पयित्वा तु मेदिनीम् । पिशितेन पिशाचांश्च न्यादानन्त्रमालया ॥ १२२१॥ पलायनपरान् भीतान् रक्षयित्वा तु धर्मतः । आरोहमुक्तान् स्वीकृत्य त्वरया वरवारणान् ॥ १२२२ ॥ धेनुकाश्चोष्ट्रसङ्घांश्च निःशेष कोशमेव च । परिगृह्य तथा सर्व प्रयत्नाद् वीक्ष्य सर्वतः ॥ १२२३ ॥ एवं तु बध्यते यत्र युद्धे शत्रुर्महाबलः। नृपेण बलिना स स्याद् दण्डो युद्धवधाभिधः ॥ १२२४ ॥ बलशक्तिविहीनेन नृपेण रिघुघातिना। प्रयोज्या स्युस्त्रयो दण्डा विषघाताभिचारजाः ॥ १२२५ ॥ विषं हालाहलं शृषि कालकूटं भयावहम् । वत्सनामं चतुर्थे तु स्थावरं परिकीर्तितम् ॥ १२२६ ॥ सर्पदंष्ट्रादिसनातं विषं तज्जङ्गमं विदुः । विरुद्धद्रव्यपिलितं कृत्रिमं विषमुच्यते ॥ १२२७ ॥ शात्रवाणां विरक्ता ये कृत्यास्ते पुरुषा वराः। तान् विभेद्य प्रदानेन रसं तैस्तु प्रयोजयेत । तडाग-कूप-वापीषु तथा लघुसरस्सु च ॥ १२२८ ॥ स्नानोदके तथा तैले पादाभ्यङ्गे सपादुके । क्रीडापुष्करिणीमध्ये प्रयुञ्जीत विषं द्विषाम् ॥ १२२२ ॥ कुमार-सचिवामात्य-मन्त्रि-सेनाधिपेषु च । महावारणमुख्येषु तुरगेषूत्तमेषु च ॥ १२३० ॥ एवं विषप्रयोगेण शत्रूणां क्षुद्रघातकम् । क्षीणेन क्रियते यत् तु विषदण्डः स उच्यते ॥ १२३१ ।। १ BC नागं । २ D विभिद्य । Aho! Shrutgyanam Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० मानसोल्लासः । [विंशतिः २ शुरश्च दृढभक्तश्च त्यक्तप्राणभयश्च यः। वीरश्च समयज्ञब पधोपायविचक्षणः ॥ १२३२ ॥ बन्धुपुत्रप्रदत्ताधिगृहीतबहुवेतनः । तेन घातं प्रयुद्धीत प्रमत्तारिवधेच्छया ॥ १२३३ ॥ गीतवायप्रसक्तेषु द्यूतक्रीडारतेषु च । मृगव्यासक्तचिसेषु देवयात्रासङ्गिषु ॥ १२३४ ॥ अडूमल्लविनोदेषु तथाऽन्येषूत्सवादिषु । अन्तःपुरपपारेषु देवपूजापरेषु च ॥ १२३५ ॥ वीरफ्रोडांविषण्णेषु भोजमास्थानवर्तिषु । न्यग्रेष्यन्येषु कार्येषु कुर्याद् वैरिषु पातनम् ॥ १२३६ ॥ पूर्वोदिसमुणैस्तीक्ष्णैः सुभदैयन्त्रपातनम् । मायया क्रियते शत्रो_तदण्डः सं कीर्तितः ॥ १२३७ ॥ अथर्यविधितत्त्वामणैर्विजितेन्द्रियैः । मन्त्र-तन्त्रविधानज्ञैर्दूरादुन्मूलयेद् रिपुम् ॥ १२३८ ॥ अभिचारिकहोमैस्तु मन्त्रैः षट्कर्मसाधकः । यन्त्रलेखनकैरुप्रैरुपांशुजपनादिभिः ॥ १२३९ ॥ मन्त्र-तन्त्रमुसिदैश्च पटहैः काहलादिभिः । पताकाकारकैर्दीप पैयूरकूर्चकैः ।। १२४० ॥ बाणैर्मन्त्रप्रयुक्तैश्च सिद्धार्थकयुतानतैः । मोहयेत् स्तम्भयेच्छन् स्थानादुच्चाटयेत् तथा ॥ १२४१ ।। विद्वेषयेच मित्राणि वशे कुर्याच्च विद्विषः । संहरेज्जीवितं यत् तु स्यात् स दण्डोऽभिचारकः ॥ १२४२ इति दण्डभेदाः ॥ १ D प्रकी । २ D रत्नकै । Aho ! Shrutgyanam Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ अध्यायः २० ] मानसोल्लासः। व्यवहारान् नृपः पश्येद् विद्विद्वरैः सह । स्मृतिशास्त्रानुरोधेन रागद्वेषविवर्जितः ॥ १२४३ ॥ अदोषान् दूषयेद् राजा दोषयुक्तानदण्डयन् । अकीर्ति महतीमेति दुर्गतिं चाधिगच्छति ॥ १२४४ ।। ऋत्विक् पुरोहितः पुत्रो भ्राता बन्धुस्तथा सुहृत् । अदण्डयो नृपतेनास्ति स्वधर्माच्चलितो नरः ॥ १२४५ ॥ वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञाः सत्यसन्धाश्च धार्मिकाः । सभ्या नृपतिना कार्या मित्रामित्रेषु वै समाः ॥ १२४६ ॥ धीरैरलोलुपैरोंलैलोकव्यापारकोविदः । विप्रैः सह महीपालो गुण-दोषौ विचारयेत् ॥ १२४७ ॥ . विचारे यत्र तिष्ठन्ति विप्राः श्रुतिविदस्त्रयः । पञ्च वा सप्त वा सा स्याच्छतक्रतुसमा सभा ॥ १२४८ ॥ तस्यां सभायां यः कश्चिद् धर्मज्ञः श्रुतिकोविदः । निर्दिष्टो वाप्यनिर्दिष्टः स तत्वं वक्तुमर्हति ॥ १२४९ ।। न्याय्यं पन्थानमुत्सृज्य ये गतस्यानुयायिनः । सभ्यास्ते बोधनीयाः स्युर्मार्ग धर्मस्य शाश्वतम् ।। १२५० ॥ अनिर्दिष्टश्च तत् सर्व सत्यं ब्रूयात् समअसम् । ज्ञात्वा वा न वदेत् तत्वं मिथ्यावादी च पापभाक् ॥ १२५१ ॥ कुलीनाः शीलवन्तश्च धनिनो वयसाऽधिकाः । अमत्सरा विशः कार्याः कियन्तोऽपि सभासदः ॥ १२५२ ॥ अलोभं सत्यसन्धं च धर्मशीलं प्रियंवदम् । धर्मशास्त्रार्थ कुशलं लोकयात्राविचक्षणम् ।। १२५३ ॥ विचारे पण्डितं दक्षं पाडिवाकतया युतम् । इङ्गिताकारतत्त्वज्ञमूहापोहविशारदम् ॥ १२५४ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ मानसोल्लासः । ब्राह्मणं श्रुतसम्पन्नं धर्मशास्त्रविशारदम् । आत्मनः प्रतिरूपं तु कुर्यादेकं महीपतिः ।। १२५५ ।। [विंशतिः २ प्रागेव पृच्छति प्रायो वाक्यं वादार्थमागतौ । विचारयति यः सम्यक् पाड़िवाकस्ततः स्मृतः ।। १२५६ ॥ व्पग्रस्य राजकार्येण देहजाड्येन वा स्वयम् । अपश्यतः प्रभोः कार्ये प्राड़िवाको विचारयेत् ।। १२१७ ॥ विमालाभे तु कर्तव्यः कुलीनो दमसंयुतः । परत्र भीरुर्धर्मज्ञः शूरः शान्तो विमत्सरः || १२५८ ॥ अनुद्वेगकरो नित्यं प्रजानां च हिते रतः । दोद्युक्तः समर्थश्च क्षत्रियोऽपि सभापतिः || १२५९ ॥ दौर्लभ्यात् क्षत्रियस्यापि वैश्यं कुर्यात् सभापतिम् । गुणाधिकं च मध्यस्थं जनानां सम्मतं नृपः ॥ १२६० ॥ विप्र क्षत्र- विशः कार्याः श्रेष्ठमध्याधमाः क्रमात् । सर्वथाऽपि न कर्त्तव्यः शूद्रेः क्वापि विचारणे ।। १२६१ ॥ लोभाद्वाऽपि भयो रागात् स्मृतिशास्त्रार्थनाशकाः । दण्डनीयाः पृथक् सभ्या विवादाद् द्विगुणं धनम् ॥ १२६२ ॥ सतां मार्गे समुल्लङ्घ्य बाधितो यो बलीयसा । निवेदयेत यद् राज्ञे तद् विवादपदं स्मृतम् ।। १२६३ ॥ अभियोगो द्विधा ज्ञेयः शङ्कया प्रत्ययेन वा । असत्संसर्गतः शङ्का प्रत्ययोऽन्याङ्गदर्शनात् ।। १२६४ ॥ प्रथमं स्याद् ऋणादानं निक्षेपस्तदनन्तरम् । अस्वामिविक्रयचैव तृतीयं परिकीर्तितम् ।। १२६५ ॥ १ B मदोज्झितः । २ BCE शूद्रश्चापि D शूद्रश्चापि न कर्तव्यो व्यवहारवि । ३D तथा । Aho! Shrutgyanam Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २०] मानसोल्लासः। १४३ सम्भूय च समुत्थानं चतुर्थं परिभाषितम् । पञ्चमं दत्तमाख्यातं षष्ठं दत्तापहारकम् ॥ १२६६ ॥ सप्तमं वेतनादानं संविल्लङ्घनमष्टमम् । क्रयविक्रयानुशयौ नवमं दशमं तथा ॥ १२६७ ।। एकादशं तथा प्रोक्तं विवादः स्वामिपालयोः । स्वामिभृत्यविवादश्च द्वादशं समुदाहृतम् ॥ १२६८ ।। त्रयोदशं समाख्यातं सीमाविवदनं बुधैः । निरूपितं बुधैरत्र वाक्पारुष्यं चतुर्दशम् ॥ १२६९ ॥ उक्तं पञ्चदशं तज्ज्ञैर्दण्डपारुष्यसंज्ञितम् । स्तेयं षोडशमाख्यातमृषिभिस्तत्वदर्शिभिः ॥ १२७० ॥ पदं सप्तदशं नाम साहसं सद्भिरीरितम् । अष्टादशं समादिष्टं स्त्रीसङ्ग्रहणसंज्ञकम् ॥ १२७१ ॥ एकोनविंशं सम्प्रोक्तं स्त्रीपुंधर्मो विचारकैः । दायभागाभिधानं च तत् स्याद् विंशतिमं पदम् ॥ १२७२ ।। एकविंशं तथा द्यूतं द्वाविंशं तु समाह्वयम् । व्यवहारपदान्येतान्याह सोमेश्वरो नृपः ॥ १२७३ ।। इति व्यवहारपदानि । स्वयं नोत्पादयेत् कार्य समर्थः पृथिवीपतिः । नाददीत तथोत्कोचं दत्तं कार्यार्थिना नृपः ॥ १२७४ ।। विवादायागतं पृच्छेत सभायां पुरतः स्थितम् । किं कार्य किं च दुःखं ते त्यक्तशङ्को निवेदप ॥ १२७५ ॥ निरूपिते पुनः पृच्छेत् केन कस्मिन् कुतः कथम् । तस्मात् तव कृतं ब्रूहि सत्यमेव सभागतः ॥ १२७६ ॥ १ BCE: पहारिकं । २ D संज्ञितं । Aho ! Shrutgyanam Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः २ सभ्यः सह समालोच्य पदं न्याय्यं यथा भवेत् । . प्रत्यर्थिमस्तथाऽऽह्वानं लेखैर्दतैश्च कारयेत् ॥ १२७७ ॥ आहूतो यदि नागच्छेद् व्याधितो दुखितोऽयवा । निरुद्धो विषमस्यो वा क्रियाव्यग्रो ज्वरनपि ॥ १२७८ ॥ स्वामिकार्यप्रदो वाऽपि नृपकार्यरतोऽथवा । मत्तो वाऽय प्रमत्तो वा तथाप्येष न दुष्यति ॥ १२७९ ॥ कुलीना परभार्यां च युवतिश्च प्रसूतिका । रजस्वला पक्षहीना नाहातव्या सभां प्रति ॥ १२८० ॥ अयिपत्यार्थिवाक्यानि लेखयित्वा विचारयेत् । देशकालानुसारेण हेतुभिश्च पृथग्विधैः ॥ १२८१ ॥ लिखितात साक्षितो भुक्ते प्रमाणत्रितयादतः । विचारयेन्महीपालः स्मृतिशास्त्रानुसारतः ॥ १२८२ ॥ एतैः प्रमाणहीनस्य दिव्यं देयं महीभुजा । तच देयं वयोऽवस्था-देश-कालानुसारतः ॥ १२८३ ॥ प्रमाणं मानुषं यत्र दुर्लभत्वेन वर्तते । तदा दिव्यं प्रदेयं स्यान देयं मानुषे सति ॥ १२८४ ॥ शक्तिानां नरेन्द्रेण कथितानां च तस्करैः।। शुद्धिमन्विच्छतां तस्य दिव्यं देयं विना शिरः ॥ १२८५ ॥ प्रमाणैनिश्चिते वाऽपि दिव्यैर्वाऽपि विचारिते। युक्त्या दण्डं नृपः कुर्याद् यथादोषानुसारतः ।। १२८६ ॥ विषा(?)-दन्ति-भुजग-शस्त्रानल-जलादिभिः । पापानां प्राणहरणं बघदण्डः प्रकीर्तितः ॥ १२८७ ॥ Aho ! Shrutgyanam Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायः २०] मानसोल्लासः। १४५ केशानां कर्णयोरक्ष्णो सिकायास्तथैव च । निहायाः करयोस्तद्वदङ्गलीपजनस्य च ॥ १२८८ ॥ पादयोरेवमादीनामङ्गानां छेदनं च यत् । अपराधानुसारेण क्लेशदण्डः स उच्यते ॥ १२८९ ॥ बन्धनं ताडनं वाचा रूक्षया भर्सनं तथा । एवंविधप्रकारोऽपि क्लेशदण्डः प्रकीर्तितः ॥ १२९० ।। पणानां शते सार्दै प्रथमः साहसः स्मृतः । मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं चैव चोत्तमः ॥ १२९१ ॥ विवादेन समः क्वापि द्विगुणः कापि कथ्यते । त्रिगुणो वा कचित् प्रोक्तः कचिदुक्तश्चतुर्गुणः ॥ १२९२ ॥ सर्वस्वस्याधिका कापि दमः सर्वस्वमेव वा । दोषद्रव्यानुसारेण दण्डोऽर्थहरणः स्मृतः ॥ १२९३ ॥ दण्डो रक्षति मर्यादां दण्डो धर्म प्रवर्तयेत् । निवारयेदधर्माच्च तस्माद् दण्डं प्रयोजयेत् ॥ १२९४ ॥ दण्डहीने यतो राष्ट्र मात्स्यो न्यायः प्रवर्तते । तस्माद् दण्डं प्रयुओत दुष्टानां धार्मिको नृपः ॥ १२९५ ॥ दण्डपातभयालोको धर्मे तिष्ठति मूत्रितः । करीव विजयो मत्तोऽप्यङ्कशेन वशीकृतः ।। १२९६ ।। तीव्रदण्डभयाल्लोके भृशमुद्विजते जनः । तस्मान्मृदुमयोगेण प्रजापालनमाचरेत् ॥ १२९७ ॥ यथोक्तदण्डविन्यासाद् भूपतेधर्मचारिणः । यशो धर्मस्तथा राष्ट्र कोशश्व परिवर्धते ॥ १२९८ ॥ -- १E मतः । Aho ! Shrutgyanam Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसोल्लासः। [विंशतिः 2 एवमङ्गानि राज्यस्य सप्त शक्तित्रयं तथा / पाहुण्यं च तथा प्रोक्तमुपायश्च चतुर्विधः // 1299 // राज्यस्थैर्यनिमित्तानि प्राप्तराज्यस्य भूपतेः / विंशतिः सोमभूपालः कृतवान् नीतिकोविदः // 1300 // इति दण्डाध्यायः // 20 // इति महाराजाधिराज-सत्याश्रयकुलतिलक-चालुक्याभरण-श्रीमद्भूलोकमल्लश्रीसोमेश्वरदेव विरचिते मानसोल्लासेऽभिलषितार्थचिन्तामणौ राज्यस्थिरीकरणोपायकथने द्वितीयं प्रकरणम् // FR000000000000000009 प्रथमो भागः समाप्तः।। की माता t@30000000000000000 Aho ! Shrutgyanam