Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १- 23 muiz Ibollekic lol દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 5272008 जैन श्रमण संघ का इतिहास - - 4. कीय Rik.16 . न... लेखकमानमल जैन “मार्तण्ड" सम्पादक-"पोसवाल" अजमेर मरन प्रकाशक श्री जैन साहित्य मन्दिर कड़क्का चौक, अजमेर प्रथमावृति ] १००० मूल्य१०) दस रुपया [सितम्बर [१६५६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] वाले उन महान विभतियों की गौरव स्मृतियों कई बार किया था परन्तु खेद है कि हमारे बार बार को संकलित करना मेरे सामध्य से परे की वस्तु थी। निवेदन करने पर भी कई आचार्य को पर 'श्रमण' शब्दने मुझे श्रमशील बनाया। मैंने देखा वरों के सम्बन्ध में परिचय आदि प्राप्त करने पर जैन श्रमणों की गौरव गाथाएं तो एक महान् सागर असफल रहे हैं । एतदर्थ क्षमा प्रार्थी है। मान है। एक एक महा पुरुष के सद् कृत्यों पर २ मुनिवरों की परिचय प्रादि सामग्री पूज्य पदास्वतन्त्र पुस्तकें लिखने योग्य हैं। उनके सम्बन्ध में नुकम से नहीं दी जासकी है। अतः परिचयों का यदि खोज की जाय तो प्रचुर सामग्री उपलब्ध है आगे पीछे या ऊँचे नीचे देने आदि की जो अविनय और उसके संग्रह से जैन समाज आज के जगत में हुई हो तो उसके लिये भी हम हृदय से क्षमा प्रार्थी सबसे अधिक ज्ञान सम्पन्न सिद्ध हो सकेगा। हमारे पास भी काफी सामग्री संग्रहीत होगई ३ ग्रंथ में अनेक त्रुटि रह जाना स्वभाविक है। थी पर आर्थिक कठिनाइयों ने सभी आशाओं पर यदि सुज्ञजन उन्हें हमें सुझाने की कृपा करेंगे तो नपारापात किया है। उस पर समाज में साहित्य हम उनके प्रभारी होंगे। के प्रति यथेष्ठ अभिरुचि के प्रभाव ने, तथा मुनिवरों द्वारा पाशानुकूल सहयोग प्राप्त न हो सकने आदि आशा है हमारा यह प्रयास 'वर्तमान जैन श्रमण कई कारणों से; हमें खेद है कि यथेष्ट रूप में हम संघ को अपने महापुरुषों के पदचिन्हों पर प्रवर्तित । बनने की प्रेरणा प्रदान कर, साम्प्रदायिक भिन्नता सम्पूर्ण सामग्री प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं। यदि को भुलाते हुए, एक सूत्र में आबद्ध हो जैन धर्म की इस प्रथामावृति का अच्छा स्वागत हुआ तो आशा है, द्वीतिया वृति में कुछ विशेष सामग्री दी जा सकेगी। " । गौरव वृद्धि हेतु अवश्य प्रेरणा प्रदान करेगा। यद्यपि हमने अपनी जानकारी अनुसार प्रत्येक विनीतसम्प्रदाय के प्रायः सभी प्रमुख मुनिवरों की सेवा में, २०-६-५९ मानमल जैन "मार्तण्ड" उनके इतिहास पूर्ण सामुदायिक एवं व्यक्तिगत परिचय आदि भेजने का निवेदन केवल एक बार ही नहीं Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 लक्ष्य भगवन्त प्रभु महावीर www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। गणमात्धुएं समणस्स भगवश्री महावीरम्स । जैन श्रमण संघ का इतिहास जैन धर्म की विशिष्ठता विश्व शांति और विश्व प्रेम पर आधारित विजेता है। उन्होंने प्रथल प्रात्य बल द्वारा राग, जैन धर्म विश्व को एक महान देन है। विश्व प्रांगण द्वेष, क्रोध, मान माया, लोभ आषि समस्त अन्तरंग में अहिंसा प्रधान संस्कृति द्वारा शांति और सुख का आत्म शत्रुओं पर विजय प्रान कर उच्चतम पद प्राप्त संचार करने का सर्वोपरि श्रेय यदि किसी को है तो किया है। ऐसे महान विजेताओं का धर्म ही "जैन वह जैन धर्म को ही है। धर्म" है। ___ धर्म के नाम पर प्रचलित पाखंड और अन्ध- इन महान् आत्म-विजेता जिनेश्वर देवों के श्रद्धा के अन्धकार में भटकते विश्व को धर्म का सामने सबसे बड़ी समस्या थी "जगत् के दुःखों का असली स्वरूप और मार्ग बताने की धार्मिक क्रान्ति निवारणा करना"। जगत्को दुःखों से बचाने के लिये करना जैन धर्म प्रचारकों की एक महान विशिष्ठता "अात्म शक्ति" पर अवलम्बित रहने का उन्होंने उपदेश दिया। उन्होंने फरमाया कि "प्रास्मा में जैनसिद्धान्त का मूल आधार बायार है। असन्त शक्ति है। प्रत्येक आत्मा अपने पुरुश के मद् प्राचार और सद् विवेक पर हो उसका विशेष द्वारा हो 'परमात्मा' बन सकता है। उसे किसी दूसरे पापह है। पर अवलम्बित रहने की आवश्यकता नहीं । इसका लक्ष्य बिन्दु इस रश्यमान भौतिक जगत जैनधर्म का यह स्वावलम्बनमय सिद्धान्त मनुष्य तक ही सीमित नहीं वरन् विराट अन्तर्जगत की में एक अपूर्व धात्म ज्योति, परम शक्ति जागृत सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करना है। बाह्य किया कांडों करता है और उसे साहसी बनाता है। प्रत्येक प्राणी का इसमे कोई महत्व नहीं-वह तो विशुद्ध प्राध्यात्मिक की आत्मा अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त उन्नति का उपदेशक है। जैन धर्म केवल ऐहिक बल विर्य मादि महान् गुणों से परिपूरित है-केवल सुखों में ही संतुष्ठि महीं मानता प्रत्युत पारलौकिक उनको प्रकाशित करने को आवश्यकता है । इन गुणों कल्याण से ही उसका विशेष सम्बन्ध है। "आरम को प्रकाशित करने के लिये अपना आत्मिक विकास जीत" बनना ही सच्चे जैनत्व का सफल परिक्षण है। करना चाहिये। इस धर्म के बाद्य उपदेशक 'जिन' है। 'जिन' जैनधर्म का कथन है:का अर्थ है-महान विजेता। विजेसा का अर्थ है "अप्पा कत्ता विकत्ताय 'प्रारम विजेता'। जिनेश्वर देव परम आध्यात्मिक दुहणयोसुहागय । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन श्रमण संघ का इतिहास aniraummoHDRANDIDASTIHIDAIUDAHIDOMAIDACHHITHILD HINDImmodINHINDIdlluOUDHIRD IN THMANHIS DUINIDHIMAdhi अप्पा मितंम् मित्तम् च __ "जैनधर्म की महत्ता के विषय में कुछ कहना दुप्पट्ठियो सुपट्टियो॥ मेरे सामर्थ्य के बाहर की बात है। मैं अपने अध्ययन अर्थात्-दुःख और सुख का कर्ता यह आत्मा के आधार पर यह अधिकार पूर्वक कह सकया हूँ कि ही है, अपना मित्र और शत्रु भी अपनी यह आत्मा भारतीय संस्कृति के विकास में जैनों ने असाधारण ही है-यदि बुरे मार्ग पर प्रवृत हुए तो यही पात्मा । योग दिया है । मेरा निजि विश्वास है कि यदि भारत शत्रु बनेगी और सुमार्ग पर प्रवृत होने पर यही में जैन धर्म का प्रभाव दृढ़ रहता तो हम संभवतः आत्मा मित्र सिद्ध होगी। आज की अपेक्षा अधिक संगठित और महत्तर भारत इस प्रकार जैनधर्म मनुष्य को स्वातंत्र्य उपासक वर्ष का दर्शन करते । जैनों की उपेक्षा करने से बनाता है। पुरुषार्थ द्वारा आत्मोन्नति की प्रेरणा करता भारतीय इतिहास, सभ्यता और संस्कृति का सच्चा हुधा, मानव को मानवीय दासता से उन्मुक्त बनाता चित्र हमारी आखों के सामने नहीं आसकता।" है। और उसे अपने परम और चरम साध्य को प्राप्त प्राचीन भारत के नकेवल धार्मिक बल्कि राज करने के लिये प्रेरणात्मक अदम्य उत्साह प्रदान करता नैतिक सामाजिक, साहित्यिक, आर्थिक कला कौशल .है । जैन धर्म अपनी इस विशेषता के कारण ही आदि सभी क्षेत्रों में भी जैन धर्म और जैनियों का "श्रमण धर्म" कहलाता है। गौरव पूर्ण स्थान रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में इस धर्म ने 'श्रमण' का अर्थ है श्रम करने वाला और श्रमण अपनी वज्ञानिक एवं मौलिक विचार धाग के कारण संस्कृति का मुख्य मन्तव्य है-"हर व्यक्ति अपना नये जीवन, नई क्रान्ति, नई चेतना और नये प्रकाश विकास अपने परिश्रम द्वारा ही कर सकता है। किसी का संचार किया। दैविक या अद्दष्ट शक्ति के द्वारा नहीं।" भारत के धार्मिक जगत् में विचार स्वातंत्र्य का " श्रमण संस्कृति का यह सिद्धान्त अन्ध श्रद्धा के प्रवेश हुश्रा जिससे पुरोहित वाद की नींव हिन गई । अन्धकार में भटकते विश्व के लिये अपूर्व प्रकाश सामाजिक क्षेत्र में भी अपूर्वा क्रान्ति हुई । जन्म जात पुंज सिद्ध हुआ। वर्ण भेद की ऊंच नीचता की भावना दुर्बल होने भारतीय संस्कृति का उच्चतम स्वरूप यदि हमें लगी। गुण पूजा का महत्व बढ़ा। सद् गुणी शुद्र देखना है तो वह जैन संस्कृति में ही प्राप्त हो सकता दुगुणी बाम्हण से श्रेष्ठ है, स्त्री को भी पुरुष वर्ग है। यदि यह भी कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति के समान मात्मोन्नति के पूर्ण अधिकार हैं यह जैन न होगी कि भारतीय संस्कृति को महानता बढ़ाने धर्म ने ही घोषित किया। और रक्षा करने में जन संस्कृति का असाधारण योग इस प्रकार सामाजिक क्रान्ति करने में भी जैन रहा है। धर्म ने अकथनीय कार्य किया है। भारत के एक महान विद्वान सर पट मुखम् चेट्टी धार्मिक मतभेदों और दार्शनिक गुत्थियों को, ने एक भाषण में कहा है कि: सुलझाने के लिये "अनेकान्त वाद" का प्ररूपण कर Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की विशिष्ठता BHIMA NDAUNSOUNMIUMKUMHRDaascomullistinguND HAIND THIPULD HIDDIMILSAHEBISHNIDINAMINOHI जैन घर्ग ने जगत् पर एक महान् उपकार किया है। प्राणी चाहे कितना ही पतित से पतित क्यों न रहा अन्यथा यह जगत् दार्शनिकों के भुल भुलैया में ही हो-अपने को समस्त पापों से उन्मुक्त बना कर स्वयं भटकता फिरता। पावन बनकर परमात्म स्वरूप को प्राप्त करता है। ___ साहित्य और कला के क्षेत्र में तो जैन धर्म का यही कारण है कि जैन सिद्धांत न केवल भारत में भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान मान लिया जाय बल्कि समस्त संसार में प्रियकारी बने हैं। तो उपयुक्त ही होगा। ___ जमनी के विद्वान् प्रो० हेल्मुथ फॉन ग्नानाप्य ने ___ जैन धर्म विश्व धर्म है । जैन धर्म की अनेका 'जैनधर्म' नामक अपने प्रन्थ में लिखा है कि:नेक विशेषताओं में सबसे बड़ी विशेषता यह भी रही ___ जैन अपने धर्म का प्रचार भारत में याकर बसे है कि उसके अनुयायी होने के लिये किसी भी तरह हुए शकादि म्लेच्छों में भी करते थे, यह बात फा कोई बन्धन नहीं। 'कालकम्पार्य' की कथा से स्पष्ट है । कहा तो यह भी जाता है कि सम्राट अकबर भी जेनी होगया था। जैन धर्म के सिद्धान्त परम् उदार व्यापक और बाज भी जैन संघ में मुसलमानों को स्थान दिया सर्वजन हिताय एवं सर्गजन सुखाय हैं। यहाँ जाता है । इस प्रसंग में बुल्हर सा० ने लिखा था कि संकीर्णता को कोई स्थान नहीं । बम्हण हो या शुद्र, अहमदाबाद में जैनों ने मुसलमानों को जैनी बनाने स्त्री हो या पुरुष, राजा हो या रंक, बूढ़ा हो या बच्चा को प्रसंग वार्ता नसे कही थी। जैनी उसे अपने धर्म जैन धर्म के प्रांगण में किसी के प्रप्ति कोई भेद भाव की विजय मानते थे। भारत की सीमा के बाहर के नहीं। प्राणी मात्र उसका उपासक बनकर अपनी प्रदेशों में भी जैन उपदेशकों ने धर्म प्रचार के प्रयत्न भारमोन्नति करने का समान अधिकार रखता है यह किये थे। चीनी-यांत्री हेनसांग (६२८-६४५ ई.) का जैन धर्म की स्पष्ट उद्घोषणा है। जैन सिद्धांत के दिगम्बर जैन साधु कियापिसी (कपिश) में मिले थेउपदेशकों को जैन शास्त्रों की स्पष्ट हिदायत है कि उनका उल्लेख उसके यात्रा विवरण में है। हरिभद्रा. ___"जहाँ तुच्छरस करथइ तहां पुण्णस्स कत्थइ, जहाँ चाय के शिष्य हंस परमहंस के विषय में यह कहा पुण्णरस कत्थइ तहाँ तुच्छस्स कथइ । अर्थात्-जैन जाता है कि धर्म प्रचार के लिये तिब्बत (भोट) में धर्म का उपदेष्टा साधक जिस अनासक्त भाव से गये और वहां बौद्ध के हाथों से मारे गये थे। रंक को उपदेश देता है उसी अनासक्त भाव से चक्रप्रनबेडल सा० ने कुच की हकीकत का अनुवाद वर्ती का भी उपदेश देता है। अर्थात् उसकी दृष्टि किया है वहाँ जैनधर्म के प्रचार की पुष्टि होती है। में कोई भेद भाव नहीं। प्रत्येक जाति वर्ग वर्ण, का महावीर के धर्मानुयायी उपदेशों में इतनी प्रकार व्यक्ति और पतित से पतित जन भी उसका आश्रय की भावना थी कि वे समद पार भी जा पहँचते थे । लेकर अपना कल्याण कर सकता है। इससे स्पष्ट है ऐसी घहत सी कथाएं मिलती है जिनसे विदित होता कि जैन धर्म मानव मात्र का धर्म है । वह पतित है कि जैन धर्मोपदेशको ने दूर दूर के द्वीपों के पावन है। इसकी छत्र छाया में आश्रय पानेवाला अधिवासियों को जनधर्म में दीक्षित किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास IDCOWAMBWENGURUHIWUUDIWKAUDINIQUID CANADGIMND CUMIDORNUTIDWIDOUBOUTDOWNUNDUXIU महम्मद सा० के पहले बैन उदेपशक भरबस्थान भी (१) वैकट्रिया के जिनोस्फिस्ट (जैवभ्रमण) का गये थे। इस प्रकार की भी कथा है। प्रचीन काल में उल्लेख में मगस्थनीजने किया है । (ऐसियन्द इंडिया जैन ब्यापारीगण अपने धर्म को सागर पार ले गये ५ १०४) थे यह बात सभव है। अरब दर्शनिक तत्ववेता (४) मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त भी जैन थे। अशोक अबल-अला (९७३-१०६८ ई०) के सिद्धान्तों पर के सप्तम स्तभ्म लेख से स्पष्ट है कि उन्होंने धर्म स्पष्टतः जैन प्रभाव दीखता है । वह केवल शाकाहार प्रचार का उद्योत किया था। अन्त में वह स्वयं करता था-दुध तक नहीं लेता था। दूध को पशुधों दिगम्बर जैनमुनि हो गये थे। (नरसिहाचार्य के स्तन से खींच निकालना यह पाप समझता था। श्रवणवेल्गोल' और स्मिथ अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया यथा शक्ति वह निराहार रहता था। मधु का भी उसने पृ० १५४) । स्याग किया था क्योंकि मधुमक्खियों को नष्ट करके (५) अशोक ने जिस धर्म का प्रचार किया था मधु इकट्ठा करने को वह अन्याय मानता था। इसी वह निराबौद्ध धर्म नहीं था । अशोक पर जैन सिद्धांतों कारण वह अण्डे भी नहीं खाता था पाहार और का अधिक प्रभाव था उसका प्रचार उन्होंने किया था। वस्त्रधारण में वह सन्यासी जैसा था। पैर में लकड़ी अशोक ने मिश्र मैसेडोनिया कोरेन्ध और साइनेरे को पगरखी पहनता था क्योंकि पशुचर्म के व्यवहार नामक देशों में अपने धर्माज्जुक भेजे थे, किन्तु इन को भी पाप मानता था। एक स्थल उसने नग्न रहने देशों में बौद्धधर्म के चिन्ह नही मिलते बल्कि जैन को प्रशंसा की है। उनकी मान्यता थी कि भिखारी धर्म का अस्तित्व उन देशों में रहा प्रतिभाषित होता कोविरम देने की अपेक्षा मक्खी की जीवन रक्षा है। मिश्र में जो धर्म चिन्ह मिले हैं उनका साम्य करना श्रेष्ठ है। उसके इस व्यवहार और कथन से जैन चिन्हों से हैं (मोरियन्टल अखबार १८०२ स्पष्ट है कि वह अहिंसा धर्म को कितने गम्भीर भाव पृ० २३-२४) से मानता था। (६) मिश्रवासी जैनों के समान ही ईश्वर को बाबू कामताप्रसाद जैन ने इस विषय का संकलन जगत् का कत्ता नहीं मानते थे बल्कि बहु परमात्मवाद किया है वह इस प्रकार है: के पोषक थे। परमात्मा उस व्यक्ति को मानते थे जो (१) भारत के पहले ऐतिहासिक सम्राट श्रोणिक अनन्तरूपेण और पूर्ण हो । चे शाश्वत प्रात्मा का विमा न होने का अस्तित्व पशुओं तक में मानते थे। अहिंसा धर्म का प्रचारित किया था। (स्मिथ ऑक्सफोर्ड हिस्टीऑफ पालन यहाँ तक करते थे कि मछली, मूली, प्याज जैसे इन्डिया पृ० ४५) शाक भी नहीं खाते थे वृक्षवल्कल के जूते पहनते थे। (२) श्रोणिक के पुत्र राजकुमार अभय के प्रयत्न अपने देवता होरस (भरहः १ ) की नग्न मूर्तियाँ से ईरान (पारस्प देश) के राजकुमार पाक जैन बनाते थे । (कानल्फूयेस ऑफ पायोजिट्स पृ० २ धर्मनुयायो हुए थे। (डिक्सनरी ऑफ जैन विकलो- व स्टोरी ऑफ मेन पृ. १८७-१८) इन बातों से ग्राफी पृ०७२) मिश्र में एक समय जैनधर्म का प्रचार हुआ स्पष्ट है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने की प्राचीनता MEROINTLoCi r lin1000ouTUDHATULHI-KITALDAKIRANSL A TINodalitDATHI मिश्र के पास इथोपिया में एक समय जैनसमण रहते (E) प्रो० एम० एस रामस्वामी ऐंगर ने कहा था थे (ऐशियाटिक रिसर्चेज ३-६) ___कि बौद्ध भिक्षु ष जैन श्रमण यूनान, रूस प परवे (७) मैसीडोनिया या ग्रीक मिश्रवासियों के पहुँचे थे (हिन्द, २५ जुलाई १६२९) अनुयायी थे। यूनानी तत्ववेत्ता पिथागोरस (पिहिता (१०) सम्प्रति ने ईरान अरब अफगानिस्तान में श्रव १ ) और पिहो ने जितोसूफिस्ट (जैन श्रमणों) धर्म प्रचार कराया था। सोलोम के सम्राट पाण्डुसे शिक्षा ली थी। वे जैनों के समान ही आत्मा को काभय ने ई० पूर्व ५६०-३०७ में निमन्च श्रमणों के अजर अमर और संसार भ्रमण सिद्धान्त को मानते लिए विहार बनषाये थे जो २१ शासकों के समय रहे थे । अहिंसा और तप का अभ्यास करते थे। यहाँ किन्तु, सम्राट पगामिनी (३८-१० ई० पू०) जैनों तक कि जैनों की तरह द्विदल (:ल) का भी निषेध करते थे। दही में मिलाकर द्विदल बैनी नहीं खाते . से कुद्ध हुए और उन्हें नष्ट करवाया ( महावंश) क्योंकि उसमें मम्मूखिम बीष उत्पन्न हो जाते हैं। (११) चीनी त्रिपिटक में भी जैनों का उल्लेख इस प्रकार यूनान में भी जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट है। है। प्रो० सिल्वॉ नेवी ने जावा सुमात्रा में जैनधर्म (E) यूनान के एथेन्स बगर में एक समय प्रमाणा- का प्रभाव व्यक्त किया था (विशाल भारत १.३) चार्य की निषधिका थी। ये जैन साधु वैराज (भारत) सारांशतः एक समय जैनधर्म ने विश्वभर में अहिंसा से यूनान आये थे। (इंडि: हि० क्वा० २१० २७३) संस्कृति का प्रचार किस था। जैन धर्म की प्राचीनता जैनधर्म के प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में संस्थापक बताया है । सचमुच यह सब इतिहासकारों इतिहास फार अभी भी पूर्ण खोज नहीं कर पाये है की अनभिज्ञता का ही परिणाम है। उन्होंने जैनधर्म स्थापि ज्यों ज्यों इस सम्बन्ध में अन्वेषण झेते रहे हैं को उसके मूल प्रन्यों से समझने का प्रयत्न ही नहीं त्यों त्यों इसको प्राचीनता के सम्बन्ध में व्याप्त किया है और म इस सम्बन्ध में कुछ अन्वेषणात्मक भ्रान्तियों का काफी निराकरण हुबा है । पाश्चात्य और गहराई में जाने का कष्ठ ही उठाया है । यथार्थ रूप पौर्वात्य इतिहास बार भी इसके इतिहास से अनभिज्ञ में निष्पक भाष से अन्वेषण करने का कष्ट उठाना रहे हैं । यही सघ कारण हैं कि कतिपय इतिहास तो दूर रहा कई इतिहास कारों ने इसके प्रतिद्वन्दी कारों ने जैनधर्म के आदि कालीन इतिहास के बारे धर्म ग्रन्थों के आधार पर ही अपने विचार व्यक्त में अपनी अल्पज्ञता के कारण कई भ्रान्ति मूलक कर जैनधर्म के सम्न्ध में अनेक भ्रान्ति मूलक गलत विचार प्रकट किये हैं। किसी ने इसे वैदिक धर्म का धारणाओं को जन्म दिया है। रूपान्तर माना है तो किसी ने इसे बौद्ध धर्म की किन्तु अब प्रायः समस्त इतिहास कार यह मानने शाखा बदाकर भगवान महावीर को इसका मूल लगे हैं कि आधुनिक इतिहास काल जिस समय से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संध का इतिहास HAREnywssile-CMAMINET W OMANCERTIWANS-CONGRUISTORIMARDCORIAN>Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धो की माचीनता MASKUNDRANISHTRANSFOMPANISA TISMHISTOWileyonSCUEMISCUNNAMOKTA METHNICHEHRASC H resule24 आधुनिक कतिपय इतिहासकारों की ऐसी इसका अर्थ यह है कि केवल ज्ञान द्वारा सर्व मान्यता है (पबपि धेरों को पह स्वीकृत नहीं) व्यापी, कल्याण स्वरुप, सर्व शान जिनेश्वर रिषभदेव कि महाभारत ईसा से तीन हजार वर्ष पहले तैयार सुन्दर केलाश पक्ष पर उतरे। इसमें आया हुआ हुआ था और रामचन्द्रबी महाभारत से एक हजार वृषभ' और 'जिनेश्वर' शन्द जैवधर्म को सिद्ध करते वर्ष पहले विधमान थे। इस पर से कहा पा सकता है क्योंकि जिन' और 'अरहन्' शब्द जैन तीर्थ कर है कि रामचन्द्रजी के समय में ( चाहे वह कौन के लिये रूह है। बम्हाएड पुराण में इस प्रकार सा भी हो ) जैमधर्म का अस्तित्व था। रामचन्द्रजी लिखा है:के कान में बैनधर्म का पवित्व सिद्ध हो जाने पर "वाभिस्त्वजनयत्पुर्व मरुदेठयां मनोहरम् । घेदव्यास के समय में इसका अस्तित्व सिद्ध करने रिषभं क्षत्रियज्येष्ठं सवित्रस्य पूर्णजम् ।। की कोई भावश्यकता नहीं रह जाती है। पदपि घेद रिषमाद् भरतो जसे वीरः पुत्रशताग्रयो। ध्यास ने अपने बम्ह सूब "वैकस्मिनसंभवात्" कहकर भिपिब्धय मरतं राज्ये महाप्रमज्यामास्थितः ।" जैन दर्शन के स्यावाद सिद्धान्त पर माक्षेप किया है। “ह हि इस्वाकुकुल शोद् भवेन नामिसुतेन अगर उस समय जैन दर्शन का स्याद्वाप सिद्धान्त मरुदेव्याः नन्दनेन महादेवेन रिषभेण दशप्रकारो विकसित न हुआ होना तो वेद व्यास उस पर लेखनी धर्मः स्वयमेवाचीर्णः केवल ज्ञानलाभाच्च प्रवर्तितः" नहीं उठाते। यद्यिप वेदव्यास ने द्वाद के जिस अर्थात्:- नामिराजा और मरुदेवी रानी से रूप पर आक्षेप किया है वह स्याद्वार का शुद्ध रूप मनोहर, क्षत्रिय वंश का पूर्वाज रिषभ' नामक पुत्र नही-विकृत रूप है । वदपि उससे यह तो भलीभांति उत्पन्न हुआ। रिषभनाथ के सौ पुत्रों में सबसे सिद्ध हो जाता है कि वेद व्यास के समय में बैन बड़ा पुत्र शूरवीर 'भरत' हुपा । रिषभ देव मरत को दर्शन का मौलिक सिद्धान्त स्याद्वाप प्रचलित था। राण्यारूद करके प्रपति हो गये। इक्ष्वाकु वर में रामायण महाभारत से जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध सम्पन्न नाभिराजा और मरुदेवी के पुत्र रिषभ ने हो जाने पर अब पुराणों को देखना चाहिए। क्षमा मादव थापि इस प्रकार का धर्म स्वयं धारण ___ अठारह पुराण महर्षि व्यास के द्वारा रचित माने किया और केवल ज्ञान पाकर इसका प्रचार ख्यिा। जाते है । ये व्यास महर्षि महाभारत के समयवर्ती स्कन्द पुराण में भी लिखा है:बतलाये जाते है । चाहे कुछ भी हो हमें यह देखना आदित्य प्रमुखाः सर्वे बद्धाज्जलय ईशं । ध्यायन्ति भावतो नित्यं यदङ्गियुगनीरजं ॥ है कि पुराण इस विषय में क्या कहते हैं ? शिव परमात्मानमात्मानं लमत्के ला निमलम् । पुगण में रिषभनाथ भगवान का उल्लेख इस प्रकार निरज्जन निराकार रियमन्तु महा रिषिम् ।। से किया गया है: भावार्थ:-रिषभदेव परमात्मा, केवल ज्ञानी, कैलाश पर्वते रम्ये वृषमोऽय जिनश्वरः। निरजन, निराकार और महर्षि है। ऐसे रिषभदेव के रण युगल का प्रादित्य आदि सूर-नर भावपूर्वक चकार स्वावताररूच सर्वज्ञः सवंगः शिवः ।। अन्जली जोड़कर ध्यान करते हैं। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन श्रमण संघका इतिहास RR A IMADHUTODAIADAOUONMDCITHULDATI.GADATIAAMHUDAIHAGHID-ONLIND OTHULITD-Our WALA ISHAAMRAJHIDjuRALIDAuto-gul नागपुराण में इस प्रकार उस्लेख है: अवतार वतखाकर उनका विस्तृत वर्णन किया गया अकारादि हकारान्तं मूर्धाधोरेफ संयुतम् । है । भागवत पुराण में यह लिखा है कि मष्टि की नादबिन्दुकलाकान्तं चन्द्रमण्डल सन्निभम् ॥ आदि में बम्ह ने स्वयंम्भू मनु और सत्यरूपा को एतिहेवि परं तत्वं यो विजानाति तत्वतः। उत्पन्न किया । रिषभदेव इनसे पांचवीं पीढ़ी में हुए । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत परमां गतिम् ॥ इन्हीं रिषभदेव ने जैन धर्म का प्रचार किया। अर्थात्-जिसका प्रथम अक्षर 'अ' और अन्तिम इस पर से यदि हम यह अनुमान करें कि प्रथम जैन अक्षरहा है, जिसके ऊपर आधारेफ तथा चन्द्रबिन्दु तीर्थ कर रिषभदेव मानव जाति के आदि मुरू थे तो विराज मान है ऐसे "अह" को जो सच्चे रूप में हमारा विश्वास है कि इस कथन में कोई अत्युक्ति जान लेता है, वह संसार के बंधन को काटकर मास नहीं होगी। को प्राप्त करता है। दुनियाँ के अधिकांश विद्वानों की मान्यता है बहुमान्य मनुस्मृति में मनु ने कहा है: कि आधुनिक उपलब्ध सभी ग्रन्थों में वेद सबसे मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमाः। प्राचीन हैं। अतएव अब वेदों के आधार पर यह अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभे जति उरुक्रमः ॥ सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि बेदों की उत्पचि के दर्शयन् वर्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः ।। समय जैनधर्म विद्यमान था। मैदानुयायियों की नीतित्रितयकी यो युगादौ प्रथमो जिनः॥ मान्यता है कि नेद ईश्वर प्रणीत हैं। यद्यपि यह भावार्थ-इस भारतवर्ष में 'नाभिराय' नाम के मान्यता केवल श्रद्धा गम्य ही है । तदपि इससे यह कुलकर हुए। उन नाभिराय के मरुदेवी के उदर से सिद्ध होता है कि सष्टि के प्रारंभ से ही जैव धर्म मोक्ष मार्ग को दिखाने वाले, सुर-असुर द्वारा पूजित, प्रचलित था क्योंकि रिग्वेद, यजुर्वेद सामयद सीन नीतियों के विधाता प्रथम जिनेश्वर अर्थात् और अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में जैन तीर्थंकरों के रिषभनाथ सत् युग के प्रारम्भ में हुए। नामों का उल्लेख पाया जाता है । ___ रिषभ' शब्द के सम्बन्ध में शंका को अबकाश रिग्वेद में कहा है:ही नहीं है । वाचसति कोष में रिषभदेष' का अर्थ श्रादित्या त्वमसि श्रादित्यसद् असीद अस्त 'जिनदेव' किया है। और शब्दार्थ चिन्तामणि में भादद्या वृषभो तरिक्ष अमिमीते वारिमाणं । पृथिव्याः 'भगवदवतारयेदे आदिजिने-अर्थात् भगवान का आसीत् विश्वा भुवनानि समाडिवश्व तानि वरुणस्य अवतार और प्रथम जिनेश्वर किया गया है। व्रतानि | ३० । अ० ३। पुसणों के उक्त अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता अर्थात्-तू अखण्ड पृथ्वी मण्डल का सार त्वचा है कि पुराण काल के पहले जैनधर्म था। इसके अति- स्वरूप है, पथवीतल का भूषण है, दिव्यज्ञान के द्वारा रिक्त भागवत के पांचवे स्कन्ध के चौथे पांचवे और आकाश को नापता है, ऐसे हे वृषभनाथ सम्राट ! छठे अध्याय में प्रथम तीर्थ कर रिषभदेव को पाठवां इस संसार में जगरक्षक व्रतों का प्रचार करो। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जैन धम की प्राचीनता u: 10 11-lk ! NIA HAIRE:HIST! HISCHIM IAS KOLHI: Wi>\\HIHIS PINikiti GHP PINSI FIED Full HDPH T मर्हन्विभषि सायकानि धन्याह भिक यजतं विश्रूप, नहीं कह सकता है कि जैनधर्म वैदिक धर्म के बाद ( अ० १ ० ६ व० १६) अहंन्निदं दयसे विश्व उत्पन्न हुआ है। वेदों में जा प्रमाण दिये गये हैं भवभुवन वा ओ जीयो रुद्रत्वदास्ति ( अ० २ अ. वही इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि ५.व० १७) जैनधर्म अति प्राचीन काल से चला आता है । जिस अर्थ-हे अहनदेव ! तुम धर्मरूपी वाणों को, वैदिक धर्ग को प्राचीन बतलाया जाता है उससे भी सदपदेश रूप धनुष को, अनन्त तानरूप आभषण पहले जनधर्म अस्तित्व रखता था। को धारण किये हुए हो । हे अर्हन ! श्राप जगत्प्रका- जैनधर्म बौद्ध धर्म से प्राचीन है शक केवल ज्ञान प्राप्त हो, संसार के जीवों के रक्षक यह तो निर्विवाद है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक हो, काम क्रोधादि शत्रु समूह के लिए भयंकर हो, बुद्ध हैं । ये भगवान महावीर के समकालीन है। आपके समान अन्य बलवान नहीं है। इससे यह सिद्ध है कि बौद्ध धम लगभग अढ़ाई हजार ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामदेव वर्ष पूर्व का है इससे पहले बौद्ध धर्म का अस्तित्व शान्त्यर्थ मनुविधीयते सोअस्माकं अरिष्टनेमि स्वाहा। नहीं था। आज के निष्पक्ष इतिहास वेत्ताओं ने यह ____ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितान चतुर्विशति तीर्थ करान स्वीकार कर लिया है कि जनधम बुद्ध से बहुत रिषभाद्या वर्द्धमानान्तान् सिद्धान शरण प्रपद्ये। पहले ही प्रचलित था। इससे लेविज, एलफिल्टन, ____ॐ नमो अहतो रिषभो ॐ रिषभं पवित्र पुरु व वर, वार्थ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने जैनधर्म को हुत मध्वरं यज्ञेषु नग्नं परंम माहसं स्तुत वारं शत्रु बौद्ध की शाखा मानने की जो गलती की है उसका जयन्तं पशुरिन्द्रमाहु रिति स्वाहा । संशोधन हो जाता है। उक्त विद्वानों ने वस्तुस्थिति ___ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्व का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के पहले ही पूर्वग्रह के वेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यो अरिष्ठ नेमि; स्वास्तिनो कारण दोष में फंसार गलत राय काम कर ली है। वृहस्पतिर्दधातु । केवल अपने पूर्वग्रह के कारण किये अनुमान के बल इत्यादि बहुत से वेदमंत्रों में जैन तीर्थ कर श्री पर जैन धर्म के सम्बन्ध में ऐसा गलत अभिप्राय रिषभदेव, सुपार्श्वनाथ, अरिष्ठनेमि आदि तीर्थ करें व्यक्त करके इन्होंने उसके साथ ही नहीं परन्तु वास्तके नाम आये हैं । इन तीर्थंकरों के प्रति पूज्य भाव रिकता के साथ अन्याय किया है । रखने की प्रेरणा करने वाले कतिपय वेदमंत्र पाये इन विद्वानों के इस भ्रम का कारण यह है कि जाते हैं । इन सब प्रमाणों पर से यह प्रतीत होता है जैनधर्म और बौद्ध धर्म के कुछ सिद्धांत आपस में कि वेदों की रचना के पूर्व भी जैनधर्ग बड़े प्रभाव मिलते जुलते हैं। भगवान महावीर और बुद्ध ने के साथ व्याप्त था तभी ता वेदों में उनके नाम बड़े तत्कालीन वैदिक हिंसा का जोरदार विरोध किया आदर के साथ उल्लिखित हुए हैं। इन बातों का था और ब्राह्मणों को अखण्ड सत्ता को अभित्रस्त विचार करने पर कोई भी निष्पक्ष वेदानुयागी यह किया था इसलिए बाह्मण लेखकों ने इन दोनों धर्मों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैन श्रमण संघ का इतिहास COMID-BIRHAIRTHDINDORIDADIHIRIDHIIIIIAHINDI111DCOLITD dirtD OTHINDILHIINDAGITATIO-III- HIDAMADAN- को एक कोटि में रख दिया । इस समानता के कारण निर्गन्थ अथवा जैनों के कर्म सिद्धांत का वर्णन इन विद्वानों को यह भ्रम हुआ कि जैन धर्म बौद्ध किया है। धर्म की एक शाखा है ऊपरी समानता को देखकर (४) अंगुतर निकाय में जैनश्रावकों का उल्लेख और दोनों धर्मों के मौलिक भेद की उपेक्षा करके इन पाया जाता है और उनके धार्मिक आधार का भी विद्वानों ने यह गलत अनुमान बांधा था। विस्तृत वर्णन मिलता है। जर्मनी के प्रसिद्ध प्रोफेसर हर्मन जेकोबी ने जैन (५) समन्नफल सून्न में बौद्धों ने एक भूल को धर्म और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों की बहुत छानवीन है। उन्होंने लिखा है कि महावीर ने जैनधर्म के चार की है और इस विषय पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला महाव्रतों का प्रतिपादन किया किन्तु ये चार महाव्रत है। इस महापण्डित ने अकाट्य प्रमाणों से यह सिद्ध महावीर से २५० वर्ष पार्श्वनाथ के समय माने जाते कर दिया है कि जैनधर्म की उत्पत्ति न तो महार थे। यह भूल बड़े महत्व की है क्योंकि इससे जैनियों के समय में और न पार्श्वनाथ के समय में हुई किंतु के उत्तराध्ययन सूत्र के तेवीसवें (२३) अध्ययन की इससे भी बहुत पहले भारत वर्ष के अति प्राचीन काल यह बात सिद्ध हो जाती है कि तेवीसवें तीर्थङ्कर में यह अपनी हस्ती होने का दावा रखता है। पार्श्वनाथ के अनुयायी महावीर के समय में विद्यमान __जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं है, बल्कि एक थे। स्वतन्त्र धर्म है। इस बात को सिद्ध करने के लिए (६) बौद्ध ने अपने सूत्रों में कई जगह जैनों को अध्यापक जेकोबी ने बौद्ध के धर्मग्रन्थों में जैनों का अपना प्रतिस्पर्धी माना है किंतु कहीं भी जैनधर्म को और उनके सिद्धान्तों का जो उल्लेख पाया जाता है बौद्धधर्म की शाखा या नवस्थापित नहीं लिखा। उसका दिग्दर्शन कराया है और बड़ी योग्यता के (७) मंखलिलपुत्र गोशालक महावीर का शिष्य साथ यह सिद्ध कर दिया है कि जैनधर्म बौद्धधर्म से था परन्तु बाद में वह एक नवीन सम्प्रदाय का प्रवाक प्राचीन है । अब यहाँ यह दिग्दर्शन करा देना उचित बन गया था। इसी गोशालक और उसके सिद्धांतों है कि बौद्धों के धर्मशास्त्रों में कहाँ २ जैनों का का बौद्ध धर्म के सूत्रों में कई स्थानों पर उल्लेख बल्लेख पाया जाता है: मिलता है। ___ (१) मज्झिमनिकाय में लिखा है कि महावीर के समीर (6) बौद्धों ने महावीर के सुशिष्य सुधर्माचार्य उपाली नामक श्रावक ने बद्धदेव के साथ शास्त्रार्थ के गोत्र का और महावीर के निर्वाण स्थान का भी किया था। उल्लेख किया है । इत्यादि २ (२) महावगग के छठे अध्याय में लिखा है कि प्राफेसर जैकोबी महोदय ने विश्वधर्म काँग्रेस सीह नामक श्रावक ने जो कि महावीर का शिष्य में अपने भाषण का उपसंहार करते हुए कहा था कि:था, बुद्धदेव के साथ भेंट को थी। On cinclusion let me assert my conbichon (३ अगुतर निकाय के तृतीय अध्याय के ७४ thar Jaiasm is an original system quite distinct वें सत्र में वैशाली के एक विद्वान् राजकुमार अभय ने and indePendent from all others and that the Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की प्राचीनता THIS ISHID ATUND DEITHSAIDATERIAL UIDAINID RIHITIVATITH HIST! ThHI: AHIDAMI HIDARY LEOINDAHIC refore it is of great importauce for the study of इसी विश्वकोष के तीसरे भाग में ४४३ वें प० philosophical thought and religious life in पर लिखा है:-भागवतोक्त २२ अवतारों में रिषभ ancient India. अष्ठम हैं। इन्होंने भारतवर्षाधिपति नाभिराजा के अर्थात्-अन्त में मुझे अपना दृढ़ निश्चय व्यक्त औरस और मरुदेवी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया करने दीजिये कि जैनधर्म एक मौलिक धर्म है । यह था। भागवत में लिखा है कि जन्म लेते ही रिषभसब धर्मों से सर्वथा अलग और स्वतंत्र धर्म है। नाथ के अंगों में सब भगवान के लक्षण झलकते थे। इसलिए प्राचीन भारत वर्ष के तत्वज्ञान और धर्मिक (३) श्रीमान महोपाध्याय डा. सतीशचन्द्र विद्या जीवन के अभ्यास के लिए यह बहुत ही महत्वका भूषण, एम० ए० पी एच०, एफ० आई० पार एस' ___ सिद्धान्त महोदधि, प्रिंसिपल संस्कृत कालेज कलकत्ता जेकोबी साहब के उक्त वक्तव्य से यह सिद्ध हो ने अपने भाषण में कहा थाःजाता है कि जैनधर्म बौद्धधर्न की शाखा नहीं है “जैनमत तब से प्रचलित हुआ है जब से संसार 'इतना ही नहीं, किसी भी धर्म की शाखा नहीं है। में सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है। मुझे इसमें किसी वह एक मौलिक, स्वतन्त्र और प्राचीन धर्म है।" प्रकार का उन नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्तादि __ जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए दर्शनों से पूर्वाका है" पाश्चात्य और पौर्वात्य पुरातत्वविदों और इतिहास (४) लोकमान्य तिलक ने अपने 'केशरी' पत्र कारों ने जो अभिप्राय व्यक्त किये हैं उनका दिग्दर्शन में १३ दिसम्बर १६४ को लिखा है किःकराना अप्रासंगिक नहीं होगा। "महावीर स्वामी जैनधर्म को पुनः प्रकाश में (१) काशी निवासी स्व. स्वामी राममिश्रा- लाये । इस बात को आज करीन २४०० वर्ष व्यतीत शास्त्री ने अपने व्याख्यान में कहा था:- हो चुके हैं । बौद्ध धर्म की स्थापना के पहले जैनधर्म “जैनधर्म उतना ही प्राचीन है जितना कि यह फैल रहा था, यह बातें विश्वास करने योग्य हैं । संसार है।" चौबीस तीर्घ करों में महावीर स्वामी अन्तिम (२) प्राचीन इतिहास के सुप्रसिद्ध आचार्य तीर्थ कर थे। प्राच्य विद्या महार्णव नगेन्द्रनाथ वसु ने अपने हिन्दी इससे भो जैनधर्म को प्राचीनता जानी विश्व कोष के प्रथम भाग में ६४ ३५० पर लिखा जाती है। (५) स्वामी विरूपाक्ष वीयर धर्मभूषण, मेदतीर्थ "रिषभदेव ने ही संभवतः लिपि विद्या के लिए विद्यानिधि, एम. ए., प्रोफेसर सस्कृव कालिज, लिपि कौशल का उद्भावन किया था।...रिषभदेव इन्दौर, 'चित्रमय जगन्' में लिखते हैं। ने ही संभवतः वात्मविद्या शिक्षा की उपयोगी बाह्मी “ई-द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने लिपि प्रचार किया। हो न हो, इसलिए वह अष्टम वाली विपत्ति के रहते हुए भी जैनशासन कभी पराअवतार बनाये जाकर परिचित हुए। जित न होकर सर्वत्र विजयी होता रहा है। अर्हन Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन श्रमण संघ का इतिहास ID National AKISTAININD-CominIA OMINISTINRITPage #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का स्वरूप प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति. मुख्य रूप से जह मम न पियं दुक्खं दो प्रकार की विचारधारा में प्रवाहित रही है-१ श्रमण जाणिय एमेष सव्वजीवाण । संस्कृति २ ब्राह्मण संस्कृति ।। न हणइ न हाणवेइ य, 'समण' प्राकृत भाषा का शब्द है उसीका संस्कृत सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ स्वरूप 'श्रमण" समन और शमन है। अर्थात्-जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं उसी 'श्रमण' वह है जो अपने उत्कर्ष, अपकर्ष, सुख- प्रकार संसार के अन्य सब प्राणियों को भी दुःख दुःख विकास-पतन के लिये अपने को ही उत्तरदायी अच्छा नहीं लगता है। ऐसा समझ कर जोन स्वयं मानते हुए आत्मोत्कर्ष के लिये निरन्तर स्वयं श्रम हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है शील रहता है। अपने उत्थान-पतन में वह किसी और न किसी भी प्रकार की हिंसा का अनुमोदन अन्य को कारण भूत नहीं मानता । अपने सद् करता है और समस्त प्राणीयों को आत्म वत मानता असद् कार्यों को ही वह अपने सुख दुःख का कारण है, वही श्रमण है । समझता है। णरिय य से कोई वेसो, ___ इस प्रकार आत्मोन्नति के लिये अपनी आत्मशक्ति और अपने सद् असद् कार्यों पर हो स्वाश्रयी और पि ओ अ सव्वेसु चेव जोवेसु । पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति का ही एएण होइ समणो, नाम है "श्रमण संस्कृति"। ___एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।२।। "समन" शब्द से तात्पर्य है सब पर समान भाव अर्थात्-जो किसी से द्वेष नहीं करता, सभी रखने वाला । प्राणी मात्र को आत्मवत समझने और जीवों पर जिसका समान मात्र से प्रम है वह श्रमण "स्वयं जीओ और दूसरों को जीने दो" का उपदेश है। देने वाली संस्कृति को ही ममन संस्कृति कहा गया तो समणो जइ सुमणो, है । इस संस्कृति में वर्ग, वर्ण या जाति पांति का या भावेण जइण होइ पाव मणो । ऊँच नीच का कोई भेद भाव नहीं माना जाता । यहाँ सयणे य जणे य समो, शुद्ध आचार विचार का ही प्रधानता रहती है यहां समो अ माणावमाणेसु ॥३॥ अर्थात् -वही श्रमण जिसका मन पवित्र (सुमना) भक्ति नहीं गुण की विशेष महत्व है। है जिसके मन में कभी पाप पैदा नहीं होता अर्थात् अनुयोग द्वार सूत्र के उपक्रमाधिकार में श्रमण जो कभी पाप मय चिन्तन नहीं करता और स्वजन शब्द के निर्वचन पर निम्न प्रकार से प्रकाश डाला या पर जन में तथा मात्र या अपमान में भी अपने गया है : बुद्धि का संतुलन नहीं खाता, वह श्रमण है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास ICIPALITY Ilks FolND TWINKLIN NISARAININD THINKINortunatipsNIND THISROTHINNISONIND KILLINS HINDImpolice 'शमन' से अर्थ है अपनी वृतियों का शमन उल्लेख पाया जाता है । इस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति करना और उन पर विजय प्राप्त करना । इस प्रकार में भक्ति भाव की प्रधानता थी। श्रमण संस्कृति श्रम, समानता और शमन रूप तीन यद्यपि इस प्रकार को प्रकृति पूजा और ईश्वरोतत्वों पर आधारित है । जैन श्रमण संघ ने स्व पर पासना के लिये सबको समान अधिकार था। वर्ग कल्याण के लिये इन्हीं तत्वों को अपनाना श्रेयस्कार भेद या वर्ण भेद को कोई स्थान नहीं था। किन्तु क्रिया कांड पर ही विशेष आधारित इस समझा और इन्हीं तत्वों को अपनाने से वे श्रमण ब्राह्मण संस्कृति को धीरे धीरे ब्राह्मण वर्ग ने अपनी शब्द से सम्बोधित हुए। रोजी का आधार बना कर धार्मिक जगत पर अपना ब्राह्मण संस्कृति का प्रवाह बाह्य क्रिया कांड प्रधान भौतिक जीवन की ओर विशेष गतिशील रहा तो प्रभुत्व स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। वे विधि विधान के विशेष जानकार होते थे अतः धार्मिक श्रमण संस्कृति का प्रवाह उच्चतम आध्यात्मिक जीवन निर्माण का मार्ग बताने की ओर प्रवाहित रहा । जहाँ अनुष्ठान हेतु अन्य वर्ग को उनके आश्रित रहना पड़ने लगा। ब्राह्मण संस्कृति बाह्य क्रिया कांडों के विश्वास पर इस प्रकार वाह्मण संस्कृति सिद्धान्तों पर आधारित परमात्मा को प्रसन्न करके ऐहिक सुख प्राप्त करने न रह कर ब्राह्मण वर्ग के बताये हुए मार्गों पर की कल्पनाओं तक ही अटक जाती है वहां श्रमण प्रवाहित होने लगी जिसके परिणाम स्वरूप धार्मिक संस्कृति स्व पुरुषार्थ से आत्म विकास के मार्ग पर जगत् में व्यक्ति वाद, स्वार्थ एवं धर्म के नाम पर आरुढ़ होकर त्याग द्वारा मन की वासनाओं का अन्ध श्रद्धा, अज्ञानता एवं पाखंड का बोल बाला होने दलन करती हुई ऐहिक सुखों के प्रलोभनों को ठुकरा लगा। धर्म के स्थान पर बाह्य क्रिया कांड पनपने कर पूर्ण सच्चिदानन्द अजर अमर परमात्म पद प्राप्त लगे। करने के लिये सतत् प्रयत्न शील रहती है। यही नहीं ब्राह्मण वर्ग ने अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु __ जहाँ ब्राह्मण संस्कृति के त्याग में भी भोग की धर्म के मूल आधारों और सिद्धान्तों का प्रति पादन भावना झलकती है वहाँ श्रमण संस्कृति के भोग में करना छोड़कर तथा जन समूह को धर्म का सत्याभी त्याग को ही भावना प्रतिध्वनित होनी है। नुष्ठान कराने के स्थान पर अपनी स्थायी आमदनी ___ ब्राह्मण संस्कृति का मूल आधार 'ब्रह्म' यानि और स्वार्थ सिद्धी का ही विशेष ध्यान रख्नना प्रारंभ परमेश्वर है । ईश्वरोपसना हेतु यज्ञ, पूजा, स्तुति आदि किया और हर धार्मिक अनुष्ठान के साथ म्ब निहित क्रिया कांड प्रधान आधार मानकर उनके आश्रय पर स्वार्थ-जोड़ दिया। इस प्रकार पर बुद्धिजिवियों के ही अपना उत्कर्ष मानना ब्राह्मण संस्कति की मूल लिए बिना ब्राह्मण वर्ग के धामिक अनुष्ठान दुर्लभ परम्परा रही है। वेद कालोन संस्कृति में प्रकृति रहा और इस वर्ग द्वारा प्रतिपादित धर्म का मार्ग पूजा के लिये अग्नि, वायु, जल, सूर्य आदि की स्तुति सरल एवं सहज होने से यह शीघ्र लोक प्रचलन में केलिये विविध प्रकार के विधि विधान तथा मन्त्रोंका आगया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति का स्वरूप Tillain coill itilip dilbai sil the Hi Hit Fililion i भारतीय धार्मिक जगत पर इसका बहुत बुरा प्रभाव हुआ । वर्गवाद, वर्णवाद और व्यक्तिवाद का यहीं से प्रारंभ होता है । स्व पूजा प्रतिष्ठा हेतु धर्म के नाम पर अनेक मत मतान्तर बनने लगे । इस प्रकार नये नये सम्प्रदायों का जन्म होने लगा और धीरे घरे इन सम्प्रदायों ने धर्म के असली स्वरुप को ही भुलावे में डाल दिया । मनुष्य स्व बुद्धि जीवन रह कर पर बुद्धि रहने लगा । धर्माराधना के लिये वह दूसरे पर आश्रित रहने लगा और धीरे २ वह इन सम्प्रदायों को ही असली धर्म मानने लगा | इस प्रकार वह निरन्तर धर्म के नाम पर क्रिया कांड के जाल वाले पाखंड में फंसने लगा । सामूहिक यज्ञों की वृद्धि हो जाती है, और गृह शान्ति, धन, पुत्र, राज्य विस्तार, वर्षा, आदि हर कार्य के लिये यज्ञ का ही आश्रय बताकर ब्राह्मण वर्ग ने अपनी पुरोहित वृत्ति को सदा के लिये संरक्षित बना लिया है। भारत के बर्तमान उपराष्ट्रपति महान् दार्शनिक विचारक सर राधाकृसन ने इस सम्बन्ध में कहा है “तत्कालीन यज्ञ संस्था ऐसी दुकानदारी है जिसकी आत्मा मर गई हैं और जिसमें यजमान एवं पुरोहित में सौदे होते हैं । यदि यजमान अच्छी दक्षिणा देकर बड़ा यज्ञ करता है तो उसे महान् फल प्राप्ति होना बताया जाता है और थोड़ी दक्षिणा देने पर छोटे फलकी । यह ऐसी दुकानदारी होगई है जहाँ ग्राहक को माल परखने का भी अधिकार नहीं है । राज्याश्रय होने से ब्राह्मण वर्ग ने अपनी प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिये विविध विधान कर लिये जैसे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १६ नित्य है, इन्हें पढ़ने का वेद स्वयं प्रमाण है, ये अधिकार वाह्मणों को ही हैं ( स्त्री शूद्रौ नाधीयेताम ) इत्यादि । A ब्राह्मण संस्कृति ने यज्ञ और इश्वर के नियन्तत्व को ही धर्माराधना का मूल मंत्र माना है । इससे यह माना जाने लगा कि भगवान की जो इच्छा होगी वही होगा। इससे मनुष्य में अपने प्रति हीन भावना बनी और उसकी आत्मा शक्ति एवं पुरुषार्थ भावना को गहरा धक्का लगा । ब्राह्मण संस्कृति में व्यक्ति अपने विकास के लिये सदा पर मुखाक्षी रहा है। देवी-देवता, ईश्वर गृह नक्षत्र, आदि सैंकड़ों ऐसे तत्व हैं जो व्यक्ति के भाग्य पर नियंत्रण करते हैं। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति का विधान है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास स्वयं कर सकता है । उसकी आत्मा सर्वशक्तिमान है । वह अपने पुरुषार्थ बल पर सर्वोच्च परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति में वर्ग वाद का विशेष महत्व है । ब्राह्मण चाहे जितना ही नैतिक दृष्टि से पतित क्यों न हो तो भी वह सदा पूज्यनीय बता दिया गया है। शूद्रों और स्त्रियों के प्रति ब्राह्मण संस्कृति में घृणा के दर्शन होते हैं, जबकि जैन श्रमण संस्कृति में प्राणी मात्र के लिये आत्मवस् समझने की घोषणा की गई है। वहां तो सद् अमद् कार्यों पर ही वर्ग भेद माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी ने स्पष्ट फरमाया है: कम्मुणा बम्भरणो होइ, कम्मुरणा होइ खत्तिश्रो । www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास RIPTIMINID THE AIHI>IFIRSalin IHIHIDAIHINITIATIMINID THULI DURATIODEO AND FRIDDHIRIDAORibbonikIDOHINHIdo ll वइसो कम्मुणा होइ, "निर्गतो ग्रन्थाद् निन्थः॥" शुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ (-आचार्य हरिभद्र, दश० वृत्ति प्र० अ०) यहां तो महत्व गुणों का है । जन्म जात जाति अर्थात्-जो ग्रन्थ अर्थात् बाह्य और आम्यन्तर पांति का नहीं यही सब ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति पारग्रह से रहित है, कुछ भी छिपाकर गांठ बांधकर नहीं रखता है, वह निम्रन्थ है। के मूल भेद हैं। ___भावान महावीर स्वामी ने सूत्र कृतांग सूत्र में प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने दशवैकालिक सूत्र के श्रमण कहलाने योग्य कौन है इसका विवेचन करतेहुए प्रथम अध्ययायन की तीसरी गाथा की टीका करते फरमाया है कि:-एत्य वि समणे अणिस्सिए, हुए 'श्रमण' शब्द का अर्थ तपस्वी किया है। अणियाणे, आदाणं च, अतिवायं च, मुसावायं च, श्राम्यन्तीति श्रमणाः तपस्यन्ती त्यर्थ :। बहिद्ध च,कोहं च,माएं च,मायं च, लोभं च पिज्जं च अर्थात्-जो अपने ही श्रम से तपः साधना द्वारा दोसं च, इञ्चेवजओ आदाणं अप्पणो पदोसहेऊ, मुक्ति प्राप्त करते हैं वे श्रमण कहलाते हैं। तओ तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सत्र कतागं सूत्र के प्रथम श्रुत्र स्कधान्तर्गत १६ सिया दंते, दविए वो सट्टकाए समणे ति वच्चे । में गाथा अध्ययन में भगवान महावीर ने साधु के सूत्र कतांग १।१६।२] माहण (बाह्मण) श्रमण, भिक्षु और निम्रन्थ ऐसे "जो साधक शरीर आदि में आसक्ति नहीं चार नामों का वर्णन किया है। रखता, किसी भी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं इन शब्दों पर महान टीकाकारों ने निम्न प्रकार करता, किसी भी प्राणो की हिंसा नहीं करता, टीकाए की है: झूठ नहीं बोलता, मैथुन और परिग्रह के "माहणति प्रवृत्तिर्यस्य असौ माहनः ।" विकार से अपने को दूर रखता है, क्रोध, मान, माया लोभ, राग द्वष आदि जितने भी 'कर्मादान' और (आचार्य शीलांक, सूत्र कृतांग वृति १-१६) आत्मा को पतन मागे पर ले जाने वाले कारण हैं अर्थात्-किसी भी प्राणी का हनन नहीं करो, यह उन सबसे निवृत रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों प्रवृत्ति है जिसकी वह माहण है। का विजेता है, संयमो है, मोक्ष मार्ग का सफल यात्री "यः शास्त्रनीत्या तपसा कर्भ भिनत्ति स भिक्षः।” है तथा शरीर के मोह ममत्व से रहित है वह श्रमण (आचार्य हरिभद्र सरि दशौकालिक वृत्ति दशम कहलाता है।" अध्ययन) ___ भगवान ने साथ ही उत्तराध्ययन सूत्र में यह भी अर्थात्-जो शास्त्र की नीति के अनुसार तपः फरमाया है किःसाधना के द्वारा कर्म बन्धनों का नाश करता हैं, न वि मुडिएण समणो। वह भिक्षु है। समयाए समणो होइ॥ Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म IND OIL ID IS SATTIMIDCOMHILD TRUMDIHINDIll RISGAIB TAMIntellultisdilirilladil bilm dil u te IT HAS वाम अर्थात्-केवल मुडित हो जाने मात्र से ही करता है, उसे पापों का शमन को होने से श्रमण कोई श्रमण नहीं होता किन्तु समता की साधना से कहते हैं। ही श्रमण कहलाता है। ___उपरोक्त विवेचन से श्रमण संस्कृति की महानता ___ सुप्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रन्थ “धम्म पद" में तथागत् और उच्चता स्वर सिद्ध है। यदि यह कह दिया भगवान बुद्ध ने 'श्रमण' शब्द पर निम्न प्रकार जाय तो सर्व प्रकारेण विशेष उपयुक्त होगा कि प्रकाश डाला है: "भारतीय संस्कृति की आत्मा श्रमणसंस्कृति है।" न मुन्ड केन समणो अव्यतो अलिक भणं। इसी श्रमण संस्कृति को जैन धर्म ने अपने साधुओं इच्छालोभ समापन्नो समणो कि भविस्सति ||६ के लिये प्ररूपण किया और इसी महान उच्च अर्थात्-जो व्रतहीन है, मिथ्या भाषी है, वह संस्कृति का अनुशीलन करने से ही आज जैन श्रमण मुन्डित होने मात्र से ही श्रमण नहीं होता। इच्छा अपनो साधुचर्या के लिये जम श्रमण भारतवर्ष को लोभ से भरा मनुष्य क्या श्रमण बनेगा? ही नहीं समस्त विश्व के संत समाज में विशिष्ट एवं योवो च समेति पापानि अणु थूलानी सच्चसो। अनुपमेय बने हुए हैं । और ऐसे महान संतों के समितत्ता हि पापानं समणाति पवुन्चति ॥?॥ संरक्षण में चलने वाले जैन धर्म का पर्यायवाची अर्थात्-जो छोटे बड़े सभी पापों का शमन नाम 'श्रमण धर्म' बन गया है श्रमण-धर्म ["श्रमण-धर्म" के सम्बन्ध में जैनसमाज के महान्-श्रद्धय संत कविवर उपाध्याय मुनिराज श्री अमरचन्दजी महाराज ने अपने "श्रमण सत्र" प्रन्थ में अति गवेषणापूर्ण विवेचन दिया है-हम उसे ही यहां उद्धृत करना विशेष उपयुक्त मान कर 'लेखक' के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वह लेख यहाँ उद्धृत करते हैं। • लेखक ] __ श्रावक-धर्म से आगे की कोटि साधु-धर्म की है। श्राकाश । इस जड़ आकाश में तो मक्खी मच्छर साधु-धर्म के लिए हमारे प्राचीन आचार्यों ने आकाश भी उड़ लेते हैं, परन्तु संयम-जीवन की पूर्ण पवित्रता यात्रा शब्द का प्रयोग किया है। प्रस्तु, यह साधु. के चैतन्य आकाश में उड़ने वाले विरले ही कर्मवीर धम की यात्रा साधारण यात्रा नहीं है। आकाश में मिलते हैं। उड़ कर चलना कुछ सहज बात है ? और वह प्रा. साधु होने के लिए केवल बाहर से वेष बदल काश भी केसा ? संयम जीवन की पर्ण पवित्रता का लेना ही काफी नहीं है, यहां तो अन्दर से सारा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन श्रमण संघ का इतिहास <|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||| होता है । वह कैसा मुनि जो क्षण-क्षण में राग-द्वेष की लहरों में बह निकले। न भूख पर नियंत्रण रख सके और न भोजन पर ।” निम्ममो निरहंकारो, निःसंगो चत्त गारवो । समो य सव्वभूएसु, तसे थावरे । लाभालाभेसुद्दे दुक्खे, जीविए मरणे तथा । समो निंदा प्रसंसा VIND CHIND TANDON 1 जीवन ही बदलना पड़ता है, जीवन का समूचा लक्ष्य हो बदलना पड़ता है । यह मार्ग फूलों का नहीं काँटों का है । नंगे पैरों जलती आग पर चलने जैसा दृश्य है साधु-जीवन का ! उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है कि - 'साधु होना लोहे के जौ चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, कपड़े के थैले को हवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तौलना है, और महा समुद्र को भुजाओं से तैरना है। इतना ही नहीं तलवार की नग्न धार पर नंगे पैरों चलना है ।' वस्तुतः साधु-जीवन इतना ही उम्र जीवन है । वीर, धीर, गम्भीर, एवं साधक ही इस दुर्गम पथ पर चल सकते हैं - 'तुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो बदिन्त ।' जो लोग कायर है, साहसहीन हैं, वासनाओं के गुलाम हैं, इन्द्रियों के चक्कर में हैं, और दिन-रात इच्छाओं की लहरों के थपेड़े खाते रहते हैं, वे भला क्यों कर इस तुर-धारा के दुर्गम पथ पर चल सकते हैं ? साधु-जीवन के लिए भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है - " साधु को ममतारहित, निरहंकार, निःसंग, नम्र और प्राणिमात्र पर समभावयुक्त रहना चाहिए। लाभ हा या हानि हो, सुख हो या दुःख हो, जीवन हो या मरण हो, निन्दा हो या प्रशंसा हो, मान हो, या अपमान हो, सर्वत्र सम रहना ही साधुता है। सच्चा मुनि न इस लोक में सक्ति रखता है और न परलोक में । यदि कोई विरोधी तेज कुल्हाड़े से काटता है या कोई भक्त शीतल एवं सुगन्धित चन्दन का लेप लगाता है, मुनि को दोनों पर एक जैसा ही समभाव रखना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat समो माणवमाणओ । अणि इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ । वासी चन्द्रकपीय, असणे अणसणे तदा ॥ - उत्तरा० १६, ८६, ६२ भगवान महावीर की वाणी के अनुसार मुनिजीवन न रागका जीवन है और न द्वेष का । वह तो पूर्ण रूपेण समभाव एवं तटस्थ वृत्ति का जीवन है । मुनी विश्व के लिये कल्याण एवं मंगल को जीवित मूर्ति है। वह अपने हृदय के कण कण में सत्य और करुणा का अपार अमृत सागर लिये भूमण्डल पर विचरण करता है, प्राणी मात्र को विश्व मैत्री का अमर सन्देश देता है । वह समता के ऊंचे आदर्शों पर विचरण करता है । अपने मन, वाणी एवं शरीर पर कठोर नियंत्रण रखता है । संसार की समस्त भोग वासनाओं से सर्वथा अलिप्त रहता है और क्रोध, मान, माया एवं लोभ को दुर्गन्ध से हजार २ कोस की दूरी से बचकर चलता है । www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण धम UNIDIO HD COIN INDINITIDINDIAN DRILLED INHIDAIL.HIDDIIN:UIDAOID:10-11AJDHARISHISHMD GLISH DIRU HIDINDOMHI देवाधिदेव श्रमण भगवन्त महावीर ने उपर्युक्त है। इसी प्रकार तीन मास की दीक्षा वाला असुरकुमार पूर्ण त्याग मार्ग पर चलने वाले मुनियों को मेरु पर्वत देवों के सुख को, चार मास की दीक्षा ग्रह, नक्षत्र एवं के समान अप्रकंप, समुद्र के समान गम्भीर, चन्द्रमा ताराओं के सुख को, पाँच मास की दीक्षा वाला के समान शीतल, सूर्य के समान तेजस्वी और पृथ्वी ज्योतिष्क देव जाति के इन्द्र चन्द्र एवं सूर्य के सुख के समान सर्वसह कहा है। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय को, छः मास की दीक्षा वाला सौधर्म एवं ईशान श्रु तस्कन्धान्तर्गत दूसरे क्रिया स्थान नामक अध्ययन देवलोक के सुख को, सात मास को दीक्षा वाला में मुनि-जीवन सम्बन्धी उपमानों की यह लम्बी सनत्कुमार एव माहेन्द्र देवों के सुख को, आठ मास श्रृंखला, आज भी हर कोई जिज्ञासु देख सकता है। की दीक्षा वाला ब्रह्मलोक एवं लांतक देवों के सुख का, इसो अध्ययन के अन्त में भगवान ने मुनि जीवन को नवमास की दीक्षा वाला आनन्त एवं प्राणत देवों के एकान्त पण्डित, आर्य, एकान्तसम्यक, सुमुनि एका सब सुख को, दश मास की दीक्षा वाला आरण एवं अच्युत दुःखों से मुक्त होने का मागे बताया है । 'एस ठाणे देवों के सुख को, ग्यारह मास की दोक्षा वाला नव बायरिए जाव सव्वदुःखपहीण मग्गे एगंतसम्मे प्रवेयक देवों के सुख को तया बारह मास की दीक्षा सुसाहू ।' वाला श्रमण अनुत्तरोषपातिक देवों के सुख को भगवती-सूत्र में पाँच प्रकार के देवों का वर्णन अतिक्रमण कर जाता है।" -भग० १४, ६ । है। वहाँ भगवान महावीर ने गौतम गणवर के प्रश्न पाठक देख सकते हैं-भगवान महावीर की दृष्टि का समाधान करते हुए मुनियों को साक्षात् भगवान् में साधुजीवन का कितना बड़ा महत्व है ? बारह एवं धर्मदेव कहा है। वस्तुतः मुनि, धर्म का जीता- महीने की कोई विराट साधना होती है ? परन्तु यह जागता देवता ही है । 'गोयमा ! जे इमे अणगारा शुदकाल की साधना भी यदि सच्चे हृदय से की भगवन्तों इरियासमिया..... "जाव गुत्तवभयारी, से जाय तो उसका आनन्द विश्व के स्वर्गीय सुख तेण?ण एवं वुच्चइ धम्मदेवा।' साम्राज्य से बढ़ कर होता है। सर्व श्रेष्ठ अनुत्तरो-भग० १२ श० उ०। पपातिक देव भी उसके समक्ष हतप्रभ, निस्तेज एवं भगवती-सूत्र के १४ वे शतक में भगवान महावीर निम्न हैं । साधुता का दभ कुछ और है, और सच्चे ने साधुजीवन के अखण्ड आनन्द का उपमा के द्वारा साधुत्व का जीवन कुछ और ! सच्चा साधु भूमण्डल एक बहुत ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है । गणधर पर साक्षात् भगवत्स्वरूप स्थिति में विचरण गौतम को सम्बोधित करते हुए भगवान कह रहे हैं- करता है। स्वर्ग के देवता भी उस भगवदारमा के "हे गौतम ! एक मास की दीक्षा वाला श्रमण निन्थ चरणों की धूल की मस्तक पर लगाने के लिए तरसते वानव्यन्तर देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है। वैष्णव कवि नरसी महता कहता हैहै। दो मास की दीक्षा वाला नागकुमार आदि आपा मार जगत में बैठे नहिं किसी से काम, भवनवासी देवों के सुम्ब को अतिक्रमण कर जाता उनमें तो कुछ अन्तर नाही, संत कहा चाहे राम, Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास २४ DOIMILUND GIVIND-MUHMIND THDAIIIOHID-dimitoduIL INDI|011D CITY DOTI ID-III.11to-dIITHILD AIIMHDCHIRIDDHADKA हम तो उन संतन के हैं दास, के लिए अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता जिन्होंने मन मार लिया। है । जैन-साहित्य में मुनि जीवन सम्बन्धी आचारसन्त कबीर ने भी मुनि को प्रत्यक्ष भगवान रूप विचार का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। कहा है और कहा है कि मुनि की देह निराकार को ऐसा सूक्ष्म एवं नियम-बद्ध वर्णन अन्यत्र मिलना आरसी है, जिसमें जो चाहे वह अलख को अपनी असंभव है । यही कारण है कि आज के युग में जहाँ आँखों से देख सकता है। दूसरे संप्रदाय के मुनियों का नैतिक पतन हो गया निराकार की आरसी, साधू ही की देह, है, किसी प्रकार का संयम ही नहीं रहा है, वहाँ जैन लख जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह। मुनि अब भी अपने संयम-पथ पर चल रहा है। सिक्ख सम्प्रदाय के गुरु अर्जुन देव ने कहा है आज भी उसके संयम-जीवन की झाँकी के दृश्य कि मुनि की महिमा का कुछ अन्त ही नहीं है, आचारांग, सूत्र कृतांग एवं दशवकालिक आदि सत्रों सचमुच वह अनन्त है बेचारा वेद भी उसकी महिमा में देखे जा सकते हैं । हजारों वर्ष पुरानी परपरा को का क्या वर्णन कर सकता है। निभाने में जितनी दृढ़ता जैन-मुनि दिखा रहे है, साधू की महिमा वेद न जाने, उसके लिए जैन-सत्रों का नियमबद्ध वर्णन ही नेता सुनै तेता बखाने। धन्यवाद का पात्र है। साधू की सोभा का नहिं अन्त, आगम-साहित्य में जैन-मुनि की नियमोपनियम साधू की सोभा सदा बे-अन्त। सम्बन्धी जीवनचर्या का अतीव विराट एवं तलस्पर्शी । आनन्दकन्द व्रजचन्द्र श्री कृष्णचन्द्र ने भागवत वर्णन है । विशेष जिज्ञासुओं को उसी आगम-साहित्य में कहा है-सन्त ही मनुष्यों के लिए देवता हैं । वे से अपना पवित्र सम्पर्क स्थापित करना चाहिए । यहाँ ही उनके परम बान्धव हैं। सन्त ही उनकी आत्मा हम संक्षेप में पाँच महाव्रतो१ का परिचय मात्र दे है। बल्कि यह भी कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी रहे हैं । आशा है, यह हमारा क्षुद्र उपकम भी पाठकों कि सन्त मेरे ही स्वरूप है, अर्थात भगवत्स्वरूप हैं। की ज्ञान वृद्धि एवं सच्चरित्रता में सहायक हो देवता बान्धवाः सन्तः, सकेगा। सन्त आत्माअहमेव च । अहिंसा महाव्रत -भाग० ११ । २६ ॥३४ । मन, वाणी एवं शरीर से काम, क्रोध, लाभ, जैन-धर्म में साधू का पद बड़ा ही महत्वपूर्ण है। १-आचरितानि महभिर, आध्यात्मिकविकास क्रम में उसका स्थान छठा गुण ___ यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्थान है, और यहाँ से यदि निरन्तर ऊर्ध्वमुखी स्वयमपि महान्ति यस्मान विकास करता रहे तो अन्त में वह चौदहवे गुणस्थान महाव्रतानीत्यतस्तानि ॥ की भूमिका पर पहुँच जाता है और फिर सदा काल -आचार्य शुभचन्द्र Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धम Hallline til diiiiit lite Cup D मोह तथा भय आदि की दूषित मनोवृत्तियों के साथ किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक आदि किसी भी प्रकार को पीड़ा या हानि पहुँचाना, हिंसा है। केवल पीड़ा और हानि पहुँचाना ही नहीं उसके लिए किसी भी तरह की अनुमति देना भी हिंसा है। किंबहुना, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से किसी भी प्राणी को हानि पहुँचाना हिंसा से बचना अहिंसा है महापुरुषों द्वारा आचरण में लाए गये हैं. महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन करते हैं, और स्वयं भी त्रटों में सर्व महान् हैं, अतः मुनि के श्रहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहे जाते हैं । योग-दर्शन के साधन - दाद में महाव्रत की व्याख्या के लिए ३१ वाँ सूत्र है - 'जातिदेशकालसमयान वच्छिन्ना महाव्रतम् ।' इसका भावार्थ है-जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य नियम महाव्रत कहलाते हैं । जाति द्वारा संकुचित - गौश्रादि पशु अथवा ब्राह्मण की हिंसा न करना । समय द्वारा संकुचित - देवता अथवा ब्राह्मण आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए हिंसा करना, अन्य प्रयोजन से नहीं। समय का अर्थ यहाँ प्रयोजन है । २५ पालन करना महात्रा है । इस प्रकार की संकीर्णता से रहित सब जातियों के लिए सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा अहिंसा, सत्य आदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जैन मुनि अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है । देश द्वारा संकुचित - गंगा, हरिद्वार आदि तीर्थ वह मन, वाणी और शरीर में से हिंसा के तत्वों को भूमि में हिंसा नकरना । निकाल कर बाहर फेंकता है, और जीवन के कण-कण काल द्वारा संकुचित - एकादशी, चतुर्दशी आदि में अहिंसा के अमृत का संचार करता है। उसका तिथियों में दिखा नहीं करना । चिन्तन करुणा से ओत-प्रोत होता है, उसका भाषण दया का रस बरसाता है, उसकी प्रत्येक शारीरिक प्रवृति में अहिंसा की झनकार निकलती है। वह अहिंसा का देवता है । हिंसा भगवती उसके लिए ब्रह्म के समान उपास्य हैं। हिंस्य और हिंसक दोनों के कारण के लिए ही वह हिंसा से निवृत्ति करता है, अहिंसा का प्रण लेता है । सब काल में सब प्रकार हिंसा और हिंसा की आधार भूमि अधिकतर भावना पर आधारित है । मन में हिंसा है तो बाहर में हिंसा हो तब भी हिंसा है, थौर हिंसा न हो तब भी हिंसा है। और यदि मन पवित्र है, उपयोग एवं विवेक के साथ प्रवृत्ति है तो बाइर में हिंसा होते हुए भी श्रहिंसा है। मन में द्वेष न हो, घृणा न हो, अपकार की भावना न हो, अपितु प्रेम हो करुणा की भावना हो, कल्याण का संकल्प हो तो शिक्षार्थ उचित ताड़ना देना, रोग निवारणार्थकटु औषधि देना सुधारार्थ या प्रायश्चित्त के लिए दण्ड देना हिंसा नहीं है । परन्तु जब ये ही द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि की दूषित वृत्तियों से मिश्रित हों तो हिंसा हो जाती है । मन में किसी भी प्रकार का दूषित भाव लाना हिंसा है। यह दूषित भाव अपने मन में हो, अथवा संकल्प पूर्णक अपने निमित्त से किसी दूसरे के मन में पैदा किया हो, सर्वत्र हिंसा है। इस हिंसा से बचना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है । www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास dilionilip OLITINPANIPATHBUIDAIMiDallimilitied Dalititilitp duIPIND OUTHITADIUIIIIIIDOHDAIINDIADRIDAIDAM से सब प्राणियों के प्रति चित्त में अणुमात्र भी द्रोह जैन साधु न कच्चा जल पीता है, न अग्नि का स्पर्श म करना ही अहिंसा का सच्चा स्वरुप है। और इम करता है, न सचित्त वनस्पति का ही कुछ उपयोग स्वरुप को जैन-मुनि न दिन में भन्नता है और न रात करता है । भूमि पर चलता है तो नंगे पैरों चलता में, न जगते में भूलता है और न सोते में, न एकान्त है, और आगे साढ़े तीन हाथ परिमाण भूमि को में भूलता है और न जन समूह में । देखकर फिर कदम उठाता है। मुख के उष्ण श्वास __ जैन-श्रमण की अहिंसा, व्रत नहीं महावत है। से भी किसी वायु आदि सूक्ष्म जीव को पीड़ा न महावत का अर्थ है महान् वृत, महान् प्रण । उक्त पहुँचे, इसके लिए मुख पर मुखवत्रिका का प्रयोग महावत के लिए भगवान महावीर 'सव्वाओ पाणाइ- करता है। जन साधारण इस क्रिया काण्ड में एक वायो विरमण' शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसका विचित्र अटपटेपन की अनुभूति करता है। परन्तु अर्थ है मन वचन और कर्म से न स्वयं हिंसा करना, अहिंसा के साधक को इस में अहिंसा भगवती के न दूसरों से करवाना और न हिंसा करने वाले दूसरे सूक्ष्म रूप की झाँको मिलती है। लोगों का अनुमोदन ही करना । अहिंसा का यह सत्य महाव्रत कितना ऊचा आदश है ! हिसा को प्रवेश करने के वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही सत्य है। उक्त सत्य लिए कहीं छिद्रमात्र भी नहीं रहा है । हिंसा तो क्या, का शरीर से काम में लाना शरीर का सत्य है, हिंसा की गन्ध भी प्रवेश नहीं पा सकती। वाणी से कहना वाणी का सत्य है, और विचार में __एक जनाचाय ने बालजावो को हिसा का मम लाना मन का सत्य है । जो जिस समय जिसके समझाने के लिए प्रथम महायत के ८१ भंग वर्णन लिए जैसा यथार्थ रूप से करना, कहना एवां समझना किये हैं। प्रवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, चाहिए, वही सत्य है। इनके विपरीत जो भी त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्विय, और पंचेन्द्रिय-ये नौ प्रकार सांचना, समझना, कहना और करना है, वह असत्य के संसारी जीव हैं। उनकी न मन से हिंसा करना है। न मन से हिंसा कराना, न मन से हिंसा का अनुरोदन सत्य, अहिंसा का ही विराट रूपान्तर है । सत्य करना । इस प्रकार २७ भंग होते हैं। जो बात मन का व्यवहार केवल वाणी से ही नहीं होता है, जैसा के सम्बन्ध में कही गई है, वही बात वचन और कि सर्ग-साधारण जनता समझता है। उसका मूल शरीर के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिये । हां, उद्गम-स्थान मन है। अर्थानुकूल वाणी और मन तो मन के २७, वचन के २७, और शरीर के २७, का व्यवहार होना ही सत्य है। अर्थात् जैसा देखा सब मिल कर ८१ भंग हो जाते हैं। हो, जैसा मुना हा, जैसा अनुमान किया हा, पैसा जैन साधु की अहिंसा का यह एक संक्षिप्त एवं ही वाणी से कथन करना और मन में धारण करना, लघुतम वर्णन है। परन्तु यह वर्णन भी कितना सत्य है। वाणी के सम्बन्ध में यह बात अवश्य महान और विराट है ! इसी वर्णन के आधार पर ध्यान में रखनी चाहिए कि केवल सत्य कह देना ही Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमगा-धर्म HIDHI10 111DDHILDREATERIAL INX HAT H KADHIX. MilliAZAESOHITENISTIALA सत्य नहीं है, अपितु सत्य कोमल एवं मधुर भी होना अहिंसा का स्वर गूंजता है । जैन-मुनि के लिए हँसी चाहिये । सत्य के लिए अहिंसा मूल है । अतः में भी झूठ बोलना निषिद्ध है। प्राणों पर संकट यथाथ ज्ञान के द्वाग यथार्थ रूप में अहिंसा के लिए उपस्थित होने पर भी सत्य का आश्रय नहीं छोड़ा जो कुछ विचारना, कहना एवं करना है, वही सत्य जा सकता । सत्य महाप्रती की वाणी में अविचार, है : दूसरे व्यक्ति को अपने बोध के अनुसार ज्ञान अज्ञात, क्रोध, मान, माया लाभ, परिहास आदि कराने के लिये प्रयुक हुई वाण धोखा देने वाली किसी भी विकार का अंश नहीं होना चाहिए । यही और भान्ति में डालने वाली न हो, जिससे किसी कारण है कि मुनि दूर से पशु आदि को लैंगिक दृष्टि प्राणी को पीड़ा तथा हानि न हो, प्रत्युत सब प्राणियों स अनिश्चय हाने पर सहसा कुत्ता, बैल, पुरुष आदि के उपकार के लिए हा, वहां श्रेप्ड सत्य है। जिस के रूप में निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता। ऐसे प्रसंगों वाली में प्राणियों का हिन न हो, प्रत्युत प्राणियों का पर वह कुत्ते की जाति, वल की जानि, मनुष्य की नाश ह ता वह मत्य होते हुए भी मत्य नहीं है। जाति, इत्यादि जातिपरक भाषा का प्रयोग करता है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति द्वेष से दिल इसी प्रकार यह ज्यातिष, भन्त्र, तन्त्र आदि का भी दुखाने के लिए अन्धे को तिरस्कार के साथ अन्धा उपयोग नहीं करता । ज्योतिष आदि की प्ररूपणा में कहना है ना यह अमत्य है, क्योंकि यह एक हिंसा भी हिंसा एवं असत्य का संमिश्रण है। है। और जहाँ हिंसा है, वह सत्य भी असत्य है, जैन-मु न जब भी बोलता है, अनेकान्तवाद को क्योंकि हिमा सदा असत्य है। कुछ अविवेकी पुरुष ध्यान में रखकर बोलता है। वह 'ही' का नहीं, दूसरे के हृदय को पीड़ा पहुंचाने वाले दुर्य चन कहने भी' का प्रयोग करता है। अनेकान्तवाद का लक्ष्य में ही अपने सत्यवादी होने का गव करते हैं, उन्हें रखे विना सत्य की वास्तविक उपासना भा नहीं हो ऊपर के विवेचन पर ध्यान देना चाहिए। सकती। जिस वचन के पीछे 'स्यात्' लग जाता है। ___जन-श्रमण सत्यव्रत का पूर्णरूपेण पालन करता वह असत्य भी सत्य हो जाता है । क्योंकि एकान्त है, अतः उस हा सत्य महाव्रत कह ।ता है। वह मन, असत्य है, और अनेकान्त सत्य । स्यात् शब्द वचन और शरीर से न स्वय अपत्य का आचरण अनेकान्त का द्योतक है, अतः यह एकान्त को अनेकांत करता है, न दूसरे से करवाता है, और न कभी बनाता है, दूसरे शब्दों में कहे तो असत्य को सत्य असत्य का अनुमोदन ही करता है। इतना ही नहीं, बनाता है। प्राचार्य सिद्धसेन की दार्शनिक एवं किसी तरह का सावध वचन भी नहीं चलता है। आलंकारिक वाणी में यह म्यात् वह अमाध स्वर्णरस पापकारी वचन वालना भी अमत्य ही हैं। अधिक है, जो लोहे को साना बना देता है। 'नधास्तव बोलने में असत्य की प्राश का रहनी है, अतः जैन- स्यात्पदनान्छिता इमे, रसोपदिग्ध इव लोहधातवः ।' श्रमण अन्यन्त मितभापी होता है। उसके प्रत्येक एक आचार्य सत्य महात्रत के ३६ भंगों का वचन से स्व-पर कल्याण की भावना टपकती है, निरूपण करते है । क्रोध, लोभ, भय और हास्य इन Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ जैन श्रमण संघ का इतिहास AID ID TIRIDhupa||||1DDINDAINID MiDalitsup HD mp gitilipithiliDitDAUDDIDARATHI चार कारणों से झूठ बोला जाता है। अस्तु, उक्त (४) मिल और फैक्ट्रियों के लोभी मालिक, चार कारणों से न स्वयं मन से असत्थरण करना, जो मजदूरों को पेट-भर अन्न न देकर सबका सब न मन से दूसरों से कराना, न मन से अनुमोदन नफा स्वयं हड़प जाते हैं। करना, इस प्रकार मनोयोग के १२ भंग हो जाते हैं। (१) लोभी साहूकार, जो दूना-तिगुना सूद लेते इसी प्रकार वचन के १२ और शरीर १२, सब मिल हैं और गरीब लोगों की जायदाद आदि अपने T म महावत के ३६ भंग होते हैं। अधिकार में लाने के लिए सदा सचिन्त रहते हैं। अचौर्य महाव्रत (६) धूर्त व्यापारी, जो वस्तुओं में मिलावट करते श्रचौर्य, अस्तेय एवं अदत्तादानविरमण सब हाचत मूल्य से ज्यादा दाम लेते हैं, और कम एकार्थक है। अचौर, अहिंसा और सत्य का ही तालते हैं। विराट रूप है। केवल छिपकर या बलात्कार-पूर्वाक (७) घुसखोर न्यायाधीश तथा अन्य अधिकारी किसी व्यक्ति की वस्तु एवं धन का हरण कर लेना गण, जो वेतन पाते हुए भी अपने कर्तव्य-पालन में ही स्तेय नहीं है, जैसा कि साधारण मनुष्य समझते प्रमाद करते हैं और रिश्वत लेते हैं । हैं। अन्यायपूर्वक किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का (८) लोमी वकील, जो केवल फीस के लोभ से अधिकार हरण करना भी चोरी है। जैन-धर्म का झूठे मुकदमे लहाते हैं और जानते हुए भी निरपराध यदि हम सूक्ष्म निरीक्षण करें तो मालूम होगा कि लोगों को दण्ड दिलाते हैं । भख से तंग आकर उदरपूर्त के लिए चोरी करने वाले (६ लोभी वैद्य, जो गोगी क्ता ध्यान न रखकर निर्धन एवं असहाय व्यक्ति स्तेय पाप के उतने केवल फीस का लोभ रखते हैं और ठीक औषधि नहीं अधिक अपराधी नहीं हैं जितने कि निम्न श्रेणी के देते हैं। बड़े माने जाने वाले लोग। (१०) वे सब लोग, जो अन्याय पूर्वक किसी भी (१) अत्याचारी राजा या नेता, जो अपनी अनुचित रीति से किसी व्यक्ति का धन, वस्तु समय, प्रजा के न्यायप्राप्त राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रम और शक्ति का अपहरण एवं अपव्यय करते हैं। तथा नागरिक अधिकारों का अपहरण करता है। अहिंसा, सत्य एवं अचगैर्य व्रत की साधना करने (२) अपने को धर्म का ठेकेदार समझने वाले वालों को उक्त सब पाप व्यापारों से बचना है, संकीर्ण हृदय, समृद्धिशाली, ऊँची जाति के सवर्ण अत्यन्त सावधान से बचना है। जरासा भी यदि लोंग; भ्रान्तिवश जो नीची जाति के कहे जाने वाले कहीं चोरी का छेद होगा तो आत्मा का पतन अवश्यनिधन लोगों के धार्मिक, सामामिक तथा नागरिक भावी है । जैन-गृहस्थ भी इस प्रकार को चोरी से अधिकारों का अपहरण करते हैं। बचकर रहता है, और जन-श्रमण तो पूर्णरूप से (३) लोभी जमींदार, जो गरीब किसानों का चोरी का त्यागी होता ही है। वह मन, वचन और शोषण करते हैं, उन पर अत्याचार कर हैं। कर्म से न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है, न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म !!!! माGH !!!!! दूसरों से करवाता है, और न चोरी का अनुमोदन ही करता है। और तो क्या, वह दाँत कुरेदने के लिये तिनका भी बिना आज्ञा ग्रहण नहीं कर सकता है । यदि साधु कहीं जंगल में हो, वहाँ तृण, कंकर, पत्थर अथवा वृक्ष के नीचे छाया में बैठने और कहीं शौच जाने की आवश्यकता हो तो शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे इन्द्रदेव की ही आज्ञा लेनी होती है। अभिप्राय यह है कि बिना आज्ञा के कोई भी वस्तु न प्रहण की जा सकती हैं और न उसका क्षणिक उपयोग ही किया जा सकता है । पाठक इसके लिए अत्युक्ति का भ्रम करते होंगे। परन्तु साधक को इस रूप में व्रत पालन के लिए सतत जागृत रहने की स्फूर्ति मिलती है । व्रतपालन के क्षेत्र में तनिक सा शैथिल्य (ढील) किसी भी भारी अनर्थ का कारण बन सकता है। आप लोगों ने देखा होगा कि तम्बू की प्रत्येक रस्सी खूंटे से कर बॉधी जाती है। किसी एक के भी थोड़ी सो ढीली रह जाने से जाने की सम्भावना बनी रहती है । तम्बू में पानी आ अस्तु, अचौर्य व्रत को रक्षा के लिए साधु को बार-बार आज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास रखना चाहिए । गृहस्थ से जो भी चीज ले, आज्ञा से ले । जितने काल के लिए ले, उतनी देर ही रक्खे, अधिक नहीं । गृहस्थ आज्ञा भी देने को तैयार हो, परन्तु वस्तु यदि साधु के ग्रहण करने के योग्य न हो तो न ले। क्योंकि ऐसी वस्तु लेने से देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान की चोरी होती है। गृहस्थ थाज्ञा देने वाला हो, वस्तु भी शुद्ध हो, परन्तु गुरुदेव की आज्ञा न ही तो फिर भो प्रहण न करे। क्योंकि शास्त्रानुसार यह गुरु अदन हैं, श्रथात् गुरु की है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat एक प्राचार्य तीसरे अचौर्य महात्रत के ५४ भंगों का निरूपण करते हैं । अल्प = थोड़ी वस्तु, चहु = अधिक वस्तु, अणु = छोटी वस्तु, स्थूल वस्तु, सचित्त = शिष्य आदि, अचित्त = वस्त्र पात्र बादि उक्त छः प्रकार की वस्तुओं की न स्वयं मन से चोरी करे, न मन से चोरी कराए, न मन से अनुमोदन करे। ये मन के १८ भंग हुए। इसी प्रकार वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलाकर ५४ भंग होते हैं। ौर्य महात्रत के साधक को उक्त सब भंगों का दृढ़ता से पालन करना होता है । ब्रहृमचर्य महात ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यास्मिक शक्ति है । शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी ब्रह्मचर्य पर निर्भर है । ब्रह्मचर्य वह आध्यात्मिक स्वाथ्य है, जिसके द्वारा मानव-समाज पूर्ण सुख और शान्ति को प्राप्त होता है । ब्रह्मचय की महता के सम्बन्ध में भगवान महावीर कहते हैं कि देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी दैवी शक्तियाँ ब्रह्मचारी के चरणों में प्रणाम करती हैं, क्योंकि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी ही कठोर साधना है । जो ब्रह्मचर्य की साधना करते हैं, वस्तुतः वे एक बहुत बड़ा दुष्कर कार्य करते हैं - देवदारणव-गंध जक्ख रक्खस- किन्नरा | भयारिं नमसति, दुक्करं जे करेंति ते ।। --- उत्तराध्ययन सूत्र www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास ३० DADup UID ID all IIMSCITUIIIIIDIIIIIIIIII H INDI DIMilitab IIIMIDDITIELITD-CITHIBillm भगवान महावीर की उपयुक्त वाणी को आचार्य का निरोध करना भी आवश्यक है। वह जितेन्द्रिय श्री शुभचन्द्र भी प्रकारान्तर से दुहरा रहे हैं- साधक ही पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सकता है, जो ब्रह्मचर्य एकमेव व्रतं श्लाध्यं, के नाश करने वाले उत्तेजक पदार्थों के खाने, ब्रह्मचर्य जगत्त्रये । कामोद्दीपक दृश्यों के देखने, और इस प्रकार की यद्-विशुद्धि समापन्नाः, वार्ताओं के सुनने तथा ऐसे गन्दे विचारों को मन पूज्यन्ते पूजितैरपि ॥ में लाने से भी बचता है। -ज्ञानार्णव आचार्य शुभचन्द्र ब्रह्मचर्य की साधना के लिए बह्मचर्य की साधना के लिए काम के वेग को निम्नलिखित दश प्रकार के मैथुन से विरत होने का रोकना होता है। यह वेग बड़ा ही भयंकर है। जब उपदेश देते हैंआता है तो दड़ी से बड़ी शक्तियाँ भी लाचार हो (१) शरीर का अनुचित संस्कार अर्थात् कामोत्तेजक जाती हैं । मनुष्य जब वासना के हाथ का खिलौना श्रृगार आदि करना। बनता है तो बड़ी दयनीय स्थिति में पहुँच जाता है। (२) पौष्टिक एवं उत्तेजक रसों का सेवन करना । वह अपनेपन का कुछ भी भान नहीं रखता, एक (३) वासनामय नृत्य और गीत आदि देखना, सुनना। प्रकार से पागल-सा हो जाता है। धन्य हैं वे महा- (४) स्त्री के साथ संसर्ग =घनिष्ठ परिचय रखना । पुरुष, जो इस वेग पर नियंत्रण रखते हैं और मन (५) स्त्री सम्बन्धी संकल्प रखना। को अपना दास बना कर रखते हैं। महाभारत में (६) स्त्री के मुख, स्तन आदि अंग-उपांग देखना । व्यास की वाणी है कि जो पुरुष वाणी के वेग को, (७) स्त्री के अंग दर्शन संबंधी संस्कार मन में रखना। मन के वेग को, क्रोध के वेग को, काम करने की (८) पूर्व भोगे हुए काम भोगों का स्मरण करना । इच्छा के वेग को, उदर (कामवासना) के वेग को (६) भविष्य के काम भोगों की चिन्ता करना । रोकता है, उसको मैं बह्मवेत्ता मुनि सगझता हूँ, (१०) परस्पर रतिकर्म अर्थात् सम्भोग करना । बाजो वेगं, मनसः क्रोध-वेगं, जैन भिक्षु उक्त सब प्रकार के मैथनों का पूर्ण ___ विधित्सा वेगमुदरोपस्थ-वेगम् । त्यागी होता है । वह मन, वचन और शरीर से न एरान वेगान् यो विपहेदुदीर्णास स्वयं मथुन का सेवन करता है, न दूसरों से सेवन तं मन्ये अहंब्राह्माणं वै मुनि च ॥ करवाता है, और न अनुमोदन ही करता है। जैन (महाभ शान्ति० २६६ | १४) भिक्षु एक दिन की जन्मी हुई बच्ची का भी स्पश नहीं ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल सम्भोग में बीर्य का कर सकता । उस के स्थान पर रात्रि को कोई भी स्त्रा नाश न करते हुए उपस्थ इन्द्रिय का संयम रखना नहीं रह सकती । भिक्षु की माता और बहन को भी ही नहीं है। ब्रह्मचर्य काक्षेत्र बहुत व्यापक क्षेत्र है। रात्रि में रहने का अधिकार नहीं है । जिस मकान में अतः उपथेन्द्रिय के संयम के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों स्त्री के चित्र हों उसमें भी भिक्ष नहीं रह सकता है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण-धर्म fulp In HDBUDIOHI10:8DGILD Dm fito ORI.SADINTIDIO IDARBIDI XII HD IM.Dili HD DID HD In यही बात साध्वि के लिये पुरुषों के सम्बन्ध में हैं। उचित पद्धति से वितरण नहीं है। किसी के पास - एक आचार्य चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत के २७ भंग सैकड़ों मकान खाली पड़े हुए है तो किसी के पास पतलाते हैं । देवता सम्बन्धीः मनुष्य-सम्बन्धी और रात में सोने के लिए एक छोटी-सी झोपडी भी नहीं तिर्यञ्च-सम्बन्धी तीन प्रकार का मैथुन है । उक्त है। किसी के पास अन्न के सैकडों कोठे भरे हुए हैं तीन प्रकार का मैथुन न मन से सेवन करना, न मन तो कोई दाने-दाने के लिए तरसता भूखा मर रहा से सेवन करवाना, न मन से अनुमोदन करना, ये है। किसी के पास संदूकों में बन्द सैंकहों तरह के मनः सम्बन्धी : भंग होते हैं । इसी प्रकार वचन के वस्त्र सड़ रहे हैं तो किसी के पास तन ढॉपने के लिए ६, और शरीर के ६, सब मिलकर २७ भंग होते हैं। भी कुछ नहीं है। आज की सुख सुविधाएँ मुट्ठी भर महाव्रती साधक को उक्त सभी भगों का निरतिचार लोगों के पास एकत्र हो गई हैं ही और शेष समाज पालन करना होता है। अभाव से ग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति ही हो अपरिग्रह महाव्रत रही है और न आध्यात्मिक । सब भोर भुखमरी की धन, सम्पत्ति, भोग-सामग्री आदि किसी भी महाचारी जनता का सर्व ग्रास करने के लिए मुह प्रकार की वस्तुओं का ममत्व-मूलक संग्रह करना फैलाए हुए है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल परिग्रह है । जब मनुष्य अपने ही भोग के लिए स्वार्थ उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा बुद्धि में आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो यह की साधन सामग्री रहे तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन परिग्रह बहुत ही भयंकर हो उठता है। आवश्यकता एवं असहाय न रहे । भगवान महावीर का अपरिग्रहकी यह परिभाषा है कि आवश्यक वह वस्तु है, जिसके बाद ही मानव जाति का कल्याण कर सकता है, बिना मनुष्य की जीवन यात्रा, सामाजिक मर्यादा एवं भूत्री जनता के आँसू पोंछ सकता है। धार्मिक क्रिया निर्विघ्नता-पूर्वक न चल सके । अर्थात भगवान महावीर ने गृहस्थों के लिए मर्या दत जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान में अपरिग्रह का विधान किया है, परन्तु भिक्ष के लिए साधन-रूप से आवश्यक हो । जो गृहस्थ इस नीति पूर्ण अपरिग्रही होने का। भिन का जीवन एक उत्कृष्ट धर्म जीवन है, अतः वह भी यदि परिग्रह के मार्ग पर चलते हैं, वे तो स्वयं भी सुखी रहते हैं और जाल में फँमा रहे तो क्या खाक धर्म की साधना जनता में भी सुख का प्रवाह बहाते हैं । परन्तु जब करेगा ? फिर गृहस्थ और भिक्ष में अन्तर ही क्या उक्त व्रत का यथार्थ रूप से पालन नहीं होता है ता रहेगा ? समाज में वड़ा भयंकर हाहाकार मचजाता है । आज जैन धर्म ग्रन्थों में परिग्रह के निम्न लिखित नौ समाज की जो दयनीय दशा है, उसके मूल में यही भेद किए हैं। गृहस्थ के लिए इनकी अमुक मर्यादा आवश्यकता से अधिक संग्रह का विष रहा हुआ है। करने का विधान है और भिक्ष के लिए पूर्ण रूप से माज मानव-समाज में जीवनोपयोगी सामग्री का त्याग करने का। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैन श्रमण संघ का इतिहास ><><>------ Holi ( १ ) १ क्षेत्र - जंगल में खेती-बाड़ी के उपयोग में आने वाली धान्य भूमि को क्षेत्र कहते हैं । यह दो प्रकार का है - सेतु और केतु । नहर, कुआ आदि कृत्रिम साधनों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु कहते हैं और केवल वर्षा के प्राकृतिक जल से सींची जाने वाली भूमि को केतु । उसके लिए विष है। और तो क्या, वह अपने शरीर पर भी ममत्व भाव नहीं रख सकता । वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि जो कुछ भी उपकरण अपने पास रखता है, वह सब संयम यात्रा के सुचारु रूप से पालन करने के निमित्त ही रखता है, ममबुद्ध नहीं । ममत्वबुद्धि से रक्खा हुआ उपकरण जैनसस्कृति (२) वास्तु- प्राचीन काल में घर को वास्तु की भाषा में उपकरण नहीं रहता, अधिकरण हो जाता है, अनर्थ का मूल बन जाता। कितना ही अच्छा सुन्दर उपकरण हो, जैन श्रमण न उस पर मोह रखता है, न अपने पन का भाव लाता है, न उसके खोए जाने पर आर्तध्यान हीं करता है। जैन मिक्षु के पास वस्तु केवल वस्तु बनकर रहती है, वह परिग्रह नहीं बनती। क्योंकि परिग्रह का मूल मोह है, मूर्च्छा है, आसक्ति है, ममत्व है, साधक के लिए यही सबसे बड़ा परिगह है । श्राचार्य शय्यंभव दशबैका लिक सूत्र में भगवान महावीर का संदेश सुनाते हैं - 'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो नाइपुतेण ताइणा।' आचार्य उमास्वाति कहते हैं - 'मूर्च्छा परिग्रहः ।' मूर्च्छा का अर्थ आसक्ति है। किसी भी वस्तु में, चाहे वह छोटी, बड़ी, जड, चेतन, बाह्म एवं आभ्यन्तर आदि किसी भी रूप में हो, अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना, उसने बंध जाना, एवं उसके पीछे पडकर अपना आत्म विवेक खो बैठना, परिग्रह है । बाह्य वस्तुओं को परिग्रह का रूप यह मूर्च्छा ही देती है । यही सबसे बड़ा विष है । अतः जैनधर्म भिक्ष के लिए जहाँ बाह्य धन, सम्पत्ति आदि परिग्रह के त्याग का विधान करता है, वहाँ ममत्व भाव आदि अन्तरंग परिह के त्याग पर भी विशेष बल देता है । अन्तरंग परिग्रह के कहा जाता था। यह तीन प्रकार का होता है - खात, उच्छ्रित और खातोच्छित । भूमिग्रह अर्थात् तलघर को 'खात' कहते हैं। नींव खोदकर भूमि के ऊपर बनाया हुआ महल आदि ' उच्छ्रित' और भूमिगृह के ऊपर बनाया हुआ भवन 'खाताच्छ्रित' कहलाता है । ( ३ ) हिरण्य - आभूषण आदि के रूप में गढी हुई तथा बिना गढ़ी हुई चाँदी । (४) सुवर्ण - गढ़ा हुआ तथा बिना गढ़ा हुआ सभी प्रकार का स्वर्ण । हीरा, पन्ना, मोती आदि जवाहरात भी इसी में अन्तभूत हो जाते हैं । (५) धन - गुड़, आदि । (६) धान्य - चावल, गेहुँ बाजरा आदि । (७) द्विपद -- दास, दासी आदि । (८) चतुष्पद - हाथी, घोड़ा, गाय आदि पशु । (६) कुप्य धातु के बने हुए पात्र, कुरसी, मेज आदि घर-गृहस्थी के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ | जैनश्रमण उक्त सब परिग्रहों का मन, बचन और शरीर से न स्वयं संग्रह करता है, न दुसरों से रवाता है और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है। पूर्णरूपेण असंग, अनासक्त, अकिंचन वृत्ति का धारक होता है। कौडीमात्र परिवद भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ MIGHT AND CHIVOly an Ahi || P त्याग पर भी विशेष बल देता है । अन्तरग परिग्रह के मुख्य रूपेण चौदह भेद है - मिध्यात्व स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काध, मान, माया और लोभ । जैन भिक्षु का आचरण अतीव उच्चकोटि का आचरण है। उसकी तुलना आस-पास में अन्यत्र नहीं मिल सकती। वह वस्त्र, पात्र आदि उपधि भी अत्यन्त सीमित एवं संयमोपयोगी ही रखता है । अपने वस्त्र पात्रादि वह स्वयं उठा कर चलता है । संग्रह के रूप में किसी गृहस्थ के यहां जमा करके नहीं छोड़ता है । सिक्का, नोट एवं चेक आदि के रूप में किसी प्रकार को भी धन संपत्ति नहीं रख करना । जैनधर्म का प्राचीन इतिहास जैन धर्म का प्राचीन इतिहास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat libalik सकता। एक बार का लाया हुआ भोजन अधिक से अधिक तीन पहर ही रखने का विधान है, वह भी दिन में ही । रात्रि में तो न भोजन रखा जा सकता है और न खाया जा सकता है। और तो क्या, रात्रि में एक पानी की बूँद भी नहीं पी सकता । मार्ग में चलते हुए भी चार मील से अधिक दूरी तक आहार पानी नहीं लेजा सकता। अपने लिए बनाया हुआ भोजन ग्रहण करता है और न वस्त्र, पात्र, मकान आदि | वह सिर के बालों को हाथ से उखाड़ता है, लोंच करता है। जहां भी जाना होता है नंगे पैरों पैदल जाता है, किसी भी सवारी का उपयोग नहीं [ 'आदि युग' तथा तीथ कर परम्परा ] जैन वैज्ञानिकों ने समय प्रवाह (काल चक्र ) को दो विभागों में विभाजित किया है- १ उत्सर्पिणी काल २ अवसर्पिण) काल अथवा उत्कष और अपकप काल । 'चक्रनेमी-क्रम' की तरह यह संसार कभी उत्कर्ष की उत्कट पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो कभी अपकप की चरम सीमा पर | उत्सर्पिणी ( उत्कर्ष ) काल के ६ उपविभाग हैं, इन्हें जैन दृष्टि अनुसार ६ 'आरे' कहते हैं - १ दुखमा दुखम २ दुखम ३ दुखमा सुखम ४ सुखमा दुखम ५ सुखम६ सुखमा सुखम। इस प्रकार उत्सर्पिणीकाल में यह संसार उत्तरोत्तर सुख की ओर बढ़ता हुआ छट्टो आरे में पूर्ण सुख को प्राप्त होता है जिसे वैदिक प्रणाली का सतयुग कह सकते हैं । इसी प्रकार अवसर्पिणी ( अपकर्ष ) काल के ६ आरे निम्न हैं- १ सुखमा सुखम २ सुखम ३ सुखमा दुखम ४ दुखमा सुखम ५ दुखम ६ दुखमा दुखम | · वर्तमान काल श्रसपिणी कालका ५ वाँ आरा 'दुखम' है। जैन मान्यतानुसार हर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में २४.०४ तीर्थ कर होते हैं और वे नई संघ व्वस्था करते हैं, जिसे 'तीर्थ परूपणा' कहा जाता है। इस तीर्थ में ४ पद होते हैं: - १ साधु ( श्रमण ) २ साध्वी ३ श्रावक और ४ श्राविका । इन्हें तीर्थ कहते हैं इन चार विभागों से युक्त संघ-संगठन की तीर्थ परुपणा याने तीर्थ स्थापना करने वाले को तीर्थ कर रूप पूजा जाता है । www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास DILD AIIMSAMVIDOIDAHIDOHITHAIDAINTS INDIRDOIII INDI D I CTIIPAHID DIII IIDOHITIS THEIDIOHINID itium जैन मान्यतानुसार ऐसी अनन्त चौबिसियां हुई है और हर आगामी काल में होती रहेंगी। वर्तमान चौवीसी के परम आराध्य तीथ कर भगवानों के शुभनाम आदि इस प्रकार हैं:-- ॥तीर्थ'करों के माता पितादिक ॥ पिता जन्म लछन वृषभ हाथी चैः कृ०८ म० शु०८ म० शु०१४ म० शु०२ प्रश्व बंदर कोंच वै० शु०८ नाभिराजा जित शत्रु जितारी सवर मेघाथ श्रीधर सुप्रतिष्ठ महासेन सुग्रीव दृढरथ नंदा विष्णु विष्णु गेंडा नाम जन्मस्थान माता १ ऋषभदेव विनीता मरुदेवी अजितनाथ · अयोध्या विजया ३ संभवनाथ सावत्थी सेन्या ४ अभिनन्दन अयोध्या सिद्धारय ५ सुमतिनाथ अयोध्या सुमंगला ६ पद्मप्रभु कौशांबी सुसीमा ७ सुपार्श्वनाथ वणारसी पृथ्वी ८ चंद्रप्रभु चंद्रपुरी लक्ष्मणा है सुविधिनाथ काकंदी श्यामा १० शीतलनाथ भदिलपुर ११ श्रेयांसनाथ सिंहपुरी १२ वासुपूज्य चंपापुरी जया १३ विमलनाथ कपिलपुर श्यामा १४ अनंतनाथ अयोध्या सुयशा १५ धमनाथ १६ शांतिनाथ हस्तिनापुर अविरा १७ कुथुनाथ हस्तिनापुर श्रीदेवी १८ अरहनाथ हस्तिनापुर श्र,देश १६ मल्लीनाथ मथुरा प्रभावती २० मुनिसुत्रत . राजग्रही पद्मावती २१ नेमिनाथ मथुरा वत्रादेवी २२ नेमिनाथ सौरीपुर शिवादेवी २३ पाश्वनाथ वणारसो वामादेवी २४ महावीर स्वामी क्षात्रियकुंड त्रिशला वसुपूज्य कृतवर्म सिंहसेन भानु विश्वसेन सूरराज an सुव्रता पदम का० कृ०१२ स्वास्तिक जे शु० १२ चंद्रमा पौ० कृ०१२ मगर म० कृ०५ श्रीवत्स मा कृ०१२ फा०० १२ भैंसा का० कृ०१४ सुअर म. शु० ३ बाज 4. कृ. १३ म० शु. ३ ज्ये कृ०१३ बकरा वै० कृ० १४ नंदावर्त म. शु. १० कुम्भ ___म. शु० १० कछुपा जै० कृ. ८ नीलकमल श्री० कृ०८ श्री० शु०५ पो० कृ. १० चै० शु० १ वज सुदर्शन कुभराज सुमित्र विजयसेन समुद्र विजय अश्वसेन सिद्धार्थ शंख सर्प सिंह Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास anupdIID 110 tita DRDOHIDISORDITION:"CINEMIE HISHIR MI IIlil MailDI IXITHILanu भगवान ऋषभदेव विवाह सम्बन्ध भी हो जाता था। सच तो यह है अनादिकालीन जगत् के जिस काल से मानत्र कि उस समय के मनुष्य बड़े भद्र स्वभावी और का सभ्यता भरा व्यवहारिक स्वरूप ज्ञात होता है पवित्र विचारों के होते थे। वहीं से 'आदि युग' माना गया है। किन्तु यह निर्मलता धीरे धीरे समाप्त होने इस 'आदि युग' के सर्व प्रथम शिक्षक जिन्होंने लगी थी, कल्प व क्षों ने भी अब मनः इच्छित फल मानव को मानवीय सभ्यता और व्यवहार की शिक्षा देना बंद कर दिया था-प्रकृति का वैभव क्षीण होने दी वे हैं 'आदिनाथ भगवान श्री ऋषभदेवजी"। लगा था । युगालियों में परस्पर कलह और असंतोप __भगवान ऋषभदेव के काल में न गांव बसे थे न बढ़ने लगा। ऐसे समय भगवान रिषभदेव ने जगत नगर । न खेती होती थी न और कोई धंधा । वह को मानव सभ्यता का नया पाठ पढ़ाया और उन्हें काल अवसर्पिणी काल के तीसरे पारे 'सुखमा दुखम' आस, मसि, कृषि प्रादि जीवनोपयोगी समस्त का समय था । 'कल्प वन' युग का अंतिम काल था शिक्षाए दी खेती द्वारा अन्न उत्पन्न करना, वस्त्र वह । यानि मनोवांछित पदार्थ प्रदान करने गले बनाil, भोजन बनाना, बर्तन बनाना, घर बनाना, कल्प वृक्षों का सुख धोरे २ लोप होने जा रहा था। आदि सभी कार्य सीखा कर स्वावलम्बी बनाने का अतः अब मानव को पुरुषार्थ का भान करना महान् प्रयत्न किया। युगलियों में जब आपस में था और इसे श्रमशील बनने का मार्ग बतानाशा। विशेष झगड़े होने लगे तो जन नायक के में यह सर्व जगत् के आद्य गुरु "भगवान ऋषभदेव" ने । र 'राजा' इनाने का निश्चय किया गया। भगवान किया। वे ही तत्कालीन कल्प वृक्षों के सुख में रिषभदव क नेतृत्व में हो सर्व प्रथम विनीता नामक अनाथ बनने जा रहे हैं जगत् के मार्ग दर्शक और नगरा बसाई गई जो आगे जाकर अयोध्या के नाम रक्षक बने इसी से संसार में 'आदिनाथ भगवान से प्रसिद्ध हुई । नाभिराजा को सर्व प्रथम 'राजा' के नाम से वे सदा काल सुविख्यात हैं और रहेंगे। माना गया। भगवान रिषभदेव के सम्बन्ध में वैदिक धर्म इस प्रकार भगवान रिषभदेव ने भोग भूमि को अन्य श्री मद् भागवत के पंचम और बारहवें स्कघ में कर्म भूमि में परिणित किया। स्त्रियों को चौसठ स्तुति पूर्ण विशेष उल्लेख है। और पुरुषों को वहत्तर कला निधान बनाया । अक्षर ___ भगवान रिषभदेव के काल को जैन धर्म में ज्ञान और लिपी विज्ञान की शिक्षा दी। इस प्रकार यालिया काल' भी कहते हैं। पुराणों में आये भगवान ने असि (शस्त्र) मसि (लेखन) और कृषि 'यम-यमी' के संवाद से भी इस जेन मान्यता का (खती) की सर्व प्रथम शिक्षा देकर इस जगत् को समर्थन मिलता है। महान संकट से उबार लिया। प्रायः एक बालक और एक बालिका जुड़वां ही एक ही माता पिता की संतान के बीच होने उत्पन्न होते थे और उनके वयस्क होने पर परस्पर वाले विवाह (युगालिया धर्म) का भी भगवान ने Tons Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैन श्रमण संघ का तहास AHINDR ही निवारण कर नवीन विवाह विधि का प्रचलन किया और स्वयं अपनी सहोदरा सुमंगला के अतिरिक्त सुनन्दा नामक अन्य कन्या से विधिवत विवाह किया। कन्या अपने सहोदर भाई के अवसान के कारण हतोत्साहित और अनाथ बन गई थी। भगवान ने अपने आदर्श गृहस्थाश्रम द्वारा जगत् को गृहस्थ-धर्म की शिक्षा दी । सुमंगला के परम तापी 'भरत' नामक पुत्र हुए। ये बड़े ही प्रतिभाशाली, और इस युग के प्रथम चक्रबर्ती हुए । इन्हीं भरत के नाम हमारा देश “भारतवर्ष” कहलाता है । सुनंदा के गर्भ से बाहुबली उत्पन्न हुए। ये महान् शूरवीर कर्मवीर और धर्मवीर थे । इन्होंने अपनी महान् तपस्या से जगत् का चमत्कृत किया था। भरत और बाहुबली सिवाय भगवान के अट्ठानवें और पुत्र थे यानि कुल सौ पुत्र और ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की २ कन्याएं थीं। भगवान ने ब्राह्मी को प्रथम लिपि का ज्ञान प्रदान किया था इसीसे "ब्राह्मी लिपि" प्रसिद्ध है । प्रजा के संगठन को सुव्यस्थित बनाने हेतु से वर्ण व्यवस्था भी उसी काल में हुई। परन्तु उनमें भी कर्म की ही प्रधानता रक्खी गई। इस प्रकार भगवान रिषभदेव ने जीवनोपयोगी साधनों के उत्पादन की, सामाजिक प्रथाओं की राजनैतिक रीति नीतियों की सामाजिक प्रथाओं आदि आवश्यक बातों की सुन्दर व्यवस्था की । इस प्रकार मानव जाति की सभी आवश्यकताओं की पूर्ण व्यवस्था कर भगवान ने आत्म कल्याण का मार्ग अपनाया। उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्रों में बांट दिया और स्वयं संसार का त्याग कर चार हजार पुरुषों के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat महान् श्रमण बन गये । एक हजार वर्ष तक कठोर आत्म साधना में लीन रहे । तपश्चर्या करते हुए ग्रामानुप्राम विचरण करते रहे । भगवान ने बारह मास तक पूर्ण निराहारी रह कठोर तपस्या की । इस कठोर साधना से उन्होंने पुरमिताल नगर केवल ज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान प्राप्त के पश्चात् भगवान ने धर्म का उपदेश दिया । उन्होंने स्त्री और पुरुष को समानता देते हुए चार तीर्थ की स्थापना की - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । भगवान ने साधु तथा ग्रहस्थ के कर्तव्यों का उपदेश प्रदान किया उसीं आत्म कल्याण कारी मार्ग का नाम 'जैन धर्म' है । ब. तिपय लोग भगवान रिषभदेव को केवल पौराकि पुरुष मानते हैं और उनकी यथार्थता में शंका करते हैं । यह शंका निर्मूल है। भगवान रिषभदेव का उल्लेख केवल जैन ग्रन्थों में ही नहीं वरन वैचिक ग्रन्थ भागवत, वेदों और पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में भी प्राप्त है । " जैन धर्म की प्राचीनता” शीर्षक पिछले पृष्ठों में ऐसे उल्लेखों का वर्णन दिया जा चुका है । बौद्धार्य आर्यदेवने "सत्शास्त्र" में भगवान रिपभदेव को जैन धर्म का आदि प्रचार लिखा है । आचार्य धर्म कीर्ति ने भी सर्वज्ञ के उदाहरण में रिषभ और महावीर का उल्लेख किया है। धर्मपद के " उसमें पवश्वीर" पद नं० ४२० में यह उल्लेख है । इन उद्धरणों से उनकी यथार्थता में किंचित भी शंका करना निर्मूल है । मानव जाति के महान् उद्धार कर्त्ता और आदि गुरु भगवान रिषभदेव की जय हो ! जय हो !! www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास i'll'Ali TOKIROHOME HOOFDO इनके पश्चात् द्वितीय तीर्थंकर श्री अजीतनाथजी से लेकर इक्कीसवें तीर्थंकर अत्यन्त प्राचीन काल में हो गये हैं । जिनके विशेष विवरण कम सुलभ हैं । एतदर्थ कलिकाल सर्वज्ञ जैनाचार्य श्री मद् हेमचन्द्राचार्य राचत "श्री त्रिषष्ठी श्लाघ्य महापुरुष" ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये । 1 १६ वें श्री शांतिनाथजी, १७ वें श्री कुंथुनाथजी और १८ वें श्री अरहनाथजी अपने राज्य काल में चक्रवर्ती थे । श्वेताम्बर जैन मान्यतानुसार उन्नीस तीर्थंकर श्री मल्लिनाथजी स्त्री रूप में थे विश्व के किसी भी धर्म में स्त्री जाति को इस प्रकार धर्म संस्थापक रूप में महानता देकर समदृष्टि पूर्ण उदारता प्रकट नहीं की गई है जैसी कि जैन धर्म में सुलभ है। वीसवें तीर्थंकर श्री मुनि सुव्रत स्वामी के समय श्रीराम और सीता हुए । बाबसों तोर्थं कर श्रोश्र ८ नेमो (नेमीनाथ जी) ये कर्मयोगी श्री कृष्ण के पैतृक भाई थे । हुए । सुप्रसिद्ध इतिहासकार सर भंडारकर ने भगवान नाथ को ऐतिहाक महा पुरुष स्वीकार किया है । नेमीनाथ देवकी पुत्र श्री कृष्ण के चचेरे भाई और यदुवंश के कुत्त दीपक थे । उन्होंने ठीक लग्न के मौके पर भोजनार्थ मांस के लिये एकत्र किये गये पशुओं की करुण-कन्दन सुनकर लग्न करने से मुग्ध मोहकर उन्हें अभयदान प्रदान करने का महान साहस कर, विश्व में अहिंसा धर्म का दुदुभीनाद किया । तेवीस तीर्थंकर भगवान पानाथ की ऐतिहासिकता को भी वर्तमान सभी इतिहासकर एवं विद्वान मानते है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ૨૭ भगवान पार्श्वनाथ~ ऐतिहासिक विद्वानों ने इनका समय ईसा से पूर्व ८०० वर्ष माना है । विक्रम संवत् पूर्व ८२० से ७९० तक का आपका जीवनकाल है। महावीर स्वामी के निर्वाण से २५० वर्षे पूर्ण आपका निर्वाण काल है । भगवान् पानाथ अपने समय के युगप्रवर्त्तक महापुरुष थे। वह युग तापसों का युग था । हजारों तापस उ शारीरिक क्लेशों के द्वारा साधना क्रिया करते थे। कितने ही तापस वृक्षोंपर औंधे मुँह लटका करते थे। कितने ही चारों ओर अग्नि जला कर सूर्य की आतापना लेते थे । कई अपने आपको भूमि में दवा कर समाधि लेते थे। अग्नितापसों का उस समय बड़ा प्राबल्य था। शारीरिक कष्टों की अधिकता में ही उस समय धर्म समझा जाता था। जो साधक जितना अधिक देह को कष्ट देता था वह उतना ही अधिक महत्व पाता था। भोली भाली जनता इन विवेकशून्य क्रिया काण्डों में धर्म समझती थी, इस प्रकार उस समय देइइण्ड का खूब दौरदौरा था । भगवान पार्श्वनाथ ने धर्म के नामपर चलते हुए उस पाखण्ड के विरुद्ध प्रवल क्रान्ति की। उन्होंने स्पष्ट रूप से घात किया कि विवेक हीन क्रिया कारढों का कोई महत्व नहीं है । सत्य विवेक के बिग किया गया वारतम तपश्चरण भी किसी काम का नहीं है । हजार वर्ष पर्यन्त उग्र दे६दमन किया जाय परन्तु का अभाव है तो वह व्यर्थ होता है । विवेक शूम्य क्रियाकाण्ड आत्मा को उन्नत बनाने के बजाय उसका अध: पतन करने वाला होता है । भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की यही सर्वोचम महानना है कि उन्होंने देहदमन की अपेक्षा श्रात्मसाधना पर विशेष जोर दिया। www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन श्रवण संघ का इतिहास MIMININD DIU DAININD DILD ||Dail 110 dillo DID Oil ID CUISTINATIOD IDID DAMDARMER कमठ, उस समय का एक महान् प्रतिष्ठा प्राप्त नाथ ने तत्कालीन जनता को भलीभांति दिग्दर्शन तापस था । वह वाराणसी के बाहर गंगातट पर डेरा कराया । आत्मा की साधना और मोक्ष की प्राप्ति के डाल कर पंचाग्नि तप किया करता था। इस पंचाग्नि लिए, उन्होंने चार महावतों का पालन करने का तप के कारण वह हजारों लोगों का श्रद्धाभाजन और विधान किया। वे चार महाव्रत इस प्रकार हैं:माननीय बना हुआ था। हजारों लोग उसके दर्शन (सव्याओ पाणाइवायाओवेरमणं) सब प्रकार की हिंसा के लिए जाते थे। पार्श्वनाथ भी वहाँ गये। उन्होंने से दूर रहना, (सवाओ मुसावायाोवेरमणं) सय देखा कि तापस की धूनी में जलने वाली बड़ी २ प्रकार के मिथ्याभाषण से दूर रहना, (सव्वाओ लकड़ियों में नाग और नागिनी भी जल रहे हैं। अदिएणादाणाओ वेरमणं) सब प्रकार के अदत्तादान उनका अन्तःकरण इस दृश्य को देखकर द्रवित हो से दूर रहना और (सव्वाओं बह द्वाहाणाो वेरमणं) गया। साथ ही उन्होंने इस पाखण्ड को, ढोंग को सब प्रकार के परिगृह का त्याग करना। अर्थात् आडम्बर को दूर करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिगृह की आराधना तात्कालिन प्रथा के विरुद्ध और बहुमत वाले लोकमत करने से आत्मा का सर्वांगीण विकास हो सकता है। के खिलाफ आवाज उठाना साधारण काम नहीं है अपरिगृह में ब्रह्मचर्य का भी समावेश हो जाता था इसके लिए प्रबल आरम यल की आवश्यकता होती क्योंकि उसकाल में स्त्री भी परिग्रह समझी जाती है। पार्श्वनाथ ने निर्भयता पूर्वक अपने अन्तःकरण थी। इस प्रकार पार्श्वनाथ ने चतुर्याम मय धर्म का की आवाज को उस तापस के सामने रक्खी । उसके उपदेश दिया। बाह्य क्रि' काण्डों और विवेक शून्य साथ धर्म के सम्बन्ध में गम्भीर चर्चा की और सत्य दैहिक तपस्याओं के चक्कर में फंसी हुई जनता को का वास्तविक स्वरूप जनता के सामने रखा । उन्होंने पात्मतत्व और आत्मविकास का उपदेश देकर अपने पर आने वाली जाखिम की परवाह न करले । भगवान् पीनाथ ने विश्व का महान् यल्याण किया। हुए स्पष्ट उद्घोषित किया कि ऐसा तप अधर्म है सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् श्री धर्मानन्द कौशाम्बीने जिस में निरपराध प्राणी मरते हों। पार्श्वनाथ की "भातीय संस्कृति और अहिंसा" नामक अपनी सत्यमय, ओजस्वी और युक्तियुक्त वाणी को सुनकर पुस्तक में पाीनाथ के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा कमठ हतप्रभ होगया । पार्श्वनाथ ने जलते हुए नाग है:नागिनी को बचाया और उन्हें सम्यक धर्म शरण के "परिक्षित के बाद जनने जय हुए और उन्होंने द्वारा सद्गति का भागी बनाया। कमठ पर पावानाथ कुरुदेश में महायज्ञ करके पैदिक धर्म का झंडा की विवेक शून्य देह दण्ड पर आत्मसाधना की लहराया । उसी समय काशी देश में पार्शी एक नवीन विजय थी। संस्कृति की आधार शिला रख रहे थे।" आत्मा का शुद्ध स्वरूप, कर्म जनित विकार और "श्री पार्श्वनाथ का धर्म सर्वाथा व्यवहा था कर्मविकार से मुक्त होने के उपायों का भगवान पार्श्व हिंसा, असत्य, अस्तेय और परिग्रह का त्याग करना, Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास ३६ MixoliSTINHAIR STRENidralIideorgin:"FiFoll HD Villsaili Sonisolutoll: kllio-o!INisan!lliraibal roli SoITY यह चतुर्याम संवरबाद उनका धर्म था। इसका की। परिणाम स्वरूप प्रापको केवल ज्ञान का आलोक इन्होंने भारत में प्रचार किया। इतने प्राचीन काल प्राप्त हुआ । आपने विश्वकल्याण के लिए चतुर्विध में अहिसा को इतना सुवस्थित रूप देने का) यह संघ की स्थापना की और ज्ञान का प्रकाश फैलाया। प्रथम ऐतिहासिक उदाहरण है। सौ वर्ष की आयु पूर्ण कर भाप निर्वाण पधारे।। ____ "श्री पार्खामुनि ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह प्रभु पाश्वनाथ के बाद उनके पाठ गणधरों में इन तीन नियमों के साथ अहिंसा का मेल बिठाया। से शुभदत्त संघ के मुख्य गणधर हुए इनके बाद पहले अरण्य में रहने वाले ऋषि मुनियों के आचरण हरिदत्त, आयसमुद्र, प्रभ और केशि हुए । पाश्वनाथ में जो अहिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था के निर्वाण और केशि स्वामी के अधिकार पद पर अस्तु उक्त तीन नियमों के सहयोग से अहिंसा मान के बीच के काल में पार्श्वनाथ प्रभु के द्वारा सामाजिक बनी, व्यवहारिक वनी । उपदिष्ट व्रतों के पालन में क्रमशः शिथिलता आगई ___ "श्री पार्शामुनि ने अपने धम के प्रसार के लिए थी। इस समय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में काल प्रवाह के संघ बनाया। बौद्ध साहित्य से ऐमा मालूम होता साथ विकार प्रविष्ट हो गये थ । सद्भाग्य से ऐसे है कि बुद्ध के काल में जो संघ अस्तित्व में थे उनमें समय में पुनः एक महाप्रतापी महापुरुष का जन्म जैन साधु तथा साध्वियों का संघ सब से बड़ा था।" हुया, जिन्होंने संघ को नवीन संस्कार प्रदान किये । उक्त उदाहरण से भगवान पार्श्वनाथ के महान ये महापुरुष थे चरम तीर्थ कर, भगवानम हावीर । जीवन क' झाँकी मिल जाती है। भगवान पानाथ वाराणसी-नरेश अश्वसेन और महारानी श्री वामा । भ० महावीर और उनकी धर्म क्रन्ति देवी के सुपुत्र थे । गृहस्थदशा में भी आपने विवेक प्राचीन भारत के धर्मिक इतिहास में भगवान् शून्य नापसों से विचार संघर्ष किया और सत्य प्रचार महावीर प्रपल और सफल क्रांतिकार के रूप में का मंगल आरम्भ किया तत्पश्चात राजसी भव को उपस्थित होते हैं। उनकी धर्म क्रान्ति से भारतीय ठुकरा कर आप आत्म साधना के लिए निन्थ बन धर्मों के इतिहास का नवीन अध्याय प्रारम्भ होता गये । आपके हृदय में संमभाव का श्रोत उमड़ रहा है। वे बक्तालीन धर्मों का काया कल्प करने वाले था। साधनास्था में कमठ ने इन्हें भीषण कष्ट दिये और उन्हें नव जीवन प्रदान करने वाले युग निर्माता परन्तु अाप उस पर भी दण का श्रोत बहाते रहे। महापुरुष हुए । विश्व में अहिंसा धर्म की प्रतिष्ठा धरणेन्द्र ने आपकी उस उपसर्ग से रक्षा की ता भी का मर्वाधिक श्रेय इन्हीं महामानव महावीर को है। उम पर अनुराग न हुआ। आपत्तियों का पहाड़ मावन जानि के इस महान शिक्षक की उदास शिक्षाओं गिराने वाले कमठ पर न तो द्वेष हुपा और न भक्ति के अनुसरण में ही सच्चा सुख और शाश्वत शान्त करने वाले धरणेन्द्र पर अनुराग हुआ। इस प्रकार मन्निहित है । इस सत्य को यह विश्व जितना जल्दी पाप्रभु ने अबएड साम्यभाव को सफल माधना समझ सकेगा उतना ही उसका कल्याण हा सकेगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास HIVADAININD DIHIDHINID MILIND SHIND-IIIHIND DIIIHI10-IIIIIIGOld III- III- IIIIIIIIpani lDIII.pdi hoIHI और वह सच्चा शांति निकेतन बन सकेगा। भगवान महावीर के माता पिता भ० पार्श्वनाथ डा. वाल्टर शून्विग ने नितान्त सत्य ही कहा “संसार के अनुयायी थे । अतः बचपन में महावीर भी त्यागी सागर में डूबते हुए मानवोंने अपने उद्धार के लिए महात्माओं के संसर्ग में आये हों यह सम्भव है। पुकारा इसका उत्तर श्री महावीर ने जीव के उद्धार महावीर राजकुमार थे, सब प्रकार के सुखोपभोग के का मार्ग बता कर दिया। दुनिया में ऐक्य और शांति साधन उन्हें प्राप्त थे उनके चारों ओर संसारिक सुख चाहने वालों का ध्यान महावीर की उद्दात्त शिक्षा की वैभव बिछा पड़ा था। यह सब कुछ था, परन्तु ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता।" सचमुच महावीर के हृदय में कुछ दूसरी ही भावना काम भगवान महावीर मानव जाति के महान त्राता के कर रही थी। उनका चित्त सांसारिक सुखों से ऊपर रूप में अवतरित हुए। उठकर किसी गम्भीर चिन्तन में लगा रहता था। वे महावीर स्वामी का जन्म विक्रम संवत् पूर्व ५४२ तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक और विविध (ईस्वी सन पूर्व ५६६) में हुआ। इनकी जन्मभूमि परिस्थितियों पर विचार करते थे। उनका चित्त उस क्षत्रियकुण्डपुर है । यह स्थान वर्तमान बिहार प्रदेश काल के धार्मिक और सामाजिक पतन के कारण के पटना नगर के उत्तर में आये हुए वैशाली (वर्तमान खिन्नसा रहता था उस समय का विकारमय वातावरण बसाइ) प्रदेश का मुख्य नगर था। इनके पिता का उन्हें क्रान्ति की चुनौति दे रहा था उस चुनौति का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। स्वीकार करने के लिए उनके चित्त में पर्याप्त मन्थन इनके पिता ज्ञातृवंश के प्रभावशाली राजा थे। पैसे हो रहा था। उन्होंने उन पपिस्थिति में आमूल चून ये क्षत्रियों के स्वाधीन तंत्र मण्डल के प्रमुख थे। इन क्रान्ति पैदा करने का संकल्प कर लिया था। सिद्धार्थ का विवाह गैशाली के अधिपति चेटक राजा दीर्घदर्शी थे अतः उन्होंने एकदम बिना साधना के की बहन त्रिशला के साथ हुआ । इसीसे इनके महान् क्रान्ति के क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं किया, प्रभावशाली होने का परिचय मिलता है। भगवान् उन्होंने क्रांति पैदा करने के पहले अपने आपको तैयार महावीर का जन्म ज्ञातृकुल में हुआ इसलिए वे करना और अपनी दुर्बलताओं पर विजयप ना अधिक ज्ञातपुत्र के रूप में भी प्रसिद्ध हुए । इनका गौत्र काश्यप हितकारी समझा । इसलिए अपनी २८ वष की उम्र था। माता पिता ने इनका नाम वर्धमान रक्खा था में माता पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर उन्होंने त्याग क्योंकि इनके जन्म से उनकी सम्पत्ति में वृद्धि हुई मार्ग, आत्मसाधना का मार्ग स्वीकार करना चाहा । थी। किन्तु सम्पत्ति की निःसारता से प्रेरित होकर परन्तु उनके ज्येष्ठ भ्राता नन्दवर्धन के आग्रह के उन्होंने त्याग और तपस्या का जीवन स्वीकार किया। कारण दो वर्ष तक गृहस्थ जीवन में ही वे तपास्योंउनकी घोर अत्युत्कट साधना के कारण इनका नाम महावीर होगया और इसी नाम से व विशेष प्रसिद्ध सा अलिप्त जीवन बिताते हुए रहे और परिस्थिति का हुए । वर्धमान नाम इतना प्रचलित नहीं है जितना अध्ययन करते हुए अपनी तैयारी करते रहे । अन्तइनका आत्म गुण.नष्पन्न महावीर नाम । तोगत्वा तीस वर्ष की भरी जवानी में विशाल साम्राज्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास HINOORTEOUS ORDIN CUCINANDO THEM INDOM लक्ष्मी को ठुकरा कर मार्गशीर्ष कृष्ण वसवों के दिन पूर्ण अकिञ्चन भिक्षु के रूप में वे निर्जन वनों की ओर चल पड़े। महावीर ने आत्मशुद्धि के लिए ध्यान, धारणा, समाधि और उपवास अनशन आदि सात्विक तप स्याओं का आश्रय लिया। वे मानव समाज से अलग दूर पर्वतों की कन्दराओं में और गहन बन प्रदेशों में रहकर आत्मा की अनन्त, परन्तु प्रमुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जगाने में ही संलग्न रहे । एक से एक भयंकर आपत्तियों ने उम्हें घेरा, अनेक प्रलोभनों ने उन्हें विचलित करना चाहा परन्तु भगवान हिमालय की तरह अडोल रहें । जिन घटनाओं का वर्णन पढ़ने से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वे प्रत्यक्ष रूप से जिस जीवन पर गुजरी होंगी वह कितना महान् होगा ! साधनाकाल में भगवान महावीर ने दीर्घ तपस्वी बन कर असह्य परिषद और उपसर्ग सहन किये । कठोर शीत, गरमी, डांस मच्छर और नाना शुद्र जन्तु जन्य परिवार को उन्होंने समभाव से सहन किया । बालकों ने कुतुहल वश उन्हें अपने खेलका साधन बनाया, पत्थर और कंकर फेंके। अनार्यों ने उनके पीछे कुत्ते छोड़े। स्वार्थी और कामी स्त्रो पुरुषों उन्हें भयंकर यातनाएँ दीं । परन्तु उन्होंने व्यरक्तद्रिष्ट मात्र में सब कुछ सहन किया । वे कभी श्मसान में रह जाते, कभी खंडहर में, कभी जगन में और कभी वृक्ष की छाया में। उन्होंने कभी अपने निमित्त बना हुआ आहार पानी महण नहीं किया शुद्ध भिक्षाचर्या से जो कुछ जैसा जैसा मिला उसीसे निर्वाह किया। उन्होंने साढ़े बारह वर्ष के लम्बे ४१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat साधना काल में सब मिलाकर ३५० से अधिक दिन भोजन नहीं किया । कितनी कठोर साधना है ! उन महासाधक ने कभी प्रमाद का अवलम्बन नहीं किया । सदा अप्रमत्त होकर साधना में लीन रहे । रात्रि में भी निद्रा का त्याग कर ने ध्यानस्थ रहते । मानापमान को उस जितेन्द्रिय पुरुष ने समभाव से सदन किया । इस प्रकार आन्तरिक और बाह्य सत्र प्रकार के कष्टोंको उन्होंने जिस समभाव से सहन किया वह सचमुच विस्मय का विषय है । उनकी साधना काल का जीवन अपूर्णता की ओर प्रस्थित एक अप्रमत संयमी का खुला हुआ जीवन है । उन्होंने अपने जीवन के द्वारा अपने उपदेशों की व्यावहारिकता सिद्ध की है। जो कुछ उन्होंने अपने जीवन में किया, जिस कार्य को करके उनने अपना साध्य सिद्ध किया वही उन्होंने दूसरों सामने रक्खा। उससे अधिक कोई कठिन नियम उन्होंने दूसरों के लिए नहीं बताये । सचमुच महावीर का जीवन मानवीय आध्यत्मिक विकास का एक जीता जागता आदर्श है। वे केवल उपदेश देने वाले नहीं परन्तु स्वयं आचरण करने के बाद दूसरों को मार्ग बताने वाले सच्चे महापुरुष थे । भगवान् महावीर ने संसारिक सुखों को छोड़कर संयम का मार्ग अपनाते समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं किसी भी प्राणी को पीड़ा न दूंगा, बर्ग सत्वों से मैत्री रक्खूँगा, अपने जीवन में जितनी भी बाधाएँ उपस्थित होंगी उन्हें बिना किसी दूसरे की सहायता समभाव पूर्गक सहन करूँगा । इस प्रतिज्ञा को एक वीर पुरुष की तरह इन्होंने निभाया, इसीलिए ने महावीर कहलाये । अहिंसा और सत्य की निरन्तर www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास ul> DIWARD>IMISATIRD IND-COIL HINDI: INID THID=ollu. AIDS IDFINID olitiku - Cl. IDFolk HIN> TRI PATITIDAIHINDI] साधना के बल से उन्होंने अपने ममस्त दोषों विकारों को रक्षा के लिए प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में ब्राह्मणों और दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर ली। साढ़े ने अपनी सत्ता अनिवार्य कर दी थी । धार्मिक विधिपारह वर्ष तक दीर्घ तपस्या का अनुष्ठान करने के विधान भी जटिल बना दिये गये थे ताकि उन्हें पश्चात् उन्हें अपने लक्ष्य में सफलता मिली । वे सम्पन्न कराने वाले पुरोहित के बिना काम ही न वीतराग बनगये । आत्मा की अनन्त ज्ञान ज्योति चले । इस तरह ब्राह्मण वर्ग ने अपना एकाधिपत्य जगमगा उठी । नैशाख शुक्ला दशमी के दिन उन्हें जमा रखा था। उन्होंने अपनी सत्ता को बनाये रखने केवलज्ञान और केवल दर्शन का विमल प्रकाश के लिए जातिवाद का भूत खड़ा कर रखा था। प्राप्त हुआ। तब गे लोगों को हित का उपदेश देने जिसके अनुसार वे अपने आपको सर्वश्रेष्ठ मानकर वाले तीर्थंकर बने। यह है महावीर का कठोर समाज के एक वर्ग को सर्वथा हीन मानते थे। अपने साधना और उसका दिव्य-भव्य परिणाम । ही खड़े किये जातिवाद के आधार पर उन्होंने शुद्रों भगवान महावीर के उपदेश और उनकी क्रान्ति को धार्मिक एवं सामाजिक लाभों से वञ्चित कर को समझने के पहले उस काल की परिस्थिति का ज्ञान दिया था। स्त्रियों की स्वतन्त्रता का अपहरण हो करमा आवश्यक है। महापुरुष अपने समय की चुका था। उन्हें धार्मिक अनुष्ठान का स्वादन्न्य परिस्थिति के अनुसार अपना सुधार प्रारम्भ करते प्राप्त नहीं था । सामाजिक क्षेत्र में रातदिन की दासता है। अपने समय के वातावरण में आये हुए विकारों के सिवा और कोई उनका काम ही नहीं था। "स्त्रीमें सुधार करना ही उनका प्रधान काम हुआ करता शूद्रो नाधीयतम्" का खूबप्रचार था। मनुष्यों का है। अतः हमें यहां यह देखना है कि भगवान् महान व्यक्तित्व नष्ट हो चुका था और वे अपने महावीर के सामने कैसी परिस्थिति थी। उस समय आपको इन ब्राह्मण पुजारियां के हाथ का खिलौना भारत के धार्मिक क्षेत्र में बौदिक कर्मकाण्डों का बनाये हुए थे । प्रत्येक नदी नाला, प्रत्येक ईट-पत्थर प्राबल्य था। सब तरफ हिंसक यज्ञों का दौरदौरा था। प्रत्येक झाड़-झंखाड देवता माना जाता था । भोला लाखों मूक पशुओं की लाशें यज्ञ की बलिलोदी पर समाज अपने आपका दीन मान कर इनके आगे तडफती रहती थीं। पशु ही नहीं बालक, वृद्ध और अपना मस्तक रगड़ता फिरता था। इस तरह प्राध्यालक्षण सम्पन्न युवक तक देव पूजा के बहम से मौत मि और संस्कृतिक पतन के काल में भगवान महाके घाट उतारे जाते थे। यज्ञों में जितनी अधिक वीर को अपना सुधार कार्य प्रारम्भ करना पड़ा। हिंसा की जाती थी उतना ही अधिक उसका महत्व अपनी अपूर्णताओं को पूर्ण करने के पश्चात् समझा जाता था। ब्राह्मणों ने धार्मिक अनुष्ठानों विमल केवला-ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भगवान् को अपने हाथ में रख लिया था। देवों और मनुष्यों महावीर ने लोक-कल्याण के लिए उपदेश देना प्रारंभ का सम्बन्ध पुरोहित की मध्यस्थता के बिना हो सकता किया। उन्होंने अपने उपदेशों के द्वारा मानवता को या। सहायक के तौर पर नहीं बल्कि स्थिर स्वार्थों Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास amiATH INSTITU IN SINH TIMissil Vilom IS INR ID Colk !hool In>TORY IN HINd LIt nub IN MISMIS INCi' LISeni L: जागृत करने का प्रयत्त किया। इसके लिए तत्कालीन के मार्ग में काँटे बिछाये; पर महापुरुष इन बाधाओं से धार्मिक और सामाजिक भान्त रूढ़ियों के विरुद्ध कब रुका करते है ? वे तो अपने निश्चित ध्येय की उन्होंने प्रबल आन्दोलन किया। उन्होंने स्पष्ठ शब्दों और अविराम आगे बढ़ते रहते हैं और साध्य पर में घोषित किया कि धर्म, बाह्य किया काण्डों ही के पहुँच कर ही विराम लेते हैं। पुराण पन्थियों के द्वारा नहीं किन्तु आत्मा के गुणों का विकास करने अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी भगवान महावीर के से होता है । धर्म के नाम पर की जाने वाली याज्ञि. सचोट ओर सक्रिय उपदेशों ने जनता में क्रान्नि की कीहिंसा धर्म का कारण नहीं बल्कि घोर पाप का लहर व्याप्त कर दी। हिंसामय धर्म कृत्यों के प्रति कारण है । हिंसा से धर्म होना मानना, विष खाकर जनता में घणा के भाव पैदा हो गये और ब्राह्मण जीवित रहने के समान असम्भव कल्पना है । उन्होंने धर्म गुरुओं के एकाधिपत्य को उसने अस्वीकार हिंसक यज्ञों के विरुद्ध प्रबल क्रान्ति की। बाहण कर दिया। इस प्रकार भगवान महावीर की धर्मधर्म गुरुओं की दाम्भिकताका पर्दाफाश किया। क्रान्ति ने तत्कालीन भारत की काया पलट दी। जिस जातिवाद के याधार पर वे अपनी प्रतिष्ठा भगवान महावीर के उपदेश का सार घोड़े शब्दों बनाये हुए थे उसके विरुद्ध महावीर ने सिंहनाद में इस प्रकार दिया जा सकता है-सब जीव जीवन किया। उन्होंने जाति-पांति के भेद भाव को निमूल और सुख के अभिलाषी हैं, दुःख और मरण सब बताया। उन्होंने डंके की चोट यह उद्घोषणा की कि को अप्रिय है, सब को जीना अच्छा लगता है, जीवन मानव मात्र ही नहीं, प्राणी मात्र धर्म का अधिकारी है, जीवन सब को वल्लभ है। मरना कोई नहीं है । धर्म किसी वर्ग या व्यक्ति की पैतृक सम्पत्ति चाहता । अतएव जीवा और दूसरे को जीने दो। नहीं, वह सर्वसाधारण के लिए है । प्रत्येक प्राणी को अहिंसा की आराधना ही सच्चा धर्म है । यह धर्म धर्म के आराधन का अधिकार है। धर्म की दृष्टि में ही शुद्ध है, ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और सब जाति की कोई महत्ता नहीं। मानव मानव के बीच त्रिकालदर्शी अनुभवियों के अनुभव का निचोड़ है। भिन्नता की जाति पांति को दीवार खड़ी करने (२) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये जाति से वाले जातिशद के विरुद्ध भगवान महावीर ने प्रबल- नहीं किन्तु कम से होते हैं । जन्मगत जाति का कोई तम आन्दोलन किया। इसके फलस्वरूप अन्धविश्वासों महत्व नहीं । जन्म से ऊँची-नीच का भेद वास्तविक के दुर्ग ढह-ढह कर भूमिसात् होने लगे। ब्राह्मण नहीं मिथ्या है। धर्माचरण और शास्त्र श्रवण का गुरुओं के चिर प्रतिष्ठित सिंहासन हिल ठं। चारों सबको समान अधिकार है । ब्राह्मण वही है जो बझओर क्रान्ति का ज्वाला मुखी फूट पड़ा। प्राचीनता श्रात्मा के स्वरूप को जाने और अहिंसा धर्म का के पुजारियों ने प्रचलित परम्पराओं की रक्षा के लिए पालन करे । ( ३ ) यज्ञ का अर्थ आत्म बलिदान तनताड प्रयत्न किये, नम क्रान्ति को मिटाने के लिए है जिस में हिंसा होती है वह यज्ञ, वास्तविक यज्ञ अनेक उपायों का प्रयोग किया। महान क्रान्तिकार नहीं है । ( ४ ) आत्मा का उद्धार प्रात्मा ही अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास HIDIINDAININD HIROID !! UIDADINHID Julion GullimID_artilitis-MIRPIO-GIRIDHIRUID IND THID GIRAUD ATURALIDARIDAIm पुरुषार्थ से कर सकता है और वह परमात्मा बन तरह आपने श्रमण संघ में चाण्डाल जाति के व्यक्ति सकता है । आत्मा पर लगे हुए कर्म के आवरणों को को भी मुनि दीक्षा देकर गुरुपद का अधिकारी सम्यग ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के द्वारा बनाया। "सक्खं खुदीसइ तो विसेमो न दीसइ दर कर प्रत्येक व्यक्ति मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। जाइविसेस कोवि" अर्थात् “तप और संयम का (५) आत्मा स्वयं अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता वैशिष्ट्य है, जाति की कोई महत्ता नहीं" यह कह है। इस तरह भगवान् महावीर के उपदेश और कर चाण्डाल पुत्र हरिकेशी को भी मुनि संघ में सिद्धांतों को हम इन चार विभागों के समाविष्ट कर स्थान दिया और उसे ब्राह्मणों के यज्ञवाडे में भेज सकते हैं:-(१) अहिंसावाद (२) कर्मवाद (३) कर उनको भी पूजनीय बना दिया, यह भगवान साम्यवाद और (४) स्याद्वाद। महावीर के सामाजिक साम्य का भव्य उदाहरण है। भगवान् महावीर की अहिसा-प्रधान उपदेश भगवान महावीर ने अहिंसा और समता के प्रणालीने आचार मार्गमें तथा व्यवहार में अहिंसा की आध्यात्मिक सिद्धान्तों को सामाजिक क्षेत्र में भी पुनः प्रतिष्ठा की। उनकी स्याद्वादमयी उदार दृष्टि सफलता पूर्वक प्रयुक्त किये । जैसाकि पं० सुखलालजी ने तत्वज्ञान और दार्शनिक विचार-संसार में नवीन ने लिखा है:दृष्टिकोण की सृष्टि की। उनके कमवाद ने मानव "महावीर ने तत्कालीन प्रबल बहुमत की अन्यायी जगत् को मानसिक दासता और आध्यात्मिक परत: मान्यता के विरुद्ध सक्रिय कदम उठाया और मेतार्य न्त्रता से मुक्ति दिलाई तथा पुरुषार्थ एवं स्वावलम्बन तथा हरिकेशी जैसे सब से निकृष्ट गिने जाने वाले का पुनीत पाठ पढ़ाया। उनके साम्यवाद के सिद्धांत अस्पृश्यों को अपने धर्मसंघ में समान स्थान दिलाने का ने जाति पांति के भेद को मिटा कर मानव मात्र की द्वार खोल दिया । इतना ही नहीं बल्कि हरिकेशी जैसे एक रूपता का प्रादर्श उपस्थित किया। इसी तपस्वी आध्यात्मिक चाण्डाल को छुआछूत में साम्यवाद ने स्त्रियों की पुनः सन्मान पूर्ण सामाजिक भानावशिख डूबे हुए जात्यभिमानी ब्राह्मणों के धर्म प्रतिष्ठा की। भगवान के साम्य सिद्धांत ने जाति वीरों में भेजकर गाँधीजी के द्वारा समर्थित मन्दिर में भेद, लिंगभद, वर्गभेद और अमीर-गरीव के भेद को अस्पृश्य प्रवेश जैसे विचार के धर्म बोज बोने का निर्मूल किया और अपने धर्मशासन में गुणपूजा को समथेन भी महावीरनुयायी जैन परम्परा ने किया महत्त्व दिया । “गुणः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग है। यज्ञयाज्ञादि में अनिवार्य मानी जाने वाली पशु न च वराः'' कालिदास की यह उक्ति भगवान महावीर यादि प्राणी हिंसा से केवल स्वयं पूर्णतया विरत के धर्मशासन में यथार्थ रूप से चरितार्थ होती है। रहते तो भी कोई महावीर या उनके अनुयायी त्यागी भगवान महावीर ने अपने संघ में नारी को भी पुरुष को हिंसामागी नहीं कहता । पर वे धर्म के ममें को के समान समाधिकार देकर स्त्रीस्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा पूर्णतया समझते थे इसीसे जयघोष जैसे वीर साधु की और उसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया । इसी यज्ञ के महान समारंभ पर विरोध व संकट की परवाह Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास Ma>-CID Missyllpali> Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास BIDATHA ID- Doli IS IN HINDoll ID I No pilk is coin HIND-DILUND Kell us-ollidis gil. IND-IND Kointilip Drol. Itioeonlin ज्ञययागादिक में पशुओं की हिंसा होती थी। यह प्रथा साधारण, दीन, शूद्र और अति शूद्र भी मुनि बन आज कल बन्द होगई है। यह जैन धर्म की एक सके हैं । भगवान् के अपूर्व वैराग्य का बड़ा गहरा महाम् छाप ब्राह्मण धर्म पर अर्पित हुई है। यज्ञार्थ प्रभाव पड़ता था। इस लिए बड़े २ राजा, राजकुमार, होने वाली हिंसा से आज ब्राह्मण मुक्त हैं यह जैन रानियाँ, सेठ साहूकार और उनके सुकुमार भावान् धर्म का ही पुनीत प्रताप है। के पास दीक्षित हा गये थे । भोग विलासों में सर्वादा भगवान महावीर के उपदेश, कार्य और पुण्य बेभान रहने वाले घनी नवयुवकों पर भी भगवान के प्रभाव का उल्लेख करते हुए कवि सम्राट डॉ. रविन्द्र नैराग्य और त्याग का गहरा असर पड़ा। राजगृही नाथ टेगौर ने कहा है: के धन्ना और शालिभद्र जैसे धनकुबेरों के जीवन __महावीर ने डिंडम नाद से आर्यावर्त परिवत्तन को कथाएँ कट्टर से कट्टर भोगवादी के में ऐसा संदेश उद्घोषित किया कि धर्म कोई हृदय को भी हिला देती हैं । बड़े २ राजा महाराजा. सामाजिक रूढ़ि नहीं है परन्तु वास्तविक सत्य है। ओं के सुकुमार पुत्रों को भिक्षु का बाना पहने हुए, मोक्ष बाह्य क्रिया काण्डों के पालन मात्र से नहीं तप और त्यागो की साक्षात् जीती जागती मूर्ति बने मिलता है परन्तु सत्य धर्म स्वरूप में आश्रय लेने से हुए और गाँव गाँव में अदिसा दुदुभी बजाते हुए मिलता है। धर्म में मनुष्य-मनुष्य के बीच का भेद देखकर भगशन के महान् प्रभाव से हृदय पुलकित नहीं रह सकता है । कहते हुए आश्चर्य होता है कि हो उठता है । मगध साम्रट श्रणिक की उन महारानियों महावीर की ये शिक्षाएं शीघ्र ही सब बाबायों को को जो पुष्प शय्या से निचे पैर तक नहीं रखतो थो पार कर सारे आयावत में व्याप्त हागई।" जब भिक्षाणियों के रूप में घर-घर भिक्षा माँगते हुए, ___ कवि सम्राट के इन वाक्यों से भगवान् महावीर धर्म की शिक्षा देते हुए देखते हैं तो हमारा हृदय के उपदेशों का क्या पुण्य प्रभाव हुआ सो स्वयमेव एकदम “धन्य धन्य" पुकार उठता है। यह था व्यक्त हो जाता है। भगवान महावीर के उपदेशों का चमत्कारी पुण्य ___ भगवान महावीर पूर्ण वीतराग थे अतः उनकी प्रभाव । दृष्टि में राजा-रक का, गरीब-अमीर का, धनी-निर्धन भगवान के उपदेश को सुनकर वीरागंक, का, आँच-नीच का कोई भेद नहीं था। वे जिस वीरयश, सजय, एणेयक, सेय, शिव उदयन और निस्पृहता से रंक को उपदेश देते थे उसी निररहता शंख इन समकालीन राजाओं ने प्रवज्या अंगीकार से राजा को भी उपदेश देते थे। वे राजा आदि को की थी। अभयकुमार, मेयकुमार आदि अनेक राजजिस तत्परता से उपदेश देते थे उसी तत्परता से कुमारों ने घर-बार छोड़कर व्रतों को अंगीकार किया। साधारण जीवों को भी उपदेश देते थे। यही कारण स्कन्धक प्रमुख अनेक तापस तपस्या का रहस्य है कि उनके संघ में जहाँ एक ओर बड़े २ राजा राज्य जानकर भगवान के शिष्य बन गये। अनेक स्त्रियाँ का त्याग कर अनगार बने हैं वहीं दूसरी ओर भी ससार की असारता जानकर श्रमण संघ में Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास DIRTINiball nudio AIID HDGIRDOIE1110 DIREBUDANILIBHITHILI ... DOI सम्मिलित हो गई थी । भगवान के गृहस्थ अनुयायियों पाया जाता है।) श्रेणिक का पुत्र राजा कोनिक में मगघराज श्रेणिक, अधिपति चेटक, अवन्तिपति (अजात शत्रु ), उसका पुत्र राजा उदायो, उज्जैनी चण्डप्रद्योत आदि थे। आनन्दा श्रादि वैश्य श्रमणो के राजा चण्टप्रद्योत, पोतनपुर के राजा प्रसन्नचन्द्र पापकों के साय हो साथ शहालपुत्र जैसे कुम्भः बतिभय पट्टन का उदायी राजा आदि मुख्य हैं। कारभी उपासक संघ में सम्मिलित थे। कथा साहित्य परसे यह मालूम होता है कि कम से सबसे आश्चर्य की बात यह है कि भगवान के से कम तेवीस राजाओं ने भगवान महावीर का उपदेश सुन कर उनका धर्म स्वीकार किया और उनके दृढ़ सर्वप्रथम शिष्य ब्राह्मण पण्डित हुए-इन्द्रभूति गौतम । अनुयायी हो गये। जो अपने समय के एक धुरन्धर दार्शनिक, साथ ही ___ जैन सूत्रों में जो भगवान के समवसरण और अग्रणी क्रियावादी ब्राह्मण माने जाते थे वे भगवान धर्म कथा का वणन आता है उससे यह प्रतीत होता के प्रथम शिष्य हुए । गौतम पर भगवान के अप्रतिम है कि राज वर्ग के लोग भगवान के उपदेश को सुनने ज्ञान प्रकाश का और अखएतु तपस्तेज का वह के लिए अत्यधिक उत्सुक रहते थे। बड़े २ प्रतापी विलक्षण प्रभाव पड़ा कि वे अज्ञवाद का पक्ष छोड़कर राजा अपने अन्तः पुर, दरबारी गण और दल वल भगवान क पास चार हजार चार सो ब्राह्मण सहित तीर्थ करों का उपदेश सुनने के लिए जाते विद्वानों के साथ दीक्षित होगये । यह है भगवान के थे। भगवान के उपदेश इतने सचोट होते थे कि उपदेश का पुण्य प्रभाव । अनक राजाओं ने उससे प्रभावित होकर दीक्षा ___ भावान महावीर स्वयं राज कुमार थे। उनके धारण करली थी । मगध देश-भगवान की मातृभूमि पिता सिद्धार्थ प्रतापी राजा थे। माता त्रिशला के अप्रगएण नृपति भावान् के विशेष सम्पर्क में वैशाली के नरेश चेटक की बहन थी। चेटक नरेश १ आये । महाराजा रणक, उनका पुत्र कोणिक और की पुत्री.का विवाह मगध के प्रतापी राजा विम्बसार । __ तत्पुत्र उदायी ये बड़े धर्मक्षक राजा हुए। यह ( श्रेणिक ) के साथ हुआ था। राज परिवारों के परम्परा अशोक वर्धन और सम्प्रति तक चलती रही सम्बन्ध के कारण भी भगवान महावीर का अपने थी। महान सिकन्दर ने जब भारत पर आक्रमण धर्म प्रचार में संभवतः कुछ सहुलियत हुई हो। किया तब नव नन्द वश ने शिशुनाग राजाओं भगवान महावीर के उपदेशों से अनेक नृपति प्रभा- का राज्य ले लिया। इस नन्द वंश के आश्रय में भी वित हुए। उनके अनुयाी नरेशों में-वैसाली महावीर का धर्म विकासित हुआ। इसके बाद नन्दनरेश चेटक-(जो गणसत्तात्मक राज्य के नायक बंश के अन्तिम नन्द के पास से मौर्यवंश के महाथे) कौशाम्बी के राजा शतानिक, मगध नरेश राजाधिराधिराज चन्द्रगुप्त ने राज्य ले लिया तब भी श्रेणिक ( बौद्ध प्रत्यों में जिसे बिम्बिसार भी कहा जैनधर्म का खुव विकास हुआ। भारत के प्रथम गया है । ) जन सूत्रों में भंभासार नाम भी मिलता इतिहास प्रसिद्ध महाराजाधिराज चन्द्रगु जैनधर्माहै। सेणि य नाम तो जैन और बौद्ध दानों प्रन्यों में नुयायी हो गये थे। स्वयं जैन थे। दिगम्बर सम्प्रदाय Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास BARAMMIDARIDEUDAMDATANDIDAI IIHINDAGIRUIDAIDAMAD THIIND OTHIMID-IINDI DID ORIDDHI HIDDHIDAIHIDIIIII के कथनानुसार चन्द्रगुप्त ने राजपाट छोड़कर अन्त स्थापना नहीं की। उन्होंने भगवान पाश्वनाथ के में मुनि दीक्षा धारण कर ली थी और भद्र बाहु शासन में जो विकारी तत्व प्रविष्ट हो गये थे उन्हें स्वामी के साथ मैसूर चला गया था। वहां श्रवण दूर कर उसका संशोधन किया । पार्श्वनाथ के साधु. बेलगोल की गुफा में ही उसका देहोत्सर्ग हुआ। साध्वी विविध वर्ण के वस्त्र रख सकते थे जब चन्द्रगुप्त बिन्दुसार और उसके बाद अशोक भी जैन- भगवान महावीर ने अपने साधु-साध्वियों के लिए धर्म के साथ गाढ सम्पर्क रखने वाले राजा हुए हैं। श्वेत वस्त्र रखने की ही आज्ञा प्रदान की। सचेलसम्राट अशोक का जैनधर्म के साथ सम्बन्ध था इस अचेल का यह भेद उत्तराध्ययन सूत्र के केशि-गौतम विषयक प्रमाणों में किसी तरह का विवाद नहीं है। संवाद से प्रकट होता है। चतुर्याम-पंचयाम और अशोक ने अपने उत्तर जीवन में बौद्ध धर्म सचेल-अचेल के भेद से ही भगवान पाश्वनाथ और को विशेषतया स्वीकार कर लिया था रादपि जैनधर्म । भगवान महावीर की परम्परा में नगण्यसा भेद था। इसके अतिरिक्त भौर कोई महत्त्वपूण भेद नहीं था के साथ उसका व्यमहार ठीक-ठीक बना रहा। इस इसलिए ये दोनों परम्पराएँ भगवान महावीर के तरह मगध की राजपरम्परा में भगवान महावीर का शासन के रूप में एक हो गई। धर्म दीर्घकाल तक चलता रहा। भगवान महावीर में उपदेश प्रदान करने की भगवान महावीर ने केवल ज्ञान प्राप्त करने के जैसी अनुपम कुशलता थी बैसी ही अपने अनुयायियों पश्चात् तीर्थ की स्थापना की। अपने उपदेशों के की व्यवस्था करने की भी अद्वितीय क्षमता थी। प्रोफेसर ग्लास्नाप ने भगवान की संघ-वस्था की प्रभाव से उनके तीर्थ में साधु, साध्वी, श्रावक और प्रशसा करते हुए लिखा है किःश्राविकाओं की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। भगवान महावीर के धर्म में साधु-संघ और श्रावकपाश्वनाथ ने अपने संघ के साधुनों के लिए संघ के बीच जो निकट का सम्बन्ध बना रहा उसके ब्रह्मचर्य पालन की आज्ञा दी थी परन्त उसे अलग फलस्वरूप ही जैन धर्म भारतवर्ष में आज तक ब्रत न मान कर अपरिग्रह व्रत में ही सम्मिलित कर टिका रहा है । दूसरे जिन धर्मों में ऐसा सम्बन्ध नहीं था वे गंगा भूमि में बहुत लम्बे समय तक नहीं टिक लिया था परन्तु धीरे-धीरे परिग्रह का अर्थ संकृचित सके।" महावीर में याजना और व्यवस्था करने होता गया। अब परिग्रह से धन, धान्य, जमीन की अद्भुत शक्ति थी। इस श.क्त के कारण इन्होंने आदि ही समझे जाने लगे। भगवान महावीर के अपने शिष्यों के लिए जो संघ के नियम बन.ये समय में कई दाम्भिक परिणामक ऐसा भी प्रतिपादन अब भी चल रहे हैं। महावीर के समय में स्थापित करने लगे थे कि स्त्री-सेवन में कोई दोष नहीं है। साधु-संघों में सब जैन साधुओं को व्यवस्थित नियमन में रखने का बल अब भी विद्यमान है, ऐसा इस तरह की परिस्थिति में भगवान महावीर ने चतु. जब हम देखते हैं तो काल-बल जिस पर जरा भी र्याम धर्म के स्थान में पंचयाम मय धर्म का उपदेश असर नहीं कर सकता ऐसा स्वरूप पाश्वनाथ के किया और पाँचवा ब्रह्मचर्य महाव्रत बताया। साधु संघ को देनेवाले इस महापुरुप को देख कर भगवान महावीर ने नवीन सम्प्रदाय या मत की आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहा जा सकता है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-परम्परा BRAI HIDILAICHITHILadauritoriLAHISATISHAL TERMID D L::::."A T TA जैन श्रमण-परम्परा २४ तीर्थ करों के गणधर तथा साधु समुदाय की संख्या तीर्थ कर नाम प्रथम गणथर, कुल गणधर साधु साध्वी (१) श्री ऋषभदेव भगवान ऋषभसेन (पुंडरीक स्वामी) ८४ ८४,००० ३,००,००० (२) श्री अजितनाय भगवान सिंहसेन १,००,००० ३,३०,००० (३) श्री संभनाथ भगवान चारु २,००,००० ३,३६,००० (४) श्री अभिनंदन स्वामी वज्रनाभ ३,००,००० ६,३०,००० (५) श्री सुमतिनाथ भगवान चमर ३,२०,००० ५,३०,००० (६) श्री पद्मप्रभ स्वामी प्रद्योत ३,३०,००० ४,२०,००० (७) श्री सुपार्श्वनाथ भगवान विदर्भ ३,००,००० ४,३०,००० (5) श्री चंद्रप्रभ स्वामी दत्तप्रभु ३,८०,००० (६) श्री सुविधिनाथ भगवान वराह २,००,००० १,२०,००० (१०) श्री शीतलनाथ भगवान प्रभुनंद १,००,००० १,००,००६ (११) श्री श्रेयांसनाथ भगवान कौस्तुभ ८४,००० १,०३,००० (१२) श्री वासुपूज्य स्वामी सुभौम ७२,००० १,००,००० (१३) श्री विमलनाथ भगवान मन्दर ६८,००० १,००,००० (१४) श्री अनंतनाथ भगवान यश ६६,००० ६२,००० (१५) श्री धर्मनाथ भगवान अरिष्ट ६२,४०० (१६) श्री शांतिनाथ भगवान चक्रायुध ६१,६०० (१७) श्री कुथुनाथ भगवान शंभ ६०,००० ६०,६०० (१८) श्री अरहनाथ भगवान कुंभ ५०,००० ६०,००० (१६) श्री मल्लिनाय भगवान भिपज ४०,००० ५५,००० (२०) श्री मुनिसुत्रत स्वामी मल्लि ३०,००० ५०,००० (२१) श्री नमिनाथ भगवान शुभ २०,००० ४१,००० (२२) श्री अरिष्टनेमि भगवान वरदत्त १८,००० ४०,००० (२३) श्री पार्श्वनाथ भगवान आर्य दिन्न (आर्यदत्त) १० १६,००० ३८,००० (२४) श्री वर्धमानस्वामी (महावीर स्वामी) इन्द्रभूति (गोतमस्वामी) ११ १४,००० ३६,००० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास IRIDIOINDUIROID IIII HD CHITHAITD DIDIHD GIRL HIND-IIIII II DailyNTD-ATIODDIDIDIIM !itD DIDID ODilip diRIDUADAMDAN पाश्वनाथ प्रभु के महातापी पट्टधर श्री शभदनाचार्य- (वि० पूर्व ७५० वर्ष ) डॉ० फ्रेजर साहिब ने अपने इतिहास में लिखा ___ भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर भगवान है कि "यह जैनियों के ही प्रयत्न का फल है कि शुभदत्ताचार्य हुए। श्राप पार्श्व प्रभ के हस्तदीक्षित दक्षिण भारत में नया आदर्श, साहित्य, प्राचारगणधरों में मुख्य थे। आपने ज्ञान, ध्यान, तप संयम विचार एवं नूतन भाबा शैली प्रकट हुई।" की आराधना करते हुए घाति कर्मों का क्षय कर प्रा० समुद्र सूरि-(वि० ६२६ पूर्ण ) वर्ष आपके केवल ज्ञान व केवल दर्शन प्राप्त किया । आपके हस्त समय पशु हिंसकों का विरोध कुछ तित्र रहा पर अंत दक्षित शिष्य मुनिवरदत्तजी ने हरिदत्तादि ५०० चोरों में अहिंसा की हो विजय रही। आपके विदेशो को प्रतिबोध देकर जैनधर्म में दीक्षित किया। यही नामक प्रभावशाली शिष्य हुए। आपके उपदेशों से हरिदत्त बाद में जाकर महान् प्रतापी संत हुए और प्रभावित हो अवन्ति ( उज्जैन ) पति राजा जयसेन श्री शुभदत्ताचार्य के पट्टधर हुए। के पुत्र केशीकुमार आपके पास दीक्षित हुए। आपके साथ आपके पिता व माता अनंगसन्दरी ने भी भागवती प्राचार्य हरिदत्त सूरि-(वि. पूर्व ६६ वर्ष आप दीक्षा अंगीकार की। द्वादशांगी एवं चतुर्दश पूर्व के पूर्ण ज्ञाता प्रखर पंडित बालर्षि केशी श्रमण ने अल्प काल में ही जाति थे। सावत्थी नगरी में तत्कालीन महान् यज्ञ प्रचारक स्मरण ज्ञान प्राप्त किया और थोड़े ही समय में बड़ी लोहिताचार्य के साथ राजा अदीन शत्रु की राज्य प्रसिद्धी प्राप्त कर ली। सभा में आपने शास्त्रार्थ कर "वैदिकी हिंसा हिंसा आचार्य केशी श्रमण[ वि० ५४४ वर्ष पूर्व ] जैन न भवति" का प्रबल विरोध किया। लोहित्याचार्य इतिहास में बाल ब्रह्मचारी चतुदर्श पूर्वाधर महाप्रतापी मत्यप्रेमी विद्वान थे। वे अपने १००० शिष्यों सहित प्राचार्य हरिदत्त सूरि के पास जैनधर्म में दीक्षित प्राचार्य केशी श्रमण का स्थान बड़ा ही महत्व पूर्ण है। आपके समय भारत की राजनैतिक, सामाजिक हुए । आपने महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म का प्रचार एठां धार्मिक अवस्था बड़ी छिन्न-भिन्न थी। धर्म के किया। आपको सूरिपद से विभूषित किया गया । नाम पर पोप लीला चरम सीमा पर पहुँच रही थी। इन लोहित्याचार्य की शिष्य समुदाय बाद में लाहित्य जातिवाद और ऊँच-नीच का बड़ा भेद भाव था। शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर प्राचार्य केशी श्रमणाचार्य ने समस्त श्रमण :संघ का एक हरिदत्त सूरि बंगाल कलिंग हिमालय आदि में जैन विराट सम्मेलन बुलाया और समस्त भारत में जैन धर्म का प्रचार करते हुए मुनि आर्य समुद्र को सूरि धम के प्रबल प्रचार द्वारा अहिंसा का नारा बुलंद पद प्रदान कर व्यवहार गिरी पीत पर स्वर्ग वासी करने का संदेश फरमाया । और धर्म प्रचारार्थ भौर हुए । हरीदत्त सूरि की संतान पूर्ण भारत में रही वह मुनियों को अलग २ टुकड़ियों में दशों दिशाओं में 'निर्गन्ध शाखा' कहलाई। भेजा। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-परम्परा Im Raam TRAINISTIO-Oli moti INSTIN HIS NAMSADHIYARISTORI HIND COIL Isririkhis RIP ISHITAUDouTIMILSINHASITD आचार्य श्री के इन महान् कदम का बड़ा मुन्दर 'सुध' सुपास वसति में ठहरे। सुपास से अर्थ है परिणाम निकला । 'यज्ञ की हिंमा' निर्बल होने लगी। पाप्रभु का मंदि। सर्वात जैनधर्म चमक उठा। निम्न राजाओं ने जैनधर्म २ बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तरा के कई उल्लेखों से स्वीकार कियाः भी यह स्पस्ट सिद्ध होता है कि गौतम बुद्ध के पिता १ौशाली के राजा चेटक २ राजगही के राजा राजा शुद्धोदन जन श्रमणोपासक थे। प्रसेनजीत ३ चम्पानगरी के राजा दधिवाहन ४ क्षत्रिय । निजलि ३ डॉ० स्टीनेन्सन ने भी एक जगह लिखा है कद के राजा सिद्धार्थ ५ कपिलवस्त के राजा शदोदन [क राजा शुद्धादन का घराना जन था। ६ पोलासपुर के राजा विजय सेन साकेनपुर के ४ इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया वोल्यूम २ के पृष्ठ ५४ पर लिखा है कि-कोई इतिहास कार राजा चन्द्रपाल ८ सावत्थी के राजा ऊदीनशत्र ६ कांचनपुर के राजा धर्मशील १० कपिलपुर नगर तो यह भी मानते हैं कि "गौतम बुद्ध को महावीर का राजा जयकेतु ११ कोशाम्बी का राजा संतानी र स्वामी से ही ज्ञान प्राप्त हुआ था।" कुछ भी हा यह तो मानना ही पड़ेगा कि उस १२ श्लोताम्बि का राजा प्रदेशी तथा १३ सुप्रीव एक १४ काशी कोशल के राजाओं ने भी जैनधर्म स्वीकार . समय जैन धर्म के आत्मोक्तर्षकारी सिद्धान्तों ने महात्मा बुद्ध का मार्ग दर्शन अवश्यक किया है। किया था। ५ सरभंडारकर ने भी महात्मा बुद्ध का जैन मुनि महात्मा बुद्ध प्रभावित-आचाय केशो, श्रमण के होना स्वीकार किया है। इस प्रकार केशी श्रमण पेहित नामक एक शिष्य एक समय कपिल वस्तु और उनके शिष्य समुदाय के हाथों भारत में सद् धर्म पधरे। यहाँ के राजा शुद्धोदन ने आपका बड़ा स्वागत का प्रचार प्रबल रूप से हुआ। किया और धर्मोपदश सुवा। धर्मोपदेश श्रवण के केशी गौतम संवाद समय आपक पुत्र बुद्धकिता (गीतमबुद्ध) भा साथ भगवान पाश्वनाथ के चतुर्थ पट्टधर केशी श्रमण थे। राजकुमार बुद्ध बड़े प्रभावित हुए। उनके हृदय में और भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर गौतम नैराग्य के बीजांकुर अंकुरित होगये । माता पिता के स्वामी की श्रावस्ती नगरी में प्रथम बार भेंट हुई थी। कठोर नियंत्रण के बाद भी समय पाकर ना घर से उस समय दोनों में चतुर्याम और पंचयाम धर्म भाग निकले और थाचार्य केशी श्रमण के साधुओं सचेल । अचेल आदि अनेक पारस्परिक भिन्नताओं के पास 'जन दीक्षा' स्वीकार की। निम्न प्रमाणों से पर विचार विमर्प हुआ जिनका जैनागमों में विवेचन इसकी सत्यता की जासकती है: किया गया है । और जिसका बड़ा महत्व है। १ बौद्ध धर्म के 'महावग्ग' नामक ग्रन्थ में बुद्ध आचार्य स्वयंप्रभ मूरि [वि० ४७० वर्ष पूर्व के भ्रमण समय का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर आप पाश्व पट्ट पाम्परा के पांचवे महा प्रतापी लिखा है कि एक समय बुद्व राजगृह' गये और वहाँ पट्टधर हुए हैं । आपने अबुदाचल की अधिष्ठात्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास ITADIREIDOES-Tilh|0 PAID APPINKINITS FORIES KOTull iHISTOHEmoovil IDRO HIRINISPoll: VIND Kelicio Repli dus sui T ipsoill चक्र श्वरी देवी की प्रार्थना पर श्रीमाल नगर में होने आचार्य श्री स्वयं प्रभसूरिजी फी यह उत्कट जारहे एक महा यज्ञ में होमे जाने वाले सवालक्ष अभिलाषा थी कि वे एक ऐसे मिशन की स्थापना जीवों को अपने उपदेश बल से अभय दान प्रदान करें जो कि अपने प्रचार द्वारा विश्व में जैन धर्म की कराया और करीब १०००० नर नारियों को जैन विजय पराका फहरावे तथा जैन जाति की मान बनाया। उनमें से अनेक नर नारियों ने भागवती मर्यादा एकां गौरव बढ़ावे । 'जहां चाह तहां राह' दीक्षा भी अगोकार की । कई स्थानों पर जिन मंदिर की उक्ति के अनुसार प्राचार्य श्री को ऐसे ही योग्य बनवाये और जैन शासन की अपूर्व सेवा की। महापुरुष भी प्राप्त हो गये । श्रीमान और पोरवाल जाति की स्थापना कर एक समय जब कि स्वयं प्रभसूरिजी जंगल में उन्हें जैन धर्म के सत्पथ पर आरुढ़ करने का सम्पूर्ण देवी देवताओं को धर्म देशना दे रहे थे तब रत्नचूड़ अव पापही को है। विद्याधर का विमान उधर से निकल रहा था कि ओसवाल जाति संस्थापक उसको गति रुक गई । शीघ्र ही रत्नचूड़ ने इस गति अवरोध का कारण आचार्या श्री की आशातना होना महान उपकारी छट्टे पट्टधर समझ भूमि पर उतर कर आचार्य श्री स्वयप्रभसूरिजी प्राचार्य रत्न प्रभसूरिजी से क्षमा याचना की। आपका उपदेशमृत मान कर २५०० वर्ष पूर्ण जब कि भात वाममागियों के विद्याधर इतना प्रभावित हुआ कि सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्याग करके अपने ५०० साथियों के साथ हाथों से रसातल की ओर प्रयाण कर रहा था, बेचारे आचार्य देव के पास दीक्षा स्वीकार करली। लाखों मूक पशु व्यर्थ ही धर्म के नाम पर यज्ञ की ___ रत्नचूड़ विद्याधर ने अत्यन्त विनय एवां भक्ति हिंसात्मक वेदी पर निर्दयता पूर्वाक होम कर दिये पूर्वक द्वादशांगी का अध्ययन किया: दिनों दिन जाते थे। विश्व में चारों ओर हिंसा का साम्राज्य आपकी प्रतिभा रविरश्मि के समान प्रखर तेजस्वी फैला हुआ था। जनता की त्राही त्रही की करुण " होती गई । असः स्वयंप्रभसूरि ने आपको वीर निर्वाण आत्त नादें किसी महान व्यक्ति के अवतार के लिये से ५२ में वर्ष में सूरिपद प्रदान कर आपका श्री पुकार रही थीं ऐसे ही समय में परम पूज्य जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी नाम रक्खा। श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वजी ने अवतीर्ण होकर दुराचारी जिस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि ने आबू तीर्थ पाखएिडयों के माया जाल में अंध श्रद्धालु बन पर पदार्पण किया तो वहां की अधिष्ठात्री देवी ने अधर्म के गहरे गर्त में गिरते हुए लाखों मनुष्यों को आपसे मरुधर प्रदेश में विचरने की प्रार्थना की। कुमार्ग से बचाकर मानवाचित गुणों एवं सुसंस्कारों भव्य जीवों के उपकारार्थ आचार्य श्री ने भी मरुधर की आर प्रवतित बना कर "जन से महाजन" प्रदेश में विचरना स्वीकार कर लिया ए अनेकों बनाया । जिसके लिये समस्त महाजन जाति और परिषह सहन करते हुए उपकेशपुर पधारे । उपकेशनगर खास कर ओसवाल जाति आपकी चिरऋणी रहेगी। वाम मर्गियों का केन्द्र स्थान था। यहां पर मुनियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण - परम्परा Mix |D INAMSTIMADUINDoll Rose||hoseliND-Til:migralu !D OIR I NAT INCHAR !lous Hironment!INSTAMI: IDOLD को शुद्ध आहार प्राप्त नहीं हो सका इसलिए शिष्यों ने जल से प्राचार्या की का चरणांगुष्ट प्रक्षालन करके सूरिजी से इस देश से लौट चलने के लिये प्रार्थना वर जल राजपुत्र पर छिड़कने से कुमार शीघ्र ही की। श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वरजी मे भी उनको प्रार्थना अंगड़ाई ले कर उठ बैठा । यइ कौतुक देख कर सारे स्वीकार करके अनुमति प्रदान करदी किन्तु वहां की नगर वासी स्तब्ध रह गये और प्राचार्य श्री के चरणों अधिष्ठात्री देवीने आपसे प्रार्थना की कि यह में पड़ कर विनय करने लगे कि हमें सन्मार्ग का चातर्मास तो आप यहां ही करें। इस पर ४६५ शिष्यों प्रदर्शन कराइये। ने तो वहां से कोरन्टपुर की ओर विहार कर दिया। राजा ने बड़ी अनुनय विनय की कि हे प्रमु बाकी ३५ साधुओं ने आचार्य श्री के साथ उपकेश आपकी कृपा से मेरा पुत्र जो कि इस नगर का भावी नगर में ही चातुस कर उस अनार्य देश को प्रार्य नाथ होता पुनर्जिवित हुआ है, अतः मैं खुशी से बनाने का निश्चय किया। श्राघा राज्य आपको भेंट करता हूँ । इस पर प्राचार्य ___ इस समय यहां के राजा उपल देव ने सुपुत्री को श्री ने फरमाया हे राजन् ! हम जैन साधु है-कंचन विवाह योग्य हो जाने पर मन्त्री उहड़देव के सुपुत्र कामिनी के त्यागी है, हमें राज्य नहीं चाहिये। हम त्रिलोक्यसिंह के साथ विवाह कर दिया। दोनों तो यह चाहते हैं कि तुम्हारे राज्य में जो अनार्यता दाम्पत्य जीवन सानन्द व्यतीत करने लगे। एक फैली हुई है वह मिट जाय, हिंसा न हो, साधजनों दिन रात्रि में एक विपले सर्प ने राजकुमार को इस का सम्मान हो-सब लोग सातों व्यसनों को त्याग लिया। जिससे राजकुमार मत्यु को प्राप्त हुए। कर 'महाजन' बने, उत्तम पुरुष बने। जैन का अर्थ अनेकानेक उपचार किये गये गये परन्तु कोई सफा है उत्तम आमरण वान । इस प्रकार के कथन से लता प्राप्त नहीं हुई सारे शहर में शाक छा गया। प्रभावित हो कर समस्त नगर निवासी जनता ने समस्त जैन समुदाय राजकुमार को विमान में प्रारूढ़ जैन धर्म ग्रहण किया। प्राचार्य श्री ने सबको मास कराकर श्मशान भूमि की ओर प्रयाण कर रहे थे। मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थ का पाग करवाया एवं समस्त प्रजाजन करुण स्वर से रुदन कर रहे थे। सम्यग दर्शन ज्ञान चरित्राणि मोक्ष मार्ग' का उपदेश जिससे ऐसा प्रतीत होता था मानों सत्र दुख की फरमाया। घटा छा रही हों। इस प्रकार उपस्थित जन समूह पर सूरिजी के __ इस समय किसी ने एक लघु साधु का रूप बना- उपदेश का काफी प्रभाव पड़ा । राजा एवं मन्त्री ने कर उन लोगों से कहा कि भाइया ! राजकुमार तो आचार्य देव से प्रार्थना की हे भगवान, आपने हम जीवित है, इन्हें मत जलाओं। इन्हें प्राचार्य श्री अनाथ को सनाथ बना दिया है, हम अन्तरात्मा रत्नप्रभ परीजी के पास ले जाओ वे इसे जीवित कर की साक्षी से प्रण करते हैं कि बाज से हम आपके देंगे। इतना कह कर वे साधु वहां से अन्तरध्यान हो अनुयायी एक सच्चे उपासक बन गये हैं। इस समय गये। सब लोग आचार्य जी के पास आये। प्रासुक को अनकल समझ कर आचार्य श्री ने उपस्थित Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास 1 HIDARD TUM 101 manuup DILIP-AUR HITDADHIIIID CHITTIND GIn II II|| |SMITHI-TV1100110 AID TO dluWDOID AUTH HIDDENDINITIm ITIDIN :DIA जनता को महाजन जाति की संज्ञादी। सबको १ सूत्र सिन्ध प्रदेश के शिवनगर के राजा रुद्राक्ष के पत्र में, एक समाज में यांधा और इस संगठन का नाम कक्क कंवर से, उसके जंगल में शिकार खेलते समय दिया 'महाजन संघ'। आपकी भेंट हुई। आपने उसे जीव हिंसा के महा समय पश्चात ही महाजन संघ अत्यधिक पाप बताये । कनक कंवर बहुत प्रभावित हुआ और बिनास को प्राप्त हो गथा । श्राबादी की अधिकता हिंसा पथ से मुह मोड़ अहिंसा पालक बना । राजा के कारण और व्यापार के निमित्त लोग उपकेशपुर रुद्राक्ष भी जैनधर्मानुयायी बना और सिन्ध भूमि में नान प्रोसियाँ) को छोड कर भारत के अन्य कई जैन मंदिरों का निर्माण कराया। राज पत्र कक्क बसने लगे। ओसियां आने के कारण उन कयर प्राचार्य के पास दीक्षित हुआ । यही आगे जाकर नगरों में वे 'मोसवाल' नाम से प्रसिद्ध हुए। आठवें पट्टधर कक्कसरि हुए। उपक विवेचन से यह स्पष्ठ है कि प्राचार्य अनेकानेक भोजन व पानी आदि के कष्ट, श्री ने हमारी प्रोसवाल सवाल समाज पर कितना विरोधियों द्वारा हिंसक आघात प्रत्याघात को सहन महान् उपकार किया है। सूरीश्वरजी के जीवन का करते हुए भी आचार्य श्री ने सिन्ध भमि में जैनधर्म अधिक अंश प्रायः आचार पतित जातियों का का डंका बजाया। उद्धार करने में ही व्यतीत हुआ है। आपने अपने आचार्यकक्कसरि-(वि० सं० ३४२ वर्ष पूर्व ) सदुपदेशों द्वारा केवल मनुष्य समाज को ही मुग्ध पार्श्व प्रभु के अाठवें पट्टधर कक्कसूरि भी महान् नहीं कर लिया था वरन कितनी ही अधिष्ठात्री देवियों प्रभाविक आचार्य हुए हैं। आपने भी सिन्ध भमि एकां चक्र श्वरी देवियों ने आपके पास मिथ्यात्व का " में जैनधर्म प्रचार को ही छापना मुखा लक्ष्य बनाया त्याग करक सम्यक्त्व प्रहण किया था। था। आपको भी अनेक यातनाओं का सामना करना धन्य है ऐसे महान उपकारी आत्मा को जिन्होंने पड़ा। यज्ञों में तथा देव मन्दिरों में पशु बलि के ऐसे महान शुभ कार्योंद्वारा विश्व में अपना नाम साथ नर बलि का अभी पूर्ण रूपेण अन्त नहीं हो विख्यात ही नहीं किया अपितु अमर कर दिया है। पाया था। बलिदान के समर्थक जैन मुनियों के आपका समय वीर निर्वाण सवत् ७० है । कट्टर दुश्मन बने हुए थे। आचार्य यक्षदेव सूरि-(वि० ३८६ वर्ष पूर्व ) विहार काल में एक स्थान पर आपने जगदम्बा सातवें पट्टधर पा० यक्षदेव सरि महान् चमत्का- के मंदिर में एक बत्तीस लक्षण युक्त राजकुमार की रिक महापुरुष हुए हैं। अपने पर्वाचार्य श्री रत्नप्रभ बलि दी जाने का बनान्त सना-विश्व शान्ति के मरि द्वारा अंकुरित 'महाजन संघ' के पौधे को आपने नाम पर इस राजपुत्र की बलि हो रही थी। आचार्य विशेष रूप से परिप्लावित बनाया । आपकी प्रचार भूमि मरधर के बाद विशेष रूप से सिन्ध प्रान्त देव ने मंदिर में पहुँच कर सब को जगदम्बा के रहा। उधर अब तक जैन मुनियों का ध्यान कम था मातृ-स्वरूप को समझाया और इस हिंसकारी कुमार्ग अतः आपने उस क्षेत्र के उद्धारार्थ निश्चय किया। से सब को बचाया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण परम्परा ५५ KADMINISANDHIRADDITI IRID OTIHIRIDIUM THDAIIIL MILITICADEMISTORICHETHDCIN 10 MINgi IIISour ऐसे अनेको महान् उपकार आचार्य श्री के हाथों आपके पश्चात् और भी पट्टघर हुए हैं पर हुए है। मरुधर वासियों की विनंति पर आपने अपना इस समय तक भगवान महावीर की परम्परा का अन्तिम चातुर्मास उपकेशपुर किया । दिव्यज्ञान द्वारा प्रावल्य बढ़ चला था अतः अब हम भगवान महा. अन्तिम समय जान लूणाद्रि पर्वत पर १८ दिन का वोर को परम्परा का वर्णण प्रारंभ करते हैं। अनशन कर स्वर्ग सिधारे। भगवान महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा प्रथम गणधर गौतम स्वामी-भगवान् महावीर तथा श्राविकाएं हुई। स्वामी द्वारा प्रदत्त दूसरी देशना के समय तत्कालीन साधुओं में इन्द्रभूति (गौतम स्वामी ) मुरू थे महान् याज्ञीक ग्यारह ब्राह्मण विद्वानों और उनके तथा साध्वियों में महासति चन्दनवाला मुख्यथी।। साथ ४४०० ब्राह्मण जो भगमन महावीर से वाद छमावस्था और केवल पर्याय मिलकर ४२ वर्ष विवाद कर उन्हें पराजित करने की भावना से आये को दीक्षा पर्याय में भगवान ने १ अड़ ग्राम में, थे-भगवान के कल्याण कारी उपदेशामृत को सुन १ वाणोज्य ग्राम में, ५ चम्पानगरी में ५ पृष्ठ चम्पा में कर-स्वयं पराजित हो; धर्म की यथार्थता समझ १४ राजगृही में, १ नालंदा पांडा में, ६ मिथिला में, सब के सब भगवान के शिष्य बन गये। ये ग्यारह २ भद्रिका नगरी में, १ आलंभिका नगरी, १ श्रावस्ती विद्वान जैनधर्म के भी महान विद्वान बने । महावीर नगरी में आदि ४१ चातुर्मास कर अन्तिम ४२ शासन के गण नायक बन ग्यारह गणधर के रूप में वें चातुर्मास के लिये पावापुरी पधारे। सर्ग जीव प्रसिद्ध हुए । उनके नाम इस प्रकार हैं:- हितकारी अमृत वाणी से दशादिगंत में प्रभु की (१) इन्द्रभूति (गौतम स्यामो) २ अग्नि भति (३) अमर कीर्ति फैल रही थी। वायुभति ( ४ ) व्यक्त स्वामी ( ५) सुधर्मा स्वामी श्रायुष्य कम का क्षय निकट जामकर प्रभु ने ( ६ ) मोडत पुत्र [ . ] मौर्यपुत्र [ = ] अपित कार्तिक वदी १४ को संथारा किया। अपने प्रिय [.] अचलभ्राता [ १० ] मतायें और | ११] शिष्य गौतम को समीपवर्ती प्राम में देव शर्मा को प्रभास । प्रतिबोध देने के लिये भेजा । चतुर्दशी और श्रमा__ भगवान को वाणी को सूत्र में गूथ कर द्वादशांग वस्या के दो दिन के १६ प्रहर तक सतत् प्रवचन को सुव्यवस्थित रखने का कार्य इन गणधरों ने फरमाते हुए आज से २४६१ वर्ष पूर्व कार्तिक कृष्णा किया । अमावस्या को अर्थात् दीपमालिका की रात्रि में भगवान महाव र के ३० वर्ष पर्यन्त प्रदत धर्म भगवान महावीर स्व मी निर्वाण पद को प्राप्त हुए । देशना से भगवान के चतुर्विध श्री संघ में गौतम स्वामी जब वापस लौटे और भगवान के १४,००, साधु ३६,००० साध्यिां तथा लाखों श्रावक निर्वाण का समाचार जाना तो अत्यन्त शोकाकुल Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन श्राण संध का इतिहास INir-III IIMID dil UIDAIHARIDGll! UID OT NITD-DI.HINDI. HINDI IIDOID AUDIT DOINDA हुए । भगवान के प्रति उनका अत्यन्त ममता भरा का सर्जन किया कि जो भी प्राणी एक बार जैन स्नेह था और इसी 'मोह' पाश में प्रथित रहने से ही धर्मानुयायी बनजाय । उसके और उसके वंश परम्परा ने अबतक सुधर्मा स्वामी को छोड़ अन्य ६ गणधरों के खून में ही इस संस्कृति का प्रभाव जम जाय । यह के समान केवल ज्ञान के धारक भगवान नहीं बन सब श्री सुधर्मा स्वामी के शुभ प्रयत्नों का ही सुफल पारहे थे। परतु निर्मल हृदयी गौतम को तत्काल है। आपको ६२ वर्ष की अवस्था में केवल ज्ञान की सत्य ज्ञान हो पाया। वे बोल उठे अरे । प्रभु तो प्राप्ति हुई। आप १०० वर्ष की अवस्था तक धर्म वितगगी थे और मैं मोह में पड़ा हुआ था-धन्य है देशना द्वारा जगत् का उद्धार करते हुए निर्माण प्रभु को जिन्होंने मुझे इस मोह की असारता का प्राप्त हुए । भान कराकर वितरागता का मार्ग प्रशस्त किया। केवल ज्ञान प्राप्ति पर संध व्यवस्था का भार श्री गौतम स्वामी की यह विचार धारा क्षपक श्रेणी जम्बूस्वामी को सौंपा वर्तमान द्वादशाङ्गी के सूत्र रूप तक पहुंची और तत्क्षण घनघाति कर्म चकना चूर के प्रणेता भी श्री सुधर्मा स्वामो ही हैं।श्री द्वादशांगो हो गये और गौतम स्वामी ने भी भगवान महावीर के नाम इस प्रकार हैं:स्वामी की निर्वाण गमन की रात्री में ही केवल ज्ञान १ आचारांग सूत्र, २ सूत्र कृतांग, ३ स्थानांग, और केवल दर्शन प्राप्त कर लिया। ४ समवायांग, ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति ६ ज्ञातृ धर्म कथांग केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बारह वर्ष तक ७ उपासक दशांग ८ अन्तकृद् दशांग : अनुत्तरो आपने धर्म देशना फरमाई और भगवान महावीर पयानिक १० प्रश्न व्याकरण ११ विपाक सत्र और के शासन की संघव्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। १२ दृष्टवाद। ___ इस प्रकार भगवान के ग्यारह गणधरों में से बारहवें दृष्टिवाद के अन्दर १४ पूर्वा भी समाविष्ट केवल ५ वें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी ही केवल ज्ञान हैं । चौहपूर्वो के नाम इस प्रकार हैं:से शेष रहे अतः आप ही भगवान महावीर स्वामी के १ उत्पाद पूर्वा, २ अमायनीय पूर्वा, ३ वीर्य प्रवाद प्रथम पट्टधर प्रसिद्ध हुए और वर्तमान साधु समुदाय पर्वा ४ अस्तिनास्ति प्रवाद ५ ज्ञान प्रसाद श्री सुधर्मा स्मामी का ही आज्ञानुवर्ती माना जाता है। ६ सत्य प्रवाद ७ आत्म प्रवाद कर्म प्रवाद । प्रत्याख्यान प्रवाद १० विद्या प्रवाद ११ कल्याणप्रवाद १ श्री सुधर्मास्वामो १२ प्राणप्रवाद १३ क्रया विशाल पूर्व १४ लोक आपने भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्ररूपित बिन्दुसार । चतुर्विध श्री संघ को आन्तरिक एवं बाह्य सर्व विध वैसे त. समर। जैनागमों का दृष्टिवाद में ही ऐसा सुदृढ़ बनाया की उसकी नींव अमर होगई और समावेश हो जाता है किन्तु अल्पमति मनुष्यों के लिये आजतक जैनधर्म का गौरव पूर्ववत बना हुआ है और अलग अलग ग्रन्थों की रचना की जाती है । जैनधर्म भविष्य में भी ऐसा ही बने रहने की आशा की जाती के प्राण भूत सकल श्रुतागमों का मूलाधार श्रीसुधर्मा है । आपने ऐसे आगम साहित्य और विचार परम्परा स्वामी गणधर प्रथित द्वादशांग ही है। अग बाह्य Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-परम्परा TIODIO RIDDHIDA IDAIII IntralIDIOID Idlillils GIRIDIHDINDIA III-IIIIINDAGI SAMASTIPATHIII ग्रन्यों की रचना स्थाविरों के द्वारा की गई मानो इस अवसर्पिणी काल की जैन परम्परा में केवल जाती है। ज्ञान प्राप्ति का श्रोत भवगान ऋषभदेव से प्रारंभ दिगम्बर परम्परा के अनुसार वर्तमान में द्वादशांग होकर अतिम केवल ज्ञानी श्री जम्बू स्वामी तक और अंग बाय ग्रन्थ सब विच्छिन्न होना माना जाता विसर्जित होता है । श्री जम्बूस्वामी के निर्वाण के साथ जाता है जब कि श्वेताम्बर मतानुयायी ऐसा नहीं निम्न दस विशेषताओं का भी लोप होगया। , मानते। १ परम अवधि ज्ञान २ मनः पर्णव ज्ञान ३ श्वेताम्बरों में मूर्ति पूजक एवं स्यानक वासी पुलाक लब्धि ४ आहारक शरीर ५ क्षायिक सम्पत्र सामुदायों में भी अंग बाह्य ग्रन्थों परस्पर कुछ ६ यथा ख्यात चरित्र ७ जिन कल्पी साधु ८ परिहार भेद हैं। विशुद्ध चरित्र ६ सूक्ष्मी संपराय चरित्र १० यथा - २ श्री जम्बू स्वामी ख्यात चारित्र इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण भगवान महावीर स्वामी को पाट परम्प के के पश्चात् ६४ वर्ष तक केवल ज्ञान रहा। द्वितीय पट्टधर श्रीजम्बू स्वामी बड़े प्रभाविक महापुरुष ३ श्री प्रभव स्वामी हुए हैं । आप एक बड़े श्रीमन्त व्यापारी के पुत्र थे। आप विन्ध्याचल पर्वातान्तर्गत जयपुर के राजा अखट सम्पति होने पर भी पैराग्य की प्रबलता से जयसेन के पत्र थे और प्रारंभ में इनका सम्बन्ध एक अपने विवाह के दूसरे दिन ही अपनी नव विवाहिता कख्यात भीमसेन के डाकू दल से था । जब इन्होंने आठों रानियों का छोड़कर आपने दीक्षा अंगीकार श्री जम्बकुमार के विवाह करके ६६ करोड़ का दहेज की थी । विवाह के सुहागरात को जब आप महलों में लाने का समाचार सुना तो उसी रात्री को ५०० चोरों सो रहे थे तर ५०० चोर महलों में सेंध लगाकर सहित उनके महलों में चोरी करने वा प्रयत्न किया और चोरी करने का प्रयत्न कर रहे थे। श्री जम्बू स्वामी एवज में जम्बुकुमार के सदुपदेशों से मुक्ति धन प्राप्त उस समय ध्यान मग्न थे। ध्यान खुलने पर अापने कर जम्बु स्वामी के ही महा प्रतापी पट्टघर 'श्री प्रभव सेंध लगाते चोरों को चोरी करने का दुस्परिणाम , पाम स्वामी' हुए। समझाया और इस सुमार्ग को छोड़े भात्मोद्वार का दीक्षा समय आपकी आयु मात्र ३० वर्ष थी। संदेश सुनाया। इस उपदेश का इनाना प्रभाव पड़ा बीस वर्ष तक ज्ञान साधना के उपरान्त ५० वर्ष की कि ५० ही चोर आपके साथ साधु बनने को कटिबद्ध प्राय में आप जैन संघ के नामक आचार्य बने । होगये । देखते ही देखते विवाह के दूसरे ही दिन श्री आपने भी अनेक बौदान्तिकों और याज्ञिकों को जम्ब स्वामी, नव विवाहिता आठों पत्नियां, खद के अपने उपदेश बल से जैन धर्मानुयायी बनाया । तत्कालीन महा पंडित स्वयंप्रभ ब्राह्मण को प्रतिबोध माता पिता, पाठों स्त्रियों के माता पिता तथा ५०० - प्रदान कर जन धर्म में दीक्षित बनाया। जो भारके चोर इस प्रकार कुल ५२७ भव्य आत्माओं ने दीक्षा पर भगवान महावीर के चतुर्थ पट्टघर हुए। स्वीकार की। श्री जम्बू स्वामी की अन्य कथाएँ भी श्री प्रभव स्वामी वीर निर्वाण संवत् ७५. में जैनशास्त्र में समादरणोय हैं। सग पधारे। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास m eanibaultipsOMHIDDIEID-C12:0 DAILDERHILD GITAliSIDDHIND-COMMERIMEner. 0 PID OTIINIIIDOHDINDIAN HIDADITIHARIDAIHIDAIHIDILDAR - - ५ स्वयंभवस्वामी-आपका जन्म राजगृही के स्वप्न का यह अनिष्ट फल सुन कर महाराजा और ब्राह्मण कुल में हुआ था। अपने समय के बड़े चन्द्रगुप्त को यह संसार क्षणभंगा प्रकांड पंडित गिने जाते थे। प्रभव स्वामी से प्रति- उन्हाने अचार्य श्री के पास दीक्षा अंगीकार करली। बोधित हो जैन मुनि बने और जैन शासन की अपूर्ण वाद आचार्य भद्रबाहू स्वामीने चन्द्र गुप्ताहि १२००० सेवा की। जैनागम "देश वैकालिक सूत्र" की रचना मुनियों को संग ले दक्षिण में कर्नाटक की और श्राप ही ने की थी। विहार कर दिया। भद्र बाहु स्वामी का स्वर्गवास भी दक्षिण में ही हुआ। श्री चन्द्रगुप्त मुनि एक पर्वत ५ यशोमद्र स्वामी तथा संभूति विजयजी पर घोर तपस्या लीन रहे, अतः इस पर्वत का नाम वीर निर्वाण संवत् ६८ में श्री यशोभद्र आचार्य पद __ चन्द्र गिरी पहाड़ हो गया। पर प्रतिष्ठित हुए। वीर निर्वाण सं १०८ में श्री श्री भद्रबाहू स्वामी के दक्षिण भारत की ओर संभूति विजयजी ने दीक्षा ली। प्रस्थान करने से उत्तर भारत के जन संघ को बड़ा दोनों ही तत्कालीन संघ के आचार्य माने गये दुःख हुआ हुआ और उन्हें वापस लौटा लाने के अनेक ६ भद्र बाह स्वामी अनेक प्रयत्न किये गये । पर जब सब प्रयत्न अस. वीर निसं० १३६ के बाद आचार्ययशोभद्रस्वामी के फल हहे तब श्री स्थूलि भद्रजी को आचार्य पर प्रदान पास आप दीक्षित हुए। आप चतुर्दश पूर्व धर एवं कर उन्हें १४ पूर्व का ज्ञान प्रान करने हेतु प्राचार्य अन्तिम श्रुत केवली थे। आपने अपनी साहित्य सेवा भद्र बाहु स्वामी के पास भेजा गया। आपने भी द्वारा जैन शासन की जो महान् प्रभावना की है वह बड़ी तन्मयता से ज्ञानाभ्यास किया। एक बार आपने 'रूप परावर्तिनी' विद्या का परीक्षण करने के सदा काल अमर एवं चिरस्मरणीय रहेगी। लिये सिंह का रूप बनाया। आरका सिंह रूप देख आपने अनेक नियुक्तियां एवं उनसग स्तात्र सब मुनि भयभीत हो गये । जब आ० भद्रबाहु स्वामी बादि अध्यात्म ज्ञान विषयक ग्रन्थों को रचनाएं की। ने यह घटना सुनी तो बड़े खिम्न हुए और इस आप गृहस्थाश्रम में ४५ वर्ष तक रहे और ७० वर्ष प्रकार विद्या का दुरुपयाग न हा सके यह साच आगे तक गुरू सेवा में रह चौदह पूर्ण का ज्ञान प्राप्त पढ़ाने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार १४ में से किया। चौदह वर्ष तक संघ के एक मात्र प्राचार्य १० १० पूर्व का विच्छेद हो गया। ७ श्री स्थलिभद्रजी १५ से महाराजा चन्द्रगुप्त ने पौषध किया था आप नन्द वन्श के राजा के महामन्त्री उस दिन रात को रात्री में स्वप्न में एक बारह फण- शकडाल के ज्येष्ठ पुत्र थे । वीर निर्वाण सं० १५६ घारी सर्प देखा। भद्रबाहु स्वामी ने इसका फल में दीक्षा हुई। ससारावस्था में समस्त कुटुम्ब को बताते हुए १२ वर्ष के एक भयंकर दुष्काल पड़ने की छोड़ कर कोशा नामक वेश्या के घर रहे थे। उनके बात बताई जो सत्य सिद्ध हुई। पिता की मृत्यु के बाद राजा ने इन्हें मंत्री बनाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण परम्परा HEIDImmuTHI-IIInto DILU MUIICHI MUMpdMilip dIIIU 10 dilip DILUND CII BUDilliambi माHIHIDDARI पर पिताजी की मृत्यु से उन्हें नैराग्य हो मया था। मंगलम् ।। श्री स्थूलिभद्र जी के पास वीर नि० सं० अतः प्राचार्य संभूतिविजयजी के पास दीक्षा १७६ में आर्य महागिरी ने दीक्षा ली। अंगीकार कर आत्मोत्कर्ष में लग गये। आर्य महागिरी और आये सुहस्तिसरि दीक्षित होने के बाद आपने गुरु आज्ञा ले श्री स्थूलिभद जी के पाट पर उक्त दोनों प्राचार्य प्रथम चातुर्मास कोशा नैश्या के उद्यान में ही किया हए । आये महागिरी महान् त्यागी योगीश्वर थे। पर वह था साधना के लिये। वे अपनी साधना से । से प्रार्थ आर्य सुइस्ति सूरिजी ने तत्कालीन राजाओं पर किंचित भी विचलित नहीं हुए। यही नहीं इनकी अच्छा प्रभाव जमाया था मौर्य सम्राट चन्दगुप्त के कठोर तपः साधना से प्रभावित हो स्वयं कोशा गैश्या ने पौत्र और महाराजा अशोक के पुत्र महाराजा सम्प्रति भी जैन धर्म की दीक्षा अंगीकार कर सुसाध्वी बना। आपका अनन्य भक्त बन गया था। ___ आचार्य श्री के सदुपदेशों का तत्कालीन कई राजा सम्प्रति ने उज्जनी नगरी में एक वृहत साधु राजाओं पर भी बड़ा प्रभाव पड़ा। नंद वंश के सम्मेलन भरवाया और भारत के कोने कोने में अंतिम राजा तथा मौर्य सम्राट राजा चन्द्रगुप्त को साधुओं को भेजकर जैन धर्म का प्रचार करवाया। भी जैनधधं में आपही ने प्रति बोधित किया था। यही नहीं सम्प्रति ने सवालाख जैन मन्दिरों का भी इस प्रकार आपने जन शासन की महान् प्रभावना निर्माण कराया था। छत्तीस हजार जन मन्दिरों का की थी। जिर्णोद्धार कराया, सातसौ दानशालाएँ खुलवाई, एकवार भद्रबाहू स्वामी के अतेवासी श्री विशाखा साकरोंड़ जिन बिम्ब, ६५ हजार धातु प्रतिमा कराई। चार्य अपने गुरु के कालधर्म प्राप्त करने पर जब कहते हैं महाराजा संप्रति का नियम था कि जब तक मगध आये तो उन्होंने देखा कि स्थूलीभदजो के साधु नये मन्दिर निर्माण की बधाई नहीं आती तब तक अब वनों और उद्यानों को छोड़ कर नगरों में रहने दतौन नहीं करता था। लगे हैं। उन्हें यह उचित न लगा। दोनों में इस धाधणो, पावागढ़, हमीरगढ, रोहीशनगर, इलौरा विषय को लेकर काफी विचार विमर्ष भी हुआ। पर की गुफा में नेमीनाथजी का मन्दिन देव पत्तन विचार एक न होसके । बस यहीं से जैन शासन रूप (प्रभास पट्टन) ईडरगढ़ सिद्धगिरी सवंतगिरी श्री वृक्ष की दिगम्बर तथा श्वेतम्बर रूप दो शाखाएँ शखेश्वरजी, नदीय नादिया ब्राह्मण वाटक (वामन फूटी। यहीं से सचेलकत्व और अचेलकत्व का प्रश्न वाइजी का प्रसिद्ध महावीर स्वामी का मन्दिर) नादि विशेष पर्चास्पद बना अचेलकत्व के आग्रह स्थानों में कई भव्य जिन मन्दिर अब भी उनकी पाने दिगम्बर कहलाये। अमर कीर्ति गारहे हैं। श्वेताम्बर संघ ने अपनी स्तुति में श्री स्थूलिभद्र सुप्रसिद्ध इतिहास वेता कर्नल टॉड ने टॉड जी को प्रमुखता दी:-मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् राजस्थान, हिन्दी, भाग १ खंड २ अ० २६ पृष्ट ७२१ गौतम प्रभु। मंगलम् स्थूलिभदाद्या, जैनधर्मोस्तु से ७२३ में लिखा है: Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० -AND-18] जैन श्रमण संघ का इतिहास “मैंने कमलमेर पर्वत, जो समुद्र तल से ३३५३ फुट ऊँचा है; उसके ऊपर एक प्राचीन जैन मंदिर देखा। यह मन्दिर उस समय का है जब मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के वंशज राजा सम्प्रति मरुदेश का राजा था, उसीने यह जिन मन्दिर बनवाया है । मन्दिर की बांधणी अति प्राचीन और अन्य मान्दरों से बिलकुल भिन्न है । मन्दिर पर्वत पर होने से अब भी सुरक्षित है । सुस्थित, सुप्रतिबद्ध नवें पाट पर उक्त दोनों आचार्य हुए। आचार्य सुप्रतिबद्ध ने उदय गिर पर्वत पर एक करोड़ सूरि मंत्र का जाप किया जिससे उनकी शिष्य परम्परा "कोटिक गच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुई और निप्रभ्थ गच्छ की एक शाखा बनी । आपके समय भी महाराजा खारवेल, महाराजा चेटक, अजात शत्रु, कलिंगाधिपति वृद्धराज आदि कई राजा गण आपके भक्त बने थे आपके समय एक भयंकर दुष्काल पड़ा । कलिंगाधिपति राजा खारवेल ने इस दुष्काल के प्रभाव से आगमज्ञान को क्षीण होता जान सभी जैन स्थविरों को कुमारी पवंत पर एकत्र किया जिसमें करीब ३०० स्थविर कल्पी साधु तथा ३०० साध्वियां ७०० श्रमणोपासक तथा ७०० श्रमणोपासकाएं एकत्र हुई थीं। कलिंग राज की चिनंति से कई साधु साध्वी मगध मथुरा बंगाल की ओर भी गये । अवशेष दृष्टिवाद का भी संग्रह किया गया । आपके बाद की पाट परम्परा को संख्या बद्ध लिखना विवादस्पद सा है अतः वीर परम्परा के मुख्य २ आचार्यों का ही आगे वर्णन करते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat श्राचार्य उमास्वाति - आर्य महागिरी के शिष्य बलिसिंह के श्राप सुशिष्य थे । आपने 'जैन तत्वों के प्रकाशनार्थ जैन शासन की ही नहीं भारतीय साहित्य संसार की महान सेवा की है। आचार्य उमास्वाति रचित 'तत्वार्थ सूत्र' जैनधर्म के मर्म को प्रकाशित करने वाला सर्व मान्य ग्रन्थ बना है । श्राचार्य वादिदेव सूरि ने 'स्याद्वाद 'रत्नाकर' में लिखा है । “प्रणयन प्रमीगौस्त्र भवदभरुमा स्वाति वाचक मुख्यै" । इससे स्पस्ट है कि आचार्य उमास्वाति ने महान् “तस्वार्थ सूत्र" के साथ २ जैन तत्वार्थ आदि विषयों पर ५०० प्रन्थों की रचना की थी । आपका समय वीर निर्वाण सं० ३३५ से ३७६ का है । कालिकाचार्य जैन इतिहास में गर्दा भिल्लोच्छेदक तथा पंचमी को होने वाली संवत्सरी को चौथ की करने वाले कालिकाचार्य का विशेष महत्त्व पूर्ण स्थान है । आप धारावास नगर के राजा वीरसिंह के पुत्र तथा भरूच के के राजा बालमित्र के मामा थे। आप आचार्य गुणाकर ( गुण सुन्दर ) सूरिजी के पास दीक्षित हुए और स्कंदिलाचार्य के पूर्व युग प्रधान हुए हैं। आपका मूल नाम श्यामाचार्य है । आपकी बहिन सरस्वति भी आपके साथ दीक्षित हुई थी - वह बड़ी रूपवति थीं। एक बार उज्जैन के राजा गर्दा भिल्लने उसका साध्वी अवस्था में हरण कर लिया। कालिका चार्य ने उसे छुड़ाने के अनेक प्रयत्न किये पर कोई फल नहीं निकला देख आप ईरान देश गये और वहां ६६ राजाओं का एक संगठन बनाकर भारत पर 'चढ़ाई की ! भीषण युद्ध हुआ । गर्दभिल्ल मारागया www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा प्रभाविष्ठ जैनाचार्य WIDGID ON NII: - 20:00 • है । शक लोगों कुछ समय राज्य कर बाल मित्र और भानुमित्र को राजा बनाकर चल दिये। दोनों परम जैन धर्म भक्त हुए हैं तत्पश्चात् कालिकाचार्य दक्षिण में विचरने लगे । प्रतिष्ठानपुर के राजा के आग्रह से संवत्सरी चतुर्थी की करने का आपने विधान किया । प्रथा आज भी श्वेताम्बर समाज मान रहा है । पंजाब के 'भावड़ा गच्छ' के प्रवर्तक भी आप ही थे । ये खपटाचार्य आप कालिकालिकाचार्य के भाणेज बलमित्र भानुमित्र के समय भरूच में हुए थे । शास्त्रार्थ में बौद्धों को पराजित कर अश्वाबोध तीर्थ जैनियों के अधिकार में दिलाया। गुडशारखपुर में यक्ष का उपदत्र शान्त किया । और बौद्धमति राजा वृद्ध कर को जैन बनाया। इन्हीं दिनों पाटलीपुत्र के शुग वंशी राजा दाहददेव भूति ने हुक्म निकाला था कि जो भी जैन साधुओं को मानेगा और उन्हें नमस्कार करेगा उसे प्राण दंड दिया जायगा | जैन संघ भयभीत हा उठा। ऐसे संकट काल के समय खपटाचार्य पाटलीपुत्र पचारे और राजा को सदबोध प्रदान कर जेन मोनुयायी बनाया । . आपके 'उपाध्याय महेन्द्रसूरि, नामक शिष्य भी बड़े प्रतापी हुए । परमप्रभाविक आचार्य पादलिप्तसूरि ने आपके पास विद्याध्ययन किया था । श्रार्य खपटाचाय र निः ४५० में स्वर्ग सिवारे | Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इस प्रकार युग प्रधान कालिकाचार्य अपने समय के एक प्रबल राज्य एवं धार्मिक क्रान्ति कर्त्ता रहे हैं। आपका वोर नि० सं० ४६० में स्वर्गवास हुआ । आ० विमल सूरि- आपने वि० सं० ६० में 'पद्म 'चरित्र' की रचना की । आ० इन्द्र दिन्न – आप आर्य सुहस्ति और सुप्रतिपट्टवर थ | आर्य दिन आपके पट्टधर हुए । बद्ध महा प्रभाविक जैनाचार्य ६१ के आचार्य आर्यदिन के पट्टधर आर्य सिंहगिरी तथा आर्य सिंहगिरी के पट्टधर आर्य वज्रसेन हुए । भिन्न २ पट्टावलियों में आपका स्थान भिन्न २ संख्यक पट्टधर के रूप में है । आचार्य पादलिप्तसूर कालकाचार्य की शिष्य परम्परा में आप आर्य नागहस्ति के शिष्य थे। आप महान विद्यासिद्ध और प्रतापी आचार्य हुए हैं। आपके द्वारा पाटलीपुत्र के राजा मुखंड, मानखेट के राजा कृष्णराज प्रतिबोधित हुए। कृष्णराज की राज सभा में आचार्य श्री का बड़ा सन्मान था । भरुच में ब्राह्मलों द्वारा जैनियों के विरुद्ध उठाये गये पड़यंत्र को आपने दबाया । प्रतिष्ठान पुर का राजा सातवाहन भी आपका परम भक्त शिष्य था । आपके गृहस्थ शिष्य महायोगी नागार्जुन ने आचार्य श्री के नाम से शत्रुंजय की तलेटी में पादलितपुर बसाया जो वर्तमान में पालीताणा कहा जाता है। आचार्य श्री ने तरगलाला, निर्वाण कलिका, प्रश्न प्रकाश आदि प्रन्थ लिखे । शत्रुंजय पर अनशन कर स्वर्ग सिधारे । www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર जैन श्रमण संघ का इतिहास DamIPUD DAINIDdunity-II Dail25111410.DOI fill alInIDTIMDARIDADDINDUIDAm आधुनिक विद्वान पादलिप्तसूरी का समय विक्रम आधार पर न्यायावतार' ग्रन्थ की संस्कृत भाषा में की दूसरी सदी होने का अनुमान करते हैं । इसी रचना कर तर्कशास्त्र का प्रणयन किया ! न्यायावतार. दूसरी तीसरी सदी में दिगम्बर प्राचार्य गुणधर, में केवल ३२ अनुष्टुप श्लोकों में सम्पूर्ण न्यायशास्त्र पुस्पदंत भूतबलि ने कषाय पाहुडबर खण्डागम की के विषय को भर कर गागर में सागर भर दिया है । रचना की। न्यायावतार के अतिरिक्त आपकी दूसरी रचना शिवशर्म मूरि-आप कर्मविषयक प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सन्मतितर्क' है। इसमें तीम काण्ड हैं। पहले 'कम्मपयडी' के कर्ता है । आपने प्राचीन पंचम कर्म काण्ड में नय सम्बन्धी विषद विवेचन किया गया है। ग्रन्थ की भी रचना की है। सन्मति तक में नयवाद' के निरूपण के द्वारा प्राचार्य ने सब दर्शनों और वादियों के मन्तव्य को सापेक्ष श्री सिध्दसेन दिवाकर सत्य कह कर अनेकान्त को सांकल में कड़ियों की श्री सिद्धसेन दिवाकर सचमुच जैनसाहित्याकाश तरह जोड़ दिया है। इन्होंने सब दर्शनों को अने. के दिवाकर हैं। ये महान् तार्किक और गम्भीर कान्त का आश्रय लेने का सचाट उपदेश दिया है। स्वतंत्र विचारक आचार्य जैनसाहित्य में एक नवीनयुग सिद्धसेन जैसे प्रसिद्ध तार्किक और न्यायशास्त्र के प्रवर्तक हैं । जैन साहित्य में इनका वही स्थान प्रतिष्ठापक थे जैसे एक स्तुतिकार भी थे। इन्होंने है जो गैदिक साहित्य में न्यायसूत्र के प्रणेता महिष बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं की रचना को, ऐसा कहा जाता गौतम का और बौद्ध-साहित्य में प्रखर तार्किक है किन्तु वत्त मान में १२ बत्तासियाँ हो उपलब्ध है नागार्जुन का है। इनकी उपलब्ध द्वात्रिशिकाओं में से ७ द्वात्रिशिकाए सिद्धसेन दिवाकर के पहले जैन वाङमय में स्तुतिमय है। इन स्तुतियों से यह झलकता है कि तर्क शास्त्रसम्बन्धी कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं था। भगवान महावीर के तत्वज्ञान के प्रति इनकी अपार आगमों में ही प्रमाणशास्त्र सम्बन्धी प्रकोण-प्रकोण श्रद्धा था। सिद्धसेन के जीवन के सम्बन्ध में जानने के बीजरूप तत्व संकलित थे। उस समय का युग तक लिए प्रभावक चरित्र का ही अवलम्बन लेना होता प्रधान न ह'कर आगम प्रधान था। ब्राह्मण और बौद्ध- है। इसके अनुसार ये विक्रमराजा के ब्राह्मण पुरोहित धर्म की भी यही परिस्थित थी परन्तु जब से महर्षि देवपि के पुत्र थे । माता का नाम देवश्रा था। गौतम ने न्यायसूत्र की रचना की तब से तर्क को जन्मस्थान विशाला (अवन्ती) है। सिद्धसेन जोर बढने लगा। सब धर्माचार्यों ने अपने २ सिद्धांतों बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि थे अतः उन्होंने सर्वके तक के बल पर संगठित करने का प्रयत्न किया। शास्त्रों में निपुणता प्राप्त की। वादविवाद करने में उस युग में ऐसा करने से ही सिद्धान्तों की रक्षा हो अद्वितीय होने से तत्कालीन समर्थवादियों में इनका सकती थी। युगधर्म को पहचान कर प्राचार्य सिद्ध. ऊँचा स्थान था। इन्हें अपने पाण्डित्य का बड़ा सेन ने आगमों में बीज रूप से रहे हुए प्रमाणनय के अभिमान था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ६३ ___इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो मुझे बाद में पराल का समय ईस्वी मन पूर्वी २४०० वप यतनाया है। जित करेगा उसका मैं शिष्य बन जाऊँगा। बाद में इस सिद्ध होता है कि पाणिनि रिषि आज संचार वादियों को पराजित करते २ ये वृद्धवादि नामक हजार तीन सौ पचास वर्ष पूर्व हुए हैं । जैनाचार्य से माग में ही मिले और उन्हें बाद करने शाकटायन इससे भी प्राधीन है। इसका नाम की चुनौती दी । अाचाय ने कहा-सभ्य के बिना हार. या'क के निरुक्त में भी जाना है। य याक पाणिनि जीत का निणय कौन करेगा ? अपनी अहंकारमय से कई शताब्दियों पहले हुए हैं। रानचन्द्र घोष ने वाग्मिता के कारण उन्होंने वहाँ जो ग्वाले थे उन्हें अपने 'पीप इन्टु दी वैदिक एज' नामक ग्रन्थ में सभ्य मान लिया। वृद्धवादी ने कहा-अच्छा बोला। लिखा है कि 'यास्क कृति निरुक को हम बहुत तब सिद्धसेन ने सस्कृत में बोलना शुरू किया। ग्वाले प्राचीन समझते है। यह ग्रन्थ वेदों को छोड़कर कुछ न समझे। इसके बाद वृद्धवादी ने अपभ्रंश संस्कृत के सबसे प्राचीन साहित्य से सबन्ध रखता भाषा में देशीभाषा में सभ्यों के अनुकूल उपदेश है। इस बात से यही सिद्ध होता है कि जैनधर्म का दिया। ग्वालों ने वृद्धवादी की विजय घोषित कर अस्तित्व यास्क के समय से भी बहुत पहले था। दी। इसके बाद राजा की सभा में भी वाद हुआ शाकटायन का नाम रिग्वेद की प्रति :शाखाओं में उसमें भी सिद्धसेन पराजित हो गये। फलतः वे और यजुर्वेद में भी आता है। वृद्धवादी के शिष्य बन गये । दीक्षा के बाद उनका शाकटायन जैन थे, इस बात का प्रमाण हूँढने नाम कुमुदचन्द रक्खा किन्तु वे सिद्धसेन दिवाकर के लिए अन्यन्त्र जाने की आवश्यकता नहीं। उनका के नाम से ही प्रसिद्ध हुए। रचित व्याकरण ही इस बात को सिद्ध करता है। वे अपने व्याकरण के बाद के अन्त में लिखते हैं:आर्य शाकटायनाचार्य "महा श्रमण संघाधि पतः श्रत केवलि देशीयाचार्यस्य शाकटायन एक जेन वैयाकरण थे। ये आचार्य शाकाटायस्य कृतौ'। उक्त लेख में आये हुए महा किस काल में हुए इसका प्रमाणिक कोइ उल्लेख नहीं मणसंघ' और श्रुत केवलि शब्द जैनों के पारिभाषिक नहीं मिलता, तदपि यह निविवाद है कि ये प्राचार्य घरेलू शब्दई । इनसे निर्विाद सिद्ध होता है कि प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि से बहुत प्राचीन है । इसका शाकटायन जैन थे। इस गत से यह भी सिद्ध हो कारण यह है कि पानि रिसंप अष्टाध्यायी में जाता है कि पाणिनि और याक के पहले भी जैन "व्योलघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य" इत्यादि सूत्रों में धर्म विद्यमान था। इस प्रकार शाकटानाचर्य का शाकटायन का नामोल्लेख रिया है जो शाकटायन समय ई० सन चार हजार तीन सौ ठहरता है। को पाणिनि से प्राचीनता को प्रमाणित करता है। भदवाह द्वितीय अब विचारना है कि पाणिनि का समय कौनसा है ? इनका नमय विक्रम की पांवव! या छठी शताब्दी इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने महर्षि पाणिनि है। इन्होंने आगमों पर नियुक्तियों की रचना की है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन श्रमण संघ का इतिहास I DEOHILAID THIMINSPINNORPIO -CITA ID politoralik lo-olhttp> Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य IMisoRINDROID INNOIDANSATISAN NumeroltisoltilitSCUINDIANDROIRUIDROINITINiu Invalid enthaliNSFORINor: Nirone olm इसी समय में देवद्धिगणि ने नन्दीसूत्र की संक- अन्य टीकाओं में नहीं है । अतः मलगिरि की टीकाओं लना की। इसमें सब आगमों की सूची दी है। का विशेष महत्व है । मलधारी हेमचन्द्र ने भी आगमों वल्लभी वाचना के बाद यह अंग कब नष्ट हा पर टोका लिखी है । गया और कर नवीन जोड़ा गया यह कुछ नहीं कहा दिगम्बर सम्प्रदाय के आगम जासकता। यह कहा सकता है कि अभयदेव की अन तक जिन आगमों का वर्णन किया गया है। टीका, जो कि बारहवीं शताब्दी के प्रारम्न की है- वे श्वेताम्बर परम्परा को ही मान्य है। दिगम्बर उसके पहले सकी रचना हुई है। इस तरह सम्प्रदाय के मन्तव्य के अनुसार अगादि आगम नन्दी की सूची में दिये गये कई श्रागम भी नष्ट विच्छिन्न हो गये हैं। अतः यह परम्परा अगों-शे पकर दृष्टिवाद के आधार बनाये ग्रन्थों को आगम जिनदास महत्तर-चूर्णिकारों में जिनदास महत्तर रूप से स्वीकार करती है। आगममें षट खएडागन, प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नन्दीमूत्र की तथा अन्य सूत्रों पर क गयपाहुड, और महावन्ध हैं । षटखण्डागम को चूणियां लिखी हैं। रचना पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों द्वारा की गई है। कषायपाहुह की रचना प्राचार्य गुणधर द्वारा आगम-टीकाकार-श्राचार्य हुई है। महावन्ध के रचयिता आचार्य भतबलि हैं । आगमों पर की गई संस्कृत टीकाओं में सबसे इसके अनिरिक्त. यह सम्प्रदाय कुन्दकुन्द नाम के प्राचीन प्राचार्य हरिभद्र की टोका है। उनका समय महाप्रभावक प्राचार्य के द्वारा बनाये गये समयसार, वि० ७५७ से ८५७ के बीच का है। प्रवचनसा, पंचास्तिकाय अष्टपाहुइ, नियमास आदि आचार्य हरिभद्र के बाद दशवों शताब्दी में ग्रन्थों का आगम रूप में स्वीकार करती है। आचार्य शीलांक सूरि ने प्राचारांग और सूत्रकृताङ्ग पर कुन्द कुन्द का समय अभी निश्चत नहीं हो पाया है। संस्कृत टोकाएँ लिखी। इनके बाद प्रसिद्ध टीकाकार विद्वानों में इनके समय के विषय में मतैक्य नहीं है। शान्याचार्य हुर जिन्होंने उत्तराध्ययन पर विस्तृत टीका डा० ए० एन० उपाध्ये इनका ईसा की प्रथम शताब्दी लिखी है। इसके बाद सबसे अधिक प्रसिद्ध टोकाकार में हुए मानते हैं जब कि मुनि कल्याणविजयजी उन्हें अभयदेव सरि हुए जिन्होंने नौ अंगों पर टीकाएँ पॉचची-छठी शताब्दी से पूर्व नीं मानते । गुणधर, जिखों । अभयदेव का समय वि० सं० १७२ से ११३५ पुष्पदन्त और भूतलि आचार्य का समय विक्रम है। भागमा पर टोका करने वालों में सर्वश्रेष्ठ स्थान को दूसरी तीसरी शताब्दी है। आचार्य मलयगिरि का है। इनका समय बारहवी मल्लवादी-ये आचार्य सिद्धसेन के समकालीन शताब्दी है। ये आचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे। वादप्रवीण होने से इन । नाम मल्लवादी था। थे । मलयगिरि की टीकाओं में प्राजेल भाषा में इन्होंने नयरक (द्वादशार) नाम 6 अद्भुत दार्शनिक दार्शनिक विवेचन मिलता है। कर्म, भाचार, भूगोल, प्रन्य को रचना को। इनके इम पन्थ का श्वेताम्बर खगोज आदि सब विषयों पर इतना सुन्दर विवेचन और दिगम्बर दोनों परम्परा पों में समान रूप से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ HINDI HD जैन श्रमण संघ का इतिहास HD HD HD!HD || !!!!!!!!!! सन्मान है। इस नयचक्र पर सिंहक्षमाश्रमण ने १८००० श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका लिखी है। ये सिंहक्षमाश्रमण सातवींसदी के विद्वान् माने जाते हैं। मल्लवादी ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मति तर्क की वृत्ति भी लिखी है । श्री हेमचन्द्राचार्य ने सिद्धहेग शब्दानुशासन में 'तार्किक शिरोमणी' के रूप में इनका उल्लेख किया है | प्रभावक चरित्र में उल्लेख किया गया है कि इन्होंने शीलादित्य राजा की सभा में बौद्धों को बाद में पराजित किया था। इस प्रभ्थ में इनका समय वीर निर्वाण सं० ८८४ (वि० सं० ४१४) दिया गया है । चन्द्र महतर: – इन आचार्य ने पंचसंग्रह नामक प्रसिद्ध कर्म विषयक ग्रन्थ की रचना की । तथा इसी प्रन्थ पर ६००० श्लोक प्रमाण टीका रची है । इनका समय वि० छठी शताब्दी है । संघदास क्षमाश्रमणः - इन आचार्य ने वसुदेव हिरडी नामक चरितप्रन्ध प्राकृत भाषा में रभा । श्री संघदास क्षमाश्रमण ने 'पंचकल्प महाभाष्य' नामक आगमिक ग्रन्थ लिखा है । ये प्रसिद्ध भाष्यकार हुए हैं । श्री धर्मसेन गणी इन ग्रन्थों के निर्माण में इनके सहयोगी रहे हैं । जिनभद्र क्षमाश्रमणः — ये श्राचार्य 'भाष्यकार' के रूप में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । इन्होंने विशेषावश्यक भाष्य की रचना की और उसकी टीका भी लिखी है । इन्होंने आगमिक परम्परा पर दृढ़ रहकर भाष्य की रचना की है। आगम परम्परा के महान संरक्षक होने से ये जनवाङ्गमय में श्रागमवादी या सिद्धांतवादी की पदवी से विभूषित और विख्यात हैं । ये आचार्य जैनागमों के रहस्य के अद्वितीय ज्ञाता माता माने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जाते थे । इनको “युगप्रधान " का सन्माननीय पद प्राप्त था। जीतकल्पसूत्र, वृहत्संग्रहणी, ब्रहत्क्षेत्र समास और विशेषणवती नामक ग्रन्थ भी इन्हीं आचार्य के द्वारा रचे गये हैं । जैन पट्टावली के आधार पर इनका समय वीर नि० सं० ११४५ (विक्रम सं० ६७५) माना जाता है । मानतु गाचार्य:- ये आचार्य वाणेश्वर के राजा हर्ष के समकालीन हैं । इतिहासवेत्ता गौ० ही० श्रोझाने राजपूताने का इतिहास नामक ग्रन्थ के प्रथमभाग पृष्ठ १४२ पर लिखा है कि- “हषं का 1 राज्याभिषेक वि० सं० ६६४ में हुआ। वह महाप्रत पो और विद्वत्प्रेमी था। जैन विद्वान् मानतुंरंगाचा ये ( भक्तामर स्तोत्र के कर्त्ता ) भी उस राजा समय में हुए ऐसा कथन मिलता है" इन आचार्य ने जैनियाँ के प्रिय ग्रन्थ " भक्तामर स्तोत्र" की रचना की । कोट्याचार्य इन्होंने विशेषावश्यक भाष्य पर टोका की रचना की है । सिद्धसेनगणीः – ये भाचार्यसिंहगणी ( सिंहसूर ) के प्रशिष्य और भास्वामि के शिष्य थे। इन्होंने तत्वार्थ सूत्र पर टीका रची। ये आगम प्रधान विद्वान थे । कोई २ इन्हें देवर्षिगण के समकालीन मानते हैं । पं० सुखन्नालजी ने इन्हीं सिद्धसेन को 'गन्धस्ति' पदविभूषित सिद्ध किया है। जिनदास महतरः- ये आचार्य दिगम्बर सम्प्रदाय में अत्यन्त प्रभावशाली हुए हैं। ये सिद्धसेन दिवाकर की तुलना के आचार्य हैं। सिद्धसेन के सम्बन्ध में लिखते हुए इनके विषय में पहले लिखा जा चुका है। इन्होंने श्राप्तमीमांसा, युकत्यनुशासन, रत्नकरंडश्राव www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADOCIA महा प्रभाविक जेनाचाय MICALICO DOT HOOK OMNIS COMING काचार और स्वयंभ स्तोत्र की रचना की है। इन ग्रन्थ रत्नों को देखने से इनकी अनुपम प्रतिभा का परिचय मिलता है । ये स्याद्वाद के प्रतिष्ठायक आचार्य है । अनेक युक्तियों के द्वारा इन्होंने अन्यवादियों के सिद्धांतों का खण्डन कर अनेकान्त का युक्तिपूर्वक मंडन किया है। इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति आप्तमीमांसा है । ये जैनधर्म और जैनसाहित्य के उज्जवल रत्न है । आचार्य हरिभद्र सूरि-आचार्य हरिभद्रसूरि जैन धर्मं के इतिहास और साहित्य में एक नवीन युग के पुरस्कर्त्ता हैं । ये एक प्रचल धर्मोद्धारक भी थे । इनके समय में चैत्यवास की जड़ खूब गहरी जम चुकी थी । जनमुनियों का शुद्ध आचार शिथिल हो गया था उस स्थिति में सुधार करने के लिये ही हरिभद्रसूरि जैसे महाप्रभावशाली आचार्य का प्रादुर्भाव हुआ । शिथिलाचार के विरुद्ध इन आचार्य ने तीत्र आन्दोलन किया जैनमाहित्य को समृद्ध बनाने में इनका उल्लेखनीय योग रहा है । संस्कृत और प्राकृत भाषा में तत्वज्ञान, दर्शनशास्त्र कथासाहित्य, और विविध विषयक तलस्पर्शी विवेचन करने वाले न केवल दो चार प्रन्थ हो लिखे किन्तु १४४४ प्रकरणों के कर्त्ता के रूप में आपकी सर्वविभूत प्रसिद्ध है । इन प्राचार्य की अनेक साहित्यिक कृतियाँ है । इस विल मंथराशि पर से इसके निर्माता की बहुश्रुतता, सागर वर गम्भीर विद्वत्ता और सर्वतोमुखा प्रतिभा का सरल परिचय मिलता है। आगमों के गूढ़ से गूढ़ विषयों का भावद्घाटन करने वाली टीकाएँ आध्यात्मिक विवेचन करने वाले प्रकरण, योग सबधी नवीन प्ररूपण और विस्तृत दार्शनिक चर्चाओं के साथ अनेकान्त का विवेषन, इनके प्रकाण्ड पाण्डत्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ६७ पर्याप्त हैं। का परिचय कराने के लिए हरिभद्र सरि महान् सिद्धान्तकार और दार्शनिक विचारक तो थे ही परन्तु श्र ेष्ठ कथाकार और कवि भी थे । 'समराइच्च कहा' से इनकी कथाशैली और काव्य कल्पना का सुन्दर परिचय मिलता है । C आचार्य हरिभद्र जैनयोगसाहित्य के युग-प्रवत्त क हैं । इनके पहले जैनशास्त्र में योग सम्बन्धी वर्णन चवदह गुणस्थान, ध्यान, दृष्टि आदि के रूप में था परन्तु आचार्य हरिभद्र ने इसे नवीन और लाक्षणिकशैली से दूसरे ही रूप में प्रस्तुत किया । इनके बनाये हुए योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक और षोडशक प्रन्थ इस बात के प्रमाण हैं । पातंजल योग सूत्र में वर्णित प्रक्रिया के साथ इन्होंने जैनयोग की तुलना भी की है। 'योग दृष्टि समुच्चय' में आठ दृष्टियों का किया गया वर्णन समस्त यांग साहित्य में एक नवीन दिशा है। आचार्य श्री के योग विषयक ग्रन्थ उनकी योगाभिरूचि और योग विषयक व्यापक बुद्धि के उत्कृष्ट नमूने हैं ! पं० सुखलालजी ने योग दर्शन पर निबंध लिखते हुए उक्त प्रकार से भाव प्रकट किये है। कलंक -- हरिभद्र के समकालीन दिगम्बर परम्परा में कलंक नामक महा विद्वान नैयायिक हुए। इन्होंने इस शताब्दी में मुख्यतया जैनप्रमाण शास्त्र को पल्लवित किया । "दिग्नाग के समय से बौद्ध और बौद्ध तर प्रमाण शास्त्र में जो संघर्ष चला उसके फलस्वरूप प्रकलंक ने स्वतंत्र जैनहांष्ट से अपने पूर्वाचार्यों को परम्परा का ध्यान रखते हुए जैनप्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित निर्माण सौर 'स्थापन किया" । इनके बनाये हुए ग्रन्थ इस प्रकार है-- अष्ठशतो, www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन श्रमण संघ का इतिहास 10. DMR HD|||||||||||||| लघीवस्त्रय, प्रगणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिनिश्चय प्रमाण प्राकृत गद्य में ५४ महापुरुषों के चरित्र लिखे और तत्वार्थ की राजवर्तिक टीका । हैं (चपन्नमदारिस चरियं ) । ये शीलाचार्य और विद्यानन्दः - विक्रम की नौवीं शताब्दी में दिगम्बरा. शङ्काचार्य एक ही हैं या अन्य हैं यह अनिश्चित हुए हैं । चार्य विद्यानन्द हुए । इन्होंने 'अष्टसहस्त्री' नामक है। इसी नामके कई आचार्य प्रौढ़ प्रन्थ लिखकर अनेकान्तवाद पर होने वाले सिद्धर्षिसूरि-ये महान् जैनाचार्य हुए हैं । इन्होंने आक्षेपों का तर्कसंगत उत्तर दिया है । तत्वार्थसूत्र 'उपमितिभव प्रपञ्च कथा नामक' विशाल रूपक ग्रन्य पर श्लोक बार्तिक नाम से टोका लिखी है। आप्तपरीक्षा, की रचना की है । पत्रपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासन परीक्षा, युक्नुशासनटीका, श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र, बिद्यानन्द महोदय ( अनुपलब्ध ) ग्रंथ भी आपके हैं । उद्योतनसूरी ( दाक्षिणयांक सूरी ) इन आचार्य ने वि० सं० ८३४ में “कुवलयमाला” नामक प्रसिद्ध कथा प्राकृतभाषा में बनाई । चम्पू ढंग की यह कथा प्राकृतसाहित्य की अमूल्य निधि है । इन सिद्धषि ने चन्द्र केवलि चरित्र को प्राकृत से संस्कृत में परिवर्तित किया। न्यायाबतार पर संस्कृत टीका लिखी । वि० सं० ६७४ में इन्होंने धर्म स गणिकृति प्राकृत उपदेशमाला पर संस्कृत विवरण लिखा है । अनन्तवीर्य — इन्होंने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थ की टीका लिख कर अनेक विद्वानों के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है। - 1 आचार्य जिनसेनः - इन्होंने हरिबंश पुराण की रचना की । वीरसेन - जिनसेनः--इन दिगम्बर आचार्यों ने घवला और जयधवला नामक विस्तृत टीकाएँ लिखी हैं । दिगम्बर परम्परा में इनका बड़ा महत्व है। धवला और जयधवला के बीस हजार श्लोकों का निर्माण वीरसेन ने किया । धनंजय - इन्होंने धनजय नाम माला नामक कोश ग्रन्थ लिखा है । द्विसंधान काव्य (शपाण्वीय) तथा विपापहार स्तोत्र इनकी रचनाएँ हैं । शीलांकाचार्य - सवत् ६३३ में इन आचार्य ने आचारांग सूत्र पर तथा बाहरीगांण की सहायता से सूत्रकृताङ्ग पर संस्कृत में टीकाएँ" रचीं । जीवसमाज पर वृत्ति भी लिखी । शीलाचार्य ने दस हजार श्लोक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat माणिक नंदी: - अकलंक के ग्रन्थों के अधार पर इन्होंने 'परीक्षामुख' नामक न्याय ग्रन्थ की रचना को है । इस पर प्रभाचंद्राचार्य ने 'प्रमेयकमलमार्त्त'ड' नामक प्रौढ़ और विशाल टीका लिखी है । देवसेन --- इन्होंने दर्शनसार, आराधनासार, लघुनयचक्र, वहन्नपचक्र, आप पद्धति और भावलं ब्रह ग्रन्थ लिखे हैं । कवि पम्प ने आदिपुराण चम्पू, विक्रमार्जुन विजय तथा कवि पान ने शान्ति पुराण ग्रन्थ लिखा है । तर्कपञ्चानन अभयदेव सूरि :-- ये पद्य ुम्नसूरि के जो वैदिक शास्त्रों के पारगामों और वाद-कुशल थे । शिष्य थे। अभयदेव सूरि को न्यायवनसिंह और तर्कपञ्चानन की उपाधि प्राप्त थी । इन्होंने सिद्धसेन www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचाय ANUNGIN THE QUI CUM QUAN दिवाकर के सन्मति तर्फे पर पच्चीस हजार श्लोक प्रमाण बाद महाराव नाम से विस्तृत टीका लिखी है । इसे इससे पूर्णवर्ती सकल दार्शनिक ग्रन्थों का संदो इन कह सकते हैं। इन आचार्य का समय १०५४ से पूर्व ही सिद्ध होता है। प्रभाचन्द्र: --- आपने प्रमाण शास्त्र पर सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ 'पमेयकमलमा एड' लिखा। ये दिगबर परम्परा के आचार्य हुए हैं । आपने आचार्य अकलंक की कृतियों का दोहन करके व्यवस्थित पद्धति से इस प्रौढ दाश निक प्रन्थ की रचना की। उन्होंने न्यायकुमुदचन्द नामक टीका लघीयस्त्रय ग्रन्थ पर लिखी है । शान्ति सूरि :- ये पाटन धनपाल की प्रेरणा से धारा नगर में आये थे । राजा भोज ने इनका सत्कार किया था। उसको सभा के पण्डितों को जीतने से भांज ने इन्हे 'वादिवेताल' का उपाधि दी थी। इन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र पर सुन्दर टोका लिखी जा 'पाइ अटोका' के नाम से प्रसिद्ध है । जिनेश्वर---ये वर्धमानसार के शिष्य थे। में दुर्लभ राजा के समय में चेत्यवासियों का जार था। जिनश्वरसूरि ने राजा के सरस्वता भण्डार से दशवेकालिकसूत्र निकाल कर उसे बताया कि खाधु का सच्चा आचार यह है; चैत्यवासियां का आचार शास्त्रानुकूल नही है । राजा नं 'खरतर' ( कठार आचारपालन वाल) का उपाधि उन्हें प्रदान का | तब से खरतरगच्छ को स्थापना हुई । नवांगी वृतिकार अभयदेव -- उक्त जिनेश्वरसूरी के शिष्य अभयदेवसूरी और जिनचन्द्रसूरो हुए इन अभयदेय सरी ने श्राचारांग और सत्रकतांग को पाटन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat દ छोड़कर शेष नौअंग सूत्रों पर संस्कृतभाषा में टीका जिखी । चन्द्रप्रभसूरी : — इन्होंने पौमिक गच्छ की सं० १५४६ में स्थापना की । दर्शनशुद्धि और प्रमेय रत्नकोश नामक ग्रन्थ रचे । जिनदत्तमूरो-ये जिनवल्लभ सूरी के शिष्य और पट्टधर थे। इन्होंने अनेक क्षत्रियों का प्रतिबोध देकर जैनधर्मानुयायी बनाये । ये खरतरगच्छ के प्रभावक आचार्य हुए। ये “दादा गुरु" के नाम से विशेष प्रसिद्ध है । श्रजमेर में इनका स्वर्गवास हुआ। स्थानीय दादावाड़ी इन्हीं का स्मारक है। इनके बनाये हुए ग्रन्थ इस प्रकार हैं - गणधर सार्धशतक, गणधर समति, कालस्वरूप कुलक, बिशिका, चर्चरी, सन्देहदोलावलि, सुगुरुवारतन्त्र्य, स्वार्थाधिष्ठायिस्तोत्र, विघ्नविनाशिस्तोत्र, यवस्था कुलक, चैत्यवन्दन कुलक, और उपदेशरसायन | वृहदगच्छीय हेमचन्द्रः---इन आचार्य ने नाभेयनेमि द्विसंधान काव्य की रचना की । यह ऋषभदेव और नेमिनाथ दोनों को समानरूप से लागू होता है अतः द्विसंधान काव्य कहा जाता है । मलधारीं हेमचन्द्रः -ये मलघारी अभयदेव के शिष्य थे । ये अत्यन्त प्रभावक व्याख्याता थे । सिद्धराज जयसिंह इनके व्याख्यानों को बड़े ध्यान से सुनता था । और इनकी प्रेरणा से जैनधर्म के लिए उसने कई हितकारी कार्य किये थे। इनको परारा में हुए राजशखर ने प्राकृत द्वयाश्रयवृत्ति (सं० १३८ ) में लिखा है कि ये प्रद्य ुम्न नामक राजसचित्र थे और अपनी चार स्त्रियों को छोड़ कर अभयदेव के शिष्य www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन श्रमण संघ का इतिहास MilvAIDOININD THILDRID OIL ID DIMIHIDIHATDCIL MITND TAILUND CLININDI MILD DUNIDARDatumDHINDID Emaum बने थे । ये प्राचार्य हेमचन्द्र बड़े विद्वान और 'प्रमाणनयतत्वालोक' नामका सूत्रप्रन्थ लिखा और साहित्य निर्माता थे। इनके ग्रन्थों का प्रमाण लगभग उस पर स्याद्वादरत्नाकर नामक वृहत्काय टीका एक लाख श्लोक का है लिखी। इनमें इन्होंने अपने समय तक की समस्त ___ इन प्राचार्य ने माभिनेमि द्विसधान काव्य की दार्शनिक चर्चाओं का संग्रह कर दिया है तथा वन्य रचना की। यह ऋषभवदेव और नेमिनाथ दोनों को वादियों की युक्तियों का सपोट उत्तर दिया है। समानरूप से लागू होता है अतः द्विसंधान काव्य इसकी भाषा काव्यमय और आह्लादक है। न्यायप्रन्थों कहा जाता है। दे भद्रसूरि-ये नवाँगी टीकाकार में इसका उच्चस्थान है । इनका स्वर्गवास सं० १२२६ अभयदेव के सुशिष्य थे। इन्होंने आराहणासत्य, में (कुमारपाल के समय में ) हुआ। वीरचरियं, कहारयण कोस, पार्श्वनाथ चरित्र श्री सिंह व्याघ्रशिशुः- वादीदेव के समकालीन रचना की। आनन्दसूरि और अमरचन्द सूरी हुए। ये नागेन्द. मुनि चन्द्रसूरिः-चे वृहद्गच्छ के यशोभद्र गच्छ के महेन्द,सूरी-शान्तिसूरी के शिष्य थे । बाल्या. और नेमिचन्द्र के शिष्य थे। ये बड़े तपस्वी थे और वस्था से ही वाद प्रवीण होने से तथा कई वादियों सोवीर ( कांजी ) पीकर रहे जाते इसलिए सौवार को याद में पराजित करने से सिद्धराज ने इन्हें क्रमशः पायी' भी कहे जाते हैं। इनकी आज्ञा में पांच सौ 'व्याघ्राशिशुक' और 'सिंह शिशुक' की उपाधि दो श्रमण थे। इन्होंने कई ग्रन्थों पर टीकयें लिखी हैं। थी। अमरचन्द मरी का सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ था कई छोटे २ प्रकरण प्रन्य लिखे हैं। ये प्रसिद्ध लेकिन वह उपलब्ध नहीं है। वादिदेवसूरि के गुरु थे। श्री चन्द्रसूरिः- ये मलधारी हेमचन्द के शिष्य वादी देवमूरि-इनाका जन्म गुर्जरदेश के महाहृत थे। इन्होंने संग्रहणी रत्न और मुनिसुव्रत चरित्र ग्राम में प्राग्वाट (पोरवाड़ ) वणिक कुल में सं० (२०६६४ गाया ) की रचना की । हेमचन्द के दूसरे ११४३ में हुआ था। सं० ११५२ में नौ वर्षको अवस्था शिष्य विजयसिंह सूरि ने धर्मोपदेशमाला विवरण में इन्होंने दीक्षा धारण की और ११७४ में आचार्य (१४४७१६ श्लोक प्रमाण) लिखा । हेमचन्द के तीसरे पद परआरूढ़ हुए। ये प्राचार्य वादकुशल होने से शिष्य विबुधचन्द ने 'क्षेत्रसमास' तथा चतुर्थ शिष्य वादी की उपाधि से सम्मानित हैं सिद्धराज की सभा लक्ष्मण गणो ने 'सुपासनाह चरिय' लिया। में इन्होंने दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र से शास्त्रार्थ कवि श्रीषालः-सिद्धराज जयसिंह का विद्वात्स। कर विजय प्राप्त की थी मिद्धराज ने इन्हें जय्यत्र के सभापति कविराज श्रीपान थे। ये पारवाड़ वैश्य और लक्ष स्वर्ण मुद्रा तुष्टि दान देना चाहा परन्त उन्होंने जन थे । इन्होंने एक दिन में धैरोचन पराजय' नामक अस्वीकार कर दिया। महामन्त्री प्राशुक की सम्मति चक्रवर्ती की उपाधि दी थी। इनके ग्रंथ सहस्त्रलिंग ' महाप्रबन्ध बनाया जिससे सिद्धराज ने इन्हें 'कविसे सिद्धराज ने इस दृव्य से जिनप्रसाद करवाया। सरोवर प्रशारित, दुर्लभ सरोबर प्रशास्ति, रूद्रमाल ये आचार्या बड़े नैयायीक थे। इन्होंने न्यायशास्त्र का प्रशस्ति, और और आनंदपुर प्रशस्ति है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा प्रभाविक जैनाचाय ७१ AIDAImand00AMIC ADMAnumaan IITSOILIND OIL IDOLICADAIPHILASH JAGHO I KATHA कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र आगे चलकर महा प्रभावक होगा अतः उन्होंने उसके कलिकाल सर्वज्ञ श्राचार्य हेमचन्द्र, नफेवल जैन ___ माता-पिता को शासन को प्रभावना के लिए बालक धर्म की अपितु अतीत भारत की भव्य विभूति हैं। को उन्हें सौंप देने के लिए समझाया। हषी तरेक ये संस्कृत प्राकृत मा हत्य संमार के मार्ग म चक्रवर्ती । और पुत्रप्रेम से गद्गद् होकर माता ने उस बालक कहे जा सकते हैं। काल कालभवज्ञ को उपाधि इनकी को आचार्य श्री को सौंप दिया। आचार्य उसे लेकर सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय देने के लिए पर्याप्त खम्भात पधारे। यहाँ जैनकुल भूपण मंत्री उदयन है। पिटर्मन आदि पाश्चात्य विद्वानों ने इन्हें शासन के रूप में नियुक्त थे। थाड़े समय तक वहाँ ज्ञान के महासागर' की उपाधि से अलंकृत किया है। रखने के बाद सं० ११५४ में इन्हें दीक्षा दी गई और साहित्य का कोई भी अंग अछूना नही है जिस पर सोमचन्द्र नाम रवाया गया । सं. ११६६ में आचार्य इन मडाप्रतिभा सम्पन्न प्राचार्य ने अग्नी चमत्कृति पद प्रदान किया और 'हमचन्द्र सूरि' नाम रक्खा । पूर्ण लेखनी न चलाई हो। व्याकरण, काव्य, कोष, इस समय इनकी अवस्था केवल २५ वर्ष की थी। लन्द, अलंकार, वैद्यक, धर्मशास्त्र, न्यायशास्त्र हेमचन्द्राचार्य विचरते २ गुजरात की राजधानी गजनीति योगविद्या; ज्योतिष, मवतन्त्र, रसायन विद्या पाटन में आये । पाटन नरेश सिद्धराज जयसिंह आदि पर आपने विपुल साहित्य का निर्माण किया। इनकी विद्वत्ता से मुग्ध हो गया। अपनी विद्वत्समा कहा जाता है कि इन्होंने साढ़े तीन कोइ लोक प्रमाण में इन्हें उच्च स्थान प्रदान किया और इन पर प्रन्थों की रचना की थी। वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थों असाधारण श्रद्धा रखने लगा । धीरे २ सिद्धराज की का प्रमाण इतना नहीं है इससे प्रकट होता है कि सभा में इनका वही स्थान हो गया जो विक्रमादित्य दूसरे ग्रन्थ विलुम हुए होंगे। तदपि उपलब्ध ग्रन्थों की सभा में कालिदास का और हर्ष की सभा में का प्रमाण भी विस्मय पैदा करने वाला है। इन बाणभट्ट का था। नरेश सिद्धराज जयसिंह की विशेष श्राचार्य को आज के युग के अनुरूप भाषा में जीवित- विनंति पर आचार्य श्री ने एक सर्वांग सम्पन्न वृहतविश्वकोष' की उपाधि दा जा सकता है। व्याकरण की रचना की और इस व्याकरण का नाम जीवन परिचयः-गुर्जर प्रान्त के धन्धुसाग्राम "सिद्धहेम" रखा। जो सिद्धराज और प्राचार्य श्री के में एक मोढ वणिक दम्पति के यहाँ सं. ११४५ कार्तिक पुण्य संम्मरणों का सूचक है । पूर्णिमा को इनका जन्म हुआ। पिता का नाम चाचदेव मोना जन्म आरिता का नाम चाचदेव आचार्य श्री का सिद्धराज पर बड़ा प्रभाव था। और माता का नाम चाहिनादेवी था इनका बाल्य यद्यपि सिद्वराज शैव था तदपि इन आचार्य श्री के नाम चगदेव था। एक दिन पाचार्य देवचन्द्रसूरि प्रभाव से उसने जैनधर्म के लिए कई उपयोगो कार्य धंधुका में आये । उनके उपदेश श्रवण हेतु चंगदेव किये। भी अपनी माता के साथ उपाश्रय में गया । बालक के सिद्धराज के बाद पाटन की राजगहो पर कुमारपाल शुभलक्षणों से आचार्य ने जान लिया कि यह बालक श्राया । कुमारपाल के संकट दिनों में आचार्य श्री ने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास H uttitucilitaticall:lisIllus Illulu III: BlushlisIllutill I l ivil Illus illulu Ill:th=IP mi IP l In ही उसे संरक्षण और प्राश्रय दिया था। राज्यारूढ कोष ग्रन्थः व्याकरण और काव्य रूप ज्ञानमन्दिर होने पर कुमारपाल ने आचार्य श्री से जैनधर्म के स्वर्णकलश के समान चार कोष प्रन्थों की आचार्य अंगीकार कर लिया और अपने सारे राज्य में अमारि- हेमचन्द्र ने रचना की है। अभिधान चिन्तामणि में घोषण करवादी। कुमारपाल आचार्य हेमचन्द्र को ६ काण्ड हैं । अमर कोष की शैली का होने पर भी अपना गुरु मान कर सदा उनका कृतज्ञ और भक्त उसकी अपेक्षा इसमें व्योठे शब्द दिये गये हैं। इस बना रहा । आचार्य श्री ने भी उसे 'परमाहेत' के पद पर दस हजार श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ टीका भी लिखी से सम्बोधित किया। कुमारपाल का राज्य प्रादर्श है। दूसरा कोष 'अनेकार्थ संग्रह' है। इसमें एक ही जैनराज्य था। शब्द के अधिक से अधिक अर्थ दिये हैं। इस पर आचार्य श्री की मुख्य २ साहित्यक रचनाएँ इन भी स्वोपज्ञ वृत्ति है। तीसरा कोष “देशी नाम माला" प्रकार हैं:-सिद्ध हैम व्याकरणः है । इसमें प्राचीन भाषा के ज्ञान हेतु देशी शब्द हैं। "सिद्ध हैम व्याकरण" के ८ अध्याय हैं । प्रथम चौथा कोष निघण्टु है जिसमें वनस्पतियों के नाम सात में संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण व्याकरण आगया और भेदादि बताये गये हैं। यह कोष यह बताता है है और आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, कि आयुर्वेद में भी आचार्य श्री की अव्याहतगति थी। पैशाची, चूलिकाशाची और अपभ्रंश-इस षड़भाषाओं छन्दशास्त्र-पर 'छन्दोअनुशासनम् अनुपम कृति है। का व्याकरण है। काव्यानुशासनम्:-इसमें साहित्य के अंग, रूप, रस, अलंकार, गुण, दोष, रीत्त आदि का मर्मस्पर्शी ____सम्पूर्ण कृति १ लाख २५ हजार श्लोक प्रमाण विवेचन किया गया है । इस पर 'अलंकार चूडामणि, है। इस व्याकरण को रचना में आचार्य श्री की नामक स्वोपज्ञ वृत्ति है तथा अलंकार वृत्तिविवेक नाम प्रकर्षप्रतिभा का पद-पद पर परिचय मिलता है। दूसरी स्वोपज्ञ टोका भी है । ____काव्य कृतियाँ-आपने व्याकरण में आई हुई योगशास्त्रः इसका दूसरा नाम आध्यात्मोपनिषद् संस्कृत शब्दसिद्धि और प्राकृत रूपों का प्रयोगात्मक है। इस पर बारह हजार श्लोक प्रमाण स्वांपज्ञ टीका ज्ञान कराने के लिए सस्कृत द्वयाश्रय और प्राकृत है। इसमें आध्यात्मिक योग निरुपण के साथ २ द्वयाश्रय नामक दो उत्कृष्ट महाकाव्यों की आचार्य आसन, प्राणायाम, पिण्डस्थ, पदाथ श्रादि ध्यानों का श्री ने रचना की है । काव्य कला को दृष्टि से दानों निरुपण भी किया गया है। श्रेष्ठ कोटि के महामाव्य हैं। संस्कृत काब्य पर कथाग्रन्थः-समुद्र के समान विस्तृत और गम्भीर अभयतिलक गणि ने सतरह हजार पांचसौ चहोत्तर विषष्टिश् लाका पुरुष चरित्र' और 'परिशिष्टपव' श्लोक प्रमाण टोका लिखो है और प्राकृत काव्य पर आपको महान कथा कृति है। इसका परिमाण ३४ पूर्णक श ग िने चार हजार दो सौ तीस श्लोक हजार श्योक प्रमाण है। इसमें २४ तीर्थंकर, १२ प्रमाण टीका लिखी है। गुजरात के इतिहास की दृष्टि चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव, और । प्रतिवासे भी इन काव्यों का पर्याप्त महत्व है। देवों के चरित्र वणित हैं । यह महाकाव्य कहा जा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ७३ SCHIUILDIVORD OIRATRAIILLIAMusalli in In HDAI IITHL Tilor Dola IIIHEWS HINDI IND OIL MOH सकता है । परिशिष्ट पर्व में भगवान महावीर से श्री चाहते तो अपनी प्रतिभा के बल पर अलग लेकर युगप्रधान वजस्वामी तक का इतिहास उल्लि- सम्प्रदाय स्थापित कर सकते थे परन्तु यह उनकी खित है । ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करने वाला यह उदारता और निस्पृहता थी कि उन्होंने जेमधम को मुख्य प्रन्य है। ही दृढ़, स्थिायी और प्रभावशाली बनाने में ही अपनी न्यायग्रन्थः-प्रमाणमीमांपा और दा 'अयोग समस्त प्रतिभा का सदुपयोग किया । अन्त में ८४ वर्ष व्यवच्छेदिका' तथा अन्ययोग व्य ,च्छेदिका' रूप की आयु में सं० १२२६ में गुजरात की ही नहीं समस्त स्तुतियाँ आपकी दार्शनिक कृतियाँ हैं। प्राचार्य श्री भारत की यह आसाधारण विभति अमर यश को ने अपने समय तक के विकसित प्रमाण शास्त्र की छोड़कर गित हो गई। सारभूत बात लेक' प्रमाणमीमांसा की सूत्रबद्ध रचना जैन संसार और संस्कृत-प्राकृत संसार में श्राचार्य की है । न्याय प्रन्यों में इस ग्रन्थ का बड़ा महत्व है। हेमचन्द्र का यावच्चन्द्र दिवाकरौ अमर रहेगा। उदयनाचार्य ने कुसमाजाल में जिस प्रकार ईश्वर की प्राचार्य आनन्दशकर धुब्र ने कहा है:-"ई. सन् स्तति रूप में न्यायशास्त्र को गुम्फित किया है इसी १.८६ तक के वर्ष कलिकालसर्गज्ञ हेमचन्द्र के तेज तरह प्राचार्य हेम चन्द ने भी महावीर की स्तुति रुष से दैदीय्यमान है ।" जनधर्म और भारतीयसाहित्य में इनकी रचनाएँ को है श्लोकों की रचना महाकवि के इस महान ज्योतिर्धर से भारतीय साहित्य का कालिदास की शैली का स्मरण कराती है। अन्ययोग इतिहास सदा जगमगाता रहेगा। व्यच्छेदिका पर माल्लषेण सूरी ने स्याद्वादमंजरी रामचन्द्र सूरी:-श्री हेमचन्द्राचाय काव्य, न्याय नामक प्राब्जल टीका लिखी है। और व्याकरण के पारगामी विद्वान् होने से ये नीतिगन्थ में अहन्नीति आपके द्वारा रचित कही विद्यवेदी' के विशेषण से विभषित थे। सिद्धराज जाती है परन्तु इसमें सन्देह है क्योंकि यह आपकी जयसिंह ने इन्हें 'कवि कटारमल्ज' की उपाधि प्रदान प्रतिभा के अनुरूप कृति नहीं है। की थी। ___ इस प्रकार व्याकरण, काव्य, कोष छन्द, धर्म हमचन्द्राराये के शिष्यमण्डल में रामचन्द्रसूररि शास्त्र, न्यायशास्त्र, आयुर्वेद, नीति आदि विषयों पर के अतिरिक्त गुणचन्द गणी; महेन्द्रसूरि, वर्धमान गणी, आपका पूर्ण अधिकार हाने से तथा सर्वतोमुखी देव चन्द मुनी, यशश्चन्द, उदयचन्द, बालचन्द प्रनिभा के धनी होने से आपका नाम 'कलिकाल- आदि अनेक विद्वान शिष्य थे । गुणचन्द गणी दव्यासर्वज्ञ' बिल्कुल यथार्थ सिद्ध होता है। लंकार और नाट्यदर्पपण की रचना में रामचन्दसरि प्राचार्य श्री ने साहित्य सेवा के अतिरिक्त भी के सहयोगी रहे। जैनधर्म को महती प्रभावना की है। कहा जाता है महेन्द्रसूरि ने अनेकार्थ संप्रहकोश पर 'अनेकार्य कि आपने डेढ लाख मनुष्यों को जैन धर्मानुयायी कैरवाकर कौमुदी' टीका लिखी। वर्धमान गणः-- बना था। श्रीमद् राजचन्द्र ने लिखा है कि आचार्य कुमारांवहार शतक पर व्याझ्या और 'चन्द्रलेखा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन श्रमण संघ का इतिहास INDI A N D RANIHINDali-mp-ATI AIIOS-alin INo dilhuto dilli tub HINDICUIND OIRID O R CHII विजय' नाटक लिखा। बालचन्दगणि ने मानमुद्रा नेमिचन्दश्रेष्टी-इन्होंने 'सट्ठिसय' नामक प्राथ भंजन नाटक और 'स्नातस्या' स्तुति लिखी । रामभद्र प्राकृत में रचा । 'उपदेश रसायन' और 'द्वादशकुलक (देवसरि संतानीय जयप्रभसूरि के शिष्य ) ने इसी पर विवरण लिखे, नेमिचन्द इन्होंने प्रवचन सारोद्धार समय "प्रबुद्ध रोहिणेय' नाटक लिखा। की विषमपद व्याख्या टीका, 'शतक कर्मग्र'थ' पर राजा अजयपाल के जैनमन्त्री यशःपाल ने 'मोह टिप्पनक और कर्मस्तव पर भी टिप्पनक लिखे। पराजय' नाटक लिखा । प्राचार्य मल्लवादी ने 'धर्मों तिलकाचार्य--इ.होंने जीतकल्प वृत्ति, सम्यकत्व त्तर टिप्पनक' नामक दार्शानिक टीका ग्रन्थ लिखा । प्रकरण की टीका (पूर्ण की ), आवश्यनियुक्ति, रतप्रभसूरी:-ये प्रसिद्धवादी वादीदेवसूरि के शिष्य लघुवृत्ति, दशवैकालिक टीका, श्रावक प्रायश्चित्तथे। इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना 'स्याद्वादरत्नाकरावतारिका' समाचारी, पोषध प्राश्रितसमाचारी, वंदनकप्रत्याख्यान है जो स्याद्वाद रत्नाकर में प्रवेश करने के लिए महा लए सहा- लघुवृत्ति, श्रावकातिकमणसत्र लघुवृत्ति, और पाक्षिक यक रूप में लिखी। इसमें तनी सुन्दर भाषा में न्याय सूत्रावचूरि ग्रंथ लिखे हैं। का शुष्क विषय प्रतिपादित किया गया है कि पढ़ते २ । संस्कृत साहित्य में इनका बहुत ऊँचा स्थान है। काव्य का आनन्द आता है । स्याद्वाद रत्नाकर की इनके प्रथों की कीर्ति जनसमाज में ही अपितु ब्राह्मण अपेक्षा 'अवतारिका' का प्रचलन अधिक हुआ। समाज में भी प्रख्यात है। इनके बाल भारत' और इन्होंने प्राकृत भाषा में नेमिनाथ चरित्र सं० १२३३ कवि कल्पलता नामक प्रथ ब्राह्मण समाज में विशेष में लिखा। १२३८ में धर्मदास कृत उपदेशमाला पर प्रख्यात थे। दोही वृत्ति लिखी। महेश्वरसरि (वादीदेवसूरि के शिष्य) ने पाक्षिक बालचन्द्रसूरिः- इन्होंने वस्तुपाल की प्रशसा में सप्पति पर सुविप्रबोधिनी टीका लिखी। सामप्रभसरि वसन्तःवलास नामक महाकाव्य की रचना की। ने 'कुमारपाल प्रतिबोध' नामक ग्रन्थ लिखा । हेमप्रभ करुणात्रजायुध नाटक-उपदेश कंदली पर टीका तथा सरि-ने 'प्रश्नोत्तर रत्नमाला' प्रर वृत्ति लिखी। विवेकमंजरी पर टीका भी इनकी रचनाएँ है । जयसिंह परमानन्दसरि (वादिदेवसूरि के प्रशिष्य ) ने खड़न- सूरि ने वस्तुगाल तेज गल प्रशस्तिकाव्य, और हम्मीरमण्डन टिप्पन लिखा । देवभद्र ने प्रमाणप्रकाश और मदमदननाटक लिखा । उदयप्रमसूार ने सुकृतकल्लोश्रयांसचरित्र लिखा। सिद्धसेन ( देवभद के शिष्य ) लिनी, धर्माभ्युदय महाकाव्य, नेमिनाथ चरित्र, आरंभभिद्धी ज्योतिषग्रन्थ ', षडशीति और कमस्तव ने प्रवचन सागेद्धार ( नेमिचन्द कत ) पर तत्वज्ञान पर टिप्पन, उपदेशमाला कर्णिका टीका आदि प्रन्थ विकासिनी टीका, सामाचारी पद्मप्रभ चरित्र और लिख । स्तुतियाँ लिखी। महाकविआसड़-इम महाकवि को कमिसभागार की उपाधि थी। इन्होंने कालिदाम नरचन्द्र सूरि-इन्होंने प्रस्तुपाल के आग्रह से के मेघदूत पर टोका लिखी तथा उपदेश कंदली, 'कयारत्न सागर' अन्थ की रचना की। इनके ग्रन्थ विवेक मंजरी और कतिपय स्तोत्र लिखे । इस प्रकार हैं-प्राकृतदीप का प्रबोध, कथा रत्नसागर, Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जेनाचार्य UND THIMITEITINDAININSTARNADIMANISentwisonurunser IDEAS CRUGIRISTIAN HIHIDIMPLS-Cult.uniIN INonsulti>ContHIND-IN अनवराघव टिप्पन, न्यायकंदली (श्रीधर ) टीका, 'प्रत्येक बुद्ध चरित्र' नामक १७ सर्ग का महाकाव्य ज्योतिः सार और चतुर्विशति जिन स्तुति । इनके रचा। पूर्णकलश ने द्वयाश्रय पर वृत्ति रची । अभयशिष्य नरेन्द्रप्रभ ने अलंकार महोदधि की रचना को। तिलक-स० १३१२ में हेमचंदाचार्य के द्वयाश्रय इनके गुरू श्री देवप्रभसूरि ने पाण्डव चरित्र, मृगावती काव्य पर वृत्ति पूर्ण की। चरित्र और काकुल्थकेलि गन्थों की रचना की। ये भी जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । मुनिदेवसरि:माणक्यच दसूरि ने 'पार्श्वनाथ चरित्र', शांतिनाथ ये वादिदेवस िवश में मदनचन्दसरि के शिष्य थे। चरित्र और 'काव्य प्रकाश संकत' लिखे। इन्होंने संस्कृत में शांतिनाथ चरित्र और धर्मोपदेशदेवेन्द्रसरिः माला पर वृत्ति रची। सिंहतिलक सूरि से १३२२ से ___ तपागच्छ के स्थापक जगच्चंद्रसूरि के पट्टधर २६ तक यशोदेवसरि के शिष्य बिबुधचंदसरि तच्छि. देवेन्द्रसरि हुर। इन्हों ने पांच कर्म गथों को नवीन ष्य सिंहतिलक सूरि ने वर्धमान विद्याकल्प, लीलारूप दिया । इन पर स्वोपज्ञ टोकाएँ भी लिखी । इसके वती वृत्तियुक्त, गणिततिलकवृति; मंत्रराज रहर, अतिरिक्त देवनंदन, गुरूवंदन और प्रत्याख्यान नामव और भुवनदीपक वृत्ति गंथ लिखा । प्रभाचंद सरि ने तीन भाष्य भी लिखे । सिद्ध पंचाशिका (?) धर्मरत्न संवत् १३३८ में प्रभावक चरित्र लिखा । उदयप्रभसरि टीका और श्रावकदिनकृत्यसवृत्ति गय भी इन्होंने विजयसेन के शिष्य उदयप्रभसूरि ने धर्माभ्युदय रचे हैं। दानादि कुलक, सुदर्शना चरित्र तथा भनेक काव्य लिखा। मल्लिषेण–इन्होंने भाचार्य हेमचंद स्तवनों तथा प्रकरणों की आपने रचना की है। इन जी अन्ययोगव्यवच्छेदिका द्वात्रिंशिका पर स्याद्वाद आचार्य की व्याख्यानशैली बड़ी प्रभाविक थी इनके मंजरी नामक सुन्दर दार्शनिक टीका (सं० १३४६ में) व्याख्यान में (खम्भात के कुमार प्रासाद में) १८०० लिखी । मनुष्य तो सामायिक करने वैठते थे । वस्तुपाल मंत्री जिनप्रभसूरि लघु खरतरगच्छ प्रवर्तक निर्मिह भी इनके श्रोताओं में से एक थे । इनका स्वर्गवास सूरि के शिष्य जिनप्रभसूरि एक असाधारण प्रति. १३२७ में हुआ। भावान ग थ निर्माता हुए हैं । इन्होंने विविध तीर्थधर्मघोषसरिः कला-कल्पप्रदीप लिखे । इन सार के प्रतिदिन नया __ ये दवेन्द्रसरि के शिष्य थे। इन्होंने संघाचार स्तवन बनाने की प्रतिज्ञा थी । इन्होंने विविध छन्दों भाष्य चैत्यवंदन भाष्य-विवरण लिखा। कान सप्ततो में नई २ तरह के सात सौ स्तवन बनाये ऐसा कहा जाता है। सावचूरि-कान स्वरूप विचार, श्राद्धजोतकल्प दुषमकाल सस्तोत्र और चातुवशक्ति जिनस्तुति की भी रचना को । इनके शिष्य सोमप्रभ ने यति जीतकल्प और नागेन्दगच्छ के चन्दप्रभसरि के शिष्य मेहतुग २८ यमकस्तुतियाँ लिखो। सरि, ने सं० १३६१ में वर्धमानपुर में प्रबन्धचिंता. ये जिनेश्वरसरि के शिष्य थे इन्हा ने संस्कृत में मणि तथा विचारश्रोणो स्थविरावली लिखे। इसमें Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास UIDAIMIRIDHIOIDAONLIBAmbimump CID Olilip DINNIND DIHDIRED CIIIA HIDDIHIN|D QUANTITIHINDI. HIDDIm इतिहास की मामग्री भरी पड़ी है। पाश्चात्य विद्वानों मुसलमान शासकों के समय में भी जैनविद्वानों ने इन गंथों को विश्वसनीय माना है। गुजरात के की सरस्वती आराधना का क्रम यथावत् चलता रहा। इतिहास के लिए तो यह एक आधार भूत गूथ गिना इस सतरहवीं शताब्दी में और इसकी पूर्ववर्ती जा सकता है। शताब्दियों में भी जैनमुनियों ने अपनी प्रतिभा से मुसलिम शासकों पर भी अपना अभिट प्रभाव डाला। ___ इसी प्रकार सुधाकलश, सोमतिलक, गजशेखर अतः इस काल में भी उनकी साहित्याराधना का प्रवाह सरि, रत्नशेखर, जयशेखर सरि, नेरूतुग आ द बड़े अमोघ रूप से प्रवाहित होता रहा । गुजराती साहित्य विद्वान साहित्यकार हुए हैं जिनकी कृतियाँ क्रमशः के विकास में जैनमुनियों का असाधारण योग रहा संगीत, दर्शन, प्रबन्ध, कोष, चरित्र विषयक कई है यह सब गुजराती साहित्यवेत्ता स्वीकारर करते हैं । गंथ रचे हैं । स्थानाभाव से विशेष परिचय नहीं दे विजयसरिजी-आप जगद् गुरु हीर विजयसूरि के पा रहे हैं। पट्टधर हैं। आपने योगशास्त्र के प्रथम श्लोक के इस शताब्दी में देवसुन्दरसरि महाप्रभाविक ५०० अथे किये हैं। आपके पट्टधर विजयदेव सूर आचार्य हुए इन्होंने अनेक ताडपत्रीय प्रतियों को कागज पर लिख वाया । इनके अनेक विद्वान् शिष्य विजयदेवसरि-आप प्रखर शास्त्रार्थ कर्ता एवं मत्र शास्त्र ज्ञाता हुए हैं। हीर विजय सूरिः-सतरहवीं शताब्दी के मुख्य ॐ अानन्दघनजो के प्रभावकपुरुष जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि हुए जिन्होंने अध्यात्मयोगी श्री दधनजी इनकी मुख्य प्रवृत्ति अकबर बादशाह पर गहरी छाप डाली। इनके विद्वान् अध्यात्म की ओर थी पहले ये लाभानन्द नाम के शिष्य भानुचन्द्र उपाध्याय तत् शिष्य सिद्धिचन्द्र उपाध्याय, आदि ने साहित्यरच..। के द्वारा संस्कृत श्वेताबर मुनि के रूप में थे बाद में अध्यात्मगांगी साहित्य की समृद्धि की। पुरुष आनन्दघन के नाम से विख्यात हुए । इन्होंने अपनी आध्यात्मिता की झांकी स्वनिर्मित चौबीपियों श्री धर्मसागर उपाध्याय, विजयदेवसूरि, ब्रह्ममुनि, में प्रतिबिम्बित की है। इनकी चौबीसियों में जा चन्द्रकीर्ति, हेमविजय, पद्मसागर, ममयसुन्द, गुण- आध्यात्मिक भाव हैं वे अन्यत्र दुर्लभ है । इनके विनय, शांतिचन्द्र गणि, भानुचन्द उपाध्याय, अनेक पद 'अानन्दघन बहोत्तरी' में दिये गये हैं सिद्धिचंद्र उप ध्याय रत्नचंद्र, साधुसु दर, महजकीर्ति उनमें आध्यात्मिक रुपक, अन्तर्योति का श्राविर्भाव, गणि, विनयविजय उपाध्याय, वादचंद्र सूरि, भट्टारक प्ररणामय भावना और भक्तिका उल्नास व्याप्त होता शुभचं, हर्षकीर्ति आदि अनेक ग्रंथकर्ताओं ने इस हुआ दिखाई देता है। आनन्दधन जी जैनधर्म की शताब्दी के साहित्य श्री को समृद्ध बनाया। भव्य विभूति हैं। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास GUPTADISUDDITIHIDATIOhio dINHAIY: ADMISHRADITINUTESTLivuxmumtIDOISOLUTIONSamaOHINDIm जगदगुरु श्री हीरविजय सरि की गई । इस समय गुजरात के दूधाराज के जैन मंत्री चांगा सिंघी ने बड़ा उत्सव किया। इसके बाद प्राचार्य मध्य युगीय जैनाचार्यों में जगद्गुरु श्रीहीरविजय देव पाटण गये जहां वहां के सबेदार शेरखां के सुरि एक अत्यन्त प्रभावशाली एवं धर्म प्रभावक मन्त्री समर्थ भनसाली ने आपके सन्मान में गच्छा. जैनाचार्य हुए हैं। आपकी कीति भारत में सर्वत्र नुज्ञा उत्सव किया। फैल रही थी । भापके अगाध पांडित्य और चामत्का संवत् १६२१ में आपके गुरु श्री विजयदान सरि रित तेजस्विता से मुगल सम्राट महान् अकबर बड़ा जो का वरड़ी ग्राम में स्वर्गवास हो गया-तब आप प्रभावित हुआ था। तपागच्छ नायक बनाये गये । ___ आपका जन्म पालनपुर कुरा नामक प्रोसवाल ___ गच्छ नायक बनने के पश्चात् तो आचार्य श्री जातीय सज्जन के घर सवत् १५८३ में हुआ था। की कीर्तिध्वजा उन्नत आकाश में फहराने लगी तत्कामाता का नाम नाथी बाई था । तेरह वर्ष की अवस्था लीन मुगल सम्राट अकबर महान ने भी आपकी यश में ही माता पिता स्वर्गवासी हो गये थे। एक समय गाथा सुनी आचार्य श्री से भेंट करने की प्रबल इच्छा आप अपनी बहन के यहां पाटण गये हुए थे वहां प्रकट की। सम्राट ने अपने गुजरात के सबेदार तपा गच्छीय आचार्य श्री विजयदान सूरि के उपदेश खान को फरमान भेजा कि वे बड़ी नम्रता और अदब श्रवण का पापको वैराग्य उत्पन्न हुआ और आपने के साथ जैनाचार्य श्री हीरविजय सूरिजी से प्रार्थना सं० १५६ में उक्त सूरिजी के पास दीक्षा ली । प्रार• करें कि आप दिल्ली पधाकर सम्राट अकबर को मिक शिक्षा के बाद श्राप गुरु आज्ञा ले धर्मसागर दर्शन प्रदान करने की कृग करें। । मुनि के साथ दक्षिण भारत के देवगिरी स्थान पर __ सबेदार साहिब ने अहमदाबाद के मुख्य २ जैन एक नैयायिक ब्राह्मण विद्वान के पास न्याय शास्त्र का आगेवानों को साथ ले आचार्य श्री से उक्त प्रार्थना अध्ययन करने पधारे। इन्हीं दिनों आपने न्यायशास्त्र की। आचार्य श्री ने भी इसे धर्म प्रभावना का सुअवके गहन अध्ययन के साथ साथ जैन तत्व ज्ञान, सर समझ : ह निंति स्वीकार करते हुए फतहपुर ज्योतिष, व्याकरण सामुद्रिक शास्त्र तथा अन्य दर्शनों सीकरी,जहां अकबर बादशाह का मुकाम था, की ओर का भी अध्ययन किया। बिहार किया। इस विहारकाल में बादशाह के कुछ इस प्रकार आपने गहन अध्ययन एवं स्वाध्याय से विशेष दूत भी आपके साथ साथ रहे। महान् पांडित्यता प्राप्त की। विद्याध्ययन कर वि० सं० विहारकाल में जब आप सिद्धपुर (गुजरात) १५-७ में जब वापस गुरुजी के पास लौटे तो आपको के पास सरोतरा गाँव में पधारे तो वहाँ भीलों के 'पण्डित' की पदवी प्रदान की गई। एक वष मुखिया सरदार अर्जुन आपके उपदेशों से बड़ा वाद उपाध्याय पद से विभूषित किया गया। तथा प्रभावित हुआ और अपने समस्त भील जाति के संवत् १६१० में प्राचार्य की उच्च उपाधि प्रदान साथ अहिंसामय जैनधर्म पालक बना। पपण Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन श्रमण संघ का इतिहास INDGIUIDAILSINDUIND DUIn J a patD DIUM to dillNTD-III IIIJDASHAINDOMIltodip OUNIPPINDIWARIDORANDID इसी प्राम में व्यतीत कर आबू तीर्थ करते हुए आप मन्दिर की प्रतिष्ठा की। तदन्तर बाबुलफजल के शिवपुरी (सिरोही ) पधारे । यहाँ के राजा ने बड़े विशेष निमंत्रण पर आप फतहपुर सिकरी पधारे । धामधूम से अगवानी की। सिरोही से सादड़ी, फतहपुर सिकरी पधारने पर सम्राट अकबर ने राणकपुरजी होते हुए मेड़ता पधारे। मेड़ता उस अपूर्ण स्वागत किया और आचार्य श्री को कई जागीरें, समय मुसलमानों के अधिकार में था। वहां शासक हाथी घोड़े आदि भेंट करना चाहा पर आचार्य सादिल मुलतान ने बड़ा भारी स्वागत किया। मेड़ता श्री ने सम्राट को बताया कि जन साधु कंचन कमिनी से फलौदी पधारने पर सम्राट अकबर के भेजे हुए के सर्वथा त्यागी होते हैं । उनके लिये संसार के ये श्री विमलहर्ष उपाध्याय ने आचार्य देव का सम्राट सारे वैभव तुच्छ हैं। की तरफ से स्वागत किया। प्राचार्य श्री सं० १३६६ तब सम्राट ने कुछ न कुछ भेंट तो अवश्य स्वीजेठ वदी १३ को फतहपुर सिकर। पधार और जगन- कार करने की प्रबल आग्रह किया। इस पर सरिजी मल कछा के महल में ठहराये गये। जगनमल ने कहा-आप समस्त कैदियों को बन्धन मुक्त कर तत्कालीन जयपुर नरेश भारमल के छोटे भाई थे। दीजिये और पीजरें में बन्द पक्षियों को छुड़वा फतहपुर सिकरी में सम्राट अकबर ने प्राचार्य दीजिये। इसके अतिरिक्त पयूपणों में आठों दिन देव के दर्शन किये और कुछ दिनों तक श्राचार्य अपने साम्राज्य में कतई जोव हिंसा न हो-ऐसे श्री की सेवा में प्रतिदिन व्याख्यान श्रवण का लाभ आदेश निकालने एवं तालाबों व सरोवरों में मन्छी लिया । सम्राट आचार्य श्री के सम्पर्क से बड़ा प्रभा- न पकड़ने के आदेश भेंट रूप में मांगे। आचार्य वित हुआ। उसका दृदय धर्म प्रवृति की और बढ़ा, श्री की इस मांग से सम्राट अत्यधिक आकर्षित हुआ उसने प्रजाप्रिय बनने के लिये कई कर हटा लिये, और उसने आचार्य श्री के परामर्षानुसार सभी फर. और काफी दान पुण्य किया। मान तत्काल जारी करवा दिये। गुजरात के नियों उसने आचार्य श्री को शाही महलों में दिल्ली पर लगने वाला जजिया कर भी माफ कर दिया। पधारने की विनंति की। अकबर के दरबार में बड़े २ सम्राट अकबर-आचार्य श्री से इतना प्रभावित विद्वान रहते थे-सभी विद्वान आचार्य श्री के उपदेशों हुआ कि उसने संवत् १६४० में आचार्य जी को से प्रभावित हुए । सम्राट की विद्वत् सभा के प्रमुख जगद गुरु" की उपाधि से विभषित किया । आचार्य अबुलफजल ने आचार्य श्री की बड़ी प्रशंसा लिखी श्री की जीवनी के सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु सुप्रसिद्ध विद्वान मुनि श्री विद्या विजयजी कृत "सूरीवहां से बिहार का प्राचार्य श्री बाग के पास श्वर" नामक प्राथ पढ़ना चाहिये । शौरीपुरजी तीथे में दो जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा जैन इतिहास में जगद गुरु आचार्य होर विजय कर बागरे में श्री चिंतामणि पवनाथ भगवान के सरिजी का नाम सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य 8 EmaiUDIMILARIDAS DILLETIRIDDLEDONDAlinaliillo dillsbip lodinaulodIIMITED COMHIDARIDIHINoduuuutu ॐ यशोविजय जो ॐ लगे रहे । इन्होंने प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भा .। अठारहवीं शताब्दी में हरिभद्र और हेमचन्द्र में विपुल प्रन्थ राशि की रचना की। न्याय, की कोटि में गिने जा सकने वाले महा प्रतिभासम्पन्न योग, अध्यात्म, दर्शन, धर्म, नीति, लण्डन मण्डन, विद्वान् श्री यशोविजयजी हुए। ये प्रखर नैयायिक, कथा-चरित्र, मूल और टीका-प्रत्येक विषय पर अपनी तार्किक शिरोमणी, महान शास्त्रज्ञ, प्रताशाली समन्व प्रोढ लेखनी चलाई। काशी में रहते हुए इन्हें यकार, उच्च कोटि के साहित्यकार, आचार, सम्पन्न 'न्यायविशारद' की उपाधि दी गई थी। इनके प्रन्य प्रभावक मुनि और महान सुधारक थे। ये हेमचन्द्र इस प्रकार हैं। द्वितीय कहे जा सकते हैं। अध्यात्मः-अध्यात्ममत परीक्षा, अध्यात्मसार, ___ इनकी प्रतिमा सवतोमुखी थी। पं० सखलालजी अध्यात्मोपनिषद्, आध्यात्मिकमतदलन स्वोपत्र टीका ने लिखा है कि-"इन के (यशोविजयजी के) समान उपदेश रहस्य, ज्ञानसार, परमात्म पचविशतिका, समन्वयशक्ति रखनेवाला, जैन जैनंतर ग्रन्थों का गम्भीर . परमज्योति पञ्चविंशतिका, वैराग्य कल्पलता, अध्यादहन करने वाला, प्रत्येक विषय के तल तक पहुँच मापदेश ज्ञानसार व चूणि । दार्शनिकः-अष्टसहश्री कर समभाव पूर्वक अपना स्पष्ट मन्तव्य प्रकट करने विवरण, अनेकान्त व्यवस्था ज्ञानबिन्दु जैनतकभाषा वाला, शास्त्रीय थौर लौकिक भाषा में विविध साहित्य देवधर्म परीक्षा, द्वात्रिंशत द्वात्रिंशिका, घनपरक्षा, की रचना कर अपने सरल और कठिन विचारों को नयपदीप, नयोपदेश, नयरहस्य, न्यायखएड खाद्य, सब जिज्ञासुओं तक पहुँचाने की चेष्टा करने वाला न्यायालोक, भाषा रहस्य वीरस्तव, शास्त्रवार्ता समुच्चय और सम्प्रदाय में रह कर भी सम्दाय के बंधनों की टीका, स्याद्वाद कल्पलता, उत्पादव्ययधौव्यसिद्धि परवाह न कर जो उचित मालूम हो उसपर निर्भयता टीका, ज्ञानार्णव, अनेकान्तप्रवेश, आत्मख्याति, तत्वापूर्वाक लिखने वाला, केवल श्वेताम्बर-दिगम्बर समाज लोक विवरण, त्रिसूत्र्यालोक, द्रव्यालोकविवरण, में ही नहीं बल्कि जैने तर समाज में भी उनके जंसा न्यायविन्दु, प्रमाणरहस्य, मंगलवाद वादमाला, वादकाई विशिष्ट विद्वान हमारे देखने में अबतक नहीं महाणव, विधिवाद, वेदान्तनिर्णय, सिद्धान्त तर्क आया। केवल हमारी दृष्टि से ही नहीं परन्तु परिष्कार, सिद्धान्तमंजरी टीका, म्यादाद मंजूषा, प्रत्येक तटस्थ विद्वान् की दृष्टि में भी जनसम्प्रदाय द्रव्यपर्याय युक्ति । आगमिकः-आराधक विराधक में उपाध्यायजी का स्थान, वैदिक सम्प्रदाय में शंकरा चतुर्भङ्गी, गुरुतत्व विनिश्चय, धमसग्रह टिप्पन, चाये के समान है।" निशाभक्त प्रकरण, प्रतिमाशतक, मार्गपरिशुद्धि, यतिल. इनका जन्म सं० १६८० में हुआ। गुरु का नाम क्षणसमुच्चय, सामाचारी प्रकरण कूपपरष्टान्द नविजय था । ८ वर्ष की अवस्था में काशी व आगरा विशदीकरण, तत्वार्थ टीका और अस्पृशद् ग तवाद । में रहकर उच्कोटि का ज्ञान उपार्जन किया। इसके योग–योगविधि का टीका, यागदापि।।, योगबाद की अपनी सारा अवस्था तक साहित्यसृजन में दर्शन विवरण । Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास So AIRAGNIHIRAGIRIDIEA DOTipdi mDAIINDI |D THI1111D CITI INDIRAHDAII IID-DIS HAD D ID SINHIND DIHD अन्यग्रन्थ-कर्म प्रकृति टीका, कर्मप्रकृति लघुः चमत्कार पूर्ण काव्य कृति है । कान्य के अतिरिक्त चंद्रवृत्ति, तिङन्तान्वयोक्ति, अलंकार चूडामणि टीका, प्रभा व्याकरण, कथा चरित्र ज्योतिष के मेघमहोदय, काव्यप्रकाश टीका छन्दश्चूडामणि शठप्रकरण ऐन्द- रमल शास्त्र, हस्तसंजीवन टीका सहित, मंत्रतत्र, स्तुति चतुर्विशतिका, स्तोत्रावलि, शंखेश्वर पार्श्वनाथ अध्यात्म और स्तोत्र आदि अनेक ग्रंथों का निर्माण स्तोत्र, समीका पार्श्वनाथ स्तोत्र, आदि जिनस्तवन, किया। विजयप्रभसरि स्वाध्याय और गोडी, पार्श्वनाथ इनके बाद यशस्वत् सागर लक्ष्मीवल्लभ, श्रादि स्तोत्रादि। अनेक साहित्य लेखक हुए। उन्नीसवी शताब्दी में उपयुक्त विशाल प्रथराशि को देखने से ही मयाचन्द, पद्मविजयगणि, समाकल्याण-उपाध्याय, प्रतीत हो जाता है कि उपाध्याय यशोविजयजी कितने बीसवीं शताब्दी में विजयराजेन्दसरि और न्यायप्रौढ़ विद्वान थे। ये अनुपम विद्वान, प्रखर न्यायवेत्ता, यिजय जी जैसे महा विद्वान् साहित्यिक हुए । योगवेत्ता; अध्यात्मयोगी, और महासुधारक उन्नीसवीं, बीसवीं शताब्दी में संस्कृत-प्राकृत साहित्य थे। इनका स्वर्गवास १७४३ में हुआ । ये जैनसाहित्य सृजन की गति मंद हो गई और हिंदी, गुजराती के इतिहास में प्रथमकोटि के साहित्यकारों में रखे आदि भाषाओं में विशेष रूप से साहित्य-सृष्टि हुई। जाने योग्य साहित्यसेवी हुए हैं। गुजराती और हिंदी भाषा के साहित्य विकास में विनयविजय उपाध्याय तथा मेघविजय उपाध्याय उन्नीसवी बीसवी सदी के जैनमुनियों का मुख्य ये यशोविजयजी के समकालीन हुए हैं। इन्होंने रूप से योग रहा है। आगमिक, दार्शनिक व्याकरण, काव्य और स्तुति चिदानंद जी कवि रायचन्द, विजयानदसरि, सम्बंधी अनेक प्रथों का निर्माण किया। श्री मेघवि. वीरचन्द गांधी, आत्माराम जी म, शतावधानी जय उपाध्याय व्याकरण, न्याय साहित्य के अतिरिक्त रत्नचंद जी म० आदि २ मिद्ध विद्वान और लेखक आध्यात्मिक और ज्योतिर्विद्या में भी प्रवीण थे इन्होंने हुए हैं। महाकवि माघ के माघकाव्य के प्रत्येक श्लोक का जैनाचार्य श्री विजयानन्दसरि जी अंतिम पद लेकर शेष तीन पदों की विषयवद्ध रचना करके देवानंदाभ्युदय महाकाव्य की रचना की। इसी (प्रसिद्ध नाम-आत्मारामजी महाराज ) तरह नैषध के प्रतिश्लाक का एक चरण लेकर शांति- भारत के प्रायः सभी नागरिक गुरूदेव श्री. नाथ चरित्र काव्य की रचना की। सबसे अधिक मद्विजयानन्दमूरि जी के नाम से परिचित हैं, उनकी चमत्कृति पूर्ण इनका सप्तसंधान महाकाव्य है। गणना १६ वीं शताब्दी के 'भारतीय सुधार' के इसका प्रत्येक श्लोक ऋषभदेव, शांतिनाथ, नेमिनाथ, प्रणेता गुरुओं एवं नेताओं में होती है। राष्ट्रभाषा पार्जनाथ, महावीर, रामचंद्र और कृष्ण इन सात के रूप में हिन्दी को सब से पहले अपनाने वाले महापुरुषों का समान रूप से लागू होता है । कितनी यही महातुरुष थे। अपनी अल्प भायु में हो उन्होंने Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ८१ Gulsortal from NOTICAURATULDRIDAI HDCulth tillo Jin. UIDAIHIPIKulmulli OI HRID OIL -119-DITI in THI IIDSHUIDAIE ! TOHIT HINDID सारे संसार के बड़े २ विद्वानों से भूरी २ प्रशंग जीरा, सनखतरा, अम्बाला शहर पजाब में नये सिरे प्राप्त की। उस युग पुरुष के द्वारा किये गये महान से शुद्ध सनातन जैन धर्म का प्रचार और स्थापना कार्यों की सूचि बनाना असम्भ। नहीं तो कठिन की। प्रोफेसर हानले साहिब से पत्र व्यवहार द्वारा अवश्य है। इसाई पादरियों एवं मिशनरीज का उनके शंकासमाधान तथा उन्हें धर्म वोध दिया, भारत में सर्व प्रथम विरोध करने वाले ही थे। रायल ऐशियाटक सोसायटी से पत्र व्यवहार तथा साहित्यकार, कवि, दार्शनिक, प्राध्यात्मिक, ब्रह्मचारी हानले साहिब के द्वारा ऋगवेद भेंट में मिला । तथा संगीतज्ञ होने के साथ २ वे भारतीय धर्मों एवं संवत् १६४६ में जोधपुर के पण्डितों ने आपका दर्शनों के प्रकाँड विद्वान भी थे। श्री विजय हीर सूरि न्याय प्रियं वार्तालाप सुन कर आपको न्यायांमोनिधि जी तथा विजयसिंहसूरीजी के पश्चात् श्री विजयानन्द (न्याय के समुद्र) की पदवी दी। सरीश्वरजी ही संघ द्वारा प्राचार्य पदवी से विभूषित रचित ग्रन्थ:- जनतत्वादर्शन, तत्वनिर्णयप्रासाद, किये गये। अज्ञान तिमिर भास्कर, सम्यक्तवशल्योद्धार, चिकागो सक्षेप में उनका जीवन परिचय इस प्रकार है। प्रश्नोत्तर, जैन मर्म विषियक प्रश्नोत्तर, इसाई मत नामः-श्री विजयानन्द सूरि समीक्षा, नवतत्व (यंत्र सहित), जैन मत वृक्ष चतुर्थ गृहस्थ नामः-श्री गत्मारामजी स्तुनि निर्णय, जैन धर्म का स्वरूप । माता का नाम-रूपादेवी पूजायें व भजन:-स्नात्र पूजा, अष्टप्रकारी पूजा, सत्रह भेदी पूजा, नवपद पूजा, वीसस्थानक पूजा, पिता का नामः-गणेशदास श्री स्तवनावलि, प्रारम बावनी। जन्मभूमिः- लहरा (जोरा) पंजाब विदेशों में प्रचारः---श्री विजयानन्द सरिजी को जन्मतिथि:-चैत्र शुदि १, १८६३ ईस्वी १८५२ में चिकागो (अमरीका) में होने वाली स्थानकवासी दीक्षा-मलेरकोटला-वि०सं० १६१. विश्व धर्म परिषद विश्व धर्म परिषद में भाग लेने के लिये आमंत्रण संवेगी दीनाः-अहमदाबाद १६३२ मिला, उन्होंने श्री वीरचन्द राघवजी गांधी बैरिस्टर को वहां भेजा जिन्होंने योरोप और अमेरिका में गुरु का नामः--गणि श्री बुद्धिविजयजी (श्री बूटेरायजी) महाराज जैन धर्म और भारतीयता पर सैंकडों भाषण दिये । आचार्य पदवी:--पालोताणा-वि० सं० १९४३ गुरूदेव के विषय में समस्त विश्व के उच्च कोटि के स्वर्गवासः-गुजरान वाला-वि० सं० १६५ सुप्रसिद्ध एकत्रित विद्वानों की चिकागो की विश्वधर्म __ अंजनशलाका और प्रतिष्ठा परिषद ने निम्न उदगार प्रकट किये-: No min bas so peculiarly identified himself विशेष कार्य:-होशियार पुर, अमृतसर, पही, with the intiresis of the Jain Community as Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास INDIGONINDOO Muni Atmaramji. He is one of the Noble band sworn From the day of initation for the high mission they have undertaken. He is the high priest of the Jain Community and is recognised as the highest living outhority on Jain religion and literature by oriental scholars. ८२ (The world parliament of religions chikago in Amerika-page 21) आत्म स्मारक:--- गुरूदेव के स्वर्गवास स्थान गुजरांवाला (पाकिस्तान) में भव्य समाधि मन्दिर बना हुआ है। जिस की यात्रार्थ प्रतिवर्ष भारत से जैन लोग जाते हैं । उनक े जन्म स्थान लहरा (जीरा) पंजाब में ४३ फीट ऊँचा भव्य कीर्ति स्तम्भ 'आत्मघाम' के नाम से सं० २०१४ में साध्वी मृगावती श्री क े उपदेश एवं प्रयत्नों से बनाया गया है। जहां प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला १ को भारी मेला लगता है । इनके अतिरिक्त अनेक स्थानों पर आप श्री जी प्रतिमाएँ बिराजमान हैं । पंजाब में शायद ही ऐसा कोई स्थान होगा जहां आचार्य देव के नाम से एक न एक संस्था न हो । कई स्थानों पर आत्मानन्द जैन कॉलेज हाई स्कूल एवं पाठशालाएं तथा पुस्तकालय हैं । यदि यह भी कह दिया जाय तो अनुपयुक्त न होगा कि प्रायः सम्पूर्ण पंजाब का श्वेताम्बर जैन समाज आपका ही भक्त है और प्राय: सर्वत्र जैन समाज के संगठनों का नाम 'श्री आत्मानन्द जैन सभा' के नाम से है। इससे इष्ट समझा जा सकता है - पंजाब आपका कितना श्रद्धालु भक्त है । केवल पंजाब की ही ऐसी अवस्था हो ऐसी बात नहीं है । समस्त भारत की न केवल श्व ेताम्बर जैन समाज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat fes दिगम्बर तथा श्वताम्बर आदि समस्त जैन समाज आपके प्रति अद्यावधि अपार श्रद्धा रखता है । इस श्रद्धा का मुख्य कारण एक यह भी है कि आपने जीवन पर्यन्त अपना लक्ष्य निःसम्प्र दाय भाव से, जैन धर्म का प्रचार, जैन साहित्य के प्रकाशन तथा स्थान २ पर शिक्षण शालाएं खोलने की ओर ही विशेष ध्यान रक्खा। राजस्थान मारवाड़ में भी कई शिक्षण संस्थाएं आप श्री के उपदेशों का शुभ फल है । श्राचार्य विजय नेमि सूरीश्वरजी आपका जन्म माहुआ (मधुमती नगरी) में सं० १६२६ की कार्तिक सुदी १ को सेठ लक्ष्मीचन्द भाई के गृह में हुआ । संवत् १६४५ की जेठ सुदी ७ को आपने गुरु वृद्धिचन्दजी महाराज से दीक्षा गृहण की। संवत् १६६० की कार्तिक वदी ७ को आपको “गणीपद" एवं मगसर सुदि ३ को आपको "पन्यास पद" प्राप्त हुआ । इसी प्रकार संवत् १६६४ की जेठ सुदी ५ के दिन भावनगर में आप "आचार्य" पद से विभूषित किये गये । आपने जैसलमेर, गिरनार, आबू सिद्धक्षेत्र आदि के संघ निकलवाये, कापरडा आदि कई जैन तीर्थों के जीर्णोद्धार में आपका बहुत भाग रहा है । आपने कई तीर्थों एवं मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवाई । आप न्याय, व्याकरण एवं धर्मशास्त्र के प्रखर ज्ञाता थे । आपने श्रहमदाबाद में 'जैन सहायक फंड' की स्थापना करवाई । आप ही के पुनीत प्रयास से अ० भा० श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधु सम्मेलन का अधिवेशन अहमदाबाद में सफल हुआ। आप धर्मशास्त्र, न्याय व व्याकरण के उच्च www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ८३ SM-01-RLD DIHD CHOHD HDi D कोटि के विद्वान् तथा तेजस्वी और प्रभावशाली साधु थे । आपने अनेकों ग्रन्थ की रचनाएं की। आप उच्च वक्ता थे। आपकी युक्तियाँ अकाट्य रहती थीं। ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों के भी आप ज्ञाता थे । आपके पाटवी शिष्य आचार्य उदयसूरिजी एवं आचार्य विजयदर्शन सूरिजी धर्मशास्त्र, व्याकरण, दर्शन न्याय के प्रखर विद्वान हैं। आप महानुभावों ने भी अनेकों प्रन्थों की रचनाएं की हैं। आचार्य उदयसूरिजी के शिष्य आचार्य विजयनन्दन सूरिजी भी प्रखर विद्वान् है । आपने भी श्रनेका प्रन्थों की रचनाएं की हैं। श्री विजय कमल सूरीश्वरजी आप अपने समय के एक सुप्रख्यात जैन समाज के विशेष श्रद्धा भाजन आचार्य हुए हैं। श्वेताम्बर श्रमण संघ के संगठन हेतु आप श्री के ही प्रयत्न से बड़ौदा में मुनि सम्मेलन हुआ | आपका जन्म राधन पुर निवासी राजमान्य एवं श्रीमन्त कोरडिया कुटुम्ब के श्री देलचन्द नेमचन्द भाई के पुत्र रूप में माता मेघबाई की कोख से वि० सं० १६१३ चैत्र शुक्ला २ दिन पालीताणा में हुआ । जन्म नाम कल्याणचन्द रक्खा गया । वि० सं० १६३६ वैशाख कृष्ण ८ को अहदाबाद के पास एक ग्राम में शांतमूर्ति मुनिराज श्री वृद्धिचन्दजा म के पास आपकी दीक्षा हुई और कमल विजय नाम रखा गया और तपा गच्छाधिपति मूलचन्दजी म के शिष्य घोषित किये गये । 1 अल्प समय में दी आपने जैनागमों का गहन अध्ययन कर लिया । वि.सं० १६४५ में श्री मूलचन्द जी मा० के अवसान पर संघ संचालन का भार वहन किया । स० १६४७ में पन्यास पद प्राप्त किया। आपकी प्रखर प्रतिभा से मुग्ध हो जैन संघ ने अहमदाबाद में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat सं० १६७३ महा सुद६ के दिन श्रचाय पद प्रदान क्रिया । आप कठोर क्रिया पालक एवं स्वाध्याय प्रेमी थे । अतः शिष्य समुदाय का प्रत्येक मुनि विद्या व्यसनी बना । जन समाज को उन्नति को ओर भी आपने विशेष लक्ष्य दिया । कई स्थानों पर कुम्प मिटा कर सम्प कराया । बड़ौदा के मुनि सम्मेलन में आप प्रमुख I सं० १६७४ वैशाख शुक्ला १० को सूरत में पं० आनन्द सागरजी को आचार्य पद प्रदान किया जो गमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरि के नाम से प्रख्यात हुए। ऐसे महान आत्मा आचार्य वर का आसोज सुदी १० के दिन बारडोली में स्वर्गवास हुआ। श्री विजय केसर सूरीश्वरजी परम योगीराज श्री विजय केशरसूरीश्वरजी म० का जन्म स० १६३३ पौष सुदी १५ को अपने ननिहाल पालीताणा में हुआ | आपका वतन बोटाद के पास पालीयाद प्राम था। आपके पिता का नाम माधवजी नागजी भाई तथा माता का नाम पान था । जन्म नाम केशवजी रक्खा गया। सं० १६.४० में आपका कुटुम्ब वढ़वाण रहने लगा। यहीं केशवजी की शिक्षा हुई। आपकी अल्पायु में माता पिता का देहावसान हो गया। इससे आपके हृदय में वैराग्य भावना प्रबल हुई संयोग से आचार्य श्री विजयकमनसूरीश्वरजी का ढ़ाण पदार्पण हुआ और यहीं स० १९५० में विजय रक्खा गया । सं० १६६३ में सूरत में गाणीपद आचार्य श्री के पास आपकी दीक्षा हुई । नाम केशरतथा १६७४ में बम्बई में पन्यास पद प्रदान किया गया । सं० १६८३ कार्तिक कृष्णा ६ को आचार्य पद व प्रदान की गई । www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन श्रमण संघ का इतिहास IDIOINDIPAHIDDIAMIDANDANdIIIFRIDAII.HIDCOHII.INDINDORIIID IN OND-dilijulifll silt||10 THIREDIIID आप बड़े विद्वान लेखक थे। आपके नीति धर्म, "प्राचार्यसूरि सम्राट" बनाये गये। “शान्ति पशु कथानक तथा योग आदि विषयों पर करीब २० ग्रन्थों औषधालय' लींबड़ी नरेश तथा मिसेज ओगिल्वी की रचना की है। की संरक्षता में चलता रहा था आपको उदयपुर तथा वि० सं० १६८५ में वडाली में चातुर्मास पूर्ण कर नेपाल राजवंशीय डेपुटेशन ने अपनी गवर्नमेंट की आप तारंगाजी पधारे । यहाँ गुफा में ध्यानावस्था में ओर से "नेपाल राज गुरु' की पदवी से अलंकृत रहते समय सर्दी के तेज प्रकोप से आप व्याधिग्रस्त किया। कई उच्च अंग्रेज व भारत के अनेकों राजा बने । अहमदाबाद में अनेका उपाचार कराये गये पर महाराजा आपके अनन्य भक्त थे। आपके प्रभाव से सब असफल रहे । श्रावण वदी ५ को आप स्वर्गवासी लगभग सौ राजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में पशु बलिदान की कर प्रथा बन्द की थी। श्री विजय शान्ति सूरीश्वरजी श्री विजयदान सूरीश्वरजी श्री प्राचार्य विजयशान्ति सूरिश्वरजी-अपने श्री आचये विजयदान सूरिश्वरजी-आपका जन्म प्रखर तेज, योगाग्यास एवं अपूर्व शांति के कारण आप विक्रमी सं० १६१४ की कार्तिक सुदी १४ के दिन वर्तमान समय में न केवल भारत के जैन समाज में झीजुवाड़ा नामक स्थान में दस्सा श्रीमाली जातीय प्रत्युत ईसाई, वैष्णव आदि अन्य धर्मावलम्बियों में जुठाभाई नामक गृहस्थ के गृह में हुआ, और आपका परम पूजनीय आचार्य माने जाते थे। आपका जन्म नाम दीपचन्द भाई रक्खा गया। सं० १६४६ को मणादर गांव में संवत् १६४५ को माघ सुदी ५ को मगसर सुदी ५ के दिन गोधा मुकाम पर आत्मारामजा हुआ। आपने मुनि धर्म विजयजी तथा तीर्थविजयजी महाराज के शिष्य वीरविजयजी महाराज से आपने से शिक्षा ग्रहण कर संवत् १६६१ की माघ सुदी २ दीक्षा ग्रहण का, एवं आपका नाम दानविजयजी रक्खा को मुनि तीर्थविजयजी से दीक्षा ग्रहण की। सोलह गया । आपके जैनागम तथा जैन सिद्धान्त की अपूर्व वर्षों तक मालवा आदि प्रान्तों में भ्रमण कर संवत् जानकारी को महिमा सुनकर बड़ौदा नरेश ने सम्मान १९७७ में आप बाबू पधारे । सं० १६६० की वैशाख पूर्वक आपको अपने नगर में आमंत्रित किया । संवत् बदी ११ पर बामनवाड़जी में पोरवाल सम्मेलन के १६६२ की मगसर सुदी ११ तथा पूर्णिमा के दिन समय १५ हजार जैन जनता ने आपको 'जीवदया आपको क्रमशः गणीपद तथा पन्यास पद प्रान हुआ प्रतिपालक योग लन्धि सम्पन्न राजराजेश्वर" पदवी और सं० १६८१ की मगसर सुदी ५ के दिन श्रीमान् अर्पण कर अपनी भक्ति प्रकट की। यह पद अत्यंत विजय कमलसूरिजी ने आपको छाणी गांव में आचार्य कठिनता पूर्वक जनता के सत्याग्रह करने पर आपने पद प्रदान किया, और तब से आप "विजयदान स्वीकार किया। इसके कुछ ही समय बाद “वीर. सुरिश्वरजी महाराज" के नाम से विख्यात् है। नेत्रों वाटिका" में आपका जैन जनता ने "जगत-गुरु" पद के तेज की न्यूनता होने पर भी आप अनेकों ग्रन्थों से अलंकृत किया । इसी साल मगसर महीने में आप के पठन पठनादि कार्यों में हमेशा संलग्न रहते थे। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य HISTOHDFULDKIO HD INTEND Oil ID-COLAI TRISADICHINo olitD HISTLID RIDORI SINHIND-Onli-kisoulflPHi> DINDAligenti-ollrkili>rolie.aipom है। आपका अत्यधिक श्रम के कारण वि० सं० १६६२ एक अपूर्वा हलचल पैदा की थी। सं० १६६३ में पोष मास में स्वर्गवास हुआ। भापके शिष्य सिद्धांत आपने भागवती दीक्षा ग्रहण की। सं० १६६४ की महोदघि महा महापाध्याय प्रेम सूरीश्वरजी पट्टधर सावण वदी १४ के दिन बनारस में काशी नरेश के सभापतित्व में अनेकों बंगाली तथा गुजराती एवं श्री विजयधर्म सूरीश्वरजी स्थानीय विद्वान तथा श्रीमतों की उपस्थिति में पाप श्री आचार्य विजयधर्मसरिजी-आप अन्तराष्ट्रीय "शास्त्र विशारद' तथा 'जनाचार्य' की पदवी से कीर्ति के प्राचार्य थे। आपका जन्म सं० १९२४ में विभूषित किये गये । इस पदवी का समर्थन भारत के बीसा श्रीमाली जाति के श्रीमंत सेठ रामचन्द भाई अतिरिक्त विदेशी विद्वान डाक्टर हरमन जेकोबी, के यहाँ हुआ था। उस समय आपका नाम मूलचन्द प्रोफेसर जहनस हर्टल डॉबलेन ने मुक्त कंठ से किया भाई रखा गया था। बाल्यकाल में श्राप पढ़ने लिखने था। आपका कई विदेशी विद्वानों से स्नेह था । आपके से बड़े घबराते थे । अतः आपके पिताजी ने आपको र शिष्य आचार्य श्री इन्द्रविजयजी, न्यायतीर्थ मंगल अपने साथ दुकान पर बैठाना शुरू किया यहाँ आप र e विजयजी, मुनि विद्याविजयजी न्यायतीर्थ, न्यायसट्टा और जुवे में लीन हो गये। जब इन विषयों विजयजी न्यायतीर्थ, हेमांशुविजयजी श्रादि है। आप से आपका मन फिरा तो आपने सं. १६४३ को पैशाख सब प्रखर विद्वान एवं अनेकों ग्रन्थों के रचयिता हैं। वदी ५ को मुनि वृद्धिचन्दजी महाराज से दीक्षा ग्रहण पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज की, और आपका नाम धर्मविजयजी रक्खा गया। खरतर गच्छ विभूषण जैन शासन प्रभावक बम्बई धीरे २ अ.पसे गुरु से अनेकों शास्त्रों का अध्ययन क्षेत्र के महा मान्य धर्म गुरु जगत्पूज्य क्रियोद्धारक किया। आपने संस्कृत का उच्च ज्ञान देने के हेतु श्री मोहनलालजी महाराज का जन्म मथुग से २० बनारम में "शो विजय जेन पाठशाला" और मील दूर चाँदपुर नामक ग्राम में उच्च ब्राह्मण कुल में "हेमचन्द्राचार्य जैन पुस्तकालय" की स्थापना की। वि० सं० १८८७ शैशाख कृष्णा ६ के दिन हुआ था। आपने विहार, बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता, तथा पिता का नाम बादरमलजी तथा माता का नाम बंगाल, गुजरात, गोडवाड़ आदि अनेको प्रान्तों में सुन्दरदेवी था। चातुर्मास कर अपने निष्पक्षपात तथा प्रखर व्याख्यानों एक बार बादरमलजी ने स्वप्न देखा कि वे सोने द्वारा जैनधर्म की बड़ी प्रभावना की। आपके कलकत्ता की थाल में भरा हु प्रा दूधपाक किसी जैनयतिजी को के चातुर्मास में जैन व जैन श्रीमंत, अनेकों रईस देरहे है। वे स्वप्न शास्त्र के ज्ञाता थे अतः शीघ्र एवं विद्वानों ने आपके उपदेशों से जैन धर्म अंगीकार समझ गये कि यह पुत्र किसी जैनति के पास दीक्षित का था । इलाहाबाद के कुभोत्सव के समय जगन्नाथ- होगा। उनके परिवार का नागौर के यति श्री रूपचन्द पुरी के श्रीमत् शंकराचार्य के सभापतित्व में प्रापके जी से पुराना गहरा सम्प. था। एक बार कार्य वशात् उदार भावों से परिपूरित प्रखर भाषण ने जनता में इनका नागौर जाना हुआ। साथ में बालक मोहन का Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास IHDADILIND NIDHI IIMMID CAN IITD-OIN IND-CITHILINDCIIID THIDAIIIIINDIINDIl03 -DOIL IDOHDIDA A DIM IRMIn भी लेते गये। वहां यतिजो से भेंट हुई। सामुद्रिक चातुर्मास पूर्ण कर श्राप दादा श्री जिनदत्त सूरिजी शास्त्र के ज्ञाता यतिजी ने बालक के भविष्य में के समाधिस्थल अजमेर नगर पधारे। यशस्वी बनने की बात बताई। इस पर पादरमलजी यहाँ चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आपने ने बालक मोहन को इन यतिजी के पास शिक्षार्थ रख सम्पूर्ण परिग्रह को त्याग लाखन कोठड़ी स्थित भगवान दिया। यतिजी भगवान महावीर के ७० में पट्टधर संभव नाथजी के मन्दिर में जा भगवान के सम्मुख पाचार्य श्रीहर्ष सरिजी द्वारा दीक्षित शिष्य थे। यतिजी ४३ वर्ष की आयु में स्वतः ही क्रियोद्धार कर संवेग के पास रह प्रखर बुद्धि के धनि श्री मोहनलालजी ने भाव धारण कर मुनि बन गये। आपके मुनि नेष अल्प समय में ही जीवविचार नव तत्व, पंच प्रति- धारण करने से जैन संघों में सर्वात्र हर्ष छागया। क्रमण आदि का अध्ययन कर लिया और यति मुनि अवस्था में आपका प्रथम चातुर्माप संवत् दीक्षा लेने का आग्रह करने लगे। परम्परा के अनुसार १६३१ में पाली हुआ। आपकी प्रखर ज्ञान परिपूरित यतिदीक्षा श्री पूज्यजी ही दे सकते हैं इसलिये इन्हें व्याख्यान शैली तथा उच्च क्रिया पालन से आपकी तत्कालीन श्री पूज्य श्री जिन महेन्द्र सरिजी के पास कीर्ति कौमुदी चमक उठी । सिरोही नरेश श्री केशरइन्दौर भेजा । श्री पून्यजी मोहनलालजी को साथ ले सिंहजी ने स्वयं दर्शनार्थ आकर सिरोही चातुर्मास यक्षीजी तीर्थ पधारे और वहीं वि० सं० १६०२ में की विनंति की। सं० १६३२ का चातुर्मास सिरोही इन्हें यति दीक्षा दी और भोपाल होते हुए इन्हें वापस हुआ | सातवाँ चातुर्मास जोधपुर हुआ जहाँ आलमनागौर भेज दिया। चन्दजी, जसमुनि, कांति मुनि, हर्ष मुनि आदि शिष्य वि० सं० १९१० चैत्र शुक्ला ११ को यति श्री बने । सं० १६४४ का चातुर्मास अहमदाबाद किया रूपचन्दजी का बनारस में स्वर्गवास होगया । शोका- और तबसे आपका विहार क्षेत्र गुजरात बन गया। कुल यति मोहनलालजी को श्री पूज्य जी जिन महेन्द्र आप सम्प्रदाय वाद से सदा दूर रहते थे और सरिजी ने अपने पास लखनऊ रक्खा। सं० १६१४ जैन संघ में सम्प बढ़ाने को प्रयत्नशील रहते थे। में श्रीपूज्यजी का भी स्वर्गवास होगया। इससे आपको यही कारण है कि सभी गच्छों और समुदाय के साधु गहरी वेदना हुई । शोक निवारार्थ आप श्री छुट्टनलाल व श्रावक वर्ग में आपका अच्छा सन्माननीय स्थान जी जौहरी के संघ के साथ पालीतासा पधारे । वहाँ था। आपके शिष्य वर्ग की संख्या भी काफी बढ़ने से कलकत्ता पधारे । कलकत्ते के एक जैन मन्दिर में लगी। हर्ष मुनि उघोतन मुनि राज मुनि, देव मुनि प्रभु समक्ष ध्यानावस्था में आपको आत्म जागृति हुई आदि शिष्य हुए। वि० सं० १:४७ में आप बम्बई कि अब मुझे यति अवस्था को त्याग कर संवेगी साधु के भायखला से लालबाग पधारे। यहां मुनिराजों के अवस्था ग्रहण करलेना चाहिये । आपने तब से उतरने का कोई स्थान न था अतः आप श्री के उपदेश ही अधिक परिग्रह बढ़ाने के त्याग कर लिये। से मुर्शिदाबाद निवासी सेठ बुधसिंहजी दुधेडिया ने सं. १६३० में आपका चातुर्मास जयपुर में हुआ। लालबाग में नवीन धर्मशाला बनाने हेतु १६ हजार Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य HINDIIO HD DIHIDAI HIROIRIDIHD ID ll ID RIMINSIDAGIUDDHindlila HD-Dilitilpo HDainila रुपये दिये तथा अन्य सन्जनों की द्रव्य हायता से हैं पर हर्ष है कि दोनों हो ओर के मुनिवरों में पूज्य भव्य धर्मशाला बनी। एकसौमनुष्यों ने पूर्ण ब्रह्म- श्री मोहनलालजी म. सा. के प्रति अद्यावधि अत्यचर्य व्रत अंगीकार किया और करीब चार हजार धिक श्रद्धा पूर्ण पूज्य भाव हैं। मनुष्यों ने पर स्त्री का त्याग किया। __ आप श्री के उपदेश व प्रयत्न से हुए मुख्य २ ___ सं० १६४६ में भजीमगंज निवासी रायबहादुर कार्य-१ बाबू पन्नालालजी पूरनचन्दजी द्वारा बम्बई घनपतसिंहजी दूगड़ द्वारा निर्मापित शत्रुजय तलेटी तथा अन्यत्र स्थापित बम्बई जैन हॉईस्कूल, जैन डिस्पेके मन्दिर को अंजनशलाका आपने की । १६५२ में नसरी, जैन मन्दिर और पालीताना की जैन धर्मशाला गुलालवाड़ी में ऋषभदेवजी व वासुपूज्यजी की मूतियां आपही के उपदेशों का फल है। प्रतिष्ठापित कराई । लालबाग में एक भव्य उपाश्रय २ बम्बई में सूरत निवासी जौहरी भाईचन्द भो तभी बना। तलकचन्द ने ७५ हजार से एक विशाल धर्मशाला ___ जैनधर्म की प्रभावना हेतु आप श्री द्वारा अनेकों बनवाई । कार्य हुए हैं जो एक अन्य पुस्तक रूप में ही प्रकट ३ बाब अमीचन्द पन्नालालजी की ओर से बालकरना संभव है । संक्षेप में यहा कह कर देना पयाप्त केश्वर जैन मन्दिर और उपाश्रय बना । होगा कि अहमदाबाद से बम्बई तक का क्षेत्र आपके ४ एलफिन्स्टन रोड स्टेशन के पास गोकुलभाई उपकारों से सदा उपकृत रहेगा। . मूलचन्द जैन होस्टल की स्थापना । ___ गुजरात के बिहार काल में आप श्री का सम्पर्क मूल ५ मूरत में नमुभाई की बाड़ी में जैन उपाश्रय । विशेष रूप से तपागच्छीय समुदाय से ही रहा अतःआप श्री यही किया पानने लगे थे। किन्तु आपने अपने ६ सूरत जैन संघ द्वारा श्री हर्षमुनिजी को गणी शिष्य समुदाय को स्वतंत्रता दी कि वे जो भी मान्यता पद प्रदान के अवसर पर १ लाख रुपया का जिर्णोद्धार मानना चाहें खुशी से मानें। खरतर गच्छ के एक फंड हुआ। शिष्ट मंडल के आग्रह एक आपने अपने प्रमुख शिष्य ७ सूरत में जैन भोजनशाला जो आजतक चालू पन्यासजी श्री जस मुनिजी को जो उस समय जोधपुर है। में थे, आज्ञापत्र लिखा कि आज से तुम अपने शिष्य कसरत का श्री मोहनलालजी जैन ज्ञान भंडार, समुदाय सहित अपने मूल खरतर गच्छ की क्रियाए हीराचन्द मोतीचन्द जैन कन्या पाठशाला, मोहनलाल ही पालन करो। इस प्राज्ञा को उन्होंने शिरोधार्य किया जो जैन उपाश्रय । और आपका शिष्य समुदाय आजतक खरतर गच्छ की वापी, बगवाड़ा, पारडी. बलसाड दहाणु किया करता है । इस प्रकार पूज्य श्री मोहनलालजी धोलवड़ बोरडी, फणसा, नवसारो, बिल्नीमौरा, की शिष्य परम्परा में तपा और खरतर दोनों ही क्रिया- कतार गांव श्रादि में जैन मन्दिर व उपाश्रय तथा मों के पालन कर्ता मुनिवर वर्तमान तक चले आरहे धर्मशालाए। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास HIDDuno LIMDIHED OUTHIDADIBIHIDDHIDIHIDII IITD DIMUIDAI0.10-0IIII DIN IID OIHI HIDDIR TRIOD In IDMID DIDDIA १० वामनवाद जी गांव जहाँ महावीर स्वामी का नाम रखा गया । सं. १६४७ में आपने भी जवेर सागर मन्दिर है वह सिरोही नरेश को उपदेश देकर वह जी से दीक्षा गृहण की, और आपका नाम आनन्दसाजैनियों को दिलवाया। गरजी रक्खा गया। सं० १६६० में आपको "पन्यास" ११ रोहीदा ( मारवाड़) में ब्राह्मण लोग जैन एवं “गणीपद" प्राप्त हुआ। आपके विद्वत्ता पूर्ण एवं मन्दिर नहीं बनने देते थे सो आपने सिरोही नरेश सारगर्भित भाषणों ने जैन जनता को प्रभावित किया। को कहकर मन्दिर बनवाया । आपने एक लाख रुपयों की लागत से सरत में सेठ ऐसे अनेकों कार्य हैं जो पूज्य श्री मोहनलालजी देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फन कायम म० की कीर्ति सदा अमर रक्खेंगे। कराया । बम्बई में जैन जनता को संगठित करने के ऐसे महापुरुष संवत् १६६३ वैशाख वदी १२ समय आप "सागरानन्द” के नाम से मशहूर हुए। (गुज० चैत्र व० १२) को सूरत में स्वर्गवास पधारे। सं० १६७४ में आपको आचार्य विजवकमलसरिजी ने श्री प्राचार्य जिनकपाचन्द्र सरीश्वरजी भाचार्य पद प्रदान किया । आपका स्थापित किया हुआ सूरत का 'श्री जैन आनन्द पुस्तकालय' बम्बई __आपका जन्म चांमू ( जोधपुर ) निवासी मेघर प्रान्त में प्रथम नम्बर का पुस्तकालय है। इसी तरह थजी बापना के गृह में संवत् १९१३ में हुआ। आगम ग्रन्थों के उद्धार के लिए आपने सूरत, रतलाम, संवत् १९३६ में अमृतमुनिजी ने आपको यति सम्प्र कलकत्ता, अजीमगंज, उदयपुर आदि स्थानों में दाय में दीक्षा दी। आपने खेरवाड़े के जिन मन्दिर लगभग १५ संस्थाएं स्थापित की। इन्हीं गुणों के कारण की प्रतिष्ठा करवाई। आपने मालवा, मारवाड, श्राप "आगमोद्धारक" के पद से विभूषित किये गये। गुजरात, काठियावाड़, बम्बई में कई चातुर्मास कर पालीताणा में बना हुआ आगम मन्दिर पापही की जनता को सदुपदेश दिया। आप सम्वत् १६७२ में, दीर्घदर्शी विचारों का शुभ फल है। बम्बई में "पाचार्य" पद से विभूषित किये गये। आपने कई पाठशालाएं, कन्याशालाएं एवं लायन । ___प्राचार्य श्री देवगुप्त सूरीश्वरजी रियाँ खुलवाई । आप न्याय, धर्मशास्त्र एक व्याकरण आपका प्रसिद्ध नाम मुनि ज्ञानसुन्दरजी था। जीवन का एक एक क्षण जिन्ह स संबन्धी के अच्छे ज्ञाता थे। खरतर गच्छ के आचार्य थे। शोध खोज हेतु पठन पाठन और लेखन ही में हो श्री प्राचार्य सागरानन्द सारजी व्यतीत किया था। जब भी जाइये उन्हें कुछ न कुछ आपका जन्म कपडयन्ज निवासी प्रसिद्ध धार्मिक पढ़ते या लिखते हो पाइयेगा । कभी व्यर्थ के गप्पों में श्रीमंत सेठ मगनलाल गाँधी के गृह में सम्वत् १९३१ वे नहीं बैठे, न किसी सांप्रदायिक प्रपंचों में पड़े। में हुआ। आपके बड़े भ्राता मणिलाल गाँधी के महान ज्ञानवान एवं प्रतिभावान गुणज्ञ साधु होते साथ आपने धार्मिक शिक्षा प्राप्त की। प्रथम आप हुए भी स्वप्रतिष्ठा से सदा दूर रहकर मात्र जैन साहित्य के भ्राता ने दीक्षा ग्रहण की एक उनका मणिविनय सर्जन और प्राचीन शोध खाज में हो आप लोन रहे। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक नैनाचाय ८६ EMID DIDIIIID MIDNEHATTIDHI IDIOMID ID TIDUIDADun lilto dil ID-iluw -HIS Iti-Nipal In IID INDILITDailu DILIDIOKES जैनाचार्य श्री मदविजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज "आधुनिक समय के सब से महान् जैन गुरु को गले लगाने के उच्च कार्यों से प्रत्येक जैन परिचित स्वर्गीय श्री मद्विजयवल्लभ सूरि, जिन का कुछ समय है। आचार्य श्री विजय ललितसूरि जी के मरुधर पूर्व बम्बई में स्वर्गवास हुआ, मेरी जानकारी में एक भूमि पर उपकार सर्व विदित हैं। हो ऐसे जैन साधु थे जिन्होंने सांप्रदायिकता का अन्त श्री विजयानन्द सूरिजी अन्तिम समय में पंजाब करने का प्रयास किया। उन्होंने सभी जैनों से प्रेरणा की रक्षा का भार श्री विजय वल्लभ सूरिजी को ही की कि वे 'दिगम्बर' और 'श्वेताम्बर' विशेषणों को संभला कर गए थे। इस 'जगत वल्लभ, की यह छोड़ कर 'जैन' का सरल नाम ग्रहण करें ताकि गृहस्यों संक्षिप्त जीवनी हैं:में नई जागृति का श्री गणेश हो सके।" नामः-श्री विजय वल्लभ सूरि ये शब्द एक प्रसिद्ध विद्वान डाक्टर ने २२ जून १९५५ को "टाईम्स ऑव इण्डिया' में प्रकाशित अपने जन्म स्थान-बड़ोदा वि० १६२७ (भाई दूज) लेख में आचार्य श्री जी के लिए प्रयोग किये हैं । २१ माताः-इच्छा देवी सितम्बर १६५८ के 'हिन्दुस्तान' में आचार्य श्री विजय पिता:-श्री दीपचन्दजी बल्लभ सरिजी के बारे में ठीक ही लिखा है कि दीक्षा:-राधनपुर वि० १६४४ "प्राचार्य श्री, जिन्होंने अपनी सारी आयु देश सेवा, गुरु श्री हर्षे विजयजी अहिंसा सत्य व शान्ति के प्रचार, ज्ञान तथा विद्या के । प्रसार, मानवता की निःस्वार्थ सेवा, साम्प्रदायिकता पदवी-आचार्य पद-लाहौर (१९८१) के विरोध, निर्धन तथा मध्यम वर्ग की सहायता तथा स्वर्गवासः-बम्बई (आसौज वदि ११ सं.२०११) विश्व शान्ति के सन्देश को संसार भर में फैलाने के मन्दिर प्रतिष्ठा व अंजनशलाकाः-सामाना, पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगा दी-जैन धर्म के बड़ौत, बिनौली, अलवर, करलिया, नाडोल, बम्बई सब से बड़े माध्यात्मिक गुरु थे।" उम्मेदपुर, स्यालकोट, रायकाट, बीजापुर कसूर, सूरत ___ श्री विजय वल्लभ सूरि के आज्ञानुवर्ती साधुओं , ___ सादड़ी, साढौरा। एवं मुनिराजों में विशेष प्रसिद्ध है-पू० मुनिराज आगम प्रभाकर श्री पुण्य विजयजी महाराज । ससार उनके द्वारा स्थापित समाए- श्री आत्मानन्द भर में उनके कार्यों की मुक्त कण्ठ से प्रसंशा की जा जैन सभा (बम्बई, बीकानेर, भावनगर, पूना, देहली, रही है । पण्यास श्री विकास विजय जी का 'महेन्द्र बड़ौत, बिनौली, आगरा, शिवपुरी, जम्मु, पजाब के पचाँग' सारे जैन जगत में प्रसिद्ध है। आचार्य श्री प्रत्येक नगर में तथा मारवाद, गुजरात, काठियावाड विजय समुद्र रिजी तथा गणि श्री जनक विजयजी आदि प्रान्तो में) की समाज सेवाए', गुरु भक्ति व निर्धन एवं पतितों समाज सुधार:-श्री आत्मानन्द जैन महा सभा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ACC जैन श्रमण संघ का इतिहास DataDING पंजाब की स्थापना तथा श्री जैन श्वेताम्बर कानफस (बम्बई) का पथ प्रदर्शन । उनके द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाएं श्री महावीर जैन विद्यालय (बम्बई ) श्री आत्मा नन्द जैन गुरुकुल (गुजराँवाला और झगड़िया) श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल (अम्बाला शहर, लुधियाना होशियारपुर, जडियाला गुरु, मालेर कोटला सादड़ी और वरकाणा ) जैन बोर्डिङ्ग (पाटण) जैन डिग्री कालेज (अम्बाला शहर, मालेर कोटला, फालना ) जैन कन्या पाठशालाएं' (अम्बाला शहर, होशियारपुर वेरावल, बीजापुर, खुड़ाला, नकोदर, बड़ौदा) श्री आत्मानन्द जैन लायब्रेरी (अम्बाला शहर, अमृतसर स्यालकोट, बेरावल, सादड़ी लुणावा, आसपुर, जूनागढ़, पूनासिटी, बेड़ा, बिजोवा, बीजापुर ) श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रकाशन सस्थाएं ( भावनगर बम्बई, आगरा, अम्बाला शहर ) आ० हेमचन्द्र सूरि ज्ञान मन्दिर ( पाटण ) अन्य पदवियाँ :- सं० १६६० में वामणवाड़ा तीर्थ पर अखिल भारतीय पोरवाल जैन सम्मेलन ने "अज्ञान तिमिर तरणि, कलिकाल कल्पतरु" पदवी प्रदान की तथा सं० २०१० में आपके दीक्षा हीरक जयन्ती महोत्सव के अवसर पर आप श्री जी को "भारत दिवाकर चारित्र चूड़ामणि" की पदवी प्रदान की गई । विदेश में प्रचारः - श्री फतेचन्दजी लालन को सर्व धर्म सम्मेलण में भेजा । ||||||||||||||| Su मध्यम वर्ग सहायता: - इस वर्ग की सहायता के लिए पांच लाख रुपये का फण्ड चालू कराया । विशेष कार्य:- आयु पर्यन्त बाल ब्रह्मचारी रहे, गांधीजी को उनके आन्दोलनों में सहायता, खिलाफत आन्दोलन की आर्थिक सहायता, पं० मदन मोहन मालविय को उनकी उद्देश्य पूर्ति में विशेष सहायता की, बम्बई में विश्व शान्ति के अथक प्रयास किये, पं० मोतीलालजी नेहरू का सिगरेट प्रयोग छुडाया, हजारों का माँसाहार और नशा प्रयोग छुडाया, महाराज गायकवाड़ ( बडौदा ) नवाब ( पालनपुर ) नबाब ( सचीन) नवाब (मांगरोल) महाराजा ( जेसल - मेर ) महाराजा ( लींबडी) महाराजा ( नामा) श्री हीरा सिंहजी इत्यादि को उपदेश दिया, बीलियों नगर पालिकाओं तथा अजैन सस्थाओं से लग भग १०० मान पत्र मिले। कई स्थानों पर वाद विवादों में विजय प्राप्त की । सम्मेलन:- बडौदा में मुनि सम्मेलन बुलाया, तत्पश्चात् अहमदाबाद में श्री तप गच्छ मुनि सम्मे में महत्वपूर्ण भाग लिया। बडौदा में १६६३ में श्री विजयानन्द सूरिजी की जन्म शताब्दी मनाई । लन शिक्षा प्रेम: - जैन जैनेतर छात्रों को छात्र वृतियाँ दिला कर उच्च शिक्षा दिलाई। बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय के लिए धन एकत्र कराया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat रचित ग्रन्थ. - नवयुग निर्माता, पंजाब देश तीर्थं स्तवनावलि, स्तवन संग्रह तथा अनेक पूजाएँ इत्यादि की रचना की । उपसंहारः- आप श्री जी की अन्तिम शव यात्रा बम्बई में बड़े ही समारोह के साथ निकाली गई । दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरहपन्थीं आदि सभी जैन तथा हिन्दु मुसलमान, ईसाई पारसी, यहूदी इत्यादि, लाखों नरनारी सम्मिलित हुए थे । स्थान २ पर पुष्प वर्षा के साथद्धांजलियाँ अर्पित की गई । आप श्री जी का अग्नि सरकार भायखला में जैन मन्दिर के पास दानवीर मोतीलाल मूलजी के सुपुत्र सेठ शाकरचन्द भाई ने इक्किस हजार की बोली से क्रिया । बंबई में उपयुक्त स्थान पर एक लाख रुपये की लागत से आप श्री जी का भव्य समाधि मन्दिर बनाया गया है जो कि बड़ा ही सुन्दर एवं दशनाय है । बड़ौदा, पाटन, बडौत बिजोबा, नाडौल वरकारणा लुधियाना समाना, हरजी तथा धना आदि स्थानों पर आप श्री जी प्रतिमाएं बिराजमान की जा रही हैं। लेखक:- महेन्द्र कुमार 'मस्त' - सामाना (पंजाब) www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य madumalID MILAID OILDHIDDLILUND CILIDUISMITA IISHIDDINDATIRID KAPOURUIDAIKlip to IDRID OTIOID OUR AIYAR श्रोचार्य श्री विजय ललित सरीश्वरजी उपाध्याय पदवी तथा वैसाख सुदी ५, १६६२ में मियां गांव में आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया । प्रखर शिक्षा प्रचारक, मरुधर देशोद्धारक श्री उच्च कोटि के विद्वान होने के साथ २ पाप विजय ललितसूरिजो की गणना पंजाब केसरी युगवीर कुशल व्याख्याता, संगीतकार तथा सुन्दर गायक भी भाचार्य श्री विजय बल्लभ सूरीश्वर के शिष्य रत्नों ( थे। श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल गुजराँवाला की में की जाती है। उनका नाम जिव्हा पर आते ही स्थापना के लिए आप ही ने बंबई के एक अजैन भाई मारवाड़ एवं गोडवाड़ का वह चित्र पाखों के सामने श्री विठ्ठलदास ठाकोरदास से बतीस हजार रुपये की भाजाता है जहाँ भगणित परिषह,दुःख तथा संकटों राशी भिजवाई । बंबई श्री संघ की विनती पर पूज्य को सहन करके प्राचार्य श्री विजय ललित सूरीश्वरजी गुरु देव ने होशियारपुर से आप श्री जी को मुनिराजे ने स्वयं अपने हाथों से जिन शासनोद्यान में कुछ श्री प्रभा विजयजी (वर्तमान विजय पूर्णानन्द सरि के पेडों का बीजारोपण किया । धीरे २ इन सुन्दर पौधों साथ बंबई भेजा। अहमदाबाद से पन्यास उमंग पर नन्हीं २ कलियों ने मस्ती भरी अंगड़ाई ली तथा विजयजी (वर्तमान में आचार्य श्री विजग उमंगसरि) आज वही कलियाँ मनोहर मुस्काते फूलों का रूप आदि को श्राप श्री ने साथ ले लिया। बबई में भाप धारण करके शोभायमान हो रही है। ने श्री महावीर विद्यालय के विकास कार्यों में पूरा योग प्राचार्य श्री विजय ललित सरिजी का जन्म वि० दिया । यातनाओं तथा तकलीकों से भापको साहस १९३८ में पंजाब गुजराँवाला जिले में भाखरीयारी मिलता था । काम को हाथ में लेकर आप पूरी तरह गांव में हुआ। आपका गृहस्थनाम लक्ष्मणसिंह तथा उसमें जुट जाते थे । आपके सतत् प्रयत्नों, प्रेरणामों पिता का नाम दौलत राम था। दौलतरामजी अपने तथा गुरुदेव के आशीर्वाद व आज्ञा से श्री पाश्वनाव अन्त समय बालक का भार बाल ब्रह्मचारी ला जैन विद्यालय-वरकाना की नींव पड़ी। यह सुन्दर धुढामल को सभला गए तथा उक्त लालाजी से ही विद्यालय वतमान में हाई स्कूल तक पहुंच चुका है। पालक लक्ष्मण ने आज्ञा पालन, विनयशीलता, वाणी फालना का जैन डिग्री कालेज आपको ही अमर देन माधुर्य तथा सेवा प्रादि सद्गुण सीखे । वैसाख सदी है। ये दोनों संस्थाए युगों तक भापकी यावं अष्टमी संवत् १९५४ में नारोवाल (पंजाब) में शान दिलाती रहेंगी। दीक्षा ग्रहण का तथा गुरु देव श्री विजय वल्लभ सूरि माघ सुदी १, २००५ को खुडाला (मारवार) में जी के शब्दों में आप "अद्वितीय गुरु भक्त शिव्यरत्न" में आप इस भौतिक शरार को त्याग कर स्वर्ग कहलाए। सिघार गए। सं० १९७६ में बाली (मारवाड़) में पन्यास पद, माघ सुदी ५, १६६२ में बीसलपुर (राजस्थान ) में -ले महेन्द्र कुमार मस्त-समाना-(पंजाब) Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन श्रमण संघ का इतिहास |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||| पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज ने वि० संवत् १६३३ में पूज्य श्री अमरसिंहजी महाराज सा० से दीक्षा ग्रहण की। शास्त्रों का गहरा अध्ययन कर अत्यन्त कुशलतापूर्वक आपने आचार्यपद पाया । आप जैन आगमों के विशेषज्ञ थे, ज्योतिष शास्त्रों के विद्वान् थे और बड़े क्रियापात्र आचार्य हुए। आपकी संगठन शक्ति असाधारण थी। हिन्दूविश्वविद्यालय, काशी में आपके नाम से श्री पार्श्वनाथ विद्यालय की स्थापना की गई है, जिसमें जैन धर्म के उच्च स्तर का शिक्षण दिया जाता है। AND OCTNUD SGEUND DICK जन्म हुआ । सं० १९८६ में इन्दौर में ऋषि सम्प्रदाय के चतुर्विध श्रीसंघ की तरफ से आपको पूज्य पदवी प्रदान की गई । पूज्य श्री काशीरामजी महाराज पूज्य श्री काशीरामजी म० सा० का जन्म पसरूर ( स्यालकोट ) में सं० १६६० में हुआ था । अठारह वर्ष की अवस्था में पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज के चरणों में आपने दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के केवल नौ वर्ष पश्चात् हो आपके लिए भावी प्राचार्य होने की घोषणा कर दी गई थी। इस पर से यह जाना जा सकता है कि आपको आचारशीलता तथा स्वाध्यायपरायणता कितनी तीव्र थी। आप अनेक गुणसन्न होते हुए भी आप अत्यन्त विनम्र थे। आपने पंजाब, वीर-संघ की याजना में शतावधानो पं० मुनि श्री रत्नचन्द्रजी महाराज सा० को खूब सहयोग प्रदान क्रिया । हैदराबाद और कर्णाटक प्रान्त में विचरण करते हुए आगमोद्धार का महान कार्य आपने लगातार तीन वर्ष के प्रत्यन्त कठोर परिश्रम से किया। इस कार्य में एकासन करते हुए दिन में ७-७ घण्टों तक आपको लिखने का कार्य करना पड़ा था । श्रुत सेवा की यह महान् आराधना कर समाज पर आपने महान् उपकार किया है । स्व. दानवीर सेठ श्रीसुखदेव सहाय ज्वालाप्रसाद जी द्वारा आगम-प्रचार के हेतु पूज्य श्री द्वारा हिन्दी अनुवादित ३२ आगमों की पेटियाँ अमूल्य भेंट दी गईं। इस महानतम कार्य के अतिरिक्त 'जैन तत्व प्रकाश' 'परमार्थ मार्ग दर्शक' 'मुक्ति सोपान' आदि महान् ग्रन्थों की रचना कर जैन एवं धार्मिक साहित्य की अभिवृद्धि की थी। कुल १०१ पुस्तकों का आपने सम्पादन किया है । स्था० जैन समाज में अपने ही साहित्य प्रकाशन का प्रारम्भ करवाया । शिक्षा प्रचार की तरफ आपका पूरा ध्यान था और यही कारण है आपके सदुपदेश से बम्बई में श्रीरत्न चिन्तामणी आठशाला और अमोलक जैन पाठशा कड़ा आदि की स्थापना हुई । संघ और समाज संगठन के आप अनन्य प्र ेमी यही कारण है कि अजमेर के साधु सम्मेलन पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज में आपने महत्वपूर्ण योग देकर सम्मेलन की आप मेड़ता मारवाड़ के निवासी श्री केवलचन्द्र जी कांसोटिया के सुपुत्र थे । सं० १९३४ में आपका कार्यवाही को सफल बनाने के लिए अग्रिम भाग लिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य १३ anAIN TELamoDID HOTI HD !! Clintamil medIEFICIIIIIiti :11110Crim e Tamaula पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज और शिक्षण का प्रभाव है कि सादडी संमेलन में पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज का जन्म पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को पाचार्य का यांदला शहर में हुआ था। अल्पावस्था में ही माता पद प्रदान किया गया । आपके शिष्यों में मुनि श्री पिता के स्वर्गवासी हो जाने के कारण मामा के यहाँ घासीलाल जी तथा सिरेमल जी महाराज आदि विद्वान 'प्रापका पालन-पोषण हुआ। सोलह वर्ष की कुमार साधु विराजमान हैं । लगभग २३ वर्ष तक आचार्य अवस्था में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप बाल पद को वहन कर सं० २००० में आप स्वर्ग सिधारे । प्रापके सारगर्भित व्याख्यानों का "जवाहर किरणा. ब्रह्मचारी थे। थोड़े हो समय में शास्त्रों का ध्ययन वली" के नामसे सुन्दर संग्रह प्रकाशितहु आ है जो करके जैन शास्त्रों के हार्द को आपने समझ लिया। स्वर्गस्थ प्राचार्य श्री की प्रखर प्रतिभा का अमर परमत का पर्याप्त ज्ञान भी मापने किया था। तुलना __ परिचायक रहेगा। ना त्मक दृष्टि से समभावपूर्वक शास्त्रों की इस प्रकार तर्कपूर्ण व्याख्या करते थे कि अध्यात्मतत्व का सहज जैनदिवाकर श्री चौथमलजी महाराज ही साक्षात्कार हो जाता था। आपकी साहित्य सेवा अपने आपने जोवन-काल में संघ और धर्म की अनुपम है। पूज्य श्रीलालजी के बाद श्राप इस सेवा एवं प्रभावना के लिए जो महान् स्तुत्य कार्य सम्प्रदाय के प्राचार्य हुए। सूत्रकृतांग को हिन्दी टीका किये, वे जैन इतिहास में स्वर्ण वर्गों में लिखने योग्य लिखकर आपने अन्य मतों की आलोचना की है। हैं। जैन दिवाकरजी महाराज ने जो प्रसिद्धि और लाकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई प्रतिष्ठा प्राप्त की, वह असाधारण है । राजा-महाराजा पटेल, पंडित मदनमोहन मालवीय और कवि श्री अमीर-गरीब, जन-जेनेतर सभी वर्ग आपके भक्त थे। नानालाल जी नसे राष्ट्र के सम्माननीय व्यक्तियों ने उत्तर भारत और विशेषतः मेगाड़, मालवा तथा आपके प्रवचनों का लाभ उठाया था। जिस प्रकार मारवाड़ के प्रायः सभी राजा-रईस आपके प्रभावशाली राजकीय क्षेत्र में पडित जवाहरलाल नेहरु लोकप्रिय उपदेशों से प्रभावित थे । मेवाड़ के महाराणा आपके है उसा प्रकार पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज भो परम भक्त रहे । पालनपुर के नवाब, देवास नरेश धार्मिक क्षेत्र में लोकप्रिय थे। वे राजनीतिक जगत् आदि पर आपकी गहरी छाप पडी। अपने इस प्रभाव के जवाहर हैं तो ये धार्मिक जगत् के जबाहर थे। से जैनदिवाकर जी महाराज ने इन रईसों से अनेक आपके प्रवचनों से केवल नेता और विद्वान् ही धार्मिक काय करवाये । आकषित न होते थे वरन् सामान्य और प्राम्य जनता जैनदिवाकरजी महाराज अपने समय के महान भी आपके प्रवचनों की ओर खूब आकर्षित होती थी। विशिष्ट वक्ता थे । राज महलों से लेकर झोपड़ियों तक आपने सद्धर्म मंडनम् तथा अनु कंपा विचार आपकी जादूभरी वाणी गूजी। वक्ता होने के साथ द्वारा भगवान् महावीर के दयादान विषयक यथार्थ उच्चकोटि के साहित्य निर्माता भी थे। गद्य-पद्य में सिद्धांतों का दिग्दर्शन कराया। आप ही के अनुशासन आपने अनेक ग्रंथों का निर्माण किया, जिसमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||| in ६४ निर्मान्प्रवचन, भगवान् महावीर की जीवनी, 'पद्यमय जैन रामायण', मुक्तिपथ, आदि प्रसिद्ध हैं । आप द्वारा निर्मित पदों का 'जैनसुबोध' गुटका' नाम से एक संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है । संयोग की बात देखिए कि रविवार (कार्तिक शु० १३, सं० १६३४) को नीमच में आपका जन्म हुआ, रविवार (फाल्गुन शु० ५ सं० १६५२ ) को आपने दीक्षा अंगीकार की और रविवार (मार्गशीर्ष शु० ६ सं० २००७) को ही कोटा में आपका स्वर्गवास हुआ । सचमुच रवि के समान तेजस्वी जीवन आपको मिला । भारतीय संस्कृति के मननशील मनीषी आचार्य श्री जीतमलजी म० जिनका जन्म सं० १८२६ में रामपुरा में हुआ, पिता देवसेनजी और माता का नाम सुभद्रा था । यध्यात्मवाद के उत्प्रेरक आचार्य श्री सुजानमल जी के उपदेश से प्रभावित होकर सं० १८३४ में माता के साथ संयम के कठिन मार्ग पर अपने मुस्तैदी से कदम बढ़ाये | आप दोनों हाथों और दोनों पैरों से एक साथ लिखते थे, चारों कल में एक साथ एक दूसरे से श्रागे बढ़ने का प्रयत्न करती थीं । १२ लाख श्लोकों की प्रतिलिपियाँ करना इसका ज्वलंत उदाहरण है। जैनजैनेतर के भेद-भाव के बिना, किसी भी उपयोगी ग्रंथ श्राचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज को देखते तो उसकी प्रतिलिपि कर देते थे, यही कारण है कि आपने ३२ वक्त, बत्तीस आगमों की ज्योतिष, वैद्यक, सामुद्रिक -गणित, नीति, ऐतिहासिक, सुभाषित, शिक्षाप्रद औपदेशिक आदि विषयों के ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ की । चित्रकला के प्रति आपका स्वाभाविक आकर्षण था। जैन श्रमण होने के नाते धार्मिक, औपदेशिक, कथा-प्रसंगों को लेकर तथा जैन भौगोलिक नक्शे और कल्पना के आधार पर ऐसे चित्र चित्रित किये हैं जिन्हें देख मन-मयूर नाच उठता है । उनके जीवन आपके पिता श्री गंगारामजी तथा माता श्री केसर बाई ऐसे सपूत को जन्म देकर धन्य हो गए । नीमच ( मालवा) पावन हो गया । चित्तौड़ में आपके नाम से श्री चतुर्थ जैन वृद्धाश्रम नामक एक संस्था चल रही है। कोटा में आपकी स्मृति में अनेक सार्वजनिक संस्थाओं का सूत्रपात हो रहा है। मरुधर श्रद्धेय पूज्य श्री अमरसिंहजी म० एक महान् चाये थे, जिन्होंने भारत की राजधानी दिल्ली में जन्म लिया और वहीं शिक्षा-दीक्षा पाई । पूज्य श्री लालचन्द्रजी म० की वाग्धारा को श्रवण कर सं० १०४१ में, भरी जवानी में स्त्री का परित्याग कर, दोक्षा अंगीकार की। सं० १७६१ में आप आचार्य बने, संवत् १७५७ में दिल्ली में वर्षावास व्यतीत किया, बहादुर शाह बादशाह उपदेश से प्रभावित हुआ । जोधपुर के दीवान बिसिंहजी भण्डारी के प्रेम भरे आग्रह को टाल न सके तथा अलवर, जयपुर, अजमेर होते हुए मरुधर के प्रांगण में प्रवेश किया । सोजत में जिन्द को प्रतिबोध देकर मस्जिद का जैन स्थानक बनाया, जो कि आज भी कायाकल्प कर उस अतीत का स्मरण करा रहा है । श्री जीतमलजी महाराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचाय १५ membe/I-RDOID INSTIHID THISROID HISTIN HIDI AND Culty :ms FOR ANDROIN KI LADKIDN05Ind Hignuplosonuuto-DIL HIOID का एक प्रसंग है कि सं० १८७१ में जोधपुर के परम श्रीनरसीदासजी महाराज से आकोला में आपने दीक्षा मेधावी सम्राट मानसिंहजी के यह प्रश्न पूछने पर कि ग्रहण की और संवत् १६६७ में उंटाला ग्राम में "जल की वूद में असंख्य जीव किस प्रकार रह सकते आपका स्वर्गवास हुआ। आपके ६ अग्रगण्य विद्वान् हैं ?" उत्तर में प्राचार्य श्री ने एक चने की दाल शिष्य थे जिनमें पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज जितने स्वल्प स्थान में एक सौ आठ हस्ति अङ्कित अग्रगण्य थे। गुरुभाई श्रीमांगीलालजी महाराज का किये जिन्हें सम्राट ने सूक्ष्मदर्शक शीशा की सहायता जन्म 'राजाजी का करेड़ा में हुआ था। ग्यारह वर्ष से देखा और प्रसन्नता प्रकट करते हुए जैन मुनियों की अवस्था में ही आपने दीक्षा ग्रहण की थी। आप के प्रशंसा रूप निम्न कवित्त रचा- परम निष्ठाशाली चारित्रवान मुनिराज हैं । काहू की न आश राखे, काहू से न दीन भाखे, प्राचार्य श्री भग्गुमलजी महाराज करत प्रणाम ताको, राजा राण जबड़ा। आचार्य श्री भग्गुमलजी महाराज का जन्म चन्द्र सीधी सी थारोगे रोटी, बैठा बात करें मोटी, ___ जी का गुड़ा नामक ग्राम में हुआ था। आप पल्लीओढने को देखो जांके,धोला सा पछेवड़ा। वाल थे। छोटी-सी वय में आपने दीक्षा ग्रहण की। खमा खमा करे लोक, कदियन राखे शोक आपकी माता और बहन ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। बाजे न मृदंग चंग, जन माहिं जे बड़ा। प्राचार्य महाराज अंग्रेजी, फारसी और अरबी भाषा कहे राजा मानसिंह, दिल में विचार देखो, के भी विद्वान् थे । गणित, ज्योतिष और योगशास्त्र दुःखी तो सकल जन, सुखी जैन सेवड़ा ॥ आदि अनेक विषयों के बहुत विद्वान होने के कारण आप उस समय के प्रसिद्ध कवि थे, मापने अलवर-नरेश महाराजा मगलसिंह जी ने आपको राजस्थानी भाषा में सर्वजनोपयोगी अनेक प्रन्यों का राज्य पंडित' की उपाधि से विभूषित किया था। निर्माण किया। 'चन्द्रकला' नामक ग्रन्थ जो चार आपकी काव्य-शैली प्रासाद गुण संयुक्त थी। खण्डों में विभक्त है, एक सौ ग्यारह ढ़ाल में हैं। 'शान्तिप्रकाश' जैसे गूढ ग्रन्थों का निर्माण प्रापकी और सुरप्रिय स दाल में है। आपका स्वर्गवास उत्कृष्ट विद्वता का ज्वलन्त उदाहरण है। सं० १८८२ में हुआ। पूज्य श्री एकलिंगदोसजी महाराज काव श्री नन्दलालजी महाराज पून्य श्री धर्मदासजी महाराज के ग्यारहवें पाट पूज्य श्री रतिरामजी महाराज के शिष्य कविराज पर पूज्य श्री एकलिंगदासजी महाराज आचार्यपद पर श्री नन्दलालजी महाराज साधुमार्गी समाज में एक विराजमान हुए। श्राप मेवाड़ में परम त्यागी और बहुश्रु त विद्वान थे। आपका जन्म काश्मीरी ब्राह्मण तपस्वी मुनिराज थे। आपके पिता का नाम शिवलाल परिवार में हुआ था। दीक्षा लेने के थोड़े समय के जी था जो संगेसरा के निवासी थे। संवत् १९१७ में बाद आप शास्त्रों के पारगामी विद्वान हो गये । आपने आपका जन्म हुआ। तीस वर्ष की युवावस्था में पूज्य 'लब्धिप्रकाश,' गौतम पृच्छा' रामायण' 'अगदपस' Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास auloME HANDS IN INSTIHINDolimanoj to ouTD Ili> TIHU Ibonia Hi> Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ६७ misaHI10-0:18.SAL.HINDolth IIMSLTALIMILITANSill IUS FINDIA ISel ||locoln >Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ-संगठन का प्राचीन इतिहास जैन संघ के प्ररूपक वर्तमान चौवीसी के चरम संमिलित होगये थे इसीलिये समस्त श्वेतांबर श्रमण तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी हैं। आपने विक्रम संघ श्री सुधर्मा स्वामी की परंपरा में माना जाता है। संवत् से ५०० वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ला ११ को प्रातः- केवल उपकेश गच्छ ही अपनी परम्परा भगवान कालीन शुभ वेला में केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् पार्श्वनाथ से जोड़ता है। अपने संघ की स्थापना की। इस संघ संगठन को जैन आचार्य सुधर्मा स्वामी के पश्चात् अनेक गण मान्यतानुसार 'तीर्थ प्ररुपणा' कहते हैं और इसके एवं कुल हुए जिनका विस्तृत वर्णन कल्पसूत्र की प्ररुपक को तीर्थङ्कर । तीर्थ के साध, साध्वी, श्रावक स्थिवरावली में वर्णित है। दिगंबर संप्रदाय अपनी और श्राविका ऐसे चार भेद होते हैं।। परंपरा पृथक रूप से मानता है जिसका वर्णन आगे भगवान महावीर स्वामी अपनी महान् त्यागीप्रवृत्ति से दिया जारहा है। 'निर्मन्य ज्ञात पुत्र' के नाम से प्रसिद्ध थे अतः उनके श्वेतांबर संप्रदाय के भी वे सब प्राचीन गण व समय में सोध-साध्वी को निर्मन्थ' नाम से संबोधित कुल नाम शेष हो चुके हैं । यही गण व कुल बाद में किया जाता था। इसके पश्चात् जैन मुनियों के लिये 'गच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुए। ऐसे ८४ गच्छ हुए। निम्रन्थ, श्रमण, अचेलक अनगार, भित, त्यागी, श्वेतांबर संप्रदाय के वर्तमान सभी फिरके इन्हीं ८४ ऋषि, महर्षि, माहण, मुनि, तपस्वी चातुर्यामिक, गच्छों के भेद प्रभेद हैं। पंचयामिक तथा क्षपणक आदि नाम भी प्रयुक्त निन्हव भेद । होने लगे। गणधर वंश के समान वाचक वंश भी भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा के मुनि चातुर्याम महावीर के श्रमण संघ का एक और प्रवाह रहा के पालक थे अतः उस नाम से भी जैन श्रमण पहिचाने था जिसे युग प्रधान परंपरा भी कहते हैं। इस प्रवाह जाते रहे । भगवान ने ब्रह्मचर्य का स्वतंत्र पंचम व्रत में वे गच्छ हैं जो क्रिया भेद के मत भेदों से मूल निरुपण किया जिसे इनके साधु पंचयामिक संघ में से अलग होते रहे । इन्होंने भगवान कथित कहनाये । क्षपणक, क्षपण, क्षमण, खवण ये सब जैन सत्य का निन्हव क्रिया अर्थात् उसे छिपाकर अपने श्रमणों के पर्यायवाची शब्द हैं। भगवान महावीर के ___ मत की प्ररूपणा की भतः उन्हें निन्हव कहते हैं। ही समय में तीन मतों के साधु थेः-१ पाश्वनाथ संतानीय वीर निर्वाण से ६०६ वर्ष बाद तक ऐसे ८ निन्हव २ उपकेश गच्छ और ३ कंवला गच्छ । भगवान के ११ संप्रदायें हुई हैं। गणधर थे जिनमें २ गणधरों की वाचना एक समान (१) वी०नि० पूर्ण १४ वर्ष जमाली ने 'बहुरत' होने से गण ही थे। भगवान महावीर के निर्वाण मत चनाया। (२) वी०नि० १६ व० पू० तिष्यगुप्त ने के बाद सभी गण भगवान सुधर्मा स्वामी के गण में 'जीव प्रदेश' मत चलाया। (३) वी० नि० २१४ में Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन श्रमण संघ का इतिहास 61 die || || Dilli - आषाढाचार्य अव्यक्त मत । (४) वी० नि० २२० में महागिर के पाँचवें शिष्य कौडिन्य ने 'सामुळे दक' मत चलाया। (५) वी० नि० २२८ में आयें महागिरी के शिष्य धनगुप्त के शिव्य गंगादत्त ने द्विक्रिय 'मत चलाया । ( ६ ) वी० सं- ५५४ में रोहगुप्त ने "त्रिरा शिक" मत चलाया (५) बी० सं० ५८४ में गौष्ठा माहिल ने 'अबद्धिक' मत तथा (८) वी० सं० ६०६ (वि० सं० १३६) में शिव भूति ने 'बटिक (दिगंबर) मत चलाया । ऐसा आवश्यक नियुक्ति गाथा ७७८ से ७८८ भाष्य गाथा १२५ से १४८ में बर्णन है । प्राचीनकाल के ये गच्छ भेद किसी क्रिया या सिद्धान्त भेद के द्व ेषमूलक प्रवृत्ति पर आधारित न होकर गुरु परम्परा पर ही विशेष आधारित थे और सभी जैन शासन की गौरव वृद्धि के लिये ही सतत् प्रयत्न शील रहते थे। आज की तरह सम्प्रदाय बाद के प्रचारक नहीं । बिक्रम की ११ वीं शताब्दी के पश्चात् जो गच्छ भेद हुए उन्होंने सांप्रदायिकता का रूप धारण किया और यहीं से द्वेष मूलक प्रवृत्तियों का प्रारंभ होकर जैन शासन का ह्रास काल प्रारंभ हुआ । अब हम प्राचीनकाल के मुख्य २ गच्छों के संबन्ध में संक्षिप्त वर्णन लिखते हैं । निग्रन्थ गच्छ भगवान महावीर "निर्मन्थ ज्ञात पुत्र" विशेषण से संबोधित होते थे अतः उनका साधु संघ भी निर्मन्थ कहलाया । निमन्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है: “न कrs निग्गंथाणं निग्गंधीणं । जे इमे अब्जन्त्ताए समणा निग्गंथा । वहरान्त" ( स्थविरावली ) निगन्धा महेसि (दशवेकालिक सूत्र ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat निर्मन्थ का अर्थ है जो बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थी से रहित हैं । बाह्य रूप में कोई वस्तु गांठ में छिपाकर नहीं रखते तथा आभ्यन्तर में पवित्र चित्त बाले । प्रिन्थ रजो हरण, मुद्दपत्ति, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण युक्त होते हैं पर उन पर कनख नहीं रखते । कोटिक गच्छ निर्वाण की दूसरी शताब्दी में १२ वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा । निन्य साधुओं की संख्या कम होने लगी । इसके बाद सम्राट सम्प्रति के समय से पुनः जैनधर्म के प्रचार और संगठन ने जोर पकड़ा। जैन साधुओं की संख्या बढ़ने लगी । ये संगठन अपने सगठन कर्त्ता के नामों से प्रसिद्ध हुए जैसे भद्रबाहु स्वामी के शिष्य गोदास से गोदास गण, आर्य महागिरी के शिष्य उत्तर तथा बलिस्सह से बलिस्सह गण, आर्य सुदस्ति के शिष्यों से उद्देह, चारण, नेस वाडिय, मानव तथा कोटिक गच्छ की स्थापना हुई। इन सब के भिन्न २ कुल और शाखाएं भी व्यवस्थित हुई । ये सब निर्बन्ध गच्छ के नामान्तर भेद हैं । I भगवान महावीर स्वामी के आठवें पट्टधर आचार्य सुहस्ति सूरि के पांचों और बट्ट े शिष्य आर्य सुस्थित तथा श्रये सुप्रतिबद्ध ने उदय गिरी पहाडी पर कोड़वार सुरि मंत्र का जाप किया था उसीसे उनको 'कोटिक' नाम से सम्बोधित किया गया और वी० नि० सं० ३०० के करीब उनका साघु समुदाय "कोटिक गच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह निर्मान् गच्छ की ही शाखा है। www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास १०० MITIDIHD COIL-HD-TIRUCHIDATIAHILEONITINo TIRUICONTAIND-DINIHIS-THI 1|NDI\ \UNDATIT IS HDPID SOLANHID-OINTIDIARNID KOTARAID OILE चन्द्रगच्छ यात्रा कर आबू तीर्थ की यात्रार्थ गये हुए थे वहाँ तलेटी के एक ग्राम में एक बड़वृक्ष के नीचे बैठे हुए निन्य गच्छ के १३ में पट्टधर आचार्य वजी थे वहाँ आकाश में कोई अनोखा 'ग्रहयोग' होते स्वामी हुए । ये अन्तिम दश पूर्व धर थे। दिगम्बर देखा । इस अवसर को शुभ मुर्हत जान कर वी० नि. परम्परा में इन्हें द्वितीय भद्रबाहू के नाम से उल्लेख सं० १४६४ वि० सं० १६४ में किया गया है। इन भाचार्य के नाम से 'वजशाला' आपने सनदेव सूरि आदि प्रमुख ८ शिष्यों को एक साथ आचार्य पदवी बनी। प्राचार्य वन स्वामी के समय विक्रम की दूसरी प्रदान की और आशीर्वाद दिया कि "तुम्हारी शिष्य शताब्दी में सत्तर भारत में फिर से १२ वर्ष का भीषण संतति बदके समान फलेगी फूलेगी। बड़ नीचे दुष्काल पड़ा। उस समय आचार्य श्री ५०० शिष्यों आचार्य पद प्राप्त होने से श्री सौदेव सूरि आदि की को साथ ले दक्षिण भारत की एक पहाडी पर जाकर शिष्य परम्परा का नाम "बड़ गच्छ” प्रसिद्ध हुआ। अनशन लीन हए। उनके एक शल्लक शिष्य ने पास ' सचमुच प्राचार्य सर्ग देव सूरि की शिष्य सन्तति वाली दूसरी पहाडी पर अनशन किया। केवल बड़ वृक्ष की हो तरह विस्तृत हुई। आचार्य श्री के एक शिष्य श्री वसेनसूरि ने प्राचार्य इस समय तक नागेन्द्र आदि गच्छों के अन्तर्गत श्री की श्रानानुसार अपनी श्रमण परम्परा चालू रखने ८४ गच्छ बन चुके थे। कुछ स्थानों पर ऐसा भी की दृष्टि से बम्बई प्रान्त के सोपारा स्थान में जाकर उल्लेख है कि प्राचार्य उद्योतन सरिजी ने बड़ वृक्ष सेठ जिनदत्त, सेठानी ईश्वरी के पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र के नीचे तप लीन अवस्था में एक आकाश वाणी सुन निवृत्ति तथा विद्याधर चारों की दुष्काल से रक्षा कर कर अपने ८४ विद्वान साधुओं को एक साथ आचार्य उन्हें अपने शिष्य बनाये। ये चारों बाद में प्राचार्य बनाया और इन्हीं ८४ आचार्यों से ९४ गच्छ बने । बने । इन चारों प्राचार्यों ने वी. नि० सं० ६३० के कुछ भी हो चन्द्र गच्छ और बड़ गच्छ एक ही पेड़ आस पास नागेन्द्र गच्छ, चन्द्र गच्छ, निवृत्ति गच्छ त "१ की दो शाखाएं हैं । इन ८४ गच्छों के नाम स्थानाभाव तथा विद्याधर गच्छ की स्थापना की। समयान्तर से से यहाँ नहीं देकर भागे परिशिष्ट भाग में देंगे। इन चारों गच्छों में से भिन्न २ नामों से ८४ गच्छ इस समय तक चन्द्रकुल गच्छ, पूर्णतल गच्छ नाणक पुराय गच्छ (शंखेश्वर गच्छ) 'कालिकाचार्य, वनवासी गच्छ आवड़ा, मलधारी, थिरापद्री, चैत्र बाल, ब्राह्मण उपकेश प्राचार्य चन्द्रसरि के पार पर प्राचार्य समन्त गच्छ बादि गच्छों का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध भद्रसरि हुए । आप बड़े ही विद्वान् तथा घोर तपस्वी था। घड़गच्छ के समय में ही समाचारी भेद के थे। शास्त्रानुकूल किया पालने में बड़े कठोर थे और कारण पुनमिया वि० सं० ११५६ चामु डिक, (१२०१) अधिकतर देवकुल, शून्य स्थान तथा वनों में जाकर खरतर (१२०४ ) अचल (१२१३) सार्ध पुनमिया ध्यान मग्न रहते थे। इसी से उनकी शिष्य परम्परा (१२३६ ) आगमिक ( १२५०) श्रादि गच्छों की भी उत्पत्ति हुई। . "वन वासी गच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुई इसका समय वीर नि० सं० ७०० के आस पास का है। विक्रम की १३ वीं सदी में भ० महावीर के ४४ वें निग्रन्थ गच्छ का यह चौथा भेद है। पट्टधर आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि ने सं० १२७३ में चैत्रवाल गच्छोय आ० भुवनचन्द्र सूरि के साथ बड़ गच्छ क्रियोद्धार किया। भापही तपा गच्छ के संस्थापक भगवान महावीर स्वामी के ३५ में पट्टपर प्राचार्य आचार्य है। अब आगे के अध्याय में जैन श्रमण संघ उद्योतन सरि एक बार श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की के वर्तमान विद्यमान भेद प्रभेदों का वर्णन देते हैं। बने। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ-संगठन का वर्तमान स्वरूप जैनधर्म के मुख्यतया दो सम्प्रदाय है:-(१) श्वेता. समय दोनों प्रकार की परम्पराएं थी। उनके संघ में म्बर और (२) दिगम्बर । यह भेद सचेल-अचेल सचेल परम्परा भी थी और अचेल परम्परा भी थी। के प्रश्न को लेकर हुआ है। भगवान महावीर से भगवान महावीर स्वयं अचेलक रहते थे उनके पहले सचेल परम्परा भी थी यह बात उपलब्ध जैन आध्यात्मिक प्रभाव से आकृष्ट होकर अनेक अनगारों बागम साहित्य और बौद्ध साहित्य से सिद्ध होता ने अचेल धर्म स्वीकार किया था। इतना होते हुए भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के केशि-गौतम अध्ययन से इस अचेलकता सर्व सामान्य रूप में स्वीकृत नहीं हुई बात पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । भगवान् पाश्वनाथ थी। अनेक श्रमणनिप्रन्य सचेलक धर्म का पालन की परम्परा के प्रतिनिधि श्रीकेशी ने भगवान महावीर करते थे । निशियों ( साध्वियों ) के लिए तो के प्रधान शिष्य गौतम से प्रश्न किया है कि भ० अचेलकत्व की अनुज्ञा थी ही नहीं। पाश्वनाथ ने तो सचेल धर्म कथन किया है और भगवान महावीर के शासन में अचेल-सचेल का भगवान महावीर ने अचेल धर्म कहा है। जब दोनों कोई आग्रह नहीं रखा गया। इसलिये पार्श्वनाथ की का उद्देश्य एक है तो इस भिन्नता का क्या प्रयोजन परम्परा के अनेक श्रमण-निर्ग्रन्थ भगवान महावीर है ? इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान की परम्पग में सम्मिलित हुए। भगवान महावीर के महावीर से पहले सचेल परम्परा थी और भगवान् संघ में अचेल-सचेल धर्म का सामञ्जस्य था। दोनों महावीर ने अपने जीवन में अचेल परम्परा को स्थान परम्परायें ऐच्छिक रूप में विद्यामान थी। जो श्रमण दिया। निम्रन्थ अचेलत्व को स्वीकार करते थे वे जिनकल्ग भगवान् महावीर ने भी दीक्षा लेते समय एक कहलाते थे और जो निर्मन्ध सचेलक धर्म का वस्त्र धारण किया था और एक वर्ष से कुछ अधिक अनुसरण करते थे वे स्थविरकल्पो कहलाते थे। काल के बाद उन्होंने उस वस्त्र का त्याग कर दिया भगवान महावीर ने अचेलत्व का श्रादर्श रखते हुए और सर्वथा अचेलक बन गये, यह बर्णन प्राचीनतम भी सचेलत्व का मर्यादित विधान किया। उनके आगम ग्रन्थ श्री आचारांग सूत्र में स्पष्ट पाबा समय में निग्रन्थ परम्परा के सचेल और अचेल जाता है। दोनों रूप स्थिर हुए और सचल में भी एक शाटक बौद्ध पिटकों में "निग्गठा एक साटका" जैसे ही उत्कृष्ट प्राचार माना गया। शब्द आते हैं । यह स्पष्टतया जैन मुनियों के लिये प्राचीनता की दृष्टि से सचेलता की मुख्यता कहा गया है। उस काल में जैन अनगार एक वात्र और गुण दृष्टि से अचलता की मुख्यता स्वीकार कर रखते थे अतः बौद्ध पिटकों में उन्हें 'एक शाटक' भगवान महावीर ने दोनों अचेल सचेल परम्परामों कहा गया है। प्राचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में का सामजस्य स्थापित किया । भगवान महावीर के. अचेलक, एक शठक द्विशाटक और अधिक से पश्चात् लगभग दो सौ दाई सौ वर्षों तक यह अधिक त्रिशाटक के कल्प का वर्णन किया गया है। सामञ्चज्य बराबर चलता रहा परन्तु बाद में दोनों इससे यह मालूम होता है कि भगवान महावीर के पक्षों के अभिनिवेष (खिंचातानी ) के कारण निर्मम Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन श्रमण संघ का इतिहास amosoluuuNSOUNatiseATERIDADHURIMAD INHIDI | DET22:10-TIPAHINID-mumto Ho |oolTIUIDAI || TARINIDIATRIC STRIMID-In परम्परा में विकृतियां आने लगी। उसका परिणाम स्याद्वाद के अमोघ सिद्धान्त के द्वारा जगत् के श्वेताम्बर और दिगम्बर नामक दो भेदों के रूप में समस्त दार्शनिक वादों का समन्वय करने वाला प्रकट हुआ। वे भेद अबतक चले आ रहे हैं। जैनधर्म कालप्रभाव से स्वयं मताग्रह का शिकार हुआ। आपस में विवाद करने वाले दार्शनिकों और भारत के विस्तृत प्रदेशों में जैनधर्म का प्रसार विचारकों का समाधान करने के लिये जिस न्यायाधीश हुआ । दक्षिण और उत्तर पूर्व के प्रदेशों में दूरी का तुल्य जैन धर्म ने अनेकान्त का सिद्धान्त पुरस्कृत व्यवधान बहुत लंबा है । प्राचीन काल में यातायात कियां था वही स्वयं आगे चलकर एकान्त वाद के के साधन और संदेश व्यवहार की सुविधा न थी चक्कर में फंस गया । सचेल और अचेल धर्म के अतः प्रत्येक प्रांत में अपने अपने ढंग से संघों की एकान्त आग्रह में पड़कर निर्गन्य परंपरा का अखन्ड संघटना होती रही। दुष्काल और अन्य परिस्थिति के प्रवाह दो भागों में विभक्त हो गया। इतने ही से खैर कारण पूर्व प्रदेश में रहे हुए अनगारों के प्राचार नहीं हुई, दोनों पक्ष एक दूसरे के प्रतिद्वन्दि बनकर विचार और दक्षिण में रहे हुए श्रमणों के प्राचार अपनी शक्ति को क्षीण करने लगे। दोनों में परस्पर विचार में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही था । काल विवाद होता था और एक दसरे का बल क्षीण किया प्रवाह के साथ यह भेद तीक्ष्ण होता गया । मत भेद जाता था। दिगंबर संप्रदाय दक्षिण में फूला फला इस सीमा तक पहुँचा कि दोनों पक्षों के सामंजस्य और श्वेतांबर संप्रदाय उत्तर और पश्चिम में । को सद्भावना बिल्कुल न रही तब दोनों पक्ष स्पष्ट दक्षिण भारत दिगंबर परंपरा का केन्द्र बना रहा और रूप से अलग २ हो गये वे दोनों किस समय और पश्चिमी भारत श्वेतांबर परंपरा का केन्द्र रहा है। कैसे स्पष्ट रूप से अलग हो गये, यह ठीक ठीक नही आज तक दोनों परंपराएँ अपने अपने ढंग पर चल कहा जा सकता है। दोनों पक्ष इस संबन्ध में अलग रही हैं। अलग मन्तव्य उपस्थित करते हैं और हर एक अपने ___ कालान्तर में चैत्यवासी अलग हुए । श्वेताम्बर आपको महावीर का सच्चा अनुयायी होने का दावा संघ में अनेक गच्छ पैदा हुए। दिगम्बर परम्परा में करता है और दूसरे को पथभ्रान्त मानता है। भी नाना पंथ प्रकट हुए। इस तरह निथ परम्परा श्वेतांवर मत के अनुसार दिगबर संप्रदाय की उत्पत्ति अनेक भेद प्रभेदों में विभक्त हो गई। वीर निर्वाण संवत् ६०६ (वि० सं० १३६, ईस्वी सन् यहां संक्षेप से जैन सम्प्रदाय के मुख्य २ भेद ३) में हुई और दिगंबरों के कथानानुसार श्वेतांबरों भेदों का थोड़ा सा परिचय दिया जाता है। की उत्पत्ति वीर निर्वाण सं०६०६ (वि० सं० १३६, दिगम्बर सम्प्रदाय ई० सन् ८०) में हुई । इस पर से यह अनुमान किया जा सकता है कि निन्थपरंपरा के ये दो भेद स्पष्ट इस परम्परा का मूल बीज अचेलकत्व है। सर्व रूप से ईसा की प्रथम शताब्दी के चतुर्थ चरण में परिग्रह रहितता की दृष्टि से वस्त्ररहिता (नग्नता) के आग्रह के कारण इस भेद का प्रादुर्भाव हुमा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ-संगठन का वर्तमान स्वरूप १०३ ADMIIBARDSTIATID iraniode! alia n ORMATIO- aation IITRINDATIHD HIDDHI MID DIABETiDSTITUTID-DIINDITED TOLD-TODam है। स्त्रियों की नग्नता अव्यवहारिक और अनिष्ट गंगदेव भदगुप्त होने से स्त्रियों की प्रव्रज्या का निषेध है। इस धर्मसेन श्रीगुप्त वन परम्परा के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता। दोनों परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु अन्तिम नग्नता, स्त्रीमुक्ति निषेध केवलिकवलाहार निषेध श्रुतकेवली हुए। आदि बातों में श्वेताम्बरों से इनका भेद है । दिग- इसके बाद दिगम्बर परम्परानुसार पांच ग्यारह म्बर परम्परानुसार उनकी वंशपरम्परा इस प्रकार है। अंगधारी ( नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, धक्सेन और तुलना की दृष्टि से साथ २ श्वेताम्बर परम्परा का कंस) हुए इसके सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और भी उल्लेख कर दिया जाता है: लोहार्य, एक अंगधारी हुए। यहां तक वीर निर्माण श्रुतकेवली सं०६८३ पूर्ण हुआ इसके बाद श्रुत का विच्छेद दिगम्बर श्वेताम्बर हो गया। महावीर महावीर दिगम्बर सम्प्रदाय में कुन्दकुन्द, समन्तभद्र सुधर्म सुधर्म उमास्वाति, पूज्यपाद देवनन्दी, वज्रनन्दी, अकलंक जम्यू जम्बू शुभचन्द्र, अनन्तकीर्ति, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र विष्णु प्रभव आदि बहुमान्य विद्वान् आचार्य हुए हैं। पं० माशा. नंदी शय्यंभव धरजी महान विद्वान् श्रावक हुए हैं। इन आचार्यों अपराजित यशोभद्र के सम्बन्ध में विशेष "परिचय महाप्रभाविक जैनागोवर्धन संभूतिविजय चार्य' शीर्षक पिछले परिच्छेद में दिया जा चुका है। भद्रबाहु भद्रबाहु संघ पचिय:-दिगंबर मान्यता के अनुसार संवत् २६ में मूलसंघ का प्राकात आचार्य श्रहंद बलि दिगम्बर श्वेताम्बर ( जिन्हें गुप्ति गुप्त अथवा विशाख भी कहते हैं ) ने विशाख स्थूलिभद्र चार संघों के रूप में विभक्त कर दिया। उनके प्रौष्ठिल महागिरि चार शिष्य उन संघों के नेता हुए। उनके नाम इस सुहस्ति प्रकार हैं:जयसेन गुणसुन्दर १) नन्दी संघ-इसके नेता माधनन्दी थे। कालक चातुर्मास में ये नन्दी वृक्ष के नीचे ध्यान करते थे इस सिद्धार्थ स्कन्दिन पर से यह नाम पड़ा। धृतिसेन देवतीमित्र (२ ) सेन संघ-इसके नेता जिनसेन थे। विजय पार्य मंगू (३)सिंह संप–इसके नेता सिंह थे। ये सिंह बुद्धिन आये धर्म की गुफा में चातुर्मास करते थे ऐसा कहा जाता है। दशपूर्वधर क्षत्रिय नागसेन Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन श्रमण संघ का इतिहास unloPIHARIDDINGllip-TIAHI12THuni Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ संगठन का वर्तमान स्वरूप १०५ BINDAILORSCIRESIDHISAIDHIDAILUIDAmulti -Elite-JUNHED DIHAHIDdin.uTIMILINID MIXICALogin Ind i a लगे। देवव्य का अपने लिए उपभोग करने लगे। के बाद हुई है । उद्योतनसरि ने अपने शिष्य सर्वदेव निमित्त, मुहूर्त आदि बताने लगे यति और श्री पूज्य को वटवृक्ष के नीचे सरि पद दिया इससे यह गच्छ इसी परम्परा के हैं । हरिभदसूरि ने संबोध प्रमाण में बड़गच्छ कहलाया । इसके बाद इस गाछ में भगवान् इसका वर्णन करते हुए कड़ी खबर ली है । इसके महावीर स्वामी के ४४ वें पट्टधर आचार्य श्रीजगच्चन्द्र बाद खरतरगच्छ के जिनेश्वरसूरि, जिनदत्तसूरि भादि सूरि हुए । इन्होंने १२८५ (वि० सं०) में उप्र तपश्चर्या ने इसका खूब विरोध किया। इसके बाद मुख्य २ की इससे मेवाड़ के महाराणा ने इन्हें 'तपा', की गच्छ इस प्रकार हुए: उपाधि प्रदान की। इस पर से यह गच्छ तपा गच्छ १ खरतरगच्छ कहलाया । इस गच्छ के मुनियों की संख्या बहुत अधिक है। जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य विजयचन्द्रसरि ने (१) खरतरगच्छः -इस गच्छ को पट्टावली में कहा वृद्ध पोशालिक तपागच्छ की स्थापना की। प्रसिद्ध कर्म गया है कि चन्द्रकुल के वर्धमानसरि के शिष्य श्री प्रन्थकार देवेन्द्रसूरि जगच्चन्द्रसरि, के पट्टधर हुए। जिनेश्वरसरि के द्वारा इस गच्छ की स्थापना हुई। ३ उपकेशगच्छ पाटन की गादी पर जब दुर्लभराज आरूढ़ था तब ___इस गच्छ की उत्पत्ति का सम्बन्ध भगवान् ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ कि ये जिनेश्वरसरि उक्त । पार्श्वनाथ के साथ माना जाता है। प्रसिद्ध भाचार्य राजा की राजसभा में गये और उसके सरस्वती रत्नप्रभसरि जो ओसवंश के आदि संस्थापक है इसी भण्डार से दशवैकालिक सत्र मंगवाकर राजा को बता दिया कि चेत्यवासियों का प्राचार शुद्ध आचार नहीं गच्छ के थे। स्वर्गीय सुप्रसिद्ध इतिहास वेत्ता मुनि है। उक्तस रिजी के आचार विचार से राजा दुर्लभराज __ ज्ञान सुन्दरजी (आचार्य देव गुप्त सुरिजी) इसी गच्छ के थे। बहुत प्रभावित हुआ उसने उन्हें 'खरतर' (अधिक ४ पौर्णमिक गच्छ .. तेज उस्कृष्ठ आचार वाले) की उपाधि दी । तबसे चैत्यवासियों का जोर कम होगया। इससे पहले तक संवत् ११५१ में चन्द्रप्रभसूरि ने क्रिया काण्ड सम्बन्धी भेद के कारण इस गच्छ की स्थापना की। बनराज चावड़ा के समय से पाटण में चैत्यवासियों कहा जाता है कि इन्होंने महानिशीय सूत्र को शास्त्र का ही जोर था इन जिनेश्वरसार की खरतर उपाधि ग्रन्थ मानने का प्रतिषेध किया। सुभतसिंह ने इस से खरतरगच्छ की स्थापना सं० १०८० में हुई। गच्छ क। नव जीवन दिया तब से यह सार्घ ( माधु) जिनवल्लभसरि और जिनदत्तसरि (दादा) इस गच्छ पौर्णमिक कहलाया । के परम प्रभावक पुरुर हुए। ५ अंचलगच्छ या विधिपक्ष २ तपागच्छ आर्य रक्षित मरि ने स. ११६६ में इस गच्छ की स्थापना की। मुख वस्त्रिका के स्थान पर अंचल यह गच्छ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक (वस्त्र का किनारा) का उपयोग किया जाने से पह महत्व वाला है। तपागच्छ को उत्पत्ति उद्योतनसरि बच्छ अंचलगन्छ कहा जाता है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैन श्रमण संघ का इतिहास MISCRIMETHINHIDDIDIINDAINIDHIRD INHIMID THIS MD-DHIRINIDAJIIINDACIDENDATINDIJAGLUIDAIHID-INDURIDIUIDIUMIDDHI ६ श्रागमिक गच्छ और वे संवेगी कहलाये। संवेगी सम्प्रदाय अपनी आदर्श जीवन-चर्या के द्वारा अत्यन्त माननीय है। इस गच्छ के उत्पादक शील गुण और देव भद्र सूरि थे। ई. सन् ११६३ में इसकी स्थापना हुई। इसके अतिरिक्त अनेक गच्छों के नाम उपलब्ध ये क्षेत्र देवता की पूजा नहीं करते। होते हैं । इस श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक महत्व पूर्ण भेद विक्रम की सोलहवीं सदी में हुआ। ७ पाश्व चन्द्र गच्छ इस समय में क्रान्तिकारी लौकाशाह ने मूर्ति पूजा का यह तपागच्छ की शाखा है। सं० १५७२ में विरोध किया और इसके फल स्वरूप स्थानकवासी पार्श्वचन्द्र तपागच्छ से अलग हुए। इन्होंने नियुक्त, सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ। भाष्य चूर्णी और छेद ग्रन्थों को प्रमाण भूत मानने ॐ स्थानकवासी सम्प्रदाय ॐ से इन्कार किया । यति अनेक हैं । इनके श्री पूज्य की स्थानकवासी जैन समाज के अथवा अमूर्तिपूजक गादी बीकानेर में हैं। जैनों के प्रेरक लोकाशाह का जन्म विक्रम संवत् ८ कडुअा मत १४८२ के लगभग हुआ था और इनके द्वारा की गई आगमिक गरछ में से यह मत निकला । इस मत धर्म क्रांति का प्रारम्भ वि० सं० १५३० के लगभग की मान्यता यह थी कि वर्तमान काल में सच्चे साध हुआ । लौकाशाह का मूलस्थान सिरोही से ७ मील नहीं दिखाई देते । कदुआ नामक गृहस्थ ने प्रागमिक दूर स्थित अरहवादा है परन्तु वे अहमदाबाद में गच्छ के हरिकीर्ति से शिक्षा पाकर इस मत का प्रचार आकर बस गये थे। अहमदाबाद के समाज में उनकी किया था । श्रावक के वेष में घूम २ कर इनने अपने बहुत प्रतिष्ठा थी। वे वहाँ के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित अनुयायी बनाये थे। सं. १५६२ या १५६४ में इसकी पुरुष थे। इनके अक्षर बहुत सुन्दर थे। उस समय संस्थापना हुई ऐसा उल्लेख मिलता है। अहमदाबाद में ज्ञानजी नामक साधुजी के भण्डार को कुछ प्रतियाँ जीर्ण-शीर्ण होगई थी अतः उनकी दूसरी संवेगी सम्प्रदाय नकल करने के लिए ज्ञानजी साधु ने लौकाशाह को ईसा की सतरहवीं में श्वेताम्बरों में जड़वाद का दी। प्रारम्भ में दशवकालिक सूत्र की प्रति उन्हें बहुत अधिक प्रचार हो गया था सर्वत्र शिथिलता मिली। उसकी प्रथम गाथा में ही धर्म का स्वरूप और निरंकुशता का राज्य जमा हुआ था। इसे दूर बताया गया है। उसे देख कर उन्हें धर्म के सच्चे करने के लिए तथा साधु जीवन की उच्च भावनाओं स्वरूप की प्रतीति हुई। उन्होंने उसकाल में पालन को पुनःप्रचलित करने के लिए मुनि मानन्द पनजी,सत्य किये जाते हुए धर्म का स्वरूप भी देखा। दोनों में विजयजी, विनयविजयजी और यशोविजयजी आदि उन्हें आकाश-पाताल का अन्तर दिखाई दिया । प्रधान पुरुषों ने बहुत प्रयत्न किये। इन प्राचार्यों का "कहां तो शास्त्र वर्णित धर्माचार का स्वरूप और कहां अनुसरण करने वालों ने केशरिया वस्त्र धारण किये आज के साघों द्वारा पाला जाता हुआ पाचार" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ संघठन का वर्तमान स्वरूप १०७ mD HIINTIDAILITIES MUSICAI HIDDITIdio-JEN THIS AUTH1100-110 110KEIR 1910 1110 DIHD INDAIDSI DOINGIND SHIRIDIOD इस विचार ने उनके हृदय में क्रान्ति मचा दी। उन्होंने शिवजी ऋषिजी के संघराजजी और धर्मसिंहजी दो अन्य सूत्रों का वाचन, मनन और चिन्तन किया इसके शिष्य हुए संघराज अषि की परम्परा में अभी नृपचंद फलस्वरूप उन्होंने निर्णय किया कि 'शास्त्रों में मूर्ति- जी हैं । इनकी गादी बालापुर में है धर्मसिंहजी म० पूजा करने का विधान नहीं है । साधु साध्वी जो की परम्परा दरियपुरी सम्प्रदाय कही जाती है। कार्य कर रहे हैं। वह सत्य साध्वाचार से विपरीत है जीवाजी ऋषि के दूसरे शिष्य वरसिंहजी की अत: जैन संघ में पाए हुए विकार को दूर करने की परम्परा में पाटानुपाट केशवजी हुए। इसके बाद अावश्यकता है । लौकाशाह ने अपने इन विचारों को यह केशवजी का पक्ष कहलाने लगा इस पक्ष के यतियों तत्कालीन जनता के सामने रक्खा । परम्परा से चली की गादी बडौदा में है। इस पक्ष में यदि दीक्षा छोड़आती हुई मूर्तिपूजा के विरोधी विचारों को सुन कर कर तीन महापुरुष निकले जिन्होंने अपने २ सम्प्रदाय हलचल मच गई परन्तु लौंकाशाह ने अनेक युक्तियों चलाये । वे प्रसिद्ध पुरुष , लवजी ऋषि, धर्मदासजो और प्रमाणों से अपने मन्तव्य की पुष्ठि की । धीरे २ और हरजी ऋषि । जनता उस ओर आकृष्ट होने लगी। कहते है शत्रुजय जीवाजी ऋषि के तीसरे शिष्य श्री जगाजी के की यात्रा करके लौटते हुए एक विशाल संघको उन्होंने शिष्य जीवराजजी हुए। इस परम्परा से अमरसिंहजी अपने उपदेश से प्रभावित कर लिया। दृढ़ संकल्प म० शीतलदासजी म० नाथूरामजी म. स्वामीदासजी सत्य निष्ठा और उपदेश की सचोटता के कारण म०और नानकरामजी म० के सम्प्रदाय निकले। लौकाशाह सफन धर्म क्रान्तिकार हुए। सर्व प्रथम लवजी ऋषि से कानजी ऋषिजी का सम्प्रदाय, भाणजी आदि ४५ पुरुषों ने लौकशाह के द्वारा खम्भात सम्प्रदाय, पंजाब सम्प्रदाय रामरतनजी म. प्रदर्शित मार्ग पर प्रवृत्त करने के लिये दीक्षा धारण का सम्प्रदाय निकले। की । सं० १५३१ में एक साथ ४५ पुरुष लोकाशाह धर्मदासजी म. के शिष्य श्री मूलचन्द्रजी म० से की आज्ञा से नव प्रदर्शित साध्वाचार को पालन करने लिबडी सम्प्रदाय, गोंडल सायना सम्प्रदाय, चूडा के लिये उद्यत हुए । इसके बाद प्राचार की उप्रता के सम्प्रदाय, बोटाद सम्प्रदाय, और कच्छ छोटा का कारण इस सम्प्रदाय का प्रचार वायुवेग को तरह पक्ष, निकले । धर्मदासजी म० के दूसरे शिष्य धन्नाजी होने लगा और हजारों श्रावकों ने अनुसरण किया। म० से जयमलजी म. का सम्प्रदाय, रघुनाथजी म. लौकाशाह के बाद ऋषि माणजी, भीदाजी, संप्रदाय और रत्नचन्द्रजी म० का संप्रदाय निकने । गजमलजी (नगमालजी), सरवाजी, रूप ऋषिजी और धर्मदासजी म० तीसरे शिष्य पृथ्वीराजजी से एकलिंग श्री जीवाजी क्रमशः पट्टधर हुए। यह लौंकाशाह के जी म० का संप्रदाय निकला | धर्मदासजी म०के नाम से लौकागच्छ कहलाया । लौकागच्छ के प्राचार्य चौथे शिष्य मनोहरदासजी से पृथ्वीचन्द्रजी म.का जीवाजी के तीन शिष्य हुए-१ कुवरजी की परम्परा संप्रदाय निकला। घमंदासजी ० के पांचवे शिष्य में श्रीमलजी, रत्नसिंहजी, शिवजी ऋषि हुए। रामचन्द्रजी म. से माधवमुनि म. का संप्रदाय निकला। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन श्रमण संघ का इतिहास INDIAnumorom AMIRIDATANDROIRAMID-olt}DAINumb>MRIDDHINDI 10 THIHINDIMINIDINDORI INDINI onlil हरजी ऋषि से दौलतरामजी म० का सम्प्रदाय, तेरा पंथ ॐ अनोपचन्दजी म० का सम्प्रदाय और और हुक्मीचंद स्वामी भीखणजी इस संप्रदाय के श्राद्य प्रवत्त क जी म० का सम्प्रदाय निकला। हैं। आपने पहले स्थानकवासी जैन संप्रदाय के इस तरह वर्तमान स्थानक वासी बत्तीस सम्प्रदाय रघनाथजी महाराज के संप्रदाय में दीक्षा धारण की लवजी ऋषि, धर्मदासजी धर्मसिंहजी, जीवराजजी थी। आठ वर्ष के पश्चात् दयादान संबन्धी दृष्टिकोण और हरजी ऋषि की परंपरा का विस्तार हैं । ये सब और आचार विचार संबन्धी विचार विभिन्नता के महापुरुष बड़े क्रिया पात्र और प्रभावक हुए। इससे कारण आपने अलग संप्रदाय स्थापित किया। स्थानकवासी संप्रदाय का अच्छा विस्तार हुआ। इस पन्थ के प्रथम प्राचार्य भितु ( भीखणजी) स्थानकवासी संप्रदाय ३२ आगमों को ही प्रमाण का जन्म संवत् १७८३ में मारवाड़ के कण्ठालिया भूत मानता है। ग्यारह अंग, बारह उपांग, उत्तरा- ग्राम में हुआ था। आपके पिताजी का नाम साहूबल्लू ध्ययन, दशर्वकालिक, नन्दी, अनुयोग, दशाश्रुत, जी और माता का नाम दीपा बाई था। आप ओसवंश व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ और आवश्यक । ये के सखलेचा गोत्र में उत्पन्न हुए थे। आपने संवत् स्थानकवासी संप्रदाय के द्वारा मान्य आगम ग्रन्थ है। १८०८ में तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय में रघुनाथ इस संप्रदाय के साधु-साध्वियों का आचार विचार जी म० के पास दीक्षा धारण की। आपकी प्रतिभा उच्चकोटि का समझा जाता है । क्रिया की उग्रता की मोदी समय में अपने ग्रामों का ओर इस संप्रदाय का विशेष लक्ष्य रहा है और इससे अध्ययन कर लिया। आठ वर्ष के पश्चात् आपके ही इसका विस्तार हुआ है। दृष्टिकोण में परिवर्तन हो गया और तेरह साधुओं के श्री व० स्थ० जैन श्रमण संघ की स्थापना साथ आप अलग हो गये। सं० १८१६ में आपने __अखिल भारत वर्षीय स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस अलग संप्रदाय स्थापित किया। कहा जाता है कि के अथक परिश्रम से स्थानकवासी संप्रदाय के समस्त तेरह साध और तेरह अलग पौषध करते हुए श्रावकों सनुदाय सादडा (मारवाड़) में हुए बृहत् साधु समलन को लक्ष्य में रख कर किसी ने इसका नाम तेरह पन्थ के अवसर पर एक होकर एक हो आचार्य, एक व्यवस्था और एक समाचारी के झंडे नीचे ससंगठित रख दिया। "हे प्रभो! यह तेरा पन्य है" इस भाव हो गये है। को लक्ष्य में रख कर प्राचार्य भिक्ष जी ने वही नाम ___यह महान क्रान्ति वैशाख शुक्ला ३ ( अक्षय अपना लिया। तृतीया ) सं० २००६ को सादड़ी (मारवाड़) में हुई। आचार्य भितु ने उग्र क्रियाकाण्ड को अपनाया और और उसके कारण जनता को प्रभावित करना आरंभ मुनिगण-श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ" के एक्य सूत्र में. आबद्ध हैं। इस महान संघ के किया । आद्य संप्रदाय संस्थापक को अनेक प्रकार की धर्तमान स्वरूप का विस्तृत वर्णन "वर्तमान मुनि बाधाओं का सामना करना होता है । भिक्षुजी ने भी मण्डल' शीर्षक विभाग के अगले पृष्ठों में करेंगे। दृढ़ता से काम लिया। वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। कवासी स ज के अधिकांश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ संगठन का वर्तमान स्वरूप १०६ MIpINISTEIN ISI FIpilio-olu RID Kolp illegalNH ISKullu u plIN INIORITI Hi> DIKHARU ANCITY उन्होंने अपनी संप्रदाय का एक दृढ़ विधान बनाया। इस प्रकार भगवान् महावीर की परम्परा का उस विधान में संप्रदाय को संगठित रखने वाले तत्व प्रवाह स्याद्वाद के सिद्धान्त के रहते हुए भी अखंडित दूरदर्शिता के साय सन्निहित किये। आपने अपने न रह सका और वह उक्त प्रकार से नाना सम्प्रदायों समय में ४७ साधु और ५६ साध्वियों को अपने पन्थ गच्छों और पन्थों में विभक्त हो गया। काश् यह में दीक्षित किया था । आपका स्वर्गवास स. १८६० विभिन्न सरिताये पुनः अखण्ड जनत्व महासागर में भाद्रपद शुक्ला १३ को ७७ वर्ष की अवस्था में एकाकार हो ! सिरियारी ग्राम में हुआ। आपके बाद स्वामी भारमल जी आपके पट्टधर हुए। भट्टारक तथा यति परम्परा १ आचार्य भिक्षु, २ भारमल जी स्वामी, ३ रामचंद्र जी स्वामी, ४ जीतमलनी स्वामी, ५ मघराजजी स्वामी जैन श्रमण परम्परा पर विचार करते समय यति ६ माणकचन्दजी स्वामी, ७ डालचन्दजी स्वामी, परम्परा पर भी विचार करना आवश्यक हो जाता ८ कालुरामजी स्वामी ये आठ प्राचार्य इस संप्रदाय __ है। सच तो यह है कि जैन मुनियों का वतमान स्वरूप यति परम्परा का हो एक परिष्कृत एवं उत्कृष्ट के हो चुके हैं । वर्तमान में आचाय श्री तुलसी गणी नवें पट्टधर हैं। प्राचार्य तुलसी वि० सं० १६१३ में स्वरूप है, जिसमें एकान्त रूप से आत्म कल्याण हेतु अपने को सांसारिक प्रपंचों से किंचित मात्र भी संबंध पदारूढ हुए । आप अच्छे व्याख्याता, विद्वान् कवि और कुशल नायक हैं। श्रापके शासन काल में इस रखने वाली प्रवृत्तियों से बचकर विशुद्ध निवृत्ति मार्ग की ओर आरूढ़ बनने में ही सच्चो श्रमण साधना संप्रदाय की बहुमुखी उन्नति हुई है। न मानी गई । यह परिष्कृत स्वरूप प्रारंभ में चैत्यवासियों ___ इस गंप्रदाय की एक खास मौलिक विशेषता है, ' से खरतर गच्छ, बाद में तपा गच्छ और स्थानकवह है इसका दृढ संगठन । सैकडों साधु और साध्वियाँ सस वासी मान्यता के रूप में शनःशनै परिवर्तित एवं एक ही प्राचार्य की आज्ञा में चलती है । इ संप्रदाय के परिष्कृत होता गया। साधुसाध्वियों में अलग २ शिष्य शिष्यें करने की प विक्रम की १० वीं सदी के पूर्वाद्ध में चैत्यवासियों प्रवृत्ति नहीं है । सब शिष्यायें प्राचार्य के ही नेश्राय का प्राबल्य रहा । ये मन्दिर पूजन के नाम पर मन्दिरों में की जाती हैं। इससे संगठन को किसी तरह का में घर की तरह रहने लगे और धीरे धीरे उन खतरा नहीं रहता। संगठन के लिए इस विधान का मन्दिरों का रूप मठों जैसा होने लगा। पोप लिलाएँ बड़ा भारी महत्व है। इ3 संप्रदाय में आचार्य का बढने लगी। इस प्रकार इसमें अत्यधिक विकृत्तियां एक छत्र शाशन चलता है। श्राजाने से विक्रम को ११ वीं सदी में प्राचार्य विक्रम स. २००७ तक सब दीक्षायें १८५५ हुई। जिनचन्द्र सूरि के शिष्य वर्धमानसूरि ने चैत्यालयों उनमें साधु ६३४ और साध्वियां १२२१ । वर्तमान में ६३७ साधु-साध्वियां आचार्य श्री तुलसी के नेतृत्व में में निवास करने का भयंकर आशातना माना और विद्यमान है। जिन मन्दिर विषयक ८४ अाशातनाओं का विशेष Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास MID IN INDRA RANDIRHAIDEOINVADHNUpronwum SANILEMUMiroil: nuTIHANIHID-Toll son. THINND =healthies nIA य अध्ययन कर तत्कालीन जैन मन्दिरों से इन पाशा- प्रवृति के कारण समाज से भी इन्हें लाखों रुपया प्राप्त तनाओं को मिटाने का बीड़ा उठाया और उन्होंने हुआ और आज भी यतियों के पास खासी जायदादें क्रियोद्धार किया । बस यहीं से चैत्यवासियों के प्रति और लाखों की सम्पति है। समाज की श्रद्धा घटती गई और क्रियोद्धार कर्त्ता मुनियों की ओर आकर्षण बढ़ने लगा। जिनने क्रियो। समाज की श्रद्धाज्यों ज्यों इस यति समुदाय के द्वार कर चैत्यालयों में निवास करना बन्द कर प्रति कम होती गई त्यों त्यों इनका लक्ष्य भी यति पौषधशाला या उपाश्रयों में रहकर साधुवृत्ति धारण क्रियाओं की तरफ से खिंचता चला गया और कोई की वे मुनिवर्य माने जाने लगे और जिन्होंने अपना कठोरता से टोंकने वाला नियंत्रण न रहने से धीरे पूर्व वृत्ति ही प्रारंभ रक्खी वे यति या भट्टारक रूप में धीरे इनमें से कई पूर्ण रूप से गृहस्थ बन गये। स्त्री माने जाने लगे। हमसे नही जान रखने लगे-शादियां करने लगे। अब तो केवल यतियों का जैन इविहास में कम महत्व पूर्ण स्थान ___ अंगुलियों पर गिनने लायक ही ऐसे यति रह गये हैं है। नहीं; वह समय धार्मिक होडा होडीका समय जो यतिव्रत पालते हैं। था। प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने २ धर्म की गौरव वृद्धि इस यति परम्परा में भी शाखा भेद हैं जो करने में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाये हुए थे। आचार्य परम्परा से पड़े हैं । इनमें मिनरंगसूरि शाखा, ऐसे समय में इस यति समुदाय ने ही अपनी चामत्का- और मंडोवरी शाखा मुख्य है। रिक प्रवृत्तियों से तथा अधिक संख्या में स्थान २ पर लखनऊ गादी के गद्दीधर आचार्य जिन राजसूरि जिन मन्दिरों का निर्माण करा कर, राजा महाराजाओं के दो शिष्य हुए आचार्य जिनरगसूरि तथा भाचार्य को प्रभावित करके, औषधोपचार, ज्योतिष, मन्त्र तत्र जिनरत्नसूरि । जिनरंगसूरि लखनऊ के गादीधर रहे विद्या आदि कई आकर्षक प्रवृत्तियों से लोगों को जैन तथा जिन रत्नसूरि ने बीकानेर में गादी स्थापित की। धर्म की ओर अधिक आकृष्ट बनाया था। इसी प्रकार इसी बीकानेर गादी पर सं० १८८१ में आ जिम हर्ष धार्मिक क्रिाएँ करना, बालकों को पढ़ाना, आदि की सूरिजो हुए जिनके दो पट्टधर बने । एक पक्षने जिन समाज हितकारी प्रवृतियां भी की, इसी से वे अबतक सौभाग्यसूरिजी को पट्टधर बनाया तो दूसरे ने जिन भी जैन समाज में पूज्यनीय बने हुए हैं। और महेन्द्रसूरि को। जिन महेन्द्रसूरि से मंडोवरी शाखा समाज भी श्री पूज्य जी, आचार्य आदि श्रद्धायुक्त चली। सं० १८६२ में मंडोवर में यह शाखा उत्पन्न विशेषणों से सम्बोधित करती है। और यही कारण हुई अतः मंडोवरी शाखा कहलाई। वर्तमान में इसके है कि विक्रम की १४ वीं सदी तक भी खरतर गच्छ श्रा पूज्य जयपुर और बनारस में रहते हैं। लखनऊ में इसी यति परम्परा की सी छाप रही। के गादी धर वर्तमान में दिल्ली निवास करते हैं। ____ इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्राह्मण वृत्ति के । समान यति समुदाय ने भी धार्मिक क्रिया काण्ड करना, वर्तमान यति समुदाय इहीं शाखा भेदों के अंग जैन मन्दिरों में सेवा पूजन करना आदि प्रवत्तियों प्रत्यंग हैं। दिगम्बर समाज में यति की ही तरह को अपना जीवनाधार बना लिया। यही नहीं इस भट्टारक होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान नैन मुनि परम्परायेंश्वेताम्बर तपागच्छीय परम्परा नीचे भगवान महावीर स्वामी की पाट परम्परा देकर तपागच्छ संस्थापक ४४ ३ पट्टधर आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरिजी से तपागच्छ की पाट परम्परा दी जाती है । इस पाट परम्परा का सम्बन्ध वर्तमान में विद्यमान श्वेताम्बर तपागच्छीय मुनि परम्पप से बांधने का प्रयत्न करेंगे। निम्रन्थ गच्छ १६ मानदेव सरि १ सुधर्मा स्वामी २० मानतुंगसरि २१ वीर सूरि २ जम्बू स्वामी ३ प्रभव स्वामी २२ जयदेव सरि २३ देवानन्द सूप ४ स्वयंभव सरि ५ गशोभद्र सूरि २४ विक्रम सूरि २५ नृसिंह सरि ६ सम्भुति विजय .त्यूलभद्रजी २६ समुद्र सूरि २० मानदेव सूरि ८ आर्य सुहस्तिसूरि २८ विबुध प्रभसरि कोटिक गच्छ २६ जयानन्दसूरि बार्य सुस्थित तथा सु प्रतिबद्ध सरि ३० रविप्रभसरि १० इन्द्र दिन सरि ३१ यशोदेवसरि ११ दिन सरि ३२ प्रद्युमसूर १२ आर्यसिंह सरि ३३ मानदेवसरि १३ वज स्वामी ३४ विमलचन्द्रसूरि १४ वन सेन सरि वड़गच्छ चन्द्र गच्छ ३५ उद्योतनसूरि १५ चन्द्र सरि ३६ सर्व देवसरि वनवासी गच्छ ३७ देवसरि १६ सामन्तभद्र सूरि ३८ सर्वदेवसरि १७ वृद्धदेव सरि ३६ यशोभद्रसूरि १८ प्रद्योतन सरि ४. मुनिचन्द्रसरि Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन श्रमण संघ का इतिहास ORDINAIMAHIDARupdIND DRDOILG IND DILBIDOHD INDAINID MILAIMDODARDmitra ४१ अजितदेवसरि ४२ विजयसिंहसरि । ४३ सोमप्रभसूरि तपगच्छ ४४ तपस्वी जगच्चन्दसरि (हीरला) ४५ देवेन्द्रसरि (लघु पोषाल) । ___ विजयचन्द्रसार ( बड़ा पोषाल ) ४६ धर्मघोषसरि ४७ सोमप्रभसरि (४ शिष्य आचार्य) ४८ सोम तिलकसरि (४ शि० आ०) ४६ देवसुन्दर सरि (५ श्रा०शि०) ५० सोम सुन्दरसरि (४ आ. शि०) ५१ सुन्दरसरि ( सहस्त्रावधानी) ५२ रत्नशेखर सूरि ५३ लदमीसागरसरि ५४ सुमति साधुसूरि ५५ हेम विमलसूरि ५६ आनंद विमलसरि ५७ विजयदानसूरि ५८ जगद्गुरु हीरविजयसरि राज विजयसूरि (रत्न शाखा) ५६ विजयसेन सूरि ६० विजयदेवमरि ( देसूर संघ) विजय तिलकसुरि ( आनन्दसर संघ) ६१ विजयसिंहसरि विजय प्रभसूरि (यतिशाखा) ६२ सत्यविजयगणी ६३ कपूरविजयगणी कुशल विजय गणी ६४ क्षमा विजयगणी ६५ जिन विजयगणी इसके बाद का पाटानुक्रम बनाना कठिन एव विवादा स्पद है अतः इम फुटनोट के रूप में बादकी केवल आचार्य परंपरा ही लिख देना उचित समझते हैं । (१) ५६ वे पट्टघर आनन्द विमलसूरि के दो शिष्य हुए श्री विजयदानसूरिजी तथा श्री ऋद्धि विमलजी । विजयदान सूरि के (५८ ) पट्टधर श्रीहोर विजय सुरि हुए । ऋद्धि विमलजी के कीर्ति विमलजी हुए। इनकी ६ ठी पढी में से दयाविमलजी हुए। (२) ५८ वें पट्टधर जगद्गुरु हीरविजयसूरि के ५ शिष्य हुए । विजयसेनसूरि, उ० किर्तिविजय गणी, ७० कल्याण वि० ग०, उ० कनक वि० ग०, उ० सहजसागरजी तथा तिलक विजयजी। विजय सेन सूरि के पट्टधर उपरोक्त पट्टावली के ६०, से ६५ नं. तक है । सहजसागरजी की १० वीं पोढी में मयासागर जी हुए। ___ (३) श्री मयासागरजी के गौतम सागरजी व नेमसागरजी दो शिष्य हुए। श्री गौतमसागरजी के झवेर सागरजी व झवेर सागरजी के श्रागमोद्वारक आचार्य श्री सागरानंद सूरि हुए । (४) श्री मयासागरजी के दूसरे शिष्य नेमसागर जी के रविसागरजी, इनके सुख सागरजी और सुखसागरजी के शिष्य प्रा० श्री बुद्धि सागर सूरिजी हुए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छीय जैन मुनि परम्परा १३ (५) तिलक विजयजी के १२ वी पीढ़ी में पं० (१३) श्री बुद्धि विजयजी (बटेरायजी ) के ३ रे हेत विजयजी हुए जिनके दूसरे शिष्य पं० हिम्मत शिष्य श्री नीति विजयजी के शिष्य विनय विजयजी विजयजी हुए जो वर्तमान में मेवाड़ केसरी प्रा. के शिष्य आ० विजयवीरसूरि हुए तथा तीसरे शिष्य हिमाचल सूरि के नाम से प्रसिद्ध हैं। सिद्धी विजयजी की ४ थी पीढी में कुमुद विजयजी (६) ६५ वें पट्टधर जिन विजय गणी की तीसरी आचार्य हुए | पीढी में रूप विजयगणी हुए जिनके २ शिष्य हुए (१४) श्री बुटेरायजी म० के ५ वें शिष्य हेम कीति विजयगणी और अमी विजयगणी। कीर्ति वि० विजय जी के ४ शिष्य हुए जिनमें पं० पद्म विजयजी के कस्तूर विजयगणी हुए। विजयप्रभसुरि नामक आचार्य बने । ___ (७) अमी विजयजी की चौथी पीढी में प्रा० (१५) न्याय भोनिधि प्रा. श्री विजयानन्दसूरिजी विजयनीति सूरिजी हुए। ( आत्मारामजी ) म. के ७ शिष्य हुए। पं० लक्ष्मी (E) श्री कस्तूा विजयगणी के ६ शिष्य हुए- वि०, चारित्र वि०, उद्योत वि०, वीर वि०, क्रांतिविजय महायोगीराज श्री बुद्धिविजयजी (बुटेरायजी), अमृत जय वि० और अमर वि० । विजयजी, पद्मविजयजी, गुलाब विजयजी, शुभविजय (१६) ५० लक्ष्मी विजयजी के ४ शिष्य हुए। जी और श्रा. विजय सिद्धी सूरिजी। श्री हसविजयजी, आ. विजय कमल मूरिजी, पं० हर्ष. (e) श्री बुद्धिविजयजी (बुटेरायजी) महाराज के विजयजी, तथा कुमुद वि० । ७ प्रसिद्ध शिष्य हुए-१ तपागच्छाधिपति श्री मुक्ति (१७) श्री हंसविजयजी के संपत वि० तथा दौलत विजयजी राणी (मलचन्दजी महाराज) २ श्री यद्धि वि० : दौलत वि० के धर्म विजय जी आचार्य हए । विजयजी (वृद्धिचन्दजी), ३ नीति विजयजी, ४ भानंद (१८) कु. वीरविजयजी के आ. विजय दानसरि जी आदि ५ शिष्य हुए। विजयजी, ५, आ. श्री विजयानन्द सूरिजी (आत्मा (१६) आ० विजय कमलसरिजी के प्रा० श्री रामजी) ६ तपस्वी खान्ति विजयजी दादा। विजय लब्धिसरिजी, हिम्मत वि०, नेम वि० तथा (१०) श्री मुक्ति विजयजी गणी के ५ शिष्य हुए लावण्य वि०। जिनमें भविजय कमल सरिजी प्रथम है (२०) श्री हर्ष विजय जी के प्रा० विजय वल्लभ _ सुग्जिी, मोहन वि०, प्रेम वि०, शुभ वि० आदि। (११) श्रा वृद्धि विजयजी (वृद्धिचन्द्रजी) महाराज। (२१) कु० कुमुद विजय जी के तीसरी पीढी में के । शिष्य हुए जिनमें प्रा. विजय धर्म सूरिनी तथा आचार्य सौभाग्य सुरिजी हुए। मा० विजय नेमिसूरिजी की परम्परायें विद्यमान हैं। [२२] श्रा० श्री विजय वल्लभसरि जी के विवेक (१२) प्रा. विजय कमल सूरजी के ५ शिष्य विजय ना, मा० ललितसरिजी, उ• सोहन विजयजो, विमल .वजय जो, विद्यावि०, विचार, विचक्षण, शिव जिनमें शामविजय केसर सूरिजी श्रा० विजय विकास, दान और विक्रम वि०, आदि देवसूरिजी तथा भा० विजय मोहन सूरिकी तथा शप्य हुए। विशेष वश वृत्त परिचय विभाग में विनय विजयजी मुख्य हैं। दिया जारहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन श्रमण संघ का इतिहास ---------D-TER || [२३] श्री विवेक विजयजी के आ० श्री विजय उमंग सुरिजी हैं। A [२४] ० श्री विजय ललितसरि के शिष्य आ० विजय पूर्णानन्दसूरि विद्यमान हैं । [२५] उपाध्याय श्री सोहनविजयजी के ३ शिष्य हुए जिनमें आ० श्री समुद्रसूरिजी विद्यमान हैं । [२६] श्र० श्री विजयदानसूरिजी के ४ शिष्यों में ० श्रीमद् विजय प्रेमसरि जी विद्यमान हैं । [२७] आ० श्री विजय धर्मसूरिजी के ७ शिष्य हुए जिनमें आ. श्री विजयेन्द्रसूरि वर्तमान में आ हैं । [२८] सूरि सम्राट आचार्य श्रीमद् विजय नेमि सूरीश्वरजी म० सा० के १८ शिष्य हुए: आ विजय दर्शनसूरिजी ० विजय उदय सूरिजी आ० विजय विज्ञानसूरिजी, विजय पद्म सूरिजी पं० श्री सिद्धि विजयजी, आ० विजयामृतसूरिजी श्र० विजय लावण्य सूरिजी आ. जितेन्द्र सूरिजी आदि आचार्य तथा उ० श्री पद्मविजयजी, सिद्धीवि० गणी, भक्ति वि०, रूप वि० गीर्वाण विमान वि०, धन वि० वाचस्पति वि, संपत वि० प्रेम वि० प्रभावि० आदि । ० विजयदर्शन सूरिजी के कुसुम त्रि०, गुण वि०, जयानन्द वि०, प्रियंकर वि० तथा महोदय वि० आदि ६ शिष्य प्रशिष्य हैं । विजय उदयसूरिजी के आ० विजय नन्दन सूरिजी सुमित्र वि०, मोती वि०, मेरु वि, कुमुद पं० कमल वि० यदि १२ शिष्य प्रशिष्य हैं । आ० विजयनन्दन सरिजी के सोम विजयजी, शिवानन्द त्रि, अमर वि, वीर वि०, आदि ७ शिष्य प्रशिष्य हैं । श्र० बिजय विज्ञान सूरि के आ. कस्तूर सूरिजी पं० चन्द्रोदय वि०, प्रियंकर वि० आदि । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ० लावण्यसरिजी के पं० दक्ष विजयजी तथा पं० सुशील विजयजी गणि, चन्द्रप्रभ वि० आदि । आ० श्री विजयामृत सरि के राम वि० देव, खान्ति वि०, पुण्य वि०, निरंजन वि० तथा धुरन्धर वि० आदि । ० जितेन्द्र सूरि के विद्यानन्द वि० आदि । [२६] आ० विजय सिद्धि सूरिजी के ६ शिष्य हुए जिनमें पाँचवें प्रा० विजय मेघसूरि हैं। दूसरे शिष्य श्री विनय वि० के आ० श्री भद्रसूरिजी शिष्य हैं । [३०] योगनिष्ट आ. बुद्धिसागरजी के शिष्य आ. अजित सागर सूरि तथा आ० ऋद्धि सागर सूरि हैं । यद्यपि उपरोक्त फुटनोट हमने सुक्ष्म जानकारी द्वारा लिखने का प्रयत्न किया है परन्तु तपागच्छीय मुनि समुदाय वर्तमान में सब से बड़ा समुदाय है तथा अति प्राचीन है। बड़ वृक्ष की तरह फला फूज़ा है अतः इसकी महानता को पहुँचना कठिन है इसी दृष्टि से कई भूलें रइजाना संभव है । अतः उपरोक्त विवेचन में भूलें रही हों, न्यूनाधिक लिखने में गया हो तो क्षमाप्रार्थी हैं और भूलें सुझाने का निवेदन करते हैं ताकि आगामी संस्करण में संशोधन हो सके । श्री तपागच्छीय पूर्व परम्परा के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये 'श्री तत्र गच्छ श्रमण वंश वृक्ष' प्रकाशक श्री जयन्तीलाल छोटालाल शाह अहमदाबाद नामक ग्रन्थ देखना चाहिये । उक्त विवेचन देने का एक मात्र प्रयोजन वर्तमान मुनि परम्परा से पूर्व परम्परा की जानकारी को सुगम बनाना मात्र ही है । अब हम आगे के पृष्ठों में वर्तमान मुनि समुदाय के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवेचन देंगे । - लेखक www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ संघठन का वर्तमान स्वरूप ११५ unoII IITDHIDAILD AND DILDLUMID 111115-IIA is INDAIN DHUMIN HINDI DID in In to IN THIDIDI तपागच्छीय वर्तमान मुनि मण्डल ['वर्तमान मुनि मंडल' की जानकारी कराने हेतु उनके इस वर्ष यानी विक्रम संवत् २०१६ सन् १९५६ की चातुर्मास सचि यहाँ दे रहे हैं । इस सचि में सभी स्थानों पर विराजमान मुनिराजों के नाम समाहित हैं, यह नहीं कहा जासकता। हम अधिक से अधिक जो जानकारी प्राप्त कर सके हैं उसी के आधार पर ही यह नामावली मुख्य मुनिराजों के नाम देकर उनके साथी मुनियों की ( ठाणा ) संख्या तथा स्थान दे पारहे है । यह अधिक संभव है कि इसमें कई मुनिराजों के नाम आदि छूट मये हों, इस छूट के लिये क्षमा प्रार्थी हैं । -लेखक) शासन सम्राट आचार्य श्रीमदविजय पं० परम प्रभ विजयजी गणी ठा० ३ शीहोर सौ. नेमी सूरीश्वरजी महाराज का मुनि समुदायः- पं० महिमा प्रभ वि. भालक (गु०) आ. विजय दर्शन सरिजो, . जयानन्द वि० मुनि विबुध वि०, भानुचन्द्र वि. आदि ठा. ४, गणी ठा० ६ नमीदर्शन ज्ञानशाला पालीताणा। १४१५ शुक्रवार पैठ मद्रास पा० विजयोदय सूरिजी, उ. सुमित्र वि०, उ० मुनि विज्ञान वि०, भक्त वि०, ठा. ३ दौलत नगर मोती विजयजी, ५० कमल विजयजी ठा. १२ जेसर अमृतसूरिजी ज्ञानमन्दिर बोरीवली बम्बई ४८ (पालीताणा) मुनि चन्द्र प्रभ विजयजी शांति भुवन पालीताणा आ० विजय नन्दन सरिजी ठा०५ जैन साहित्य मुनि राजेन्द्र वि०, जसकोर धमशाला पालीताणा मन्दिर पालीताणा। . मुवि चिदानन्द वि० ककुयाई धर्म शाला पालीताणा आ. विजयामृत सरिजी, आ. पद्म सरिजी, मुनि निरंजन विजयजी आदि पांजरापोल अहमदाबाद ।। साध्वी वर्ग आचार्य विजय लावण्य सूरिजी ६० दक्षविजय साध्वी कंचन श्री ठा० ५, सुशीला श्री ठा० ६, नी, पं० सुशोल विजयजी ठा० ६ वल्लभी पुर। सद्गुण श्री ठा० ३, चन्दोदय श्री ठा० ३, राजेन्द्र आ. जितेन्द्र सरिजी ठा० ४, महुवा। श्री ठा० १०, नाम श्री ठा० २, सोमलता श्री ठा. २, उ० मेरु विजयजी, पं० देव वि. आदि ठा०५ विद्या श्री ठा०२, सुशाला श्री ठा० १ दीप श्री पायधुनी आदिश्वर धर्माला बम्बई ३। १, सयम श्री १, मंजुला श्री १, महोदया श्री १, भुपेन्द्र 40 यशोभद्र वि० गणी, पं० शुभंकर वि०५० श्री १, आदिपालीताणा। कीर्तिचन्द्र वि० ठा० ११ साहूकार पैठ मद्रास ३।। पं० पुण्य विजयजी गणी, पं. धुरन्धर वि० आदि साध्वी कांता श्री ठा०२ भावनगर, देवेन्द्र श्री ठा०४ इरलात्रिज करमचन्द पौषधशाला बीर्लेपले ठा० ४ सूरत, हेम प्रभा श्री ठा० ४ जेसर (सौ.), बम्बई २४ । शांति श्री ठा०४ तलाजा। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन श्रमण संघ का इतिहास ITIA>-THRIDwami>C ID=opmeon: TUR-ONLIMIDDHIHIND Thlamidesh ||No Fool Is ISISom आगमोद्धारक आचार्य श्री आनन्द सागर दौलत सागरजी ठा० ४ बेजलपुर भरुच । सूरीश्वरजी का मुनि समुदाय विज्ञानसागरजी ठा० २ शाजापुर । भा. माणेक्य सागरसूरिजी, मुनि चंदन सागरजी बसत सागरजी ठा० २ सुणाव । चन्द्र प्रभ सागर जी ठा०२ अहमदाबाद । ठा० ११ जानी शैशी जैन उपाश्रय, बड़ौदा। मनक सागरजी ठा० २ कपड़ वंज । __ आ. चन्द्रसागर सरिजी, पं० ज्ञानसागरजी ठा० ६ जी० अ० जैन ज्ञान मन्दिर किंगसर्कल माटुंगा महा प्रभ सागरजी, प्रेम सागरजी (मालवा) इन्द्रसागरजी ठा० २, इन्दौर । बम्बई १९ नंदीघोष सागरजी, मित्रानंद सागरजी खंभात । आ० हेमसागरजी ठा० ७ शीव बम्बई । उ० देवेन्द्र सागरजी ठा० ६ एन्डज रोड़ शांता साध्वी वर्ग कज बम्बई २३ (स्व. साध्वी श्री तिलक श्री का समुदाय) साध्वी गणि धर्मसागरजी ठा०५ उदयपुर । तीर्थ श्री जी, रंजमकी, दर्शन श्री सुरेन्द्र श्री जी आदि गणी दर्शन सागरजी ३, सेन्डहर्ट रोड बम्बई ४ ठा० ४४ अहमदाबाद के भिन्न २ स्थानों में। गणी हंस सागरजी ठा०४ संवेगी उपाश्रय मंगला श्री जी ठा. ३ सरत, मनोहर श्री ठा. १३ बढ़बासा। इन्दौर, मृगेन्द श्री जी ठा. ६ मोरवी- रैवत श्री जी २ ग० चिदानन्द सागरजी भावनगर । जोटाणा, प्रमोद श्री जी ठा. ५ वेजलपुर, निरुपमा ग० लब्धिसागरजी, ठा० ३ लुणावाड़ा। श्री जी ठा. ४ भावनगर, प्रवीण श्री जी ठा.६ बोटाद, मुनि जय सागरजी ० ४ गोपीपुरा सूरत । सुमन श्री ठा. ३ बेडा, राजेन्द श्री ठा. ४ जूनागढ़, गुण सागरजी ०० २ हिंगवघाट । फल्गु श्री ठा. ७ नन्हैल साध्वी इन्दु श्री ठा. लश्कर, चन्द्रोदय सागरजी ठा० अहमदाबाद । कनक प्रभा श्री ठा. ६ पालीताणा, गुणोदय श्री ठा. ४ कंचन विजयजी ठा०४ गोधरा । लीबडी, रोहोता श्री ठा. २ दहेगाम (साध्वीजी पुष्पा बुद्धि सागरजी ठा० ४ कपड़ वंज। श्री का समुदाय) साध्वी श्री पुष्पा श्री ठा. ४ कपड सुरेन्द्र सागरजी ठा० २ सरत । वंज, सुमलया श्री ठा. ७ कपडवंज, प्रभजना श्री ठा. संयम सागरजी ठा० २ उज्जैन । २ भावनगर, सूर्य कांता श्री ७ भुज कच्छ, मनक श्री शांति सागरजी ठा० ४ गंगधार मालवा। ३ अहमदाबाद, हेमेन्द श्री ३ मलाड बम्बई, महेन्में मेघसागरजी मृगांक सागरजी म्हेसाणा। श्री ४ भावनगर, पद्मलता श्री ३ सरत, किरण श्री ५ मनोज्ञ सागरजी ठा० ड मलाड बम्बई । लुणावाडा (साध्वी देव श्री का समुदाय) मंगल श्री २ चम्पक सागरजी टा० २ माणसा। पाटन, अंजना श्री ३ ऊझा, सुज्ञान श्री ५ मंदसौर, रैवत सागरजी ठा० २ अहमदाबाद । सद्गुण श्री २ पालीताणा, गुलाब श्री २ बडनगर, अमूल्य सागरजी ठा०२ अहमदाबाद । चेलणा श्री ३ बकोढा। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन मुनि-परम्परा MiDel:PART:IEWS INDIAID THIS TIP://INSTI HINDITU NISonalisonous IHR HISANNAISINU Iso9 ISorld DIN HISTITHAINDIAN आ. विजय नीति मूरीश्वरजी का मुनि समुदाय महिमा श्री ११ पाटण, सुनंदा श्री १० अंग्रेजी ____ आ० हर्ष मूरिजी, आ० महेन्द्रसरिजो, पं० मंगल काठेर बनारस, वसंत श्री ७ धाराजी, तीलक श्री विजयजी आदि लुवारनीपोल अहमदाबाद । शिवगंज, चेतन श्री २ नासिक, चन्द्र प्रभा श्री ३ श्रा० उदयगरिजी ३ चोटीना।। जोधपुर, माणेक श्री २ सूरत, पुष्पा श्री ३ साडी, 4. भानु विजयजी, ५० सुबोध विजयजी ४ सुमता श्री ३ पाली, दानलता श्री ३ नाडलाई, सुलोपालीताणा। चना श्री ३ उयना धादि। पं. मनहर विजयजी नवाडीसा। पं० धर्म विजयजी डेलावाला का मुनि समुदाय पं० दानविजयजी, पं० संपत वि., ठा. ५ भट्टी की वारी, पं० शांति वि०, पं० मंगल वि०, १० समुद्र वि. ____ आ० राम सूरीश्वरजी ७ सादडी। ५० अशोक वि० ५ डेलाना उपाश्रय, मुनि चन्द्र विजयजी खुशाल भवन, ३ सरत, पं. राजेन्द्र वि० ३ डभोई, भुवन विजय जो ३ नागपुर यशोभद्र विजयजी ३ अहमदाबाद, भद्रं कर मानतुंग विजयजी सरसपुर अहमदाशद । विजयजी श्रादि पाटण। पं० कुशल वि० २ मांगरोल । साध्वीजी चम्पा श्री, लावण्य श्री श्रादि ठाणा १० राम विजयजी २ करनूल | अहमदाबाद। सोमविजयजी, उम्मेद विजयजी रतन विजयजी रंजन श्री राधनपुर, चतुर श्री जावाल, हरख श्री ३ अजमेर । खीमेल, सुशीला श्री बेडा, उत्तम श्री, कंचन श्री सुशील विजयजी २ जामनगर । ललित श्री, रमणीक श्रो, पुष्पा श्री, मंगल भी अनोप सुन्दर विजयजी ३ कोयम्बटूर । श्री, महिमा श्री महेन्द्र श्री आदि गुजरात में चातुर्माभरत विजयजी २ शिवगंज । शुभ विजयजी २ लोदरा, देवेन्द्र वि० २ खेरडी सार्थ विराजती हैं। आबू, न्याय वि० २ डभोडा, चन्द्र वि० २ नागौर, आ. श्री विजय माहन सूरीश्वरजी का मनि समदाय नोविजयजी २ नासौली, रवि वि० २ जरका, राज- श्रा० श्री विजय प्रताप सरिजी ४ जैन साहित्य हंस वि० महुवा, बल्लभ वि. २ कांठ गांगड। मंदिर पालीताणा । साधी वग आ. विजय धर्म सरिजी, यशोविजयजी, शताव. गुण श्री, मनोहर श्री ५ कंचन श्री ७ जीना श्री धानी मुनि जयानद वि० बादि वैताल पैठ पूना । ५ प्रभा श्री २ मणी श्री ३ सुनदां श्री ५ कीर्ति श्री २ आ० प्रीतिचन्द्र सरिजी ३ सूरत । कुसुम श्री ४ श्रादि अहमदाबाद । माणेक वि० ३ बडनगर, सुबोध वि०० मान कंचन श्री ४ लावास्य श्री ११, वल्लभ श्री २ कुवा (कच्छ), हरख वि० लोडाया, महेन्द्र वि० सूरत । चन्द्र श्री २, निर्मला श्री ४, हीरण श्री मंजुग श्री, साध्वीजी श्री जसवंत श्री, हेमन्त श्री, शणगार कंचन श्री अरुणा श्री आदि पालोताणा । श्री, उत्तम श्री, कचन श्री आदि ३६ पालीताणा। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन श्रमण संघ का इतिहास IRCITIESTATUITURMISSIRISTIAND-JURIHID> ID>Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन मुनि परम्परा ११६ याS AIRIDIO 1110 HRIDGISTRITICIRTHDAISHIKESHISHUKIM JINDAN THATIES.OSCHICHHADULogiumsda आ० श्री विजय भक्ति मूरीश्वरजी पं. नेम विजय, पं० चन्दन वि० आदि जानो शेरी बड़ौदा, विकास वि. ३ अहमदाबाद आगम __ म. का मुनि समुदाय प्रभाकर मुनि श्री पुण्य विजयजी आदि ८ लुनसावाड़ा श्रा. श्री विजय प्रेमसूरिजी पं० सुबोध विजयजी अहमादाबाद, इन्द्र वि० मायखला बम्बई, गोणी राज गणी ७ मणोया नोपाड़ो, सागरजी उपाश्रय, पाटण वि. जूनागढ़, दर्शन वि० बड़ौदा, प्रकाश वि० पट्टी प्रताप वि० ४ साबरमती, कनकवि० ६ ( अमृतसर ) जय वि० २ जयपुर सीटी, वल्लभदत्त मेमाणा, प्रभा वि. २ भचाऊ, विजय वि० ४ धागंधा वि० २ भुलेश्वर लाल बाग बम्बई ४, विशारद वि० महिमा वि० २ सोमा, उ० संपत वि० भावनगर, बीजोवा, कुन्दन वि० २ मेता ( बनासकांठा ), नरेन्द्र माणेक, दि० २ पालीताणा, सुमित्र वि० २ खंभात, वि०२ पट्टी, मुक्ति वि०२ जोधपुर, विबुध वि.२ देसूरी भास्कर वि० तलाजा, सोहन वि०२ चाणस्मा, संजय निरंजन वि० २ देसूरी, संतोष वि. २ डभोडा, जोत वि० पाटन । वि० टाणा। साध्वीजी श्री दर्शन श्री २ बरलूट, जयश्री ११ साध्वी समदाय धागंध्रा, जिनेन्द्र श्री ४ कोठ चरण श्री २ जेतपुर, साध्वी श्री शीलवतो श्री, मृगावतो श्री ३ किनारी हेम श्री ४ पोरबन्दर, केसर श्री २ टाना, गम्भीर श्री बाजार आत्मवल्लभ उपाश्रय दिल्ली। चारित्र श्री २ उमराना, प्रसन्न श्री २ वोरमगांव, संयम श्री २ ७ लुधियाना, माणेक श्री ५ बालापुर, बसन्त श्री ११ श्रामोद, सुमंगला श्री २ भावनगर, अमृत श्री २ मडार, बीकानेर, शांति श्री ११ कपड़वंज, कुसुम श्री ३ अमृत श्री दर्शन श्री ८ मेध श्री ५ गुणी श्री २ पाटण, शेखनो पाडो, सुधा श्री कीशाभटनी पोल अहमदाअशोक श्री ४ हिम्मत श्री, राजेन्द्र श्री आदि पाली- वाद, तिलक श्री बम्बई, प्रभा श्री ४ नखत्राण, हरि - ताणा, वोर श्री, रिद्धी श्री आदि अहमदाबाद। श्री ४ पाली, ओंकार श्री ५ बड़ोदा, माणेक श्री ४ आ. श्री विजय वल्लभमरिश्वरजी का सिराही, जयश्री ७ पांढीव, चित्र श्री ८ पाटण सोम श्री २ पाल नपुर विचक्षण श्री २ अहमदाबाद, प्रताप मुनि समुदाय श्रा ४ जोधपुर, विज्ञान श्री ८ डभोई, चन्द्रकला श्री प्रा. श्री विजय उमंगमूरिजो आदि ठा. ४ आत्म. २ वसो ( गु० ) महेन्द्र श्री २ रानी स्टेशन, सुभद्रो श्री वल्लभ ज्ञान मंदिर साबरमती अहमदाबाद। २ शाजापुर, हेत श्री, प्रभा श्री, चरण श्री हेम श्री आ. श्री विजय समुद्र सूरिजी तपस्वी श्री शिव कपूर श्री आदि का २० पालीताला। विजयजी गणीवर्य श्री जनक विजयजी आदि ११ आ. श्री विजय धर्मसूरीश्वरजीका मनि समदाय जैनधर्मशाला रोशन मोहल्ला आगरा। प्रा० श्री विजयेन्द्रसूरिजी मर्जबानरोड, टोपहील आ. श्री विजय पूर्णानन्द सूरिजी ओमकार व . वंगता अन्धेरी बम्बई ४ । न्या० न्या० मुनि श्रीन्याय विजयजी मांडल, मुनि श्री विशाल विजयज २ भावविजयजी ३ जेनश्वर मन्दिर कोयम्बटूर । नगर, श्री पूर्णानन्दजी विजयगी ३ दहेगाम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास HILD DIUAGIILAII II RID OUR BIDDIL AND RID OIL MIDDHI MID: Impal bil! IND DIII IDII II II IIIDOSJIDOHINDI भिन्न भिन्न आचार्यों के मुनि समुदाय वेजलपुर भरुच। भक्ति वि० ४ खंभात, खीमा वि० आ० श्री विजय भदसरिजी ठा० ५ राजकोट। पालीताणा, लब्धि वि० बाढमेर, कंचन वि० नागर श्रा० हिमाचल सरि जी, कांकरोली। मोरिया, जयन्त वि० मालेगाम चन्द वि० बेराणु, उ० धर्म विजयजी त्रापज (गु०) मुनि रमाणीक हर्ष विजयजी बीकानेर, जय विजयजी मोधरा, लब्धि वि० २ पेटलाद, सुन्दर वि० ३ जूनाडीसा, मनोहर वि० कमल वि. बामनवाडजी, महेन्द वि० घोवा वि०४ पालीताणा, तीर्थ वि० २ बडौदा, वयोवृद्ध नित्यानन्द वि० सीहोर, जय वि. सिरोही, भुवन वि० मुनि मणी विजयजी दादा बोस (गु०) कमल वि० सि०, विमल वि० शेडुभार (भमरेली) महायश वि० गंभीरा, मुनि दर्शन वि, त्रिपुटी अहमदाबाद, वीर वि. राजपुर (गु०) रत्नशेखर वि० नवाडीसा, समय वि० सिलदर, लक्ष्मी वि० बाढ़मेर भव्यानंद विजयजी दामा, कनक वि० भरत गौतम वि० पालीताणा, देव गढ़ सीवाना, कंचन विजयजी गोधरा, मनक विजयजो सुन्दरजी भावनगर, प्रेम सुन्दरजी पालीताणा कनक भडौच, मनमोहन वि० गरीयाधार भदानंद वि० वि० बनारस । खरतर गच्छ का श्रमणसमुदाय लेखक-इतिहास मनीषी श्री अगर चन्दजी नाहटा, बीकानेर [यह लेख “सेवा समाज" बम्बई के श्रमण दर्शन विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। एवं लेख में खरतर गच्छ के प्राचीन इतिहास पर तथा अर्वाचीन स्थिति पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । अतः हम उसे ही यहाँ उद्धृत करना विशेष उपयुक्त समझ कर साभार उद्धृत करते हैं। -लेखक वर्तमान में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों में तपा- तरह पायचन्द और लौकागच्छ भी। पायचन्द गच्छ : गच्छ, स्वरतरगच्छ, अंचल गच्छ, पायचन्दगच्छ और १६ वीं शताब्दी के नागपुरीय तपागच्छ के पाश्वचन्द लौकागच्छ ही उल्लेखनीय हैं । अन्य कई गच्छों के सर के नाम से प्रसिद्ध हुआ और लौं कागच्छ १६ महात्मा लोग राजस्थान आदि के किसी गाँव में वी शताब्दी के मूर्तिपूजाविरोधी, लौंका शाहके नाम मिलते हैं । वे कुलगुरु या मंथन (मथरण ) कहलाते से । वर्तमान गच्छों में सबसे अधिक प्रभाव तपागच्छ है । ओसवाल, पोरवाल, श्रीमाल जातियों के कई और खरतरगच्छ इन दो का ही रहा है । यद्यपि अब गौत्रों के वे अपने को कुलगुरु मानते हैं और उन खरतरगच्छ का प्रभाव तपागच्छ से कम हो गया है, गोत्रों की वंशावलियाँ भी उनके पास कुछ २ मिलती पर मध्यकालीन इतिहास में उसका बहुत प्रभाव हैं। पर गच्छों का कोई साधु समुदाय नहीं है। दिखाई देता है । मुनि जिन विजयजी "खरतरगच्छ उपरोक्त पाँच गच्छों में से अन्चलगच्छ का समुदाय पट्टावली समह के" किंचित वक्तव्य में लिखते हैं; सीमित क्षेत्र में और थोड़े परिमाण में है। इसी "श्वेताम्बर जैनसंघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतमान जैन मुनि परम्परा KINDERDINANDHËN है, उस स्वरूप के निर्माण में खरतरगच्छ के आचार्य, यति और आवक संघ का बहुत बड़ा हिस्सा है । एक तपागच्छ को छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरव की बराबरी नहीं कर सकता। कई बातों में तपागच्छ से भी इस गच्छ का प्रभाव विशेष गौरवा न्वित है। भारत के प्राचीन गौरव को अक्षुण्य रखने वाली राजपूताने की वीरभूमिका पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास ओसवालजाति के शौर्य, औदार्य, बुद्धिचातुर्यं और वाणिज्य व्यवसाय कौशल आदि महत् गुणों से दोप्त है, और उन गुर्गों का जो विकास इस जाति में हुया है, वह मुख्यतया खरतर गच्छ के प्रभावान्वित मूख पुरुषों के सदुपदेश तथा शुभाशीर्वाद का फल है । इसलिए खरतरगच्छ का उज्वल इतिहास केवल जेनसंघ के इतिहास का ही एक महत्वपूर्ण अध्याय नहीं है, बल्कि वह समय राजपूताने के इतिहास का एक विशिष्ट प्रकरण है । १२१ खरतरगच्छ यह नामकरण इस गच्छ की परम्परा के अनुसार, संवत् १०७० के लगभग पाटण के महारजा दुर्लभराजकी राजसभा में चैत्यवासियों के साथ आचार्य बर्धमानसूर और जिनेश्वरसूरि के साथ होने वाले शास्त्रार्थ से सम्बंधित है । चैत्यवासी इस शास्त्रार्थ में पराजित हुए और जिनेश्वर सूरिजी आदि सुविहित मुनियों के कठोर आचारपालन का सूचक खरतर संबोधन नृपति दुर्लभराज द्वारा किया गया | अतः वर्तमान श्वेताम्बर गच्छों में यह सबसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat प्राचीन भी है । अन्चलगच्छ और तपागच्छ इसके बाद ही हुए । आचार्य जिनेश्वरसूरि और उनके गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि बड़े विद्वान भी थे । उनके बनाये हुए कई ग्रन्थ मिलते हैं जिनमें से 'प्रभा लक्ष्य ' नामक जैन न्यायप्रन्थ और पन्चप्रन्थी नामक व्याकरण ग्रन्थ अपने विषय और ढंग के पहले ग्रन्थ हैं । वैसे जिनेश्वरसरिजी रचित 'अष्टकटीका' आदि भी महत्वपूर्ण प्रन्थ हैं जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य जिनबन्दसूरि और श्रभयदेवसूरि हुए। इनमें से जिनन्द सूर रचित 'संम्वेगरंगशाला' महत्वपूर्ण हैं और श्रभयदेव सूरिजी तो नवाँगवृतिकार के रूप में प्रसिद्ध एवं सर्व मान्य ही हैं। अभयदेवसूरिजी के पट्टधर जिनवल्लभसूरिजी अपने समय के विशिष्ट विद्वानों में से है और अभयदेवसूरिजी के शिष्य वर्धमानरि के भी मनोरमा, आदिनाथ चरित्रादि उल्लेखनीय है । जिनवल्लभ सूरिजी के शिष्य जिनशेखर सूरि से रुदपल्लीय शाखा और वद्ध मानसूरिजी से मधुकरा शाखा प्रसिद्ध हुई । जिनवल्लभ सूरिजी के पट्टधर जिनदत्त सूरिजी बड़े ही प्रभावशाली हुए । जिन्होंने करीब सवा लाख जैन बनाये और बड़े दादाजी के नाम से हैं । सैंकडों स्थानों में उनके गुरुमन्दिर और चरण पादुकाएं स्थापित है। सैंकडों स्तोत्र, स्तवन इनके सम्बन्ध में भक्तजनों ने बनाये हैं। इनका जन्म सं० ११५२, दीक्षा ११४१, आचार्य पदोत्सव ११६६ और स्वगवास सम्वत् १२१९ में अजमेर में हुआ । आषाढ शुक्ला १९ को इनकी जयन्ती भी अनेक स्थानों पर बनाई जाती है । www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन श्रमण संघ का इतिहास ANDAMITTIMADIDIHIUTIDOID mouTD-ATHI IND-II DINDORRUIDAININD DID OILINISTITUTID CHILD AIAHIDDIT जिनदत्तसूरि के शिष्य और पट्टधर जिनचन्द थी। कन्नाणा की महावीर मूर्ति को इन्होंने मुहम्मद सूरिजी मणीधारी दादाजी के नाम से प्रसिद्ध है। तुगलक से पुनः प्राप्त किया और सम्राट उन्हें बहुत कहा जाता है कि इनके मस्तिक में मणि थी, इनका ही आदर देता था। स्वर्गवास छोटी उम्र में ही दिल्ली में हो गया था। जैन विद्वानों में सबसे अधिक स्तोत्रों के रचयिता और महरोली में आज भी आपका स्मारक विद्यमान आप ही थे। कहा जाता है कि आपने ७०० स्तोत्र है। इनके पट्टधर जिनपत्रिसूरि बहुत बड़े विद्वान बनाये । जिनमें अब तो करीब १०० ही मिलते हैं। और दिग्गजवादी थे। अनेक शास्त्रार्थ इन्होंने विविध तीर्थकल्प, विधिप्रभा, श्रेणोकचरित्र द्वाश्रयराजसभाओं आदि में करके विजय प्राप्त की थी। काव्य आदि आपकी प्रसिद्ध रचनायें हैं। पद्मावती पांचसौ सातसौ वर्षों से जो चैत्यवास ने श्वेतांबर देवी आपके प्रत्यक्ष थीं। इनकी परम्परा १७-१८ सम्प्रदाय में अपना प्रभाव विस्तार किया था, वह वी शताब्दी से लुप्त प्रायः हो गई। इनके गुरु जिन. जिनेश्वरसूरि से लेकर जिनपतिसूरि जी तक के संघसूरि से "लघुखरतर" शाखा प्रसिद्ध हुई। प्राचार्यों के जबरदस्त प्रभाव से क्षीण प्रायः हो गया। इसकी जीवनी के सम्बध में पं० लाल चन्द गान्धी अतः सुविहित मागे की परम्परा को पुनः प्रतिष्ठित और हमारे लिखित जीवन-चरित्र देखने चाहिये । और चाल रखने में खरतरगच्छ की श्वेताम्बर जैन खरतरगच्छ संबधी ऐतिहासिक साधन, बहुत संघ को महान देन है। प्रचुर, और विशिष्टि है । 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' जिनपतिसूरिजी और उनके पट्टधर जिनेश्वरसूरि नामक खरतरगच्छ की पट्टावली, भारतीय ग्रंथों में जी का शिष्य समुदाय विद्रता में भी अग्रणी था। अपना विशिष्ट स्थान रखती है । ऐसा प्रमाणिक और उनके रचित प्रथों की संख्या और विशिष्टता व्यवस्थित प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथ, भारतीय साहित्य उल्लेखनीय है । कुछ अन्य पट्टधरों के बाद १४ वीं में शायद ही मिलेगा। शताब्दी के उत्तराद्ध में जिनेकुशलसूरिजी भी बड़े वर्धमान सूरि से लेकर क्रुशल सुरिजी के पट्टप्रभावशाली हुए जो छोटे दादाजी के नाम से सर्वत्र घर जिनपद्मसूरिजी तक का ( सम्बत् १३६३ का ) प्रसिद्ध हे व भक्तजनों की मनोकामना पकाने में इतिहास में इस सम्बतानुक्रम से दिया गया है। इसका पहला अंश जिनपतिसूरिजी के शिष्य जिनकल्पतरू सद्दश्य है । इनके भी मन्दिर, चरणपादुकाएं पालोपाध्याय ने संवत् १३०५ में पूरा किया और और स्तुति-स्तोत्र प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। उसके बाद भी यह गुर्वावली क्रमशः लिखी जाती चैत्यवन्दन कुलवृत्ति इनकी महत्वपूर्ण रचना है। . रही है। इसकी जो एकमात्र प्रति बीकानेर के क्षमा ___ इन्हीं के समय जिनप्रभुसरि नामके एक और कल कल्याणजी के भंडार से मुझे मिली थी, उसीके आधार से मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित होकर आचार्य बहुत बड़े विद्वान और प्रभावक हुए जिन्होंने । जहान सिंघी ग्रंथमाला द्वारा यह गुर्वावली प्रकाशित हो सम्वत् १३८५ में मुहम्मद तुगलक को जैन धर्म का चकी है। संभव है इसके बाद भी पट्टावलियां लिखो सन्देश दिया। उसकी सभा में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा जाती रही हों। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान- मुनि परम्परा THE RETURN mener me firm tem हों । पर उसकी कोई प्रति अभी प्राप्त नहीं हो सकी । इसी गुर्वावली के साथ वृद्धाचार्य प्रबन्धावली नामक प्राकृतभाषा की एक और रचना प्रकाशित हुई है । जिसमें 'वर्द्धमानसूर से जिनप्रभुसूरि' तक के प्रधान आचार्यों के चरित्र मिलते हैं । अन्य पट्टावलियां गुरुरास, गीत आदि भी प्रचूर ऐतिहासिक साधन प्राप्त हैं | हमारा ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह इस सम्बन्ध में दृष्टव्य हैं । जिन कुशलसूरिजी के सौ वर्ष बाद जिनभदसूरिजी हुए जिनके स्थापित ज्ञान भंडार, जैसलमेर आदि में मिलते हैं । प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा और उनकी नई प्रतिलिपियाँ करवाकर कई स्थानों में ज्ञान भंडार स्थापित करने का श्रापने उल्लेखनीय कार्य किया है । इनके खौ बर्ष बाद पू. जिमचन्दसूरि जी बडे प्रभावशाली आचार्य हुए जिन्होंने सम्राट अकबर को जैनधर्म का प्रतिबोध दिया और शाही फरमान प्राप्त किये । सम्राट जहांगीर ने जैन साधुओं के निष्कासन का जो आदेश जारी कर दिया था उसे भी आपने ही रद्द करवाया । आपके स्वयं के १५ शिष्य थे । उस समय के खरतरगच्छ के साधु साध्वियों की संख्या सहस्त्राधिक होगी। जिनमें से बहुत से उच्चकोटि के विद्वान भी हुए । अष्टलक्षी जैसे अपूर्व प्रश्य के प्रणेता महोपाध्याय समयसुन्दर आपके ही प्रशिष्य थे। विशेष जानने के लिये हमारी युगप्रधान जिनचन्दसूरि देखनी चाहिये। ये चौथे दादा साहब के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनमें हमने चारों दादा साहब के चरित्र प्रकाशित कर दिये हैं। इनमें जिनचन्द सूरिजी को सम्राट अकबर ने 'युगप्रधान पद दिया था । सं० १६१३ में I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १२३ बीकानेर में इन्होंने क्रिया उध्दार किया था। यु. प्र. जिनचन्द सूरिजी के सौ वर्ष बाद जिनभक्तसूरिजी हुए उनके शिष्य प्रतिसागर के शिष्य अमृतधर्म के शिष्य उपाध्याय क्षमा कल्याणजी हुए। जिन्होंने साध्वाचार के नियमग्रहणकर शिथिलाचार को हटाने में एक नई क्रांति की । खरतरगच्छ में आज सबसे अधिक साधुसाध्वी का समुदाय इन्हीं की परम्परा का है । यह अपने समय के बहुत बड़े विद्वान थे। बोकानेर में सम्बत् १८५४ में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके शिष्य धर्मानन्दजी के शिष्य राजसागरजी से सम्वत् १६०६ में सुखसागरजी ने दीक्षा ग्रहण की, इन्हीं के नाम से सुखसागर जी का संघाडा प्रसिद्ध है जिसमें श्राचार्य हरिसागरसूरिजी का स्वर्गवास थोड़े वर्षो पहले हुआ है और अभी आनन्दसागर सूरिजी विद्यामान हैं । उनके श्राज्ञानुवतीं उपाध्याय कवीन्दसागरजी और प्रसिद्ध बाल मुनि कान्तिसागरजी आदि १०-१२ साधु और लगभग २०० साध्वियां विद्यामान है । अभी खरतरगच्छ में तीन साधु समुदाय हैं । जिनमें से सुखसागरजी के समुदायका ऊपर उल्लेख किया गया है। दूसरा समुदाय मोहनलालजी महाराज का है जिनका नाम गुजरात में बहुत ही प्रसिद्ध है । आपले यति थे पर किया उद्धार करके साधु बने और तपागच्छ और बरतरगच्छ दोनों गच्छों में समान रूप से मान्य हुए। आपकी ही अद्भुत विशेषता थी कि आपके शिष्यों में दोनों गच्छ के साधु है और उनमें से कई साघु बहुत ही क्रियापात्र सरल प्रकृति के और विद्वान हैं। खरतरगच्छ में इनके पट्टबर जिनयशसूरजी हुए। फिर जिनऋद्धिसूरिजी और रत्नसूरिजी हुए इनमें जिनऋद्धिसूरिजी गुजरात www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन श्रमण संघ का इतिहास DAIHINDIpATITANIDAIMURD-IIDOtpoimmoditD INDOMINDI1D DIDIHID 11 1 110IIIIIIIIDG010-11 आदि में बहुत प्रसिद्ध है। अभी आपके समुदाय में आध्यात्मानुभव व योगप्रकाश; स्यादवाद् अनुभव पाध्याय लब्धि मुनिजी, बुद्धि मुनिजी गुलाब मुनिजी रत्नाकर शुद्धदेवअनुभव विचार, दुव्यानुभवरत्नाकर आदि १०-१२ बडे क्रियापात्र साधु हैं । कुछ साध्वियाँ आत्मभ्रमोंछेदनभानु आदि कई विशिष्ट ग्रन्थ हैं। भी हैं। उ० लब्धिमुनिजी ने करीब ३०-३५ हजार आपका स्वर्गवास सं० १६५६ में जमवरे में हुआ। श्लोक परिमित पद्यबद्ध संस्कृत ग्रन्थ बनाये हैं और अध्यात्मानुभव योग प्रकाश ग्रन्थ से आपकी योग ___ सम्बन्धी जानकारी और अनुभवों का विशद् परिचय बुद्धिमुनिजी ने भी अनेक ग्रन्थों का विद्वतापूर्ण संपादन । दिन मिलता है। किया है। जिनरत्नसूरिजी के शिष्यों में भद्रमुनिजी खरतरगच्छ का तीसरा साधु समुदाय, जिनकृपाने आध्यात्मिक साधना में महत्व पूर्ण प्रगति की। चन्द्रसूरीजी का है। आप भी पहले यति थे । सं० आज वे सहजानंदजी के नाम से एक आत्मानुभवी १६४३ में आपने क्रियाउद्धार किया। सं० १९७२ में और आध्यात्मिक-योगी, संत के रुप में प्रसिद्ध है। बम्बई में आचार्यपद मिला । सं० १६६५ में सिद्धक्षेत्र अपने ढंग के सारे जेन श्रमण समुदाय में एक ही पालीताणा में स्वर्गवास हुआ। आप बहुत बड़े विद्वान, आत्मानुभवी योगी हैं। क्रियापात्र तथा प्रभावशाली गीतार्थ प्राचार्य थे आपके खरतरगच्छ में योग-अध्यात्म की परम्परा ही शिष्यों में जयसागरसूरिजी भी अच्छे विद्वान और उल्लेखनीय रही है । योगिराज अानन्दधनजी मूलतः त्यागी साधु थे। विद्यमान साधुओं में उपाध्याय खरतरगच्छ के थे । उसके बाद श्रीमद् देवचन्दजी सुखसागरजो हैं आपके शिष्य कान्तिसागरजी भी बड़े प्राध्यात्म-तत्ववेत्ता हो गये हैं। जिन्होंने भक्ति अच्छे विद्वान और वक्ता हैं। जिन्होंने 'खंडहरों के और अध्यात्म का अपूर्व मेल बैठाया है। तदन्तर वैभव' आदि ग्रन्थ और कई विद्वता पूर्ण लेख लिखे चिदानन्दजी ( कपूरचन्दजी) भी खरतरगच्छ के ही हैं। कृषाचन्द्रसूरि का समुदाय अभी करीब १० साधु योगियों में उल्लेखनीय थे तथा इनसे कुछ पूर्ववर्ती और १०-१५ साध्वियाँ विद्यमान हैं। काशी के मस्त योगी झनसागरजी बीकानेर के श्मशानों के हीराचंद सूरि भी उल्लेखनीय हैं। पास वर्षों तक साधना करते रहे हैं। बीकानेर, जयपुर खरतरगच्छ में भी तपागच्छ की तरह १८-१२ शाखाएं हुई । जिनमें से अभी चार शाखाओं के श्री किशनगढ़ और उदयपुर के महाराजा आपके बड़े पूज्य और यति विद्यमान हैं। श्रीपूज्य परम्परा में भक्त थे । १८ वर्ष की दोयु में बीकानेर में आपका बीकानेर की भट्टारक शाखा के जिन विजयेन्द्रसरिजो स्वर्गवास हुआ । अनन्दधनजी की चौवीसी और कुछ बड़े प्रभावशाली हैं । इसी तरह लखनऊ की जिनरग पदों का मर्मस्पशी विवेचन आपने किया है। विशेष सूरि शाखा के विजयेन्द्रसूरि और जयपुर की मंडावरी जानने के लिए हमारा 'ज्ञानसागर ग्रन्थावली' नामक शाखा के जिनधरणेन्द्रसूरिजो भी अच्छे विचारशील प्रन्थ देखना चाहिये । प्रथम चिदानन्दजी के बाद है। बालोत्तरे की भावहर्षीयशाखा और पाली की हैं। बीकानेर आचार्यशाखा के श्री पूज्य सामप्रभसूरि दूसरे चिदानन्दजी जो उपरोक्त सुखसागरजो के शिष्य अद्यपक्षोयशाखा के अब श्रीपूज्य नहीं हैं, केवल यति थे, वे भी उल्लेखनीय जैन योगी थे। इनके रचित ही हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , वर्तमान जैन मुनि - परम्परा An auta Petan MMHHOCKINGLING CHAS खरतरगच्छ श्रमण समुदाय में साध्वियों का स्थान विशेष रूप से उल्लेखनीय है । साधुओं की संख्या ३० के करीब हैं और साध्वियां करीब २२५ हैं । करीब ५० वर्ष पूर्व प्रवर्तिनी पुष्प श्रीजी नामक एक साध्वी हुई उनके और उनकी गुरुबहिन का ही यह सारा परम्परा का विस्तार है। सोहन श्री जी बड़ी उच्चकोटि की साधिका हुई । वर्तमान में भी प्रवर्तिनी वल्लभ श्री जी, प्रमोद श्रीजी, विदुषीरत्न विचक्षणश्रीजी आदि व उनकी शिष्याऐं जैन शासन की शोभा बढ़ा रही हैं। वर्तमान जैन तीर्थों के निर्माण, संरक्षण, जर्णोद्वार और स्थापना में भी खरतरगच्छीय साधु व श्रीपूज्य यति सम्प्रदाय का बड़ा योग रहा है। जैसलमेर सभी कलामय मन्दिर खरतरगच्छ के श्रावकों के बनाये हुए हैं। और उनके आचार्यो के प्रतिष्ठित हैं। इसी तरह बीकानेर आदि में भी जहां २ खरतरगच्छ का अधिक प्रभाव रहा है, अनेक जिनालय साधु यति व श्रीपूज्यों के उपदेश से बनाये गये । कापरडाजी आदि कई तीर्थ इन्हीं के द्वारा प्रसिद्ध हुए। शत्रुंजय, गिरनार राणकपुर, सिरोही आदि अनेक स्थानों में खरतरगच्छ के नाम से मन्दिर हैं । खरतरगच्छीय वर्तमान मुनि समुदाय ( संवत् २०१६ के चातुर्मास ) वीर पुत्र चाचार्य आनन्दसागरजी म० आदि प्रतापगढ़ (राज० ) उ० सुख सागरजी ठा० २ पालीताणा, उ० लब्धि मुनिजी ठा० ५ भुजकच्छ, उ० कविन्द सागरजी बम्बई ३, गण बुद्धिमुनिजी ठा०५ पालीताणा, मुनि चरित्र मुनिजी मोटा रातड़िया, सुमति मुनिजी भारजा, मनीसागरजी पारनेरा ( गु० ) मुनि कांतिसागरजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १२५ ठाः २ हैद्राबाद, हेमेन्द्रसागरजी गढ़ सीमाना उदयसागरजी चोहटन बाढ़मेर, रामसागरजी, माणेक सागर जो, राजेन्द्र वि. निपुण वि. आदि पालीताणा । साध्वी श्रीविचक्षण श्री जी ठा० ३ सायराबन्दर, साध्वी श्री संपत श्री ठा० २ मनमोहन श्री, दोन श्री कुमुद श्री आदि ठा० ३८ पालीताणा | तपागच्छीय आचार्य श्री कनक सूरीश्वरजी म० का मुनि समुदाय ० श्री कनक सूरिजी ठा० ७ भचाऊ कच्छ । पं० मुक्ति वि० ठा० २ लाकड़िया, कंचन वि० पलारवा । साध्वीजी श्री रतन श्री ठा. १६ भचाऊ, चन्द्रकला श्रीठा० ६ फतेहगढ़, भुवन श्री ८ भुज, उत्तमश्रीठा. १० मांडवी, दिवाकर श्री ३ वांकी, सुभद्रा श्री ठा० ६ रायण, निरंजना श्री ठा० ३ प्रजड़, हेम श्री ४ बीदड़ा चन्द्ररेखा श्री ७ भावनगर, जितेन्द्र श्री ५ सूरत, विधुत प्रभा श्री ठा० ४ आधोई (कच्छ) तपागच्छीय आ० श्री विजय शांति चन्द्रसूरिजी का मुनि समुदाय ० विजय शांतिचन्द्र सूरिजी पं० सोहन विजय जी आदि ठा० ६ बाब | पं०कचन वि. ठा० २ भार भुवन २ पालीताणा, सुज्ञान वि० २ बोरसद, ० २ भरुच | रंजन साध्वी श्री उत्तम श्री ४ बाव, सौभाग्य श्री ठा०८ भामेर, स्वर्ण प्रभा श्री ४ पालीताणा, सोहन श्री ३ बढ़वाण, जीनमति श्री ठा० ४ पालनपुर । www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास H UDAIIMITD-INDUMIDCHIDDHUpdOD DIDID INDIINDIM LADDIHD ODIDIVIDImpaniodURDam पूज्य मोहनलालजी म० का तपागच्छीय अंचल गच्छीय मुनि समुदाय मुनि समुदाय __ आ० दानसागर सूरिजी, श्रा० नेम सागरसूरिजी पं० हीरमुनि ठा० ५ ॐझा, कीर्तिमुनि गोधावी, र मुनि लब्धि सागरजी आदि ठा० ५ घाटकोपर । आ० गुण सागर सुरिजी ठा०२ वींढ मुनिचंदन निणपुमुनि ४ सूरत, दयामुनि ४ राधनपुर, चिदानन्द सागरजी २ नवावास, कीर्ति सा० २ जामनगर, विवेक मुनि मृगेन्द्र मुनि इन्दौर, चारित्र मुनि रातडीया, गजेन्द्र । सागरजी पालीताणा। मुनि पादरली, पुष्प मुनि देपाल पुर, धुरन्धर मुनि साध्वी केशर श्री, मनोहर श्री ठा०८ माटुंगा भुज, नीति मुनि महुड़ा। बम्बई । जयंत श्री हेम श्री सौभाग्य श्री जी आदि ६५ साध्वी कंकु श्री २ नाडोल, गुण श्री ठा. ५ देसूरी साध्वी समुदाय भिन्न २ स्थानोंपर । अन्य ६० साध्वी समुदाय भिन्न २ स्थानों पर। उ० रविचन्द्रजी म० का मुनि समुदाय पार्श्वचन्द्र गच्छीय ___ मुनि हीराचन्दजी रेलडिया ( कच्छ ) साध्वी जी जवेर श्री, दर्शन श्री मोहन श्री, तारा श्री, कांता श्री श्री कुशलचन्द्रगणी वर्य का मुनि समुदाय । मुनिराज पालचन्दजो ठा० ३ रायण कच्छ, तपागच्छीय त्रिस्तुतिक मनि समुदाय वृद्धिचन्दजी २ अहमदाबाद, भक्तिचन्दजी २ खंभात, विद्याचन्दजी २ पालीताणा, प्रीतिचन्दजी २ देशालपुर आ० श्री विजय यतीन्द्रसूरिजी आदि रतलाम । साध्वी खांति श्री, प्रीति श्री आदि खंभात जंब श्री, मुनि न्याय वि० ठा०२ सियाणा, पूर्णानन्द वि० ठा. २ शणगार श्री, जीव श्री, चम्पक श्री आदि ५० साध्वी सीतामऊ, लावण्य वि० ठा०४ पावा। समुदाय भिन्न भिन्न स्थानों पर। मुनि जयविजयजी मोधरा, मुनिलब्धि विजय जी कमलविजयजी बामनवाड़ जी। पं० दयाविमलजी म० (तपा०) का मुनि समुदाय यति समुदाय श्रा० रंग विमलसूरिजी ठा० ३ जुनाडीसा, पं० श्री पूज्य श्रा० जिन विजयसेन सूरिजी, लखनऊ। पुण्य विमलजी २ डुगरपुर, शांति विमलजी ठा०४ , विजयेन्द्रसूरिजी, जीयागंज । अहमदाबाद, रवि विमलजी २ भान्डप बम्बई, देव ,,, धरणेन्धद्रसूरिजी, कलकत्ता । विमलजी महुडी, प्रेम वि० पाटन, सुरेन्द्र वि० ,, हीराचन्दसूरिजी, बनारस । भावनगर इन्द्र वि० नडीयाद तथा सिंह विमलजी यति श्री हेमचन्द्रजी जामनगर, सुन्दर ऋषिजी कुचेरा। खामगाँव, जयनिधानजी कोचीन, माणेक सागरजी, साध्वी श्री लक्ष्मी श्री, ज्ञान श्री, गुण श्री मंगला भीडर, यतीन्द्र विजयजी, जेरूचीजी, महीमा वि. श्री आदि ठा० ६० के करीब भिन्न २ स्थानों पर। लक्ष्मीसागरजी पालीताणा, सुरेशचन्दजी धुलिया। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन मुनि परम्परा MIDDIR RID OMRI H INDIHI TIMILIDIIILIDAlionito INDIINDAIN SOUR INSalthani HD DIRRIEROINODu स्थानकवासी सम्प्रदाय (प्राचीन एवं अर्वाचीन इतिहास ) स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रारम्भिक और उनके मत को एक नया मोड़ दिया । यदि उसी एवं प्राचीन इतिहास के सम्बन्ध में पृष्ठ १०६-१०८ नये मोड़ को ही वर्तमान स्थानकगसी सम्प्रदाय का में संक्षिप्त विवेचन दिया जा चुका है। अतः यहाँ उस प्रारम्भकाल माना जाय तो अधिक युक्ति संगत रहेगा। प्राचीन परम्परा से वर्तमान स्थानकवासी मुनि समुदाय ये पाँव महापुरुष थे:-(१) पूज्य श्री जीवराजजी महासे सम्बन्ध जोड कर वर्तमान स्थानकवासी मुनिवरों राज (२) पूज्य श्री धर्म सिंहजोमहाराज, (३) पूज्य श्री के नाम आदि दे रहे हैं। लवजी ऋषिजी महाराज (४) पूज्य श्री धर्मदासजी ___ स्थानकवासी सम्प्रदाय के निर्माता धर्मवीर महाराज एवं (५) पूज्य श्री हरजी ऋषिजी महाराज । लौकाशाह माने जाते हैं पर सत्य वस्तु यह है कि पूज्य श्री जीवराजजी म० लौकाशाह ने तत्कालीन युग में एक धर्म क्रान्ति आपका जन्म सूरत में श्रावण शुक्ला १४ सं० अवश्य की एवं मूर्ति पूजा का विरोध कर स्वयं किसी १५८१ को वीरजी भाई की धर्म परायणा भार्या श्री के पास दीक्षित न होकर मात्र एक सफल उपदेशक केसरबाई की कुक्षी से हुआ। सं० १६०१ में पूज्य श्री के रूप में वे रहे। उनके उपदेशों से प्रभावित हो ४५ जगाजी यति के पास दीक्षा ली। कुछ समय के बाद व्यक्ति उनके परम भक्त बने और जिन्होंने बाद में ही तत्कालीन यति मार्ग के प्रति श्रापको तीव्र असंतोष अपने समूह का नाम 'लौ कागच्छ' रक्खा और यति होने लगा और आपने धर्म संरक्षकों की इस अवस्था अवस्था में शुद्धाचार पालने लगे। में जबरदस्त क्रियोद्धार करने का दृढ़ संकल्प किया । लौंकाशाह के १०० वर्ष बाद तक यही यति रूप गुरु का प्रबल विरोध होते हुए भी आपने सं० १६०८ चलता रहा बल्कि वे गादी धारी यतियों के रूप में में पाँच साधुओं के साथ लेकर पाँच महाव्रत युक्त रहने लगे । लौ कागच्छ के दम पाट पर यति वज्रांग आहती दीक्षा ग्रहण कर ली। श्राहेती दीक्षा लेने के जी हुए। उनको गादी सूरत में थी। उनमें काफो पश्चात् शास्त्रानुसार नये साधु भेष का निरुपण शिथिलता आगई थी अतः उनके समय में लौकागच्छ किया, श्वेताम्बर साधुओं के लिये चौदह उपकरणों की इस अवस्था का काफी विरोध हुआ और कई में से केवल वस्त्र पात्र मुहरतो, रजोहरण, रजस्त्राण कियोद्धारक महान व्यक्ति अयतीणे हुए। एव प्रमार्जिका को ही धारण किया अन्य सबका त्याग सोलहवीं सदी के उत्तराध एवं सतरहवीं सदी में किया । आगमों के विषय में लौकाशाह की ही बात पाँच महा पुरुष विशेष प्रख्यात हुए जिन्होंने लौकाशाह स्वीकार को परन्तु आवश्यक सूत्र को भी प्रामाणिक द्वारा प्रचलित धर्म क्रान्ति को पुनः क्रान्तिमय बनाया मानकर ४१ के बदले ३२ भागम माने । यही मान्यता Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन श्रमण संघ का इतिहास INDon:R eempouPPINDAININNERambore EOIRIDDHINANDEDIT IHINDohammadpunlid INDIANRAKTIMADI आज तक भी मान्य है। इस प्रकार स्थानकवासी जो यति लौंकागच्छ की गादी पर थे। वीरजी वोरा सम्प्रदाय के वर्तमान स्वरूप के मूल प्रणेता पूज्य श्री उनके भक्त थे। लवजी ने इन्हीं के पास रह शास्त्राजीवराजजी म० को मान लिया जाय तो अनुपयुक्त भ्यास किया और सं० १६६२ में इन्हीं के पास दीक्षा न होगा। धारण की । इनको भी यति पन के शिक्षिलाचार से पूज्य श्री धर्म सिंहजी घृणा होगई और सं० १६६४ में यतिवर्ग से अलग आपका जन्म सौराष्ट्र के जाम नगर में दशा श्री होकर २ साथियों के माथ दीक्षा धारण की तथा यति माली श्रावक जिन दास के घर शिवादेवी जी कुक्षी पन के समस्त परिग्रहों का त्याग किया। यति वर्ग से हुआ । पूज्य श्री धर्मसिंहजी महाराज भी प्रश्ल द्वारा रचित षणयंत्र से प्रभावित होकर वीरजी क्रातिकर्ता एवं साहसी धर्म प्रचारक सिद्ध हुए हैं। वोरा भी इनसे क्रुद्ध होगये और खंभात के नवाब को गुरु की परीक्षा में सफल होने के लिये अहमदा- पत्र लिखकर इन्हें कैद करादिया पर कैदखाने में भी बाद की एक ऐसी मस्जिद में एक रात भर अकेले इनकी शुद्ध क्रियाए एवं धर्माचरण देखकर जेलर ने ध्यान मग्न रहे, जहाँ किसी प्रत का निवास स्थान बेगम सा० द्वारा नबाब से कहलाकर इन्हें जेल से माना जाता था और जो कोई इस मस्जिद में रात मुक्त कराया और भी अनेक कष्ट चैत्यवासियों भर रह जाता सवेरे उसका शव ही निकलता ऐसा द्वारा तथा यति वर्ग द्वारा इन्हें झेलने पड़े। माना जाता था। परन्तु धर्मवीर धर्मनिह जी महाराज लवजी ऋषिजी की परम्परा बड़ी विशाल है । इस परीक्षा में सफल रहे । कहते हैं यक्ष आपका भक्त पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज बन गया और भविष्य में किसी को न सताने की आपका जन्म अहमदाबाद के पास 'सरखेज' प्रतिज्ञा की । ऐसी किंवदन्ती है । यह घटना वि० सं० ग्राम के संघपति जीवन लाल कालीदासजी भावसार १६६२ की है। की धर्मपत्निी हीराबाई की कुक्षि से चैत्र शुक्ला ११ कुछ भी हो आप गुजरात में महामान्य बने। सं० १७०१ में हुआ । लौकागच्छ के यति तेजसिंहजी भाज आपके २४ वे पाट पर पूज्य श्री ईश्वरललजी के पास धार्मिक ज्ञान लिया। एक समय 'एकलपात्रिया' महाराज हैं और आज तक इस सम्प्रदाय की एक पंथ के अगुवा श्री कल्याणजी भाई सरखेज आये । ही श्रंखला अविच्छिन्न रूप से चली आरही है। सामाशिय नये वर्ष में ही पूज्य श्री लवजी ऋषिजी महाराज इस पंथ से इनकी श्रद्धा हटगई और सं० १७१६ में आपके पिता का देहावसान इनके बाल्यकाल में स्वतः शुद्ध दीक्षा ग्रहण की। धर्मसिंहजी म. के प्रति ही होगया था अतः माता फूनाबाई के साथ नाना इनका अटूट स्नेह था। एक बार एक घर से इन्हें वीरजी वोरा के साथ खंभात में इनका लालन पालन रोटी के बदले राख बहराई गई इम पर धर्मसिंहजी हुा । ये बड़े कुशाग्र बुद्धि थे। सात वर्ष की आयु में ने कहा-जिस प्रकार बिना राख के कोई घर नहीं ही सामायिक प्रतिक्रमण कंठस्थ थे। उस समय वज्रांग होता वैसे बिना तुम्हारे अनुयायी के कोई घर खाली Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान-मुनि परम्परा ID TIMIM DATIDHIDDIDIDAITHILD THATISGIRUDDITIO HIDIIN INSOUNDRIDAHINI IN HINDHIII COM in MISSMSAImaupda न रहेगा । ऐसा ही हुआ। सं० १७२१ में उज्जैन में बैठ गये और कुछ ही दिनों बाद आप कृशकायी हो आप आचार्य पद से विभूषित किये गये। मालवा में स्वर्ग सिधारे । आपके काफी भक्त है। ___ स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस का अभ्युदय आपके १६ दीक्षित शिष्य हुए जिनमें ३५ तो सन् १८६४ में दिगम्बर जैन कान्फ्रेस बनी। संस्कृत प्राकृत के विद्वान हुए। इन ३५ मुनियों के सन् १६०२ में श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेंस तथा सन् अलग २ समुदाय बने । इतने अधिक समुदायों का १९०६ में स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस की स्थापना हुई। संभालना कठिन था अतः सं० १७२ चैत्र शुक्ला १३ इस समय स्थानकवासी समाज में ३० सम्प्रदायें को सभी को धारा नगरी में एकत्रकर २२ सम्प्रदायों थीं। २६ सम्प्रदायों के प्रतिनिधि कान्फ्रेंस में में विभाजित कर दिया। यही बाद में 'बाईस टोला' सम्मिलित हुए थे। उस समय स्था० साधु साध्वी की कहलाया और स्थानकवासी सम्प्रदाय का पर्यायवाची संख्या १५६५ थी। शब्द भी बना। इन २२ सम्प्रदायों के नाम इस इस समय से स्थानकवासी सम्प्रदाय के जैन प्रकार हैं:-१ पूज्य श्री धर्मदासजी म. की सम्प्रदाय मुनिराजो का कान्फ्रेंस के साथ गहरा सम्बन्ध जुड़ा। २ पू० श्री धन्नाजी ३ श्री लालचन्दजी ४ मन्नाजी ५ पाँच धर्मसुधारकों की परम्परा बड़े पृथ्वी चन्दजी ६ छोटेलालजी ७ बालचन्दजी उक्त ५ धर्म सुधारकों की परम्परा का विशेष ८ ताराचन्दजी प्रेमचन्दजी १० खेतसिंहजी ११ इतिहास काफी विस्तृत है तथा उसका वर्णन पृष्ठ पदार्थजी १२ लोकमलजी १३ भवानीदासजी १४ १०७ पर दिया गया है अत: जिनका प्रभुत्व समुदाय मलूकचन्दजी १५ पुरुषोत्तमजी १६ मुकुटरायजी १७ वा टोले के रूप में "श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन मनोहरदासजी १८ रामचन्दजो १६ गुरु महायजी श्रमण संघ" के निर्माण तक रहा उन्हीं पर यहाँ २० बापजी २१ रामरतन जी तथा २२ पूज्य श्री विवेचन करना चाहेंगे। मूलचन्दजी महाराज की सम्प्रदाय। सभी नामों के सादड़ी में बृहत साधु सम्मेलन साथ भादि में पूज्य श्री तथा अंत में महाराज सादडी (मारवाड़) में वि० सं० २००६ बत्तय शब्द समझें। तृतिया ता. २७-४-५२ को समस्त स्थानकवासी श्रापके स्वर्ग गमन की घटना भी बड़ी विचित्र समदायों का एक संगठन बनाने की दृष्टि से एक है। कहते हैं आपके एक शिष्य मुनिने अपनी प्रान्तम बहत् साधु सम्मेलन हुआ। अवस्था जान कर संथारा कर लिया पर बाद में वे इस सम्मेलन में निम्न सम्प्रदायों के प्रतिनिधि विचलित होगये । धर्मदासजी ने उसे अपने आने तक सम्मिलित हुए:रुके रहने को कहनाया। आप अग्र विहार कर धारा (१) पूज्य श्री प्रात्मारामजी म० की सम्प्रदाय । नगरी पहुंचे पर शिष्य मुनि धीरज छोड़ चुके थे इस मुनि ८८ आर्या ८१ । प्रतिनिधि मुनि श्री प्रेम पर उनके स्थान पर स्वयं धर्मदासजी संथारा करके चन्दजी म०। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास MIDIMHISTOR:mi oranmooilIPULIS PIRANDITailoronHID Kolamooli FIND OTIANISKullu up-CHID INDonkINISFINANDROIR INDIm (२) पूज्य श्री गणेशीलालजी म० की सम्प्रदाय। (१३) पूज्य श्री नानकरामजी म० को सं० के मुनि ३४ आर्या ७१ । पूज्य गणेशीलालजी म०, मुनि प्रवर्तक श्री पन्नालालजी म. के मुनि ६ आर्या ८ । श्री मलजी आदि ५ प्रतिनिधि । प्र० मुनि श्री सोहनलालजी म०।। (३) पूज्य आनन्द ऋषिजी म० की संप्रदाय मुनि (१४) पू० श्री अमरचन्दजी म० की सं० । मुनि १६ आर्या ८५ । प्रतिनिधि आनन्द ऋषिजी म० आदि ७ आर्या ६५ । प्र० मुनि श्री ताराचन्दजी म० श्रादि । ५ मुनि । (१५) पू० श्री रघुनाथजी म० की सं०। मुनि २ (४) पूज्य श्री खूबचन्दजी म० की संप्रदाय मनि तथा आयो २६ । प्र० मिश्रीमलजी म. आदि। (१६) पू० श्री चौथमलजी म० की सं० के प्रवर्तक ६५ आर्या ३८ । प्रति० श्री कस्तूरचन्दजी म० आदि श्री शार्दूलसिंहजी महाराज । मुनि ४ तथा आर्या ७ । ४ मनि । प्रति. मुनि श्री रूपचन्दजी। (५) पूण्य श्री धर्मदासजी म० की संप्रदाय मुनि (१७) पू० श्री स्वामीदासजी म० की सं० । मुनि २१ तथा आर्या ८६ | प्र० श्री सौभाग्यमलजी म. ७ आर्या १६ । प्र० मुनि श्री छगनलालजी म० तथा आदि ५ मुनि । कन्हैयालालजी म०। (६) पूज्य श्री ज्ञानचन्दजी म० की सं० मुनि १३ (१८) ज्ञातपुत्र महावीर संघीय मुनि ३ आर्या २ । आर्या १०५.। प्र० मुनि पूर्णमलजी म० आदि ४ मुनि। प्र० पं० श्री फूलचन्दजी म० । (७) पूज्य श्री हस्तीमलजी म. की सं० मुनि (१६) पू. श्री रूपचन्दजी म० को सं० । मुनि ३ आर्या ३३ । प्र. पूज्य श्रीहस्तीमलजी म.आदि २ मुनि। आर्या ४ । प्र०-पं० श्री सुशीलकुमारजी। (८) पूज्य श्री शीतलदासजी म. की सं०। मुनि (२०) पं० श्री घासीलालजी म० के मुनि ११ । प्र. ५ आर्या ७ । प्र० मुनि छोगलालजी म०। श्री समीरमलजी म० | (8) पूज्य श्री मोतीलालजी म. मनि १४ आर्या (२१) पू. श्री जीवराजजी म० की सं० के मुनि ३० प्र० मुनि अंबालालजी म० ३। प्र० कवि श्री अमरचन्दजी म०। (१०) पूज्य श्री पृथ्वीचन्दजी म० । मनि १३॥ प्र० ___ (२२) बरवाला सम्प्रदाय ( सौराष्ट्र ) के मुनि ३ आर्या १८ प्र०५० मुनि श्री चम्पकलालजी म. उपा० कवि अमरचन्दजी मः। इस प्रकार सादडी सम्मेलन में कुल उपस्थित (११) पूज्य श्री जयमलजी म० की स० के स्थ० मुनि सम्प्रदाय २२ मुनि ३४१ आर्या ७६८ । प्रतिनिधि श्री हजारीमल जी म०। मुनि ६ आर्या २६ । प्रः- संख्या ५४ । अनुपस्थित २ । कोटा सम्प्रदाय के दोनों मुनि श्री वृजलाल जी म०, मनि श्री मिश्रालालजी। समुदायों ने सम्मेलन में होने वाले निश्चयों पर अपनी स्वीकृति भेजी। (१२) पूज्य श्री जयमलजी म० की सं० के पं० इस प्रकार इस बृहत साधु सम्मेलन से स्थानक मनि श्री चौथमलजी म० के मुनि ६ प्रार्या ५१॥ प्र० वासी सम्प्रदाय के इतिहास में एक नये युग क। पं. मुनि श्री चांदमलजी, लालचन्दजी आदि। प्रारम्भ होता है । Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन मुनि परम्परा १३१ BUAE EIDDHIVIDOMH DIGITA INDOORDARI HIDATILLINA TIIITOURISHT-UAditi Hi-SMINATIOTIHARITHILDIliunbodul उपयोगी __इस साधु सम्मेलन में समस्त स्थानकवासी मुनियों श्री हजारीमल जी महाराज [डेगाना, परबतसर, का एक हो आचार्य और मन्त्री मण्डल के नेतृत्व में नागौर फलौदी, सांभर, शेरगढ़ साकड़ा मेड़ता पट्टी] एक सुदृढ़ संगठन बनाने का निश्चय किया गया। श्री पन्नालालजी महाराज [ जयपुर, टोंक, भी के लिये एक समाचार तथा अन्य कई उपयोगी माधोपुर तथा अजमेर (राज्य] निर्णय किये गये। ६ श्री किशनलालजी महाराज [खानदेश, बरार, इस संगठन का नाम रहा-श्री वर्तमान म० प्रदेश बम्बई] स्थानकवासी जैन श्रमण संघ । संघ के पदाध. १० श्री विनय ऋषिजी महाराज [महाराष्ट्र, मैसूर कारियों का चुनाव इस प्रकार हुआ: __११ श्री फूल चन्दजी महाराज बगाल, बिहार, आचार्य- जैनधर्म दिवाकर सहित्य रत्न पूज्य श्री आसामी आत्मारामजी महाराज। १२ मोतीलालजी महाराज [ स्वर्गीय ] तथा उपाचार्य- पूज्य श्री गणेशीलालजी महाराज। श्री पुष्कर मुनि जी म. [मेवाड़, पंच महाल] प्रारम्भ में पूज्य श्री आनन्द ऋषिजी महाराज उपाध्याय-पं० श्री आनन्द ऋषिजी महाराज (२) .. प्रधान मंत्री थे। वर्तमान में श्री मदनलालजी पं. भीप्यारचन्दजी महाराज (३) कविरत्न अमरचन्दा महाराज मंत्री पद संभाल रहे हैं। महाराज (४) ५० श्री हस्तीमलजी महाराज ! इस मत्री मंडल का प्रत्येक तीसरे वर्ष चुनाव प्रान्तीय मंत्री मंडल होता रहता है । इस प्रकार स्थानकवासी समुदाय के १ मुनि श्री पृथ्वीचन्दजी महाराज ( अलवर, सुन्दर संगठन का अन्य जैन सम्प्रदायों पर, भरतपुर, यू०पी०) समर। जैन समाज तथा अन्य धर्म संगठनों पर २ मुनि श्री शुक्ल चन्दजी महाराज (पंजाब पेप्सू) अच्छा प्रभाव पड़ा है। श्वेताम्बर मूर्ति पूजक मुनि ३ मनि श्री प्रेमचन्दजी महाराज [दिल्ली, बागड, समुदाय में भी इसी प्रकार का संगठन बनाने के हरियाणा, जंगलदेश) प्रयत्न चालू हैं। ४ मुनि श्री सहस्त्रमल जी महाराज (आप स्वर्गवासी इस संघ में अभी गुजगत प्रदेश के मुनि पूर्ण हो गये हैं)। [मध्यभारत, ग्वालियर काटा रूपेण सम्मिलित नहीं हुए है यधपि प्रयत्न चाल ५ मुनि श्री पूर्णमलजी महाराज [ स्थलोप्रदेश ] हैं । ६ मनि श्री मिश्रीमल जी महाराज [ मारवाड़ भी कई अभी तक संघ के सदस्य नहीं बने हैं । ____ जिन प्रदेशों के मुनि व सम्मिलित हुए हैं उनमें बिलाड़ा, जैतारण, सोजत देसूरी, पाली, सिवाना, वतमान स्थानकवासी मुनिवरों को नामावली यथा जोधपुर, जाजोर प्रान्त समय प्राप्य न होने से भागे के पृष्ठों में देंगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास MusalIBIDINARISTIRTAISHORIHIND-THHIHID0NDISome ID-DIBITS-IIID-TRIANIHIDOINMAINALIPISOHUAINSPIRINDAINITIANDolm गुजरात के स्थानकवासी सम्प्रदाय दरियापुरी सम्प्रदाय नेणसी के शिष्य पू० खोडाजी स्वामी प्रभाविक संत यह पूज्य श्री धर्मसिंहजी म० की सम्प्रदाय है। हुए। जैन कवि पाखा के नाम से प्रसिद्ध है । वर्तमान मापके वे पटधर श्री प्रागजी ऋषि बड़े प्रभाविक पू. में पुरुपोत्तम जी म० पूज्य हैं । आप सौ० वी० श्रमण हुए हैं। आपके बाद पूज्य स्वामी, हीराचन्दजी संघ के प्रवर्तक मुनि हैं। रघुनाथजी, हाथीनी म० और उत्तम चन्दजी म० सायला सम्प्रदाय पाट पर विराजे । वर्तमान में इन्ही के शिष्य पूज्य श्री सं० १८७२ में पू० बालाजी के शिष्य नागजी ईश्वरलालजी म० हैं। आपकी आयु इस समय ८८ .. __ स्वामी ने इस संप्रदाय की स्थापना की। तपस्वी वर्ष है । महमदाबाद के शाहपुर उपाश्रय में स्थिरता मला. माजी मनि ___ मगनलालजी, कानजी मुनि आदि ४ संत विधमान हैं। बासी हैं। लिंबड़ी मोटी सम्प्रदाय बोटाद सम्प्रदाय पूज्य श्री धर्मदासजी म० के ६६ शिष्यों में से पू० धर्मदासजी म० के ५ वे पाट पर पूज्य ३५ ने नई समुदायें बनाई जिनके बाद में २२ विभाग जसराजजी म० हुए आपने अन्तिम समय बोटाद में बने उनमें से पूज्य श्री अजरामरजी म० का विहार स्थिर वास किया इसीसे यह बोटाद संप्रदाय कहलाई। क्षेत्र गुजरात रहा। आपके बाद देवराजजी, भाणजी पू० श्री शिवलालजी म० वर्तमान में पू० हैं। आप करमशी, अविचलजी, हरचन्दजी, देवजी, कानजी, नत्थुजी, दीपचन्दजी और लाधाजी स्वामी हुए। भा साराष्ट्र भी सौराष्ट्र वीर श्रमण संध के प्रवर्तक मुनि हैं। आप बडे प्रख्यात संत पवं साहित्यकार हुए हैं। कच्छ आठ कोटिपक्ष श्रापके बाद मेघराजजी और देवचन्दजी स्वामी पूज्य वि० सं० १६०८ में जामनगर में एकल पात्रिया, हुए । वर्तमान पूज्य कविवर नानचन्दजी म० आपही श्रापकों का जोर था ।मांडवी कच्छ में इनका व्यापार के शिष्य हैं । आप सौराष्ट्र वीर श्रमण संघ के मुख्य सम्बन्ध था अतः साधुओं का कच्छ में पदापर्ण प्रर्वतक मुनि हैं। हुआ। ये एकल पात्रिया साधु श्रावकों को आठ कोटि पूज्य देवचन्दजी के बाद लवजी व गुलाबचन्द । के त्याग से सामायिक पोषध कराते थे इसी पर से जी स्वामी हुए। शतावधानी पं० रत्नचन्दजी म० यह नाम हुश्रा । बाद में जाकर इसके दो भेद हुएआपही के शिष्य थे। आठकोटि मोटा पक्ष और पाठकोटि नानापक्ष । मुनि छोटेलालजी सदानम्दी पूज्य लाधाजी के मोटा पक्ष में पूज्य नागजी स्वामी के शिष्य पं. रत्नचंद प्रधान शिष्य है । आप अच्छे लेखक है। जी म. कच्छी वर्तमान है। लिंवड़ी छोटी (संघवी) सम्प्रदाय नानी पक्ष में पूज्य ब्रजपाल जी स्वामी प्रसिद्ध हुए। पूज्य श्री होमचन्दजी म. के समय से इसका वर्तमान में श्री लालजी स्वामी पूज्य हैं। प्रारंभ हुआ । वर्तमान में पू० श्रीकेशविलालजी म० हैं। खंभात सम्प्रदाय गोंडल सम्प्रदाय पूज्य श्री तिलोक ऋषिजी के शिष्य मंगलजी ऋषि पू० श्री ढुंगरशी स्वामी गोंडल मम्प्रदाय के के खंभात में अनेक शिष्य हुए इसी पर से यह नाम निर्माता हैं। धर्मदासजी म० के शिष्य प्रचाणजी म. पड़ा इस सम्प्रदाय में श्री चम्पक मुनिजी आदि २ के आप शिष्य थे। आपके शिष्य परम्परा में बड़े मुनि है। शेष सभी साध्वियां है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनमान जैन मुनि-परम्परा १३३ DILA DILD GIRIDHIMAHID CIIII,IIDRumodlli unto dilmDOHindTIDE TimeTIMID MOTEITIISdm urtoon तेरा पंथी सम्प्रदाय ___ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्यो सम्प्रदाय के प्रारं. इसके साथ ही साथ उन्होंने एकान्तर उपवास करना भिक इतिहास के सम्बध में संक्षिप्त विवेचन पिछले भी प्रारंभ कर दिया । इन्हीं दिनों आपकी धर्मपत्नी पृष्ठ १०८-१०६ पर दिया गया है। का देहावसान हो गया । पुनर्विगह के लिये घर वालों इस संप्रदाय में अन्य जैन संप्रदायों की तरह का अत्याग्रह होते हुए भी आपने संसार मार्ग की कोई खास भेद प्रभेद या फिरके नहीं बने । सदा से अपेक्षा संयम मार्ग को ही उत्तम माना। और सं० एक ही आचार्य के नेतृत्व में साधु तथा श्रावक संघ १८०८ में आपने पूज्य श्री रुगनाथ जी म० के पास का संचालन होता रहा है । इस संप्रदाय के मूल संस्था- स्थानकवासी दीक्षा ग्रहण की। ८ वर्ष तक भीखणजी पक आचार्य श्री भीखणजी स्वामी हुए । आपके श्री रूगनाथ जी म. के साथ रहे किन्तु दोनों में परस्पर पश्चात् ८ पट्टधर हुए हैं । इन : आचार्यवरों का मतभेद चलता ही रहता था । यह मतभेद दिनों दिन प्रक्षिप्त परिचय इस प्रकार है: बढ़ता ही गया और अन्ततः स्वामी भीखणजी ने बगड़ी (मारवाड़) में रूगनाथजी म० का साथ छोड़ प्रथम आनार्य श्री भीखणजी महाराज दिया । भारीमलजी आदि कुछ साधुओं ने आपका श्रा भीखणजी स्वामी तेरापन्यी संप्रदाय के मूल साथ दिया । संस्थापक हैं। अलग होने के बाद शनैः शनैः भीखणजी के भापका जन्म प्राषाढ़ सुदी १३ सं० १७८३ __ अनुयायी तेरह साधु हो लिये थे तथा श्रावक भी (जुलाई सन् १७२६) में मारवाड़ के कंटालिया ग्राम १३ की संख्या में ही बने थे एक समय जोधपुर के में ओसवाल वंशीय श्री वलूजी सखलेचा की धर्मः बाजार में एक खाली दुकान में ये सब सामायिक पत्नी श्री दीपा बाई को कुति से हुआ। कर रहे थे। तेरह ही साधु और तेरह ही श्रावकों आपको बाल्यकाल से ही धर्म श्रवण की ओर का यह अनोखा संयोग देखकर एक कवि ने एक अधिक रूचि थो। श्वे० स्थानकवासी संप्रदाय की दोहा जोड़ कर सुनाया और इन्हें तेरा पन्थी के शाखा के प्राचार्य पूज्य श्री रुपनाथजी महाराज नाम से संबोधित किया। भीखण जी को भी यह को आपने अपना गुरु बनाया । प्रारंभ से ही आपको नामाकरण पसन्द आया और पापने 'तेरा पन्थी' मृति वैराग्य मार्ग की ओर थी और वह निरन्तर शब्द का अथ बताते हुए कहा कि-जिस पन्य में पांच तीव्र होती ही गई। यहां तक कि आपने गृहस्थाश्रम में महात्रत, पाँच सुमति और तीन गुप्तो हैं वहा तेराही सस्त्रीक व्रत लिया कि वे सर्वथा शील पालन करेंगे। पन्ध अथवा जो पंथ, हे प्रभु तेरा है, वही तेरा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ जैन श्रमण संघ का इतिहास UNICIL RISTIAN KIDSTINTENAD-missonIR AND TURMIS-TuralIL-PININSTITNISOLUND-CHINISolurali>Colnainscrun ISoneliom पन्थ है। बस तब ही से स्वामी भीखणजी द्वारा ४ थे आचार्य श्री जीतमलजी स्वामी प्रवर्तित सम्प्रदाय का नाम 'तेरापंथ' प्रसिद्ध हुआ। आप बड़े प्रभावशाली एवं साहित्यकार प्राचार्य इस घटना के बाद सं० १८१७ आषाढ़ सुदी १५ हुए हैं। आपका विशेष परिचय 'महा प्रभाविक के दिन आपने भगवान को साक्षी मान कर पुनः जनाचार्य विभाग में पृष्ठ ६७ पर दिया जा चुका नवीन दीक्षा ग्रहण की। है। आपके शासन में १०५ साधु और २२४ साध्वियां भीखणजी के धर्म प्रचार के क्षेत्र मारवाड़ मेवाड़ थी। आपका देहावसान ७८ वर्ष की अवस्था में थली प्रदेश, ढू ढाड़ तथा कच्छ प्रदेश विशेश भाद्र वदी १२ सं० १६३८ को जयपुर में हुआ। रहे । भीखणजी ने अपने जीवनकाल में ४६ साधु ५वें आचार्य श्री मघराजजी स्वामी तथा ५६ साध्वियों को प्रवर्जित किया था। आपका । ___ आपका जन्म चैत सुदी ११ सं० १८६७ को देहावसान भादवा सुदी १३ सं० १८६० में हुआ। बीदासर (बीकानेर में हुआ। पिता का नाम पूरणमल २ रे आचार्य भारीमालजी स्वामी जी बेगानी तथा माता का न.म वन्नाजी था। लाडनू आपका जन्म मेवाड़ के मूहो ग्राम में सं० १८०३ में बाल्यकाल में ही दीक्षा हुई। आपका देहान्त ५३ में हुआ। पिता का जन्म कृष्णा जी लोढा तथा माता वर्ष की अवस्था में चैत वदी ५ सं० १६४६ को सरदार का नाम धारणी था। आपकी दीक्षा १० वर्ष की शहर में हुआ। आपने ३६ साधु और ८३ साध्वियों अवस्था में ही हो गई थी। को प्रवर्जित किया। आपके शासनकाल में ३८ साध और ४४ ६ठे आचार्य श्री माणिकलालजी स्वामी साध्वियां थी। आपका देहान्त ७५ वर्ष की अवस्था श्रापका जन्म सं० १९१२ भादवा वदो ४ को में मेवाड़ के राजनगर ग्राम में माघ सुदी ८ सं० जयपुर में हुआ। पिता का नाम हुक्माचन्दजा थरड १८७८ को हुआ। श्रीमाल तथा माता का नाम छोटांजी था। आपने १६ ३ रे आचार्य श्री रामचन्दजी स्वामी साधु और ३४ साध्वियों को प्रजित किया। देहाव सान ४२ वर्ष की अवस्था में सं० १६७४ कार्तिक वदो आपका जन्म सं० १८५७ में हुआ। पिता वा ३ को सुजानगढ़ में हुआ। नाम चतुर जी बंब और माता का नाम कुसली जी था। आप भी बचपन में ही दीक्षित हो गये थे। ७- आचार्य श्री डालचन्दजी स्वामी आपके समय ७७ साधु और १.८ साध्वियां थी। आपका जन्म असाढ़ सुदो ४ सं० १६०४ को आपका ६२ वर्ष को अवस्था में सं० १६०८ को उज्जैन में हुआ। पिता का नाम कानोरामजी पीपाड़ा रावलियां प्राम में देहान्त हुआ। तथा माता का नाम जड़ावजी था। देहावसान ५७ Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन मुने परम्परा १३५ MIDIDIDI DIDIDI |10 INDHindi 110 INDIHDISCini Tip dulkli IIIIIIIIIFAEEDINDIA वर्ष की अवस्था में मं० १६.६ भाद्र मास में लाडनू आप संत व्याकरण, काला कोप, न्याय आदि में हुआ। ३६ साधु और साध्वियां प्रवजित की। के प्रकांड पंडित हैं और प्रतिभाशाली कवि एवं ८३आचार्य श्री कालरामजी स्वामी लेखक भी हैं । आपने अपने गुरू को जीवनी पद्यबद्ध १०६ ढालों में "कालू यशोविलास" राजस्थानी भाषा आपका जन्म फागुन शुक्ला २ गं० १६३१ को में रची है। वापर में हुआ। पिता का नाम मुलचन्दजी कोठरी आप संघ संचालन में बडे प्रवीण एवं अपने धर्म और माता का नाम छोगांजी था। आपकी दीक्षा प्रचार में सफल प्रचारक सिद्ध हुए हैं। संघ एक्य को माताजी के साथ ही बीदासर में हुई। सं० १६६६ दिशा में सदा सतर्क प्रहरी हैं। अपने मुनि सप्रदाय में प्राचार्य बने। आप बड़े कठोर तपस्वी थे। के सर्वाङ्गीण विकास की ओर सतत् सचेष्ट हैं। आपके समय तेरा पन्थी सम्प्रदाय का अच्छा। ___'अणुव्रत आन्दोलन' द्वारा संघ में नैतिक एवं प्रचार हुआ। आप प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के अच्छे उच्च जीवन स्तर निर्माण की दिशा में आपका यह विद्वान थे तथा अपने शिष्य समुदाय को भी इन प्रयत्न सब क्षेत्रों में प्रशंसनीय रहा। भारत के कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान करने हेतु काफी लक्ष्य उच्च व्यक्तियों ने इस आन्दोलन की महत्ता को रक्खा । स्वीकार किया है । इस अान्दोलन के प्रबन प्रचार से आपका सं० १६६३ भाद्र पद शुक्ला ६ के दिन " आपने काफी प्रसिद्धि प्राप्त की है । साहित्य प्रकाशन गंगापुर में वंगवास हुआ। की ओर भी अच्छा लक्ष्य है । वर्तमान (सं० २०१६ वर्तमान आचार्य तुलसीरामजी महाराज के चातुर्मास ) में आपकी आज्ञा में १६८ सत तथा आप ही तेरापंथी सम्प्रदाय के वर्तमान कणधार ४७६ सतियां विद्यमान हैं। प्राचार्य है । सम्प्रदाय की गौरव वृद्धि के साथ साथ दिगम्बर सम्प्रदाय का वर्तमान सार्वजनिक क्षेत्र में आपने अच्छा सन्मान प्राप्त किया है। मुनि मंडल आपका जन्म सं० १९७१ कार्तिक शुक्ला २ को (संवत् २०१६ के चातुर्मास ) लाडन में हुआ। पिता का नाम झूमरमलजी खटेड आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज, अजमेर । तथा माता का नाम बदनाजी था। मं० १९८२ में भाचार्य श्री महावार किर्तिजी म., उदयपुर । दीक्षा हुई । सं० १६६३ में बाईस वर्ष की अवस्था में क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, इसरी आचार्य पद से विभूषित किये गये। श्रापही के क्षुल्लक मह जानन्दजी आदि, भूपरी तलैया स्वहस्त से आपकी माता, ज्येष्ठ भ्राता तथा एक , सुनिसागरजी सिद्धसागरजी आदि, पन्ना बहिन को भी दीक्षित बनाया। इस प्रकार समस्त , आदिसागरजी, भीलाडी मऊ परिवार संयन मार्ग में प्रवर्जिा है। , सूरि सिंह जी, वसगडे Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन श्रमण संघ का इतिहास , चिदानन्दजी प्राणगिरी , मनोहरलालजी वर्णी कोडरमा मुनि श्री धर्मकीर्तिजी, इन्दौर , यशकीर्तिजी, भीडर , वर्धमानसागरजी क्ष. सम्भवसागरजी आदि, बनारस आदिसागरजी, छतरपुर , शांतिसागरजी क्ष. चन्द्रमतिजी, उज्जैन , सुपाश्वसागरजी पादि, कन्नड़ , जम्बुसागरजी क्ष. सुमतिसागरजी शु. अजीत सागरजी आदि, इटावा पूज्य श्री पमाताजी शांतिमतिजी झालरापाटन मुनि श्री नमिसागरजी तारदेव, बम्बई तु. सिद्धीसागरजी, दिल्ली , गुणमतीजी, दिल्ली , पूर्णसागरजी, भोपाल मुनि मल्लिसागरजी नांदगांव क्षु. अकिर्तीजी, बेलगाम , अतिबलजी, बेलगाम ,, भद्रबाहूजी, क्षुः पार्श्व कीर्तिजी, बेलगाम मुनि समन्तभद्रजी, कुंथलगिरी तु. अनंतमतीजी माता, शोलापुर मुनि देशभूषणजी, कोल्हापुर मुनि जयसागरजी नेमिसागरजी, भींडर तु. चन्द्रसागरजी, नासरदा " सिद्धिसागरजी, केकड़ी मुनि आदिसागरजी, वारासिवनी तु. चन्दसागरजी, वारासिवनी , श्रद्धानंदजी म०, इसरी। ब्रह्मचारी-सोहनलालजी, जीवारामजी बुद्धसेन जी, नाथूरामजी, सरदारमलजी आदि इसरी ( हजारीबाग) अ. लाभानंदजी, रखियाल , हेमराजजी, बिजोलिया , मूलशंकरजी, नागपुर , राजारामजी, भोपाल छगनलालजी, नासरदा " ऋषभचंदजी, सहजपुर (दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीन इतिहास एवं वर्तमान मुनि परम्परा के सम्बन्ध में कुछ आवश्यक सामग्री अभी यथेष्ट रूप में प्राप्य नहीं हो पाई हैं अतः उसे परिशिष्ट भाग में या आगे के पृष्ठों में -लेखक Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hशान तिमिर मरणिकलिकाल कन्सल माल दिवाकार पंजाम सतना श्रीमद विजयवा सूरीश्वरजी महाराज श्रिीमद रिजवानएस जन्म-वि.सं.१९२७ वडोदरा दिशा-वि.सं.१९४३ राधनपुर আদা- হিস্টামি स्कवास-वि.सी. न्यायाम्भोनिधि जैनाचार्य स्व. श्री मद् विजयानंद सूरिश्वरजी म, पंजाबी केशरी-युगवीर ( आत्मारामजी महाराज) स्व० जैनाचार्य श्रीमद् विजयवल्लभ सूरिश्वरजी जीवन चरित्र पृष्ठ ८० पर पढ़ें ( जीवन चरित्र पृष्ठ २६ पर पढ़ें) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीमद विजय समुद्र सरीश्वरजी म० शिष्य सहदाय सहित जैनाचार्य श्री मद् विजयसमुद्र सूरीश्वरजी म० - (परिचय पृष्ठ १४२ पर) प्रथम पंक्ति ( खड़े हुए ) मुनि जितेन्द्र विजयजी, ज्ञान विजयजी, सुमन विजयी और विनीत विजयजी। दूसरी पंक्ति ( बीचमें ) गणिवर श्री जनक विजय जी, थाचार्य श्री समुद्रसूरिजी तथा मुनि श्री शिव विजयजी । तोसरी पंक्ति (बैठे हुए ) मुनि श्री शांति विजयजी बलवंत विजयजी, सुरेन्द्र विजयजी तथा न्याय विजयजी। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ (परिचय विभाग ) पंजाब केसरी - युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज का मुनि समुदाय पट्ट परम्परा श्री बुद्धि विजयजी गणी 1 -90 आ श्री विजयानन्दसूरिजी ( ७३ वाँ पाठ ) (आत्मारामजी म० ) ' श्री विजयवल्लभ सूरजो ( ७४ वाँ पाट ) आचार्य श्री की शिष्य परम्परा पंजाब केसरी युगवीर आचार्य श्री मद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी म० न्यायाम्भोनिधि जंनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी के शिष्य श्री लक्ष्मी विजयजी के शिष्य श्री हर्ष विजयजी शिष्य थे । आचार्य श्री का जीवन चरित्र 'महाप्रभाविक जैना 'चार्य' विभाग में पृष्ठ ८६ पर दिया गया है । आप श्री द्वारा १= शिष्य प्रवर्जित हुए: - १ श्री विवेक विजयजी, २ आचार्य श्री ललित सूरिजी ३ उपाध्याय सोहन विजयजी, ४ विमल विजयजी ५ विज्ञान विजयजी ६ श्र० विद्या सूरिजी ७ विचार विजयजी विचज्ञण वि० शिव विजयजी १० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat विशुद्ध वि० ११ पं० विकास विजयजी १२ दानं वि० १३ विक्रम वि० १४ विशारद वि० १५ विश्ववि० १६ बलवन्त वि० १७ जय वि० तथा १८ विनीत विजयजी | [१] प्रथम शिष्य श्री विवेक विजयजी के शिष्य आचार्य श्री उमंगसूरिजी विद्यमान हैं। आपके ८ शिष्य हुए जिनमें पन्यासजी श्री उदय विजयजी 'गणी' वीर विजय, धीर वि० चरण कान्त वि० तथा सुभद्र वि० विद्यमान हैं । पं० श्री उदय विजयजी के ६ शिष्यों में से ३ शिष्य विद्यमान हैं । [२] आचार्य श्री ललित सूरिजी (परिचय पृष्ठ ६० पर) के शिष्य आचार्य श्री पूर्णान द सूरिजो विद्यमान है | आपके प्रक श विजय' हेम विजय तथा ओंकार विजय नामक ३ शिष्य वर्तमान हैं । = (३) उपाध्याय श्री सोहन विजयजी के ४ शिष्य हुए-मित्रवि यजी, आचार्य श्री समुद्र सूरिजी, सागर वि० (स्वर्गस्थ ) तथा रवि विजयजी । श्राचार्य श्री मद् विजयसमुद्रसूरिजी के शिष्यों में www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन श्रमण संघ का इतिहास dillIn HD ODIII) II II IIDIIB IITD DIL 110CTIM HIDDITOmallu DA D AGI IIIDDI IIIDOID HD HILD DAILER ill) 11II IITDilim Probawdatavaasna राम पिपेवि५ महारा से ६ विद्यमान हैं:-१ शीलविजय (स्व०) २ वल्लभः स्व. श्री विवेक विजयजी महाराज दत्त वि०, सुरेन्द्र ३ वि० ४ न्याय वि०, ५ नीति वि० (स्व०)६ समता वि०७ शांति वि०८ सुमन वि० (४) विमलविजय जी के विबुध विजयजी । (५) आ० विद्यासरिजी के उपेन्द्र वि० (स्व०) प्रीति विजय एवं रत्न वि०। (६) विचार विजयजी के वसंत विजय । (७) विकास विजयजी के ६ शिष्य-रूप वि. विनय वि. (स्व.) गणि इन्द्र वि., चन्द्रोदय वि. ६ वि०, तथा कैलाश वि०। () विशारद विजयजी के-हिम्मत वि० तथा शुभंकर विः। अन्य आज्ञानुवती मुनिराज १ प्रवर्तक (स्व०) कान्ति विजयजी के शिष्य चतुर विजयजी के शिष्य आगम दिवाकर पं० पुण्य विजयजी म. तथा आचार्य मेघस रिजी. लाभ विजयजी आदि तथा पुण्य विजयजी के शिष्य ५० दर्शन वि. जयभद्र वि. चन्द्र वि चरण वि० आदि। २ हंस विजयजी के ३ शिष्यों के प्रशिष्य । श्री के प्रथम शिष्य जिनमे दो रमणिक वि० तथा हेमेन्द्र वि. विद्यमान हैं । इसके अतिरिक्त उद्योत विजयजी, जयविजयजी, श्री विवेक विजयजी महाराज का जन्म बलाद अमर विजयजी, खांति वि०, प्रिय विमहिम्मत (अहमदाबाद) में हुआ। पिता का नाम डुगरशीभाई विजयजी ६ नेमविजय जी आदि स्वर्गस्थ मुनिराजों तथा माता का नाम सौभाग्य लक्ष्मी था । संसारी नाम की शिष्य परम्पराएँ भी आपही की आज्ञानुवर्ती डाह्या भाई था। स० १६४८ में आ० विजयानन्द सरिजी रही और आज इन्हीं के समुदाय के साथ है। के शुभ हस्त से पट्टी (पंजाब) में दीक्षित हुए। तथा साध्वी समुदाय तश्रा० विजय वल्लभ सरि के प्रथम शिष्य कहलाये । ___ आज्ञानुवर्ती साध्वियों में प्रवर्तिनी साध्वी देव आप बड़े सरल स्वभावी, शान्त मूर्ति एवं महान् श्री जी, जय श्री जी, प्र० दान_श्री जी, प्र० माणेक तपस्वी थे। आयम्बिल उपवास की तपस्या प्रायः श्री. प्रम श्री जी, प्र०कपूर श्री जी, चित्त श्री नीतीहती थी। स्वाध्याय में निरत रत रहते हुए। जी, शीलवती श्री जी, तथा विदुषी मृगावती श्री जी आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में । जीवदया, शिक्षा प्रचार आदि के कई कार्य किये। आप की आज्ञानुवर्ती साध्वियों की संख्या १८० के बड़े गुरु भक्त थे। सं० २००० माह सुदी १२ को रात्री लग अग है। डीpaper को ११। बजे बलाद में स्वर्ग सिधारे। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणमामा- स्व० उपाध्याय श्री सोहन विजयजी संस्थाओं की ओर से भी आप को मान पत्र दिए गए । लाखों हिन्दु व मुसलमानों को आपने मांसा. हार का त्याग क ाया। कसाइयों ने अपने कसाई खाने तक छोड़ दिए। इन्हीं गुणों के कारण आपको "सौरिकजन ( कसाई ) प्रतिबोधक" कहा जाता है। सामाजिक उत्थान और संगठन के लिए आप के सतत् प्रयत्नों का परिणाम "श्री आत्मानन्द जैन महा सभा (पंजाब)" के रूप में हमारे सामने है। आप हो इस महान संस्था के जन्म दाता थे। आपके प्रयत्नों से पंजाब के जैनों में स्वदेशी का प्रचार, दहेज कुप्रथा का विनाश और ओसवालों व खण्डेलवालों में विवाह रिश्ता नाता प्रारंभ हुआ। श्राप बोलते थे तो ऐसा लगता था कि पंजाब जैन समाज की आत्मा बोल रही है। आप भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के पूरे समर्थक थे । अग्रेजों श्राप श्री जी का जन्म जम्मू (कश्मीर ) के के दमन चक्र को देख कर आप ब्रिटिश सरकार को कोसने से भी न डरते थे। आप की सेवाओं और ओसवाल कुल में हुआ। आपका बचपन का नाम समाज जागरण के अथक प्रयत्नों से प्रभावित हो वसन्त राय था। वि० संवत १९६० में समाना में कर सं० १६८१ में जैन लाहौर में संघ ने आप श्री को आपने स्थानक वासी मुनि श्री गैंडे राय जी के पास उपाध्याय पदवी विभषित किया। दीक्षा ली। लगातार परिश्रमों और दिन रात कार्य में तीर्थ श्री शत्र जय जो की यात्रा पश्चात वि० जुटे रहने के कारण आप का स्वास्थ्य बिगड गया । सं० १६६३ में दसाडा ( गुजरात ) में तपस्वी मुनि आप सूख कर कांटा हो गए किन्तु जन समाज के उत्थान में हर समय प्रयत्न शील रहे। थकावट श्री शुभ विजय जी के द्वारा आपकी संवेगी दीक्षा आप से कोसों दूर भागती थी। सूखे शरीर से भी हुई। आप पू. गुरु देव श्री विजय वल्लभ सूरि आप समाज सुधार योजनाओं को कार्य रूप देते के शिष्य कहलाए। रहे। परन्तु कब तक । अनन्तः गुजराँवाला में आप की गुरु भक्ति आद्वितीय और असीम थी। दुष्ट काल का बुलावा आ गया और एक दिन (सं० १६८२) में वह इस वीर पुत्र को सदा के आप देश भक्त और पारस्परिक प्रेम के समर्थक, हमारे से छीन कर ले गया। उन का जीवन युग थे। कई नगरों की नगरपालिका कमेटियों ने आप यगान्तर तक हमारा पथ प्रदशन करता रहेको अभिनन्दन पत्र दिये थे। मुसलमान और सिख यहो प्रार्थना है। लेखक-महेन्द्र मस्त' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास DOINDAIN WINDOMINITIAL-INDIIIIIIDOHIBITIONSIDD HISHE I DIO HIDDITIDEOINDI प्राचार्य श्री विजय उमंगसूरिजी प्राचार्य श्री विजय समुद्र सूरिजी (लेखक:-महेन्द्र कुमार 'मस्त' समाना पंजाब ) m PRINCRETREETTE NCODINmeet UERYथGHEREयरछाहाराका आप श्री का जन्म सं. १६४६ में रामनगर (पंजाब) में हुआ। पिता का नाम गंगारामजी तथा माता का नाम कमदेवी था। दीक्षा सं०१६६४ कार्तिक वदी ३ तलाजा सौराष्ट्र में हुई। सं०१६७६ कार्तिक वदी ५ को पाली में पन्यास घद । सं० १६६२ वैशाख सुदी ४ को वलाद में उपाध्याय पद तथा वैशाख सुदी। ६ स० १६६२ को बडौदा में आचार्या पद प्रदान किया युगवीर प्राचार्य भगवान पंजाब केसरी श्री मद् गया तथा बडौदा आदि नाथ स्वामा के मन्दिरजी के विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज के पट्टधर शान्तमति, प्रतिष्ठा महोत्सव के शुभ अवसर पर सं० २०८ परमगुरु भक्त श्री मद् विजय समुद्र सूरिजा के नाम फाल्गुन शुक्ला १० गुरुवार को श्री संघ समक्ष प्रा० से कौन अपरिचित होगा। पंजाब, मरुधर, गुजगत श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी ने अपने आपका पट्टधर तरीके घोषित किया। तथा सौरष्ट्र में आपके द्वारा किये गए कार्य, जन आप श्री की अध्यक्षता में अनेक स्थानों पर कल्याण तथा समाज सुधार के सफल प्रयास एव प्रतिष्ठा महोत्सव, उपाधान, उद्यापन, शान्ति स्नात्र शासन सेवाएँ सव विदित हैं। आदि अनेक धार्मिक उत्सव सम्पन्न हुए हैं। साथ ही जैनधर्म प्रचार, साहित्य सजन, जनेतरों आचार्य श्री जी का जन्म पाली मारवाड़ में सं० को प्रबोध आदि प्रवृत्तियों की ओर सदा से आप श्रा १६४८ मगसर सुदि ११ (मौन एकादशी ) के दिन का विशेष लक्ष्य रहा है। ओसवालवंशीय वागरेचा मूना गोत्रीय श्रीशोभाचंदजी आप श्री के प्रधान शिष्य पन्यासजी श्री उदय के घर सुश्री धारणीदेवी की कुक्षी से हुआ। विजयगणी भी बड़े प्रभावशाली मुनि हैं। आपका गृहस्थ नाम सुखराज था। बालक सुखराज Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १४३ SITHAIRAIMOTIS1111111110 111DILIPINSain in ITI SAMAJHISAILI HINDI D IHAIIIII अपने जीवन की मंजिलें पार करते हुए युवावस्था को आचार्य श्री विजय मुद्रसूरिजी जन साधारण में प्राप्त हुए । परन्तु आपका यौवन वैराग्य रस-पूर्ण तथा अत्यंत लोकप्रिय हैं। साधु, मुनिराज तथा दूसरे भक्ति रस पूर्ण था । फल स्वरूप वि० १६६७ फाल्गुण आगय गण भी आरसे परम स्नेह रखते हैं । आचार्य कृष्णा ६ को आप भी अपने बड़े भाई पुखराज के पद श्री विजय ललितसूरिजी श्री मद् विजय वल्लभ चिन्हों पर चलते हुए गुरुदेव श्री विजय बल्लभ सूरीश्वरजी के मुख्य पट्टधर थे । मारवाड तथा दूसरे सूरीश्वरजी के करकमलों द्वारा सूरत में दीक्षित होकर प्रान्तों में उनकी सेवाएं तथा महान कार्य स्वर्णाक्षरों क्रान्तिकारी उपाध्याय श्री सोहन विजयजी के शिष्य में लिखे रहेंगे। जिस समय हमारे चरित्र नायक कहलाए । अब पुखराजजी तथा सुखराजजी क्रमशः अपने गुरुदेव श्री की भक्ति तथा समाज सेवी सागर विजयजी तथा समुद्र विजय जी हो गए। कार्यों में लगे हुए थे तो तो स. आचार्य श्री विजय आपकी बहन ने भी दीक्षा लेली तथा उनका नाम ललित मूरि जीने अपने एक निजि पत्र में श्री विजय हस्तिश्री जी हुआ। समुद्र मूरिजी ( उस समय पन्यास जी) के प्रति जो वात्सल्य, सद्भावना, स्नेह तथा कृपा प्रकट की थी जीवन के नवीन अध्याय में प्रवेश करके आचार्य वह यहाँ उधत की जाती है:श्री जी गुरु भक्ति तथा समाज सेवा में जुट गए। __ "स्नेही पन्यासजी। तुम भी मनुष्य हो, मैं भी अनेक पुस्तकों का आपने संपादन किया तथा अंजन हर मनुष्य हूँ। तुम से वृद्ध हूँ । मगर भावना होती है कि शलाला व प्रतिष्ठा आदि कार्य सम्पन्न कराए । गुरुदेव श्री विजय वल्लभसूरिजी महा० के पास रह कर लग यदि मैं राज गुरु होऊँ तो तुम्हारे शरीर प्रमाण सोने भग ४० वर्ष तक उनके निजि सचिव का कार्य करते की तुम्हारी मूर्ति बनवाकर नित्य तुमको नमन कर तुमको वन्दन करू । तुम्हारी भक्ति, तुम्हारी विशुद्ध रहे। आपकी लगन, योग्यता एवं गुरु भक्ति व लेश्या, तुम्हारा सरल स्वभाव यह सब तुम्हारा तुम्हारे अनुभव पर ही गुरुदेव ने आपको विशेप करके में हो है । गुरुदेव तुम्हाग कल्याण करें तथा भव २ पंजाब के लिए नियुक्त किया। संवत् १६६३ में कार्तिक तुमको गुरु भक्ति फलवती हो ।” शुदि १३ को अहमदाबाद में आपको गणिपद तथा इसी वर्ष मगर वदि ५ को पन्यास पद से भूिषित वर्तमान में श्री गुरुदेव श्री विजय समुद्रसूरिजी किया गया। बडौदा में वि० सं० २००८ फाल्गुण बम्बई से चलकर सौराष्ट्र गुजरात एवं मरूघर सुदि १० को उपाध्याय पद से और थाणा (बम्बई) में प्रान्त में अपनी जन्म भूमि पाली से आगरा पधारे। माघ सुदि ५ सं० २००६ को आचार्य पद से विभूषित आप ही के उपदेश तथा प्रेरणा से फालना जैन किये गये। उसी समय थाणा में गुरु देव श्री जी ने इण्टर कालेज में डिग्री क्लासेज शुरू हुई । भगवान आपको पंजाब का भार संभलाया और पंजाब में जाने आपको चिरायु करें तथा हजारों बहार थापका को विशेष तौर पर कहा। अभिनन्दन करती रहें। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन श्रमण संघ का इतिहास DER PHDCP near Rollen The Count ng DO GRAND ll ll मुनि श्री शिव विजयजी पंजाबी आप पूज्य आचार्य श्री मद् विजय वल्लभ सूरिजी के शिष्य हैं । आपका जन्म सं० १६३६ वैशाख सुदी १० को गुजरांवाला में हुआ। पिता का नाम लाला चुन्नीलालजी दूगड़ तथा मता का नाम अकिबाई है । संसारी नाम मोतीलाल दूगड़ था । सं० १६८२ फा० शु० ३ को बडौदा में आचार्य श्री के पास दीक्षित हुए । आप बड़े अच्छे कवि हैं । आपने कई स्तवन एवं ढालें रची हैं । वृद्धावस्था होते हुए भी उम्र विहारी रह कर धर्म प्रचार में लीन हैं । श्री पं० उदयविजयजी गणी आप आचार्य श्री वि. उमंगसूरिजी के प्रधान शिष्य हैं। आपका जन्म वि० सं० १६६१ बैशाख शुक्ला १४ को हुआ । पिता का नाम मांगीलालजी बार भैया तथा माता का नाम समुबेन था । संसारी नाम शान्तिलाल । आपकी बालकाल से ही वैराग्यम मय वृति थी । संवत् १३८५ जेष्ठ वदी ८ को हरीपुरा के वासु पूज्य जी के मन्दिर में आ श्री उमंगसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की । १६८६ में आ० श्री विजय वल्लभ सूरिजी की अध्यक्षता में योगोद्वहन किया। सं० १६६८ मिंगमर सुदी ६ को आप पालनपुर में गणो तथा पन्यास पद से विभूषित किये गये । कपड़ वंज में आप श्री द्वारा आचार्य श्री की अध्यक्षता में उपधान माला महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ और भी कई धार्मिक कार्य आप श्री के शुभ हस्त से हुए व होते रहते हैं । com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन श्रमण- ौरभ श्राचार्य श्री विजय पूर्णानन्दसूरिजी आप आचार्य श्रीविजय वल्लभ सूरिजी के शिष्य आचार्य ल'लत सूरिजी के पट्टधर एक प्रभावशाली आ० आचार्य हैं। दक्षिण भारत में जैन धर्म प्रचारार्थ एवं जैव शासन को प्रभावना हेतु आप श्री के प्रयत्न अतीव प्रशमनीय हैं। पं० जनक विजयजी गणी १४५ दि० पं. पुण्य विजयजी महाराज आगम साहित्य का युगानुकूल लेखन, शोधन तथा प्राचीन ग्रन्थों का अन्वेषण तथा ज्ञान भंडारों के अमूल्य रत्ना को सुव्यवस्थित करने की प्रवृत्तियों के कारण आज आप समस्त जैन समाज के बड़े श्रद्धा भाजन एवं पूज्यनीय बने हुए हैं । आप तीन महीने की उम्र में मोहल्ले में हुई भयंकर आग दुर्घटना के समय एक मुस्लिम भाई द्वारा बचाये गये यह पुन्य की विजय थी इसीसे 'पुण्यविजय' नाम रक्खा गया। आपकी माता ने भी दीक्षा अंगीकार की । आपके गुरु चतुर विजयजी बड़े आगम वेत्ता विद्वान एवं अन्वेषक थे । अतः इनकी प्रवृत्ति भी इसी साहित्यिक दिशा में ही बढी और आज आप श्र द्वारा जैसलमेर खंभात बड़ौदा आदि कई स्थानों के प्राचीन ग्रन्थ भंडारों का उद्धार हुआ है। आप आचार्य श्री समुद्रसूरिजी के प्रधान प्रिय गुरु भक्त शिष्य हैं । जैन धम प्रचार एवं समाजोन्नति हेतु चापके हृयद में एक उत्साह पूर्ण लगन है आपके विचार युगानुकूल सुधरे एवं सुलझे हुए हैं। आपकी मिलनसार प्रवृत्ति आगन्तुक को सहज ही में आकर्षित किये बिना नहीं रहती । wwwwwumnaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास A n amaAILERIOINDAll ID DIDIHDINDIATTID AIITH THIS DAIHIDARSHID DImdilIn आ० श्री. विजय वल्लभमूरिजी की आज्ञानुवर्ती सन १६५४ ई० में आपका आगमन पंजाब में हा। दस २ तथा पन्द्रह २ हजार नर नारियों के विदषो साध्वी श्री मगावती श्री सामने आपके भाषण हुए । आपके आह्वान पर सारे पंजाब की जैनाजैन जनता दहेज के विरुद्ध कटिबद्ध (लेखक-महेन्द्रकुमार 'मस्त'-समाना पंजाब) । हुई। पैःसु के मुख्य मंत्री श्री वृषभान की उपस्थिति भगवान श्री ऋषभ देव के समय से लेकर आज मे सैकड़ों नवयुवक और नवयुवतियों ने दहेज न लेने तक जैन समाज में अनेकों ऐसी साध्वियां हुई हैं देने की प्रतिज्ञाएँ की । श्री प्रात्मानन्द जैन हाई स्कल, जिन्होंने अपने आत्मबल, चरित्रपल तथा तपोबल लुधियाना क लिय आप ही के उपदेश से अस्सी से सारे संसार के धारा प्रवाह को परिवर्तित कर हजार रुपये का दान इकट्ठा हुआ। दिया। इन महा सतियों ने अपने आदर्श जीवन होशियारपुर (पंजाय) का जन हाई स्कूल प्रायमरी से एक नए युग को जन्म दिया है। से हाई स्कूल बनना शुरु हुआ। नकोदर का जैन कन्या __साध्वी श्री मृगावती का जन्म राजकोट (सौराष्ट्र) स्कूल मिडल बनना प्रारम्भ हुई। अमृतसर में श्री आत्म बल्लभ शिल्प विद्यालय की स्थापना हुई । वहाँ के एक धनाढ्य जैन घराने में हुआ उदाणी गोत्रीग के अन्ध विद्यालय के लिये हजारों रुपये एकत्र माता-शिवकुंवर बहन-ने अपनी ग्यारह वर्षीय बेटी करवाये। रोपड़ और मालेरकोटला में श्री आत्म को साथ लेकर दीक्षा ग्रहण कर लो। दोनों के नाम वल्लभ जैन भवन ( उपाश्रय ) बने । पंजाब के जैनों क्रमशः शीलवती श्री तथा मृगावती श्री हुआ । माँ की मुख्य प्रतिनिधि सभा श्रीवास्मानन्द जैन महासभा बेटी का रिशता गुरूणी तथा शिष्या का रिशता हो का अधिवेशन अपनी निश्रा में बुलगकर उस से गया। अब बाल-साध्वी मृगावती की शिक्षा शुरू समाज कल्याण के महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास करवाए हुई। वर्षों के परिश्रम के बाद आप ने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत तथा गुजराती पर काफी अधिकार । तथा पैसा फण्ड जारी कि- । गुरुदेव श्री विजयानन्द प्राप्त किया। अपने बंगाल-प्रवास में बंगला भाषा सूर सरिजी के जन्मस्थान "लहरा" में ४२ फीट ऊँचा मनोहर कीर्तिस्तम्भ बनवाया। पट्टा में लड़के लड़कियों तथा पंजाव में घूमते हुए अंग्रेजी सीखी। उर्दू । के लिए श्री जैन धार्मिक पाठशाला स्थापित की। कवियों के पद्य भी आपने खूब याद किये हैं। शिमला, कांगड़, भाखड़ा नगल तथा कसौली जसे स्व. आचार्य श्री विजय वल्लभसरिजी की आज्ञा दुर्गम प्रदेशों में धनं प्रभावना की । बाखन मैमोरियल से आपने एक चातुर्मास कलकत्ता में किया तथा क्रिश्चियन मैडिकल हॉस्पिटल, लुधियाना की धर्मशासनोन्नति एवं धर्म प्रभावना में पूग योग दिया। शाला के लिए भी हजारों रुपये दान दिलवाये । काश्मीर गीता, उपनिषद्, रामायण, कुरान, बाइबल तथा के जम्मु शहर में महावीर जयन्ती के अवसर पर वहाँ त्रिपिटक आदि खूब मनन किये हैं। आपके सरस, के मुख्यमन्त्री बख्शी गुलाब मुहम्मद ने साध्वी श्रा प्रभावोत्पादक तथा नूतन शैली वाले व्याख्यानों में की प्रेरणा पर ही जैन स्थानक के लिए भूमि देने की जेनेतर लोग अधिक हाते हैं । पाषांपुरी में श्रीगुलजारी घोषणा की। अम्बाला शहर में श्री वल्लभ विहार लाल नन्दा के सामने विशाल जन समूह में आपने (समाधि-मन्दिर) का बनना आरम्भ हुआ। भूमि दान पर विद्वता पूर्ण भाषण दिया था। भारत आपने महिला स्वाध्याय मंडल बनवाए हैं। की मन्त्रिणी सुश्री तारकेश्वरी सिन्हा भी आप से भली चिरकाल से आप शुद्ध खादी का प्रयोग करते हैं। भाँति परिचित है। आपकी एक ही शिष्या सुज्येष्ठा श्री के नाम से है। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू० पं० श्री जीतविजयजी गणी " सुमित्रविजयज," मोतीविजयजी," शासन सम्राट, सूरिचक्रवर्ती, अनेकतीर्थोद्धारक जैनाचार्य श्रीमद् विजय नेमीसूरिश्वरजी महाराज का मुनि समुदाय REFR (३) आ० श्री विजयनन्दन सूरीश्वरजी म० (५) आ० श्री विजय अमृतसूरीश्वरजी म० (८) आ० श्री विजयकिस्तुर सूरीश्वरजी म० पू० आ० श्री के समुदाय में १३५, करीब साधु हैं । जो न्याय-व्याकरण - साहित्य-दर्शन - ज्योतिषशास्त्रों में लब्धप्रतिष्टत हैं । उनमें से मुख्य रूप से: " " " در " " " در " " " " जैन श्रमण- - सौरभ रामविजयजी मेरुविजयजी यशोभद्रयजयजी गणी در !! 39 स्वर्गीय जैनाचार्य श्रीमद् विजय नेमी सूरीश्वर म० सा० अपने समय में एक महान् प्रभावशाली, सर्व प्रिय एवं महान् शासन प्रभावक जैनाचार्य हुए हैं। और यही कारण है कि जैन संघ आज भी आप श्री के नाम के साथ शासन सम्राट, सूरि चक्रवर्ती, तीर्थोद्धारक आदि सम्मान पूर्ण शब्द जोड़ कर अभिनंदन प्रकट करता है । इन सम्बोधनों से ही आचार्य श्री के महान् व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता है। आप श्री का संक्षिप्त जीवन चरित्र "महा प्रभाविक जैनाचार्य" विभाग में ८२ पृष्ठ पर दिया गया है । आप श्री की परम्परा का मुनि समुदाय काफी बड़ा है । वर्तमान में समुदाय में निम्न आचार्य विद्यामान हैं:( १ ) आचार्य श्री मद् विजय दर्शन सूरीश्वरजी म० (२) आ० श्री विजय उदयसूरिश्वरजी म (४) आ० श्री विजयविज्ञान सूरीश्वर मं० (७) आ० श्री विजय लाक्यय सूरीश्वरजी म० पू० पं० श्री दक्षविजयजी गणी देवविजयजी " " " " " " در ار " " सुशीलविजयजी गणी १४७ बोक जयनन्द विजयजी 29 ११ पुण्यविजयजी ار ور 33 धुरन्धरविजयजी गणी, प्रियंकरविजयजी गणी, चन्द्रोदयविजयजी गणी, आदि गणी वर्य विद्यमान हैं । तथा मुनि श्री हेमचन्द विजयजी, पं० शुभंकर विजयजी, पं० परमप्रभविजयजी, पं० महिमा प्रभ विजयजी, पं० चन्दन विजयजी, सूर्योदय विजयजी, खांति विजयजी, निरंजन विजयजी आदि हैं। yanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन श्रमण संघ का इतिहास आचार्य श्री विजयामृतसूरिजी sive Growi शासन सम्राट तपोगच्छाधिपति आचार्य नेमिसूरीश्वरजी के पट्टधर शिष्य, शास्त्र विशारद, कवि रत्न, पियूषयपाणि आचार्य श्री विजयामृत सूरीश्वरजी का जन्म सौराष्ट्र प्रदेश में विक्रम संवत् १६५२ माघ शुक्ला अष्टमी के दिन ग्राम बोटाद देशाई कुटुम्ब में हुआ। पिता का नाम हेमचन्द देशाई तथा माता का नाम दिवाली बाई था । विक्रम संवत् १६७१ राजस्थान सिरोही जिला, जावाल ग्राम, ज्येष्ठ मास, में दीक्षा हुई । अहमदाबाद, १६६२ में आचार्य पदवी --मिली । सप्तसन्धान महा काव्य की सरणी नाथ की टीका, कल्पलता व तारिका, वैराग्य शतक आदि ग्रन्थों की रचना की है । पन्यास रामविजयजी गणी, पं० देवविजयजी गणी पं० पुण्य विजयजी गरणी, पं० धुरंधर विजयजी गणी, यं परम प्रभविजयजी गणी आदि बड़ े विद्वान् तथा प्रतिष्ठित शिष्यगण है । आपके उपदेश से 'बम्बई, उपनगर बोरीवली पूर्व दौलत नगर में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन मन्दिर श्री अमृत सूरीश्वरजी ज्ञान मन्दिर, श्री वर्धमान तप ||||||||||||| H पुण्योदय शाला, तथा वर्धमान तप निवास ये चार स्थायी कार्य अन्तिम चार वर्ष में हुए हैं। बोटाद - में जैन मन्दिर, और ज्ञान मन्दिर, अमदाबाद धामा सुतार पोल में ज्ञान मन्दिर आपके उपदेश हुआ है। पं० श्री प्रियंकर विजयजी गणी संसारी नाम पोपटलाल । जन्मः - विक्रम संवत् १६६६ काश्रावण शुक्ला १५ बुधवार ता. ५-८ १६१४ गुजरात के देहग्राम के पास हरसोली (ग्राम) में पिता नगीनदास गगलदास (डमोडा) वडोदरा । वर्तमान निवास-अमदाबाद जुना महाजन वाडा | माता का नाम माणेक बेन । दशा श्रीमाली । दीक्षा इडर में संवत् १६८६ मार्गशीर्ष शुक्ला एकादसी वृहद्दीक्षा उमा संवत् १६.८६ माघ कृष्णा ६ । गुरु का नाम आ० म० श्री विजयदर्शनसूरिजी । आप व्याकरण न्याय, काव्य, कोष, ज्योतिष तथा धर्म ग्रन्थ के प्रखर पंडित हैं आपकी रचनाएं निम्न हैं:- हेमलघुप्रक्रिया टिप्पणी अलंकृत | शान्तिनाथ जिन पूजा (गुजराती) आदि । सं० २००७ चैत्र कृष्णा १३ को गणी पद तथा वैशाख शुक्ला ३ को अहमदाबाद में पन्यास पद से विभूषित हुए। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOCHOTE जैन श्रमण-सौरभ 54 1 19 10 पन्यासजी श्री मेरु विजयजी गणि आ. श्री विजयोदय सूरीश्वरजी म० के शिष्य रत्न प्रसिद्ध वक्ता पन्यासप्रवर श्रीमेरु विजयजी गणि वर्य का जन्म इडर के समीपवर्ती 'दीसोत्तर' गांव में वि० संवत् १६६२ में हुआ। पिता का नाम मोतीराम उपाध्याय और माता का नाम सूरजबाई था ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने पर भी पूर्व पुण्योदय से जैन धर्म प्राप्त हुआ । सं० १६८५ में वतरां गांव में आचार्य श्री विजयामृतसूरीश्वरजी के करकमलों से दीक्षा ली ! सं० २००६ में सुरेन्द्रनगर में आपको श्री भगवती जी का योगोद्वहन पूर्वक आपके गुरुदेव श्री विजयोदय सूरिजी म० ने गणिपद और सं० २००७ में राजनगर में आपको पन्यासपद प्रदान किया । आप जैनागम, व्याकरण, साहित्य के महान् विद्वान होने के साथ साथ प्रखर व्याख्याता एवं शासन प्रभावक मुनि हैं । अनेक गांव नगरों में विचरते हुए आपने कई भव्यों को सदुपदेश से धर्मवासित बनाये । आपने तीन उपधान वहन कराये। कितने ही संघ निकाले और कई जिन मन्दिरों की प्रतिष्ठा की । अभी आप बम्बई आदीश्वरजी की धर्मशाला में विराजते हुए जैन समाज के अनेकानेक कार्य कर रहे हैं। पं० श्री देव विजयजी गणि आचार्य श्री विजयामृत सूरीश्वरजी के शिष्य रत्न श्री देवविजयजी गणिवर्य ने सं० १६८७ में 'नांडलाई' (मारवाड़) में पन्यासजी श्री सुमित्र विजय जी म० के पास प्रव्रज्या स्वीकार की। आप श्री ने भी श्री विजय नेमिसरिजी म० की छात्रछाया में व्याकरण प्रकरण सिद्धान्तादि शास्त्र का सम्यक अध्ययन वै० सुदी ३ को पन्यासपद प्रदान किया गया। आप किया । सं. २००७ का. वदी ६ में गणिपद और २००७ श्री अभी अपने मधुर वचनों से अनेक भव्यों को उपदेश दे रहे हैं। आप श्री का जन्म मेवाड़ के सलुम्बर गांव में वि० सं० १६६७ में हुआ । पिता का नाम कस्तूरचन्दजी और माता का नाम कुन्दनबाई था । मुनि श्री खान्तिविजयजी ५. मुनिराज श्री शान्ति विनय મહારાજ १४६ नन्म- मासी (मारवाड) संसारी नाम-खोमचन्दजी । जन्म सं० १६६४ जन्म स्थान बाली ( मारवाड़) । पिता-हजारीमलजी अमीचन्दजी । माता-सारीबाई । जाति-बीसा श्रोसवाल | गौत्र - हटुडिया राठौड । दीक्षा स्थान- १६८८ राजस्थान ] । गुरु का नाम-आचार्य विजय अमृतसूरिजी महाराज। आपने अपने लघुबंधु को उपदेश देकर दीक्षित किया जिनका नाम मुनि श्री निरंजन विजयजी है। जावाल www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास मुनि श्री विशालविजयजी मुनि श्री निरंजनविजयजी संसारी नाम-विनयचन्द्र' । जन्म-माघ पूर्णिमा सं० १९८६ । जन्म स्थान-इन्दौर (मालवा)। पिता का नाम शाह शिवलाल नागरदास जौहरी। माता का संसारीनाम-नवलमलजी। जन्म सं० १६७४ । नाम कांता बहेन । जाति तथा गौत्र-जैन वणिक दसा (जन्म स्थान, पिता माता आदि मुनि खान्ति विजयजी श्रीमाली । दीक्षा तिथि व स्थान-चैत्र शु०७ सं. २००६ के समान)। दीक्षा-सं० व स्थान-१०६१ कदम्बगिरि । बम्बई। गुरुनाम-नेमिसरिजी के शिष्य आ० श्री बडी दीक्षा-१६६१ जेठ सुदी १२ । अमृत सूरीश्वरजी महाराज। अल्प समय में अच्छी आप एक सुप्रख्यात विद्वान लेखक एवं साहित्य प्रगति की है। आप एक अच्छे लेखक, कवि एवं कार हैं। साहित्य सृजन की दिशा में विशेष लक्ष्य प्रखर वक्ता हैं। वर्द्धमान देशना, चारु चरित्र, है। आप द्वारा लिखित १२०० पृष्ठों का "संवत् कुलदीपकवंक,चूल चरित्र आदि पुस्तकों के लेखक हैं। प्रवर्तक महाराजा विक्रमा दित्य" अनुपम कृति है। आपकी दीक्षा के ६ महिने बाद आपके लघुभ्राता छोटे मोटे ४० के करीब और भी कई प्रकाशन हैं। किशोरचन्द्र, २|| सालबाद दूसरे लघु भ्राता रमेशचंद्र आपकी शुभ प्रेरणा से "कथा भारती” नामक को दीक्षा हुई और उनके करुणा विजयजी, और द्विमासिक सं० १०१२ से लगातार निकल रहा है। राजशेखर विजयजी क्रमशः नाम दिये गये और आप इस पत्र में सचित्र सभी रसों के पोषक, विविध सुन्दर (विशाल विजयजी) के शिष्य घोषित हुए। शैली के चरित्र आते हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ THIS IS INDIBIHIDALITANDAI IIILHIIDOILDINDAGIC UDSIERISTIHDAIISADIHIDAILIINDI HIDAMIL AHIRWARIDIH Extle. HALEGoyal CILITIALA QuvaLA मासुम्य सात लाख श्लोक प्रमाण नूतन-संस्कृत-साहित्य-सर्जक साहित्य महारथी-कवि रत्न प्राचार्य श्री विजय लावण्य सूरीश्वरजी महाराज आप महान ज्योतिधरसरि सम्राट प्राचार्य श्रीमद् विजय नेमिसरीश्वरजी के पट्टालंकार हैं। आपका जन्म सं० १६५३ भाद्रपद कृष्णा ५ को बोटाद ( सौराष्ट्र ) में हुआ। पिता का नाम सेठ जीवनलाल खेतसी भाई तथा माता का नाम अमृतबाई है। आपका संसारी नाम लवजी भाई था। जाति बीसा श्रामाली। बाल्यकाल से ही आपकी प्रवृत्ति वैराग्यमयी रही । दीक्षा लेने के लिये घरवालों का विरोध होने से आप कई बार घर से भागे अन्ततः १६ वर्ष की आयु में आचार्य सम्राट के पास सं० १६७२ आषाढ़ शुक्ला ५ को सादडी (मारवाड़ ) में दीक्षा अंगीकार की। सं० १९८७ कार्तिक कृष्णा २ को अहमदाबाद में आपको प्रवर्तक पद, सं० १६६० मिंगसर सुदी ८ को भावनगर में गणिपद, सुदी १० को पन्यास पद तथा सं० १६६१ जेठ बदी २ को महुवा में उपाध्यायपद प्रदान किया । गया साथ ही व्याकरण वाचस्पति, कविरत्न तथा शास्त्र विशारद की आपकी साहित्य सेवा जैन जगत को एक अनुपमदेन पदवी से भी विभूषित किये गये। है। निम्न रचनाएं हैं:सं० १६६२ के वैशाख सुदी ४ के दिन अहमदा. (१) ४॥ लाख श्लोक प्रमाण 'धातु रत्नाकर' के बाद में आचार्य पद प्रदान किया गया। अहमदाबाद विशाल ७ खंड। (२) महाकवि धनपाल रचित में हुए तपागच्छीय साधु सम्मेलन में आप 'जैनधर्म 'तिलक मंजरी' ग्रन्थ पर ५० हजार श्लोक प्रमाण पर होने वाले आक्रमणों का प्रतिकार' करने वाली 'पराग' शीर्षक मनोहर वृत्ति (३) कलिकाल सर्वज्ञ कमेटी के विशेष सभ्य बनाये गये। हेमचन्द्राचार्य “रचित सिद्ध हेम शब्दानुशासन" के महान साहित्य सेवा त्रुटक स्थानों का अनुसंधान एवं संशोधन अभूत पूर्व आप एक मधुर व्याख्यानी एवं न्याय, व्याकरण है। (४) तत्वार्थाधिगम् सत्र पर षड दर्शन का प्रकाश एवं जैनागम साहित्य के पारगामी उत्कट विद्वान हैं। डालने वाली 'प्रकाशिका' नामक ४००० श्लोक प्रमाण PRAKRA ANN सारrava/ Ex - मा--- Eોવિજયનેમિસૂર્યધરજી महरा sateghodawatives Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन श्रमण संघ का इतिहास AMACHLIDAmangITUTIDO HIDHIR 111111110 TH HIND DINE Hindi It is HINDI MEANIDTIdalim DAY टीका । (५) 'नय रहस्य' ग्रन्थ पर 'प्रमोहा' नामक में दीक्षित हुए । वि० सं० २००७ का०व०६ को ३००० श्लोक प्रमाण वृति । (६) 'सप्त भंगी नयप्रदीप' वेरावल ( सौराष्ट्र ) में गणिपद तथा सं० २०१७ ग्रन्थ पर २००० श्लोक प्रमाण बाल बोधिनी टीका। वैशाख शुक्ला ३ को राजनगर अहमदाबाद में १५ (७) 'अनेकान्त व्यवस्था अपरनाम जैन तर्क परिभाषा' अन्य गणवरों के साथ महा महोत्सव पूर्वाक पन्यास पर १४००० श्लोक प्रमाण वृत्ति (5) नयामृत तरंगिणी पद विभषित हुए। ग्रन्थ पर 'तरंगिणी तरणी' नामक १६.०० श्लोक आप एक प्रखरवक्ता, कवि तथा लेखक रूप में टीका । (E) हरिभद्र सरि रचित 'शास्त्रवार्ता समुदाय प्रसिद्ध है। २७ वर्ष की निर्मल दीक्षा पर्याय है। ग्रन्थ पर स्याद्वाद वाटिका' नामक २५००० श्लोक व्याकरण, न्याय साहित्य तथा जैनागम के अभ्यासी प्रमाण अनुपम टीका । (१०) 'काव्यानशासन' ग्रन्थ हैं । विनयी किया पात्र तपस्वी एवं सद चरित्रता पर ४० हजार श्लोक प्रमाण सुन्दर वृत्ति (११) श्री आपके जीवन की विशेपताएं हैं। सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत 'द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका प्रन्थ प्राप श्री की रचनाए :-१. श्री सिद्धहेम' व्यापर 'किरणावली' नामक टीका (१२) इसके अतिरिक्त करण ग्रन्थोपयोगी 'श्री सिद्ध हेम शब्दानुशासन देवगुर्वाष्टिका आदि महान् ग्रन्थों की रचनाएं की हैं। सुधा [थम भाग] २. आ० सिद्धसेन दिवाकर रचित - इसी प्रकार व्याकरण, साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष 'द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका' ग्रन्थ का प्रौढ़ भाषामय भावार्थ न्याय, जैनागम आदि सभी विषयों के सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थों ३. आ. श्री जियोवेन्द्रसरि कृत भाष्यत्रय' का का श्राप श्री को गहन अध्ययन है। छन्दबद्ध भाषानुवाद ४. संस्कृत में 'तिलक मंजरी कथा संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में धारा प्रवाही प्रवचन साए तथा उपका गुजराती में संक्षिप्त भावार्थ । ५. करने में एवं गद्य पद्य दोनों में उत्कृष्ट सिद्ध हस्त श्री हरिभद्रमूरि कृत 'शाम्बवार्ता समुच्चय न थ का कवि हैं। भावार्थ ६. श्रा हेमचन्द्राचार्य कृत 'काव्यानुशासन' इस प्रकार आचार्य देव श्री मद् विजय लावण्यम रिजी ग्रन्थ पर संस्कृत में चूणि का । ७. परमाहत कुमारपाल जैन जगत् की एक अनुपम ज्योति हैं। ३७ वष का कृत 'आत्मनि। द्वात्रिशिका' पर 'प्रकाश' नामक विशुद्ध दीक्षा पर्याय है। टीका तथा कुमारपाल राजा की जीवनी । ८. जगद्गुरु आप श्री के विद्वान शिष्यों में पं. दक्ष विजयजी होरसूरिजी कृत 'वद्ध मान जिन स्तोत्र' पर दीपिका' गणि तथा पं० श्री सुशील विजयजी गणि प्रमुख हैं। १ टीका । ६. प्राचीन श्री गौतमाष्ट' पर वृत्ति तथा श्री इसके सिवाय अनेक शिष्य प्रशिष्यादि हैं। विशाल गौतमस्वामी का जीन वृतांत । १०. महाकवि धनपाल का आदर्श जीवन वृतान्त । मुनि समुदाय है। इनके अतिरिक 'प्रभुमहावीर जीवन सौरभ, ए धर्मपं० श्री सुशील विजयजी गणि । नाज प्रतापे, ए तारा ज प्रतापे, दोक्षा नो दिव्य प्रकाश, आत्म जागृति, संधोपमा बत्तीसी, ऋषभ पंचाशिका, श्रा० श्री विजय लावण्य सरि के मुख्य पट्टधर वधमान पचाशिका, सिद्र गिरी पंचाशिका, श्रमा विद्वद् शिरोमणी पन्यासजी श्री दक्षविजयजी के गणि झरणां, सिद्धचक्र । कुसुम वाटिका आदि ५० से भी के शिष्य रत्न, पन्यासजी श्री सुशील विजयजी गणि अधिक ग्रन्थों की यापने रचनाए सम्पादन किया का जन्म सं. १६७३ में चाणमा में हुआ। पिता है। आपके संसारी पिता तथा वर्तमान में पूज्य का नाम चतुरे भाई ताराचन्द तथा माता का नाम वय वृद्ध स्थविर मुनिराज श्री चन्द्रप्रभ विजयजी म., चंचल बहेन था। जाति बीसा श्रमाली चौहान गौत्र। त्येष्ठ बन्धु पन्यास प्रवर श्री दक्ष विजयजी गणि, छोटी संसारी नाम-गोदड भाई। बहिन बाल ब्रह्मचारिणी साध्वीजी रवीन्द्र प्रभा श्री १४ वर्ष की बालवय में आ० विजय लावण्य सरिजी भी दीक्षित अवस्था में संयम मार्ग में आरूढ आत्मो-' के पास सं० १६८८ का.व.२ को उदयपुर (मेवाड़) न्नति रत हैं . Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन इतिहास में सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री श्राचार्य श्रीमद् विजय दान सूरीश्वरजी म० की मुनि-परम्परा मद् विजयानन्द सूरी श्वरजी ( आत्माराम जी) के प्रशिष्य आ श्रीमद् विजय दान सूरीश्वर जी म० भी अपने समय के एक महान् जन शासन प्रभावक आचार्य हुए हैं । आपका जीवन चरित्र 'महा प्रभाविक जैनाचार्य' विभाग में पृष्ठ ८४ पर दिया गया है । आपकी शिष्य पर जैन श्रमण-सौरभ म्परा की मुख्य विशेषता है सबका साहित्य और स्वाध्याय । प्रेम वर्तमान में आपकी परम्परा के वर्तमान मुनिराजों की संख्या २५० के करीब है और साध्वी MICRO CHINANDE 3 પૂસક Ge समुदाय भी काफी विस्तृत है । अब हम यहाँ विद्यमान आचार्यों व मुनिवरों का सक्षिप्त वर्ण करेंगे | आचार्य विजय प्रेम-सूरीश्वरजी म० आपका जन्म ७६ वर्ष पूर्व सं० १६४० कार्तिक शुक्ला १५ को पींडवाड़ा (सिरोही, में हुआ। पिता का * CREA96. X આ શ્રીલવવાના 9 પઆ શ્રી વિ પ્રેમસૂરીશ્વરજીમ ૩પ આ શ્રી વિરામચંદ્ર સો યુજીસ 77 પુઆ શ્રીવિ તમાલ સમ ૫-૫ શ્રી વિજંબૂસ થય ७. पू.आ.श्री. विभुवन सम्भः -પૂ નો વિક યા દેવતા 5 ४ રજી મહારાન - १५३ शनील शहा नाम श्री भगवानदासजी, तथा माता का नाम कंकुबाई था।' भाई थे । खंसारी नाम प्रोमचन्द था । १५ वर्ष की आयु में शत्रुंजय की यात्रार्थ जाना हुआ वहीं से मुनिवरों के संसर्ग से वैराग्य वृत्ति का बीजा रोपण हुआ । और स. १६४७ का० ० ६ को पालीताणा में ० श्री दानसूरिजी के पास दीक्षित हुए। सं० १६८१ में पन्यासपद । सं० १६६१ चैत्र सुदी १४ को राधनपुर www.umaragy andar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास १५४ MOTION TO OT में आचाय पद और इस परम्परा में ७५ वें पट्टधर हैं। ज्ञानोपासना मैं रात दिन रत रहना ही आपकी जीवनचर्या का मुख्य अंग है । विशाल ज्ञान सागर का मंथन करने वाले ये महान् मुनि आज जैन समाज के महान श्रद्धय य आ० हैं । संस्कृत एवं प्राकृत के आप दिग्गज विद्वान हैं। कर्म साहित्य पर आपने 'कर्म सिद्धी' तथा 'मार्गणा द्वार विवरण' नामक ज्ञानागम ग्रन्थों की सुन्दर रचनाएं की हैं। आपकी पांडित्य पूर्ण अनुभव, चिन्तन, मनन एवं अनुशीलन की विशेषताएं आपके आज्ञानुवर्ती मुनि समुदाय पर भी प्रभावोत्पादक बनी हुई है। O था० श्री विजय रामचन्द्रसूरिजी म० आपका जन्म सं० १६५२ फाल्गुन कृष्णा ४ पादरा (गु० ) गांव में हुआ। पिता का नाम छोटालान । माता का नाम समरत बेन । संसारीनाम-त्रिभोवनदास । दीक्षा-सं० १६६६ पौष सुद गंधार ग्राम । पन्यास पद सं० १६८७ का० व० ७ । उपाध्याय पद स० १६६१ चैत्र शु० १४ राधनपुर । आचार्य पद सं० १६६२ वै० शु० ६ बम्बई | गुरु-आ० श्री वि० प्रेम सूरीश्वरजी म० । वर्तमान प्रभावशाली जैनाचार्यों में आप श्री का प्रमुख स्थान है | प्रख्यात प्रवचनकार हैं। 'जैन प्रवचन' पत्र द्वारा आपके प्रवचन सर्वत्र सुलभ हैं । आप श्री द्वारा अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठाएं, उपधान, आदि कार्य सम्पन्न होते ही रहते हैं । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ - Jite | || || || || | Hell! आचार्य विजय जम्बूसूरिजी म० आपका जन्म सं. १६५५ म. व० ११ गांव डभोई । संसारी नाम खुशालचन्द । पिता नाम-मगनलाल माता - मुक्ताबाई । दोक्षा-सं० १९७८ प्र० जे०व० ११ सिरोही । पन्याख पद सं० १६६० फा० ० ३ अहमदावाद । उपाध्याय-सं० १६६२ वें शु० ६ बम्बई आचार्य पद १६६६ फा० शु० ३ अहमदाबाद | आप जैनागमों के बांचन, मनन एवं अनुशीलन की विशेषताओं से “श्रागम प्रज्ञ" तरीके प्रसिद्ध हैं । तिथि साहित्य के सर्जन के साथ साथ बड़ दर्शन, प्राचीन समाचारी के ग्रन्थ आदि पर आपकी रचनाएं हैं। प्रतिष्ठा, उपधान आदि जैन विधि विधानों का परम विज्ञ हैं । मुनि श्री नित्यानन्द विजयजी म० आपका जन्म सं० १६७८ का० शु० २ अहमदाबाद, । सं० नाम जयन्तिलाल । पिता मोहनलाल । माता मणिबेन । दीक्षा-सं० २००० वै० शु० ७ अहमदावाद । गुरु० आ० श्री वि० जयूसूरिजी । आप बड़े साहित्य प्रेमी एवं उदोयमान लेखक हैं। आपने 'श्री प्रेमांश वाटिका' नाम से अपनी समुदाय दान के सदस्य मुनिवरों के जीवन वृत संग्रहीत कर प्रकाशित कराये हैं । Shree Sh १५५ Dla आचार्य विजय भुवनसूरिजी म० आपका जन्म सं० १६६३ महासुदी १३ उदयपुर (मेवाड़) पिता नाम लक्ष्मीलालजी, माता नाम कंकुबाई । बीसा ओसवाल, गौत्र महेता । दीक्षा स १६८० मा० शु० ६ राजोद ( माजवा ) | गुरु आ० वि० रामचन्द्रसूरिजी म० । पन्यास पद १६६५ वैशाख वदी ६ पूनाकेम्प । उपाध्याय पद १६६६ फा० शु० ३ अहमदाबाद | आचार्य पद २००५ महासुद ५ शेगडी (कच्छ)। आप स्वाध्याय रत रह कर आत्मोन्नति करते हुए समाज कल्याण में सतत् प्रयत्नशील जैन शासन प्रभावक आचार्य हैं। आपके शुभ हस्त से कई जगह उपधान तप, प्रतिष्ठाएं, अजन शलाका आदि महत्व पूर्ण कार्य हुए हैं। आपके नेतृत्व में गिरनारजी व मारवाड़ पंच तीर्थी के संघ निकले हैं। handal.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन श्रमण संघ का इतिहास msamumromanaDIDImmm ISommo501110 111005010-1B1DumbromoOUmedium आचार्य श्री विजय यशोदेवसूरीश्वरजी मुनि जयघोष विजयजी, धर्मानन्द विजयजी, हेमचन्द्र विजयजी, भद्रगुप्त वि० आदि साहित्य एक जन्म सं० १६४४ चै० व० १३ अहमदाबाद । जैनागम के विद्वान हैं। पं० श्री कांति विजयजी, रैवत गृहस्थ नाम जेसिंग भाई। पिता-लालभाई । माता विजयजी ज्योतिर्विद हैं। गजराबेन । जन्म नाम जेसिंगभाई । दीक्षा १९८२ श्री सुदर्शन विजयजी गणि फा० शु० ३ अहमदाबाद । सं० १६६५ १० व०६ को पन्यास पद । सं० २००५ माह सुदी ५ को अहमदाबाद में प्राचार्य पद । तीव्र वैराग्य से अनुरंजित ज्ञान, ध्यान और तपस्या में विशेष लीन रहना ही आपका जीवन क्रम है । मंदिरों की प्रतिष्ठादि, उनके सुधार, संघ में संगठन कराना आपकी विशेषताएं हैं। पं० मानविजय गणि जन्म सं० १९५४ आसोज शुक्ला १ अहमदाबाद जन्म नाम माणेकलाल । पिता कछराभाई । माता मंगु बाई । जाति दसा पोरवाड । दीक्षा सं० १९८३ चै० शु० १३ खंभात । गुरु श्रा० विजय रामचन्द्रसूरि जी। रचनाए-पिण्ड विशुद्धि, आवश्यक नियुक्ति दीपिका, उपमिति भव प्रपंचा, कथा सागेद्धार, ११ आवश्यक नियुक्ति व चूणि, विभक्ति विचार प्रकरण आदि ग्रंथों आप प्राचार्य श्रीविजय भुवनसूरीश्वरजी के लघु का सम्पादन। भाता है। जन्म सं० १६७० मा० शु०७ उदयपुर अन्य विद्ववर-मुनि मंडल [मेवाड़] । पिता लछमीलालजी माला कंकुराई । जाति बीसा पासवाल महेता । दीक्षा १९८६ पोष वदो ५ | पूज्य पन्यास श्री धर्म विजयजी गणि श्री कनक पाटण । गणि पद २०१३ का व०५ पार बन्दर।" विजयजी गणि, पं० श्री कांनि विजयजी गणि, पं० पन्यास पद २०१५ वै० शु० ६ बांकी कच्छ । श्री भद्रकर विजयजी गणी, मुक्ति विजयजी गांरण, आप बड़े ही साहित्य प्रेमी हैं। साहित्य सजन भानुविजयजी गणि, मुनिगज श्री हिमांशु विजयजी, एक प्रकाशन के प्रति विशेष दिलचस्पी रखते हैं । पद्मविजयजी गणि, सुदशनविजयजी गणि, हर्ष विजय . करीब १२-१३ ग्रन्थ सुसम्पादित कर छपवाये है। कई जी, राज विजयजी, कुमुद विजयजी. महानंद विजय स्थानों पर उपधान महोत्सव कराये। सादडो पारवाड़। जी, नित्यानन्द विजयजी, आदि विद्वान मुनि वृन्द हैं। जामनगर, गमलनेर और पाटन में ज्ञान भडारों की मुनिराज श्री चन्द्रयश विजयजी, त्रिलोचन विजय स्थापना करवाई। जी गणि, रैवत विजयजजी गणि, जयविजयजी, जया आपके प्रमोद विजयजी तथा लाभ विजयजी पद्म विजयजी आदि महान् तपस्वी मुनिवर हैं। मा नामक दो शिष्य है । ponार Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ SARITATIOHINDITURISOIMELINEETITHIMI>Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन श्रमण संघ का इतिहास |||||||||||||||||| आचार्य श्री विजयलक्ष्मणसूरिजी म. गहन अध्ययन किया। कुछ ही समय में आप महा प्रभाविक जैनाचार्य बनगये । 100 |||||||||||||||||||||||||||||| आ श्रीमद् विजय लब्धिसूरिजी के पट्ट प्रभावक ० श्री विजयलक्ष्मणसूरीश्वरजी महाराज का जन्म सं० १६५३ में जावरा (मालवा) के श्रोसवाल जातीय मूलचंदजी की धर्म पत्नि धापूबाई की कुक्षि से हुआ । १७ वर्ष की वय में आ० श्री विजय लब्धिसूरिजी के पास दीक्षित हुए। दीक्षोपरान्त जैनागम, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष मंत्र शास्त्र आदि के विषयों पर श्री राजगोपालाचार्य, मैसूर नरेश सौराष्ट्र के राजप्रमुख भावनगर नरेश, ईडर नरेश आदि कई ' राजा महाराजा आपसे अत्यन्त प्रभावित हुए। कई राज्यों के मंत्री गण, प्रोफेसर तथा उच्चाधिकारी गणों ने भी आपके प्रति अपार श्रद्धा प्रकट की है । कई स्थानों की नगर पालिकाओं ने आपको अभिनन्दन पत्र प्रदान किये हैं । आप श्री के उपदेश से अनेकों मांसाहारियों ने मांसाहार, शराब, जुआ पर स्त्री गमन आदि दुर्व्यसनों का त्याग किया है। अनेक स्थानों पर जैन मन्दिर, तथा उपाश्रय बन्धे हैं। दादर में श्री आत्म कमल लब्धिसूरीश्वरजी जैन ज्ञान मन्दिर निर्माण हुआ है जिसमें हजारों की संख्या में प्राचीन एवं शास्त्रादि ग्रन्थ संग्रहीत हैं । दक्षिण देश में आप श्री ने विशेष उपकारी कार्य किये हैं जिससे 'दक्षिण देशोद्धारक' विरुद से बिभूषित हैं । २० हजार मील का पाद प्रवास का वर्णन 'दक्षिण मां दिव्य प्रकाश' सचित्र ग्रन्थ प्राप्त है । आप श्री के पट्ट शिष्य शतावचनी पं० मुनि श्री कीर्तिविजयजी प्रख्यात मुनिवर हैं । आ० श्री विजय लक्ष्मण सूरीजी भारत के भूतपूर्व गव• र्नर जनरल श्री राजगोपालाचार्य के साथ धर्म चर्चा कर रहे हैं। vumarayanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ शतावधानी मुनि श्री कीतिविजयजी विभूतिओ, अन्तर ना अजवाला, दक्षिणमां दिव्य प्रकाश यादि १०-१२ पुस्तकें लिम्बी हैं। अहत् धर्म प्रकाश का हिन्दी, अंग्रेजी, कन्नडी, तामिल तेलगु एवं मराठी में अनुवाद छपे हैं। एक अच्छे लेखक, कवि व्याख्याता होने के साथ साथ चमत्कारी शतावधानी हैं। अनेक स्थानों पर आपके शतावधान प्रयोग से लोग चमत्कृत हुए हैं। २६ वर्ष की दीक्षा पर्यायी ये मुनिवर जैन शासन के गौरव वृद्धि हेतु सतत् प्रयत्न शील हैं। ६ श्री यशोभद्र विजयजी गणि आपका जन्म गुजरात के स्थं भनपुर गांव में पिता मूलचन्द भाई तथा माता खीमकोरबाई की कुक्षि से स. १६७२ चैत्र वदी अमावस्या के दिन हुआ। संसारी नाम कान्तिलाल । सं० १९८८ में चाणम्मा में श्राचार्य श्री विजय लक्ष्मणसूरिजी के पास दीक्षा अंगीकार की। ___ अल्पकाल ही में आप एक प्रसिद्ध वक्ता, आप श्री का जन्म सं० १४५४ आ नोज सुदी १३ कवि तथा संगीतज्ञ के रूप में पहिचाने जाने लगे। को कच्छ सुथरी में हुआ। पिता का नाम शामजीभाई सं० २०१३-१४ के वम्बई, दादर तथा अहमदाबाद तथा माता का नाम सोहनबाई। जाति-ओसवाल गौत्र-छोड़ा। में हुए आपके प्रवचनों ने श्रेताओं को मंत्र मुग्ध आचार्य श्री विजय किस्तूर सूरिजी के पास सं० बनाया। सं० २००६ में बंगलोर के चातुर्मास में १९८७ माघ सुदी ६ को कलाल (गुजरात ) में दोक्षा आपको “कविकुल तिलक" के विरुद से सुशोभित अंगीकार की। किया गया। आपने कई सुन्दर रसीले स्तवन, पूजाए आप श्री एक विद्वान व्याख्याता, साहित्य प्रमी तथा गहुंलियाँ युक्त पुस्तकें लिखी हैं तथा 'अमीनावेण, मुनिवर हैं। आप श्रा के शुभ हस्त से कई स्थानों पर संस्कारनी साडी, अहत् धर्म प्रकाश, अहिंसा, महावीर, उपधान उजमणा, प्रतिष्ठा, उपाश्रय तथा वर्धमान स्वामी नु जीवन चरित्र, दीवा दांडी, अनेक महान् तप खाते खुलवाने के कार्य हुए हैं। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LSO जैन श्रमण संघ का इतिहास MISCARRIDAI ISDIR INDrelum (iiDIRD ISell mpsoni li>DIn Ii>DIR ISealID IDROIL IDOID INDIm INDAININ2Im aliDeol IDxolig पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज की परम्परा का मुनि समुदाय तपा गच्छीय मुनि । इनमें से नं० १ आनन्दमुनि ३ कांतिमुनि ४ हर्षे । मुनि ६ उद्योतमुनि और १० कमलमुनि की परम्परा तपागच्छीय क्रिया करते हैं। । इनमें से २ कांतिमुनि के नयमुनि, भक्ति, सौभाग शांति, गंभीर, कीति मुनि श्रादि शिष्य प्रशिष्य है । ___हर्ष मुनि के जयसूरि, पद्म मुनि रंग मुनि माणिक्य चन्द्रसूरि, देवमुनि, कन रुचन्दसूरि, तथा । कनकचन्द सूरि के निपुण मुनि भक्ति मनि तथा चिदानन्द मनि एवं मृगेन्द्रमुनि हैं। उद्यो मनि के कल्याण मुनि, भक्ति मुनि हीर मुनि और सुन्दर मनि आदि शिष्य प्रशिष्य हैं। कमलमनि के चिमन मुनि हैं। पूज्य श्री मोहनलालजी म० खरतर गच्छीय मुनि जैन इतिहास में पूज्य श्री मोहनलालजी म० का (१) पूज्य मोहनलालजी म. के शिष्य नं०१ व्यक्तित्व और उनका समय काल अपना विशेष जिन यशः सूरिजी ५ राजमुनिजी. ७ देवमनिजी महत्व रखता है। वे महान् श्रद्ध य लोकप्रिय पूज्य ८ हेममुनिजी तथा ६ वे गुमानमनिजी की परम्परा पुरुष हुए हैं। आपका विस्तत जीवन चरित्र "महा खरतर गच्छोय क्रिया करते हैं। प्रभाविक जैनाचाय" शिर्षक विभाग में पृष्ठ ८५ पर (२) श्री जिनयशः सूरिजी के जिनमृद्धि सूरिजी दिया गया है। पट्टधर हुए जिनके शिष्य गुलाब मुनिजी के शिष्य शिष्य परम्परा रत्नाकर मुनि तथा भानुमुनि विद्यमान है। आपके शिष्य परम्परा में तपागच्छ तथा खरतर (३) राज मुनिजी के श्री जिनरत्न सूरि स्वर्गथ गच्छ दोनों मान्यता मानने वाले अभी विद्यमान हैं पर एवं लब्धिमुनि विद्यमान है। श्री जिन रत्नसूरि के हर्ष है दोनों समुदायों में सद्भावना पूर्ण प्रेम है गणि प्रम मुनिजी, भद्रनि तथा होरमुनि शिष्य तथा तथा पूज्य श्री मोहनलालजी के प्रति दोनों में अगाध मुक्ति मुनि प्रशिष्य हैं। श्रद्धा है। दोनों अपने को उनकी परम्परा का मानने (४) श्री लब्धिमुनि के मेघमुनिजी शिष्य है। में अपना गौरव मानते हैं । (५) देवमुनिजी और उनके शिष्य मणि भामुनि पूज्य श्री के १० शिष्य थे-१ आनन्दमुनि २ जिनराशः स्वर्गस्थ है । सूरि ३ प्र० कांतिमुनि ४ पं० हर्षमुनि ५ राजमुनि (६) हेममुनिजो के शिष्य केशरमुनिजी के शिष्य ६ उद्योत मुनि ७ देवमुनि ८ हेम मुनि ६ गुमानमुनि गणि बुद्धि सागरजी विधमान हैं। आपके ३ शिष्यों १० कमल मुनि । में से साम्यानन्द व रैवत मुनि हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ स्व० श्रीमद् जिन यशस्सरिजी महाराज आपकी बन्यकाल से ही सांसारिक कार्यों से उदासी नता तथा पठन पाठन की ओर विशेष रुचि थी। इसी पूज्य श्री मोहनलालजी म. के मुख्य शिष्य विहिता कारण आप चुरु चले आये और यहाँ बृहत खरतर गच्छ की मोटी गादी के यति श्री चिमनीरामजी म. खिलागम योगानुष्ठान ५३ उपवास कर स्वग प्राप्त के पास शिक्षा पाने लगे और १६३६ में चरु में यति महान तपस्वी वतमान खरतर गच्छ संवेगी शाखा के दीक्षा अंगीकार की। स० १६४६ में सिद्ध क्षेत्र आचाय प्रवर श्री जिन यशस्सूरिजी म० का जन्म स० (सौराष्ट्र ) में आप संवेगी दीक्षा में दीक्षित हुए। १६१२ जोधपुर में हुआ। सं०१०१० में पूज्य श्री सं० १६६ लशहर में गणि तथा पन्यास पद तथा मोहनलाल जी म० के पास दीक्षित हुए। सं० १६५६ सं. १६६५ में थाणा (बम्बई) में आचार्य पद विभपित में अहमदाबाद में गणि तथा पन्यास पद प्रदान किया गया । सं० १६६६ में बालूचर (मुर्शिदाबाद किये गये। बंगाल ) में सूरिपद विभूषित किये गये। आप भी महा प्रभाविक जनाचार्य हुए हैं। गुजआप एक महान योगी, आत्म साधना में सतत रात बम्बई प्रान्त में आपके प्रति बड़ा भक्ति भाव था लीन रहने वाले महान तपस्वी संत थे। आपका सं० कारण इमक्षेत्र में आप श्री द्वारा अनेकों उपकारी १६७० में महान तीर्थ पायांवरीजी में स्वर्गवास हा काय हुए हैं। अनेक स्थानों पर धर्म प्रभावनार्थ जैन आपके पट्टधर आ० श्री जिन ऋद्धि सरिजी म० हए। मन्दिर तथा उपाश्रयों का निर्माण कराया। वम्बई के पायाधुनीस्थित महावीर स्वामी के मन्दिर में घंटाकर्ण स्व० श्रीमद् जिन ऋद्धिसूरिजो म० १० माननाचतारणा म० की मूर्ति स्थापित की । आप श्री के उपदेश से निर्मित आपका जन्म सं० १६२६ में चुरु (बीकानेर) के थाणा का विशाल जैन मन्दिर आज तीर्थ भूम बना पास लोहागरजी तीर्थ के निकट एक गांव में एक हुआ है। ऐसे महान प्रभावक आचार्य स. २००८ ब्राह्मण कुटुम्ब में हुआ। जन्म नाम रामकुम र था। को बम्बई (पायधुनी) पर स्वग सिधारे। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन श्रमण संघ का इतिहास HDAIIMIn HDCHUIDADI DADI Dail IDMIDAIR IIIIDAI INDAIN IDOL IDOLID PIIIIIII IITDAI HDMI DILE स्व. श्रीमद जिन रत्नसरिजी महाराज जिन रिद्धं सूरिजी महाराज दीक्षा गुरु श्र राजमुनि जी। पूज्य मोहनलालजी म. की खरतरगच्छीय परम्परा के वर्तमान में आप ही शिरोमणि मुनि हैं। जन्म सं० १९३८ लायजा ( कच्छ) । दीक्षा सं० १६५८ रेवदर( आबू)। गणिपद सं०१६६६ लश्कर (ग्वालियर)। आचार्य पद सं. १६६६ पायधुनी बम्बई । उपाध्याय श्री लब्धि मुनिजी स्वर्गवास सं० २०११ मांडवी (कच्छ)। एक महान त्यागी, तपस्वी शान्त मूर्ति एवं समन्वय आप महान् अध्यवसायी । तपस्वी एवं निरन्तर वादी विद्वान के रूप में आज आप समस्त जैन समाज साहित्य सृजन में लीन महा पुरुष थे । आपने अनेक के श्रद्धा भाजन बने हुए हैं। प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन कर उनके भावार्थ को ग्रन्थित किया है । आप महान् साहित्यकार थे। आप संस्कृत व प्राकृत भाषा के महान विद्वान होने के साथ साथ महान् साहित्यकार विद्वान हैं। उपाध्याय श्री लब्धि मुनिजी आप द्वारा रचित ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं:-कल्प जन्म सं० १६३६ मोटी खाखर ( कच्छ )। पिता सूत्र की टीका, खरतरगच्छ नी मोटी पट्टावली, नत्र का नाम-दनाभाई खीमराज । माता का नाम-नाथी पदजी नी थोही तथा दादासाहब नु स्तोत्र, श्री श्रीपाल बाई । संसारी नाम-लधा भाई। जाति-प्रोसवाल चरित्र श्लोक बद्ध, रत्न मुनि नु चरित्र संस्कृत में, जैन देढ़ीया। दीक्षा-सं० १६५८ रेवदर (सिरोही), आत्म भावना, चोवीस प्रभुजी ना चैत्य वदंन आदि उपाध्याय पद सं० १६६६ पायधुनी बम्बई । गुरु श्री कई स्तुति ग्रन्थ श्लोक बद्ध बनाये हैं। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ 200S HISAI AIROINISTRATIME ISKOHR MISCOIL INon-mi migo AMBOIL HINDI RISIN HISom amoxim sxam alexand बार पर्वनी कथा, सुरुढ़ चरित्र, जिनदत्त सूरिजी, के जैन मन्दिरों में अजनशलाका व प्रतिष्ठा महोत्सर्व मणिधारी जिन चन्द्रस रिजी, जिन कुशल सरिजी, कराये हैं। अकबर प्रति बोधक जिन चन्द्रसूरिजी के हिन्दी ग्रन्थ आपके विशेष सहयोग रूप पूज्य बुद्धिमुनिजी भी का संस्कृत में श्लोकबद्ध अनुवाद । जिनयशसूरि तथा समाज में बड़े आदरणीय मुनिवर बने हुए हैं । जैन जिन रिद्धीसरिजी म० के श्लोक बद्ध जीवन चरित्र। शासन की गौरव वृद्धि की ओर विशेष लक्ष्य रखते हैं। आदि कई प्राथों को संस्कृत में श्लोक बद्ध रचनाएं इस समुदाय में साध्वी जी श्री भाव श्री जी की कर साहित्य जगत में अपूर्व श्रद्धा प्राप्त की है। शिष्या आनन्द श्री जी को शिष्या सद् गुण श्री जी, अदभुत साहित्य सेवी हाने के साथ २ आप श्री के रूप श्री जी, लाभ श्री जी तथा राज श्री, रत्न श्री जी शुभ हस्त से पनासली (मालवा) तथा कच्छ मांडी तथा विनय श्री जी आदि हैं। श्री चिदानन्दमुनिजी तथा श्री मगन्द्र मुनिजी [ संसारी पिता-पुत्र] श्री चिदानन्द मुनि जी का संसारी नाम चिमनलालजी तथा मृगेन्द्र मुनि का सं० नाम महेन्द्र कुमार है। जन्म-क्रमशः सं० १६६६. वैश्याव वदी १० गांव सरत, सं० १६६३ पौष सुदी १५ गांव सगरासपुरा (गुजरात)। चिदानन्द मनिनो के पिता का नाम शा० हीराचन्द आशा जी तथा मृगेन्द्रमुनि के पिता का नाम शा० चिमनलाल होसचन्दजी था। माता का नाम क्रमशः दिवाली बेन तथा गजरा बेन । जाति बीसा ओसवाल । पिता पुत्र तथ गजरा बेन ( पत्नी श्री चिमनलालजी) तीनों ने सं० २००३ अच्छा कार्य कर रही है। इसी तरह सिरपुर, नेर, वैशाख वदी ११ को गांव पांचे टया (राजस्थान) में गौतमपुरा, देपालपुर, भोपाल श्रादि कई स्थानों की पूज्य पन्यास श्री निपुण मुनि के वरद हस्त से दीक्षित समाजों में एक नवीन जागृति आकर धामिक शिक्षण की व्यवस्थाए हुई है। आप एक उच्चकोटि के विद्वान श्री चिदानन्द मुनिजी का ध्यान समाजोन्नति की लेखक भी हैं। ओर विशेष रहता है। समाज संगठन और शिक्षा वर्ष को अल्पायु में ही दीक्षित बाल मुनि मृगेन्द्र प्रचार के लिये सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। आप ही जी भा व्याकरण, न्याय जैनागम वषयक ग्रन्थों के के उपदेश से धूलिया में पाठशाला स्थापित हुई और अध्य यन द्वारा ज्ञानोपार्जन में सतत् लीन रहते हैं। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन श्रमण संघ का इतिहास WALEDDINATEDKARISMA RIDEO.moeonND COMRAND STANDAR: DIDISonITANIND DISROIN INDIndition 2001 INDORE आगमोद्धारक आचार्य श्रीमद् मनि श्री प्रबोधसागरजी महाराज विजय सागरनन्द सूरिश्वरजी म० का मुनि समुदाय आगमोद्वारक आचार्य श्री सागरानन्दसरिजी का जीवन परिचय 'महाप्रभाविक जैनाचार्य' विभाग में पृष्ठ ८८ पर दिया गया है। आपके २५ शिष्य थे। आपके वर्तमान मुनि समुदाय की सूची पृष्ठ ११६ पर देखिये। श्राचार्य हेमसागर सूरीश्वरजी महाराज जन्म सं० १६६३ ज्येष्ठ शुक्ला ६ कपड़ वंज ! संसारी नाम पोपटलाल । पिता लल्लुभाई । माता का नाम प्रधानबाई । जाति-बीसा नीमा जेन । पन्यास जी श्री विजयसागरजी गणि के पास सं० १९८७ में आषाढ़ शुक्ला ६ को दीक्षा अंगीकार की। सारा परिवार संयम मार्ग पर , आप श्री का सारापरिवार संयम मागे पा प्रवर्तित है। प्रारम्भ में आपकी माता ने यह मार्ग अपनाया । बाद में मुनि प्रबोध सागरजी नुनि बने । आपके बाद आप आगमोद्धारक आचार्य श्रीमद् विजय आनंद आपकी स्त्री और लड़की दोनों ने संयम मार्ग ग्रहण सागर सरीश्वरजी के प्रधान शिष्यों में से वर्तमान किया। थोड़े ही वर्षों बाद आपके छोटे भाई ने अपनी में एक प्रसिद्धी प्राप्त जैनाचार्य हैं। पत्नी और एक कन्या के साथ संयम मार्ग स्वीकारा । आप श्री के शुभ हस्त से कई स्थानों पर प्रतिष्ठाएं आपके संसारी बड़े भ्राता जिनका वर्तमान में नाम उपधानतप उजमण, उघापन आदि अनेक धर्म कार्य बुद्धिसागरजी है इन्होंने, इनकी पत्नी ने और इनकी होते रहते हैं। -दी कन्याओं ने दीक्षा अगीकार की। साहित्य सजन और शिक्षा प्रचार की ओर भी मात पक्ष में भी कई बहिनों आदि ने भी दिक्षाएं आपका विशेष लक्ष्य है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १६५ स्व०प्राचार्य श्री विजयसुरेन्द्रसूरीश्वरजी बाल ब्रह्मचारी [ डेहला वाला ] प्राचार्य श्री विजयरामसूरीश्वरजी म. आपका जन्म बनासकांठा (गु.) के कुवाला ग्राम आपका जन्म सं० १६७३ महासुदी पूनम के दिन में का० शु०२ सं० १९५० को हुआ नाम शिवचन्द अहमदाबाद में श्री भलाआई की धर्मपत्नी गंगाबाई रक्खा गया। सं० १६६६ पौ० २०१० को पाटन (गु.) (वर्तमान में साध्वी श्री सुनन्दा श्री जी) की कुक्षि में पाध्याय श्री पं० धर्मविजयजी गणि के पास दाक्षा से हआ। नाम रमण ल रक्खा गया । अंगीकार की। सं० १६६६ मगसर सुदी ५ को योगाद्वहन पूर्वक गणि तथा पन्यास पद प्रदान किया गया । बाल्यकाल से ही आपकी प्रबति वैराग्य मयी थी। सं० १६६० में साधु सम्मेलन के पश्चात् उ० सं० १९८६ वैशाख वदी १० के दिन डेहलाना उपाश्रय धर्म विजयजी के स्वर्गवास होने पर संघ की जिम्मेवारी अहमदाबाद में आचार्य श्री सुरेन्द्र सूरीश्वरजी के आप पर आई। आचार्य पदवी धारक नहीं बनना पास दीक्षा अगीकार की। अब रमणलाल से आपका नाम राम विजय रक्खा गया। चाहने पर भी संघ के थागे वानों की अत्यन्त आग्रह भरी विनति पर आप सं० १६६६ में फाल्गुन कृष्णा कुछ ही समय बाद आपकी माता ने भो साध्वी ६ का राजनगर जूनागढ़ में आचार्य पद से विभषित जी श्री चंपा श्री जी के पास दज्ञा अंगीकार कर ली किये गये । परन्तु काल की विचित्र गति है। आचार्य और सुनन्दा श्री जी बन गई। बनने के ६ वर्षों बाद ही सं० २००५ कार्तिक वदी४. रामविजयजी ने अल्प समय में ही आचार्य श्री को ११|| बजे राजनगर में आपका स्वर्गवास हुआ। तथा उनके शिष्य रत्न मुनि श्री रविविजयजी की गुजरात मौराष्ट्र कच्छ आदि प्रदेशों में आपका बड़ा सुदेखरेख में अनेक धर्म ग्रन्थों और जनागमों का प्रभाव था आपके पट्टधर वर्तमान में यशस्वी आचार्य गहन अध्ययन कर अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । श्री विजय रामसूरीश्वरजी म० विद्यमान हैं। अरुपायु में ही विशाल ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ QDID DEIREDON जैन श्रमण संघ का इतिहास आप में किंचित मात्र अभियान नहीं घुस पाया । आचार्य श्री के स्वर्गवास के पश्चात् सं० २००७ वैशाख सुदी पूनम के दिन आप आचार्य पद पर विभूषित किये गये । आचार्य बन जाने पर भी आप में निराभिमानता, सरलता और मधुरता आपके जीवन क्रम की महान् विशेषताए' बनी हुई हैं । आप श्री ने उपदेश द्वारा गुजरात, राजस्थान मारवाड़ आदि क्षेत्रों में अनेक भव्य जीवों को जैन धर्म के प्रति श्रद्धालु बनाया हैं। शासनोन्नति के अनेक कार्य हुए हैं। सिरोही, षांडोव चंडवाल तथा बिठोड़ा के जैन मन्दिरों में हुए भव्य उद्यापन महो• त्सव आज भी सिरोही जिले की समाज याद करती है । इसी प्रकार और भी अनेक स्थानों पर उपधान प्रतिस्ठाएं होती रहती हैं। धार्मिक शिक्षा की ओर भी आपका विशेष लक्ष्य है। और कई जगहों पर धार्मिक पाठशालाएं खुलवाई हैं । सिरोही के जैन पाठशाला की उन्नति हेतु आपके प्रयत्न प्रसंनीय हैं। साबरमती जैन पाठशाला, अहमदाबाद में श्री सुरेन्द्रसूरि तत्वज्ञान पाठशाला, कुवाला जैन पठाशाला आदि आपही के उपदेश का फल है । आपका शास्त्राभ्यास भी अति गहन है । पन्यास श्री अशोक विजयजी गणि आपका जन्म सं० १६६६ भाद्रपद शुक्ला को दस्सा वणोक जैन श्री वीरचन्दजी मगनलाल की धर्मपत्नी श्री जुबल बेन की कुक्षि से हुआ । संसारी नाम श्री चन्द था । संवत् १६८७ कार्तिक वदी ११ को |||||||||||||||||||||| DHM डेहलाना उपाश्रय वाला उपाध्याय श्री धर्मविजयजी गरिण के पास दीक्षा अ ंगीकार की । आप बड़ े ही शान्तमूर्ति, तपस्वी और ज्ञानाभ्यासी न्याय व्याकरण षड् दर्शन और जैना गमों के अच्छे जानकार हैं । आपके शुभ हस्थ से उपाधान, प्रतिष्ठा, दीक्षा, बड़ी दीक्षा आदि कई पवित्र धार्मिक अनुष्ठान हुए हैं तथा होते रहते हैं । पन्यास श्री राजेन्द्रविजयजी गणि जन्म सं० १६७० फागुन वदी ११ राधनपुर । पिता - गिरधारीलाल त्रिकमलाल । (सिद्धीगिरी की यात्रार्थ जाते हुए बोटाद में जन्म हुआ) माता का नाम जुबिल बेन । जाति-बीसा श्रीमाली । दीक्षा सं० १६६२ मिंगसर खुद ३ पालीताणा । दीक्षा गुरुआचार्य श्री मुरेन्द्रसूरीश्वरजी म० ( डेहला वाला ) । श्राप बड़ े शान्तसूर्ति, तपस्वी एवं निरन्त ज्ञान ध्यान मग्न रहने वाले मुनि हैं । umarggyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १६७ | | પંચ પ્રપ્ત થય રચનાલ ત્રિકુટાછે. પ્રાચીન તીએ શ્રી હિંજયનીતિરૂરીશ્વરજી ઠુંદરજ SnapeDRM-8-07-J-SANTOSHINMAA saleHA- nothe ArA406-16se AustriyasamarME प्राचार्य श्री विजयनीतिसरिजी महाराज मन्दिर पाठशालाएं तथा विद्यालय स्थापित हुए। का मुनि समुदाय उपधान प्रतिष्ठा आदि अनेक धार्मिक कार्य हुए । __सं० १६६७ पौ० व० ३ को एकलिंगजी में स्वर्गवासी हुए । आपकी परम्परा में आ० विजय हर्षसूरिजी और आपके प्रशिष्य आ० महेन्द्रसूरिजी विद्यमान हैं। प्राचार्य विजय हर्ष सूरीश्वरजी म० ___ जन्म थांवला (जालौर) में सं० १६४१ फा० शु. ५। पिता अचलाजी, माता भरीबाई। जाति-दसा ओसवाल । सं० नाम हुक्माजी। दीक्षा सं० १९५८ फा० शु०६ को दाहोद । गुरु विजयनीति सूरिजी । पन्यास पद १६७० मि० शु० १५ राधनपुर । आचार्य पद १६८८ जे० शु० ६ फलौदी । प्राचार्य विजय महेन्द्र सूरिजी म० जन्म सं. १६५३ आसोज वदी ३ रतलाम, संसारी आचार्य श्री विजय नीति सूरीश्वरजी म० नाम मिश्रीलाल । पिता चेनाजी, माता दलीबाई । स्व० आचार्य श्री विजय नीति सूरीश्वरजी म. बीसा पोरवाड । दीक्षा तिथि सं० १९६६ का०व०४ का जैन शासन प्रभावना की ओर विशेष लक्ष्य रहा राजपर अहमदाबाद । गरु आ० विजय हर्ष सरिजी। है। आपकी पूर्व परम्परा के लिये पष्ठ ११३ (७) गणि पद १६८६ मि० शु०५ अहमदाबाद। पन्यास पद १९८७ का० व० ८ सीपोर । आचार्य पद फार ____आपका जन्म सं० १६३० पौष शुक्ला १३ को व०६ अहमदाबाद । बांकानेर में हुआ। पिता.फूलचन्दजी माता चोथीबाई। आप श्री के शुभ हस्त से कई स्थानों पर उपधान जाति बीसा श्रीमाली संसारी नाम निहालचन्द। प्रतिष्ठा आदि धार्मिक तथा समय २ पर कृत्य हुए हैं दीक्षा सं० १६४६ आषाढ़ शु०११ मेरवाड़ा । गुरु होते रहते हैं। पं० श्री भावविजयजी गणि । सं० १६६१ मि० शु०५ मनि श्री हर्ष विजयजी म. पालीताणा में गणिपद तथा सं० १६६२ का०व०११ जन्म सं० १९६५ आसोज वदी १ बेगम (गुज०) पालीताणा में पन्यास पद । सं० १६७६ मि० शु०५ संसारी नाम झूमचन्द भाई । पिता रंगजी भाई, माता अहमदाबाद में आचार्य पद ।। आप श्री के उपदेशों से गिरनार तथा चित्तौड़ के जनुबाई । जाति-बीसा श्रीमाली संघणि । दीक्षा सं० जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ। अनेक स्थानों पर १६८५ महावदी ११ पालीताना । गुरु आ० विजय देखें। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन श्रमण संघ का इतिहास भद्रसूरिजी के शिष्य सुंदर वि० के शिष्य पन्यास श्री ओसवाल शिशोदिया गौत्रीय शा० हजारीमलजी के पुत्र रूप में माता भीखी बाईजी कुक्षि से हुआ । संसारी नाम-फौजमल । सं० २००७ जेठसुदी ३ (गु०) को दीक्षा हुई और जेठसुदी ७ (गु०) को बड़ी दोक्षा पालीताणा में हुई । आचार्य श्री के साथ आपने मारवाड़ के ग्रामों में विहार किया। कुछ ही समय में विशाल ज्ञानाभ्यास के कारण आप समाज में लोक प्रिय और प्रभावशाली मुनि बन गये । आपके उपदेशों से आलपा, रामसेन, जूना जोगा पुरा आदि कई स्थानों पर वर्षों से चले आ रहे कुसम्प मिटे हैं। सिरोही के बुगांव में चालीस वर्षों से बने मंदिर की रूकी हुई प्रतिष्ठा को आपने सं० २००६ में करवाई । चरणविजयजी गणि । आपका प्राचीन ग्रन्थों की शोधखोज व पठन पाठन की ओर विशेष लक्ष्य है। कई स्थानों पर प्रतिष्ठा उपधान आदि धार्मिक कृत्य भी कराये हैं । आपके उपदेश से पाठशालाएं भी खुली हैं। आपके शिष्य मुनि श्री सुदर्शन विजयजी हैं। जिनका जन्म सं० १६७६ मि० वदी अमावस तखतगढ़ में हुआ । पिता हंसाजी, माता-मणी बेन। सं० ना० तखत मल जी । जाति-पोरवाड़ चौहान । दीक्षा-सं० २००६ म० सु० १ भोयणी जी तीर्थ । गुरू ग्रा० महेन्द्रसूरिजी । मुनि श्री सुशील विजयजी महाराज (then) matine tuberan મૂળરાજ ચોખોવિજયજી મહારાજ સુબશા ધુ તો લાલ અજી તરફથી શ્રીસંઘન uce १२ २ २ ९९ आप ० श्री महेन्द्रसूरि के प्रधान शिष्यों में हैं और जैन शासन प्रभावना की ओर विशेष लक्ष्य रखते हैं । आपका जन्म सं० १६७० पौष वदी १४ को सिरोही ( राजस्थान ) के आलपा ग्राम मे बीसा सं० २००६ का चातुर्मास रामसेन (सिरोही) में हुआ । चतुर्मास बाद चांदुर वाले शा० तेजमल दाना जी को शिष्य रूप में प्रवजित बनाया और मुनि तेज विजयजी नाम रखा । सं० २०१० माघशुक्ला १३ को श्र० श्री विजय हर्ष सूरीश्वरजी की निश्रा में इन्हें बड़ी दीक्षा दी और नाम तेजप्रभ विजयजी रक्खा । जन्मस પર મામા તેજ પ્રમવિજયજી મ આ ફોટો એક સદગૃહસ્થ તરફથી શ્રી સંઘને ખવી આ ૧૨ નામ cafe भेट मुनि श्री तेजप्रभ विजयजी www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमरण-सौरभ मुनि श्री सुशील विजयजी एक क्रियाशील ज्ञान वान मुनि होने के साथ साथ बड़े समाज सुधारक भी हैं। दीक्षोपरान्त आपका विहार क्षेत्र प्रायः मारवाड़ ही विशेष रहा है और आपके उपदेशों से अनेक स्थानों पर कुसम्प मिट कर सु संगठन स्थापित हुए हैं । आपके उपदेशों से कई तीर्थ यात्री संघ निकले । जावाल में वर्धमान तप आयम्बिल खाता चालू हुआ तथा गांव बाहर आदिश्वर भगवान के मंदिर में भगवान के तेरह भवों का कलात्मक पट्ट बना है और भी अनेक उपकारी कार्य हुए हैं। मुनिराज श्री तिलकविजयजी जन्म तिथि १६५५ आसोज शुद २ को पचपदरा (भागल) । पिता धनराजजी । माता लक्ष्मीबाई। जाति ब्राह्मण गोत्र मकांणा । दिक्षा १६७२ जेठ वदि ५ सिलदर । यति दिक्षा गुरु गुलाब विजयजी । बडी दिक्षा गुरुआ श्री महेन्द्र सूरिजी । १६६५ माह शुद ५ मंडार | ज्योतिष शास्त्र के प्रवर विद्वान हैं। आपके उपदेशों से कई स्थानों पर फूट मिटी है। तथा प्रतिष्ठा महोत्सव, संघ यात्रा के कार्य हुए हैं। कई जगह आयंबिल खाता खुलवाये हैं। आप बड़े तपस्वी हैं। Shree Sudha मुनि श्री लक्ष्मी विजयजी म० १६६ आपका जन्म मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत बादनबाड़ी नामक गांव में हुआ । आपने विशाल परिवार से नाता तोड़ कर सं० १६६६ की साल में नाकोडा तीर्थ स्थान पर आचार्य श्री० हिमचल सूरिजी के पास दीक्षा स्वीकार की । उस समय आपकी उम्र करीब ४० के उपर थी। आप कार्यवश वादनवाडी पधारे तो आपकी पूर्व की पत्नी ने गोचरी के बहाने ऐसा षड्यंत्र रचा कि लक्ष्मीविजयजी के कपड़े उतरवा दिये, आपको करीब एक मास अनिच्छा से भी घर में रहना पड़ा । किसी प्रकार विश्वास देकर धन कमाने के बहाने से पालीताणा जाकर आचार्यदेव श्रीमद् विजय उमंग सूरीश्वरजी के हाथ से मेवाड़ केसरी आचार्यदेव के शिष्य के नाम से पुनः दीक्षा सं० १६६८ के मार्ग शीर्ष मास में अंगीकार की, आप हृदय के बड़े सरल एवं भद्रिक हैं। उम्र तपस्वी और उम्र बिहारी है, बोलने में बडी मधुरता टपकती है । जालौर जिले की जैन समाज में आपके प्रति काफी श्रद्धा है । www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन श्रमण संघ काइतिहास पंन्यास श्री रंजन विजयजी गणिवर ५. मुनि.मी. नविय, मुनि श्री भद्रानंद विजयजी संसारी नाम-रतनचंद । जन्म तिथि-सं० नाम-कुमकुम् बहन । जाति-विष्णु । दीक्षातिथि१९७३ पौष वद ८ मालवाडा (राजस्थान)। पिता का वि० सं० २००५ मागशर सुदी ४ शनिवार । गुरू का नाम-मलूकचंद भाई। माता का नाम-नवल बहन। नाम-पन्यास श्री रंजन विजयजी गणिवर्य । जाति-विसा पोरवाड़। दीक्षातिथि–सं० १६६४ जेठ मुनि श्री विनयेन्द्र सागरजी वद २। गुरु का नाम-पंन्यास श्री तिलक विजयजी गणिवर भाभरवाले । आपने अब तक प्रतिष्ठा तीन, जन्म-स० १६५३ मिगसर सुदी ३ कच्छ उपधान एक, वर्धमान श्रायंबिल तप खाता की स्थापना सुथरी । पिता-गोविन्दजी, माता चंपा बाई । जाति जिर्णेद्धार एक, जैन पुस्तकालय १ की स्थापना, शान्ति- कच्छी दस्सा ओसवाल जन्म नाम वसनजी। दीक्षा स्थात्र ध्वजा दंडा रोपण दीक्षा आदि अनेक शुभ कार्य सं० २००२ अषाढ सुद ३ मोरबी गुरू-श्रा०-श्री गुण कराये हैं । आपकी सम्प्रदाय के वर्तमान आचाये-श्री सागर जी महाराज। विजय शान्तिचंद सूरीश्वरजी हैं। __आप बड़े ही तपस्वी हैं। कई बार वर्षा तप किये मुनि श्री भद्रानंद विजयजी हैं तथा २४ वर्ष से लगातार एकासणा कर रहे हैं । संसारी नाम-लालचंद । जन्म स्थान-वांखली वर्ष से वर्धमान तप की ओलो कर रहे हैं। वद्धा( मारवाड ) पिता का नाम खेतशी भाई । माता का वस्था के कारण कोठारा ( कच्छ ) में स्थिर वास है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण आचार्य श्री विजय धर्म सूरिजी म० आचार्य श्री मद् विजय प्रतापसूरीश्वरजी के पट्टधर आ० विजय धर्म सूरिजी, जैन श्रमण संघ में कर्मशास्त्र तथा द्रव्यानुयोग के प्रखर विद्वान बहुत ही अल्प है, उनमें से आप एक हैं। आपकी वक्तृत्व शेली भी अनोखी है। आप श्री ने कर्मशास्त्र सम्बन्धी कुछ सुन्दर रचनाएं की हैं । आपका जन्म वढ़वारणा (सौरास्ट्र ) में सं० १६६० में हुआ। दीक्षा सं० १९७६ में तथा पन्यास पद सं० १६६२ में सिद्धक्षेत्र में । आ० श्री विजयमोहन सूरिजी के शुभ हस्त से उपाध्याय पद प्रदान किया गया तथा भायखला बम्बई में हुए भव्य उपधान महोत्सव के शुभ प्रसंग पर आचार्य पद प्रदान किया गया । आपके मुनि यशोविजयजी, जयानन्द विजयजी, कनकविजयजी सूर्योदय विजयजी आदि न्याय व्याकरण शास्त्र के विद्वान शिष्य हैं। Shree सौरभ १७१ मुनिराज श्री सिंह विमलजी गणि मूर्तिपूजक विमल गच्छ । संसारी नाम - गणेश मलजी जन्म सं० १६६७ मिंगसर सुदि ११ जन्म स्थान निपल राणी स्टेशन के पास । पिता का नामकिस्तूरचन्दजी | माता का नाग— केशरबाई जातिओसवाल श्री श्रीमाल । दीक्षास्थान विशलपुर (एरनपुरा १६६५ असाढ़ सुदि ३ गुरू आचार्य श्री हिम्मतविमल सूरीश्वरीजी । आप बड़े मधुर व्याख्यानी और जैनसमाजोन्नति के लिये विशेष लक्ष्य रखते हैं। आप श्री के उपदेशों से कई गांवों में कुसम्प मिटे हैं। कई स्थानों पर प्रतिष्ठऐं जिर्णोद्धार, उपधान, उद्यापन हुए हैं । कांठाप्रान्त में जैन धर्म का प्रबल प्रचार किया । थली और मारवाड़ आपका मुख्य विहार क्षेत्र है । www.umatanyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन श्रमण-सौरभ मेवाड़ केसरी आचार्य श्री हिमाचल सूरीश्वरजी महाराज आचार्य श्री हिमाचल सूरीश्वरीजी म० रक्खा गया। सं० १९८५ में पन्यास पद प्रदान किया स्म० पन्यासजी श्री हितविजयजी म० गया। आगम तत्ववेत्ता पन्यासजी श्री हितविजयजी आपने पन्यास बन जाने के बाद गुरुदेव की सेवा महाराज के पट्टधर मेवाड़ केसरी श्रीनाकोडातीर्थोद्धा- में रह कर काफी अनुभव प्राप्त किया और गुरुदेव रक वालब्रह्मचारी प्राचार्य पुंगव श्रीमद् विजय की सेवा भी अपूर्व की। उस सेवा का ही यह प्रताप हिमाचल सूरीश्वरजी म० का कुम्भलगढ़ जिले के है कि आज एक महान् आचार्य पद पर प्रतिष्ठा केलवाडा ग्राम में सं० १६६४ में जन्म हुआ। आप पूर्वक हीरे की तरह चमक रहे हैं। बीसा ओसवाल थे आपका नाम हीराचन्द, पिता का आपने अपने जीवन काल में अनेक प्रतिष्ठाएं, नाम गुलाबचन्दजी, माता का नाम पनीबाई था। करवाई जामनगर की प्रतिष्ठा उल्लेखनीय है जहाँ जब आप तीन वर्ष के हुए उस सगय माता ने बावन जिनालय है पर एक ही मुहर्त में एक साथ गौतम वि० नाम के यतिजी की भेंट कर दिया था, ११२ धजा दंड चढाये गये । १२ वर्ष के हुए तब यतिजी का देहावसान होगया। उदयपुर से पालीताणा का पैदल संघ, सुरेन्द्र गामगुडा श्री संघ ने आपका पालन पोषण किया। नगर से जूनागढ़ का संघ, और तखतगढ़ से नाकोडा सं० १६८० में घाणेराव में मुनि श्री हेत विजयजी के तीर्थ का संघ । आपके जीवन में उल्लेखनीय संघ पास आपकी दीक्षा हुई और हिम्मत विजय नाम निकले हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ आप को सं० २००० की साल में पन्यासजी मुमुक्षु भव्यानन्द विजयजी म० कमलविजयजी द्वारा आचार्य पद दिया गया, तथा २००४ में मेवाड़ केसरी पद से अलंकृत किया गया। मेवाड़ प्रान्त में इतना उपकार किया है कि वहां के लोग कदापि नहीं भूल सकते। ___ मजेरा जैन विद्यालय की जड़ आपने ही मजबूत की है । कराई, समीचा, उसर आदि गांवों में नवीन जैन मन्दिरों का निर्माण भी आपने करवाया है अनेकों प्राचीन जिन मन्दिरों का उद्धार आपने अपने उपदेश द्वारा करवाया है जिसमें नाकोडा तीर्थ की घटना विशेष प्रसिद्ध है। आप ही के अथाग परिश्रम का फल है कि श्री हित सत्क ज्ञान मन्दिर का नवीन भवन निर्माण हो गया है। प्रतिष्ठा होने की तैयारी है । घाणेराव का नूतन उपाश्रय, तथा उदयपुर का उदयपुर गुडा गांव में आपका जन्म सं० १९८१ आंबिलभवन, तथा रिच्छेड का जैन उपाश्रय, मजेरा ज्येष्ठ मास में हआ। आपके पिता का नाम पथ्वीराज का जैन उपाश्रय यह सब आप के उपदेश का परि जी संघवी और माता का नाम नौजीबाई था। आप णाम है । आप ज्योतिष शिल्पशास्त्र तथा आगम गन्थों तीन भाई थे। दूसरे भाई बम्बई में दुकान चलाते के प्रकाण्ड विद्वान हैं। थे। आप भी १० वर्ष की छोटी सी उम्र में बम्बई आचार्य श्री का पहले नाम हिम्मतविजयजी था चले गये हैं । पिता ५ वर्ष में माता १४ वर्ष में और मगर प्राचार्य पदवी के समय परिवतेन कर हिमाचल बम्बई वाले भाई की १५ वर्ष में मृत्यु हो गई, । श्राप सूरिजी रक्खा गया। बम्बई में रहते हुए अधेरी में आचार्य श्री रामचन्द आपके शिष्य परिवार में मुनि श्री भव्यानन्द सरीश्वरजी के पास उपधान करने गये । आपकी विजय, लक्ष्मी विजय, मनक विजय, रत्नाकर विजग, वैराग्य वाहिनी देशना से हृदय पलट दिया। वैराग्य केशवानन्द विजय, और संपत विजय, मुनि इन्द्र रंग में रंगे मुमुक्षु श्री भव्यानन्द विजयजी रत्नाकर विजय, मोती विजय विद्यमान हैं । विजयजी श्री के शवानंद विजयजी आप तीनों एक ही ____पं० कमल विजयजी के एक शिष्य देवेन्द्र विजयजी गांव के हैं। है। आचार्य श्री आज्ञा में करीब ८०-६० साध्वीजी उदयपुर के सुप्रसिद्ध चौगानिया के मंदिर के मौजूद हैं। निकट वट वृक्ष के नीचे आचार्य श्री विजय हिमाचल Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन श्रमण संघ का इतिहास सूरीश्वरजी के कर कमलों से सं० १६६८ के वै० शु० ३ के दिन आपने भगवती दीक्षा स्वीकार की। अपनी प्रखर बुद्धिमत्ता से सन् १६४६ तक तो आपने गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज की शास्त्री परीक्षा पास करली । सन् ५३ में सौराष्ट्र विद्वद् परिषद् की 'संस्कृत साहित्य रत्न' की परीक्षा में सर्व प्रथम आये । आप द्वारा लिखित छोटी बडी दो दर्जन से ऊपर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जगद्गुरूहीर पर पांचसौ रुपयों का प्रथम पुरस्कार, जैन और बौद्ध दर्शन के निबंध पाररसौ रुपयों का द्वितीय पुरस्कार भी आपको प्राप्त हुआ है। आपकी जबान और लेखली दोनों ही चलती है, बडी विशेषता है । मुनि श्री गजेन्द्र विजयजी म० संसारी नाम हाथीभाई जन्म संवत् १६५८ महासुद १३ आजोर (मारवाड)। पिता मलूकचन्दजी माता सजूबाई । जाति व गौत्र जैन नीमा सोलंकी : दीक्षा सं. १६८७ महासुदी ५ स्थान पोकरण फलौदी । गुरु पन्यासजी श्री पद्मविजयजी गरिण। आप महान् तपस्वी आत्मा हैं। आपके वर्धमान तप की ६० वीं ओली चालू है । मुनि कल्याण विजयजी जन्म सं० १६६६ राजगढ़ मालवा जन्म नाम सुगनचन्द | पिता जड़ावचन्दजी मोदी। माता गेंदीबाई दीक्षा सियाणा (राजस्थान) मार्गशीष शुक्ला १३ गुरु श्री मद्विजय भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म० । आपने गुरु सेवा रहकर जैनागम, व्याकरण, काव्यकोष न्यायादि साहित्य का अध्ययन किया। धार्मिक, सामाजिक कार्यों का उपदेश द्वारा प्रचार करते हैं । में मुनिराज श्री कान्तिसागरजी म० खरतरगच्छाचार्य स्वर्गीय श्री जिनहरिसागरसूरि जी महाराज के शिष्य मुनिराज श्री कान्तिसागरजी महाराज प्रसिद्ववक्ता के नाम से विख्यात हैं। आप रतनगढ़ बीकानेर के ओसवाल कुल भूषण श्री मुक्तिमलजी सिंघी के सुपुत्र हैं। बाल्यवस्था में ही गृहस्थ धर्म को छोड़कर आपने जैन दीक्षा ग्रहण करली। अपनी कुशाग्रबुद्धि और गुरु की कृपा से व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश अलंकार तथा जैन व जैनेतर ग्रन्थों को अभ्यस्त कर बक्तृत्व शक्ति का उत्तरोत्तर विकास किया। आपकी प्रतिभाशालिनी वक्तृत्व शैली आकर्षक है । विकासोन्मुखी प्रतिभा के बलपर बड़वानी, प्रतापगढ़, अरनोद, उदयपुर आदि कई नरेशों को अपने सार गर्भित भाषणों द्वारा अनुरागी बना कर जैनधर्म के प्रति निष्ठा की जागृति की। आपके सार्वजनिक andar com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ व समन्वयवादी भाषणों द्वारा कई स्थानों पर फूट का विलीनीकरण होकर संप सङ्गठन का प्रादुर्भाव हुआ है। आप तपस्या में बडी श्रद्धा रखते हैं। बीकानेर के चातुर्मास में आपने स्वयम् मासक्षमण तप किया था। आप श्री के उपदेश से खेतिया, तलोदा और नागौर आदि कई स्थानों पर भव्य जिन मन्दिरों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार कार्य हुए हैं एवं ज्ञान मन्दिर भी स्थापित हुए हैं। मकसी, बीकानेर, आमेट, जलगाँव, आवीं, हैद्राबाद और कुलपाक आदि कई स्थानों पर प्रतिष्ठाऐं शांति स्नात्रादि कार्य सम्पन्न 60 आपके सदुपदेश से खामगाँव, तीर्थ भद्रावती, टिन्डी वनम और आर्वी आदि कई स्थानों पर भव्या मुनि श्री न्याय विजयजी म. त्माओं ने उपधान तप किया। जैन मुनिराजों के संसर्ग तथा सिद्ध गिरीजी के यात्रा न्यायतीर्थ, साहित्यशास्त्री मुनि श्री दर्शनसागरजी के समय गुरुणीजी श्रीमान श्रीजी के उपदेश से आप महाराज को साथ लेकर आपने बंगाल, बिहार, यू.पी. में वैराग्य भावना जागृत हुई और विवाह के प्रस्ताव राजस्थान, मध्य भारत, खानदेश, बरार और सौराष्ट्र को अस्वोकृत कर सं० १६६५ आषाढ़ शुक्ला ११ को आदि प्रदेशों में विहार कर जैन धर्म के सूत्रों से आचार्य श्री विजय यतीन्द्रसूरिजी म. के पास डूडसी समन्वयवाद, अहिंसा, एकीकरण, सामाजिक, धार्मिक, (मारवाड़) में दीक्षा अंगीकार की। आपका नाम आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर जनता को लाने का न्याय विजयजी रक्खा गया । बड़ी दीक्षा १६६६ माघ प्रयत्न कर रहे हैं। शु०५ को सियाणा में हुई। वर्तमान में आप २२ वर्ष के दीक्षा पर्यायी होकर मानराज श्री न्यायविजयजी महाराज जैनागमों के तथा संस्कृत प्राकृत के धुरन्धर विद्वान ___आपका जन्म सं. १६७० पौषशुक्ला ३ को खाच. और जैन विधि विधानों के प्रकांड पारगामी हैं। मारवाड़ में आपका अच्छा प्रभाव है। आपके शुभ रौद (मालवा) में हुआ। पिता का नाम श्रीकिस्तूरचंद हस्त से प्रायः-प्रति वर्ष प्रतिष्ठाएं उपधान आदि जी बोहरा बीसा ओसवाल । जो वर्षों से साटाबाजार धार्मिक कृत्य होते ही रहते हैं। आप एक अच्छे इन्दौर में व्यवसाय करते हैं। माता का नाम धूरीबाई वक्ता एवं लेखक भी हैं। आपके यशो विजयजी नामक था। प्रारंभ में आपने उज्जैन मिल में कार्य किया। शिष्य भी प्रगतिशील विचारों के विद्वान मुनि हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जन श्रमण संघ का इतिहास मुनिराज श्री विशाल विजयजी महाराज राधनपुर (गुजरात) में स्थित श्री शान्तिनाथजी जिलालय के निर्माता श्रवण श्रेष्ठी के वंशज सेठ भिकमजी मकनजी वीसा श्री माली गौत्र गोच्चनाथिया (तुगियाणा) के आप पुत्र थे। माता नन्दुबेन उर्फ प्रधानबाई की कुक्षि से सं० १६४८ फाल्गुन शुक्ला को आपका जन्म हुआ। संसारी नाम वृद्धिलाल था। आपके पिताजी और अग्रजबंधु एक ख्याति प्राप्त विद्वान है । पाइ असद् महाएणवों' नामक ग्रन्थ के संपादक है और इनकी ही देख रेख में बनारस में श्री यशोविजय जी जैन संस्कृत पाठशाला में वृद्धि लालजी ने ज्ञानाभ्यास किया । सौभाग्य से युगवीर प्राचार्य श्रीमद् विजय धर्म सूरीश्वरजी के दर्शनों तथा सम्पर्क का लाभ इन्हें मिला । वि० सं० १६७० मार्ग शीर्ष शु०६ के दिन व्यावर में आचार्य देव के शुभ हस्त से दीक्षित हो स्व० शान्त मूर्ति श्री जयन्त विजय जी म० के शिष्य बने । आचार्य विजय धर्म सूरिजी की परम्परा में प्रायः एक परम विद्वान, ज्ञानाभ्यासी होने के साथ २ सभी शिष्य उच्च श्रेणी के विद्वान मिलेंगे। आप आप बड़े तपस्वी मुनि हैं । आपने निम्न ग्रन्थों की रचनाएं की हैं:-द्वाषष्टि मार्गणाद्वार, संस्कृत प्राचीन भी बड़े विद्वान हैं । साहित्य रसिक हैं । आपने वल्ल- स्तवन संग्रह, सुभाषित पद्य रत्नाकर ५ भाग, श्री भीपुर में स्थापित श्री वृद्धि धर्म जैन ज्ञान मन्दिर को नाकोड़ा तीर्थ, भारोल तीर्थ, चार तीर्थ, कावि गंधार एक उच्च कोटि का ज्ञान भंडार बनाया तथा श्री यशो झगदिया तीर्थ, शंखेश्वर स्तवनावलि, बे जैन तीर्थो, श्री घोघा तीर्थ इत्यादि। विजय जैन ग्रन्थ माला भावनगर के द्वारा सा साहित्य आपके ग्रन्थों में शोध खोज पूर्ण ठोस साहित्य प्रकाशन में सतत् सचेष्ठ हैं। स्वयं सुलेखक हैं। के दर्शन होते हैं। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण तपागच्छीय त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय श्री सौधर्म बहत्पागच्छीय पार परम्परा में ६७ वें पाट पर पूज्य जंनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर जी महाराज बड़े प्रभाविक आचार्य हुए हैं। त्रिस्तुतिक संप्रदाय के आद्य प्रेणता आप ही हैं। आपने अद्वितीय और सर्व मान्य अभिधान राजेन्द्र कोष की रचना की है । थाप भरतपुर निवासी पारख गोत्रीय ओसवाल थे । आपके पाटवर जैनाचार्य श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी म० हुए। आप भी बड़े विद्वान् और प्रभाविक थे । आप किशनगढ़ निवासी ककु चोपड़ा गोत्रीय ओसवाल थे । आपके कई एक शिष्य थे । आपके समय में ही पट्टधर बनने के विषय में प्रधान शिष्यों में आपसी वैमनस्य उमड़ चुका था । आपके बाद में दो आचार्य हुए श्री विजय भूपेन्द्रसूरिजी तथा श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरिजी । पं० श्री भूपेन्द्रसूरिजी के पट्टधर आ. श्री विजय यतीन्द्रसरिजो विद्यमान हैं। स्व० आ० श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरीश्वरजी आप सागर (म०प्र०) निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे । सं० १६४८ कार्तिक शुक्ला १० को आपका जन्म हुआ था। आपके पिताजी का नाम नाथूरामजी तथा माताजी का नाम लक्ष्माबाई था । जन्म नाम नारायण था । आपने प्रथम यति दीक्षा वि० सं० १६६१ में कमल गच्छाधिपति श्री पूज्य श्री सिद्धसूरिजी महाराज के पास बीकानेर में ग्रहण की थो और फलौदी निवासी यति पदमसुन्दरजी के शिष्य घोषित हुए । यति पद्मसुन्दरजो बड़े पण्डित और प्रख्यात पति थे । जोधपुर के महाराजा सर प्रतापसिंहजी ने चार गाँव सौरभ १७७ मेड़ता परगने में इनायत किये थे । आपके देहावसान हो जाने पर यति नारायण सुन्दर ने विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी के पास सं० १६६४ खाचरोद ( मालवा ) जैन तीर्थ में हुई थी। आपका शुभ नाम तीर्थ विजय साधु दीक्षा ग्रहण की थी। बडी दीक्षा भोलडीयाजी में आचार्य श्री विजय तीर्थेन्द्रसूरीश्वरजी जी रखा गया था। आप आचाय श्री के बड़े प्रिय शिष्य थे । आचार्य श्री ने आपको ही पट्टधर आचार्य बनाने की घोषणा की थी । वि० सं० १९७२ में विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज ने आपको पन्यास पद प्रदान किया था । और वि० सं० १६८१ में महाराजाधिराज श्री झाबुआ नरेश श्री उदयसिंह साहब ने महामहोपाध्याय - पद प्रदान किया था और सं० १६६२ में भीनमाल निवासी श्री सिरेमलजी नाहर ने दर्शनार्थ आबूजी का संघ निकाला था। वर्तमान में दोनों की परम्परा है । उस वक्त सकल श्री संघ तथा संघवीजी ने मिलकर आपको आबूजी पर आचार्य पद प्रदान किया था । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ में हुई हैं । आप संस्कृत और हिन्दी के अच्छे विद्वान कवि हैं। मुनिराज श्री कमलविजयजी म० मनिराज श्री जयविजयजी म० गुरुदेव ने कई एक महानुभावों को साधु दीक्षा देकर शिष्य बानाए थे। जिसमें से अभी विद्यमान प्रधान शिष्य मुनिराज श्री जयविजयजी महाराज हैं। आप जयपुर निवासी हैं और राठौड़ वंशीय राजपूत हैं। आपका जन्म सं० १६४८ वैशाख सुदी पंचमी का है। अापने सं० १६७६ मिंगसर सुदी पंचमी को दीक्षा ग्रहण की थी। बड़ी दोक्षा अलीराजपुर (मालवा) में वि० सं० १६८१ में हुई थी और आपको गुरुदेव ने ही विद्याभूषण' का पद प्रदान किया था। संवत् १६६२ माघ सुदी सातम के दिन मुनि श्री लब्धिविजयनी महाराज को दीक्षा दी गई । संवत् २००३ माघ सुदी तेरस को मुनि श्री कमलविजयज की दीक्षा धानेरा ( उत्तर गुजरात ) में हुई । बडी दीक्षा बामणवाडजी में स० २००४ में दी गई है। आपकी जन्म भूमि झाबुआ (मालवा) है आप सूर्यवंशी राजपूत हैं। आप साहित्य प्रेमी एवं गंभीर विचारक हैं । मनिराज श्री मनकविजयजी म० महिमा का घर मालवा के अरणोद गांव में आप का जन्म हुआ था। आप बाल ब्रह्मचारी हैं सं० १६६ की साल में मन्दसौर में आपकी दीक्षा हई। मनि मुनिराज श्री लब्धिविजयजी म० श्री लक्ष्मीविजयजी के यह प्रथम शिष्य हैं। दिन भर आपका जन्म स्थान खरसोद है और शाकलद्वीपी ध्यान करते रहते हैं । आपकी उम्र इस समय करीब ब्राह्मण हैं। आपकी बड़ी दीक्षा फलौदी में सं० १६६३ ६० वर्ष की है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १७६ महान तपोनिष्ठ प्राचार्य श्री विजय सिद्धी सूरीश्वरजी म० (दादा) वर्तमान जैन श्रमण संघ में संभवतः सबसे वयोवृद्ध महामुनि आप श्री ही हैं । इस समय (सं. २०१६)में आपकी आयु करीब १०५ वर्ष है । आप श्री का जन्म सं०१६११ श्रावण शुक्ला १५ को अहमदाबाद में हुआ। १३ वर्ष की अवस्था में प्रबल तम वैराग्य भावना के कारण आपने तत्कालीन महा प्रभाविक पूज्य श्री मणि विजयजी (दादा) के पास सं० १६२४ जेठ वदी २ को अहमदाबाद में दीक्षा अंगीकार की। सं० १६५७ आषाढ़ सुदी ११ को पन्यास पद तथा सं० १६७५ महासुदी ५ को मेहसाना में आप आचार्य पद विभूषित किये गये। इतने लम्बे दंक्षा पर्याय में आ० श्री के शुभ हस्त से अनेकों धार्मिक कल्याणकारी कार्य सम्पन्न हुए हैं। वर्तमान जैन श्रमण समुदाय में आप श्री के प्रति अति श्रद्वा भार हैं । इतने वयोवृद्ध होते हुए भी आप श्री का तपानुष्ठान चालु है। महान तपस्वी आप श्री के ६ प्रमुख शिष्य हुए श्री ऋद्धि विजयजी, विनय विजयजी, प्रमोद विजयजी, पं० रंगविजयजो, आचार्य विजय मेघसूरिजी, केसरविजयजी आदि । श्री विनय विजयजी के शिष्य आचार्य श्री विजय भद्रसूरिजी और प्रशिष्य आचार्य ॐकारों सरिजी विद्यमान हैं। आचार्य श्री मेघसरिजी के १० प्रधान शिष्यों में से आचार्य विजय मनोहर सरिजी, सुमित्र विजयजी, विचक्षण विजयजी, सुबोध विजयजी, सुभद्र विजयजी आदि तथा प्रशिष्य में श्री मृगाक विजयजी, भद्रकर विजयजी, मलय वि. विबुध वि. हेमेन्द्र वि० नय वि०, सुधर्म वि०, क्षेमकर वि०, सूर्यप्रभ वि० आदि २०० साधु साध्वी समुदाय है। जा मुनिराज श्री सुबोध विजयजी महाराज जन्म नाम त्रिकमलाल । जन्म तिथि-सं० १६५८ आषाढ़ सुद ४ रविवार अहमदाबाद रायपुर कामेश्वर नी पोल। पिता शंकरचंद जेसिंहभाई। माता गजराबाई। ओसवाल । दीक्षा सं० १९८१ फा०शु०१०। आप श्री महान तपस्वी हैं। प्रायः नित्य प्रति तपस्या क्रम मुनिराज श्री सुबोध विजयजी म. चालू रहता है । आपके शुभ हस्त से प्रतिष्ठा, अंजन शलाका, पवान आदि अनेक धार्मिक कृत्य हुए हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन श्रमण-संघ का इतिहास प्राचार्य श्री विजयभद्र सूरीश्वरजी म. मुनिराज श्री प्रकाश विजयजी म. - आपका जन्म सं. १६३० वैशाख शु. ६ राधनपुर में हुआ सं० नाम भोगीलाल था। पिता नगर सेठ श्री उगरचन्दजी भाई । माता सूरजबेन । बीसा श्री माली जैन, मसालिया गौत्र । दीक्षा सं० १६५८ वै० शु० १५ राधनपुर । सं० १६७० मिगसर सुद १५ को पन्यास पद तथा सं० १९८६ पौष वदी ७ को आचार्य पद विभषित किये गये। आपने अपनी धर्मपत्नि के साथ सजोड़े आ० विजय सिद्धी सरिजी के प्रशिष्य पं० विनय विजयजी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। वर्तमान में आपकी आज्ञा में करीब ४० मुनि हैं तथा ७० के करीब साध्वियां हैं । आप ी के शुभ नेश्राय में पालीताणा, आबूजी, भोयणीजी शंखेश्वरजी आदि कई तीर्थ स्थानों की यात्रार्थ बड़े बड़े विशाल छः री पालते संघ निकले हैं । अनेक प्रतिष्ठाए उपधान आदि धार्मिक कृत्य हुए हैं । आपके शिष्यों में श्री मद् विजय ॐकार संसारी नामः-श्री हजारीमलजी । जन्म तिथिःसूरीश्वर जी महाराज आचार्य हैं। वि० सं० १६६८ फाल्गुण सुदी ६ ता० २१-२-१२ श्री. श्री विजय ओंकार सरीश्वरजी म. बुद्धवार । जन्म स्थान:-झाडोली (सिरोही-मारवाड़) पिताः-श्री ताराचन्दजी। माताः-श्री सुमति बाई - आपका जन्म सं० १६८९ आसोज- शुक्ला १३ जी। जाति-पोरवाल, अग्नि गोत्र चौहान । दीक्षा:को हुआ। संसारी नाम चीनुकुमार । पिता ईश्वरलाल सं० २००१ प्रथम वैशाख सुदि ६ पालीताणा में । बडी भाई । माता कंकुबेन । बीसा श्रीमाली जैन। गुरु दीक्षा:-बोरु (गुजरात) वैशाख सुदि १४ वि० सं० आचार्य श्री विजय भद्रसरिजी। २००१ । गुरुः-राजस्थान केसरी--ज्योतिषाचार्य-आचार्य श्री पूर्णनन्द सूरिजी महाराज । आप श्री की तपस्या आपने अपने पिता के साथ झिंझुवाड़ा में सं० में विशेष रुचि है। स्वंय तथा श्री संघ से भी खूब १६६० महासुद १० के दिन दीक्षा अंगीकार की। तपस्या करवाते हैं। बड़ौत में गुरु मन्दिर की प्रतिष्ठा, पिता का मुनि नाम विलास विजयजी रक्खा गया तथा नाभा में मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। सं० और आप उनके शिष्य ओंकार विजयजी बने । तपानु. २०१५ में आपकी प्रेरणा से पालीताणा को यात्रा ष्ठान की ओर आपका विशेष लक्ष्य रहता है । सं० संघ' गया । सं० २०१६ में पट्टी में ३८ व्यक्तियों ने २००६ मिगसर सुदी ६ को राधनपुर में पन्यास पद ब्रह्मचर्य व्रत का नियम लिया। सं० २०१० में पालेज तथा सं० २०१० महासुदी १ को मेहसाना में आ० में ज्ञान मन्दिर खोला। आपके ३ शिष्य हैं श्री नन्दन श्री विजय भद्रसरिजी के शुभ हस्त से आचार्य पद विजयजी, श्री निरंजनविजयजी तथा श्री पद्मविजयजी विभषित बने। महाराज। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १८१ AIRS 50-41SIMILAINRISITISAILIONISTAmsanelium>AIMINISTRIBAHINE 15OName>Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास स्व० पन्यासजी श्री धर्मविजयजी गणी पूज्य पन्यासजी श्री मोहनविजयजी गणिवर से पारने सं० १६५२ आषाढ सुदी १३ को दीक्षा अंगीकार कर मुनि मार्ग में प्रवर्तित हुए। प्रवज्या के बाद अल्पकाल में ही आपने जैना गमों, न्याय व्याकरण आदि ग्रन्थों का पांडित्य पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर जैन जगत् में चमक उठे। आप एक प्रख्यात आध्यात्मिक मुनि के रुप में "आत्मानदी" के नाम से पहचाने जाने लगे। आप बाल ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचर्य का तेज, वाणी माधुर्य और व्याख्यान कुशलता से आगन्तुक आकर्षित हुए बिना नहीं रहता हा। ऐसे में अगर उसे आपके श्री मुख से सुमधुर आध्यात्मिक भजन सुनने का सौभाग्य मिल जाता तो वह हृदय विभोर हो गद् गद् हो उठता था। सं० १६६२ मिगसर सुदी १५ के दिन पूज्य पंडित मुनि श्री दयाविमल जी म० के शुभ हस्त से डेहलाना महान् आध्यात्मिक एवं तपोनिष्ठ स्वर्गीय पूज्य उपाश्रय राजनगर में योगोद्वहन पूर्वक श्रापको पन्यास पन्यासजी श्री धर्म विजयजी गणिवर का नाम जैन पद विभाषित किया गया। जगत् में आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया आपकी विशिष्ठ प्रतिभा और प्रख्याती से प्ररित जाता है। हो जैन संघ ने सं० १६७५ में आपश्री को आचार्य पद ___आपका जन्म पाटन (गुजरात) के समीपस्थ विभूषित करना चाहा पर आपने ऐसा स्वीकार नहीं थरा नामक ग्राम में सं० १६३३ पौष वदी १४ को हुआ' किया। पिता का नाम सेठ मयाचंद मंगल चंद तथा माता सं० १६६० में राजनगर में हुए श्री अखिल का नाम मिरांतबाई और जन्म नाम धर्म चंद था। भारतीय श्वे. मूर्तिपूजक साधु सम्मेलन में आपश्री आप बाल्यकाल से ही बडे गुण ग्राही साधु का अच्छा सहयोग रहा। सम्मेलन के दिनों में ही प्रकृति के गंभीर विचारवान वैरागी महानुभाव थे। आपको श्वास रोग ने आ घेरा। वहीं से स्वास्थ्य बड़े संगीत प्रेमी थे। संकीत गान में आध्यात्मिक गिरता गया और अन्त में सं०१६६० चैत्र वदी ७ के भजन गाने का बड़ा चाव था। इनकी आध्यात्मिक दिन राजनगर में स्वर्ग सिधारे। भजन गान में यह तल्लीनता ही इनकी जीवनाधार आपश्री द्वारा संरक्षित डेहलाना उपाश्रय में बनी और आप में वैराग्य भावना उत्तरोत्तर बलवती हजारों प्राचीन ग्रन्थोंका भंडार उस महा विभति की याद बनती गई । अन्ततः उस समय सिद्ध क्षेत्र में विराजित दिलाकर आल्हादित बनाता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज आपका जीवन अहिंसा, सत्य, जप, तप, वेराभ्य, संयम, क्षमा, करुणा, दया, प्रेम, उदारता तथा सहिष्णुता का मंगलमग सजीव प्रतीक है। आपका व्यक्तित्व महान् तथा विराट है। आपके जीवन में जीवन के सभी मार्मिक तत्वों का पूर्ण सामन्जस्य उपलब्ध होता है I आपका जन्म सम्वत् १६३६ भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को रहों (जिला जलन्धर) में हुआ था । पिता रहों के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ मन्सारामजी चौपड़ा थे । मातेश्वरी श्री परमेश्वरी देवी थी । आप आठ ही वर्ष के थे कि माता-पिता का छत्र सिर से उठ गया । आपकी दम वर्ष आयु में दादीजी भी चल बसीं । माा, पिता तथा स्नेहमयी दादी के वियोग से व्यापका बचपन खेदखिन्न रहने लगा था, संसार का ऐश्वर्य' और वैभव फीका सा लग रहा था ! मन घर में रहना नहीं चाहता था। एक बार आपको लुधि• याना आना पड़ा । लुधियाना में उस समय पूज्य श्री जय रामदासजी म० तथा श्री शालिगरामजी महाराज विराजमान थे। मुनियुगल के दर्शन से आपके प्रशान्त मन को कुछ शान्ति मिली। धीरे-धीरे मुनि राजों के सम्पर्क से मन वैराग्य के महासरोवर में गोते खाने लगा. और अन्त में सम्वत् १६५१ अषाढ़ शुक्ला पंचमी को बनूढ़ (पंजाब) में आप श्रद्वय श्री स्वामी शालिग्रामजी के म. चरणों में दीक्षित हो गये । आगम महारथी, पूज्य श्री मोतीरामजी महाराज के चरणों में हमारे आचार्य सम्राट के बाल मुनि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १८३ जीवन ने शास्त्राभ्यास करना शुरू किया । इन्ही की कृपा-छाया तले बैठकर आपने आगमों के महासागर का मन्थन किया । आगमों के अतिरिक्त आप उच्चकोटि के वैयाकरणी, नैयायिक तथा महान् दार्शनिक हैं। आपकी इसी ज्ञानाराधना के परिणामस्वरूप पंजाब के प्रसिद्ध नगर अमृतसर में सम्वत् १६६६ फागुण मास में स्वर्गीय श्राचार्यप्रवर पूज्य श्री सोहनलालजी महाराज ने आपको 'उपाध्याय' पद से विम्षित किया । आपकी उच्चत्ता, महता तथा लोकप्रियता दिनप्रतिदिन व्यापकता की ओर बढ़ रही थी। आपकी विद्वता ने, आपके चरित्र ने समाज के मानस पर अपूर्व प्रभाव डाला। उसी प्रभाव का शुभ परिणाम था कि आचार्यवर पूज्यश्री काशीरामजो महाराज के स्वर्गवास के अनन्तर सम्वत् २००३ लुधियाना की पुण्य भूमि में चैत्र शुक्ला प्रयोदशी को पंजाब का आचायपट आपको अर्पित किया गया । है आचार्य श्री का महान् व्यक्तित्व पंजाब में ही नहीं चमक रहा था, प्रत्युत पंजाब से बहार भी आशातीत सम्मान पा रहा था। सं० २००१ का वृहद् साधु समेलन, सादड़ी इस सत्य का ज्वलन्त उदाहरण सादडी महासमेलन में हमारे पूज्यश्री वृद्धावस्था कारणउपस्थित नहीं हो सके थे, तथापि सम्मेलन में उपस्थित सभी पूज्य मुनिराजों ने एकमत से "प्रधानाचार्य " के पद पर आचार्य देव को ही स्वीकार किया। एक ही जीवन में उपाध्यायत्वं भाषाय और प्रधानाचार्यत्व की प्राप्ति करना माध्यत्मिक के www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन श्रमण संघ का इतिहास जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। आचार्य सम्राट पाठ पाए हैं, उन सबका प्रायः इसमें संग्रह किया की महीमा, उच्चता तथा लोकप्रियता का इससे बढ़ गया है। कर क्या उदाहरण हो सकता है ? चरितनायक की अब तक ७० पुस्तकें साहित्य प्राचार्यदेव चरित्र के साक्षात् आराधक रहे हैं। संसार में प्रकट हो चुकी हैं। जिनमें श्री उतराध्ययन जीवन को इन्होंने चरित्र की उपासना में ही अर्पित सूत्र (तीनभाग) श्री दशाश्रु तस्कन्धसत्र, श्री अनुत्तरो. किया है। आप बाल ब्रह्मचारी हैं। पपातिक दशा, श्री अनुयोगद्वार, श्री दशवैकालिक, आचार्यदेव अपने युग के उच्चकोटि के व्या- श्री तत्वार्थसूत्र, श्री अन्तकद्दशांगसूत्र, श्री आवश्यकसत्र ख्याता रहे हैं। आपकी वक्तृत्व-शक्ति में शास्त्रीय (साधु प्रतिक्रमण ), श्री आवश्यक सत्र (श्रावक प्रतिरहस्यों का विवेचन रहता है। आपके शास्त्रीय क्रमण, श्री आचारांग सूत्र, श्री स्थानांगसूत्र, तत्वार्थ प्रवचनों से प्रभावित होकर ही देहली के श्री संघ ने सूत्र-जैनागमममन्वय, जैनतत्वकलिकाविकास, जैना"जैनागमरत्नाकर" पद से सम्मानित किया था। गमों में अष्टांग योग, जैनागमों में स्याद्वाद (दोभाग), जैनागमन्यायसंग्रह, वीरत्थुई, विभक्तिसंवाद सं० १६६० में भापका चातुर्मास देहली था। जीवकर्मसम्वाद आदि प्रन्थरत्न मुख्य हैं। इन प्रन्यों उस समय सरदार वल्लभ भाई पटेल और भूलाभाई के अध्ययन से चरितनायक के आगाध पाण्डित्य का देसाई आज राष्ट्रनेता श्राप श्री के पास उपस्थित हुए परिचय प्राप्त हो सकता है। थे। सं० १९६३ में आप रावलपिंडी थे, उम समय प्राकृत भाग तथा साहित्य के विद्वान के रूप में भारत के प्रधान मन्त्री पं० नेहरू भी आपके दर्शनार्थ आचार्यसम्राट की ख्याति भारत के कोने-कोने में फैल आये थे। आपने इन्हें भगवान महावीर के आठ चकी है। पाश्चात्य विद्वान् भी प्रारकी प्राकृत-सेवाओं सन्देश सुनाये । पंजाब के भूतपूर्व प्रधान मन्त्री और में अत्यधिक प्रभावित हैं। एक बार आप लाहौर वर्तमान में आन्ध्र के गबनर श्री भीमसेन सच्चर पधारे, तब पंजाब यूनिवर्सिटी के वाइमचान्सलर आपके अनन्य भक्तों में से एक हैं। यह सब आचार्य तथा प्राकृत भाषा के विख्यात विद्वान् डॉ० ए० सी० सम्राट के प्रवचनों का ही अनुपम प्रभाव है। वल्नर से आपकी भेंट हुई। वार्तालाप प्राकृत भाषा आचार्यदेव का बौद्धिक बल तो बड़ा ही विचित्र में किया गया । डॉ० वनर ने आपको पंजाब यूनि. है। आपको शास्त्रों के इतने स्थल कंठस्थ है कि वर्सिटी की लायब्रेरी का प्रयोग करने के लिए निःशुल्क देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। आगमों के महासागर सदस्य बनाया। में कौन मोती कहाँ पड़ा है और किस रूप में पड़ा आचार्यसम्राट् का जीवनोपवन चरित्र, धैर्य आदि है ? यह सब आपसे छिपा नहीं है । सुगन्धित पुष्पों से भरा पड़ा है, एक-एक पुष्प इतना अपूर्व और विलक्षण है कि वर्णन करते चले जायें जैनागमों में 'स्याद्वाद' (दो भाग) आपका संग्रह फिर भी उपकी पहिमा का अन्त नहीं श्राने पाता । प्रन्थ है । जैनागमों में जहाँ कहीं भी स्याद्वाद संबंधो -ज्ञानमुनि Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १८५ उपाचार्य श्री गणेशीलालजी म. उपाध्याय श्री अानन्द ऋषिजी म. उपाचार्ग पूज्य श्री गणेशीलालजी महाराज सा. का दक्षिण प्रांत में अहमदनगर जिना के अन्तर्गत जन्म सं० १९४७ में मेवाड़ के मुख्य नगर उदयपुर चिचोडी शिराल नाम का एक प्राम है। वही भापकी में हुमा था। अत्यन्त उत्कृष्ट भाव से केवल १६ वर्ष जन्मभूमि है। पिता श्री का नाम सेठ देवीचन्दजी की अवस्था में मापने प्रव्रज्या अंगीकार की। अपने और माताजी का नाम हुलासा बाई जी था । सं० गुरुदेव पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज मा० की १६५७ के श्रवण मास में आपका शुभ जन्म हुआ। सेवा में रह कर मापने शास्त्रों का गहन अध्ययन बुद्धि कुशाम होने से स्कूली शिक्षण अल्प काल में किया। हो परिपूर्ण करके धर्मपरायण माताजी को प्राज्ञा सं० २०० में भीनासर में पूज्य श्री जवाहर से महाभाग्यवान पं० श्री रत्नऋषिजी म. के पास लालजो स. सा. के कालधर्म पाने के पश्चात् जैन धार्मिक शिक्षण लेने लगे। आप इस सम्प्रदाय के प्राचार्ग बनाये गये । प्राचार्ग तेरह वर्ण की कोमलवय में आपने सं० १९७० के रूप में आपने बढी हो गोग्यता, दक्षता एवं मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी रविवार के दिन पं० श्री सफलता के साथ सम्प्रदाय का संगठन एवं संचालन रनऋषिजी म. के पास मीरी अहमदनगर, में भागकिया । वती दीक्षा धारण की। अल्प समय में ही पापने मापकी वैयावच्च वृत्ति, गम्भीरता और सौम्यता व्याकरण, साहित्य, न्याय, विषय के प्रसिद्ध प्रन्यों का स्पृहणीय एवं अनुकरणीय है। और सटीक जैनागमों का विधिषत अभ्यास किया। भापकी व्याख्यान-शैली बडी ही मधुर, प्राकक साय ही हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि प्रान्तीय एवं श्रोताओं के अन्तस्तल को स्पर्श करने वाली है । भाषामों में व्याख्यान देने की क्षमता धारण की । आपके विनय और गांभीर्य आदि गुणों से और उर्दू फारसी तथा अंग्रेजी भाषा की जानकारी प्रभावित एवं भाकर्षित होकर सादडी मारवाड में हुए प्राप्त की। 'प्रसिद्धवक्त्ता' और 'पंडित रत्न' के रूप में स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के बहत साधु सम्मेलन आपकी ख्याति हुई। के समय बाईस सम्प्रदायों ने मिलकर आपको उपा- समाज में ज्ञान का प्रचार हो ऐसी मापकी हार्दिक चार्ग, पद प्रदान किया। जिसकी जवाबदारी सफलता भावना रहती है। आज्ञा में विचरने वाले सन्त पूर्वक निर्वाह करते हुए पाप श्री पाज तक चतुर्विध सतियों को अवसर निकाल कर स्वयं शिषण देने श्री संघ की सेवा कर रहे हैं। में तत्पर रहते हैं और स्थान पर शिक्षण की व्यवस्था __ भव्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व, साधुता के करने के लिये संघ को भी उपदेश देते रहते है। गुणों से सम्पन, नेतृत्व की अपूर्व क्षमता, सरलता शुद्ध चरित्र पालन करने कराने की तरफ मापका लक्ष्य एवं गम्भीरता को सजीव मूर्ति उपाचार्य श्री समाज विशेष रहता है। सं० १६६३ माघ कृष्णा ५ पुषधार को एक विरन विभति है के दिन भुसावल में ऋषि सम्प्रदाय के युवाचार्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन श्रमण-सौरभ पद पर विराजमान हुवे और सं० १६१२ माघ कृष्णा के लिये पाथर्डी, अहमदनगर, और धोड़नदी में ६ बुद्धवार के रोज चतुर्विध श्री संघ ने माप श्री जी श्री जैन सिद्वान्तशालाएं स्थापित हैं। इसी प्रकार को पाथर्डी (अहमदनगर) में आचार्य पद पर मासीन धार्मिक शिक्षण को सुव्यवास्थित रूप देने के लिये किया । श्री तिलोक रत्न स्था. जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड पाथर्डी और वर्द्धमान जैन धर्म शिक्षण प्रचारक ___ महाराष्ट्र, निजाम स्टेट, बरार, सी० पी० आदि सभा (पाथर्डी) नाम से दो व्यापक संस्थाएं समाज प्रान्तों में विचरकर आप श्री जी ने समाज में खूब में काम कर रही हैं। इनके सदुपदेशक श्री उपाध्याय जागृति फैलाई। पूज्य श्री जी के सदुपदेश से बहुत जी ही हैं। पाथर्डी की श्री रत्न जैन पुस्तकालय से जैन जैनेतरों ने भी मय मांस तथा कुव्यसनों का जिसमें हस्तलिखित और मुद्रित लगभग १०००० बहु त्याग किया। सं० २००६ चैत्र मास में स्था० जैन मुल्य पुस्तकों का संकलन है । आप श्री की ही प्रेरणा कान्झन्स की योजनानुसार व्यावर में ५ संप्रदायों का का सफल परिणाम है। इनके अलावा तिलोक जैन संघठन हुवा। उस समय पांचों संप्रदायों ने सांप्र. विद्यालय पाथर्डी, श्री जैनधर्म प्रसारक संस्था नागपुर दायिक पदवियों का त्याग करके एक वीर बद्धमान श्री रत्न जैन विद्यालय बोदवड़, श्रीवर्द्धमान जैनछात्रास्था० जैन श्रमण संघ की स्थापना की और उसका लय राणावास श्री महावीर सार्वजनिक वाचनालय संचालन करने के लिये प्रधानाचार्य पद पर श्राप चिचोंडी, श्री वर्तमान स्था. जैन विद्यालय शाजापुर, श्री जी की नियुक्ति की गई । जिसे आपने विधिवत् श्री वर्तमान स्था" जैन विद्यालय शुजालपुर आदि संचालन किया पश्चात् सं० २००६ के वैशाख शुक्ला अनेक संस्थाएं समाज में धार्मिक और व्यवहारिक ३ के दिन सादड़ी में हुए बहत साधु सम्मेलन में शिक्षण देने का काम कर रही हैं। श्री बर्द्धमान स्था० जैन श्रमण संघ की स्थापना हुई। प्रधानमंत्रीत्व का गुरुनम भार आपको ही सौपा उपाध्याय श्री प्यारचन्दजी महाराज गया । सं० २०१२ तक आप श्री ने उस गुरूतम कार्य ___पं० मुनि श्री प्यारचन्दजी महाराज ने अपने को संचालन कर श्रमण संघ की नीव को सुदृढ़ करने का श्रेय प्राप्त किया। सद्गुरु जैन दिवाकर चौथमलजी महाराज के चरणों में एकनिष्ठापूर्वक सेवा समर्पित की। जैनदिवाकरजी अखिल भारतीय श्रमण संघ के भीनासर संमेलन महाराज के प्रवचनों का संपादन आपकी विलक्षण में आपको उपाध्याय पद प्रदान किया गया। वर्तमान प्रतिभा का प्रभाव है। आप साहित्यप्रेमी और सरल में आप उपाध्याय पद पर विराजमान हैं। ज्ञान। प्रचार कार्य में आपका अन्तः करण विशेष रूप से। ववक्ता हैं । सादडी साधु-सम्मेलन में भाप सहमंत्री संलग्न रहता है इसके फलस्वरूप दक्षिण प्रान्त में के रूप में नियुक्त किये गए हैं। भीनासर सम्मेलन विचरने वाले सन्त सती वर्ग के शिक्षण की सुविधा में आप उपाध्याय पद विभूषित किये गये हैं। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ HuTIDIND DIlling MIn IpIRTHDAMOHHAUD I OHISCIRUSHNSOILD DISCIOUSKALIN SHO HINDIHINDomainedu उपाध्याय श्री हस्तीमलजी महाराज गंभीरता और चारित्र शीलता आदि गुणों से आकृष्ट होकर समाज ने सं० १९८७ में बड़ी धूमधाम और मध्यम कद, उन्नत ललाट, चमकती आंखें, उल्लास से जोधपुर नगर में आपको आचार्यपद से ओजपूर्ण मुखमंडल, साधनारत शरीर, तपःपूत अलंकृत किया। इतना कम उम्र में संभव ही कोई मानस, गंभीर विचार, सुदृढ़ आचार, गुण प्राहिणी भावना और अहर्निश स्वाध्याय निरत मस्तिष्क वाले प्राचार्य जेसे गुरुतर पद प्राप्तकर, उसके दायित्व को इस अनूठे ढंग से निभाए होंगे जैसा कि आपने आज के उपाध्याय श्री हस्तीमलजी महाराज का जन्म निभाया। पोपसुदि १४ सं० १६६७ में मरुधरा के ख्याति प्राप्त ____ श्राचार्य पद ग्रहण के बाद कुछ वर्षों तक नगर पीपाड़ में हुआ। मारवाड़, मेवाड़ और मालव भूमि में वर्षावास करते आपके पिता का नाम सेठ केवलचन्द जो और एवं ज्ञान सुरभि फैलाते हुए पुनः सुदूर दक्खिन जान माभि फैलाते हुए पन:: मातेश्वरी का रूपादेवी था। आप ओसवाल जातीय महाराष्ट्र की ओर चल पड़े। यह समय आपके आज बोहग वंश को अलंकृत करते थे। बाल्यकाल में ही तक के जीवन वृत्त का उमंग व उत्साह भरा फड़कता आपको पित वियोग रूप दारुण दुःख का सामना अध्याय कहा जा सकता है जिसमें प्रतिक्षण करना पड़ा और स्नेहमयी जननी की देखरेख में कुछ करने व आगे बढ़ने की भावना हिलोरें ले रही बचपन के दिन व्यतीत हुए । थी। अहमदनगर, सतारा (महाराष्ट्र ) गुलेदगढ़ सांसारिक उलझनों और विषमताओं की कड़वी आदि कर्नाटकीय अपरिचित भूभाग में भी आप बिना चोट से अत्यन्त छोटी उम्र में ही आप में वैराग्य किसी हिचक के अपने मार्ग पर आगे बढ़ते हो रहे भावना सजग हो उठी और केवल दस वर्ष की और निश्चय ही सीमा मंजिल तक पहुंचे बिना नहीं अवस्था में ही आपने रत्न वशीय पूज्य शोभाचन्दजी रहते, कारणवश यदि मरुधरा की ओर मुड़ना नहीं महाराज से सं० १६७७ में अजमेर नगर में दीक्षा पड़ता। प्रहण करली तथा ज्ञान ध्यान संवर्धन में अपने को इस विहार में आपकी शास्त्रानुराग कलिका कुछ सरसर्ग दिया। प्रस्फुटित हुई और नन्दी सूत्र की टीका इधर ही वर्षों आपने अतिसूक्ष्म दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत सम्पादित और चन्दमल बाल मुकुन्द मुथा के साहाय एवं हिन्दी का अभ्यास एकां शास्त्रों का उहापोह से पूना में प्रकाशित हुई । आगे चलकर दशवकालिक, किया, जिससे आपकी बुद्धि विकसित होगयी । श्रमण प्रश्न व्याकरण, वृहत्कल्प सूत्र भी पापसे सम्पादित समाज एवं श्रावक वर्ग में आपके किया निष्ठ पाण्डि- प्रकाशित हुए हैं, जो आपके शास्त्रानुराग के सुरमिपूर्ण त्य की बहुत जल्द धाख जमगई और लोग संस्कृत विकसित सुमन हैं । इसके अतिरिक्त, पदव्य विचार प्राकृत आदि भाषाओं के गहन अभ्यासी ए5 मर्मज्ञ पंचाशिका, नवपद आराधना, सामयिक प्रतिक्रमण के रूप में आपको स्वीकार करने लगे। गुरु निधन सूत्र सार्थ, स्वाध्याय माला प्र० मा., गजेन्द्र मुक्तावली के बाद २० वर्ष की छोटी सी उम्र में आपकी ज्ञान पंचमो, दो बात, पांच बात, महिला बोधिनी Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८% जैन श्रमण संघ का इतिहास ADDED DAMIHINDolya.indiatodilli 10-100 D IOSITINCIDIO HINIDEOINDUIDAORATHOM आदि संस्कृत हिन्दी को ज्ञान वर्धक पुस्तकें प्रकाशित धारण किये । आपका स्वभाव अत्यन्त शांत और हुई हैं, जिससे आपका ज्ञानानुराग सहज में समझा सरल है। वि० सं० १९८३ में नारनौल में आपको जा सकता है। __आचार्य पद दिया गया। आपकी क्रियाशीलता और ___ आपकी ज्ञान पिपासा अमिट है और उस अतप्ति विद्वत्ता की संयुक्त प्रान्त के संतों में अच्छी प्रतिष्ठा की पूर्ति के लिए आप सवेरे से लेकर शाम तक है । आपने सादडी साधु सम्मेलन में श्रमण संगठन आवश्यक कार्यों को छोड़कर शास्त्रावलोकन करते ही के लिए प्राचार्य-पद का त्याग किया और सम्मेलन रहते हैं। सचमुच ज्ञानार्जन व प्रवर्धन की यह प्रवृत्ति द्वारा आप अलवर भरतपुर यू० पी० क्षेत्र के प्रान्तीय हर व्यक्ति के बूते से बाहर की बात है। आप अध्य- मंत्री निर्वाचित हुए हैं। यबाध्यापन कार्य से कभी थकते नहीं और न कभी उपाध्याय कविवर पं० मनि श्री पाटे पर सहारे के बल बैठते तथा दिन में लेटते अमरचंदजी महाराज कविवर मुनि श्री अमरचन्दजी महाराज पूज्य श्री विगत सादडी साधु सम्मेलन में आपने महत्वपूर्ण पृथ्वीचन्दजी महाराज के विद्वान् शिष्य हैं । आगमों भाग लिया और श्रमण एकता का आदर्श स्थापित और शास्त्रों का आपने गहन अध्ययन किया है। करने में मक्रिय सहयोग देकर संघ को सफल बनाया। आपकी प्रवचन शैलीयुग के अनुरूप सरल और साहि. त्यिक है । आपने गद्य-पद्य कई ग्रन्थों की रचना करके सम्मेलन ने आपको साहित्य मंत्री एवं म्हमंत्री का साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रकाश फैलाया है। आगरा पददिया, जिसको आपने अच्छी तरह निभाया और गत के "सन्मति ज्ञानपीठ' प्रकाशन संस्था ने आपके भीनासर सम्मेलन में आप उपाध्याय पद से विभूषित साहित्य को कलात्मक रीति से प्रकाशित किया है। किए गए हैं । आपके ज्ञान और चरित्र से स्थानक आपके विचार उदार और असाम्प्रदायिक हैं। वासी समाज को बड़ी २ आशाएं हैं । आप प्रभाव आपकी विचारधारा समाज और राष्ट्र के लिये अभीनन्दनीय हैं। सादडी सम्मेलन में आप एक शाली वक्ता, साहित्यकार और चरित्रशील आध्यात्मिक अग्रगण्य मुनिराज के रूप में उपस्थित थे। इस समय मुनि हैं। स्थानकवासी जैन समाज के मुनिराजों में आपका आपके शिष्यों में सर्व श्री छोटे लक्ष्मीचन्दजी गौरवपूर्ण स्थान है।। महाराज आदि ५-६ हैं जो सबके सब सेवाभावी और पं० रत्न श्री प्रेमचन्द्रजी महाराज श्रमण परम्परा के कट्टर अनुयायी हैं। जहां जहां भी आपने चातुर्मास किया वहां वहां की जनता आपके ___स्थानकवासी जैन समाज में मुनि श्री प्रेमचन्द गुणों से प्रभावित हुए बिना न रही। जी महाराज "पंजाब केशरी' के नाम से प्रसिद्ध हैं। आपका भरा हुआ और पूरे कद का शरीर और आप पूज्य श्री पथ्वीचन्द्रजी महाराज की सिंह-गर्जना असत्य और हिंसा के बादलों को __ पूज्य श्री पृथ्वीचन्दजी महाराज ने सं० १६५६ में छिन्न-भिन्न कर देती है। जड़ पूजा के आप प्रखर पूज्य श्री मोतोरामजी महाराज के पास में पंच महाव्रत विरोधी हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ पंडित रत्न श्री पन्नालालजी महाराज जाने लगे । अतः आपके हृदय में वैराग्य भावना प्रस्फुटित हुई और वि.सं १६५७ के वैशाख शुक्ला शनिवार के शुभ मुहूर्त में आपने भागवती जैन दीक्षा कालु (आनन्दपुर) में अंगीकार की । आपने त्याग धर्म अपनाने के साथ जीवन को ज्ञानदीपक से आलोकित करने हेतु शास्त्राध्ययन सम्यक प्रकार से करना आरम्भ कर दिया और बुद्धि प्राबल्य से स्वल्प काल में ही लक्षित उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल बने । स्थानकवासी जैन इतिहास में पूज्य श्री नानकराम जी म एक महान् प्रभाविक जैनाचार्य हुए हैं । अजमेर मेरवाड़ा और इसके आस पास के क्षेत्र में श्री की ही सम्प्रदाय के विशेष अनुयायी वर्ग हैं। इस सम्प्रदाय के वर्तमान आचार्य पूज्य श्री पन्नालालजी म सा० है जिन्होंने संघ एक्य के हित चिन्तन से बहुत साधु सम्मेलन सादड़ी में समाज हित में आचार्य पद छोड़कर वर्तमान प्रान्तीय मन्त्री हैं । १८६ जैन समाज में 'स्वाध्याय' प्रवृत्ति द्वारा ज्ञान प्रकाश फैलाने में आपके प्रयत्न सदा अभिनन्दनीय रहेंगे । गुरुवर्य पं० रत्न प्रान्तमंत्री श्री पन्नालालजी म० सा० का संक्षिप्त जीवन परिचय इस प्रकार है: आपका जन्म मारवाड़ डेगाना के पास के तलसर ग्राम में वि० सं० १६४५ के भाद्रपद शुक्ला ३ शनिवार को हुआ | आपके पिता का नाम श्रीबालूराम जी एवं माता का नाम श्रीमती तुलसादेवी था। आपका जन्म मालाकार जाति में हुआ, परन्तु श्रापके परिवार संस्कार जैनधर्म के थे । आपके पिता स्वतंत्र विचारों के व्यक्ति होने के कारण उनमें और स्थानीय ठाकुर सा० में आपसी मनमुटाव हो गया। अतः बाप सपरिवार उस ग्राम को छोड़कर थांवले पधार गये । 1 स्वतंत्र विचार वाले पिता के स्वतंत्र विचारवाला ही पुत्र हुआ । थांवला पधारने पर आपको उत्तम जैनसंत समागम प्राप्त हुआ । एक समय इसी ग्राम में पुण्योदय से मोतीलालजो म० सा० का समागम हुआ। आप नित्य प्रति गुरुवर्य के व्याख्यान आदि में नियमपूर्वक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat आपका अध्ययन केवल जैनागमों तक ही सीमित नहीं रहा वरन आपने अन्य दर्शनों का भी अच्छा अध्ययन प्राप्त किया। आप प्राकृत भाषा के साथ २ संस्कृत एवं ज्योतिष विद्या के भी प्रकाण्ड विद्वान हैं ! सं० १६८२ के चैत्री पूर्णिमा के लगभग की बात है आप दो ठाणों से भीलवाड़ा पधारते हुए बनेड़ा से सायंकाल बिहार करके बनेड़ा से १|| मील दूर राजकी बाग में पहुँचे। वहां बाग रक्षकों ने बतलाया कि अन्दर के मकान बन्द है और बाहर हिंसक पशु का खतरा है । अतः याप वापिस लौट जाइये । इस पर आपने फरमाया कि हम साधु हैं हमें कोई खतरा नहीं है और बाहर वाले स्थान में दोनों संत ठहर गये । रात्रि के २॥ बजे करीब जब आप स्वाध्याय व चिन्तवन कर रहे थे वही पशु (सिंह) आपके पास या खडा हुआ | आपने उसकी ओर धीरे से संकेत किया और वह वहां से कुछ दूर जंगल में जा खड़ा होगया । यह घटना बतलाती है कि आपका जीवन कितना तेजपूर्ण था । दीक्षा लेने के पश्चात् आपका ध्येय आत्मकल्याक के साथ २ जनता में जैनत्व की भावना जागृत करने www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन श्रमण-संघ का इतिहास का रहा। जैन जाति में प्रविष्ट अनेक कुरूढियों के बन्द करवादी एवं सर्वत्र स्थानीय जन समुदाय ने निवारण हेतु भी आपके प्रभावशाली प्रवचन होते शीलालेख लगवा दिये। इसी प्रकार आपका करुणा रहे। आपके उपदेश केवल जैन समाज तक ही श्रोत अबाध गति से बहता ही चला गया। धनोप सिमित नहीं होते वरन राष्ट्र के सभी वर्गों एवं समाज माता जिनके पुजारी ब्राह्मण हैं फिर भी बली का बोल के व्यक्तियां में होते हैं। पुष्कर के पास गनाहेडा वाना चढा बढा हुआ था। सैंकडों मूक पशुओं की नामक गांव में जहां सैकडों भैंसे की बलि दी जाती प्राणाहुति प्रति वर्ष जहां होती थी। वहाँ नाम मात्र थी वहां आपने पधार कर बलि बन्द के लिये का बाल रह गई है। उपदेश प्रारम्भ किये। __ यही नहीं राजा महाराजाओं को भी उपदेश द्वारा ___ आपने प्रतिज्ञा की कि 'जब तक यहां बलि अहिसा का स्वरूप समझाया एवं उनकी शिकार प्रथा वन्द नही होजातो है मैं भी इसी प्रकार यहाँ उपवास को बन्द करवाई। एक अहिंसक मार्ग अपनाने के की तपस्या के साथ उपदेश करता रहूँगा। बीसों ठाकुरों व जागीरदारों ने लिखित पट्टे आपके आपको तप करते तीसरा दिन चल रहा था । स्वाभाविक चरणों में सादर समर्पित किये हैं। रूप से आपकी ओजस्विता चढ़ी बढ़ी हुई थी, फिर आपने सं० १९८८ में पाली मारवाडी साधु तप का प्रभाव सोने में सुगन्ध का कार्य कर गया। सम्मेलन में भाग लिया साथ ही वि० सं० १६६० में जोगी पर आपके उपदेशों का वह प्रभाव पड़ा कि अजमेर में होने वाले वृहत साधु सम्मेलन में भी आपने . वह बलि बन्द करने की भावना लेकर वहां से चला स्वयं सेवक संचालक के रूप में कार्य किया । वाहर के गया। उसके जाने के पश्चात् वहां के रावत लोगा प्रांतों से पधारने वाले साध समाज के स्वागत करने को समझाया गया कि तुम्हारा गुरु भी बलि देने के में तत्पर थे। पक्ष में नहीं है यही कारण है जो वह निरुत्तर बन यहां से चला गया है। रावत लोग समझ गये कि आपमें एक विशेष गुण यह है कि आप जिस वास्तव में मुनिराज का फरमाना ठीक है। हिंसा से आर भी कदम उठाते हैं, वह एक ठोस कदम होता किसी को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है तत्काल है। आपके सुधार अल्पकालीन नहीं वरन स्थायी उनलोगों ने यह प्रतिज्ञा करली कि आज से इस माता होते हैं । आपके सदुपदेशों से समाज में निम्न ऐसी की हद में ( सीमा में ) व इसके नाम से किसी भी संस्थाओं का जन्म हुआ है जो अपने पैरों पर खडी प्रकार को हिंसा नहीं करगे। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा होकर स्थानकवासी जैन समान की सेवाएं कर रही का शिलालेख बनाकर माता के मन्दिर पर लगवा दिया एवं उसे सरकार द्वारा रजिस्टर्ड करवा कर सदा श्री नानक श्रावक समिति, बिजयनगर । के लिये वहां बलि का अन्त किया। इसी प्रकार श्री नानक जैन छात्रालय, गुलाबपुरा । आस पास के गांव चावडिया, तिलोरा आदि स्थानों जैन स्वाध्याय संघ, गुलारपुरा। में होने वाली वली को भी आपने ओजस्वी उपदेशों द्वारा जैन प्राज्ञ पुस्तक भंडार, भिणाय । Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ ११ सं० २००७ में गुलाबपुरे में चार बडों ( आचार्य मरूधर केशरी पंडित रत्न श्री आनन्द ऋषि जी म० सा०, आचार्य श्री हस्तीमल मंत्री मुनि श्री मिश्रीमलजी म. जी म. सा., उपाध्याय श्री अमरचन्दजी म. सा० एवं आपका जन्म पाली (मारवाड़) में सं० १९५५ प्रवर्तक मुनि श्री पन्नालालजी म. सा.) का स्नेह श्रावण शुक्ला १४ का सोलंकी महता श्री शेषमलजी सम्मेलन हुआ। जिसम आप प्रमुख थे। आपने संघ सा० को धम पत्नि श्री मति केसरबाई की शुभ कुक्षि एक्यता के लिये अपये आपको श्रमण संघ के समर्पण से हुआ । वैराग्य भाव से रंजित होकर सं० १९७५ कर दिया। आपने स. २००८ में अजमेर में सादडो को वैशाख शु० अक्षय तृतीया के शुभ दिन सोजत में में होने वाले सम्मेलन के लिये भमिका निर्माण में युग प्रधान जैनाचार्य श्री रघुनाथ जो म० सा० के सहयोग दिया। सं० २००४ में बृहत साघु सम्मेलन सादडी ने सम्प्रदायानुयायि श्री बुद्धमलजी म. सा० से दीक्षा अंगीकार की। धार्मिक जनागमों और थोकडों के आपको चातुर्मास मन्त्री का कार्य भार सोंपा। सोजत खूब ज्ञाता बनकर आप श्री ने न्याय, व्याकरण,साहित्य में हुए बृहत् साधु सम्मेलन पर प्रान्तीय मंत्री के रूप आदि का अच्छा अध्ययन किया । व्याख्यान आपका में आपको जयपुर, टोंक, अजमेर, किशनगढ़ जिलों हृदय प्राहो, समाजोपयोगी, एवं आध्यात्मिक तत्वों के प्रान्त मंत्री का पद दिया एवं तिथि निर्णायक से संगर्भित होता है। आप श्री आशू कवि भी हैं। समिति के सदस्य भी बनाये। छोटे बड़े गद्य-पद्य में करीब १०० ग्रन्थों का निर्माण आपके सदुपदेशों से जैन समाज की जातियों के किया है। आपका प्रभाव मारवाड़ प्रान्त आदि में रीति रिवाजों में बड़ा भारी सुधार हुआ है। समाज बड़ा जबरदस्त है। आप श्री के सद् बोध से श्री के नैतिक और धार्मिक जीवन को ऊंचा उठाने के लौकाशाह जैन गुरुकुल सादडी, श्री वर्द्धमान जैन लिये आपने प्रचलित अनेक प्रयाओं का विरोध स्थानकवासी छात्रालय राणावास, एस० एस० जिनेन्द्र किया। बालविवाह, वृद्ध विगह, मोसर, आतिशबाजी ज्ञान मन्दिर सिरियारी, एस० एस. जैन गौतम गुरुकुल आदि के सम्बन्ध में प्रभाव पूर्ण प्रवचन करके समाज सोजत, एस० एस० जैन गौशाला जेतारण, एस. एस. को इनके दुष्परिणामों का भान कराया और इन .. जैन वीरदल विलाड़ा, पूज्य श्री रघुनाथ पुस्तकालय कुरीतियों को भग करके समाज में नवीन सुधार लाने सोजत, श्री बुद्धवीर जैन स्मारक प्रन्थमाला जोधपुर र की प्रेरणा दो : आदि अनेको संस्थाओं का संस्थापन हुआ है। समन्न ___भद्धय प्रान्त मंत्री गुरुवर्य श्री ने अपने सदुपदेशों के आप पूरे प्रेमी हैं। सादडी, सोजत, मीनासर, से जैन समाज में एक नई चेतना भर दी है । आपकी सम्मेलन में आप श्री का परिश्रम सर्व विदित हो चुच ज्ञान ज्योति के प्रकाश से सैंकों आत्माओं ने अपने मात्रा ने अपने है। आप जैन श्रमणों में एक प्रतिभाशाली मुनि हैं। खोये हुए मार्ग को पुनः प्राप्त किया । आपका उज्जवल आप वर्तमान में श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन चरित्र एका उत्तम कार्ग अन्य सभी मुनिराजों के लिये श्रमण संघ के मारवाड़ के प्रान्त मंत्री पद से बादर्श रूप अनुकरणीय है। विभूषित है। www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२. जैन श्रमण संघ का इतिहास व्या० वाचस्पति श्री मदनलालजी म० पं० मुनि श्री सुशीलकुमारजी भास्कर आप प्रसिद्ध वक्ता, शास्त्र के मर्मज्ञ और सादड़ी सम्मेलन में शांति रक्षक के रूप में रहे थे "व्याख्यान वाचस्पति" के नाम से समाज में सुपरिचित हैं । आपका तप, साधना, संयम, ज्ञानार्जन और सतत् जागृति का लक्ष्य सर्वथा प्रशंसनीय है । आपने ब्राह्मण जाति में जन्म लिया । बचपन से ही वैराग्य भाव होने से मुनि श्री छोटेलालजा म० सा० के पास दीक्षित हुए। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि का अच्छा अभ्यास करके 'आचार्य' 'भास्कर' आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त की । श्रमण संघ के आप होनहार परमोत्साही युवक सन्त हैं । श्रहिंसा संघ के तथा सर्वधर्म सम्मेलन के आप प्रणेता हैं। हिंसा के अग्रदूत हैं । 'विश्व धर्म सम्मेलन' द्वारा आप अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त महा मुनि बन चुके हैं। भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में आपका बड़ा सन्माननीय स्थान है । पं० रत्न शुक्लचन्दजी महाराज पं० रत्न शुक्लचन्दजी महाराज ब्राह्मणकुलोत्पन्न विद्वान मुनिराज हैं। पूज्य श्री काशीरामजी महाराज के श्रीचरणों में दीक्षा ग्रहण करके आपने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । श्राप सुकवि और शान्तिप्रिय प्रवचनकार हैं। पहले आप पंजाब सम्प्रदाय के युवाचार्य थे और अब वर्धमान श्रमण संघ के प्रान्त मंत्री हैं। कविवर्य श्री नानचन्दजी महाराज पं० मुनि श्री किशनलालजी महाराज पं० मुनि श्री किशनलालजी महाराज पूज्य श्री ताराचन्द्रजी म० के शिष्य हैं । आपका शास्त्रीय ज्ञान सुविशाल है । कविता के आप रसिक हैं । वस्तु तत्व को सरल और सुबोध बताकर समझाने में आप प्रवीण हैं । आपकी प्रवचनशली बड़ी ही मधुर है । जन्म ब्राह्मण हैं किन्तु जैनधर्म के संस्कार आपमें सहज ही स्फुरायमान हुए हैं। आप श्रमणसंघ के प्रान्तीय मन्त्री हैं । मंत्री श्री पुष्करमुनिजी महाराज पं० मुनि श्री पुष्कर मुनिजी ब्राह्मण जाति के श्रृंगार हैं। आपकी जन्म भूमि नांदेसमा (मेवाड़) है । सं. १६८१ में दीक्षा-संस्कार सम्पन्न हुआ । संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं का श्रापने मननीय अध्ययन किया है । 'सूरि- काव्य' और 'आचार्य सम्राट् आपकी उल्लेखनीय रचनायें हैं। आप अतिकुशल बक्ता हैं । श्रमण-संघ के प्रान्तीय एवं साहित्य मंत्री है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat कविवर्य की नानचन्दजी महाराज का जन्म वि० सं० १६३४ में सौराष्ट्र के सायला ग्राम में हुआ था । वैवाहिक सम्बन्ध का परित्याग करके आपने दीक्षा ग्रहण की। आप प्रसिद्ध संगीतज्ञ और भावनाशील विद्वान् कवि हैं । आपके सदुपदेश से अनेक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना हुई है । पुस्तकालय की स्थापना करने की प्रेरणा देने वाले ज्ञान प्रचारक के रूप में आप प्रसिद्ध है | अजमेर साधु-सम्मेलन के सूत्रधारों में आपका अग्रगण्य स्थान था। आपकी विचारधा अत्यन्त निष्पक्ष और स्वतन्त्र है । "मानवता का माठा जगत् ' आपकी लोकप्रिय कृति है । आप सौराष्ट्र वीर श्रमण संघ के मुख्य प्रवर्तक मुनि हैं । मुनि श्री छोटेलालजी 'सदानन्दो' मुनि श्री छोटालालजी महाराज श्री लाघाजी स्वामा के प्रधान शिष्य हैं । अपने गुरुदेव के नाम से आपने लींबड़ी में एक पुस्तकालय स्थापित कराया है । लेखक और ज्योतिष- वेत्ता के रूप में आप प्रसिद्ध हैं । आपने 'विद्यासागर' के नाम से एक धार्मिक उपन्यास भी लिखा है । आप द्वारा अनुवादित राज - प्रश्नांय सूत्र का गुजराती अनुवाद बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है । www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ ६६३ मनि श्री फलचन्दजी (पुप्फ भिक्ख ) . साहित्य निर्माण की ओर आपको विशेष रुचि है। पापने अब तक कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें गोरा रंग, भरा हुआ बदन, ऊंचा कद, मस्तिष्क स्वतंत्रता के चार द्वार, जैन सभ्यता, प्रसंगोचितपद्यपर तेज, मधुरभाषी, साहित्य प्रेमी, जैनधर्म का व्या मालिका, मेरी अजमेर मुनिसम्मेलन यात्रा, गल्प पक रूप, अहिंसा आदि प्रचार में संलग्न, घुमक्कड तथा फकीर तबीयत, ऐसे कुछ हैं मुनि श्री फूलचंदजी। कुसुमकोरक, गल्पकुसुमाकर, पंच परमेष्ठी, कल्पसूत्र हिन्दी, नवपदार्थ ज्ञान सार, वोर स्तुति, वीर स्वयं ही ___भापका जन्म चैत सुदी दशमी, वि० सं० १६५२ ह भगवान, परदेशी की प्यारी बातें, महावीर निर्वाण में राठौड क्षत्रिय कुल के बीकागोत्र में गांव 'भाडला और दीवाली और "सुत्तागमे" मूल पाठ ३२ सूत्र शोमाना' (बीकानेर राज्य ) में हुआ था। आपके .. प्राकृत-अर्धमागधी दो भाग। आपको रचनाओं में पिता का नाम ठाकुर विपिनसिंह और माता का नाम अन्तिम सम्पादित सूत्र संग्रह एक महान स्मारकतुल्य शारदाबाई था । आपका बचपन का म जेठसिंह कार्य है । इसकी तैयारी में आपका पच्चीस छब्बीस था। आपकी आहेती दीक्षा पोहवदी एकादशी, संवत् वर्ष का लंबा समय लगा और देश-विदेशों के प्राकृत १९६८ में सोलह वर्ष की आयु में खानपुर गांव जिला तथा जैन धर्म के विद्वानों ने उनको मुक्त कण्ठ से रोहतक (पंजाब) में परम तपस्वी मुनिशिरोमणि मुनि , प्रशंसा की है। श्री फकोरचन्द जी द्वारा हुई थी। श्रापका दीक्षा नाम आपने जहां गुडगांव आदि क्षेत्रों में स्थानक स्थामनि फूलचन्द रखा गया। अब इस नाम के अतिरिक्त पित करने की प्रेरणा दी वहां गुडगांव में जैन साहित्य स्वसम्पादित प्रन्यों में आप अपने आपको 'पुफभिक्खू' १ प्रकाशनार्थ श्रीसूत्रागम प्रकाशक समिति भी स्थापित की। लिखते हैं और साहित्य जगत् में इसी नाम से जैन श्रमण समाज में आपका बडा मान तथा प्रसिद्ध हैं। आपने अपने जीवन में समस्त भारत में भ्रमण आदर है । आप वर्धमान स्थानकवासी श्रमण संघ के किया है, जिस में आपके काश्मीर, कराची, बंगाल प्रचार मंत्री हैं। आपके शिष्य मुनि श्री सुमित्रदेव ( कलकत्ता) विहार, सिंध, तक्षकशिला, बम्बई प्रान्त । __ जी भी एक उदीयमान लेखक तथा मुनि रत्न है। आदि के पर्यटन और चतुर्मास प्रसिद्ध हैं। जहां जहां मुनि श्री सुमित्रदेवजी आप गये, वहां की जनता में आप प्रिय बन गये। इनका संसारी नाम लक्ष्मणदत्त है । गढ़ हिम्मत आपके उपदेशों के प्रभाव और प्रयत्न से बंगाल- सिंह (जयपुर) में इनका जन्म वि. संवत १९७० में विहार में कालीदेवी के मन्दिरों पर पशुओं की बली हुआ था। उनके पिता का नाम पं० नन्हेसिंह शर्मा कई स्थानों में बन्द होगई। कालीघाट-कलकत्ता में और माता का नाम वसन्ती था । ये गौड ब्राह्मण थे। आपके द्वारा बारह लाख हेडबिल पशुवध का अठारह वर्ष की आयु तक इन्होंने नगन से निषेध कराने के लिये बंटवाये गये, जिनका अच्छा विद्याभ्यास किया, और आज एक उच्चकोटि के प्रभाव पड़ा। जम्मू-कश्मीर यात्रा के रास्ते में भापके विद्वान एवं लेखक हैं। उपदेश से बहुत से हिन्दुओं तथा मुसलमानों ने मांस इनकी दीक्षा वैशाख सुदी तीज ( अक्षय तृतीया) मदिरा आदि का त्याग किया। कराची में आपने के दिन स. १६८८ में नादौन नगर में व्यास नदी के सिन्धजीवदया मंडल स्थापित कराया, जिसके सभापति तट पर जैन धर्मापदेष्टा पण्डित गत्म बालब्रह्मचारी श्रो जमशेदजी नसरवानजी मेहता बनाये गये । इस श्री जैन मुनि फूलचन्दजी (पुप्फ भिक्खू) द्वारा सम्पन्न मंडन ने सिंधी समाज में जीवदया का अच्छा प्रचार हुई । इनका दीक्षा नाम मुनिसुमित्रदेव है। ये अपने किया। आपको 'सुमित्त भिक्खू' भी लिखते हैं। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन श्रमण संघ का इतिहास alls-coloumio-diminisonmunonmaNID orpil-onaliscoullI calmlincolmunIMI> SonEMISTRINISonymsonIWwinionlmmi>TIHI मनिराज श्री हीरालालजी म० उदयपुर महाराणा श्री भूपालसिंहजी, सेंट्रल रेवेन्य मिनिस्टर तथा संसद् के एवं प्रान्तीय विधान सभाओं संसारी नाम श्री हीरालालजी । जन्म सं. १६६१ के कई सदस्यगण है। पौष शुक्ला १ शनिवार स्थान मंदसौर (मध्य प्रदेश) पिता श्री लक्ष्मीचन्दजी । माता श्रीमती हगामबाई मान श्री लाभचन्दजी महाराज जाति तथा गौत्र । ओसवाल दूगई। सं० १६७६ चित्ताखेड़ा ( मेवाड़) में सं० १६८१ में आपका माघ शुक्ला ३ शनिवार रामपुरा ( मध्य प्रदेश) में जन्म हुआ। आपका नाम लाभचन्द । पिता का नाम आपने पूज्य पिताजी के साथ ही दीक्षा ग्रहण की। नाथूलालजी तथा माता का नाम प्यारीबाई था। सं. १६६१ में रतलाम में प्राप, स्थेवर पद विभूषित श्री गुरु श्री लक्ष्मीचन्दजी म. सा० । दीक्षा दाता-सादी नन्दलालजी म० की सेवा में पधारे। आपने पूज्य श्री मान मर्दक पं. मुनि श्री नन्दलालजी म. सा. । शिक्षा खवचन्द्रजी म० की सेवा में रह कर धार्मिक अध्ययन प्राचार्य श्री खूबचन्दजी म. सा. आप। श्री ने जैनागमों किया। का न केवल पूर्ण अध्ययन ही किया है बल्कि कई सूत्र सं० १६१२ चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को श्री जैन कंठस्थ भी कर लिए हैं। इसके अतिरिक्त "खूब दिवाकर प्र०व० सं० श्री चौथमलजी म० के सानिध्य कवितावली" "हीरक-हार" के तीन भाग, बंग बिहार में संयम वृत स्वीकार किया। विषापहार स्तोत्र, हीरक गीतांजली, भक्तामर स्तोत्र आपने बंगाल बिहार, गुजरात, सौराष्ट्र पंजाब आदि में विशेष रूप से बिहार का जन्म का महत्व का भावार्थ तथा अंग्रेजी भाषान्तर एवं हिन्दी पद्यानु- . पूर्ण प्रचार किया है। बंगाल में सराक जाति को वाद, आदर्श चरितम्, हीरक सहस्त्र दाहावला, मास पुनः जैन बनाने में आपके प्रयत्न प्रशंसनीय हैं। निषेध और गजल प्रच्छक आदि गद्य पद्यमय साहित्य बिहार प्रान्त विचरण समय बिहार का प्रकाशन कराया है। इससे मुनि श्री की सहज श्री आर० आर० दिवाकर ने पटना में आप श्री के साहित्याभिरुचि प्रकट होती है। प्रवचन सुन प्रसन्नता प्रकट की और आपके निमन्त्रण पर महावीर जयन्ति पर मुनि श्री वैशाली पधारे। आपके प्रवचन सरल और सीधी सादी भाषा में इस प्रान्त में कई स्थानों पर आपने पशुब ल रुकवई । हृदय परिवतन कारी रहते हैं। __आपने नैपाल की भी यात्रा की। काठ मांडू में ___ स्थानकवासी जैन श्रमण संघ की एक्यता में भी नैपाल नरेश और महारानी ने आपके प्रवचन सुने । आपने अपना गणाव च्छेदक पद विसर्जित कर वहाँ बुद्ध जयन्ति पर भाषण देते हुए भ० महावीर सक्रिय सहयोग दिया है। भारतीय लोकमानस के और बुद्ध पर तुलनात्मक विचार प्रकट किये जिसकी प्रिय वरिष्ठ मेतागणों ने आपके दर्शनों का लाभ सबने प्रशंसा की। ता० १८.६५७ को आप श्री के प्रयत्न से नेपाल में विराट अहिंसा सम्मेलन हुआ। लिया है, उनमें भारत के प्रधान मन्त्री पं. जवाहरलाल नेपाल के महा मन्त्री तथा अनेक उच्चाधिकारियों जो नेहरु, आचार्य विनोबा भावे, पंजाब उत्तर प्रदेश, ने आपके दर्शन किये। बिहार, बंगाल और ऑध्र प्रदेश के राज्यपाल तथा इस प्रकार भारत के इतने सुदूर क्षेत्र में जैनधर्म संसद के डिप्टी स्पीकर, श्री अनन्त शयनम् आयंगर, का प्रचार करने का आपने श्रेयस्कर कार्य किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ १६५ स्वामी श्री जौहरीलालजी महाराज मुनि श्री खजानचन्दजी महाराज पूज्य श्री अमरसिंहजी म. की आम्नाय के मुनिराज आगरा (यू. पी०) निवासी ओसवाल स्थानक वासी जैन लाल चाँदमल जो सा० चौरडिया, के सुपुत्र श्री खजानचन्दजी म० का जन्म १९६१ वि० में "तपस्वी श्री लाला प्यारेलालजी" के जेष्ट पुत्र चि० आबुपुर (मेरठ) में हुआ । पिता का नाम श्री भोलाराम जौहरीलालजी का जन्म आगरा जौहरी बाजार में जी तथा माता का नाम शिवदेवी है । जाति छीपा । वि० सं० १६७३ मिगसर वदी एकम को "माता श्री दीक्षा १६६० माडो अहमदगढ़ (पंजाब) में हुई। मुन्नाबाई" की कुक्षी से हुआ। - दीक्षा गुरु श्री दौलतराजी म०। अजमेर साधु सम्मेलव के एक साल बाद हो वि० सं० १६६१ को पंजाब केशरी आचार्य श्री काशिरामजी भाप बहुत ही भद्र सरल एवं सेवाभावी संत हैं । म० के आगरा चातुर्मास में आपको वैराग्य उत्पन्न सदा प्रसन्न रहना भी आपकी एक खास विशेषता है। हुआ और आपके पास ही सं० १६६२ मिंगसर सुदी सदा पठन पाठन में लगे रहते हैं। आपका वैराग्य से ११ को बामनौली (यू० पी० ) में धूम धाम से जैन भरा जीवन प्रशंसनीय-सराहनीय है। श्रमण दीक्षा अंगीकार की। आपने पूज्य गुरुदेव स्थविर श्री कुन्दनलालजी म० पंजाब केसरी आचार्य श्री काशीरामजी म. के साथ मारवाड़, मेवाड़, खानदेश, बम्बई प्रान्त, गजरात. पू. श्री अमरसिंहजी म० की सं.। जन्म अषाढ़वदि ११ काठिया वाड़ा दि देशों में विचरण, करते हुए शास्त्रा- सं० १६३३ जन्मस्थान बस्सी (सरहिन्द) पिता श्रीमान ध्ययन किया। आपके प्रभावक भाषणों से उगाला सा० निहाल चन्दजी माता श्रीमति द्रौपदीदेवी। जाति शाहकोट, जालन्धर कैन्ट में विशेष धर्म जाग्रति हुई अग्रवाल । दीक्षा १६६८ पोह । गुरु श्री नारायणदास तथा वनूड़ में जैन कन्या पाठशाला चल रही है। जी महाराज। ____आप पंजाब प्रान्त मंत्री पं० रत्न श्री शुक्लचन्द आप एक अत्यन्त भद्र, एवं तपस्वी सन्त हैं। जी म० के शिष्य हैं। सर्वदा शास्त्र स्वाध्याय में लगे रहते हैं। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास मुनि श्री पन्नालालजी महाराज पंजाबी मानो आपका भग्य ही जाग उठा। उन दिनों उधर धर्म का सिंहनाद बजाने वाले शेरे जगल पूज्य श्री, . श्रीचन्दजी म० के मनोहर उपदेशों को सुनकर आपने वि० सं० १६६६ कार्तिक पूर्णिमा को मण्डी डबवाली (पंजाब) में संसार त्याग, मुनिवृत्ति ले आत्म-कल्याण करना प्रारम्भ कर दिया। लगभग ७ वर्ष तक एकान्तर तप, और कई-कई मास निरन्तर एकाशना तप करके आपने अपनी आत्मा को अत्यन्त ही पवित्र बनाया है। आप न सिर्फ आदर्श तपस्वी ही हैं बल्कि सरल शान्त एवं उदार सन्त हैं । स्वल्प भाषण, स्वल्प निद्रा, स्वल्पाहार भी आपकी खास विशेषताएं हैं। शास्त्रा. नुमोदित उग्र क्रिया और विशुद्ध संयमी जीवन देख देख कर जनता धन्य २ कर रही है। कविरत्न श्री चन्दन मुनिजी आप पूज्य श्री धर्मदासजी म० की परम्परा के तपस्वी महामुनि है। पूज्य धर्मदासजी म० की पाट परम्परा इस प्रकार है: पूज्य श्री धर्मदासजी म०, २ श्री जोगराजजी म०३ श्री हजारीमलजी म०४ श्री लालचन्द्रजी म० ५ श्री गंगारामजी म० ६ श्री जीवनरामजी महाराज ७ श्री भगतरामजी म. ८ श्री, श्रीचन्दजी म. तशिष्य स्वामी श्री जवाहरलालजी म०, तपस्वी विनयचंद जी म०, तपस्वी श्री पन्नालाल जी महाराज तथा तत्। शिष्य कविरत्न श्री चन्दनमुनिजी म०।। तपस्वी रत्न पूज्य श्री स्वामी पन्नालालजी म० साहब ने कसबा-ढाबां (बीकानेर) निवासी सेठ जीतमलजी की धर्म पत्नी श्रीमती तीजांबाई की पवित्र संसारी नाम चन्दनलाल । जन्म तिथि कार्तिक कुक्षी से लगभग सं० १६४८ वि० में शुभ जन्म लेकर कृष्णा मंगलवार १६७१ । जन्म स्थान 'तिओना' जिला ओसवालों के बोथरा वंश को चार चाँद लगा दिए। फिरोजपुर (पंजाब) । पिता श्रीमान् ला० रामामलजी युवावस्था के प्रारम्भ में आपको व्यापारार्थ भटिण्डा, माता श्रीमति लछमीबाई । जाति ओसवाल गोत्र बोथरा मण्डी डबवाली आदि में रहने का प्रसंग क्या मिला (शेष पृष्ठ १६८ पर) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ - मुनिराज श्री पूर्णचन्दजी म. [पंजाबी] दूज बुधबार को रठाल [ जिला रोहतक ] में भगवती दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर पांच छः वर्ष तक शास्त्राभ्यास किया । सन् १९५० में कुराली नामक कस्बा में स्वतंत्र रूप से छाने २ चतुर्मास किया। इससे पूर्व यहां जैन मुनियों का चतुर्मास नहीं हुआ था। महाराज श्री के सदुपदेश से अजैन लोग जैन धर्म को स्वीकार करने लगे। परिणाम स्वरूप इस गांव में नाम मात्र के जैन होने पर भी नये धर्म प्रेमियों ने स्थानक के लिए जमीन खरीद ली। इस प्रकार महाराज श्री की कृपा से एक नया क्षेत्र तैयार हुआ। श्री वुडलाड़ा मण्डी में भी आपही के उपदेशों से स्थानक का जीर्णोद्धार हुआ। १६५२ का चातुर्मास मनसा मंडी में हुआ। वाणी भूषण, प्रसिद्ध वक्ता श्री पूर्णचन्दजी म० यहां जैन गर्ल्स हाई स्कूल चल रहा है । जिसकी आर्थिक का जन्म दिन ७ अगस्त मन् १६०७ को बड़ौत, जिला अवस्था सुधारने का श्रेय भी आप श्री को ही है। मेरठ (यू०पी०) में लाला वैजनाथसहाय स्थानक ६०-७० हजार की लागत से तीन मंजिल का स्थानक वासी जैन के यहां हुआ। इनकी मातेश्वरी श्रीमति तैयार करवाया । मंडी में यह धर्म स्थानक अपनी तरह दमयंती देवी नौ वष की अवस्था में हो काल-कवलित का एक ही है। हो गई थी। इनका अग्रवाल जाति गोत्र गर्ग सम्पन्न १६५४ में बरनाला चतुर्मास में आप श्री की परिवार से सम्बन्ध है । २१ वर्ष की तरुण अवस्था सत्प्रेरणा से ही १६ हजार रु० स्थानक के लिए में पिताजी का भी देहान्त हो गया। पिता के देहा- मकान और १० हजार रु० नकद दान हुआ । भदौड़ वसान के बाद आप देहली में आढ़त की दुकान छोटे कस्बे में भी स्थानक के लिए जमीन और = करने लगे । व्यवसाय में खूब कमाया और खुब दिल हजार रु० इकट्टा हुआ । सामाजिक कार्यों में महाराज खोल कर खर्चा भी किया। उनके कहने के अनुसार की दिलचस्पी हमेशा से रही है । पटियाला विरादरी जवानी का काफी भाग अल्हड़पन में बिताया । परंतु के सामाजिक कार्य कुछ अधूरे से थे उनको पूर्ण यकायक आपके जीवन में महान् परिवळन हुआ। कराये । अम्बाला शहर में २५ हजार रु० की लागत दिल्ली में पूज्य चरित्र चूडामणी, श्री मोहरा- से एक भवन तैयार हुआ। जिसमें इस समय पूज्य सिंहजी महाराज [श्री मयारामजी महाराज के श्री काशीराम जैन गर्ल्स हाई स्कूल चल रहा है । म० आज्ञानुवत] का पर्दापण हुआ। आपके सम्पर्क से आप श्री की कृपा से इस स्कूल की सहायता के लिए २० में वैराग्य भावना जागी और सं० १६६८ जेष्ठ सुदी हजार रु० नकद दान प्राप्त हुए। १६५६ का चातुर्मास Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन श्रमण संघ का इतिहास डेरा वसी में हुआ । चतुर्मास में ४० हजार की लागत से जैन गर्ल्स हाई स्कूल की बिलडिंग तैयार हुई। सरकार से तीन बीघा जमीन भी दिलवाई। दानवीर ला. पतरामजी ने १६ हजार रु० का स्थानक बना कर भेंट किया । १६५७ का चतुर्मास अबाला शहर में हुआ । सठौरा में आदीश्वर जैन कन्या महाविद्यालय की सहायता के लिए दस हजार रु० दान करवाए। अंबाला छावनी से जहां स्थानकवासी जैन बहुत कम हैं एक आलीशान स्थानक तैयार करवा देना म० श्री के अथक परिश्रम का ही फल है । पंजाब की राजधानी चण्डीगढ़ में का फल है जो आज यहां एक रमणीक स्थानक बन कर तैयार हो गया है। महाराज श्री का शिक्षा के लिए ही बना है। इन्हें हर समय समाज सुधार की ही धुन लगी रहती है। महाराज श्री ने एक ऐसे महत्वपूर्ण कार्य को अपने हाथों में लिया है जिसका प्रभाव हमारी समाज पर अवश्य पड़ेगा । पंजाब समस्त जैन स्कूलों को एक सूत्र में पिरोकर उनकी उन्नति करना तथा समस्त स्कूलों को एक संघ के अधीन कर धर्मशिक्षा का प्रचार करना, महाराज श्री का लक्ष्य है इन्ही की कृपा जीवन धर्म (शेष पृष्ठ १६६ का ) दीक्षा बसन्त पंचमी १६८८ गुरुवार फरीदकोट (पंजाब) । गुरु तपस्वी श्री पन्नालालजी महाराज । आप एक उच्च कोटि के सफल एवं गंभीर वक्ता सन्त हैं । कवि होने के नाते आपका भाषण अति मधुर एवं कवित्व पूर्ण होता है । जैनधर्म दिवाकर तथा जैनागम रत्नाकर पूज्य श्री. आत्मारामजी म० के चरणों में ज्ञानाभ्यास करने से, तथा महा मान्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज एवं वर्तमान में सर्व मान्य श्रद्धय कविवर उपाध्याय श्री अमरचन्दजी म० के समीपस्थ रहने से आप एक उच्च कोटि के ज्ञानी, गंभीर विचारक एवं सुलेखक व कवि हैं। आप एक बड़े समाज सुधारक भी हैं। आपके भाषणों में जहाँ धार्मिक भावना जागृत होती है वहां समाजोन्नति हेतु रुढीवाद के प्रति घृणा उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती । आप जहां भी पधारते हैं कुरिवाजों फिजूल खर्ची, फैशन परस्ती तथा रेशम के उपयोग का घोर विरोध करते हैं। कुसम्प को मिटाकर संगठन द्वारा समाजोत्थान के रचनात्मक कार्य सुझाते हैं । आप एक अच्छे सुलेखक भी हैं । आपने २३ पुस्तकें लिखी है जिनमें प्रकाशित हुई हैं:-गीतों की दुनिया, संगीत इषुकार, संगीत संमति राजर्षि, निर्मोही नृपनाटक, बारह महीने, चटकीले छन्द, गज सुकुमाल, सबलानारी आदि । पन्यासजी श्री कीति मुनिजी महाराज आपका जन्म सं० १६५० में फतेहपुर (सिकर ) में हुआ। पिता का नाम श्री चुन्नीलालजी था । फलौदी में कमलगच्छाधिपति गादीघर यति श्री सुजानसुन्दरजी के पास ही आपका बाल्यकाल व्यतीत हुआ और आपने ही इन्हे काशी में विद्याभ्यास हेतु भेजा । सं. १६७१ में जब यति सुजान सुन्दर जी का स्वर्गवास हो गया तो आपने पूज्य श्री मोहनलालजी म० के सुशिष्य पन्यासजी श्री हीरा मुनि जी के शिष्य रूप में सं० १६७१ आषाढ़ कृष्णा ८ को आचार्य श्री क्षान्ति सूरिजी से जैन मुनि दीक्षा अंगीकार की । आप बड़े ही धार्मिक विधि विधानों के जानकार ज्ञानवान मुनि हैं। maragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ पंडित रत्न श्री विमल मुनिजी महाराज प्रसिद्ध वक्ता, व्याख्यान वाचस्पति, पण्डित श्री विमल मुनिजी महाराज का जन्म सारस्वत ब्राह्मण ऋपाल गोत्र के पण्डित श्री देवराज जी के घर माता श्री गंगादेवीजी की कुक्षी से सं० १६८१ भाद्र पद कृष्ण सप्तमी को मालेर कोटला स्टेट के कुप-कलां नाम के गांव में हुआ। माता पिता ने आपका नाम ब्रजबिहारीलाल रक्खा । 'होनहार बिर्वान के चिकने चिकने पात' । घर में हर प्रकार की सुख-सुविधा थी । परन्तु संसार के मधुर भोग इन्हें अपनी ओर आकृष्ट न कर सके, मोह का दृढ़ पाश इनको न बांध सका । फल-स्वरूप बालक ब्रजबिहारीलालने संसार को निस्सार तथा मिथ्या जान कर १५ वर्ष की आयु में संसार को त्याग कर माघ शुक्ला ३ सं० १६६६ में आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज की आम्नाय में महातपस्वी श्री जगदीश चन्द्रजी महाराज के पास दीक्षा प्रहण की। आप सदा प्रसन्न रहते हैं । चित्त के शान्त हैं । निर्भीक हैं, सरल से सरल भाषा में गूढ़तम दार्शनिक सिद्धान्तों को जनता के सन्मुख रखने की आप में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १६६ 1 अद्वितीय क्षमता है । इन्हीं गुणों के कारण जन-हृदय के सम्राट् बन गये । वर्ष आप का एक चौमासा कश्मीर राज्य में कुछ पहिले हुआ। कश्मीर राज्य में जैन-मत का प्रचार अल्प है। यहां के निवासियों की निष्ठा अधिकतर हिंसा में है। मुनिजी की वाणी में चमत्कार था वहां के निवासियों पर अधिकाधिक प्रभाव पड़ा । महाराजजी के अहिंसा, शान्ति, तप त्याग के मधुर भाषण सुनकर सदरे- रियासत युवराज करणसिंह, जम्मू-कश्मीर राज्य के मुख्य मन्त्री बख्शी गुलाब मुहम्मद तथा मन्त्री मण्डल के अन्य सदस्य आपके अनुरागी बने । बख्शीजी ने चालीस हजार रुपये की भूमि स्थानक के लिये दी और एक लाख रुपया जैन बिरादरी ने दिया और जम्मू में एक भव्य स्थानक बना । इसी तरह ऊधमपुर में जहां जैनियों का पहिले एक भी घर नहीं था, महाराज श्री की प्रेरणा से जैनियों का एक नया क्षेत्र बना, और वहां भी एक भव्य स्थानक बना । १६५७ ई० में महाराज श्री ने पंजाब की नई राजधानी चंडीगढ़ में जैन सिद्धान्तों का प्रथम बार प्रचार किया और इसका प्रभाव वहां की जनता में पर्याप्त मात्रा में पड़ा । १६५१ ई० में महाराज श्री का चौमासा फगवाड़ा में था। मुनिजी के प्रभावशाली व्याख्यानों से आकृष्ट होकर जनता अधिक से अधिक संख्या में इनके व्याख्यानों में आने लगी । इस पर वहां के कुछ स्वार्थी धर्मान्ध चिड़ गये । और उन्होंने प्राण पण से महाराज श्री के विरुद्ध षड्यन्त्र किये। धन देकर बाहर से प्रचारक बुलाए गये। बड़ी २ सभाएं की गई । महाराज श्री को मारने की धमकी भी दी गई। पर मुनिजी के हृदय में दृढ़ शान्ति बनी रही। आप मधुर शब्दों में वहां की जनता को आश्वासन देते रहे। मधुर परिणाम यह हुआ कि चार मास के www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास भगीरथ प्रयत्न से वहां का विरोधी वर्ग भी अपने ने रक्खी और महाराज श्री की प्रेरणा से कालेज के दोषों पर लज्जित हुआ और वह विरोध भावना छोड़ लिये ५१०००) रुपये दान दिये हैं। श्री नानक कर महाराज श्री की शरण में आगया। मतानुयायी उदासी महन्त श्री अमरदासजी ने ४००००). __महाराज श्री की धीरता का दूसरा उदाहण रुपये के मूल्य की सम्पति मुनिजी की प्रेरणा से १६५८ ई० में जगराओं नगर का है जहां के नर नारी कालेज के लिये दी है। अन्यान्य लोगों ने भी म० धर्म के भेद भाव को भुला कर महाराज श्री के व्या- श्री की प्ररणा से अधिक से अधिक मात्रा में कालेज ख्यान में आते हैं। महाराज श्री के साथ स्नेह करते के लिये दान देकर अपने हृदय का स्नेह प्रकट किया हैं। यहाँ कालेज के अभाव के कारण जनता को जो है। इस समय तक तीन लाख रुपये इकठ्ठ हो गये कष्ट हो रहा था उसको दूर करने के लिये महाराज हैं। और निकट भविष्य में छे लाख रुपये इकट्ठ श्री ने 'सन्मति जनता कालेज' की स्थापना की है होने की आशा है । महाराज श्री के वचनों पर यहां जिसकी आधारशिला सरदार लछमनसिंहजी गिल की जनता मन्त्र-मुग्ध सी है। FRam प्राचार्य पूज्य श्री रघनाथजी महाराज आपका जन्म सं० १९२४ मिंगसिर कृष्णा १० को ग्राम डाबला (राजस्थानखेतड़ी निकट ) हुअा था स्वामी वंशोत्पन्न पं० बलदेवसहायजी श्राप के पिताजी थे श्रापकी मातुश्रीजी का नाम केसर देवी था। आपके एक छोटी बहन थी जिनका नाम । श्री गोरांदेवोजी था। इन्होंने घोर तपस्वी आचार्य पूज्य श्री मनोहरदासजी महाराज की सम्प्रदाय की साध्वी जैनार्या श्री सोनादेवीजी के समीप वि० संवत् १६४० पोष मास में दीक्षा ग्रहण की थी। बाल्यावस्था में आपके पिताजी का स्वर्गवास हो जाने से आपकी मातु श्री जी सिंघाणा (खेतडी) रहने लगो किन्तु यहां आने पर माताजी का भी स्वर्गवास होगया अब आप बहन भाई मामा मंगलचन्दजी के पास रहने लगे। यहां पर एक बार पूज्य श्री मनोहरदासजी महाराज की सम्प्रदाय के आ. श्री मंगलसेन जी म० का पदार्पण हुआ। आपके उपदेशामृत ने दोनों भाई बहिनों को वैराग्यवान बनाया । और पांच वर्षे वैराग्यावस्था में रहकर सं० १६३६ फाल्गुण कृष्णा १० को श्री जैनाचायाज्यं । रघुनाथजीमहाराज Shree Sucharmeswari Gvanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ Want me computING SHID NOT H ग्राम लुहारी (मेरठ) में दीक्षा ग्रहण की। आपने दादरी, महेंद्रगढ़, नारनौल, सिंघाणा, आगरा आदि क्षेत्रों में चौमासा किया और कई नये जैन बनाये । सं० १६६६ माघ मस में आपने प्रिय शिष्य पं० श्री ज्ञानचन्दजी महाराज को शहर दादरी में दीक्षा दी। सं० १६७७ में आपके गुरुश्रीजी का शहर बडौत में स्वर्गवास हो गया। सं० १६८० माघ शुक्ला ५ को आपके पास सिंघाणा में मुनि श्री खुशहालचन्दजी म० ने दीक्षा ग्रहण की। सं० १६८५ में आप पंजाब पधारे छः वर्ष तक पंजाब में विचर कर खूब धर्मोद्योत किया । सं० १६६३ आप राक्सहेडा ग्राम में पधारे आपके आने से पहले यहां के मुसलमान लोगों ने गौमाता आदि पशुओं की अस्थी (हड्डी) आदि जमुनाजी मैं डालने लग गये थे, वहां की जनता कहने लगी कि मुनाजी इस ग्राम पर रुष्ट हो रही है । वह ग्राम को डूबोने के लिये दिन प्रति दिन ग्राम की तरफ बढ़ती आरही है, ग्राम खतरे में है आदि । इस पर आपने ग्रामवासियों को धर्म करने का विशेष जोर दिया । व्रत बेला तेला अठाई व्रत बाबिल आदि अत्यधिक तपस्या होने से जमुनाजी जो ग्राम से एक फरलॉग पर थी अब तीन मील दूर चली गई । इस धर्म के अपूर्व चमत्कार को देखकर ग्राम निवासी धर्म में अतीव दृढ़ हो गये । आप यहां दादरी के श्री संघ की प्रार्थना को स्वीकार कर सं० २००६ वैशाख शुक्ला १ शुक्रवार को शिष्य मंडली के साथ सुख साता पूर्वक पधार गये थे और छः सात वर्ष से चरखी दादरी में स्थाना पति है । इस समय सं० २०१६ में आपकी १२ वर्ष की है। दीक्षा पर्याय ७६ वर्ष की है स्थानकवासी जैन समाज में सबसे बडी आपकी ही दीक्षा है | आपको शास्त्रों का गहन ज्ञान है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat २०१ पूज्य मुनि श्री कपूरचन्द्रजी म० पूज्य श्री कपूरचन्द्रजी महाराज का जन्म वि. सं. १६५५ चैत्र शुदि १३ के दिन जम्मू राज्यान्तर्गत " परगोवाल" ग्राम में क्षत्रिय कुल के शिरोमणि श्री भोपतसिंहजी की धर्मपत्नी सौभाग्यवती श्रीमत की कुक्षी से हुआ | आपने गुरु प्रवर श्री नत्थूरामजी महाराज की सद् प्रेरणा से प्रेरित होकर १८ वर्ष की अवस्था में स० १६७३ आश्विन शुक्ला तृतीया रविवार को "जेजों" नगर (पंजाब) में जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर त्याग मार्ग के अनुगामी बने । तत्पश्चात् श्रपने आचार्य सम्राट पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज की सेवा में रह आगमाध्ययन तथा, अनेक विद्य ज्ञान प्राप्तकिया । शांत-दान्त, सत्य, सन्तोष, तब-त्याग, क्षमाशील ज्ञान, विज्ञान सच्चारित्र चयन, अध्यवसायी अनेकानेक सुगुण सम्पन्न समझ कर पंजाब स्थानकवासी जैन संघ ने १५ जनवरी सन् १६५० को कैथलशहर, में आचार्य पद प्रदान किया । जिस समय श्वेताम्बर स्थानकवासी समस्त जैन समाज ने सब सम्प्रदायों का एकीकरण करके भ्रमण संघ बनाने का निश्चय किया तो उस समय महाराज श्री ने भी जैन समाज के बड़े २ नेताओं के निवेदन पर आपका अनेक प्रश्नों में विभिन्नता होते हुए भी आपने पूर्ण त्याग तथा उदारता का परिचय देते हुए जैन समाज के उत्थानार्थ अपनी 'आचार्य पदव का त्याग निसंकोच कर दिया और आज स्था० म श्रमण संघ के पूज्य मुनिवर हैं। इसी प्रकार जीवन में आपने कई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। कई ऐसे. क्षेत्र जो कि धर्म से विमुख हो रहे थे, उनमें नथ जीवन संचार कर उनको धर्म के मार्ग पर क्षम्या । उदाहरण स्वरूप भणि माजरा, सर्दूलगढ़, सोनीपत मंडी इत्यादि क्षेत्रों को ले सकते हैं। जिनको इन्होंने धर्म रूपी अमृत वर्षा से सिचित किया । आपके दो शिष्य हैं, धर्मोपदेशक पंडितार्क सुनि श्री निर्मलचन्द्रजी महाराज तथा श्री कवि जी महाराज | दोनों अपने तप त्याग में सुरद होकर गुरुदेव की सेवा कर रहे हैं । प्रेषक - वागीश्वर शर्मा, झिंझाना (९० प्र०) www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जन श्रमण संघ का इतिहास स्व० उपकारी श्री रामस्वरूपजी महाराज मुनिराज श्री फूलचन्दजी "श्रमण" नाभा (पंजाब ) में "श्री रामस्वरूप जैन पब्लिक आज्ञानुवर्ती प्रधानाचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी हायर सेकेन्डरी स्कूल" के जन्मदाता और अन्यान्य म० । संसारी नाम श्री राधाकृष्णजी। जन्म चैत्र शु. कई समाज हितकारी कार्यों के प्रेरक स्वर्गीय पूज्य १४ सं० १९७१ जन्म स्थान रामपुर बुशहर (हिमाचल श्री रामस्वरूपजी महाराज का नाम सदा अमर रहेगा। प्रदेश)। पिता श्री मंगलानन्दजी कामदार । माता श्री आपका जन्म गाजियाबाद जिले के छाजली ग्राम म.लिक्ष्मीदेवीजी । जाति ब्राह्मण, गौतम गौत्र । दीक्षा में एक उच्च कुलीय ब्राह्मण जाति में हुआ था । १३ वि० सं० १९८७ मिति मार्गशीर्ष वदि १२ दीक्षा स्थान वर्ष की अल्पायु में ही आपने स्था० जैन मुनि दीक्षा भदलबड (पटियाला)। दीक्षा गरु पूज्य आत्मारामजी अंगीकार करली । आप महान् अध्यात्मिक एवं परम महाराज के ज्येष्ठ शिष्य प्रसिद्ध वक्ता समाज सुधारक तपस्वी महा पुरुष सिद्ध हुए। आपने अपने जीवन में श्री खजानचन्दजी महागज । ५ लाख व्यक्तियों से मांस मदिरा छुड़वाई । कई नये आप श्री जैन आगमों तथा षड़ दर्शनों के परम क्षेत्र खोलकर नये जैन बनाये । नाभा में सतसङ्ग विद्वान हैं । आप श्रीने नयवाद, क्रियावाद, आत्मवाद, मंडल, जैन सभा तथा हायर सेकेन्डरी स्कूल तथा निक्षेपवाद इत्यादि प्रन्थों का निर्माण किया है । तथा इनकी भव्य इमारतें सब इसी स्वर्गीय महापुरुष की होशियारपुर में श्री जैन शिक्षा निकेतन के निर्माता है। कृपा का ही फल है। श्री फकीर चन्दजी महाराज वर्तमान में एस० एस० जैन सभा नाभा के निम्न संसारिक नाम लाला फकीरचन्द । पिता का नाम प्रधान कार्य कर्ता हैं:-लाला शादीरामजी प्रधान, लाला पीरुमल । माता श्रीमति मम्मीदेवी। जाति लाला मोहनलालजी उप प्रधान, श्री विद्या प्रकाशजी अग्रवाल गर्ग जन्म धनोदा कलां ( जिला सगरूर, ओसवाल जैन जनरल सेक्रेटरी, श्री जैन कुमारजी पंजाब) में फागुन सुदि एकादशी सं० १९४६ । गुरुका जैन उप मंत्री, श्री टेकचन्दजी खजांची तथा श्री राम - नाम गणावच्छेदक श्रीजवाहरलालजी महाराज । दीक्षा तिथि मिगसर सुदी स. १६७४ शनिवार । दीक्षा प्रतापजी ठेकेदार, श्री दर्शनलालजी, श्री चन्दनलाल स्थान कैथल (जिला करनाल, पंजाब)। जी, श्री नौरातारामजी, श्री नत्थूरामजी जैन आदि आप बड़े शांत मूर्ति और घोर तपस्वी हैं । आपने कार्य कारिणी के सदस्य हैं। ३१ दिन का व्रत निरन्तर किया। १७ दिन बेले बेले पारणा किया लम्बे समय के लिये काफी एकन्तरे बाल ब्रह्म चारीश्री प्रेमचन्दजी महाराज किये । सरदी में रात को सात घन्टे कई वर्ष तक संसारी नाम श्री भगवानसिंहजी। जन्म सं० खुले शरीर से तप किया । गरमी के दिनों में दिन के १६५७ पासोजसुदी १० खरक पूनियाँ (जिला हिसार) ग्यारह बजे से लेकर चार बजे तक कड़कड़ाती धूप में पिता श्री हीरासिंहजी । जाति जाट (पूनियाँ गोत्र) बैठ कर तप किया। कई २ घन्टे खड़े होकर ध्यान दीक्षा ज्येष्ठ शुदि ११ सं० १९८६ ( स्थान सनोम) किया और मौन रक्खा। आपने स० १९८३ से अपने (पटियाला) गुरु आचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी म० उपयोग के लिये केवल दस चीजों को लेने का प्रण के प्रशिष्य श्री खजानचन्दजी महाराज । किया है । अन्य कोई चीज नहीं लेनी । Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ २०३ मुनि श्री टेकचन्दजी महाराज श्री धर्मवीरजी महाराज पिता का नाम मणिरामजी । माता का नाम श्रीमति संसारिक नाम समुद्रविजय । पिता का नाम श्री नन्नीदेवी । जाति अग्रवाल गर्ग। जन्म स्थान रठाना मुलखराज जैन । माता का नाम ईश्वरीदेवी । जन्म (जिला रोहतक) जन्म तिथि सं. १९६६ फागुन बदी . दिवस ५ जून सन् १६०५ अमृतसर । जाति प्रोसवाल दीक्षा मिगसर वदी ५ सं १६८२ दीक्षा स्थान जींद (जि. गादिया र गादिया । दीक्षा दिवस मिगसर वदी १३ सं० २००४ संगरुर) गुरु का नाम गणेबदेशिक श्री बनवारीलाली दीक्षा स्थान डेरा बसी । गुरु का नाम स्व० श्री अमर म० । गुरुभाई तपस्वी श्री फकीरचन्दजी महाराज । मुनिजी महाराज । श्री सहजरामजी महाराज मुनिश्री प्रकाशचन्दजी महाराज संसारी नाम सहजरामजी। पिता का नाम श्री आपका जन्म हांसी ( जि० हिसार ) के कानूगो बाबूरामजी। माता का नाम श्रीमति परमेश्वरीदेवी वश के प्रसिद्ध घराने में सं० १९७० पौष जाति अग्रवाल गोयल । जन्म स्थान ऐलनकला कृष्णा १३ गुरुवार को हुआ था । जन्म नाम पारसजिला संगरुर ( पंजाब ) वर्तमान नाभा । जन्म तिथि दास था । आपके पिता का नाम लाला महावीरसिंह मिंगसर वदी ११ सं० १६६० शुक्रबार । दीक्षा मूनक जी तथा माता का नाम चम्पादेवी था । जाति अग्रवाल गर्ग गौत्र । आपके दादा राय साहब रघुवीरसिंहजी शहर में कार्तिक मुदि १३ बुधवार सं० २०१० । गुरु हिसार रियासत में वजीर रह चुके हैं। आपने सं० का नाम श्री टेकचन्दजी महाराज । १६६३ कार्तिक शुक्ला १३ का रावल पिन्डी में नोट:-दीक्षा लेने के लिये आप पाठ दफा घर प्रधानाचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी म० के पास दीक्षा से पाए और माठ दफा ही घर वाले आपको वापिस अंगोकार को। आपने 'जम्बू चरित्र' लिखा है । पर ले गए | आप चले आए। नवीं बार आपने दृढ़ता वह अभी अप्रकाशित है। आपके शिष्य मथुरा के साथ दीक्षा लेली। मुनिकी हैं। श्री ज्ञानमुनिजी महाराज श्री मथुरामुनिजी संसारिक नाम जीतराम । पिता का नाम प्रभुदयाल आपका जन्म सं० १६६० जेष्ठ मास में जजों माता का नाम पानोदेवी। जाति अप्रवाल सिंगल (जिला होशियारपुर ) में हुआ। पिता लाला जम्म स्थान माजरा (जिला रोहतक ) माघ सुदि १४ चुक्कामल जी, माता वृदिदेवी। आपने ५ दिसम्बर स. १६६७ । दीक्षा स्थान नाभा दीक्षा तिथि भाद्र सुदि सन् १६५४ को प्रधानाचार्य श्री के पास लुधियाने में पंचमी सं० २०१२ । गुरु का नाम स्वर्गीय श्री अमर भागवती दीक्षा अंगीकार की। आप एक नदीयमान मुनिजी महारान। प्रतापी सन्त हैं। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन श्रमण-संघ का इतिहास पं० रत्न श्री महेन्द्रकुमारजी महाराज ... इसी प्रकार सं० २०४ में चरखी दादरी में भी "श्री महावीर जैन पब्लिक लायब्ररी" की स्थापना - आपका जन्म संवत् १९८० के लगभग जम्बु कराई। (कश्मीर) राज्य के "भलान्द प्राम" में हुआ। आप सं० २०१५ में भिवानी में एक मास कल्प करके जाति से सारस्वत ब्राह्मण है। पिता का नाम श्री महावीर जैन कन्या पाठशाला" की स्थापना सुन्दरलालजी शर्मा तथा माता का नाम श्रीमति । कराई। जिसमें ८० बालिकाएं धर्म शिक्षा एवं व्यवचमेलीदेवी है। श्राप सात भाई हैं। जिनमें से दो हारिक ज्ञान का लाभ उठा रही है। भाईयों ने दीक्षा ग्रहण की है। आपके बड़े भाई श्री आप श्री की ही कृपा से हांसी में श्री जैन कुमार राजेन्द्रमुनिजी म० ने सं० १६६३ में हुशियारपुर में सभा और श्री महावीर जैन वाचनालय स्थापित हुआ। जैनाचार्य पंजाब केशरी श्री काशीरामजी म. के पास तथा स्थानक की लायब्ररी का पुनरुद्धार किया। तथा ओपने १६६४ में भादवमास में हांसी हिसार) भविष्य में भी आप से समाजोन्नति हेतु अनेक , में पं० रत्न श्री शुक्ल चन्द्रजी म० के सानिध्य में आशाए हैं। भगवति दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के पश्चात् श्राप द्वयभ्राताओंने शास्त्रार्थध्ययन प्रारम्भ किया। स्व. श्री रामसिंहजी महाराज संस्कृत प्राकृत आदि भाषा के आप अच्छे विद्वान हैं। संसारी नाम रामलालजो । जन्म सं. १६३६ आषाढ़ एकान्तवास के श्राप प्रारम्भिक काल से ही विशेष मास । जसरा गांव ( बीकानेर ) पिता दीपचन्दजी । प्रेमी हैं। अतः अब भी आप अधिकतर एकान्त में माता केशरीदेवी। जाति लखेरा। दोक्षा कदवासा स्वाध्याय आदि कार्य में ही समय बिताते हैं । आपकी गांव (वेंगु के समीप) सं० १६५६ माह शु० सप्तमी । प्रकृति शांत नम्र तथा सौम्य है। आपके शिष्य श्री गुरु का नाम परमप्रतापी श्री मोहरसिंहजो महाराज । सुमनकुमारजी हैं। आपने वुढलाढ़ा, वैसी, रिठल, आदि गांवों में सर्व श्री सुमनकुमारजी महाराज प्रथम धर्म प्रचार किया। आपका सं० २०१५ आसोज वदी ३ के दिन स्वर्ग वास हुआ। आपका जन्म सं० १९६२ के लगभग बसन्त पंचमी को बीकानेर राज्य के पांच ग्राम" में गोदाग श्री नौबतरायजी महाराज गोत्रीय जाट वंश में हुथा। आपके पिता का नाम ___ संसारीनाम श्री नौबतरायजी। जन्म तीतरवाड़ा भीमराय था। संयमपर्याय से पूर्व आपका नाम श्री नगर (जिला मुजफ्फर नगर ) में सं० १६६४ चैत गिरधारीलाल था। आपने हिन्दी में प्रभाकर तक की सुदी ६ । पिता का नाम श्री सन्तलालजी! माता योग्यता प्राप्त की है । तथा संस्कृत और प्राकृत भाषा निहालीदेवी । जाति छिपां टांक क्षत्री। दीक्षा हांसी का भी अच्छा ज्ञानार्जन किया है। में सं० १९८० माघ सुदि १० । गुरु का नाम गणावसं० २००७ ( म० १६५) में साढौरा नगर में च्छेदक श्री रामसिंहजी महाराज । सहारनपुर के आश्विन सुदी १३ को कविरत्न पं. श्री हर्पचन्द्रजी इलाके में सर्व प्रथम प्रापने ही उपकार किया । आपने म० के चरणों में भगवती दिक्षा ली। और पं० रत्न अनेक कष्टों को सहकर कई नये जैन बनाये। कई श्री महेन्द्रकुमारजी के शिष्य बने । आपने रायकोट लोगों को मांस, शराब, जुमा, इत्यादि व्यसनों के में एक विशाल "महावीर जैन पुस्तकालय" की सौगन्ध भी कराये। आप बाल ब्रह्मचारी हैं। आपके स्थापना कराई जो इस समय समृद्ध एवं सम्पत्र है। प्रीतमचन्दजी तथा उत्तमचन्दजी नामक २ शिष्य हैं। रा Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ २०५ ms-iSDMINISTRIIND GIMS DHONIND DAHATISTICIDIINDIDIOINDIAHINDILIDITUATIOurbedIUIDAGIodiummedium श्राचार्य श्री कपूरचन्दजी महाराज मुनि श्री नेकचन्दजी महाराज कच्छ आठ कोटि मोटा पक्ष सम्प्रदाय के सम्बन्ध आपका जन्म सं० १६३६ मिगसर बी ६ को में हम पृष्ठ १३२ पर लिख आये हैं । इस सम्प्रदाय गांव दुकाना ( जि. मेरठ ) में हुआ। पिता का नाम के १८ वें पाट पर वर्तमान में आचार्य श्री कपूरचन्द रामारखजो जमीदार जाति जाट गौत्र सिल खादिन । जी महाराज विद्यमान हैं। दीक्षा सं० १९५४ मिगसर वदी ११ गुरु पूज्य श्री भाप श्री का जन्म सं० १६३६ पिता का नाम । श्रमसिंहजी महाराज की सम्प्रदाय के पूज्य श्री नागपारजी तथा माता का नाम सन्दरबाई था। जाति प्यारेलालजी म०। बीसा ओसवाल गौत्र गाला । दीक्षा सं० १९५६ । ___ आप बड़े ही विद्वान, शांत मूर्ति त्यागवीर संत हैं। स्थान तलवाणा। गुरु आचार्य श्री कर्मसिंहजो म० मनि श्री बेनीरामजी महाराज आचार्य पद सं० २०१५ में मांडवी शहर में हुमा। आपका जन्म स्थान रावलपिंडी है। पिता का कच्छ काठियावाड़ में आप श्री के प्रति जैन समाज नाम ख्यालासिंह । माता गगादेवी । जा आसवाल अतीव श्रद्धा है । आप श्री जैनागम के महान ज्ञाता दुगह। सं० १६६२ में आपने पंजाबी सम्प्रदाय के प्रभाविक आचार्य हैं। वर्तमान में आप श्री की प्राज्ञा मुनि श्री खड़गचन्दजी म. के पास दीक्षा ग्रहण की। में १४ मुनिवर तथा ३६ साध्वियाँजी विचर रहे हैं। आज्ञानुवर्ती मुनिवरों में मुनि श्री हेमचन्दजी म. माना मुनि श्री जगदीशचंदजी महाराज जगदारापदणा महाराण रामचन्दजी म., पं. श्री रत्नचन्दजी म०, श्री कुशल- आपका जन्म सं० १६७४ में होशियारपुर के जूह चन्दजी म०, श्री पं० मुनि श्री छाटेलालजी म०, ६० नामक नगर में हुआ। पिता का नाम निहालचन्दजी श्री पूनमचन्दजी म०, मोहनलालजी म०, धीरजलाल माता बसन्तीदेव।। जाति ब्राह्मण गौत्र गग । सं० जी म०, प्राणलालजी, सुभाषचन्दजी, रूपचन्दजी १६६४ मिंगसर सुदी ५ को स्यालकोट में पूज्य श्री तथा भाईचन्दजी महाराज हैं । साध्वियों में आर्याजी आत्मारामजी म० को समुदाय के मुनि श्री गोकुल. श्री हेमकंवरजी, श्री धनकंबरनी, श्री गगाबाईजी चन्द जी म सा० के पास दीक्षा ग्रहण की। आदि ३६ आर्याएं हैं। पूज्य एकलिंगदासजी महाराज की सम्प्रदाय के प्रवर्तक पं. मुनि श्री रत्नचंदजी (कच्छी) पं. मुनि श्री माँगीलालजी महाराज संसारीनाम रणसिंह । जन्म सं० १९५२ स्थान समारो नाम श्री मांगीलालजी संचेती । पिताजी की बांकीगाम मुद्रा (कच्छ)। पिता कानजी शाह । माता गम्भीरमलजी संचेती। माताजी श्री मगनादेवी। जाति मेघबाई । जाति बीसा ओसवाल गौत्र काश्यपछेड़ा श्रोसवाल, संचेती । जन्म पोष कृष्णा अमावश सं० अवट क । दीक्षा सं. १६७६ माहसुद ६ गुरुवार । दीक्षा १६६७ । दीक्षा अक्षयतृतिया ६७८ रायपुर (राजस्थान) स्थान कच्छ बाकी। दीक्षा गुरु श्रीनागचन्दजी स्वामी। गरु का नाम जैनाचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज। आपने निम्न ग्रन्थ गुजराती में रचे हैं:-१ श्रावक जन्म स्थान राजाजी का करेडा (भीलवादा)। व्रत दपेण, २ जन संवाद रत्नमाना, ३ मार्गानुसारि श्राप श्री के प्रयत्नों से कई स्थानों पर सामाजिक ना पांत्रीश बोल, माणसाई पटलेशु, निम्न रचनाएं कुसम्प दूर हुए कुरिवाज मिटे हैं। झूठे बहमों पर संस्कृत में लिखी हैं: चंपकमाला चरित्र५ हरिकेशीमुनि जाति बहिस्कृत व्यक्तियों को वापस जाति में लिखाया चरित्र ६ अनाथमुनि चरित्र ७ ज्योतिश्चन्द्र चरित्र। आपके हाथों से दीक्षाएं, तपानुष्ठान भादि कई कार्य इस प्रकार आप संस्कृत तथा जैनागम के परम हुए हैं। आपके मुनिराज श्री हस्तिमलजी, कन्यालाल विद्वान मुनि हैं । बड़े शांत स्वभावी हैं । जी तथा पुष्कर मुनिजी आदि विद्वान शिष्य है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन श्रमण संघ का इतिहास स्व. जैनाचार्य श्री अमरसिंहजी म० ( मारवाड़ी) और उनकी परम्परा __जैनाचार्य श्री अमरसिंहजी म० की जन्म भूमि भी संयम लिया। आप जैन दर्शन के विद्वान, देहली है । पिता देवीसिंहजी ओसवाल तातेड़ । माता प्रकृति के भद्र और सरल स्वभावी महापुरुष थे। सं० कमलावती । जन्म सं० १७१६ आसोज सुदी १४। २०१३ में कार्तिक सुदी १४ के दिन जयपुर में स्वर्गपूज्य श्री जीवराज जी म. सर्व प्रथम स्थानकवासी वास पधारे । आप श्री के पांच शिष्य हुए । नाम-मंत्री जैनधर्म के क्रियोद्वारक हुए हैं । आपके कई शिष्य मुनि श्री पुष्कर मुनिजी म०, श्री हीरा मुनिजी, हुए थे, उनमें श्रीलालचन्द्रजी म० प्रमुख थे। लालचन्द्र साहित्य रत्न श्री देवेन्द्र मुनिजी, साहित्य रत्न, श्री जी म० के सुशिष्य पूज्य श्री अमरसिंहजी म. हुए गणेश मुनिजी म० तथा श्री भेरुमुनिजी म.। है जिनके नाम से सम्प्रदाय प्रसिद्ध हैं । अापने श्री श्री भेरुमुनिजी म० मदार के निवासी बासठ वर्ष लालचन्द्रजी म० के समीप सं० १७४१ में दोक्षा ली, की उम्र में दीक्षित हुए । जयपुर में स्वर्गवास हुआ। दीक्षा स्थल देहली। सं० १७६१ में अमृतसर पंजाब श्री हीरा मुनिजी म०-आपका जन्म स्थान वास में यवाचार्य पद प्राप्त किया। आचार्य पद देहली में मादड़ा (आबू)। जाति क्षत्रिय । पिता पवतसिंहजी । हुआ। माता चुन्नीबाई । दीक्षा सं.१६६५ पोषसुद ५ । अध्ययन . जोधपुर के दीवान खेमसिंहजी भन्डारी देहली हिन्दी साहित्य और संस्कृत मध्यमा, धार्मिक प्रभाकर । में आपके उपदेश से प्रभावित हुये। फिर आपको आप श्री ने गुरु महाराज श्री ताराचन्द्रजी म० का भन्डारीजी मारवाड़ में लिवा लाये । जोधपुर, पाली, २७५ पृष्ठ में जीवन चरित्र लिखा है। सोजत आदि अनेक क्षेत्रों में जैन यतियों से शास्त्रार्थ साहित्य रत्न श्री देवेन्द्रमनिजी महाराज किया और सर्व प्रथम स्थानकवासी जैनों का झन्डा । झन्डा आपकी जन्म भूमि उदयपुर है । सं० १६४७ चैत्र सुद . आप ही ने मारवाड़ में स्थापित किया। ३ के दिन संडप (मारवाड) में दीक्षा ली । आप हिन्दी आपके पाट पर २ श्री तुलसीदासजी म०, ३ श्री १ ला में साहित्य रत्न एवं संस्कृत के अच्छे विद्वान हैं। जीतमलजी म. ४ श्रीज्ञानमलजी म. ५ श्रीपूनमचन्दजी लेखन शैली सुरम्य है। आपकी माता तथा बहिन म. ६ श्री जेठमलजी म. ७ महा स्थाविर श्री ताराचद भी दीक्षित हैं। आपकी जाति ओसवाल वरड़िया है जी म० हुए हैं। पिता जीवनसिंहजी वरडिया। माता प्रभाती बाई । स्व० श्री ताराचन्दजी म०-महास्थविर श्री , " साहित्य रत्न श्री गणेशमुनिजी आपकी जन्म भूमि ताराचन्द्रजी म० का जन्म स्थान बम्बोरा मेवाड़ है। वागपुरा ( मेवाड़) है। आपकी मातेश्वरी तीजबाई ने भआपके पिता का नाम शिवलाल जी गुन्देचा ओसवान भी संजम लिया है दीक्षित नाम प्रेमकुवरजी । आपकी माता ज्ञानकुवरीजी । जन्म सं० १६४० । ६ वर्ष की दीक्षा सं० २००३ में धार (मालवा) में हुई । आपके वय में श्री पूनमचन्द्रजी म० के पास सं० १६५० में पिता लालचन्दजी पोरवाल है। आप हिन्दी साहित्य समदडी (मारवाड़) में दीक्षाली । आपश्री की माता ने रत्न पास हैं और अच्छे कवि तथा प्रवचनकार हैं। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण-सौरभ २०७ मुनि श्री संतवालजी 'संतबाल' ही लिखते रहे और उसी नाम से प्रसिद्ध हैं। गुरुजी के पास ८ वर्ष तक रहे पर आपको ऐसा लगा कि अभी विकास अधूरा है अतः आप गुरुजी की आज्ञा ले नर्मदा नदी के किनारे बड़ौदा जिले के राणापुर ग्राम में एक वर्ष तक एकान्तवास और मौनी रहे । इस समय आपने दुनियां के हर धर्म का गहन अध्ययन किया। साथ ही न्याय, व्याकरण तथा साहित्य का अनुशीलन भी किया। ऐसे एकान्त चिन्तनशील जीवन ने आपके जीवन प्रवाह को ही एक विशेष क्रान्ति मार्ग की ओर मोड़ दिया आपने तत्कालीन धर्म के बाह्य स्वरूप एवं व्यवहार में परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की और इस सम्बन्ध में एक निवेदन भी प्रकाशित किया। पर समाज उसे पचा न सका और आप सम्प्रदाय से बहिष्कृत किये गये। मौन एकान्त के पश्चात अपने महसूस किया कि केवल युगानुकूल उद्दश्य बनाकर काम नहीं चलेगा साथ ही व्यवहार शुद्धि के प्रयोग भी चलने आपका संसारी नाम शिवलाल था। पिता का चाहिये । आपने डॉ. मेघाणी का 'आदश समाजवाद' नाम नागनभाई और माता का मोतीवाई। बीसा पुस्तक की प्रस्तावना लिखी। इसमें धर्म की दृष्टि से श्रीमाली दोशी गौत्र । पिता का बाल्यकाल में देहान्त समाज रचना के बारे में कुछ बातें आपने लिखी हैं। होगया। माता से आपको धार्मिक संस्कार विरासत में आपने अव से साम्प्रदायिकता की चार दिवारी मिले । अध्ययन के बाद बम्बई में नौकरी की। उस से बाहर निकल कर समूचे राष्ट्र को अपना सेवा सस्ते जमाने में २०० रु० मासिक मिलते थे बाद में क्षेत्र बनाया। गुजरात के नालकांठा आदि कई प्रदेशां एक पारसी सज्जन के साथ साझे में लकड़ी का में घूम घूम कर समाज सुधार का प्रयत्न किया । कई व्यापार किया। आपका अधिकांश भाग दसरों की स्थानों पर कन्या विक्रय, वर विक्रय, फिजूल खची, सहायता आदि में जाता था । प्रारम्भ से ही वैराग्य गंदे गीत गाना, दिखावा आदि की बुराइयाँ बता कर भावना प्रबलवती रही। इस मार्ग से हटाने के लिये इनको रोकने हेतु पंचायती नियम बनवाये । इसी माता ने इनकी सगाई करदी। किन्तु एक बार आप प्रकार कई लोगों से मांसाहार छुडवाया। अपनी मंगेतर के यहाँ गये और उसे बहिन रूप में भाल-नाल प्रदेश में पानी की बडी मुश्किलें थीं। सम्बोधित कर एक साड़ी उपहार में दे आये । इस यह प्रदेश बिलकुल निर्जल था । थोडी बहुत मात्रा में प्रकार सांसारिक उलझन का एक फंदा काट दिया। मीठा जल उपलब्ध था उस पर कड़े निबन्ध थे। आपका विशेष समय अध्ययन और चिन्तन में मुनिश्रीजी ने वहाँ जल सहायक समिति' की स्थापना ही बीतता था। गांधी साहित्य का प्रभाव विशेष रहा। की और आज तक इस समिति के मातहत लाखों कुछ दिनों बाद आप पूज्य श्री नानचंदजी म० के संपर्क रुपये खर्च कर तालाब, कुए, नहरें आदि की निर्मिती में आये और २४ वर्ष की अवस्था में उन्हीं के पास की गई है। अब यह प्रदेश पानी की दृष्टि से समृद्ध दीक्षित होगये। दीक्षा नाम सौभाग्य चन्द्र है पर श्राप हो गया है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन श्रमण-संघ का इतिहास आज अहमदाबाद जिले में पाँच सौ गांवों में पं० श्री भारमलजी महाराज धार्मिक दृष्टि से समाज रचना का प्रयोग चल रहा । ___ स्वर्गीय मेवाड़ भूषण जैनाचार्य श्री मोतीलालजी है । लगभग १००-१५० भाई बहन इस प्रयोग में हाथ म० के आप प्रधान शिष्य हैं। आपका जन्म संवत् बँटा रहे हैं। आज तो गुजरात में अनेक जगह ये प्रयोग चल रहे हैं । भारत का हृदय गांव है। गांव १९५० गांव सिन्दु ( मेवाड़) में हुआ। पिता श्री के तीन प्रमुख हिस्से हैं-देहाती, गोपाल और मजदूर ! भैरूलालजो और माता हीराँवाई। जाति ओसवाल गौत्र-बदाला । दीक्षा संवत् १६७० मिगसर वद ७ इन तीनों समुदायों के क्रमशः खेडूत मंडल', 'गोपाल गांव थामला (मेवाड़) में पूज्य श्री मोतीलालजी म. मंडल' और 'ग्रामोद्योग मजदूर मंडल' इस प्रकार . के पास हुई । आपके मुनिराज श्री अम्बालालजी म० मंडलों को स्थापना की गई है। सन् १६४६ में अहमदाबाद में जो हुल्लड़ मचा। श्री शान्तिलाल जी म०, श्री इन्द्रमलजी म०, श्री मगन उस वक्त महाराज श्री का चातुमास वहां था। आपने ___ मुनिजी तथा श्री सोहनलालजी म. आदि शिष्य हैं। उस समय वहां की शान्ति सेना तथा प्राम सेवकों की प्रवर्तक श्री मानकमुनिजी सहायता से जो कार्य किया उसे सारा देश जानता है। संसारी नाम श्री मोहनलालजी । जन्म सावन सुदी ___ महाराज श्री ने आचारांग, उत्तराध्ययन, दश. दूज वि० सं० १६५२ गाँव सुरतीया जिला हिसार वैकालक, जैनदृष्टि से गीता दर्शन, आदर्श गृहस्थाश्रम, ब्रह्मचर्य साधना, धर्म दृष्टि से समाज रचना प्राधि (पंजाब)। पिता श्री चन्दूरामजी । माता श्री जेठोबाई । अनेक धार्मिक ग्रंथ लिखे हैं। आप सर्वोदय योजना जाति-ओसवाल, चौधरी । दीक्षा अषाढ़ की पूर्णमाशी, सधन योजना, छात्रालय, कृषि बाल मंदिर, नई वि० सं० १६८० गांव कान्डला जि० मुजफ्फर नगर। तालीम, के स्कूल आदि अनेक जन कल्याण की दीक्षा गुरु श्री बिहारीलालजी (पं० श्री शुक्लचन्दजी प्रवृत्तियों में अपनी साधुता की मर्यादाओं को संभालते म के शिष्य)। हुए योग देते हैं। आज आपकी उम्र ५४ वर्ष की है। जैन धर्म की तपस्वी श्री सुदर्शनमनिजी दीक्षा लिए आप को ३० वर्ष हो गये हैं। ३० वर्षों पंजाब मंत्री श्री शुक्लचन्दजी म. के शिष्य । संसारी के इस लम्बे अर्से में आप जनता जनार्दन की निरंतर नाम श्री सुरजसिंहजी । जन्म माघ सुदी पंचमी, वार सेवा कर रहे हैं। बापूजी स्वास्थ्य के कारण जब जह में रहे थे तब शनिवार विक्रम संवत् १६६५। जन्म स्थान कांवट उनसे आपका अच्छा सम्पर्क रहा । आप उन से मिले (गजस्थान ) जिला सीकर । पिता श्री लाधूसिंहजी । थे। कांग्रेस के कामों में भी आप का योग सदैव माता श्री विजयवाई। जाति राजपूत, तामर गोत्र । रहता है। __ आप चातुर्मास में एक ही जगह स्थिरता करते दीक्षा-वि० सं० १६६१ वसन्त पंचमी । दीक्षा गुरु श्री हैं तथा सदा पैदल प्रवास करते हैं। पंजाब मंत्री श्री शुक्ल वन्दजी महाराज । Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन श्रमण संघ का इतिहास जैन जगत की सुप्रसिद्ध विदुषी साध्वी रत्न मतीक स्व० प्रर्वतिनीजी श्री० पुण्यश्रीजी म. स्व० श्री सुवर्णश्रीजी म. प्रवर्तनीजी श्रीज्ञानश्री जी म० प्रखर पंडिता श्री विचक्षणश्रीजी म. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री. लक्ष्मी श्रीजी म० आबाल ब्रह्मचारिणी श्री कल्याण श्रीजी म० आबाल ब्रह्मचारिणी श्री० उमंगश्रीजी म० परम विदुषी श्री विमला श्री जी म. विदुषी आर्या रत्न श्री. प्रमोद श्री जी म. श्री. शिवश्री जी म० ragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण- सौरभ ! DO MIDGH WOOM Women tegu on AWD INDOK MIDOUTWE २११ वृहद् खरतरगच्छीया साध्वी शिरोमणि श्री सुवर्णश्रीजी म. का जीवन परिचय अहमदनगर निवासी ओसवाल जाति भषण श्रीमान् सेठ योगादाजी बोहरा एक बड़े ही व्यापार कुशल सज्ज थे । उनकी धर्मपत्नी का नाम श्रीमती दुर्गादेवी था ! वे बड़ी ही सच्चरित्रा, धर्म-परायणा, उदार और आदर्श पतिव्रता थीं। इन्ही देवी जो के गभ सं सं० १६२७ को ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन हमारी चरित्र - नायिका ने शुभ जन्म ग्रहण किया, बालिका के अद्भुत रूप लावण्य देख कर ही माता पिता ने उसका नाम “सुन्दरबाई" रखा । सुन्दरबाई केवल रूप में हो सुन्दर नहीं थी, बल्कि उसमें गुण भी बहुत से थे। बचपन से ही वह बढी उदार और उच्चभावापन्न थी । विद्या-लाभ करने की ओर भी उसकी बचपन से ही रुचि और प्रवृत्ति थी । कुमारावस्था में है! सुन्दरबाई मे अच्छी शिक्षा प्राप्त करली और खून विद्याध्ययन कर लिया। इतनो अल्प अवस्था में इतनी योग्यता शायद ही कोई लड़की प्राप्त कर सकती हो । जब सुन्दरबाई की अवस्था प्रायः ११ वर्ष की हुई, तब आपकी माता, आपका विवाह करने की इच्छा से, आपको लेकर जोधपुर रियासत के 'पीपाड़' नामक स्थान में श्रई । यहीं सुन्दरबाई को साधुसाध्वियों के समागम का संयोग प्राप्त हुआ । उसी समय वैराग्यपूर्ण देशनाएँ सुन-सुनकर सुन्दरबाई का चित्त संसार से विरक्त होने लगा । परन्तु कर्मान्तराय से आपको गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना था। इसलिये संसार त्याग करने का अवसर नहीं मिला । १६३८ की माघ शुक्ला तृतीया के दिन नागोर निवासी श्रीमान् प्रतापचन्द्रजी भण्डारी के साथ आपका शुभविवाद हुआ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat वृहन खरतर गच्छ सम्प्रदाय के गणाधीश्वर श्री सुखसागरजी महाराज के समुदाय की जगत् विख्यात, शान्त मूर्ति, गम्भीरता आदि गुणों से अलंकृत श्रीमती पुण्य श्रीजी महाराज संम्वत् १६४५ में नागोर पधारीं । श्री सुन्दर बाईजी उनका उपदेश श्रवण करने के लिये उनके पास नित्य आने लगीं। एक दिन श्रीमती पुण्य श्री जी ने अपनी देशना में संसार को मारता बताई | नित्य वैराग्यमयी बातें सुनते सुन्दर बाई का हृदय वैराग्य-रस से परिपूर्ण हो गया । अब के श्रीमती पुण्य श्री जी की मधुर देशना ने खोने में सुहागा को सा काम किया । आपका वैराग्यभाव बहुत ही पुष्टं हो गया। आपने उसी समय गुरुणीजी महाराज से दीक्षा ग्रहण करने का अपना विच र प्रकट किया । जब सुन्दरबाई ने बहुत आग्रह करना आरम्भ किया, और इनका हार्दिक वैराग्य भाव देखकर श्री गुरुणीजी ने कहा, 'अच्छा, यदि तुम्हारी इच्छा दीक्षा लेने की ऐसी प्रबल है, तो पहले अपने घरवालों से इसके लिये श्राज्ञा मांग लो ।” पहले तो लोगों ने हमारी चरित्र नायिका के दीक्षा ग्रहण करने में बडी-बडी अड़चनें डाली, प्रतापमलजी साहब ने भी ऐसी सर्वतः सुयोग्य । परनी को आज्ञा देने में बहुत आनाकानी की, रोकने का जितना प्रयत्न करना था सब कर लिया । पर सुन्दर बाई जैसी तीव्र वैराग्य भावमा वाली कब रुकने वाली थीं, सबको अनेक प्रकार से समझा कर आखीर सबसे माझा प्राप्त करके उन्होंने सं० १६४६ को मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी बुधवार के दिन प्रातः काल ८ बजे गृहस्थ धर्म को www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन श्रमण संघ का इतिहास mpgNDIMUDAIIMJODIDIDATTIPATIOHINIDDIIIUMpdIII-IIIRITULAMITUTIOTIHARIDAIINDOIHIDDLATHHHIDADIWARDOIRI छोड़कर गुरुणीजी से दीक्षा ले ली। उसी दिन से बडी तपस्या की थी, दूसरा चौमासा फलोधी मारवाड़ भगवान महावीर स्वामी के बतलाये हुए सत्यमार्ग को में हुआ, वहाँ आपको श्रीमन् ऋद्धि सागरनी महाराज - ग्रहण कर वे आत्म-कल्याण का साधन करने लगीं। साहब का संयोग हुआ, उनके पास व्याकरण का दीक्षा लेने पर आपका नाम "सुवर्णश्री" हो गया और अभ्यास, सूत्र वाचनादि, आवश्यक ज्ञान हासिल तव से आप इसी शुभ नाम से प्रसिद्ध हैं। किया । भगवती सूत्र भी सुना । २१ उपवास की बड़ी दीक्षोपरान्त वे सदा-सर्वदा ज्ञान-ध्यान में ही तपस्या की। अपना समय बिताने लगीं । ज्ञान बढ़ने के साथ ही तीसरा चौमासा नागोर में हुआ, दिन प्रतिदिन साथ आपकी ध्यान शक्ति भी क्रमशः इतनी बढ़ गई, आपका अभ्यास बढ़ता गया। शासन सेवा करने की कि उस समय दिन-रात के २४ घन्टों में से १३-१४ योग्यता तथा गुरुभक्ति में आपसर्व प्रधान थीं। इससाल घन्टे आपके ध्यानावस्था में ही व्यतीत होते थे । आप भी आपने १६ उपवासकी बडी तपस्या की थी। चौथा में आत्मिक ध्यान करने की अपूर्व शक्ति विद्यमान थी। चौमासा नया शहर ( व्यावर ) में किया। पांचवां जबसे आपने दीक्षा ली है, तबसे आज तक अनेक चौमासा फलौदी मारवाड़ में, छट्ठा चौमामा शत्रुजय प्रकार की तपस्यार कर चुकी थी और यथा शक्ति तीर्थ पर हुआ । वहां आपने सिद्धितप किया, १५ उपभी करती ही जाती । जहाँ तक हमें ज्ञात हुआ है, वास, १० उपवास : उपवास किये । तीन अट्ठाई की। आप अट्ठाई, नवपदजी की अोली और वीसस्थानक छोटी तपस्या की तो गिनती करना ही कठिन है। तप करने के साथ-साथ कठिन सिद्धि-तप का भी सम्पूर्ण पर्व तप जप से आराधन किये, किसी पर्व को अाराधन कर चुकी थी । उपवासों में तो कोई गिनती नहीं छोड़ा। ही नहीं है । आप एक ही समय में लगातार नौ, दस, चौमासे तो आपने पुण्य श्री जी महाराज सा० ग्यारह, सत्रह, उन्नीस और इक्कीस उपास तक कर के संग किये । दसवाँ चौमासा उनके हुक्म से बीकाचुकी थी। नेर किया। __श्री १००८ श्री पुण्य श्री जी महाराज की शिष्य- आपका बावीसवाँ चौमासा आपनी अहमदनगर मण्डली में, जिसमें प्रायः सवा सौ साध्वियां विद्यमान जन्म भमि में हुआ । खरतर गच्छीय साध्वीजी म० थी, इस समय आप ही सब में प्रधान हैं। का इस शहर में यह सर्व प्रथम आगमन था वहाँ से श्रापका प्रथम चौमासा बीकानेर में हुआ, “हां पूना शहर में पधारे, वहाँ से बम्बई शहर में २४ वां साधु विधि, प्रकरण, जीव विचार, नवतत्व और कर्म चौमासा किया। येसब एक २ से बढ़कर उन्नति शाली ग्रन्थादि सब कंठस्थ किये। आप पढ़ते थोड़ा मगर चौमासे हुए । उनमें भी आपके तमाम चतुर्मासों में मनन इतना करते थे, जैसे छाछ से माखन निकालना बम्बई का चातुर्मास वडा भारी प्रभाव शाली हुआ। आपकी बुद्धि बडी तीक्ष्ण थी, स्मरण शक्ति आपमें जब आपकी दीक्षा हुई थी, तब कुल १५ या बीस बहुत थी । प्रथम चौमासे ही में श्राप १७ उपवास की साध्वी जी ही थीं । फिर बाद में आपके उपदेश एवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ ११३ त्याग-वैराग्य के प्रभाव से करीबन १००-१५० की ५ जयपुर में सं० १९८४ का शु० ५ झान पंचमी संख्या में सुयोग्य साध्वी समुदाय बढ़ा। हर एक को धूपियों की धर्मशाला में "श्राविका श्रम" की चौमासे में आपके हाथ से व उपदेश से दो धार स्थापना की जो अब “वीर बालिका विद्यालय" के दोक्षायें होती ही थी। सपको आपने-विद्या पढ़कर रूप में सुसंचालित है । ४०० बालिकाएं पढ़ रही हैं। योग्य बनाया । ___वृद्वावस्था एवं अशक्त होते हुए भी आप आगरे सं० १९७६ फाल्गुन सुदी १० को प्रातः आपकी वाले सेठ लूणकरणजी वीरचदजी नाहटा की माताजी गुरुवर्या श्री पुण्य श्रीजी म. सा. का कोटा में स्वर्गके प्रति आग्रह पर बीकानेर पधारी और वहाँ बीस वास हुआ। आप उस समय वहीं थी और अन्तिम स्थानकजी का उद्यापन तप महोत्सव बड़े समारोह सेवा में गुरु सेवा का लाभ लिया । गुरुवर्या के स्वर्ग- पूर्वक कराया । वास के बाद श्राप पर हो समुदाय संचालन का भार बीकानेर के उदरामसर देशनोक श्रादि क्षेत्रों पाया जिसे आपने प्रवर्तिनी रूप में निभा कर सब के में श्वेताम्बर मुनिराजों का कम पदापण होता था। स्नेह एवं श्रद्धा भाजन बने । आपने इस ओर खूब धर्मोद्योत किया। कोटा चातुर्मास के बाद स्वर्गीय गुरुवर्या के अन्तिमावस्था जान आपने बीकानेर में वर्तमान आदेशानुसार आपने दिल्ली और उत्तर प्रदेश की प्राचार्य वीरपुत्र श्री आनन्दसागर सूरीश्वरजी म० के ओर विचरण किया । इम प्रदेश में आपश्री के उपदेश शुभ हस्त से श्री ज्ञानश्रीजी म० को प्रवर्तिनी पद से म्यान २ पर अनेक महत्व पूर्ण कार्य हुए हैं जिनका विभूषित कर संघ संचालन सौंपा। विस्तृत वर्णन यदि किया जाय तो एक स्वतंत्र पुस्तिका फलौदी से जैसलमेर निवासी सेठ जुगराजजी ही बन जाय अतः संक्षेप में ही लिखना पर्याप्त होगा। गुलाबचन्दजी गोलेला ने आपकी अध्यक्षता में जैसल १ हापुड़ में सेठ श्री मोतीलालजी बूरड़ द्वारा नव मेर तीर्थ की यात्रार्थ भारी संघ निकाला। मन्दिर निर्माण हुआ। इसी प्रकार आप श्री द्वारा जीवन के अंतिम क्षण __२ आगरा में दानवीर सेठ लक्ष्मीचन्दजी वैद्य तक लोकोपकागर्थ तथा धर्मोद्योत हेतु कई महत्व द्वारा बेलनगंज में भव्य मन्दिरजी तथा विशाल धर्मः पूर्ण कार्य होते रहे थे। शाला बनवाई गई। ऐसी महान उपकारी महान् पूज्यनीया साध्वी ३ आगरा के निकट श्री शैरीपुर तीर्थ का उद्धार शिरोमणी गुरुवर्या श्री सुवर्णा श्री जो की वह दिव्य कार्य कर वहाँ की सुन्दर व्यवस्था कराई । गुरुवर्या का ज्योति सं० १६६१ माघ कृष्णा को सायंकाल ५ यह कार्य चिर स्मरणीय रहेगा। बजे इस लोक से सदा के लिये अन्तर्धान होगई। ४ दिल्ली पातुर्मास में महिला समाज की उन्नति सर्वत्र शोक की काली घटाएं छागई । जयपुर हेतु "साप्ताहिक स्त्री सभा" का प्रारम्भ किया और दिल्लो आदि बडी दूर दूर से हजारों मानव मेदिनी "वोर बालिका विद्यालय" की स्थापना कराई। एकत्र थीं। दूसरे दिन प्रातःकाल बीकानेर के गोगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन श्रमण संघ का इतिहास दरवाजे के बाहर रेल दादावाडी में बड़े समारोह पूर्वक घोषित की गई और 'ज्ञानश्रीजी' नाम स्थापन किया दाह संस्कार किया गया। गया। चिर स्मृति हेतु इसी स्थान पर रेल दादावाडी में आपने अल्प समय में ही व्याकरण, न्याय, काव्य "श्री सुवर्ण समाधि मन्दिर" स्थापित किया गया। कोष अलंकार छन्द एवं जीव विचार नवतत्व संग्रहणी यान भी उस महान् विभति की स्मृति सबको कर्मग्रन्थ तथा जैनागमों में प्रवीणता प्राप्त करली। परम आह्वादित बनाती हुई श्रद्धावनत बनाती है। संयम पालन में एकनिष्ठता, गुरुजनों के प्रति अन्य आप श्री की पट्टघर सुयोग्या शांत स्वभावी श्री भक्ति, एवं समानवयस्काओं के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार ज्ञानश्रीजी म० संघ संचालन कर रही हैं और अनेक तथा लघुजनों के ऊपर वात्सल्यभाव आदि गुणों के शिष्य प्रशिष्य परिवार जैन शासन की शोभा बढ़ा कारण आपके सभी का व्यवहार बड़ा प्रेमपूर्ण रहा है। मेरे ऊपर भी आपश्री का ही अनन्त उपकार था। २१ वर्ष की अवस्था में तो अग्रगण्या बना कर है। जिसे मैं जन्म जन्मान्तर में भी ऋण नहीं हो आपका अलग चातुमास करने भेज दिया आपको अलग चातुर्मास करने भेज दिया गया था। सकती । सश्रद्धा भव २ में आपके ही शरण में स्थान मापने ४० वर्ष तक भारत के विभिन्न प्रान्तों इच्छती हुई उस भव्य आत्मा को अनन्तबार वन्दना मारवाड़, मेवाड़, मालवा, गुजरात, काठियावाड यूपी. करती हूँ। लेखिका-विचक्षण श्रीजी आदि में विहार करके जैन जनता को जागृत करते हुये शत्रुजय, गिरनार, आबू तारगा खम्भात धुलेगा प्रवर्तिनीजी श्री ज्ञानश्रीजी महाराज मॉडवगढ़ मकसी हस्तिनापुर सौरीपुर आदि तीर्थों की यात्राएं की हैं। कई स्थानों पर ज्ञान प्रचारक श्री जैन खरतरगच्छ नभोमणि श्रीमत्सुखसागरजी संस्थाओं की स्थापना करवाई है। संघ निकलवाये महाराज की समुदाय की प्रसिद्ध साध्वीश्रेष्ठा प्रवर्तिनी हैं। वि. सं. १६६४ की साल से शारीरिक अस्वस्थता जी श्रीमती पुण्यश्रीजी महाराज की साध्वी समुदाय और अशक्तता के कारण आप जयपुर में ही विराजती की वतमान प्रवर्तिनीजी श्रीमती ज्ञानश्रीजी महोदया । पज्या प्रवतिनीजी स्वर्गीया सवर्ण श्रीजी का जन्म फलौदी (मारवाड़) में सं.१९४२ की कार्तिक महाराज साहबा ने सर्वसम्मति से १६८८ में कृष्णा त्रयोदशी को हुआ। गृहस्थावस्था में आपका श्रीमती पुण्यश्रीजी म. सा. के साध्वी समुदाय शुभ नाम गीताकुमारी था। का भार आपको देदिया था । उसी वर्ष वसन्त पंचमी आपका विवाह भी तत्कालीन रिवाज के अनुसार को पूज्यप्रवर वीरपुत्र प्रानन्दसागरजी महाराज सा० ६ वर्ष की बाल्यवय में ही फलौदी निवासी श्रीयुत ने मेड़ता सिटी में आपश्री को प्रवर्तिनीपद प्रदान विशनचन्दजी वैद के सुपुत्र श्रीयुत भीखमचन्दजी के किया था। तब से प्रापही समुदाय की अधिष्ठात्री साय कर दिया गया । देव की लीला । एक वर्ष में ही हैं। शताधिक साध्वियों का संचालन आप कुशलता आप विधवा होगई। आबाल ब्रह्मचारिणी साध्वी पूर्वक कर रही हैं । आपका विशेष समय मौन व जाप रत्न श्रीमती रत्नश्रीजी म. सा. की वैराग्यरस मय में ही व्यतीत होता है। देशना से आपकी हृदय भूमि में वैराग्य का बीजारो आपकी जीवनचर्या अनुकरणीय है पण होगया। उक्त श्रीमतीजी अपनी गुरुवर्या श्रीमती पुण्यश्रीजी म.सा. के साथ फलोधी में पधारी हुई थीं। आपके द्वारा ११ शिष्याएं प्रवर्जित हुई जिनमें विरागिनी गीताबाई की दीक्षा अन्य सात विरा- से श्री उपयोग श्रीजी, शितला श्रीजी, जीवन श्रीजी गिनियों के साथ फलौदी में ही गणाधीश श्रीमद सज्जन श्रीजी जिनेन्द्र श्रीजी तथा स्वयंप्रभ श्रीजी भगवानसागरजी म.सा., तपस्वीवर श्रीमान छगन विधमान हैं। सागरजी म० सा० तथा श्रीमान त्रैलोक्यसागरजी म० आपश्री के जयपुर में विराजने से धर्म कार्य सा० आदि की अध्यक्षता में विक्रम संवत १६५५ की त्याग तपस्या पूजा प्रतिष्ठाए उपधान व्रतग्रहण उद्यापन पौष शुक्ला सप्तमो को शुभ मुहूर्त में समारोह पूर्वक आदि होते ही रहते हैं। होगई। आप श्रीमती पुण्यश्रीजी म. सा० की शिष्या लेखिका-श्री विचक्षण श्रीजी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण सौरभ २१५ बाल ब्रह्मचारिणी श्री अमंगश्री जी म० आपका जन्म सं० १९४० प्रथम भाद्रपद शुक्ला १३ को जोधपुर में हुआ। आपके पिता मुंसफी - सूरजराजजी भण्डारी और माता श्री इचरजबाई थे । आपने लगभग १३ वर्ष की आयु में ही आषाढ़ सुद १० सं० १६६० को स्व० प्रवर्तिनी श्री सुवर्णश्रीजी के पास दीक्षा प्रहण करली। आपका दीक्षा नाम "उमंग श्री" रखा गया । आप खरतरगच्छीय समुदाय की आर्यारत्न श्री कनकश्रीजी की शिष्या बन्मे । साहित्य, काव्य, जैनागम एवं न्याय विषय में आपका अध्ययन गहन है । आपने अपने संरक्षण में कई ग्रन्थों को प्रकाशित कराया है जिनमें रूपसेन चरित्र, सरस्वती स्तोत्र पंच प्रतिक्रमण सूत्र आदि प्रमुख है । आपने अनेक प्रमुख नगरों में चातुर्मास किये हैं और सर्वदा अपने उच्च विचारों से समाज को धार्मिक एवं आध्यात्मिक मार्ग दर्शन दिया है। टोंक तथा रावतजी का पीपल्या, भानपुरा आदि में आपकी सद् प्रेरणा से दीक्षा उजमणे, पूजाएँ भोलोजी, जीर्णोद्धार एवं प्रतिष्ठादि के कार्य हुए हैं । आपकी प्रवज्या दात्री गुरुणी स्व. सुवर्णश्रोजी थीं । आप खरतरगच्छीय समुदाय की मुखिया पुण्य श्रीजी म० खा० की शिष्या श्री कनक श्रीजी म० सा० की शिष्या है । आपने साहित्य, काव्य, एवं न्याय विषयों में कई परीक्षाएं पास की हैं। आपने अपने संरक्षण में कई ग्रन्थों को प्रकाशित कराया है जिनमें रूपसेन चरित, सरस्वती स्तोत्र पंच प्रतिक्रमण सूत्र आदि प्रमुख हैं। आपने अनेक प्रमुख नगरों में चातुर्मास किए हैं और सवदा अपने उच्च विचारों से समाज का धार्मिक एवं अध्यात्मिक मार्ग दर्शन किया है। टोंक तथा रावतजी का पिपल्बा में आपकी सप्रेरणा से दीक्षा, जोर्णोद्धार एवं प्रतीष्ठा के कार्य हुए हैं। भानपुरा में भी आपने प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्वार कराया है | अनेक स्थानों पर उनमनें पूजाप, घोलोजी, आदि आपकी प्ररेखा से हुए हैं। महाराज श्री घन बुद्ध है और टोंक राजस्थान में स्थविर विराज रहे है। महाराज श्री अब वृद्ध है और टोंक राजस्थान में विराज रहे हैं । श्रीमती मेघश्रीजी महाराज सांसारिक नाम "धाकुबाई" । जन्म सं० १६४५ वाल ब्रह्मचारिणी श्री कल्याणश्रीजी म. मार्गशीर्ष कृष्णा २ जन्म स्थान फलोदी । पिता मोि आपका जन्म संवत् १६५२ पौष सुद १० को जोधपुर में हुआ | आपके पिता मुसफी सूरजराजजी भारी थे और माता का नाम इचरनबाई था । आपमें बाल्यावस्था से ही धर्म के प्रति अतीव श्रद्धा एवं निष्ठा थी जिसने भागे चलकर वैराग्य का रूप धारण कर लिया । लालजी बच्छावत माता रूपकंवरबाई । जाति ओसवाल गोत्र नाहर | दीक्षा १६६० वैशाख कृष्ण १० फलौदी । परम पूज्य गुरुवर्या विदुषी विमला श्रीजी म० स० की सुशिष्या हैं। आप ज्ञान ध्यान तपश्चर्चा में तल्लीन हैं । सेवाभावी जीवन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat आपने ६ वर्ष की आयु में ही सं० १६६२ मार्ग शुक्ल पक्ष में दीक्षा ग्रहण करली। आपका नाम "कल्याण श्री” रखा गया । शीर्ष www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन श्रमण संघ का इतिहास श्री जयवन्त श्रीजी महाराज श्री हेमश्रीजी महाराज सं० नाम जेठीबाई। जन्म संवत् १६४० पोष आपका जन्म चाडी (मारवाड़) में श्री किशनलाल कृष्णा १० फलोदी। पिता फूलचन्द्रजी वैद माता श्री जी संचेती । (ोसवाल) के घर माता अगरोबाई की अंगारकंबरवाई (चौथीबाई)। पोसवाल गोलेच्छा। कुक्षी से हवा । आपने २१ वर्ष की अवस्था में सं० दीक्षा सं० १९६४ माघ शुक्ला । श्रीमती गुरुणीजी १६६२ अषाढ़ सुद ३ को श्री पवित्रश्रीजी की देशना श्री लक्ष्मी श्रीजी म. सा० को आप सुशिष्या हैं। से लोहावट में दीक्षा अंगीकार की।। आपने २४ वर्ष की वय में निजपुत्री के साथ चारित्र बाल ब्रहमचारिणी दिव्यप्रभाश्रीजी महाराज रत्न स्वीकार किया । आप का जीवन सेवाभावी त्याग - आपका जन्म सं० १६६६ का मिंगसर सुद ११ तप से भरपूर है। को ( मोसवाल ) भंसाली मेघराजजी के घर माता विदषीरत्न श्री प्रमोदश्री जी महाराज मूलीबाई की कुक्षी से लोहावट ग्राम में हुवा। आप विदुषी आर्यारत्न बाल ब्रह्मचारिणी “उज्जैन" बचपन से ही धर्मानुरागी रहीं । १० वर्ष की अवस्था अवन्तिका नगरी तीर्थ श्री शान्तिनाथ मन्दिर जी में सं०२००६ मिगसर सुद ११ को आपका लोहावट द्धार कारिका साध्वी श्रेष्ठा श्रीमति प्रमोद श्रीजी म० में दिक्षा संस्कार हुआ और आप महाराज श्री पवित्र का सांसारिक नाम लक्ष्मीकुमारी (लालोंबाई) था । जन्म श्रीजी की शिष्या बनी। सं० १६५५ कार्तिक शुक्ला ५ जन्म स्थान पलड़म। महासति श्री नेनाजी महाराज पिता सूरजमलजी गोलेच्छा माता जेठीबाई । दीक्षा आपका जन्म हरसोलाव (मारवाड़ ) में हुआ। सं० १६६४ माघ सुदी ५ स्थान फलोदी । आप गुरु पिता श्री चुन्नीलालजी चोपड़ा। माता गुरगाबाई । वर्या शिव श्रीजी म. सा० की शिष्या है। ज्ञानदान पति का नाम श्री कुनणमलजी ओस्तवाल । दीक्षा सं० दात्री गु०पू० श्रीमति विदुषी विमला श्रीजी म. सा० ११८० में बड़ल में हुई। का भारी उपकार है। आप श्रीने व्याकरण काव्य महा सति श्री अमरकंवरजी म. कोष, न्याय, अलंकारादि और सिद्धान्त विषय में गहनज्ञान प्राप्त किया है। आपश्री के सदुपदेश से __ जन्म सं० १९६० महावदी ४ किशनगढ़। पिता जैन कन्या पाठशालायें उद्यापन प्रतिष्ठा आदि अनेक श्री हीरालालजी बोहरा माताधापूबाई। पति का नाम शुभकार्य हुए हैं। कई संस्थाओं को श्राप श्री से श्री मगराजजी बरमेचा। दीक्षा किशनगढ़ में सं.१९६३ सहयोग मिलता ही रहता है। आपकी शिष्याओं में महावदी १३ को हुई । आप महान विभूति हैं। श्री चम्पक श्रीजी, राजेन्द्रश्रीजी, प्रकाशश्रीजी, पारस __ महा सति श्रीउमरावकंवरजी म. श्रीजी चन्द्रयशा श्रीजी, चन्द्रोदयश्रीजी, कोमल श्रीजी आपका जन्म पिपाड़ ( मारवाड़) में सं० १९६७ आदि हैं । सभी विदुषी हैं। को हुथा। पिता कनकमलजी भडारी। माता छोटीश्री पवित्र श्री महाराज बाई । पतिका नाम श्री माणकचन्दजी सिंघी था । आपका जन्म सं० १६५७ में सोमेसर (मारवाड़) दीक्षा सं० २००२ जेठ वदी ७ को जोधपुर में हुई। में श्री सूरजमलजी दूगड़ ओसवाल के यहाँ माडुबाई आपने एक सुसम्पन्न घर में जन्म लिया तथा सम्पन्न की कुक्षी से हुआ। नाम रायकंबरी रक्खा गया। घर में ही ब्याही पर यह सब रिद्धी छोड़ संयम मार्ग में प्रवृतित हैं। सं० १९७५ की वैशाख सुद १० को लोहावट में दिक्षा अंगीकार की एवं श्री पुण्यश्रीजी महाराज की शिष्या महा सति श्री राजकंवरजी म. बनी। आपने पालीताणा में सं.१९८२ में मासक्षमण ___ आपका जन्म सं० १९८१ में मिरजापुर में हुआ। किया । एवं १८-१६-१५-११-६ उपवास आदि किये। पिता श्री सुलतानमलजी मूथा, माता उमरावबाई । आपके दिव्य प्रभा श्रीजी एक विनोद श्रीजी नामक पति का नाम श्री रूपचन्दजी सुराणा। दीक्षा सं० शिष्याएं हैं। २०१२ कार्तिक शु० १० को अजमेर में हुई। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास २१७ जैन जगत के श्रद्धय श्री पूज्य जी आचार्य श्री जिनविजयसेनसूरिजी, दिल्ली . आचार्य श्री जिन विजयेन्द्रसूरिजी, बीकानेर आचार्य श्री जिन धरणेन्द्रसूरिजी, जयपुर यति श्री हेमचन्द्रजी, बडौदा maravanbhandar com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अमण-सौरभ २१३ DISHMID-MITHILDRENIDHINID ALAUD CID RID OTHUSIA INDIIDUIDAIIDATIDIIO HISSIOTHISRUMinodmanmp dirurmy DUDHINDHITDaily प्राचार्य श्री पूज्य श्री जिन विजय सेन सरिजी, दिल्ली आप खरतर गच्छीय भट्टारक श्री रंग मरि शाखा सेन सूरि जी के नाम से प्रख्यात हुए । लखनऊ गादी के वर्तमान पट्ट घर आचार्य हैं। रंग कुछ दिन पश्चात् श्री पूज्य श्री जिनविजय सेन मूरि शाखा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पृष्ठ १०६-१० सूरि ने यतियों के साथ अजमेर की यात्रा की। वहाँ पर लिखा जा चुका है। दादागुरू श्री जिनदत्त सूरिजी के दर्शनादि से निवृत प्राचार्य मी जिनरत्न सूरिजी के शिष्य श्री जिन होकर लाखन कोठरी अजमेर के उपाश्रय में पधारे विजय सेन मुरिजी हुए। प्रापका जन्म उदयपुर यह उपाश्रय परम्परागत मापके गुरूदेव श्री जिनरत्न (मेवाड़) प्रान्त के ओसवाल वंश में हुआ। आपका मूरिजी के अधिकार में था, पर अब उपेक्षा के कारण मूल नाम मोतीलाल था। पापके पिता का नाम एक रतन लाल चोपड़ा नामक व्यक्ति के प्रबन्ध में हरषचन्द और माता का नाम रूपा देवी था। जयपुर प्रागया था। उन्होंने श्री पूज्य जी के प्रवेश में निवास: सेठ गणेशलाल जी श्रीमाल वैराठी की आपत्ति-पूर्वक बाधा डाली। किन्तु वे यतिवर्य श्री प्ररेणा और उदयपुर के यति श्री सूर्यमल जी के रामपाल जी जैसे मन्त्र शास्त्री के चमत्कारिक प्रभाव प्रबल प्रभाव से माता पिता ने ४ वर्ष की अवस्था में से मातंकित होकर नत-मस्तक हो गये और वहाँ के ही इन्हें समर्पित कर दिया। ये उन्हें श्रीपूज्य श्री उपासनादि कार्य तथा विधि सम्पन्न कराये। अजमेर से श्री पूज्य जी दिल्ली पधारे। यहाँ कटरा खुशहाल जिन रत्न सूरिजी के पास जयपुर ले आये। कुछ समय तक आपका लालन-पालन वैराठी जी के घर राय में जैन पोसाल में पहला चौमासा किया। चार चौमासे फिर जयपुर में ही किये । सरलता, सौजन्यता, पर जयपनों ही हुआ और तदनन्तर आप की दीक्षा सदाचार, सौभ्यभाव आपके विशिष्ट गुण है। प्राचीन शिक्षा यतिवयं श्री सूर्यमल जी की छत्रछाया में सम्पन्न तत्वों का संरक्षण, नवीन तथ्यों का संग्रह और प्राचार्य श्री जिन रस्न सरिजी के स्वर्गवास के सम्वर्धन, जैन सस्कृति और स्थापत्य कला के प्रतीक पश्चात् मोतीलालजा का उत्तरदायित्व श्री समलजी मदिरों का जीर्णोद्धार, शिला लेखों का अन्वेषण, जी पर ही रहा। किन्तु दुर्भाग्यवश यति श्री सूर्यमलजी सुधार-सम्मेलन, धार्मिक उत्सव आदि कार्य पापके भापके गण नायक बनाने के पूर्व ही स्वर्गस्थ हो स्वर . स्वभाव में श्रोत प्रोत से हो गये हैं हाँ एक पात गये। अवश्य कहनी पड़ती है कि यतिप्रवर श्री रामपाल जी __ जयपुर स्थान के संचालक यतिराज श्री रतनलाल जैसे कर्मवीर के सहयोग ने आप में चार चाँद और जी और उन्हीं के शिष्य दिल्ली स्थान के संचालक लगा दिया। लगा दिये है। यतिवर श्री रामपाल जी धर्म दिवाकर विद्या भषण वि. सं० २००३ पासाद सुदि १० मो को पर शाखा का सारा भार भा पड़ा। श्री संघ इन दोनों मालपुरा में दादाजी के मंदिर में ध्वज दण्ड प्रतिष्ठा सेनानियों का अनुगामी हुआ। लखनऊ में वि० सं० तया दादाजी की छत्री (स्मारक) की प्रतिष्ठा १९६८ वैसाख शु. ५ को श्री मोतीलाल जी की दीक्षा कराई । वि० सं० २०११ मार्ग शीर्ष शु. १३ बुधवार हुई और दो ही दिन पश्चात् सप्तमी को पट्टाभिषेक को नौघरा दिल्ली के मंदिर की ध्वज एण्ड प्रविष्ठा महा-महोत्सव बड़ी धूमधाम के साथ हुभा । कराई । वि० सं० २०१२ वैसाख शु०७ मी कोणी पट्टाभिषेक के पश्चात् मोतीलाल जी श्री जिन विजय- नवीन सिद्धाचल तीर्थ की प्रतिष्ठा कराई। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैन श्रमण संघ का इतिहास यह तीर्थ दिल्ली निवासी सेठ बब्बूमलनी समान प्रयास रहा। पाप ही इस सम्मेलन के प्रथम भंसाली और उनके सुपुत्र इन्द्रचन्दजी का बनाया प्रधान थे। हुआ है। आप काम्पिल्यपुर ( कम्पिला पुरी) में श्री नन्दी आपकी दिनांक ४-१२-५४ को भारत के प्रधान वर्धन सरि जी की प्रेरणा से बनवाये हुए श्री विमल मंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू जी से यतिवर्ग के साथ नाथ स्वामी के मंदिर का जीर्णोद्धार करा रहे हैं। सादर भेंट हुई। प्रधान मन्त्री ने आपके पूर्वजों को वहाँ पर प्रति वर्ष चैत्र कृष्णा ७ मी से यात्रा मेला, दिया हुआ अकबर सम्राट का फर्मान ( आज्ञा पत्र) महोत्सव का भी आयोजन आपने कराया है। इसमें जो आपके पास अबतक सुरक्षित है तथा जहाँगीर दिल्ली वाले सेठ मिठूमल जी और तत्पुत्र जवाहर श्रादि के अन्य फरमान भी सुरक्षित हैं, देखकर लाल जी राक्यान श्रीमाल का विषेश हाथ है। प्रसन्नता व्यक्त की। इसमें जैन धर्म के पवित्र दिनों आपके आज्ञामें वर्तमान में निम्न यतिवर्ग है-यति श्री में जीवहिंसा-निषेध की साम्राज्य भर के लिये घोषणा प्यारेलालजी दिल्ली, रामपालजी डालचंदजी उदयपुर है। फाल्गुण शु०५ मी वि० सं० २०१२ दिनांक ज्ञानचंदनी अजीमगंज, यति श्री चंद्रिका प्रसादजी १७-३-५६ को आपने "अखिल भारतीय जैन यति । गौतमचंदजी आदि । जी परिषद" की स्थापना कराई। जिसमें बीकानेर के श्री पूज्य श्री जिन विजयेन्द्र सरिजी और जयपुर के श्री आप श्री के ही पूर्ण प्रयास से जैन रत्नसार पूज्य श्री जिन धरणीन्द्र सरिजी का भी आपही के ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ है। श्राचार्य श्री पूज्य श्री जिन विजयेन्द्रसूरिजी महाराज, बीकानेर आप श्री बीकानेर खरतर गच्छोय वृहत भट्टारक शुक्ला दशमी को श्री संघ कृत नंदी महोत्सव पूर्वक गद्दी की सूर परम्परा में भगवान महावीर स्वामी से बीकानेर नरेश द्वारा आपको आचार्य पद-गच्छेश खरतर विरूद प्राप्तकर्ता आचार्य श्री जिन वर्धमान पद से विभूषित किया। बाद में आपश्री बीकानेर से सरि ३६३ पट्ट पर थे; उन वर्धमान सरि के बीकानेर अजीमगंज, जियागंज, भागलपुर, कलकता, नागपुर, गही के श्राप ३८ वें पट्टधर हैं । रा.पुर, बम्बई, कलिंगपोल, कुचविहार, दीमहट्टा,दारश्री जिनचारित्र सूरिजी म० के पाट पर आचार्य जिलींग, फतेहपुर, राजगढ़, चूरू, .यपुर,उदयपुर,रतलाम, हुये। वर्तमान आचार्य श्री जिनविजयेन्द्र सूरिजी ही उज्जेन, इन्दौर,वनारस,सरत,खंभात, धमतरी,भोपावर, म० का जन्म सं० १८७२ में काठियावाड़ भावनगरा। हैदराबाद, सिकोंग आदि आदि नगरों में आपने सन्न गांव में मान गांवी गोत्रीय श्री कल्याणचन्द्र अपनी मधुर शैली से भव्य जीवों को उपदेश देते जी सा. की धर्मपत्नी श्रीमति विमल (दिवाली) देवी हुए मोक्ष मार्ग के पथिक बनाया । इस साल सं० की कुक्षी रत्न से आपका जन्म हुआ। आपका २०१५ का चौमासा बापका इन्दौर शहर में होने से जन्म नाम विजयलाल (विजयचन्द भी कहते थे ) ___ जनता में प्रेम भाव एवं श्रद्धा भक्ति इतनी है कि था। सं० १९८७ बैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन अपने माना बड़े से बड़े प्राचार्य की हो। इस से सहस्त्रगणा मालपुरा ग्राम में क्षेमधाड़ शाखीय महोपाध्याय शिव- भाव भक्ति आप श्री के व्याख्यान द्वारा बनो है। आप चन्दजी गणी की परम्परा के अन्तर्गत उपा० श्री में प्रसन्नमुख रह महान गंभीरता रखनेका अद्वितीय गुण श्यामलाल जी गर्माण के पास आपने दीक्षा ली। आपका है । क्रोधमान कषाय आपके जीवन में कतई नहीं है। दीक्षा नाम विन्यपाल रक्खा । सं० १६६८ माघ यथा नाम तथा गुण आप श्री में प्राप्त होते हैं। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alooble lolle Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com