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________________ श्रमण-धम Hallline til diiiiit lite Cup D मोह तथा भय आदि की दूषित मनोवृत्तियों के साथ किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक आदि किसी भी प्रकार को पीड़ा या हानि पहुँचाना, हिंसा है। केवल पीड़ा और हानि पहुँचाना ही नहीं उसके लिए किसी भी तरह की अनुमति देना भी हिंसा है। किंबहुना, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से किसी भी प्राणी को हानि पहुँचाना हिंसा से बचना अहिंसा है महापुरुषों द्वारा आचरण में लाए गये हैं. महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन करते हैं, और स्वयं भी त्रटों में सर्व महान् हैं, अतः मुनि के श्रहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहे जाते हैं । योग-दर्शन के साधन - दाद में महाव्रत की व्याख्या के लिए ३१ वाँ सूत्र है - 'जातिदेशकालसमयान वच्छिन्ना महाव्रतम् ।' इसका भावार्थ है-जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य नियम महाव्रत कहलाते हैं । जाति द्वारा संकुचित - गौश्रादि पशु अथवा ब्राह्मण की हिंसा न करना । समय द्वारा संकुचित - देवता अथवा ब्राह्मण आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए हिंसा करना, अन्य प्रयोजन से नहीं। समय का अर्थ यहाँ प्रयोजन है । २५ पालन करना महात्रा है । इस प्रकार की संकीर्णता से रहित सब जातियों के लिए सर्वत्र, सर्वदा, सर्वथा अहिंसा, सत्य आदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जैन मुनि अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ साधक है । देश द्वारा संकुचित - गंगा, हरिद्वार आदि तीर्थ वह मन, वाणी और शरीर में से हिंसा के तत्वों को भूमि में हिंसा नकरना । निकाल कर बाहर फेंकता है, और जीवन के कण-कण काल द्वारा संकुचित - एकादशी, चतुर्दशी आदि में अहिंसा के अमृत का संचार करता है। उसका तिथियों में दिखा नहीं करना । चिन्तन करुणा से ओत-प्रोत होता है, उसका भाषण दया का रस बरसाता है, उसकी प्रत्येक शारीरिक प्रवृति में अहिंसा की झनकार निकलती है। वह अहिंसा का देवता है । हिंसा भगवती उसके लिए ब्रह्म के समान उपास्य हैं। हिंस्य और हिंसक दोनों के कारण के लिए ही वह हिंसा से निवृत्ति करता है, अहिंसा का प्रण लेता है । सब काल में सब प्रकार हिंसा और हिंसा की आधार भूमि अधिकतर भावना पर आधारित है । मन में हिंसा है तो बाहर में हिंसा हो तब भी हिंसा है, थौर हिंसा न हो तब भी हिंसा है। और यदि मन पवित्र है, उपयोग एवं विवेक के साथ प्रवृत्ति है तो बाइर में हिंसा होते हुए भी श्रहिंसा है। मन में द्वेष न हो, घृणा न हो, अपकार की भावना न हो, अपितु प्रेम हो करुणा की भावना हो, कल्याण का संकल्प हो तो शिक्षार्थ उचित ताड़ना देना, रोग निवारणार्थकटु औषधि देना सुधारार्थ या प्रायश्चित्त के लिए दण्ड देना हिंसा नहीं है । परन्तु जब ये ही द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं भय आदि की दूषित वृत्तियों से मिश्रित हों तो हिंसा हो जाती है । मन में किसी भी प्रकार का दूषित भाव लाना हिंसा है। यह दूषित भाव अपने मन में हो, अथवा संकल्प पूर्णक अपने निमित्त से किसी दूसरे के मन में पैदा किया हो, सर्वत्र हिंसा है। इस हिंसा से बचना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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