SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास H uttitucilitaticall:lisIllus Illulu III: BlushlisIllutill I l ivil Illus illulu Ill:th=IP mi IP l In ही उसे संरक्षण और प्राश्रय दिया था। राज्यारूढ कोष ग्रन्थः व्याकरण और काव्य रूप ज्ञानमन्दिर होने पर कुमारपाल ने आचार्य श्री से जैनधर्म के स्वर्णकलश के समान चार कोष प्रन्थों की आचार्य अंगीकार कर लिया और अपने सारे राज्य में अमारि- हेमचन्द्र ने रचना की है। अभिधान चिन्तामणि में घोषण करवादी। कुमारपाल आचार्य हेमचन्द्र को ६ काण्ड हैं । अमर कोष की शैली का होने पर भी अपना गुरु मान कर सदा उनका कृतज्ञ और भक्त उसकी अपेक्षा इसमें व्योठे शब्द दिये गये हैं। इस बना रहा । आचार्य श्री ने भी उसे 'परमाहेत' के पद पर दस हजार श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ टीका भी लिखी से सम्बोधित किया। कुमारपाल का राज्य प्रादर्श है। दूसरा कोष 'अनेकार्थ संग्रह' है। इसमें एक ही जैनराज्य था। शब्द के अधिक से अधिक अर्थ दिये हैं। इस पर आचार्य श्री की मुख्य २ साहित्यक रचनाएँ इन भी स्वोपज्ञ वृत्ति है। तीसरा कोष “देशी नाम माला" प्रकार हैं:-सिद्ध हैम व्याकरणः है । इसमें प्राचीन भाषा के ज्ञान हेतु देशी शब्द हैं। "सिद्ध हैम व्याकरण" के ८ अध्याय हैं । प्रथम चौथा कोष निघण्टु है जिसमें वनस्पतियों के नाम सात में संस्कृत भाषा का सम्पूर्ण व्याकरण आगया और भेदादि बताये गये हैं। यह कोष यह बताता है है और आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, कि आयुर्वेद में भी आचार्य श्री की अव्याहतगति थी। पैशाची, चूलिकाशाची और अपभ्रंश-इस षड़भाषाओं छन्दशास्त्र-पर 'छन्दोअनुशासनम् अनुपम कृति है। का व्याकरण है। काव्यानुशासनम्:-इसमें साहित्य के अंग, रूप, रस, अलंकार, गुण, दोष, रीत्त आदि का मर्मस्पर्शी ____सम्पूर्ण कृति १ लाख २५ हजार श्लोक प्रमाण विवेचन किया गया है । इस पर 'अलंकार चूडामणि, है। इस व्याकरण को रचना में आचार्य श्री की नामक स्वोपज्ञ वृत्ति है तथा अलंकार वृत्तिविवेक नाम प्रकर्षप्रतिभा का पद-पद पर परिचय मिलता है। दूसरी स्वोपज्ञ टोका भी है । ____काव्य कृतियाँ-आपने व्याकरण में आई हुई योगशास्त्रः इसका दूसरा नाम आध्यात्मोपनिषद् संस्कृत शब्दसिद्धि और प्राकृत रूपों का प्रयोगात्मक है। इस पर बारह हजार श्लोक प्रमाण स्वांपज्ञ टीका ज्ञान कराने के लिए सस्कृत द्वयाश्रय और प्राकृत है। इसमें आध्यात्मिक योग निरुपण के साथ २ द्वयाश्रय नामक दो उत्कृष्ट महाकाव्यों की आचार्य आसन, प्राणायाम, पिण्डस्थ, पदाथ श्रादि ध्यानों का श्री ने रचना की है । काव्य कला को दृष्टि से दानों निरुपण भी किया गया है। श्रेष्ठ कोटि के महामाव्य हैं। संस्कृत काब्य पर कथाग्रन्थः-समुद्र के समान विस्तृत और गम्भीर अभयतिलक गणि ने सतरह हजार पांचसौ चहोत्तर विषष्टिश् लाका पुरुष चरित्र' और 'परिशिष्टपव' श्लोक प्रमाण टोका लिखो है और प्राकृत काव्य पर आपको महान कथा कृति है। इसका परिमाण ३४ पूर्णक श ग िने चार हजार दो सौ तीस श्लोक हजार श्योक प्रमाण है। इसमें २४ तीर्थंकर, १२ प्रमाण टीका लिखी है। गुजरात के इतिहास की दृष्टि चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव, और । प्रतिवासे भी इन काव्यों का पर्याप्त महत्व है। देवों के चरित्र वणित हैं । यह महाकाव्य कहा जा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy