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________________ महाप्रभाविक जैनाचार्य ७३ SCHIUILDIVORD OIRATRAIILLIAMusalli in In HDAI IITHL Tilor Dola IIIHEWS HINDI IND OIL MOH सकता है । परिशिष्ट पर्व में भगवान महावीर से श्री चाहते तो अपनी प्रतिभा के बल पर अलग लेकर युगप्रधान वजस्वामी तक का इतिहास उल्लि- सम्प्रदाय स्थापित कर सकते थे परन्तु यह उनकी खित है । ऐतिहासिक सामग्री प्रदान करने वाला यह उदारता और निस्पृहता थी कि उन्होंने जेमधम को मुख्य प्रन्य है। ही दृढ़, स्थिायी और प्रभावशाली बनाने में ही अपनी न्यायग्रन्थः-प्रमाणमीमांपा और दा 'अयोग समस्त प्रतिभा का सदुपयोग किया । अन्त में ८४ वर्ष व्यवच्छेदिका' तथा अन्ययोग व्य ,च्छेदिका' रूप की आयु में सं० १२२६ में गुजरात की ही नहीं समस्त स्तुतियाँ आपकी दार्शनिक कृतियाँ हैं। प्राचार्य श्री भारत की यह आसाधारण विभति अमर यश को ने अपने समय तक के विकसित प्रमाण शास्त्र की छोड़कर गित हो गई। सारभूत बात लेक' प्रमाणमीमांसा की सूत्रबद्ध रचना जैन संसार और संस्कृत-प्राकृत संसार में श्राचार्य की है । न्याय प्रन्यों में इस ग्रन्थ का बड़ा महत्व है। हेमचन्द्र का यावच्चन्द्र दिवाकरौ अमर रहेगा। उदयनाचार्य ने कुसमाजाल में जिस प्रकार ईश्वर की प्राचार्य आनन्दशकर धुब्र ने कहा है:-"ई. सन् स्तति रूप में न्यायशास्त्र को गुम्फित किया है इसी १.८६ तक के वर्ष कलिकालसर्गज्ञ हेमचन्द्र के तेज तरह प्राचार्य हेम चन्द ने भी महावीर की स्तुति रुष से दैदीय्यमान है ।" जनधर्म और भारतीयसाहित्य में इनकी रचनाएँ को है श्लोकों की रचना महाकवि के इस महान ज्योतिर्धर से भारतीय साहित्य का कालिदास की शैली का स्मरण कराती है। अन्ययोग इतिहास सदा जगमगाता रहेगा। व्यच्छेदिका पर माल्लषेण सूरी ने स्याद्वादमंजरी रामचन्द्र सूरी:-श्री हेमचन्द्राचाय काव्य, न्याय नामक प्राब्जल टीका लिखी है। और व्याकरण के पारगामी विद्वान् होने से ये नीतिगन्थ में अहन्नीति आपके द्वारा रचित कही विद्यवेदी' के विशेषण से विभषित थे। सिद्धराज जाती है परन्तु इसमें सन्देह है क्योंकि यह आपकी जयसिंह ने इन्हें 'कवि कटारमल्ज' की उपाधि प्रदान प्रतिभा के अनुरूप कृति नहीं है। की थी। ___ इस प्रकार व्याकरण, काव्य, कोष छन्द, धर्म हमचन्द्राराये के शिष्यमण्डल में रामचन्द्रसूररि शास्त्र, न्यायशास्त्र, आयुर्वेद, नीति आदि विषयों पर के अतिरिक्त गुणचन्द गणी; महेन्द्रसूरि, वर्धमान गणी, आपका पूर्ण अधिकार हाने से तथा सर्वतोमुखी देव चन्द मुनी, यशश्चन्द, उदयचन्द, बालचन्द प्रनिभा के धनी होने से आपका नाम 'कलिकाल- आदि अनेक विद्वान शिष्य थे । गुणचन्द गणी दव्यासर्वज्ञ' बिल्कुल यथार्थ सिद्ध होता है। लंकार और नाट्यदर्पपण की रचना में रामचन्दसरि प्राचार्य श्री ने साहित्य सेवा के अतिरिक्त भी के सहयोगी रहे। जैनधर्म को महती प्रभावना की है। कहा जाता है महेन्द्रसूरि ने अनेकार्थ संप्रहकोश पर 'अनेकार्य कि आपने डेढ लाख मनुष्यों को जैन धर्मानुयायी कैरवाकर कौमुदी' टीका लिखी। वर्धमान गणः-- बना था। श्रीमद् राजचन्द्र ने लिखा है कि आचार्य कुमारांवहार शतक पर व्याझ्या और 'चन्द्रलेखा Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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