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________________ ३२ जैन श्रमण संघ का इतिहास ><><>------ Holi ( १ ) १ क्षेत्र - जंगल में खेती-बाड़ी के उपयोग में आने वाली धान्य भूमि को क्षेत्र कहते हैं । यह दो प्रकार का है - सेतु और केतु । नहर, कुआ आदि कृत्रिम साधनों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु कहते हैं और केवल वर्षा के प्राकृतिक जल से सींची जाने वाली भूमि को केतु । उसके लिए विष है। और तो क्या, वह अपने शरीर पर भी ममत्व भाव नहीं रख सकता । वस्त्र, पात्र, रजोहरण आदि जो कुछ भी उपकरण अपने पास रखता है, वह सब संयम यात्रा के सुचारु रूप से पालन करने के निमित्त ही रखता है, ममबुद्ध नहीं । ममत्वबुद्धि से रक्खा हुआ उपकरण जैनसस्कृति (२) वास्तु- प्राचीन काल में घर को वास्तु की भाषा में उपकरण नहीं रहता, अधिकरण हो जाता है, अनर्थ का मूल बन जाता। कितना ही अच्छा सुन्दर उपकरण हो, जैन श्रमण न उस पर मोह रखता है, न अपने पन का भाव लाता है, न उसके खोए जाने पर आर्तध्यान हीं करता है। जैन मिक्षु के पास वस्तु केवल वस्तु बनकर रहती है, वह परिग्रह नहीं बनती। क्योंकि परिग्रह का मूल मोह है, मूर्च्छा है, आसक्ति है, ममत्व है, साधक के लिए यही सबसे बड़ा परिगह है । श्राचार्य शय्यंभव दशबैका लिक सूत्र में भगवान महावीर का संदेश सुनाते हैं - 'मुच्छा परिग्गहो वृत्तो नाइपुतेण ताइणा।' आचार्य उमास्वाति कहते हैं - 'मूर्च्छा परिग्रहः ।' मूर्च्छा का अर्थ आसक्ति है। किसी भी वस्तु में, चाहे वह छोटी, बड़ी, जड, चेतन, बाह्म एवं आभ्यन्तर आदि किसी भी रूप में हो, अपनी हो या पराई हो, उसमें आसक्ति रखना, उसने बंध जाना, एवं उसके पीछे पडकर अपना आत्म विवेक खो बैठना, परिग्रह है । बाह्य वस्तुओं को परिग्रह का रूप यह मूर्च्छा ही देती है । यही सबसे बड़ा विष है । अतः जैनधर्म भिक्ष के लिए जहाँ बाह्य धन, सम्पत्ति आदि परिग्रह के त्याग का विधान करता है, वहाँ ममत्व भाव आदि अन्तरंग परिह के त्याग पर भी विशेष बल देता है । अन्तरंग परिग्रह के कहा जाता था। यह तीन प्रकार का होता है - खात, उच्छ्रित और खातोच्छित । भूमिग्रह अर्थात् तलघर को 'खात' कहते हैं। नींव खोदकर भूमि के ऊपर बनाया हुआ महल आदि ' उच्छ्रित' और भूमिगृह के ऊपर बनाया हुआ भवन 'खाताच्छ्रित' कहलाता है । ( ३ ) हिरण्य - आभूषण आदि के रूप में गढी हुई तथा बिना गढ़ी हुई चाँदी । (४) सुवर्ण - गढ़ा हुआ तथा बिना गढ़ा हुआ सभी प्रकार का स्वर्ण । हीरा, पन्ना, मोती आदि जवाहरात भी इसी में अन्तभूत हो जाते हैं । (५) धन - गुड़, आदि । (६) धान्य - चावल, गेहुँ बाजरा आदि । (७) द्विपद -- दास, दासी आदि । (८) चतुष्पद - हाथी, घोड़ा, गाय आदि पशु । (६) कुप्य धातु के बने हुए पात्र, कुरसी, मेज आदि घर-गृहस्थी के उपयोग में आने वाली वस्तुएँ | जैनश्रमण उक्त सब परिग्रहों का मन, बचन और शरीर से न स्वयं संग्रह करता है, न दुसरों से रवाता है और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है। पूर्णरूपेण असंग, अनासक्त, अकिंचन वृत्ति का धारक होता है। कौडीमात्र परिवद भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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