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श्रमण-धर्म
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यही बात साध्वि के लिये पुरुषों के सम्बन्ध में हैं। उचित पद्धति से वितरण नहीं है। किसी के पास - एक आचार्य चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत के २७ भंग सैकड़ों मकान खाली पड़े हुए है तो किसी के पास पतलाते हैं । देवता सम्बन्धीः मनुष्य-सम्बन्धी और रात में सोने के लिए एक छोटी-सी झोपडी भी नहीं तिर्यञ्च-सम्बन्धी तीन प्रकार का मैथुन है । उक्त है। किसी के पास अन्न के सैकडों कोठे भरे हुए हैं तीन प्रकार का मैथुन न मन से सेवन करना, न मन तो कोई दाने-दाने के लिए तरसता भूखा मर रहा से सेवन करवाना, न मन से अनुमोदन करना, ये है। किसी के पास संदूकों में बन्द सैंकहों तरह के मनः सम्बन्धी : भंग होते हैं । इसी प्रकार वचन के वस्त्र सड़ रहे हैं तो किसी के पास तन ढॉपने के लिए ६, और शरीर के ६, सब मिलकर २७ भंग होते हैं। भी कुछ नहीं है। आज की सुख सुविधाएँ मुट्ठी भर महाव्रती साधक को उक्त सभी भगों का निरतिचार
लोगों के पास एकत्र हो गई हैं
ही
और शेष समाज पालन करना होता है।
अभाव से ग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति ही हो अपरिग्रह महाव्रत
रही है और न आध्यात्मिक । सब भोर भुखमरी की धन, सम्पत्ति, भोग-सामग्री आदि किसी भी महाचारी जनता का सर्व ग्रास करने के लिए मुह प्रकार की वस्तुओं का ममत्व-मूलक संग्रह करना फैलाए हुए है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल परिग्रह है । जब मनुष्य अपने ही भोग के लिए स्वार्थ उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा बुद्धि में आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो यह की साधन सामग्री रहे तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन परिग्रह बहुत ही भयंकर हो उठता है। आवश्यकता एवं असहाय न रहे । भगवान महावीर का अपरिग्रहकी यह परिभाषा है कि आवश्यक वह वस्तु है, जिसके बाद ही मानव जाति का कल्याण कर सकता है, बिना मनुष्य की जीवन यात्रा, सामाजिक मर्यादा एवं भूत्री जनता के आँसू पोंछ सकता है। धार्मिक क्रिया निर्विघ्नता-पूर्वक न चल सके । अर्थात भगवान महावीर ने गृहस्थों के लिए मर्या दत जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान में अपरिग्रह का विधान किया है, परन्तु भिक्ष के लिए साधन-रूप से आवश्यक हो । जो गृहस्थ इस नीति पूर्ण अपरिग्रही होने का। भिन का जीवन एक
उत्कृष्ट धर्म जीवन है, अतः वह भी यदि परिग्रह के मार्ग पर चलते हैं, वे तो स्वयं भी सुखी रहते हैं और जाल में फँमा रहे तो क्या खाक धर्म की साधना जनता में भी सुख का प्रवाह बहाते हैं । परन्तु जब करेगा ? फिर गृहस्थ और भिक्ष में अन्तर ही क्या उक्त व्रत का यथार्थ रूप से पालन नहीं होता है ता रहेगा ? समाज में वड़ा भयंकर हाहाकार मचजाता है । आज जैन धर्म ग्रन्थों में परिग्रह के निम्न लिखित नौ समाज की जो दयनीय दशा है, उसके मूल में यही भेद किए हैं। गृहस्थ के लिए इनकी अमुक मर्यादा आवश्यकता से अधिक संग्रह का विष रहा हुआ है। करने का विधान है और भिक्ष के लिए पूर्ण रूप से माज मानव-समाज में जीवनोपयोगी सामग्री का त्याग करने का।
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