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________________ ३३ MIGHT AND CHIVOly an Ahi || P त्याग पर भी विशेष बल देता है । अन्तरग परिग्रह के मुख्य रूपेण चौदह भेद है - मिध्यात्व स्त्रीवेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, काध, मान, माया और लोभ । जैन भिक्षु का आचरण अतीव उच्चकोटि का आचरण है। उसकी तुलना आस-पास में अन्यत्र नहीं मिल सकती। वह वस्त्र, पात्र आदि उपधि भी अत्यन्त सीमित एवं संयमोपयोगी ही रखता है । अपने वस्त्र पात्रादि वह स्वयं उठा कर चलता है । संग्रह के रूप में किसी गृहस्थ के यहां जमा करके नहीं छोड़ता है । सिक्का, नोट एवं चेक आदि के रूप में किसी प्रकार को भी धन संपत्ति नहीं रख करना । जैनधर्म का प्राचीन इतिहास जैन धर्म का प्राचीन इतिहास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat libalik सकता। एक बार का लाया हुआ भोजन अधिक से अधिक तीन पहर ही रखने का विधान है, वह भी दिन में ही । रात्रि में तो न भोजन रखा जा सकता है और न खाया जा सकता है। और तो क्या, रात्रि में एक पानी की बूँद भी नहीं पी सकता । मार्ग में चलते हुए भी चार मील से अधिक दूरी तक आहार पानी नहीं लेजा सकता। अपने लिए बनाया हुआ भोजन ग्रहण करता है और न वस्त्र, पात्र, मकान आदि | वह सिर के बालों को हाथ से उखाड़ता है, लोंच करता है। जहां भी जाना होता है नंगे पैरों पैदल जाता है, किसी भी सवारी का उपयोग नहीं [ 'आदि युग' तथा तीथ कर परम्परा ] जैन वैज्ञानिकों ने समय प्रवाह (काल चक्र ) को दो विभागों में विभाजित किया है- १ उत्सर्पिणी काल २ अवसर्पिण) काल अथवा उत्कष और अपकप काल । 'चक्रनेमी-क्रम' की तरह यह संसार कभी उत्कर्ष की उत्कट पराकाष्ठा पर पहुँचता है तो कभी अपकप की चरम सीमा पर | उत्सर्पिणी ( उत्कर्ष ) काल के ६ उपविभाग हैं, इन्हें जैन दृष्टि अनुसार ६ 'आरे' कहते हैं - १ दुखमा दुखम २ दुखम ३ दुखमा सुखम ४ सुखमा दुखम ५ सुखम६ सुखमा सुखम। इस प्रकार उत्सर्पिणीकाल में यह संसार उत्तरोत्तर सुख की ओर बढ़ता हुआ छट्टो आरे में पूर्ण सुख को प्राप्त होता है जिसे वैदिक प्रणाली का सतयुग कह सकते हैं । इसी प्रकार अवसर्पिणी ( अपकर्ष ) काल के ६ आरे निम्न हैं- १ सुखमा सुखम २ सुखम ३ सुखमा दुखम ४ दुखमा सुखम ५ दुखम ६ दुखमा दुखम | · वर्तमान काल श्रसपिणी कालका ५ वाँ आरा 'दुखम' है। जैन मान्यतानुसार हर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में २४.०४ तीर्थ कर होते हैं और वे नई संघ व्वस्था करते हैं, जिसे 'तीर्थ परूपणा' कहा जाता है। इस तीर्थ में ४ पद होते हैं: - १ साधु ( श्रमण ) २ साध्वी ३ श्रावक और ४ श्राविका । इन्हें तीर्थ कहते हैं इन चार विभागों से युक्त संघ-संगठन की तीर्थ परुपणा याने तीर्थ स्थापना करने वाले को तीर्थ कर रूप पूजा जाता है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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