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________________ ३६ जैन श्रमण संघ का तहास AHINDR ही निवारण कर नवीन विवाह विधि का प्रचलन किया और स्वयं अपनी सहोदरा सुमंगला के अतिरिक्त सुनन्दा नामक अन्य कन्या से विधिवत विवाह किया। कन्या अपने सहोदर भाई के अवसान के कारण हतोत्साहित और अनाथ बन गई थी। भगवान ने अपने आदर्श गृहस्थाश्रम द्वारा जगत् को गृहस्थ-धर्म की शिक्षा दी । सुमंगला के परम तापी 'भरत' नामक पुत्र हुए। ये बड़े ही प्रतिभाशाली, और इस युग के प्रथम चक्रबर्ती हुए । इन्हीं भरत के नाम हमारा देश “भारतवर्ष” कहलाता है । सुनंदा के गर्भ से बाहुबली उत्पन्न हुए। ये महान् शूरवीर कर्मवीर और धर्मवीर थे । इन्होंने अपनी महान् तपस्या से जगत् का चमत्कृत किया था। भरत और बाहुबली सिवाय भगवान के अट्ठानवें और पुत्र थे यानि कुल सौ पुत्र और ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की २ कन्याएं थीं। भगवान ने ब्राह्मी को प्रथम लिपि का ज्ञान प्रदान किया था इसीसे "ब्राह्मी लिपि" प्रसिद्ध है । प्रजा के संगठन को सुव्यस्थित बनाने हेतु से वर्ण व्यवस्था भी उसी काल में हुई। परन्तु उनमें भी कर्म की ही प्रधानता रक्खी गई। इस प्रकार भगवान रिषभदेव ने जीवनोपयोगी साधनों के उत्पादन की, सामाजिक प्रथाओं की राजनैतिक रीति नीतियों की सामाजिक प्रथाओं आदि आवश्यक बातों की सुन्दर व्यवस्था की । इस प्रकार मानव जाति की सभी आवश्यकताओं की पूर्ण व्यवस्था कर भगवान ने आत्म कल्याण का मार्ग अपनाया। उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्रों में बांट दिया और स्वयं संसार का त्याग कर चार हजार पुरुषों के साथ भागवती दीक्षा अंगीकार कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat महान् श्रमण बन गये । एक हजार वर्ष तक कठोर आत्म साधना में लीन रहे । तपश्चर्या करते हुए ग्रामानुप्राम विचरण करते रहे । भगवान ने बारह मास तक पूर्ण निराहारी रह कठोर तपस्या की । इस कठोर साधना से उन्होंने पुरमिताल नगर केवल ज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान प्राप्त के पश्चात् भगवान ने धर्म का उपदेश दिया । उन्होंने स्त्री और पुरुष को समानता देते हुए चार तीर्थ की स्थापना की - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका । भगवान ने साधु तथा ग्रहस्थ के कर्तव्यों का उपदेश प्रदान किया उसीं आत्म कल्याण कारी मार्ग का नाम 'जैन धर्म' है । ब. तिपय लोग भगवान रिषभदेव को केवल पौराकि पुरुष मानते हैं और उनकी यथार्थता में शंका करते हैं । यह शंका निर्मूल है। भगवान रिषभदेव का उल्लेख केवल जैन ग्रन्थों में ही नहीं वरन वैचिक ग्रन्थ भागवत, वेदों और पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में भी प्राप्त है । " जैन धर्म की प्राचीनता” शीर्षक पिछले पृष्ठों में ऐसे उल्लेखों का वर्णन दिया जा चुका है । बौद्धार्य आर्यदेवने "सत्शास्त्र" में भगवान रिपभदेव को जैन धर्म का आदि प्रचार लिखा है । आचार्य धर्म कीर्ति ने भी सर्वज्ञ के उदाहरण में रिषभ और महावीर का उल्लेख किया है। धर्मपद के " उसमें पवश्वीर" पद नं० ४२० में यह उल्लेख है । इन उद्धरणों से उनकी यथार्थता में किंचित भी शंका करना निर्मूल है । मानव जाति के महान् उद्धार कर्त्ता और आदि गुरु भगवान रिषभदेव की जय हो ! जय हो !! www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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