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________________ २२ जैन श्रमण संघ का इतिहास <|||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||| होता है । वह कैसा मुनि जो क्षण-क्षण में राग-द्वेष की लहरों में बह निकले। न भूख पर नियंत्रण रख सके और न भोजन पर ।” निम्ममो निरहंकारो, निःसंगो चत्त गारवो । समो य सव्वभूएसु, तसे थावरे । लाभालाभेसुद्दे दुक्खे, जीविए मरणे तथा । समो निंदा प्रसंसा VIND CHIND TANDON 1 जीवन ही बदलना पड़ता है, जीवन का समूचा लक्ष्य हो बदलना पड़ता है । यह मार्ग फूलों का नहीं काँटों का है । नंगे पैरों जलती आग पर चलने जैसा दृश्य है साधु-जीवन का ! उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है कि - 'साधु होना लोहे के जौ चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, कपड़े के थैले को हवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तौलना है, और महा समुद्र को भुजाओं से तैरना है। इतना ही नहीं तलवार की नग्न धार पर नंगे पैरों चलना है ।' वस्तुतः साधु-जीवन इतना ही उम्र जीवन है । वीर, धीर, गम्भीर, एवं साधक ही इस दुर्गम पथ पर चल सकते हैं - 'तुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो बदिन्त ।' जो लोग कायर है, साहसहीन हैं, वासनाओं के गुलाम हैं, इन्द्रियों के चक्कर में हैं, और दिन-रात इच्छाओं की लहरों के थपेड़े खाते रहते हैं, वे भला क्यों कर इस तुर-धारा के दुर्गम पथ पर चल सकते हैं ? साधु-जीवन के लिए भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है - " साधु को ममतारहित, निरहंकार, निःसंग, नम्र और प्राणिमात्र पर समभावयुक्त रहना चाहिए। लाभ हा या हानि हो, सुख हो या दुःख हो, जीवन हो या मरण हो, निन्दा हो या प्रशंसा हो, मान हो, या अपमान हो, सर्वत्र सम रहना ही साधुता है। सच्चा मुनि न इस लोक में सक्ति रखता है और न परलोक में । यदि कोई विरोधी तेज कुल्हाड़े से काटता है या कोई भक्त शीतल एवं सुगन्धित चन्दन का लेप लगाता है, मुनि को दोनों पर एक जैसा ही समभाव रखना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat समो माणवमाणओ । अणि इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ । वासी चन्द्रकपीय, असणे अणसणे तदा ॥ - उत्तरा० १६, ८६, ६२ भगवान महावीर की वाणी के अनुसार मुनिजीवन न रागका जीवन है और न द्वेष का । वह तो पूर्ण रूपेण समभाव एवं तटस्थ वृत्ति का जीवन है । मुनी विश्व के लिये कल्याण एवं मंगल को जीवित मूर्ति है। वह अपने हृदय के कण कण में सत्य और करुणा का अपार अमृत सागर लिये भूमण्डल पर विचरण करता है, प्राणी मात्र को विश्व मैत्री का अमर सन्देश देता है । वह समता के ऊंचे आदर्शों पर विचरण करता है । अपने मन, वाणी एवं शरीर पर कठोर नियंत्रण रखता है । संसार की समस्त भोग वासनाओं से सर्वथा अलिप्त रहता है और क्रोध, मान, माया एवं लोभ को दुर्गन्ध से हजार २ कोस की दूरी से बचकर चलता है । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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