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________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास IRIDIOINDUIROID IIII HD CHITHAITD DIDIHD GIRL HIND-IIIII II DailyNTD-ATIODDIDIDIIM !itD DIDID ODilip diRIDUADAMDAN पाश्वनाथ प्रभु के महातापी पट्टधर श्री शभदनाचार्य- (वि० पूर्व ७५० वर्ष ) डॉ० फ्रेजर साहिब ने अपने इतिहास में लिखा ___ भगवान पार्श्वनाथ के प्रथम गणधर भगवान है कि "यह जैनियों के ही प्रयत्न का फल है कि शुभदत्ताचार्य हुए। श्राप पार्श्व प्रभ के हस्तदीक्षित दक्षिण भारत में नया आदर्श, साहित्य, प्राचारगणधरों में मुख्य थे। आपने ज्ञान, ध्यान, तप संयम विचार एवं नूतन भाबा शैली प्रकट हुई।" की आराधना करते हुए घाति कर्मों का क्षय कर प्रा० समुद्र सूरि-(वि० ६२६ पूर्ण ) वर्ष आपके केवल ज्ञान व केवल दर्शन प्राप्त किया । आपके हस्त समय पशु हिंसकों का विरोध कुछ तित्र रहा पर अंत दक्षित शिष्य मुनिवरदत्तजी ने हरिदत्तादि ५०० चोरों में अहिंसा की हो विजय रही। आपके विदेशो को प्रतिबोध देकर जैनधर्म में दीक्षित किया। यही नामक प्रभावशाली शिष्य हुए। आपके उपदेशों से हरिदत्त बाद में जाकर महान् प्रतापी संत हुए और प्रभावित हो अवन्ति ( उज्जैन ) पति राजा जयसेन श्री शुभदत्ताचार्य के पट्टधर हुए। के पुत्र केशीकुमार आपके पास दीक्षित हुए। आपके साथ आपके पिता व माता अनंगसन्दरी ने भी भागवती प्राचार्य हरिदत्त सूरि-(वि. पूर्व ६६ वर्ष आप दीक्षा अंगीकार की। द्वादशांगी एवं चतुर्दश पूर्व के पूर्ण ज्ञाता प्रखर पंडित बालर्षि केशी श्रमण ने अल्प काल में ही जाति थे। सावत्थी नगरी में तत्कालीन महान् यज्ञ प्रचारक स्मरण ज्ञान प्राप्त किया और थोड़े ही समय में बड़ी लोहिताचार्य के साथ राजा अदीन शत्रु की राज्य प्रसिद्धी प्राप्त कर ली। सभा में आपने शास्त्रार्थ कर "वैदिकी हिंसा हिंसा आचार्य केशी श्रमण[ वि० ५४४ वर्ष पूर्व ] जैन न भवति" का प्रबल विरोध किया। लोहित्याचार्य इतिहास में बाल ब्रह्मचारी चतुदर्श पूर्वाधर महाप्रतापी मत्यप्रेमी विद्वान थे। वे अपने १००० शिष्यों सहित प्राचार्य हरिदत्त सूरि के पास जैनधर्म में दीक्षित प्राचार्य केशी श्रमण का स्थान बड़ा ही महत्व पूर्ण है। आपके समय भारत की राजनैतिक, सामाजिक हुए । आपने महाराष्ट्र प्रान्त में जैनधर्म का प्रचार एठां धार्मिक अवस्था बड़ी छिन्न-भिन्न थी। धर्म के किया। आपको सूरिपद से विभूषित किया गया । नाम पर पोप लीला चरम सीमा पर पहुँच रही थी। इन लोहित्याचार्य की शिष्य समुदाय बाद में लाहित्य जातिवाद और ऊँच-नीच का बड़ा भेद भाव था। शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर प्राचार्य केशी श्रमणाचार्य ने समस्त श्रमण :संघ का एक हरिदत्त सूरि बंगाल कलिंग हिमालय आदि में जैन विराट सम्मेलन बुलाया और समस्त भारत में जैन धर्म का प्रचार करते हुए मुनि आर्य समुद्र को सूरि धम के प्रबल प्रचार द्वारा अहिंसा का नारा बुलंद पद प्रदान कर व्यवहार गिरी पीत पर स्वर्ग वासी करने का संदेश फरमाया । और धर्म प्रचारार्थ भौर हुए । हरीदत्त सूरि की संतान पूर्ण भारत में रही वह मुनियों को अलग २ टुकड़ियों में दशों दिशाओं में 'निर्गन्ध शाखा' कहलाई। भेजा। Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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