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________________ १०६ जैन श्रमण संघ का इतिहास MISCRIMETHINHIDDIDIINDAINIDHIRD INHIMID THIS MD-DHIRINIDAJIIINDACIDENDATINDIJAGLUIDAIHID-INDURIDIUIDIUMIDDHI ६ श्रागमिक गच्छ और वे संवेगी कहलाये। संवेगी सम्प्रदाय अपनी आदर्श जीवन-चर्या के द्वारा अत्यन्त माननीय है। इस गच्छ के उत्पादक शील गुण और देव भद्र सूरि थे। ई. सन् ११६३ में इसकी स्थापना हुई। इसके अतिरिक्त अनेक गच्छों के नाम उपलब्ध ये क्षेत्र देवता की पूजा नहीं करते। होते हैं । इस श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक महत्व पूर्ण भेद विक्रम की सोलहवीं सदी में हुआ। ७ पाश्व चन्द्र गच्छ इस समय में क्रान्तिकारी लौकाशाह ने मूर्ति पूजा का यह तपागच्छ की शाखा है। सं० १५७२ में विरोध किया और इसके फल स्वरूप स्थानकवासी पार्श्वचन्द्र तपागच्छ से अलग हुए। इन्होंने नियुक्त, सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ। भाष्य चूर्णी और छेद ग्रन्थों को प्रमाण भूत मानने ॐ स्थानकवासी सम्प्रदाय ॐ से इन्कार किया । यति अनेक हैं । इनके श्री पूज्य की स्थानकवासी जैन समाज के अथवा अमूर्तिपूजक गादी बीकानेर में हैं। जैनों के प्रेरक लोकाशाह का जन्म विक्रम संवत् ८ कडुअा मत १४८२ के लगभग हुआ था और इनके द्वारा की गई आगमिक गरछ में से यह मत निकला । इस मत धर्म क्रांति का प्रारम्भ वि० सं० १५३० के लगभग की मान्यता यह थी कि वर्तमान काल में सच्चे साध हुआ । लौकाशाह का मूलस्थान सिरोही से ७ मील नहीं दिखाई देते । कदुआ नामक गृहस्थ ने प्रागमिक दूर स्थित अरहवादा है परन्तु वे अहमदाबाद में गच्छ के हरिकीर्ति से शिक्षा पाकर इस मत का प्रचार आकर बस गये थे। अहमदाबाद के समाज में उनकी किया था । श्रावक के वेष में घूम २ कर इनने अपने बहुत प्रतिष्ठा थी। वे वहाँ के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित अनुयायी बनाये थे। सं. १५६२ या १५६४ में इसकी पुरुष थे। इनके अक्षर बहुत सुन्दर थे। उस समय संस्थापना हुई ऐसा उल्लेख मिलता है। अहमदाबाद में ज्ञानजी नामक साधुजी के भण्डार को कुछ प्रतियाँ जीर्ण-शीर्ण होगई थी अतः उनकी दूसरी संवेगी सम्प्रदाय नकल करने के लिए ज्ञानजी साधु ने लौकाशाह को ईसा की सतरहवीं में श्वेताम्बरों में जड़वाद का दी। प्रारम्भ में दशवकालिक सूत्र की प्रति उन्हें बहुत अधिक प्रचार हो गया था सर्वत्र शिथिलता मिली। उसकी प्रथम गाथा में ही धर्म का स्वरूप और निरंकुशता का राज्य जमा हुआ था। इसे दूर बताया गया है। उसे देख कर उन्हें धर्म के सच्चे करने के लिए तथा साधु जीवन की उच्च भावनाओं स्वरूप की प्रतीति हुई। उन्होंने उसकाल में पालन को पुनःप्रचलित करने के लिए मुनि मानन्द पनजी,सत्य किये जाते हुए धर्म का स्वरूप भी देखा। दोनों में विजयजी, विनयविजयजी और यशोविजयजी आदि उन्हें आकाश-पाताल का अन्तर दिखाई दिया । प्रधान पुरुषों ने बहुत प्रयत्न किये। इन प्राचार्यों का "कहां तो शास्त्र वर्णित धर्माचार का स्वरूप और कहां अनुसरण करने वालों ने केशरिया वस्त्र धारण किये आज के साघों द्वारा पाला जाता हुआ पाचार" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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