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________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास ITADIREIDOES-Tilh|0 PAID APPINKINITS FORIES KOTull iHISTOHEmoovil IDRO HIRINISPoll: VIND Kelicio Repli dus sui T ipsoill चक्र श्वरी देवी की प्रार्थना पर श्रीमाल नगर में होने आचार्य श्री स्वयं प्रभसूरिजी फी यह उत्कट जारहे एक महा यज्ञ में होमे जाने वाले सवालक्ष अभिलाषा थी कि वे एक ऐसे मिशन की स्थापना जीवों को अपने उपदेश बल से अभय दान प्रदान करें जो कि अपने प्रचार द्वारा विश्व में जैन धर्म की कराया और करीब १०००० नर नारियों को जैन विजय पराका फहरावे तथा जैन जाति की मान बनाया। उनमें से अनेक नर नारियों ने भागवती मर्यादा एकां गौरव बढ़ावे । 'जहां चाह तहां राह' दीक्षा भी अगोकार की । कई स्थानों पर जिन मंदिर की उक्ति के अनुसार प्राचार्य श्री को ऐसे ही योग्य बनवाये और जैन शासन की अपूर्व सेवा की। महापुरुष भी प्राप्त हो गये । श्रीमान और पोरवाल जाति की स्थापना कर एक समय जब कि स्वयं प्रभसूरिजी जंगल में उन्हें जैन धर्म के सत्पथ पर आरुढ़ करने का सम्पूर्ण देवी देवताओं को धर्म देशना दे रहे थे तब रत्नचूड़ अव पापही को है। विद्याधर का विमान उधर से निकल रहा था कि ओसवाल जाति संस्थापक उसको गति रुक गई । शीघ्र ही रत्नचूड़ ने इस गति अवरोध का कारण आचार्या श्री की आशातना होना महान उपकारी छट्टे पट्टधर समझ भूमि पर उतर कर आचार्य श्री स्वयप्रभसूरिजी प्राचार्य रत्न प्रभसूरिजी से क्षमा याचना की। आपका उपदेशमृत मान कर २५०० वर्ष पूर्ण जब कि भात वाममागियों के विद्याधर इतना प्रभावित हुआ कि सम्पूर्ण राज्य वैभव को त्याग करके अपने ५०० साथियों के साथ हाथों से रसातल की ओर प्रयाण कर रहा था, बेचारे आचार्य देव के पास दीक्षा स्वीकार करली। लाखों मूक पशु व्यर्थ ही धर्म के नाम पर यज्ञ की ___ रत्नचूड़ विद्याधर ने अत्यन्त विनय एवां भक्ति हिंसात्मक वेदी पर निर्दयता पूर्वाक होम कर दिये पूर्वक द्वादशांगी का अध्ययन किया: दिनों दिन जाते थे। विश्व में चारों ओर हिंसा का साम्राज्य आपकी प्रतिभा रविरश्मि के समान प्रखर तेजस्वी फैला हुआ था। जनता की त्राही त्रही की करुण " होती गई । असः स्वयंप्रभसूरि ने आपको वीर निर्वाण आत्त नादें किसी महान व्यक्ति के अवतार के लिये से ५२ में वर्ष में सूरिपद प्रदान कर आपका श्री पुकार रही थीं ऐसे ही समय में परम पूज्य जैनाचार्य रत्नप्रभसूरिजी नाम रक्खा। श्रीमद् रत्नप्रभसूरीश्वजी ने अवतीर्ण होकर दुराचारी जिस समय आचार्य रत्नप्रभसूरि ने आबू तीर्थ पाखएिडयों के माया जाल में अंध श्रद्धालु बन पर पदार्पण किया तो वहां की अधिष्ठात्री देवी ने अधर्म के गहरे गर्त में गिरते हुए लाखों मनुष्यों को आपसे मरुधर प्रदेश में विचरने की प्रार्थना की। कुमार्ग से बचाकर मानवाचित गुणों एवं सुसंस्कारों भव्य जीवों के उपकारार्थ आचार्य श्री ने भी मरुधर की आर प्रवतित बना कर "जन से महाजन" प्रदेश में विचरना स्वीकार कर लिया ए अनेकों बनाया । जिसके लिये समस्त महाजन जाति और परिषह सहन करते हुए उपकेशपुर पधारे । उपकेशनगर खास कर ओसवाल जाति आपकी चिरऋणी रहेगी। वाम मर्गियों का केन्द्र स्थान था। यहां पर मुनियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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