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________________ १८० जैन श्रमण-संघ का इतिहास प्राचार्य श्री विजयभद्र सूरीश्वरजी म. मुनिराज श्री प्रकाश विजयजी म. - आपका जन्म सं. १६३० वैशाख शु. ६ राधनपुर में हुआ सं० नाम भोगीलाल था। पिता नगर सेठ श्री उगरचन्दजी भाई । माता सूरजबेन । बीसा श्री माली जैन, मसालिया गौत्र । दीक्षा सं० १६५८ वै० शु० १५ राधनपुर । सं० १६७० मिगसर सुद १५ को पन्यास पद तथा सं० १९८६ पौष वदी ७ को आचार्य पद विभषित किये गये। आपने अपनी धर्मपत्नि के साथ सजोड़े आ० विजय सिद्धी सरिजी के प्रशिष्य पं० विनय विजयजी के पास दीक्षा अंगीकार की थी। वर्तमान में आपकी आज्ञा में करीब ४० मुनि हैं तथा ७० के करीब साध्वियां हैं । आप ी के शुभ नेश्राय में पालीताणा, आबूजी, भोयणीजी शंखेश्वरजी आदि कई तीर्थ स्थानों की यात्रार्थ बड़े बड़े विशाल छः री पालते संघ निकले हैं । अनेक प्रतिष्ठाए उपधान आदि धार्मिक कृत्य हुए हैं । आपके शिष्यों में श्री मद् विजय ॐकार संसारी नामः-श्री हजारीमलजी । जन्म तिथिःसूरीश्वर जी महाराज आचार्य हैं। वि० सं० १६६८ फाल्गुण सुदी ६ ता० २१-२-१२ श्री. श्री विजय ओंकार सरीश्वरजी म. बुद्धवार । जन्म स्थान:-झाडोली (सिरोही-मारवाड़) पिताः-श्री ताराचन्दजी। माताः-श्री सुमति बाई - आपका जन्म सं० १६८९ आसोज- शुक्ला १३ जी। जाति-पोरवाल, अग्नि गोत्र चौहान । दीक्षा:को हुआ। संसारी नाम चीनुकुमार । पिता ईश्वरलाल सं० २००१ प्रथम वैशाख सुदि ६ पालीताणा में । बडी भाई । माता कंकुबेन । बीसा श्रीमाली जैन। गुरु दीक्षा:-बोरु (गुजरात) वैशाख सुदि १४ वि० सं० आचार्य श्री विजय भद्रसरिजी। २००१ । गुरुः-राजस्थान केसरी--ज्योतिषाचार्य-आचार्य श्री पूर्णनन्द सूरिजी महाराज । आप श्री की तपस्या आपने अपने पिता के साथ झिंझुवाड़ा में सं० में विशेष रुचि है। स्वंय तथा श्री संघ से भी खूब १६६० महासुद १० के दिन दीक्षा अंगीकार की। तपस्या करवाते हैं। बड़ौत में गुरु मन्दिर की प्रतिष्ठा, पिता का मुनि नाम विलास विजयजी रक्खा गया तथा नाभा में मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया। सं० और आप उनके शिष्य ओंकार विजयजी बने । तपानु. २०१५ में आपकी प्रेरणा से पालीताणा को यात्रा ष्ठान की ओर आपका विशेष लक्ष्य रहता है । सं० संघ' गया । सं० २०१६ में पट्टी में ३८ व्यक्तियों ने २००६ मिगसर सुदी ६ को राधनपुर में पन्यास पद ब्रह्मचर्य व्रत का नियम लिया। सं० २०१० में पालेज तथा सं० २०१० महासुदी १ को मेहसाना में आ० में ज्ञान मन्दिर खोला। आपके ३ शिष्य हैं श्री नन्दन श्री विजय भद्रसरिजी के शुभ हस्त से आचार्य पद विजयजी, श्री निरंजनविजयजी तथा श्री पद्मविजयजी विभषित बने। महाराज।
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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