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________________ जैन श्रमण संघ-संगठन का प्राचीन इतिहास जैन संघ के प्ररूपक वर्तमान चौवीसी के चरम संमिलित होगये थे इसीलिये समस्त श्वेतांबर श्रमण तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी हैं। आपने विक्रम संघ श्री सुधर्मा स्वामी की परंपरा में माना जाता है। संवत् से ५०० वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ला ११ को प्रातः- केवल उपकेश गच्छ ही अपनी परम्परा भगवान कालीन शुभ वेला में केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् पार्श्वनाथ से जोड़ता है। अपने संघ की स्थापना की। इस संघ संगठन को जैन आचार्य सुधर्मा स्वामी के पश्चात् अनेक गण मान्यतानुसार 'तीर्थ प्ररुपणा' कहते हैं और इसके एवं कुल हुए जिनका विस्तृत वर्णन कल्पसूत्र की प्ररुपक को तीर्थङ्कर । तीर्थ के साध, साध्वी, श्रावक स्थिवरावली में वर्णित है। दिगंबर संप्रदाय अपनी और श्राविका ऐसे चार भेद होते हैं।। परंपरा पृथक रूप से मानता है जिसका वर्णन आगे भगवान महावीर स्वामी अपनी महान् त्यागीप्रवृत्ति से दिया जारहा है। 'निर्मन्य ज्ञात पुत्र' के नाम से प्रसिद्ध थे अतः उनके श्वेतांबर संप्रदाय के भी वे सब प्राचीन गण व समय में सोध-साध्वी को निर्मन्थ' नाम से संबोधित कुल नाम शेष हो चुके हैं । यही गण व कुल बाद में किया जाता था। इसके पश्चात् जैन मुनियों के लिये 'गच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुए। ऐसे ८४ गच्छ हुए। निम्रन्थ, श्रमण, अचेलक अनगार, भित, त्यागी, श्वेतांबर संप्रदाय के वर्तमान सभी फिरके इन्हीं ८४ ऋषि, महर्षि, माहण, मुनि, तपस्वी चातुर्यामिक, गच्छों के भेद प्रभेद हैं। पंचयामिक तथा क्षपणक आदि नाम भी प्रयुक्त निन्हव भेद । होने लगे। गणधर वंश के समान वाचक वंश भी भगवान पार्श्वनाथ को परम्परा के मुनि चातुर्याम महावीर के श्रमण संघ का एक और प्रवाह रहा के पालक थे अतः उस नाम से भी जैन श्रमण पहिचाने था जिसे युग प्रधान परंपरा भी कहते हैं। इस प्रवाह जाते रहे । भगवान ने ब्रह्मचर्य का स्वतंत्र पंचम व्रत में वे गच्छ हैं जो क्रिया भेद के मत भेदों से मूल निरुपण किया जिसे इनके साधु पंचयामिक संघ में से अलग होते रहे । इन्होंने भगवान कथित कहनाये । क्षपणक, क्षपण, क्षमण, खवण ये सब जैन सत्य का निन्हव क्रिया अर्थात् उसे छिपाकर अपने श्रमणों के पर्यायवाची शब्द हैं। भगवान महावीर के ___ मत की प्ररूपणा की भतः उन्हें निन्हव कहते हैं। ही समय में तीन मतों के साधु थेः-१ पाश्वनाथ संतानीय वीर निर्वाण से ६०६ वर्ष बाद तक ऐसे ८ निन्हव २ उपकेश गच्छ और ३ कंवला गच्छ । भगवान के ११ संप्रदायें हुई हैं। गणधर थे जिनमें २ गणधरों की वाचना एक समान (१) वी०नि० पूर्ण १४ वर्ष जमाली ने 'बहुरत' होने से गण ही थे। भगवान महावीर के निर्वाण मत चनाया। (२) वी०नि० १६ व० पू० तिष्यगुप्त ने के बाद सभी गण भगवान सुधर्मा स्वामी के गण में 'जीव प्रदेश' मत चलाया। (३) वी० नि० २१४ में Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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