SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ जैन श्रमण संघ का इतिहास 61 die || || Dilli - आषाढाचार्य अव्यक्त मत । (४) वी० नि० २२० में महागिर के पाँचवें शिष्य कौडिन्य ने 'सामुळे दक' मत चलाया। (५) वी० नि० २२८ में आयें महागिरी के शिष्य धनगुप्त के शिव्य गंगादत्त ने द्विक्रिय 'मत चलाया । ( ६ ) वी० सं- ५५४ में रोहगुप्त ने "त्रिरा शिक" मत चलाया (५) बी० सं० ५८४ में गौष्ठा माहिल ने 'अबद्धिक' मत तथा (८) वी० सं० ६०६ (वि० सं० १३६) में शिव भूति ने 'बटिक (दिगंबर) मत चलाया । ऐसा आवश्यक नियुक्ति गाथा ७७८ से ७८८ भाष्य गाथा १२५ से १४८ में बर्णन है । प्राचीनकाल के ये गच्छ भेद किसी क्रिया या सिद्धान्त भेद के द्व ेषमूलक प्रवृत्ति पर आधारित न होकर गुरु परम्परा पर ही विशेष आधारित थे और सभी जैन शासन की गौरव वृद्धि के लिये ही सतत् प्रयत्न शील रहते थे। आज की तरह सम्प्रदाय बाद के प्रचारक नहीं । बिक्रम की ११ वीं शताब्दी के पश्चात् जो गच्छ भेद हुए उन्होंने सांप्रदायिकता का रूप धारण किया और यहीं से द्वेष मूलक प्रवृत्तियों का प्रारंभ होकर जैन शासन का ह्रास काल प्रारंभ हुआ । अब हम प्राचीनकाल के मुख्य २ गच्छों के संबन्ध में संक्षिप्त वर्णन लिखते हैं । निग्रन्थ गच्छ भगवान महावीर "निर्मन्थ ज्ञात पुत्र" विशेषण से संबोधित होते थे अतः उनका साधु संघ भी निर्मन्थ कहलाया । निमन्य शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है: “न कrs निग्गंथाणं निग्गंधीणं । जे इमे अब्जन्त्ताए समणा निग्गंथा । वहरान्त" ( स्थविरावली ) निगन्धा महेसि (दशवेकालिक सूत्र ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat निर्मन्थ का अर्थ है जो बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थी से रहित हैं । बाह्य रूप में कोई वस्तु गांठ में छिपाकर नहीं रखते तथा आभ्यन्तर में पवित्र चित्त बाले । प्रिन्थ रजो हरण, मुद्दपत्ति, वस्त्र, पात्र आदि उपकरण युक्त होते हैं पर उन पर कनख नहीं रखते । कोटिक गच्छ निर्वाण की दूसरी शताब्दी में १२ वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा । निन्य साधुओं की संख्या कम होने लगी । इसके बाद सम्राट सम्प्रति के समय से पुनः जैनधर्म के प्रचार और संगठन ने जोर पकड़ा। जैन साधुओं की संख्या बढ़ने लगी । ये संगठन अपने सगठन कर्त्ता के नामों से प्रसिद्ध हुए जैसे भद्रबाहु स्वामी के शिष्य गोदास से गोदास गण, आर्य महागिरी के शिष्य उत्तर तथा बलिस्सह से बलिस्सह गण, आर्य सुदस्ति के शिष्यों से उद्देह, चारण, नेस वाडिय, मानव तथा कोटिक गच्छ की स्थापना हुई। इन सब के भिन्न २ कुल और शाखाएं भी व्यवस्थित हुई । ये सब निर्बन्ध गच्छ के नामान्तर भेद हैं । I भगवान महावीर स्वामी के आठवें पट्टधर आचार्य सुहस्ति सूरि के पांचों और बट्ट े शिष्य आर्य सुस्थित तथा श्रये सुप्रतिबद्ध ने उदय गिरी पहाडी पर कोड़वार सुरि मंत्र का जाप किया था उसीसे उनको 'कोटिक' नाम से सम्बोधित किया गया और वी० नि० सं० ३०० के करीब उनका साघु समुदाय "कोटिक गच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह निर्मान् गच्छ की ही शाखा है। www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy