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________________ श्रमण संस्कृति का स्वरूप Tillain coill itilip dilbai sil the Hi Hit Fililion i भारतीय धार्मिक जगत पर इसका बहुत बुरा प्रभाव हुआ । वर्गवाद, वर्णवाद और व्यक्तिवाद का यहीं से प्रारंभ होता है । स्व पूजा प्रतिष्ठा हेतु धर्म के नाम पर अनेक मत मतान्तर बनने लगे । इस प्रकार नये नये सम्प्रदायों का जन्म होने लगा और धीरे घरे इन सम्प्रदायों ने धर्म के असली स्वरुप को ही भुलावे में डाल दिया । मनुष्य स्व बुद्धि जीवन रह कर पर बुद्धि रहने लगा । धर्माराधना के लिये वह दूसरे पर आश्रित रहने लगा और धीरे २ वह इन सम्प्रदायों को ही असली धर्म मानने लगा | इस प्रकार वह निरन्तर धर्म के नाम पर क्रिया कांड के जाल वाले पाखंड में फंसने लगा । सामूहिक यज्ञों की वृद्धि हो जाती है, और गृह शान्ति, धन, पुत्र, राज्य विस्तार, वर्षा, आदि हर कार्य के लिये यज्ञ का ही आश्रय बताकर ब्राह्मण वर्ग ने अपनी पुरोहित वृत्ति को सदा के लिये संरक्षित बना लिया है। भारत के बर्तमान उपराष्ट्रपति महान् दार्शनिक विचारक सर राधाकृसन ने इस सम्बन्ध में कहा है “तत्कालीन यज्ञ संस्था ऐसी दुकानदारी है जिसकी आत्मा मर गई हैं और जिसमें यजमान एवं पुरोहित में सौदे होते हैं । यदि यजमान अच्छी दक्षिणा देकर बड़ा यज्ञ करता है तो उसे महान् फल प्राप्ति होना बताया जाता है और थोड़ी दक्षिणा देने पर छोटे फलकी । यह ऐसी दुकानदारी होगई है जहाँ ग्राहक को माल परखने का भी अधिकार नहीं है । राज्याश्रय होने से ब्राह्मण वर्ग ने अपनी प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिये विविध विधान कर लिये जैसे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat १६ नित्य है, इन्हें पढ़ने का वेद स्वयं प्रमाण है, ये अधिकार वाह्मणों को ही हैं ( स्त्री शूद्रौ नाधीयेताम ) इत्यादि । A ब्राह्मण संस्कृति ने यज्ञ और इश्वर के नियन्तत्व को ही धर्माराधना का मूल मंत्र माना है । इससे यह माना जाने लगा कि भगवान की जो इच्छा होगी वही होगा। इससे मनुष्य में अपने प्रति हीन भावना बनी और उसकी आत्मा शक्ति एवं पुरुषार्थ भावना को गहरा धक्का लगा । ब्राह्मण संस्कृति में व्यक्ति अपने विकास के लिये सदा पर मुखाक्षी रहा है। देवी-देवता, ईश्वर गृह नक्षत्र, आदि सैंकड़ों ऐसे तत्व हैं जो व्यक्ति के भाग्य पर नियंत्रण करते हैं। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति का विधान है कि प्रत्येक व्यक्ति अपना विकास स्वयं कर सकता है । उसकी आत्मा सर्वशक्तिमान है । वह अपने पुरुषार्थ बल पर सर्वोच्च परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति में वर्ग वाद का विशेष महत्व है । ब्राह्मण चाहे जितना ही नैतिक दृष्टि से पतित क्यों न हो तो भी वह सदा पूज्यनीय बता दिया गया है। शूद्रों और स्त्रियों के प्रति ब्राह्मण संस्कृति में घृणा के दर्शन होते हैं, जबकि जैन श्रमण संस्कृति में प्राणी मात्र के लिये आत्मवस् समझने की घोषणा की गई है। वहां तो सद् अमद् कार्यों पर ही वर्ग भेद माना गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी ने स्पष्ट फरमाया है: कम्मुणा बम्भरणो होइ, कम्मुरणा होइ खत्तिश्रो । www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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