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________________ श्रमगा-धर्म HIDHI10 111DDHILDREATERIAL INX HAT H KADHIX. MilliAZAESOHITENISTIALA सत्य नहीं है, अपितु सत्य कोमल एवं मधुर भी होना अहिंसा का स्वर गूंजता है । जैन-मुनि के लिए हँसी चाहिये । सत्य के लिए अहिंसा मूल है । अतः में भी झूठ बोलना निषिद्ध है। प्राणों पर संकट यथाथ ज्ञान के द्वाग यथार्थ रूप में अहिंसा के लिए उपस्थित होने पर भी सत्य का आश्रय नहीं छोड़ा जो कुछ विचारना, कहना एवं करना है, वही सत्य जा सकता । सत्य महाप्रती की वाणी में अविचार, है : दूसरे व्यक्ति को अपने बोध के अनुसार ज्ञान अज्ञात, क्रोध, मान, माया लाभ, परिहास आदि कराने के लिये प्रयुक हुई वाण धोखा देने वाली किसी भी विकार का अंश नहीं होना चाहिए । यही और भान्ति में डालने वाली न हो, जिससे किसी कारण है कि मुनि दूर से पशु आदि को लैंगिक दृष्टि प्राणी को पीड़ा तथा हानि न हो, प्रत्युत सब प्राणियों स अनिश्चय हाने पर सहसा कुत्ता, बैल, पुरुष आदि के उपकार के लिए हा, वहां श्रेप्ड सत्य है। जिस के रूप में निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता। ऐसे प्रसंगों वाली में प्राणियों का हिन न हो, प्रत्युत प्राणियों का पर वह कुत्ते की जाति, वल की जानि, मनुष्य की नाश ह ता वह मत्य होते हुए भी मत्य नहीं है। जाति, इत्यादि जातिपरक भाषा का प्रयोग करता है । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति द्वेष से दिल इसी प्रकार यह ज्यातिष, भन्त्र, तन्त्र आदि का भी दुखाने के लिए अन्धे को तिरस्कार के साथ अन्धा उपयोग नहीं करता । ज्योतिष आदि की प्ररूपणा में कहना है ना यह अमत्य है, क्योंकि यह एक हिंसा भी हिंसा एवं असत्य का संमिश्रण है। है। और जहाँ हिंसा है, वह सत्य भी असत्य है, जैन-मु न जब भी बोलता है, अनेकान्तवाद को क्योंकि हिमा सदा असत्य है। कुछ अविवेकी पुरुष ध्यान में रखकर बोलता है। वह 'ही' का नहीं, दूसरे के हृदय को पीड़ा पहुंचाने वाले दुर्य चन कहने भी' का प्रयोग करता है। अनेकान्तवाद का लक्ष्य में ही अपने सत्यवादी होने का गव करते हैं, उन्हें रखे विना सत्य की वास्तविक उपासना भा नहीं हो ऊपर के विवेचन पर ध्यान देना चाहिए। सकती। जिस वचन के पीछे 'स्यात्' लग जाता है। ___जन-श्रमण सत्यव्रत का पूर्णरूपेण पालन करता वह असत्य भी सत्य हो जाता है । क्योंकि एकान्त है, अतः उस हा सत्य महाव्रत कह ।ता है। वह मन, असत्य है, और अनेकान्त सत्य । स्यात् शब्द वचन और शरीर से न स्वय अपत्य का आचरण अनेकान्त का द्योतक है, अतः यह एकान्त को अनेकांत करता है, न दूसरे से करवाता है, और न कभी बनाता है, दूसरे शब्दों में कहे तो असत्य को सत्य असत्य का अनुमोदन ही करता है। इतना ही नहीं, बनाता है। प्राचार्य सिद्धसेन की दार्शनिक एवं किसी तरह का सावध वचन भी नहीं चलता है। आलंकारिक वाणी में यह म्यात् वह अमाध स्वर्णरस पापकारी वचन वालना भी अमत्य ही हैं। अधिक है, जो लोहे को साना बना देता है। 'नधास्तव बोलने में असत्य की प्राश का रहनी है, अतः जैन- स्यात्पदनान्छिता इमे, रसोपदिग्ध इव लोहधातवः ।' श्रमण अन्यन्त मितभापी होता है। उसके प्रत्येक एक आचार्य सत्य महात्रत के ३६ भंगों का वचन से स्व-पर कल्याण की भावना टपकती है, निरूपण करते है । क्रोध, लोभ, भय और हास्य इन Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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