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________________ २७ जैन श्रमण संघ का इतिहास AID ID TIRIDhupa||||1DDINDAINID MiDalitsup HD mp gitilipithiliDitDAUDDIDARATHI चार कारणों से झूठ बोला जाता है। अस्तु, उक्त (४) मिल और फैक्ट्रियों के लोभी मालिक, चार कारणों से न स्वयं मन से असत्थरण करना, जो मजदूरों को पेट-भर अन्न न देकर सबका सब न मन से दूसरों से कराना, न मन से अनुमोदन नफा स्वयं हड़प जाते हैं। करना, इस प्रकार मनोयोग के १२ भंग हो जाते हैं। (१) लोभी साहूकार, जो दूना-तिगुना सूद लेते इसी प्रकार वचन के १२ और शरीर १२, सब मिल हैं और गरीब लोगों की जायदाद आदि अपने T म महावत के ३६ भंग होते हैं। अधिकार में लाने के लिए सदा सचिन्त रहते हैं। अचौर्य महाव्रत (६) धूर्त व्यापारी, जो वस्तुओं में मिलावट करते श्रचौर्य, अस्तेय एवं अदत्तादानविरमण सब हाचत मूल्य से ज्यादा दाम लेते हैं, और कम एकार्थक है। अचौर, अहिंसा और सत्य का ही तालते हैं। विराट रूप है। केवल छिपकर या बलात्कार-पूर्वाक (७) घुसखोर न्यायाधीश तथा अन्य अधिकारी किसी व्यक्ति की वस्तु एवं धन का हरण कर लेना गण, जो वेतन पाते हुए भी अपने कर्तव्य-पालन में ही स्तेय नहीं है, जैसा कि साधारण मनुष्य समझते प्रमाद करते हैं और रिश्वत लेते हैं । हैं। अन्यायपूर्वक किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का (८) लोमी वकील, जो केवल फीस के लोभ से अधिकार हरण करना भी चोरी है। जैन-धर्म का झूठे मुकदमे लहाते हैं और जानते हुए भी निरपराध यदि हम सूक्ष्म निरीक्षण करें तो मालूम होगा कि लोगों को दण्ड दिलाते हैं । भख से तंग आकर उदरपूर्त के लिए चोरी करने वाले (६ लोभी वैद्य, जो गोगी क्ता ध्यान न रखकर निर्धन एवं असहाय व्यक्ति स्तेय पाप के उतने केवल फीस का लोभ रखते हैं और ठीक औषधि नहीं अधिक अपराधी नहीं हैं जितने कि निम्न श्रेणी के देते हैं। बड़े माने जाने वाले लोग। (१०) वे सब लोग, जो अन्याय पूर्वक किसी भी (१) अत्याचारी राजा या नेता, जो अपनी अनुचित रीति से किसी व्यक्ति का धन, वस्तु समय, प्रजा के न्यायप्राप्त राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रम और शक्ति का अपहरण एवं अपव्यय करते हैं। तथा नागरिक अधिकारों का अपहरण करता है। अहिंसा, सत्य एवं अचगैर्य व्रत की साधना करने (२) अपने को धर्म का ठेकेदार समझने वाले वालों को उक्त सब पाप व्यापारों से बचना है, संकीर्ण हृदय, समृद्धिशाली, ऊँची जाति के सवर्ण अत्यन्त सावधान से बचना है। जरासा भी यदि लोंग; भ्रान्तिवश जो नीची जाति के कहे जाने वाले कहीं चोरी का छेद होगा तो आत्मा का पतन अवश्यनिधन लोगों के धार्मिक, सामामिक तथा नागरिक भावी है । जैन-गृहस्थ भी इस प्रकार को चोरी से अधिकारों का अपहरण करते हैं। बचकर रहता है, और जन-श्रमण तो पूर्णरूप से (३) लोभी जमींदार, जो गरीब किसानों का चोरी का त्यागी होता ही है। वह मन, वचन और शोषण करते हैं, उन पर अत्याचार कर हैं। कर्म से न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है, न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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