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________________ जैन श्रमण संघ का इतिहास MID IN INDRA RANDIRHAIDEOINVADHNUpronwum SANILEMUMiroil: nuTIHANIHID-Toll son. THINND =healthies nIA य अध्ययन कर तत्कालीन जैन मन्दिरों से इन पाशा- प्रवृति के कारण समाज से भी इन्हें लाखों रुपया प्राप्त तनाओं को मिटाने का बीड़ा उठाया और उन्होंने हुआ और आज भी यतियों के पास खासी जायदादें क्रियोद्धार किया । बस यहीं से चैत्यवासियों के प्रति और लाखों की सम्पति है। समाज की श्रद्धा घटती गई और क्रियोद्धार कर्त्ता मुनियों की ओर आकर्षण बढ़ने लगा। जिनने क्रियो। समाज की श्रद्धाज्यों ज्यों इस यति समुदाय के द्वार कर चैत्यालयों में निवास करना बन्द कर प्रति कम होती गई त्यों त्यों इनका लक्ष्य भी यति पौषधशाला या उपाश्रयों में रहकर साधुवृत्ति धारण क्रियाओं की तरफ से खिंचता चला गया और कोई की वे मुनिवर्य माने जाने लगे और जिन्होंने अपना कठोरता से टोंकने वाला नियंत्रण न रहने से धीरे पूर्व वृत्ति ही प्रारंभ रक्खी वे यति या भट्टारक रूप में धीरे इनमें से कई पूर्ण रूप से गृहस्थ बन गये। स्त्री माने जाने लगे। हमसे नही जान रखने लगे-शादियां करने लगे। अब तो केवल यतियों का जैन इविहास में कम महत्व पूर्ण स्थान ___ अंगुलियों पर गिनने लायक ही ऐसे यति रह गये हैं है। नहीं; वह समय धार्मिक होडा होडीका समय जो यतिव्रत पालते हैं। था। प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने २ धर्म की गौरव वृद्धि इस यति परम्परा में भी शाखा भेद हैं जो करने में ही अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाये हुए थे। आचार्य परम्परा से पड़े हैं । इनमें मिनरंगसूरि शाखा, ऐसे समय में इस यति समुदाय ने ही अपनी चामत्का- और मंडोवरी शाखा मुख्य है। रिक प्रवृत्तियों से तथा अधिक संख्या में स्थान २ पर लखनऊ गादी के गद्दीधर आचार्य जिन राजसूरि जिन मन्दिरों का निर्माण करा कर, राजा महाराजाओं के दो शिष्य हुए आचार्य जिनरगसूरि तथा भाचार्य को प्रभावित करके, औषधोपचार, ज्योतिष, मन्त्र तत्र जिनरत्नसूरि । जिनरंगसूरि लखनऊ के गादीधर रहे विद्या आदि कई आकर्षक प्रवृत्तियों से लोगों को जैन तथा जिन रत्नसूरि ने बीकानेर में गादी स्थापित की। धर्म की ओर अधिक आकृष्ट बनाया था। इसी प्रकार इसी बीकानेर गादी पर सं० १८८१ में आ जिम हर्ष धार्मिक क्रिाएँ करना, बालकों को पढ़ाना, आदि की सूरिजो हुए जिनके दो पट्टधर बने । एक पक्षने जिन समाज हितकारी प्रवृतियां भी की, इसी से वे अबतक सौभाग्यसूरिजी को पट्टधर बनाया तो दूसरे ने जिन भी जैन समाज में पूज्यनीय बने हुए हैं। और महेन्द्रसूरि को। जिन महेन्द्रसूरि से मंडोवरी शाखा समाज भी श्री पूज्य जी, आचार्य आदि श्रद्धायुक्त चली। सं० १८६२ में मंडोवर में यह शाखा उत्पन्न विशेषणों से सम्बोधित करती है। और यही कारण हुई अतः मंडोवरी शाखा कहलाई। वर्तमान में इसके है कि विक्रम की १४ वीं सदी तक भी खरतर गच्छ श्रा पूज्य जयपुर और बनारस में रहते हैं। लखनऊ में इसी यति परम्परा की सी छाप रही। के गादी धर वर्तमान में दिल्ली निवास करते हैं। ____ इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्राह्मण वृत्ति के । समान यति समुदाय ने भी धार्मिक क्रिया काण्ड करना, वर्तमान यति समुदाय इहीं शाखा भेदों के अंग जैन मन्दिरों में सेवा पूजन करना आदि प्रवत्तियों प्रत्यंग हैं। दिगम्बर समाज में यति की ही तरह को अपना जीवनाधार बना लिया। यही नहीं इस भट्टारक होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034877
Book TitleJain Shraman Sangh ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain
PublisherJain Sahitya Mandir
Publication Year1959
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size133 MB
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